Saturday 15 August 2015

आदिपर्व---ब्रह्मतेज की महिमा और विश्वामित्र का वसिष्ठ की नन्दिनी के साथ संघर्ष

ब्रह्मतेज की महिमा और विश्वामित्र का वसिष्ठ की नन्दिनी के साथ संघर्ष
गन्धर्वराज चित्ररथ के मुख से महर्षि वशिष्ठ की महिमा सुनकर अर्जुन के मन में उनके संबंध में बड़ा कौतूहल हुआ। उन्होंने महर्षि वशिष्ठ के संबंध में जानना चाहा। तब गन्धर्व ने कहा, महर्षि वशिष्ठ ब्रह्मा के मानसपुत्र हैं। उनकी पत्नी का नाम अरुन्धती है। उन्होंने अपनी तपस्या के बल से देवताओं के लिये भी अजेय काम और क्रोध पर विजय प्राप्त कर ली थी। उन्होंने अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया था इसलिये उनका नाम वशिष्ठ हुआ। विश्वामित्र के बहुत अपराध करने पर भी उन्होंने अपने मन में क्रोध नहीं आने दिया और उन्हें क्षमा कर दिया। यद्यपि विश्वामित्र ने उनके सौ पुत्रों का नाश कर दिया और वशिष्ट में बदला लेने की पूरी शक्ति थी, फिर भी उन्होंने कोई प्रतिकार नहीं किया। वे यमपुरी से भी अपने पुत्रों को ला सकते थे, परंतु क्षमावश यमराज के नियमों का उल्लंघन नहीं किया। उन्हीं को पुरोहित बनाकर इक्ष्वासुवंशी राजाओं ने पृथ्वी पर विजय प्राप्त की थी और अनेकों यज्ञ किये थे। अर्जुन के दोनो के बैर का कारण पूछने पर गन्धर्व ने बहुत प्राचीन उपाख्यान सुनाना प्रारंभ किया। कान्यकुब्ज दश में गाधि नाम के बहुत बड़े राजा थे। वे राजर्षि कुशिक के पुत्र थे। उन्हीं से विश्वामित्र का जन्म हुआ। एक बार विश्वामित्र अपने मंत्री के साथ मरुधन्व देश में शिकार खेलते-खेलते थककर वशिष्ठ के आश्रम पर आये। वशिष्ठ ने विधिपू्वक उनका स्वागत-सत्कार किया और अपनी कामधेनु नंदिनी के प्रताप से अनेकों प्रकार के भोजन द्वारा उन्हें तृप्त किया। इस आतिथ्य से विश्वामित्र को बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने महर्षि वशिष्ठ से कहा कि ब्रह्मण्,आप मुझसे दस करोड़ गौएँ या मेरा राज्य ही ले लीजिये,परतु अपनी कामधेनु नंदिनी मुझे दे दीजिये।वशिष्ठ बोले मैने यह गाय देवता, अतिथि, पितर और यक्षों के लिये रख छोड़ी है। आपके राज्य के बदले में भी यह देने योग्य नहीं है। विश्वामित्र बोले, मैं क्षत्रिय हूँ और आप ब्राह्मण। आप शान्त महात्मा हैं और तपस्या स्वाध्याय में लीन रहते हैं,आप इसकी रक्षा कैसे करेंगे।आप इसे ऐसे नहीं देंगे तो मं बलपूर्वक इसे ले जाऊँगा। वशिष्ठजी बोले ,आप बलवान क्षत्रिय हैं जो चाहे तुरंत कर सकते हैं। फिर सोच-विचार क्या है। जब विश्वामित्र नंदिनी को बलपूर्वक हँकवाकर ले जाने लगे तब वह  डकराती हुई आकर वशिष्ठजी के पास खड़ी हो गयी। वशिष्ठ ने कहा, कल्याणी, मैं तुम्हारा क्रंदन सुन रहा हूँ। विश्वामित्र तुम्हे बलपूर्वक छीनकर ले जा रहे हैं। मैं क्षमाशील ब्राह्मण हूँ, क्या करूँ लाचारी है। नंदिनी बोली, ये सब मुझे चाबुक और डंडों से पीट रहे हैं, मैं अनाथ की तरह डकरा रही हूँ। आप मेरी उपेक्षा क्यों कर रहे हैं। वशिष्ठ उसका करुण-क्रंदन सुनकर भी न क्षुब्ध हुये और न धैर्य से विचलित। नंदिनी बोली, ये सब मुझे चाबुक और डंडों से पीट रहे हैं, मैं अनाथ की तरह डकरा रही हूँ। आप मेरी उपेक्षा क्यों कर रहे हैं। वशिष्ठ उसका करुण-क्रंदन सुनकर भी न क्षुब्ध हुये और न धैर्य से विचलित। वे बोले, क्षत्रियों का बल है तेज और ब्राह्णों का क्षमा। मेरा प्रधान बल क्षमा मेरे पास है। तुम्हारी मौज हो तो जाओ। नन्दिनी ने कहा, आपने मुझे छोड़ा तो नहीं है। यदि नहीं तो बलपूर्वक मुझे कोई नहीं ले जा सकता। वशिष्ठजी बोले, कल्याणी, मैने तुझे नहीं छोड़ा। यदि तुझमें शक्ति है तो रह जा, देख तेरे बच्चे को ये लोग मजबूत रस्सी से बाँधकर लिये जा रहे हैं। वशिष्ठ की बात सुनकर नन्दिनी का सिर ऊपर उठ गया। आँखें लाल हो गयीं।वह वज्रकर्कश ध्वनि करने लगी। उसकी भीषण मूर्ति देखकर सैनिक भाग निकले। जब लोगों ने उसे फिर ले जाने की चेष्टा की, तब वह सूर्य के समान चमकने लगी। उसके रोम-रोम से मानो अंगारों की वर्षा होने लगी। उसके एक-एक अंग से अनेक सैनक उत्पन्न हो गये तथा हथियार उठाकर विश्वामित्र के एक-एक सैनिक पर पाँच- पाँच, सात-सात करके टूट पड़े। भगदड़ मच गयी। आश्चर्य तो यह था कि नन्दिनी पक्ष का कोई भी सैनिक विश्वामित्र के सैनिक पर प्राणान्तक प्रहार नहीं करता था। विश्वामित्र यह बरह्मतेज देखकर आश्चर्यचकित हो गये। अपने क्षत्रियभाव से उन्हें बड़ी ग्लानि हुई। वे उदास होकर कहने लगे,क्षत्रियबल को धिक्कार है। वास्तव मेंब्रह्मतेज बल ही सच्चा बल है। तपोबल ही प्रधान है। यह विचारकर उन्होंने अपना विशाल राज्य, सौभाग्यलक्ष्मी तथा सांसारिक सुखभोग छोड़ दिये और तपस्या करने लगे। तपस्या से सिद्धि प्राप्त करके उन्होंने सारे लोकों को अपने तेज से भर दिया। 

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