धृष्टधुम्न और द्रुपद की बातचीत,पाण्डवों
की परीक्षा और परिचय
धृष्टधुम्न पाण्डवों
के इतना निकट बैठा था कि वह उनकी बातें तो सुन ही रहा था, द्रौपदी को देख भी रहा था।
उसके कर्मचारी भी उसके साथ ही थे। वहाँ की सब बात देखसुनकर वह अपने पिता द्रुपद के
पास पहुँचा। द्रुपद उस समय कुछ चिन्तित हो रहे थे। उन्होंने अपने पुत्र धृष्टधुम्न
को देखते ही पूछा, बेटा, द्रौपदी कहाँ गयी, उसे ले जानेवाले कौन हैं। धृष्टधुम्न ने
उनलोगों का पीछा करते समय जो देखा उसपर अपना आकलन करते हुये कहा, मुझे मालूम होता है
कि अग्निदाह से बचे पाण्डवों ने ही मेरी बहिन को प्राप्त किया है। धृष्टधुम्न की बात
से राजा द्रुपद को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने तुरंत उनका परिचय प्राप्त करने के लिये
अपने पुरोहित को भेजा। पुरोहित ने पाण्डवों के पास जाकर कहा कि आपलोग चिरंजीवी हों।
पांचालराज द्रुपद ने आशीर्वादपूर्वक आपलोगों का परिचय जानना चाहा है। वीर युवकों महाराज
द्रुपद के मन में यह चिरकालीन अभिलाषा थी कि नररत्न अर्जुन ही मेरी पुत्री का पाणिग्रहण
करें। उन्होंने मेरे द्वारा यह संदेश भेजा है कि यदि भगवत्कृपा से मेरी लालसा पूर्ण
हुई हो तो बड़े आनंद की बात है।इस संबंध से मेरा यश, पुण्य और हित होगा।युधिष्ठिर की
आज्ञा से भीमसेन ने पुरोहितजी का आदर सत्कार किया,वे आनंद से बैठ गये और पूजा स्वीकार
की। युधिष्ठिर ने कहा, भगवन् राजा द्रुपद ने स्वयंवर करके अपनी पुत्री का विवाह करने
का निश्चय किया था, यह क्षत्रिय धर्म के अनुकूल ही था। स्वयंवर करने का उद्देश्य किसी
व्यक्ति के साथ विवाह करना तो नहीं था। इस वीर ने उनके नियमों का पालन करते हुए भरी
सभा में उनकी पुत्री को प्राप्त किया है। अब राजा द्रुपद को पछताने की कोई आवश्यकता
नहीं है। इसके द्वारा उनकी चिरकालीन अभिलाषा भी तो पूर्ण हो सकती है। जिस समय धर्मराज
युधिष्ठिर इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय राजा द्रुपद के दरबार से दूसरा मनुष्य वहाँ
आया। उसने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा कि महाराज द्रुपद ने आपलोगों के भोजन के लिये रसोई
तैयार करा ली है।आपलोग नित्य-कर्म से निवृत होकर राजकुमारी कृष्णा के साथ वहाँ चलिये।
सुन्दर घोड़ों से जुते रथ आपलोगों के लिये खड़े हैं। धर्मराज युधिष्ठिर ने माता कुन्ती
और द्रौपदी को एक रथ में बैठाया और पाँचों भाई पाँच विशाल रथ में बैठकर राजभवन के लिए
रवाना हुए। राजा द्रुपद ने पाण्डवों की प्रवृति परीक्षा लेने के लिये राजमहल को अनेक
वस्तुओं से सजा दिया था।जिस समय पाण्डवों के रथ वहाँ पहुँचे,माता कुन्ती और राजकुमारी
द्रौपदी तो रनिवास में चली गयीं। राजमहल की स्त्रियों ने बड़े आदर-सत्कार के साथ उनकी
आगवानी और सम्मान किया। इधर राजा, मंत्री, राजकुमार, उनके इष्ट-मित्र, कर्मचारी और
सम्मानित पुरुष पाण्डवों के शरीर की गठन, चाल, ढाल, प्रभाव, पराक्रम आदि देखकर बहुत
आनंद के साथ उनका स्वागत करने लगे। जो बड़े ऊँचे-ऊँचे और बहुमूल्य राजोचित आसन लगाये
गये थे, उनपर पाण्डव बिना किसी हिचक के जाकर बैठ गये। दास-दासी सोने के बर्तनों में
बड़ी सज-धज के साथ सुन्दर-सुन्दर भोजन परोसने लगे और उनलोगों ने उचित रीति से सबको ग्रहण
किया। भोजन के बाद जब सब वस्तुओं को देखने-दिखाने का समय आया तब पाण्डवों ने पहले उसी
कक्ष में प्रवेश किया, जिसमें युद्ध संबंधी वस्तु रखी हुई थी। जो बड़े ऊँचे-ऊँचे और
बहुमूल्य राजोचित आसन लगाये गये थे, उनपर पाण्डव बिना किसी हिचक के जाकर बैठ गये। दास-दासी
सोने के बर्तनों में बड़ी सज-धज के साथ सुन्दर-सुन्दर भोजन परोसने लगे और उनलोगों ने
उचित रीति से सबको ग्रहण किया। भोजन के बाद जब सब वस्तुओं को देखने-दिखाने का समय आया
तब पाण्डवों ने पहले उसी कक्ष में प्रवेश किया, जिसमें युद्ध संबंधी वस्तु रखी हुई
थी। उनका यह काम देखकर सभी लोगों के मन में यह निश्चय-सा हो गया कि ये अवश्य ही पाण्डव
राजकुमार हैं। पांचालराज द्रुपद ने धर्मराज युधिष्ठिर को अलग बुलाकर कहा, आपलोग कोई
देवता तो नहीं हैं जो मेरी पुत्री को प्राप्त करने के लिये इस वेष में आये हैं। धर्मराज
युधिष्ठिर ने कहा,राजन्,आपकी अभिलाषा पूर्ण हुई, आप प्रसन्न हों। मैं महात्मा पाण्डु
का पुत्र युधिष्ठिर हूँ, मेरे चारों भाई भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव यहाँ बैठे हुए
हैं। मेरी माता कुन्ती राजकुमारी द्रौपदी के साथ रनिवास में है।
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