Saturday 22 August 2015

वनपर्व---दुर्योधन की दुरभिसन्धि, व्यासजी का आगमन और मैत्रेयजी का श्राप

दुर्योधन की दुरभिसन्धि, व्यासजी का आगमन और मैत्रेयजी का श्राप
जब दुरात्मा दुर्योधन को यह समाचार मिला कि विदुरजी पाण्डवोंके पास से लौट आये हैं तब उसे बड़ा दुःख हुआ। उसने अपने मामा शकुनि, कर्ण और दुःशासन को बुलाकर कहा--'पाण्डवों हितैषी एवं हमारे पिताजी के अन्तरंग मंत्री विदुर वन से लौटकर आ गये हैं। वे पिताजी को ऐसी उल्टी-सीधी समझावेंगे कि फिर से पाण्डव बुलवा लिये जायँ। उनके ऐसा करने के पहले ही आपलोग कोई ऐसी युक्ति लगावें, जिससे मेरा काम बन जाय। 'दुर्योधन का अभिप्राय समझकर कर्ण ने कहा--'हम सब कवच एवं शस्त्रास्त्र धारण करके रथ पर सवार हों और वनवासी पाण्डवों को मारने के लिये चल पड़ें। इस प्रकार पाण्डवों की मृत्यु की बात लोगों को मालूम भी नहीं होगी और हमारा कलह भी सदा के लिये समाप्त हो जायगा। जबतक पाण्डव लड़ने-भिड़ने के लिये उत्सुक नहीं हैं, असहाय हैं, तभीतक उनपर विजय प्राप्त कर लेनी चाहिये।' सभी ने एक स्वर से कर्ण की बात स्वीकार कर ली। वे सभी क्रोध के अधीन होकर रथों पर सवार हुए और पाण्डवों को मारने के लिये वन के लिये चल पड़े। जिस समय कौरव पाण्डवों का अनिष्ट करने के लिये यात्रा कर रहे थे, उसी समय महर्षि व्यास वहाँ आ पहुँचे। उन्हें अपनी दिव्यदृष्टि से कौरवों की दुर्बुद्धि का पता चल गया था। उन्होंने स्पष्टरूप से आज्ञा देकर कौरवों को वैसा करने से रोक दिया। तदनन्तर महर्षि व्यास धृतराष्ट्र के पास जाकर वे बोले--'धृतराष्ट्र ! मैं तुमलोगों के हित की बात कहता हूँ। दुर्योधन ने कपटपूर्वक जूआ खेलकर पाण्डवों को हरा दिया और उन्हें वन में भेज दिया, यह बात मुझे अच्छी नहीं लगी है। यह निश्चित है कि तेरह वर्ष के बाद कौरवों के दिये हुए कष्टों को स्मरण करके पाण्डव बड़ा उग्ररूप धारण करेंगे और वाणों की बौछार से तुम्हारे पुत्रों का ध्वंस कर डालेंगे। भला, यह कैसी बात है कि दुरात्मा दुर्योधन राज्यके लोभ से पाण्डवों को मार डालना चाहता है। मैं कहे देता हूँ कि तुम अपने लाडले बेटे को इस काम से रोक दो। वह चुपचाप बैठा रहे। यदि पाण्डवों को मार डालने की चेष्टा की तो वह स्वयं अपने प्राणों से हाथ धो बैठेगा। मेरी सम्मति तो यह है कि दुर्योधन अकेला ही वन में जाकर पाण्डवों के पास रहे। सम्भव है पाण्डवों के सत्संग से दुर्योधन का द्वेषभाव दूर होकर प्रेमभाव की जागृति हो जाय।परन्तु यह बात है बहुत कठिन, क्योंकि जन्मगत स्वभाव का बदल जाना सरल नहीं है। यदि तुम कुरुवंशियों की रक्षा और उनका जीवन चाहते हो तो तुम्हारा पुत्र दुर्योधन पाण्डवों के साथ मेल-मिलाप कर ले। धृतराष्ट्र ने कहा---'परमज्ञान सम्पन्न महर्षे! जो कुछ आप कह रहे हैं वही तो मैं भी कहता हूँ।यह बात सभी लोग जानते हैं। आप कौरवों की उन्नति और कल्याण के लिये जो सम्मति दे रहे हैं वही विदुर, भीष्म और द्रोणाचार्य भी देते हैं। यदि आप मेरे ऊपर अनुग्रह करते हैं, कुरुवंशियों पर दया करते हैं,तो आप मेरे दुष्ट पुत्र दुर्योधन को ऐसी ही शिक्षा दें।' व्यासजी ने कहा—राजन् ! थोड़ी ही देर में महर्षि मैत्रेय यहाँ आ रहे हैं। वे पाण्डवों से मिलकर अब हमलोगों से मिलना चाहते हैं। वे ही तुम्हारे पुत्र को मेल-मिलाप का उपदेश करेंगे। हाँ, इस बात की सूचना मैं दिेये देता हूँ कि वे जो कुछ कहें, बिना सोच-विचार के करना चाहिये। यदि उनकी आज्ञा का उल्लंघन होगा तो व क्रोध से शाप दे देंगे।' इतना कहकर महर्षि वेदव्यास वहाँ से रवाना हो गये। महर्षि मैत्रेय के पधारते ही धृतराष्ट्र अपने पुत्रों सहित उनकी सेवा सत्कार में लग गये। विश्राम के पश्चात् धृतराष्ट्र ने बड़ी विनय के साथ पूछा--'भगवन् ! आप कुरुजांगल देश से यहाँ तक आराम से तो आये ? पाँचों पाण्डव सकुशल तो हैं ? वे अपनी प्रतिज्ञा का पालन करना चाहते हैं अथवा नहीं ? आप कृपा करके यह तो बतलाइये कि कौरव और पाण्डवों में सदा के लिये मेल-मिलाप हो जायगा न।' मैत्रेयजीने कहा---'राजन् ! मैं तीर्थयात्रा करते-करते कुरुजांगल देश में गया था। वहाँ संयोगवश काम्यक वन में धर्मराज युधिष्ठिर से भेट हो गयी। वे आजकल जटा और मृगछाला धारण किये तपोवन में निवास कर रहे हैं। उनके दर्शन के लिये बड़े-बड़े ऋषि-मुनि आते हैं। धृतराष्ट्र ! मैने वहीं यह सुना कि तुम्हारे पुत्रों ने अज्ञानवश जूआ खेलकर उनके साथ अन्याय किया है। यह तो तुमलोगों के लिये बड़ी भयावनी बात है। वहाँ से मैं तुम्हारे पास आया हूँ, क्योंकि मैं तुमपर सदा से स्नेह और प्रेम रखता हूँ। राजन् ! यह किसी प्रकार उचित नहीं है कि तुम्हारे और भीष्म के जीवित रहते तुम्हारे पुत्र एक-दूसरे से वैर-विरोध करके मर मिटें। तुम इस घोर अन्याय की उपेक्षा क्यों कर रहे हो? तुम्हारी सभा में तुम्हारे सामने डाकुओं के समान जो अन्याय कार्य हुआ है, उससे ऋषि-मुनियों के समाज में तुम्हारी बड़ी हेठी हुई है। अब भी सभल जाओ।' इसके बाद दुर्योधन की ओर मुँह फेरकर कहा--'बेटा दुर्योधन ! मैं तुमहारे हित की बात कह रहा हूँ। तनिक समझदारी से काम लो। पाण्डवों का, कुरुवंशियों का, सारी प्रजा का और तुम्हारा भी हित तथा प्रिय इसी में है कि तुम पाण्डवों से द्रोह मत करो। वे सब-के-सब वीर, योद्धा, बलवान्, दृढ एवं नर-रत्न हैं। वे बड़े सत्यप्रतिज्ञ, आत्माभिमानी एवं राक्षसों के शत्रु हैं। वे चाहे जब जैसा रूप धारण कर सकते हैं। उनके हाथों बड़े-बड़े रक्षसों का नाश होनेवाला है और हिडिम्ब, बक, किर्मीर आदि राक्षसों को उन्होंने मार भी डाला है। जिस समय रात में वे यहाँ से जा रहे थे, किर्मीर जैसे बलवान् राक्षस को भीमसेन ने बात-की-बात में मार डाला। तुम तो जानते ही हो कि दिग्विजय के समय भीमसेन ने दस हजार हाथियों के समान बली जरासन्ध को नष्ट कर दिया। भगवान् श्रीकृष्ण उनके सम्बन्धी हैं। द्रुपद के पुत्र उनके साले हैं। पाण्डवों के साथ युद्ध में टक्कर लेनेवाला इस समय कोई नहीं है। इसलिये तुम्हे उनके साथ मेल कर लेना चाहिये। बेटा ! तुम मेरी बात मान लो। क्रोध के वश होकर अनर्थ मत करो।' जिस समय महर्षि मैत्रेय इस प्रकार कह रहे थे, उस समय दुर्योधन मुस्कुराकर पैर से जमीन कुरेदने और अपनी सूँडके समान जाँघ पर हाथ से ताल ठोंकने लगा। दुर्योधन की यह उद्दण्डता देखकर मैत्रेयजी ने उसे श्राप देने का विचार किया। किसी का क्या वश है। विधाता की ऐसी ही इच्छा थी। उन्होंने जल स्पर्श करके दुरा्मा दुर्योधन को शाप दिया---'मूर्ख दुर्योधन ! तू मेरा तिरस्कर करता है और मेरी बात नहीं मानता। ले तू इस अभिमान का फल चख। तेरे इस द्रोह के कारण कौरवों और पाण्डवों में घोर युद्ध होगा। उसमें भीमसेन गदा की चोट से तेरी जाँघ तोड़ डालेंगे।' महर्षि मैत्रेय के ऐसा कहने पर धृतराष्ट्र उनके चरणों पर गिरकर अनुनय-विनय करने लगे। उन्होंने कहा--'भगवन् ! ऐसी कृपा कीजिये जिससे यह शाप न लगे।' मैत्रेयजी ने कहा--'राजन् ! यदि तुम्हारा पुत्र पाण्डवों से मेल कर लेगा तब तो मेरा शाप नहीं लगेगा, नहीं तो अवश्य लगेगा।' तदनन्तर महर्षि मैत्रेय ने वहाँ से प्रस्थान किया। दुर्योधन भी भीमसेन के किर्मीर-वध सम्बन्धी पराक्रम को सुनकर उदास मुँह से वहाँ से चला गया। 

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