Tuesday 18 August 2015

सभापर्व---शिशुपाल का क्रोध, युधिष्ठिर का समझाना और भीष्मादि का कथन

शिशुपाल का क्रोध, युधिष्ठिर का समझाना और भीष्मादि का कथन
    चेदिराज शिशुपाल भगवान् श्रीकृष्ण की अग्रपूजा देखकर चिढ गया। उसने भरी सभा में भीष्मपितामह और धर्मराज युधिष्ठिर को धिक्कारते हुए श्रीकृष्ण को फटकारना शुरु कर दिया। उसने कहा, बड़े-बड़े महात्माओं और राजर्षियों के उपस्थित रहते राजा के समान राजोचित पूजा का पात्र कृष्ण नहीं हो सकता। महात्मा पाण्डवों ने कृष्ण की पूजा करके अपने योग्य काम नहीं किया है। पाण्डवों, अभी तुमलोग बालक हो, तुम्हें सूक्ष्म धर्म का ज्ञान नहीं है। भीष्मपितामह भी सठिया गये हैं। इनकी दृष्टि दीर्घदर्शिनी नहीं रह गयी है। भीष्म, तुम्हारे जैसे धर्मात्मा पुरुष भी जब मनमाना काम करने लगते हैं तो जगत् में अपमानित होते हैं। कृष्ण राजा नही हैं। फिर यह राजाओं में सम्मान का पात्र कैसे हो सकता है। यह आयु में भी सबसे वृद्ध नहीं हैं। इसके पिता वसुदेव अभी जीवित हैं। यदि इसे अपना सखा, हितैषी और अनुकूल समझकर तुमलोगों ने इसकी पूजा की हो तो क्या यह द्रुपद से बढकर है। यदि तुमलोग कृष्ण को आचार्य मानते हो तो भी द्रोणाचार्य की उपस्थिति में इसकी पूजा सर्वथा अनुचित है। ऋत्विज की दृष्टि से भी सबसे पहले विद्या-बयोवृद्ध भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायण की ही पूजा होनी चाहिये थी। युधिष्ठिर, इच्छामृत्यु पुरुषश्रेष्ठ भीष्मपितामह के रहते तुमने कृष्ण का पूजन कैसे किया। शास्त्रपारदर्शी वीर अश्त्थामा के सामने कृष्ण की पूजा भला किस दृष्टि से उचित हो सकती है। पाण्डवों, राजाधिराज दुर्योधन, भरतवंश के आचार्य महात्मा कृप किम्पुरुषों के आचार्य द्रुम तथा पाण्डु के समान माननीय सर्वगुणसम्पन्न भीष्मक को छोड़कर, उनकी उपस्थिति में तुमने  कृष्ण की पूजा का अनर्थ कैसे कर डाला। यह कृष्ण न ऋत्विज है, न राजा है और न ही आचार्य ही है। फिर तुमने किस कामना से इसकी पूजा की है। यदि तुम्हें कृष्ण की ही अग्रपूजा करनी थी तो इन राजाओं को, हमलोगों को बुलाकर इस प्रकार अपमान तो नहीं करना चाहिये था। हमलोग भय, लोभ आदि के कारण तुम्हे कर नहीं देते, हम तो ऐसा समझते थे कि यह सीधा-सादा धर्मात्मा मनुष्य है, यह सम्राट हो जाय तो अच्छा ही है। सो तुम इस गुणहीन कृष्ण की पूजा करके हमलोगों का तिरस्कार कर रहे हो। तुम अचानक ही धर्मात्मा के रूप में प्रख्यात हो गये। तभी तो तुमने इस धर्मच्युत की पूजा करके अपनी बुद्धि का दिवालियापन दिखलाया है। शिशुपाल ने भगवान् श्रीकृष्ण की ओर मुँह करके कहा-- कृष्ण, मैं जानता हूँ कि पाण्डव बेचारे डरपोक और तपस्वी हैं। इन्होंने यदि ठीक-ठीक नहीं समझा तो तुम्हें तो जना देना चाहिये था कि तुम किस पूजा के अधिकारी हो। यदि कायरता और मूर्खतावश इन्होंने तुम्हारी पूजा कर भी दी तो तुमने अयोग्य होकर उसे स्वीकार क्यों किया। जैसे कुत्ता लुक-छिपकर जरा सा घी चाट ले और अपने आप को धन्य-धन्य मानने लगे, वैसे ही तुम यह अयोग्य पूजा स्वीकार करके अपने को बड़ा मान रहे हो। तुम्हारी इस अनुचित पूजा से राजाओं का कोई अपमान नहीं होता। ये पाण्डव तो स्पष्टरूप से तुम्हारा ही तिरस्कार कर रहे हैं। नपुंसक का ब्याह करना, अन्धे को रूप दिखाना, राज्यहीन को राजाओं में बैठा देना जिस प्रकार अपमान है, वैसे ही तुम्हारी यह पूजा भी। हमने युधिष्ठिर, भीष्म और तुमको देख लिया। तुम सब एक-से-एक बढकर हो। ऐसा कहकर शिशुपाल अपने आसन से उठ खड़ा हुआ और कुछ राजाओं को साथ लेकर वहाँ से जाने के लिये तैयार हो गया। धर्मराज युधिष्ठिर ने तत्क्षण शिशुपाल के पास जाकर समझाते हुए मधुर वाणी से कहा, राजन् आपका कहना उचित नहीं है। कड़वी बात कहना निरर्थक तो है ही, अधर्म भी है। हमारे पितामह भीष्म धर्म न जानते हों, ऐसा नहीं है। आप व्यर्थ उनका तिरस्कार मत कीजिये। देखिये, यहाँ आपसे भी विद्यावयोवृद्ध बहुत से राजा उपस्थित हैं। उन्हें भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा बुरी नहीं मालूम हुई है। आपको भी उन्हीं के समान इसके सम्बन्ध में कुछ नहीं कहना चाहिेये। पितामह भीष्म ही भगवान् श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप को जानते हैं। श्रीकृष्ण के संबंध में उनके जैसा तत्वज्ञान आपको नहीं है। युधिष्ठिर इस प्रकार कह ही रहे थे कि भीष्मपितामह ने उन्हें सम्बोधन करके कहा, धर्मराज, भगवान् श्रीकृष्ण त्रिलोकी में सबसे श्रेष्ठ हैं। जो उनकी पूजा को अंगीकार नहीं करता, उससे अनुनय विनय करना अनुचित है। क्षत्रिय-धर्म के अनुसार जो जिसे युद्ध में जीत लेता है, वह उससे श्रेष्ठ माना जाता है। भगवान् श्रीकृष्ण ने इन उपस्थित राजाओं में किसपर विजय नहीं प्राप्त की है। एक का नाम तो भी बतलाओ। ये केवल हमारे ही पूज्य हों, ऐसी बात नहीं। सारा जगत् इनकी उपासना करता है। इन्होंने सबपर विजय प्राप्त की हो इतना ही नहीं, सम्पूर्ण जगत् सर्वात्मना इन्हीं के आधार पर स्थित है। मैं मानता हूँ कि यहाँ बहुत से गुरुजन और पूज्य उपस्थित हैं। फिर भी पूर्वोक्त कारण से हम भगवान् श्रीकृष्ण की ही पूजा कर रहे हैं। भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा का निषेध करने का अधिकार किसी को भी नहीं है। मैंने अपने विशाल जीवन में बहुत बड़े-बड़े ज्ञानियों का सत्संग किया है और उनके मुँह से सकल गुणों के आश्रय भगवान् श्रीकृष्ण के दिव्य गुणों का वर्णन सुना है। यहाँ आये हुए श्रेष्ठ पुरुषों की सम्मति भी मैने जान ली है। इन्होंने अपने जन्म से लेकर अबतक जितने कर्म किये हैं उनका मैंने श्रेष्ठ पुरुषों से श्रवण किया है। शिशुपाल, हमलोग केवल स्वार्थ-वश, संबंध के कारण अथवा उपकारी होने से ही भगवान की पूजा नहीं करते, हमारे पूजा करने का कारण तो यह है कि भगवान् श्रीकृष्ण जगत् के समस्त प्रणियों के लिये सुखकारी है और समस्त श्रेष्ठ पुरुष उनकी पूजा करते हैं। यश, शूरता और विजय में कोई भी भगवान् श्रीकृष्ण के समान नहीं है।इसीलिये हमने उनकी अग्रपूजा की है।भगवान् श्रीकृष्ण ही संपूर्ण विश्व की उत्पत्ति एवं प्रलय के स्थान हैं। उनकी क्रीड़ा के लिये ही सारा जड़-चेतन जगत् है। वे ही अव्यक्त प्रकृति हैं और वे ही सनातन कर्ता हैं। जन्मने-मरनेवालों समस्त पदार्थों से परे हैं, इसलिये सबसे बढकर पूजनीय हैं। बुद्धि,मन,महतत्व,वायु,तेज,जल,आकाश,पृथ्वी औरचारों प्रकार के सब प्राणी भगवान् श्रीकृष्ण के आधार पर ही स्थित हैं। सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र, दिशा, विदिशा सब के सब श्रीकृष्ण में ही स्थित है। जैसे वेदों में अग्निहोत्र, छन्दों में गायत्री, मनुष्यों में राजा, नदियों में समुद्र, नक्षत्रों में चन्द्रमा, पर्वतों में मेरु और पक्षियों और पक्षियों में गरुड़ सर्वश्रेष्ठ है। शिशुपाल तो अभी अबोध बालक है। इसे इस बात का ज्ञान नहीं कि भगवान् श्रीकृष्ण सर्वदा सर्वत्र सब रूपों में विद्यमान हैं। जो सदाचारी और बुद्धिमान पुरुष धर्म का मर्म जानना चाहता है, उसे जैसा धर्म का तत्वज्ञान होता है वैसा शिशुपाल को नहीं है। इसे तो कभी सच्ची जिज्ञासा ही नहीं हुई। यहाँ जितने छोटे-बड़े राजर्षि महर्षि उपस्थित हैं, उनमें कौन ऐसा है जो भगवान् श्रीकृष्ण को पूज्य नहीं मानता और उनकी पूजा नहीं करता। एकमात्र शिशुपाल इस पूजा को बुरा समझता है। वह समझा करे। वह जो ठीक समझे कर सकता है। भीष्मपितामह इतना कहकर चुप हो गये। अब माद्रीनंदन सहदेव ने कहा, भगवान् श्रीकृष्ण परम पराक्रमी हैं। उनकी मैने पूजा की है। जिन्हें यह बात सहन नहीं हो रही है, उनके सिर पर मैं लात मारता हूँ। मेरे इतना कहने क बाद विरोध करना हो, वह बोले। मैं उसका वध करूँगा। सभी बुद्धिमान हमारे आचार्य, पिता, गुरु एवं पूजनीय भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा का समर्थन करे। सहदेव ने इस प्रकार कहकर जोर से लात पटकी। परंतु उन मानी और बलवान् राजाओं में से किसी की जीभ तक न हिली।आकाश से सहदेव के सिर पर पुष्पों की वर्षा होने लगी और अदृश्यरूप से साधु-साधु की ध्वनि सुनाई पड़ने लगी। देवर्षि नारद भी वहीं बैठे थे। उन्होंने सबके सामने बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा कि, जो लोग कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा नहीं करते, उन्हें जिन्दा रहने पर मुर्दा ही समझना चाहिये। उनके साथ कभी बात तक भी नहीं करनी चाहिये। इसके अनन्तर सहदेव ने ब्राह्मण और क्षत्रियों की यथोचित पूजा की।इस प्रकार पूजा का काम समाप्त हुआ। भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा से शिशुपाल क्रोध के मारे आग-बबूला हो गया था, उसकी आँखें खून उगल रही थीं। उसने राजाओं को पुकारकर कहा कि ,मैं सेनापति बनकर खड़ा हूँ।अब आपलोग किस उधेड़-बुन में पड़े हैं। आइये, हमलोग डटकर यादवों और पाण्डवों की सम्मिलित सेना से भिड़ जायँ। इस प्रकार शिशुपाल यज्ञ में विघ्न डालने के लिये राजाओं को उत्साहित कर उनसे सलाह करने लगा। उस समय वे लोग क्रोध से तिलमिला रहे थे, चेहरे पर शिकन पड़ गयी थी। वे यही सोच रहे थे कि श्रीकृष्ण की पूजा और युधिष्ठिर का यज्ञान्त-अभिषेक न होने पावे। धर्मराज युधिष्ठिर ने देखा कि बहुत से लोग क्षुब्धसागर की भाँति उमड़कर युद्ध करना चाहते हैं तब उन्होंने भीष्मपितामह के पास जाकर कहा--पितामह, अब मुझे क्या करना चाहिये। आप यज्ञ की निर्विघ्न शान्ति और प्रजा के हित का उपाय बतलाइये। भीष्मपितामह ने कहा, बेटा डरने की कोई बात नहीं। क्या कभी कुत्ता सिंह को मार सकता है। मैने पहले ही तुम्हारे कर्तव्य का निश्चय कर लिया है। जैसे सिंह के सो जाने पर कुत्ते भौंकते हैं वैसे ही भगवान् श्रीकृष्ण के चुप रहने से ही ये चिल्ला रहे हैं। मूर्ख शिशुपाल अनजान में ही इन राजाओं को यमपुरी भेजना चाहता है। निःसंदेह भगवान् श्रीकृष्ण शिशुपाल का तेज खींच लेना चाहते हैं। ये जिसको खींच लेना चाहते हैं उसी की बुद्धि ऐसी हो जाती है। ये सारे जगत् के मूल कारण एवं प्रलय-स्थान हैं। तुम निश्चिन्त रहो। भीष्मपितामह की बात शिशुपाल ने भी सुनी। उसने भीष्म को डाँटते हुए कहा, भीष्म तुम्हे सब राजाओं को धमकाते समय शर्म नहीं आती। अरे, बूढे होकर अपने कुल को कलंकित क्यों करते हो। मूर्ख और घमंडी कृष्ण की प्रशंसा करते समय तुम्हारे जीभ के सौ टुकड़े क्यों नहीं हो जाते। मूर्ख-से-मूर्ख भी जिसकी निंदा करता है उसी ग्वालिये की तुम ज्ञानी होकर क्यों प्रशंसा कर रहे हो। यदि इसने बचपन में किसी पक्षी(बकासुर), घोड़े(वृषभासुर) को मार ही डाला तो क्या हुआ। वे कोई युद्ध के उस्ताद तो नहीं थे। यदि इसने चेतनाहीन छकड़े(शकटासुर) को पैर मारकर उलट दिया तो क्या चमत्कार हुआ। यदि इसने गोवर्धन पर्वत को सात दिन तक उठा रखा तो कौन सी अलौकिक घटना घट गयी। अरे वह तो दीमकों की बाॅबीमात्र है। अवश्य ही, यह सुनकर हमें आश्चर्य हुआ कि पेटू कृष्ण ने गोवर्धन पर बहुत सा अन्न खा लिया। जिस महाबली कंस का नमक खाकर यह पला था उसी को इसने मार डाला। है न कृतज्ञता का हद, धर्मज्ञानीजी। धर्म के अनुसार स्त्री, गौ, ब्राह्मण और जिसका अन्न खाय, जिसके आश्रय में रहे, उसे नहीं मारना चाहिये। जिसने जन्मते ही स्त्री (पूतना) को मार डाला, उसे ही तुम जगत्पति बतलाते हो। बुद्धि की बलिहारी है। अजी, तुम्हारे कहने से यह कृष्ण भी अपने को वैसा ही मानने लगेगा। अजी, धर्मध्वजी, तुमने अपने स्वभाव को नीचता के कारण ही पाण्डवों को ऐसा बना दिया है। तुमने धर्म की आड़ में जो-जो दुष्कर्म किये हैं, वे क्या कभी किसी ज्ञानी द्वारा किये जा सकते हैं। काशीनरेश कन्या शाल्व को अपना पति बनाना चाहती थी, परंतु तुम उसे बलपूर्वक हर लाये। यह कौन सा धर्म है जी। तुम्हारा ब्रह्मचर्य व्यर्थ है। तुमने नपुंसकता अथवा मूर्खता के कारण यह हठ पकड़ रखा है। अबतक तुमने कौन सी उन्नति सम्पादन की है। हाँ, धर्म की बातें तो बढ-बढकर अवश्य करते हो। सभी लोग जरासंध का आदर करते थे। उन्होंने श्रीकृष्ण को दास समझकर ही उसका वध नहीं किया। उनकी हत्या करने में इस कृष्ण ने भीमसेन और अर्जुन के साथ मिलकर जो करतूत की उसे कौन ठीक समझता है। आश्चर्य तो यह है कि तुम्हारी बातों में आकर पाण्डव भी कर्तव्यच्युत हो रहे हैं। क्यों न हो, तुम्हारे जैसे नपुंसक, पुरुषार्थहीन और बूढे जब सम्मति देनेवाले हों, तब ऐसा होना ही चाहिये। शिशुपाल की रूखी और कठोर बातें सुनकर प्रतापी भीमसेन क्रोध से तिलमिला उठे। सबने देखाकि भीमसेन प्रलयकारी काल के समान दाँत पीस रहे हैं। वे क्रोध से आकर शिशुपाल पर टूटना ही चाहते थे कि महाबाहु भीष्म ने उन्हें रक लिया। इतना सब होने पर भी शिशुपाल टस-से-मस नहीं हुआ। वह डटा ही रहा।उसने हँसकर कहा,भीष्म,छोड़ दो,छोड़ दो।अभी-अभी सब लोग देखेंगे कि यह मेरे क्रोध की आग में पतंगे की तरह भष्म हो रहा है। भीष्मपितामह ने शिशुपाल की बात की ओर कोई ध्यान नहीं दिया।

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