Tuesday 25 August 2015

वनपर्व---नैमिषारण्य, प्रयाग और गया की यात्रा तथा अगस्त्याश्रम में लोमशजी द्वारा अगस्त्-लोपामुद्रा की कथा

नैमिषारण्य, प्रयाग और गया की यात्रा तथा अगस्त्याश्रम में लोमशजी द्वारा अगस्त्-लोपामुद्रा की कथा

वीर पाण्डव अपने साथियों सहित जहाँ-तहाँ बसते हुए नैमिषारण्य क्षेत्र में पहुँचे। वहाँ गोमती में स्नान करके बहुत सा धन और गौएँ दान की। फिर उन्होंने कन्यातीर्थ, गोतीर्थ, कालकोटि और विषप्रस्थ पर्वत पर निवास कर बाहुदा नदी में स्नान किया। वहाँ से वे देवताओं की यज्ञभूमि प्रयाग में पहुँचे। यहाँ सत्यनिष्ठ  पाण्डवों ने गंगा-यमुना के संगम पर स्नान किया। इस स्थान पर रहकर वीर पाण्डवों ने बहुत तपस्या की और फिर गया पहुँचे।यहाँ गयशिर नाम का पर्वत और बेंत के वन से घिरी अति रमणीक महानदी नाम की नदी है। वहाँ पर पवित्र शिखरों वाला धरणीधर नाम का पर्वत है। उस पर्वत पर ब्रह्मसर नाम का बड़ा ही पवित्र तीर्थ है। एक बार भगवान् अगस्त्यजी भी वहाँ सूर्यपुत्र यमराज से मिलने आये थे। भगवान् शंकर का भी इस तीर्थ में नित्य-निवास है। इस देश के सैकड़ों तपोधन ब्राह्मण युधिष्ठिर के पास आये और सभा जोडकर कछ शास्त्र-चर्चा भी चलायी। उस सभा में शमठ नाम के विद्वान और संयमी ब्रह्मचारी थे। उन्होंने राजर्षि गय का चरित्र सुनाया। वे बोले---'यहाँ महाराज गय ने अनेकों पुण्य-कर्मों का अनुष्ठान किया है। उनके यज्ञ में पके हुए अन्न के सैकड़ों हजारों पर्वत लग गये थे। घी की सैकड़ों नहरें और दही की नदियाँ सी बहने लगी थीं। याचकों को खुले हाथों दान दिया जाता था। गय के ऐसे ही अनेकों यज्ञ इस सरोवर के समीप हुए हैं। इस प्रकार गयशिर क्षेत्र में यज्ञ कर युधिष्ठिर अगस्त्य-आश्रम में गये। वहाँ उनसे लोमश ऋषि ने कहा---"कुरुनन्दन ! एक बार भगवान अगस्त्य ने एक गड्ढ़े में अपने पितरों को उल्टे सिर लटकते देखकर उनसे पूछा, 'आपलोग इस प्रकार नीचे को सिर किये क्यों लटके हुए हैं ?' तब उन वेदवादी मुनियों ने कहा, 'हम तुम्हारे पितृगण हैं और संतान की आशा लगाये इस गड्ढ़े में लटके हुए हैं। बेटा अगस्त्य ! यदि तुम्हारे एक हो जाय तो इस नरक से हमारा छुटकारा हो सकता है और तुम्हें भी सद्गति मिल सकती है।' अगस्त्य बड़े तेजस्वी एवं सत्यनिष्ठ थे। उन्होंने पितरों से कहा,"पितृगण ! आप निश्चिन्त रहिये, मैं आपकी इच्छा पूर्ण करूँगा।" पितरों को इस प्रकार ढ़ाँढ़स बँधा भगवान् अगस्त्य ने विचार किया कि वंश-परम्परा का उच्छेद न हो, इसलिये विवाह करना आवश्यक है। किन्तु उन्हें कोई भी स्त्री अपने अनुरूप न जान पड़ी। तब उन्होंने विदर्भ देश के राजा के पास जाकर कहा  'राजन् ! आप अपनी पुत्री लोपामुद्रा का विवाह मुझसे कर दें।' मुनिवर अगस्त्य की यह बात सुनकर राजा के होश उड़ गये। वे न तो अस्वीकार ही कर सके और न कन्या देने का साहस ही। उन्होंने महारानी के पास जाकर उन्हें सब वृतांत सुनाकर कहा, 'प्रिये ! महर्षि अगस्त्य बड़े ही तेजस्वी हैं। वे क्रोधित हो गये तो हमें शाप की भयानक आग से भष्म कर डालेंगे। बताओ, इस विषय में तुम्हारा क्या मत है ?' तब राजा और रानी को अत्यन्त दुःखी देख लोपामुद्रा ने उनके पास आकर कहा, 'पिताजी ! मेरे लिये आप खेद न करें, मुझे अगस्त्य मुनि को सौंपकर अपनी रक्षा करें।' पुत्री की यह बात सुनकर राजा ने शास्त्रविधि से अगस्त्यजी के साथ उसका विवाह कर दिया। पत्नी मिल जाने पर अगस्त्यजी ने उससे कहा, 'देवी ! तुम इन बहुमूल्य वस्त्राभूषणों को त्याग दो।' तब लोपामुद्रा ने अपने अपने बहुमूल्य वस्त्रों को वहीं उतार दिया तथा चीर, पेड़ की छाल के वस्त्र और मृगचर्म धारण कर वह अपने पति के समान ही व्रत और नियमों का पालन करने लगी। लोपामुद्रा बड़े ही प्रेम और तत्परता से अपने पतिदेव की सेवा करती तथा भगवान् अगस्त्यजी भी अपनी भार्या के साथ बड़े प्रेम का बर्ताव रखते। इसी प्रकार बहुत समय निकल गया तो एक दिन मुनिवर अगस्त्य ने लोपामुद्रा को देखा। इस समय तप के प्रभाव से उसकी कान्ति बहुत बढ़ी हुई थी। उसकी सेवा, पवित्रता, संयम, कान्ति और रूप माधुरी ने उन्हें मुग्ध कर दिया। तब लोपामुद्रा ने कुछ सकुचाते हुए कहा, 'मुनिवर ! इसमें संदेह नहीं कि पति संतान के लिये ही पत्नी को स्वीकारता है। मेरी इच्छा है कि अपने पिता के महलों में मैं जिस प्रकार के सुन्दर वेश-भूषा से विभूषित रहती थी, वैसे ही यहाँ भी रहूँ और तब आपके साथ मेरा समागम हो। साथ ही आप भी बहुमूल्य हार और आभूषणों से विभूषित हों। हमलोग जो तप वा वस्त्र धारण किये हैं, उसे अपवित्र करना मैं नहीं चाहती। अगस्त्यजी ने कहा, 'लोपामुद्रे ! तुम्हारे पिताजी के घर में जो धन था वह न तो तुम्हारे पास है न मेरे पास है। फिर ऐसा कैसे   हो सकता है ?' लोपामुद्रा बोली, तपोधन ! इस जीवलोक में जितना धन है, उस सबको आप अपने तप के प्रभाव से एक क्षण में ही प्राप्त कर सकते हैं।' अगस्त्यजी बोले, 'ऐसा करने से तप का क्षय होगा। तुम कोई ऐसी बात बताओ, जिससे मेरा तप क्षीण न हो।' लोपामुद्रा ने कहा, 'तपोधन ! मैं आपके तप को नष्ट नहीं करना चाहती, इसलिये आप उसकी रक्षा करते हुए ही मेरी कामना पूर्ण करें। तब अगस्त्यजी बोले, सुभगे ! यदि तुमने अपने मन में ऐश्वर्य भोगने का निश्चय किया है तो तुम यहाँ रहकर इच्छानुसार धर्म का आचरण करो, मैं तुम्हारे लिये धन लाने बाहर जाता हूँ। लोपामुद्रा से ऐसा कह महर्षि अगस्त्य धन माँगने के लिये महाराज श्रुतर्वा के पास गये। राजा ने जब आगमन का कारण पूछा तो अगस्त्यजी ने कहा, 'राजन् ! मैं धन की इच्छा से आपके पास आया हूँ। अतः आपको जो धन दूसरों को कष्ट पहुँचाये बिना मिला हो, उसीमें से यथाशक्ति दीजिये। अगस्त्यजी की बात सुनकर राजा ने अपना सारा आय-व्यय का हिसाब उनके सामने रख दिया और कहा कि इसमें से आप जो धन लेना उचित समझें, वही ले लें। अगस्त्यजी ने देखा कि उस हिसाब में आय-व्यय का लेखा बराबर था। इसलिये यह सोचकर कि इसमें से थोड़ा सा भी धन लेने से प्राणियों को दुःख होगा, उन्होंने कुछ नहीं लिया। फिर वे श्रुतर्वा को साथ लेकर वध्न्श्रव के पास चले। राजा ने सारा आय-व्यय का हिसाब उनके सामने रख दिया और कहा कि इसमें से आप जो धन लेना उचित समझें, वही ले लें। अगस्त्यजी ने देखा कि उस हिसाब में आय-व्यय का लेखा बराबर था। इसलिये यह सोचकर कि इसमें से थोड़ा सा भी धन लेने से प्राणियों को दुःख होगा, उन्होंने कुछ नहीं लिया। वहाँ से धन लेने का संकल्प छोड़कर वे तीनों पुरुकुत्स के पुत्र महान् धनवान् राजा त्रस्दस्यु के पास चले। वहाँ भी आय-व्यय का जोड़ समान देखकर उन्होंने धन नहीं लिया। तब उन सब राजाओं ने आपस में विचारकरके कहा, मुनिवर ! इस समय संसार में इल्लवल नाम का दैत्य बड़ा धनवान् है। सभी इल्लवल के पास चले। इल्लवल ने हाथ जोड़कर उनका स्वागत किया और आने का कारण पूछा। अगस्त्यजी ने हँसकर कहा, 'असुरराज ! मुझे धन की बड़ी आवश्यकता है। अतः दूसरे को कष्ट पहुँचाये बिना जो न्याययुक्त धन आपको मिला हो, उस धन का कुछ भाग यथाशक्ति हमें दीजिये।' यह सुनकर इल्लवल ने कहा, 'मुनिवर ! मैं जितना धन देना चाहता हूँ, यदि आप मेरे उस मनोभाव को बता दें तो मैं आपको धन दे दूँगा।' अगस्त्यजी बोले, 'असुरराज ! तुम प्रत्येक राजा को दस हजार गौएँ और इतनी ही सुवर्ण मुद्राएँ देना चाहते हो तथा मुझे इससे दूनी गौएँ और सुवर्णमुद्रा, एक सोने का रथ और मन के समान वेगवान् दो घोड़े देने की तुम्हारी इच्छा है। तुम पता लगाकर देखो यह सामने वाला रथ सोने का ही है।'यह सुनकर दैत्य ने उन्हें बहुत सा धन दिया। उस रथ में जुते हुए विराव और सुराव नाम के घोड़े तुरंत ही संपूर्ण धन और राजाओं सहित अगस्त्यजी को उनके आश्रम पर ले आये। फिर अगस्त्यजी की आज्ञा पाकर राजालोग अपने-अपने देशों को चले गये फिर अगस्त्यजी की आज्ञा पाकर राजालोग अपने-अपने देशों को चले गये और अगस्त्यजी ने लोपामुद्रा की समस्त कामनाएँ पूर्ण की। फिर अगस्त्यजी ने पूछा, 'बताओ सहस्त्र पुत्र हों अथवा सौ-सौ के समान दस पुत्र हों ? या सहस्त्र पुत्रों के समान दस पुत्र हों ? या सहस्त्रों को परास्त कर देने वाला केवल एक पुत्र हो ?' लोपामुद्रा ने कहा, 'तपोधन ! मुझे तो सहस्त्रों की बराबरी करनेवाला एक ही पुत्र दीजिये। बहुत से अयोग्य पुरुषों से तो एक ही योग्य और विद्वान पुरुष अच्छा है।' लोपामुद्रा के गर्भाधान के पश्चात् वे वन में चले गये। उनके वन में चल जाने पर सात वर्ष तक गर्भ पेट ही में पलता रहा। जब सातवाँ वर्ष भी समाप्त हो गया तो लोपामुद्रा के गर्भ से दृढ़स्यु नाम का बड़ा ही बुद्धिमान और तेजस्वी बालक उत्पन्न हुआ। वह परम तेजस्वी था। उसका जन्म होने पर अगस्त्यजी के पितरों को उनके अभीष्ट लोक प्राप्त हो गये। तभी से पृथ्वी पर यह स्थान 'अगस्त्याश्रम' के नाम से प्रसिद्ध हुआ।  लोमश ऋषि ने इस प्रकार कथा सुनाकर कहा, 'देखो ! इसके समीप यह परमपवित्र भागीरथी प्रवाह हो रही है। बड़े-बड़े देवता और गन्धर्व भी इसका सेवन करते हैं। यह भृगुतीर्थ तीनों लोकों में प्रसिद्ध है। भगवान् श्रीराम ने भृगुनन्दन परशुराम के तेज को कुण्ठित कर दिया था। उसे उन्होंने इसी तीर्थ में स्नान करके पुनः प्राप्त किया था। इस समय तुम्हारा तेज भी दुर्योधन ने हर लिया है, सो तुम इस तीर्थ में स्नान करके उसे प्राप्त करो।


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