प्रभासक्षेत्र में पाण्डवों
की यादवों से भेंट
महाराज युधिष्ठिर समुद्र-तट के सब तीर्थों का दर्शन कर आगे बढ़ने लगे। वे सब प्रकार के सदाचार का पालन करते थे।उन्होंने भाइयों सहित सभी तीर्थों में स्नान किया। इसके पश्चात् वे गोदावरी नदी पर आये। फिर वे शूर्पारक क्षेत्र में पहुँचे। वहाँ समुद्र के कुछ अंश को पार करके वे एक प्रसिद्ध वन में आए। वहाँ से वे प्रभासक्षेत्र में आए। वहाँ स्नान और तर्पणादि करके उन्होंने देवता और पितरों को तृप्त किया। फिर बारह दिन तक केवल जल और वायु ही भक्षण करते हुए चारों तरफ अग्नि जलाकर तप किया। इसी समय भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम ने सुना कि महाराज युधिष्ठिर प्रभासक्षेत्र में उग्र तपस्या कर रहे हैं, तो वे अपने परिकरों के साथ उनके पास आये। उन्होंने देखा कि पाण्डवलोग पृथ्वी पर पड़े हुए हैं ; उनके शरीर धूल से सने हुए हैं तथा कष्टसहन के अयोग्य द्रौपदी भी महान् दुःख भोग रही है। यह देखकर वे बिलख-बिलखकर रोने लगे। महाराज युधिष्ठिर दुःख-पर-दुःख भोग रहे थे, तो भी उनका धैर्य शिथिल नहीं पड़ा था। उन्होंने बलराम, कृष्ण, प्रद्युम्न, साम्ब, सात्यकि, अनिरुद्ध तथा और सभी वृष्णिवंशियों का बड़ा आदर किया। उनसे सम्मानित होकर यादवों ने भी उनका यथोचित सत्कार किया और फिर देवता जैसे इन्द्र के चारों ओर बैठ जाते हैं, उसी प्रकार वे धर्मराज युधिष्ठिर को घेरकर बैठ गये। तदनन्तर बलदेवजी ने भगवान् श्रीकृष्ण से कहा---'श्रीकृष्ण ! देखो, धर्मराज सिरपर जटाएँ धारण करके वन में रहते हैं और वल्कल-वस्त्रों से शरीर ढ़ककर तरह-तरह के कष्ट भोग रहे हैं तथा पापात्मा दुर्योधन पृथ्वी का शासन कर रहा है। हाय ! इसके लिये पृथ्वी भी नहीं फटती। इससे अल्पबुद्धि पुरुष तो यही समझेंगे कि धर्माचरण की अपेक्षा पाप करना ही अच्छा है। ये साक्षात् धर्म के पुत्र हैं, धर्म ही इनका आधार है, सत्य से ये कभी डिगते नहीं औरनिरन्तर दान भी करते रहते हैं। इनका राज्य और सुख भले ही नष्ट हो जाय, किन्तु धर्म को छोड़कर ये कभी चैन से नहीं बैठ सकते। पापी धृतराष्ट्र ने अपने निर्दोष भतीजों को राज्य से निकाल दिया है। अब, परलोक में पितृगण के सामने वे कैसे कहेंगे कि मैने इनके साथ उचित व्यवहार किया है।देखो, अब भी उन्हें यह नहीं सूझता कि 'मैं पृथ्वी में इस प्रकार आँखों से लाचार क्यों उत्पन्न हुआ हूँ और उन्हें राजच्युत होने से अब मेरी क्या गति होगी।' भला, इन पाण्डवों का वे क्या सामना करेंगे ?महाबाहु भीम को तो शत्रुओं की सेना का संहार करने के लिये शस्त्रों की आवश्यकता नहीं है। आज यह फटे-पुराने वस्त्र पहनकर दुःख भोग रहा है। सात्यकि कहने लगे---बलरामजी ! यह समय व्यर्थ का प श्चाताप करने का नहीं है। महाराज युधिष्ठिर यद्यपि कुछ कह नहीं रहे हैं, तो भी अब आगे हमारा जो भी कर्तव्य हो वही हमें करना चाहिये। संसार में जिनके दूसरे रक्षक होते हैं, वे स्वयं काम नहीं किया करते। मेरे सहित आप, कृष्ण, प्रद्युम्न और साम्ब चुपचाप कैसे बैठे हैं ? हम तो तीनों लोकों की रक्षा कर सकते हैं ; फिर हमारे पास आकर भी ये पाण्डवलोग भाइयों सहित वन में रहें---यह कैसे हो सकता है ? आप ही अनेकों प्रकार के अस्त्र-शस्त्र और कवचादि से सन्नद्ध यादवी सेना कूच करे और उससे पराजित होकर दुर्योधन अपने भाइयों सहित यमलोक चला जाय।भगवान् श्रीकृष्ण बोले---सात्यकि ! तुम्हारी बात निःसंदेह ठीक है, किन्तु कुरुराज अपने भुजबल से न जीती हुई भूमि को लेना कभी पसंद नहीं करेंगे। महाराज युधिष्ठिर किसी इच्छा, भय अथवा लोभ से स्वधर्म का त्याग नहीं कर सकते। इसी प्रकार भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव और द्रौपदी भी काम, लोभ या भय से अपना धर्म नहीं छोड़ सकते। भीम और अर्जुन अतिरथी हैं, पृथ्वी में ऐसा कोई वीर नहीं है, जो युद्ध में इनके साथ लोहा ले सके।यह सुनकर महाराज युधिष्ठिर ने कहा---माधव ! आप जो कुछ कह रहे हैं उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। वास्तव में मेरे स्वभाव को ठीक-ठीक कृष्ण ही जानते हैं और उनके स्वरूप को यथार्थ रीति से मैं जानता हूँ।सात्यकि ! देखो, जब श्रीकृष्ण पराक्रम दिखाने का समय समझेंगे उसी समय तुम और श्रीकेशव दुर्योधन पर विजय प्राप्त कर सकोगे। अब आप सब यादव वीर अपने-अपने घरों को पधारें, आपलोग मुझसे मिलने के लिये यहाँ आये, इसके लिये मैं आपका कृतज्ञ हूँ। तब उन यादव वीरों ने बड़ों को प्रणाम किया और बालकों को हृदय से लगाया। इसके पश्चात् वे अपने-अपने घरों को चले गये तथा पाण्डवों ने तीर्थयात्रा के लिये प्रस्थान किया। पयोष्णी नदी में स्नान कर महाराज युधिष्ठिर वैदूर्य पर्वत औरनर्मदा नदी की ओर गये। वहाँ भगवान् लोमश ने समस्त तीर्थ और देवस्थानों का परिचय दिया। तब भाइयों के सहित धर्मराज अपने सुभीते और उत्साह के अनुसार उन सभी तीर्थों में गये
और वहाँ हजारों ब्राह्मणों को धन दान किया।
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