Thursday 27 August 2015

वनपर्व---ऋष्यऋृंग का चरित

     ऋष्यऋृंग का चरित

   
 फिर महारज युधिष्ठिर क्रमशः नन्दा और अपरनन्दा नाम की नदियों पर गये, हेमकूट पर्वत पर जाकर वहाँ बहुत सी अद्भुत बातें देखी। उस स्थान पर निरंतर वायु बहता रहता था और नित्य वर्षा होती थी।युधिष्ठिर ने अपने भाइयों सहित नन्दा में स्नान किया। फिर वे शीतल जलवाली अत्यंत रमणीक और पवित्र कौशिकी नदी पर गये।वहाँ लोमशजी ने कहा, 'भरतश्रेष्ठ ! यह परम पवित्र देवनदी कौशिकी है। इसके तट पर यह विश्वामित्र का आश्रम दिखायी दे रहा है। वहीं महात्मा काश्यप(विभाण्डक) का आश्रम है। महर्षि विभाण्डकके पुत्र ऋष्यश्रृंग बड़े ही तपस्वी और संयतेन्द्रिय थे। एक बार अनावृष्ट होने पर उन्होंने अपने तप के प्रभाव से वर्षा कर दी थी। वे परम तेजस्वी और समर्थ विभाण्डककुमार मृगी से उत्पन्न ह्ए थे। युधिष्ठिर ने पूछा---'भगवन् ! परम तपस्वी काश्यपनन्दन ऋष्यश्रृंग ने मृगी के उदर से कैसे जन्म लिया ? तथा अनावृष्टि होने पर उस बालक के भय से वृत्रासुर का वध करने वाले इन्द्र ने कैसे वर्षा की ?  लोमशजी बोले---'राजन् ! ब्रह्मर्षि विभाण्डक बड़े ही साधुस्वभाव और प्रजापति के समान तेजस्वी थे। उनका वीर्य अमोघ था और तपस्या के कारण अन्तःकरण शुद्ध हो गया था। एक बार वे सरोवर पर स्नान करने गये। वहाँ उर्वशी अप्सरा को देखकर जल में ही उनका वीर्य स्खलित हो गया। इतने में ही वहाँ एक प्यासी मृगी आई और वह जल के साथ उस वीर्य को भी पी गयी। इससे उसको गर्भ रह गया। वास्तव में वह एक देवकन्या थी। किसी कारण से ब्रह्माजी ने उसे शाप देते हुए कहा था कि 'तू मृगजाति में जन्म लेकर एक मुनिपुत्र को उत्पन्न करेगी, तब शाप से छूट जायगी।' विधि का विधान अटल है, इसी से महामुनि ऋष्यश्रृंग उस मृगी के पुत्र हुए। वे बड़े तपोनिष्ठ थे और सर्वदा वन में ही रहा करते थे। उनके सिर पर एक सिंग था इसी से वे ऋष्यश्रृंग नाम से प्रसिद्ध हुए। उन्होंने अपने पिता के सिवा किसी और मनुष्य को नहीं देखा था, इसलिये उनका मन सर्वदा ब्रह्मचर्य में स्थित रहता था। इसी समय अंगदेश में महाराज दशरथ के मित्र राजा लोमपाद राज्य करते थे। उन्होंने किसी ब्राह्मण को कोई चीज देने की प्रतीज्ञा करके पीछे उसे निराश कर दिया था। इसी लिये ब्राह्मणों ने उनको त्याग दिया। इससे उनके राज्य में वर्षा होनी बन्द हो गयी और प्रजा में हाहाकार मच गया। तब उन्होंने तपस्वी और मनस्वी  ब्राह्मणों से पूछा, 'भूदेवों ! अब वर्षा कैसे हो, इसका कोई उपाय बताइये।' वे सब अपना-अपना मत प्रकट करने लगे। तब उनमें से एक मुनिश्रेष्ठ ने कहा, 'राजन् ! ब्राह्मण आप पर कुपित हैं, इसका आप प्रायश्चित कीजिये। ऋष्यश्रृंग नामक एक मुनिकुमार है। वे वन में ही रहते हैं और बड़े ही शुद्ध एवं सरल हैं। स्त्री जाति का तो उन्हें कोई पता ही नहीं है। उन्हें आ अपने देश में बुला लीजिये। वे यदि यहाँ आ गये तो तुरत ही वर्षा होने लगेगी।' यह सुनकर राजा लोमपाद ने ब्राह्मणों के पास जाकर अपने अपराध का प्रायश्चित कराया। उनके प्रसन्न होने पर उन्होंने अपने मंत्रियों को बुलाकर ऋष्यश्रृंग को लाने के विषय में परामर्श किया।उनसे सलाह करके उन्होंने अपने राज्य की प्रधान-प्रधान वेश्याओं को बुलाया और उनसे कहा, 'सुन्दरियों ! तुम किसी प्रकार मोहित करके और अपने में विश्वास उत्पन्न करके मुनिकुमार ऋष्यश्रृंग को मेरे राज्य में ले आओ।' तब उनमें से एक वृद्धा वेश्या ने कहा, "राजन् ! मैं तपोधन ऋष्यश्रृंग को  लाने का प्रयत्न करूँगी, परन्तु मुझे जिन-जिन सामग्रियों की आवश्यकता है उन सब को दिलाने की कृपा करें।' तब राजा का आदेश पाकर उस वृद्धा ने अपनी बुद्धि के अनुसार नौका के भीतर एक आश्रम तैयार कराया। उस आश्रम को अनेक प्रकार के फल और फूलोंवाले बनावटी वृक्षों से सजाया गया, जिनपर तरह-तरह की झाड़ियाँ और लताएँ छायी हुई थीं। वह नौकाश्रम बड़ा ही रमणीय और मन को लुभानेवाला था उसे विभाण्डक मुनि के आश्रम से थोड़ी दूर पर बँधवाकर गुप्तचरों से इस बात का पता लगवाया कि मुनिवर किस समय आश्रम से बाहर चले जाते हैं। फिर विभाण्डक मुनि की अनुपस्थिति के समय अपनी पुत्री वेश्या को सब बातें समझाकर ऋष्यश्रृंग के पास भेजा। उस वेश्या ने आश्रम में जाकर उन तपोनिष्ठ मुनिकुमार के दर्शन किये और उनसे कहा, 'मुनिवर ! यहाँ सब तपस्वी आनन्द में हैं न ? आप भी कुशल से हैं न ? तथा आपका वेदाध्ययन तो अच्छी तरह चल रहा है न ?' । ऋष्यश्रृंग ऩे कहा---आप कान्ति के कारण साक्षात् तेजपुँज के समान प्रकाशमान प्रतीत होते हैं; मैं आपको कोई वन्दनीय महानुभाव समझता हूँ। मैं पादप्रक्षालन के लिये आपको जल दूँगा तथा अपने धर्म के अनुसार कुछ फल भी भेंट करूँगा। देखिये, यह कृष्ण मृगचर्म से ढ़का हुआ कुश का आसन है; इस पर बैठ जाइये। आपका आश्रम कहाँ है ? और आप किस नाम से प्रसिद्ध हैं ? वेश्या बोली---काश्यपनन्दन ! मेरा आश्रम इस पर्वत के उस ओर यहाँ से तीन योजन की दूरी पर है। मेरा ऐसा नियम है कि मैं किसी को प्रणाम नहीं करने देता और न किसी का दिया हुआ पाद्य ही स्पर्श करता हूँ। ऋष्यश्रृंग बोले---ये भिलावे, आँवले, करूषक, इंगुदी और पिप्पली आदि पके हुए फल रखे हैं; इनमें से आप अपनी रुचि के अनुसार ग्रहण करें।लोमशजी कहते हैं---राजन् ! उस वेश्या की लड़कीने उन सब फलों को त्यागकर उन्हें अपने पास से रसीले, दर्शनीय और रुचिवर्धक पदार्थ दिये। इसके सिवा सुगन्धित मालाएँ , विचित्र और चमकीले वस्त्र तथा बढ़िया-बढ़िया शरबत भी दिये। उन्हें पाकर ऋष्यश्रृंग बड़े प्रसन्न हुए और हँसने-खेलने में उनकी प्रवृति हो गयी। इस प्रकार उनके मन में विकार का अंकुर फूटता देख वेश्या उन्हें तरह-तरह से लुभाने लगी। फिर कई बार उनकी ओर कटाक्षपात करती अग्निहोत्र का बहाना करके वहाँ से चल दी। एक मुहूर्त बीतने पर आश्रम में कश्यपनन्दन विभाण्डक मुनि आये। उन्होंने देखा कि ऋष्यश्रृंग अकेले में ध्यान सा लगाये बैठा है। उसके चित्त की स्थिति सर्वथा विपरीत हो गयी है। वह ऊपर की ओर देख-देखकर बार-बार निःश्वास छोड़ता है। उसकी ऐसी दीन दशा देखकर उन्होंने कहा, 'बेटा ! आज सायंकाल के अग्निहोत्र के लिये तुमने समिधाएँ क्यों नहीं ठीक की ? आज तुम और दिनों की तरह प्रसन्न क्यों नहीं जान पड़ते ? बताओ तो, आज यहाँ कोई आया था क्या ?' ऋष्यश्रृंग ने कहा---पिताजी ! यहाँ आश्रम में एक जटाधारी ब्रह्मचारी आया था। वह सुवर्ण के समान उज्जवल वर्ण का था। उसके नेत्र कमल के समान विशाल थे। उसकी कोयल की-सी वाणी बड़ी ही सुरीली थी। उसे देखकर मेरे मन में बहुत ही प्रीति और आसक्ति हो गयी है। उसके जाते ही मैं अचेत सा हो गया हूँ और मेरे शरीर में दाह सा होता है। मैं चाहता हूँ, जल्दी-से-जल्दी उसके पास पहुचूँ और उसे यहाँ लाकर सदा अपने साथ रखूँ। विभाण्डक बोले---बेटा ! ये तो राक्षस है। वे ऐसे ही विचित्र और दर्शनीय रूप से घूमते रहते हैं। बेटा ! तुम जिन स्वादिष्ट पेय पदार्थों की बात कहते हो, उन्हें तो दुष्ट लोग पीते हैं। ऐसा कहकर विभाण्डक मुनि ने अपने पुत्र को रोक दिया और स्वयं उस वेशया को ढ़ूँढ़ने लगे। जब तीन दिन तक उसका कोई पता न लगा तो आश्रम में लौट आये। इसके पश्चात् जब विभाण्डक मुनि फिर फल लेने के लिये गये तो वह वेश्या ऋष्यश्रृंग को फँसाने के लिये फिर आयी। उसे देखते ही ऋष्यश्रृंग बड़े हर्षित हुए और हड़बड़ाकर उसके पास दौड़ आए और उससे बोले, 'देखो, पिताजी के यहाँ आने से पहले ही हम तुम्हारे आश्रम को चलेंगे।' इस युक्ति से विभाण्डक मुनि के एकमात्र पुत्र ऋष्यश्रृंग क उन माँ-बेटी ने नाव पर चढ़ा लिया और उसे तरह-तरह से आनन्दित करती हुई अंगराज लोमपाद के पास ले आयीं। अंगराज उन्हें अपने अंतःपुर में ले गये। इतने में ही उन्होंने देखा कि सहसा वृष्टि होने लगी और सब ओर जल-ही-जल हो गया।इस प्रकार अपनी मनःकामना पूर्ण होने पर राजा लोमपाद ने उन्हें अपनी कन्या शान्ता विवाह दी। इधर जब विभाण्डक मुनि फल-फूल लेकर आश्रम में लौटे तो बहुत ढ़ूँढ़ने पर भी उन्हें अपना पुत्र दिखाई न दिया। इससे उन्हें बड़ा क्रोध हुआ और ऐसी आशंका हुई कि यह सारा षडयंत्र अंगराज का ही रचा हुआ है।अतः वे अंगाधिपति को उसके नगर और राष्ट्र सहित भष्म कर डालने के विचार से चम्पापुरी की ओर चले। मार्ग में चलते-चलते जब वे थक गये और उन्हें भूख सताने लगी तो वे ग्वालियों के सम्पत्तिशाली घोषों में आये। ग्वालों ने उनका राजाओं के समान बड़ा आदर-सत्कार किया और वहाँ उन्होंने एक रात विश्राम किया।तब गोपों ने उनकी अत्यंत आवभगत की तो उन्होंने पूछा, 'क्यों भाई ! तुम किसके सेवक हो ?'तब वे सभी ग्वालिये बोले, 'यह सब आपके पुत्र की ही सम्पत्ति है।' इस प्रकार देश-देश में सत्कार पाने से और ऐसे ही मधुर वाक्य सुनने से उनका उग्र क्रोध शान्त हो गया और वे प्रसन्नचित्त से अंगराज के पास पहुँचे। नरश्रेष्ठ लोमपाद ने विभाण्डक मुनि का विधिवत् पूजन किया। मुनि ने देखा कि स्वर्गलोक में जैसे इन्द्र रहते हैं, वैसे ही उनका पुत्र वहाँ विद्यमान है। साथ ही उन्होंने विद्युत के समान चमचमाती अपनी पुत्रवधू शान्ता को भी देखा। पुत्र को अनेकों ग्राम और घोष मिले देखकर उनका सारा क्रोध उतर गया। फिर भी जिसमें राजा लोमपाद की विशेष प्रसन्नता थी, वही काम उन्होंने किया। पुत्र को वहीं छोड़कर उन्होंने उससे कहा, 'जब तुम्हारे पुत्र हो जाय तो राजा का सब प्रकार मन रखकर वन में ही चले आना।' ऋष्यश्रृंग भी पिता की आज्ञा पालन कर फिर उन्हीं के पास चले गये। शान्ता भी सब प्रकार अपने पति के अनुकूल आचरण करनेवाली थी। वह भी वन में रहकर उनकी सेवा करने लगी। जिस प्रकार सौभाग्यवती अरुन्धती वसिष्ठ की, लोपामुद्रा अगस्त्य की और दमयन्ती नल की सेवा करती थी उसी प्रकार शान्ता ने भी अत्यन्त प्रेमपूर्वक अपने वनवासी पतिदेव की सेवा की। इस तरह कहानी बताते हुए लोमश मुनि कहते हैं कि यह पवित्र कीर्तिशाली आश्रम उन्हीं ऋष्यश्रृंग का है। इसके कारण इस समीपवर्ती विशाल सरोवर की शोभा भी बहुत बढ़ गयी है। इसमें स्नान करके तुम पवित्र हो जाओ।

No comments:

Post a Comment