Friday 21 August 2015

वनपर्व---पाण्डवों का वनगमन और उनके प्रति प्रजा का प्रेम

पाण्डवों का वनगमन और उनके प्रति प्रजा का प्रेमअन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, उनके नित्यसखा नरस्वरूप नररत्न अर्जुन, उनकी लीला प्रकट करनेवाली भगवती सरस्वती और उसके वक्ता महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके आसुरी सम्पत्तियों पर विजय-प्राप्तिपूर्वक अन्तःकरण को शुद्ध करनेवाले महाभारत ग्रन्थ का पाठ करना चाहये। महात्मा पाण्डव दुरात्मा दुर्योधन आदि के दुर्व्यवहार से दुःखित और क्रोधित होकर अपने अस्त्र-शस्त्र और रानी द्रौपदी के साथ हस्तिनापुर से निकल पड़े। वे हस्तिनापुर के वर्धमानपुर के सामने वाले द्वार से निकलकर उत्तर की ओर चले। इन्द्रसेन आदि चौदह सेवक भी अपनी स्त्रियों के साथ शीघ्रगामी रथों पर सवार होकर उनके पीछे-पीछे चले। जब हस्तिनापुर की जनता को यह बात मालूम हुई तो उसके दुःख का पारावार न रहा। सब लोग शोक से व्याकुल होकर इकट्ठे हुए और निर्भयता के साथ भीष्मपितामह, आचार्य द्रोण आदि की निन्दा करने लगे। वे आपस में कहने लगे--'दुरात्मा दुर्योधन शकुनि आदि की सहायता से राज्य करना चाहता है। इसके राज्य में हम, हमारा वंश, प्राचीन सदाचार और घर द्वार भी सुरक्षित रहेंगे--इसकी आशा नहीं है। राजा पापी हो और उसके सहायक भी पापी हो तो भला कुल-मर्यादा, आचार, धर्म और अर्थ कैसे रह सकते हैं ? और उनके न रहने पर सुख की आशा ही क्या हो सकती है। दुर्योधन एक तो अपने गुरुजनों से द्वेष करता है। दूसरे वंश की मर्यादा और अपने सुहृद-संबंधियों को त्याग चुका है। ऐसे अर्थ-लोलुप, घमंडी और क्रूर के शासन में इस पृथ्वी का ही सर्वनाश निश्चित है। आओ, हम सब वहीं चलकर रहें जहाँ हमारे प्यारे महात्मा पाण्डव जाते हैं। वे दयालु, जितेन्द्रिय, यशस्वी एवं धर्मनिष्ठ हैं।' हस्तिनापुर की जनता इस प्रकार आपस में विचार करके वहाँ से चल पड़ी और पाण्डवों के पास जाकर बड़ी नम्रता से हाथ जोड़कर कहने लगी--'पाण्डवों ! आपलोगों का कल्याण हो। आपलोग हमें हस्तिनापुर में दुःख भोगने के लिये छोड़कर स्वयं कहाँ जा रहे हैं ? आपलोग जहाँ जायेंगे, वहीं हम भी चलेंगे।  जब से हमें यह बात मालूम हुई है कि कि दुर्योधन आदि ने बड़ी निर्दयता से जूए में हराकर आलोगों को वनवासी बना दिया है, तबसे हमलोग बहुत भयभीत हो गये हैं। हमें ऐसी अवस्था में छोड़कर जाना उचित नहीं है। हम आपके सेवक प्रेमी और हितैषी हैं। कहीं दुरात्मा दुर्योधन के कुराज्य में हमारा सर्वनाश न हो जाय। आप जानते ही हैं कि दुष्ट पुरुषों के साथ रहने में क्या-क्या हानियाँ हैं और सत्पुरुषों के साथ रहने में क्या-क्या लाभ हैं। जैसे सुगन्धित पुष्पों के संसर्ग से जल, तिल और स्थान सुगंधित हो जाते हैं वैसे ही मनुष्य भी भले-बुरे के संग के अनुसार भला-बुरा हो जाता है। दुष्टों के संग से मोह की वृद्धि होती है और सत्पुरुषों के साथ से धर्म की। इसलिये बुद्धिमान पुरुषों को चाहिये कि ज्ञानी, वृद्ध, दयालु, शान्त, जितेन्द्रिय और तपस्वी पुरुषों का ही संग करे। कुलीन, विद्वान और धर्म-परायण पुरुषों की सेवा और उनका सत्संगशास्त्रों के स्वाध्याय से भी बढकर है। पापी पुरुषों के दर्शन, स्पर्श, वार्तालाप करने से तथा उसके साथ बैठने से धर्म और सदाचार का नाश हो जाता है और उन्नति के स्थान पर अवनति होने लगती है। नीचों के संग से मनुष्यों की बुद्धि नष्ट हो जाती है और सत्पुरुषों के संग से वह उन्नत हो जाती है। लोक-व्यवहार में जिन वेदोक्त आचरणों की आवश्यकता है, वे सब-के-सब आपलोगों में विद्यमान हैं। इसलिये आप जैसे सत्पुरुषों के साथ ही हमलोग रहना चाहते हैं, क्योंकि इसी में हमारा कल्याण है।' प्रजा की बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा, मेरे आदरणीय प्रजाजन! वास्तव में हमलोगों में कोई गुण नहीं है, फिर भी आपलोग स्नेह और दया के वश होकर हममें गुण देख रहे हैं और उसका वर्णन कर रहे हैं। यह बड़े सौभाग्य की बात है। मैं अपने भाइयों के साथ आपलोगों से प्रार्थना करता हूँ, आप अपने प्रेम और कृपा से हमारी बात स्वीकार करें। इस समय हस्तिनापुर में पितामह भीष्म, राजा धृतराष्ट्र, महात्मा विदुर, हमारी माता कुन्ती और गान्धारी तथा हमारे सभी सगे-सम्बन्धी निवास कर रहे हैं। जैसे हमारे लिये आपलोग दुःखी हो रहे हैं, वैसे ही उनके हृदय में बड़ा शोक –बड़ी वेदना है। आपलोग हमारी प्रसन्नता के लिये वहाँ लौट जाइये और उनका पालन-पोषण एवं देख-रेख कीजिये। आपलोग बहुत दूर तक आ गये, अब आगे न चलें। मेरे जो स्वजन-संबंधी आपलोगों के पास धरोहर के रूप में रखे हुए हैं, उनके साथ प्रेम का व्यवहार करें। मैं आपलोगों से अपने हृदय की सच्ची बात कह रहा हूँ। उन लोगों की रक्षा ही सबसे बड़ा काम है। आपलोगों के वैसा करने से मुझे बड़ा सन्तोष मिलेगा और मैं उसे अपना ही सत्कार समझूँगा। जिस समय धर्मराज युधिष्ठिर ने अपनी प्रजा से यह बात कही, उस समय सब लोग बहुत दुःखी थे। पाण्डवों के गुण, स्वभाव आदि का स्मरण करके उनकी आकुलता की सीमा न रही और वे इच्छा न रहने पर भी पाण्डवों के आग्रह से लौट आये।जब पुरजन लौट गये,तब पाण्डव रथ पर सवार होकर गंगा-तट पर प्रमाण नाक बहुत बड़े बरगद के पास आये। उस समय सन्ध्या हो चली थी। वहाँ उन्होंने हाथ-मुँह धोया और केवल जलपान करके ही वह रात बितायी। उस समय बहुत से ब्राह्मण प्रेमवश पाण्डवों के आये और विभिन्न प्रकार की चर्चा करते हुए वह रात बिता दी। रात बीत गयी। पाण्डव नित्य कर्म से निवृत हुए। जब उन्होंने वन में जाने की तैयारी की, तब धर्मराज युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों से कहा, 'महात्माओं ! इस समय सारा राज्य, लक्ष्मी और सर्वस्व शत्रुओं ने छीन लिया है। हम कन्द-मूल-फल का भोजन करते हुए वन में निवास करने जा रहे हैं। वन में बड़े-बड़े विघ्न और बाधाएँ हैं। इसलिए आपलोगों को वहाँ बड़ा कष्ट होगा। इसलिए आपलोग अब अपने-अपने अभीष्ट स्थान को जायँ।' ब्राह्मणों ने कहा, 'राजन् ! प्रेम के कारण हमलोग आपके साथ रहना चाहते हैं। हमें आप अपने पास रखने की कृपा कीजिये। धर्मराज ! हमारे पालन-पोषण के संबंध में आप तनिक भी चिंता न करें; हम अपने आप अपने भोजन का प्रबंध कर लेंगे और आपके साथ वन में रहेंगे। वहाँ बड़े प्रेम से अपने इष्टदेव का ध्यान करेंगे, जप करेंगे, पूजा करेंगे; उससे आपका कल्याण होगा। वहाँ सुन्दर-सुन्दर कथाएँ सुनकर बड़े सुख से वन में विचरेंगे।' धर्मराज ने कहा, 'महात्माओं ! आपलोगों का कहना ठीक है। मैं सर्वदा ब्राह्मणों में ही रहना चाहता हूँ; परन्तु इस समय मेरे पास धन नहीं है, इसलिये लाचारी है। भला, मैं यह बात कैसे देख सकूँगा कि आपलोग स्वयं अपने भोजन का प्रबंध करें। जब धर्मराज युधिष्ठिर ने इस प्रकार शोक प्रकट किया और उदास होकर पृथ्वी पर बैठ गये, तब आत्मज्ञानी शौनक ने उनसे कहा--'राजन् ! अज्ञानी मनुष्यों के सामने प्रतिदिन सैकड़ों और हजारों शोक तथा भय के अवसर आया करते हैं, ज्ञानियों के सामने नहीं। आप जैसे सत्पुरुष ऐसे अवसरों से कर्म-बंधन में नहीं पड़ते। वे तो सर्वदा मुक्त ही रहते हैं। आपकी जैसी अटल बुद्धि जिसे प्राप्त है वह संपत्ति के नाश से, अन्न-वस्त्र के न मिलने से, घोर-से-घोर विपत्ति के समय दुःखी नहीं होता। कोई भी शारीरिक अथवा मानसिक दुःख उसे प्रभावित नहीं कर सकता। महात्मा जनक ने जगत् को शारीरिक और मानसिक दुःख से पीड़ित देखकर उसकी शान्ति के लिये यह बात कही थी। आप उनके वचन सुनिये। शरीर के दुःख के चार कारण हैं--रोग, दुःखद वस्तु का स्पर्श, अधिक परिश्रम और अभिलाषित वस्तु का न मिलना। इन निमित्तों से मन में चिंता हो जाती है और मानसिक दुःख ही शारीरिक रूप धारण कर लेता है। लोहे का गरम गोला यदि घड़े के जल में डाल दिया जाय तो वह जल भी गरम हो जाता है। वैसे ही मानसिक पीड़ा से शरीर भी व्यथित हो जाता है। इसलिये जैसे जल के द्वारा अग्नि को शान्त किया जाता है, वैसे ही ज्ञान के द्वारा मन को शान्त रखना चाहिये। मन का दुःख मिट जाने पर शरीर का दुःख भी मिट जाता है। मन के दुःखी होने का कारण है स्नेह। स्नेह के कारण ही मनुष्य विषयों में फँसता है और अनेकों प्रकार के दुःख भोगने लगता है। स्नेह के कारण ही दुःख, भय, शोक आदि विकारों की प्राप्ति होती है। जगत् में मित्र और धन का संग्रह तो करना चाहिये, परन्तु उसमें आसक्ति नहीं करनी चाहिये। विचार के द्वारा स्नेह का त्याग होता है। जैसे लोहे के भीतर प्रवेश करके आग उसका नाश कर देती है, वैसे ही प्राणियों के हृदय में प्रवेश करके तृष्णा भी उसका नाश कर देती है। धन के पैदा करने में,रक्षा करने में और खर्च करने में भी बड़ा दुःख सहना पड़ता है। यदि धन अपने पास इकट्ठा हो जाय तो वह पाले हुए शत्रु के समान है। उसको छोड़ना भी कठिन हो जाता है। धन की चिन्ता करना अपना नाश करना है। इसी से अज्ञानी सर्वदा असंतुष्ट रहते हैं और ज्ञानी संतुष्ट। धन की प्यास कभी बुझती नहीं। उसकी ओर से मुँह मोड़ लेना ही परम सुख है। सच्चा संतोष ही परम शान्ति है। युधिष्ठिर ने कहा, मैं इसलिये धन नहीं चाहता कि उसका स्वयं उपभोग करूँ। मैं तो केवल ब्राह्मणों का भरण पोषण चाहता हूँ। मेरे चित्त में धन का लोभ तनिक भी नहीं है। शौनकजी ने कहा--सचमुच इस जगत् की चाल उलटी है। आप जैसे सत्पुरुष दूसरों को खिलाये बिना स्वयं खाने-पीने में संकोच करते हैं और दुष्टलोग अपना पेट भरने के लिये दूसरों का हक भी खा जाते हैं। इन्द्रियाँ बडी बलवान् हैं, मनुष्य उसके फंदे में पड़कर ऐसा फँस जाता है कि उसे मार्ग-कुमार्ग का ज्ञान नहीं रहता। जिस समय इन्द्रिय एवं विषयों का संयोग होता है, उस समय पूर्वकालीन संस्कार मन के रूप में जागृत हो जाते हैं। अज्ञान के कारण कामनाएँ, कामनापूर्ति होने पर तृष्णा, तृष्णा के कारण अनेकों प्रकार के उचित-अनुचित कर्म होने लगते हैं। फिर तो कर्मों के अनुसार अनेक योनियों मे भटकना अनिवार्य हो जाता है। ब्रह्मा से लेकर तिनके तक जलचर, थलचर और नभचर प्राणियों में चक्कर काटना पड़ता है।


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