Sunday 23 August 2015

वनपर्व---अर्जुन के स्वर्ग जाने पर धृतराष्ट्र और पाण्डवों की स्थिति तथा बृहदश्र्व का आगमन

अर्जुन के स्वर्ग जाने पर धृतराष्ट्र और पाण्डवों की स्थिति तथा बृहदश्र्व का आगमन

राजा धृतराष्ट्र को अर्जुन के स्वर्ग में निवास करने का समाचार भगवान् व्यास से प्राप्त हुआ। उनके जाने के बाद धृतराष्ट्र ने संजय से कहा---'संजय ! मैने अर्जुन का सब समाचार पूर्णरूप से सुन लिया है। क्या तुम्हे भी उस बात का पता है ? मेरे पुत्र दुर्योधन की बुद्धि मन्द है। इसी से वह बुरे कामों और विषयभोगों में लगा रहता है। वह अपनी दुष्टता के कारण राज्य का नाश कर डालेगा। धर्मराज युधिष्ठिर बड़े महात्मा हैं। वे साधारण बात-चीत में भी सत्य बोलते हैं। उन्हें अर्जुन सा वीर योद्धा प्राप्त है। अवश्य ही उनका राज्य त्रिलोकी में हो सकता है। जिस समय अर्जुन अपने पैने वाणों का प्रयोग करेगा उस समय भला,कौन उसके सामने खड़ा हो सकेगा।'संजय ने कहा---'महाराज ! आपने दुर्योधन के सम्बन्ध में जो कुछ कहा है वह सत्य है। अर्जुन के सम्बन्ध में मैने सुना है कि उन्होंने युद्ध में अपने धनुष का बल दिखाकर भगवान् शंकर को प्रसन्न कर लिया है। अर्जुन की परीक्षा करने के लिये देवाधिदेव भगवान् शंकर स्वयं भील का वेष धारण करके उनके पास आये थे और उनसे युद्ध किया था। उन्होंने युद्ध में प्रसन्न होकर अर्जुन को दिव्य अस्त्र दिया। अर्जुन की तपस्या से प्रसन्न होकर सब लोकपालों ने आकर अर्जुन को दर्शन दिये और दिव्य अस्त्र-शस्त्र दिये। ऐसा भाग्यशाली अर्जुन के सिवा और कौन है ?  अर्जुन का बल अपार है, उनकी शक्ति अपरिमित है।' धृतराष्ट्र ने कहा---'संजय ! मेरे पुत्रों ने पाण्डवों को बड़ा कष्ट दिया है। पाण्डवों की शक्ति बढ़ती ही जा रही है। जिस समय बलराम और श्रीकृष्ण पाण्डवों की सहायता करने के लिये यदुकुल के योद्धाओं को उत्साहित करेंगे, उस समय कौरव पक्ष का कोई भी वीर उनका सामना नहीं कर सकेगा। अर्जुन के धनुष की टंकार और भीमसेन की गदा का वेग सह सके, हमारे पक्ष में ऐसा कोई भी राजा नहीं है। मैने दुर्योधन की बातों में आकर अपने हितैषी पुरुषों की हितभरी बातें नहीं मानीं। जान पड़ता है कि मुझे पाछे से उन्हें सोच-सोचकर पछताना पड़ेगा।' संजय ने कहा---'राजन् ! आप सब-कुछ कर सकते थे। परन्तु स्नेह-वश आपने अपने पुत्र को बुरे कामों से रोका नहीं। उपेक्षा करते रहे। उसी का भयंकर फल आपके सामने आनेवाला है।जिस समय पाण्डव कपट-ध्यूत में हारकर पहले-पहल काम्यक वन गये थे, तब भगवान् श्रीकृष्ण ने वहाँ जाकर उन्हें आश्वासन दिया था। उन्होंने तथा धृष्टधुम्न, राजा विराट, धृष्टकेतू तथा केकय आदि ने वहाँ पाणडव से जो कुछ कहा था वह दूतों से मालूम होने पर आपकी सेवा में निवेदन कर दिया था। जिस समय वे सब हमलोगों पर चढाई करेंगे उस समय कौन उनका सामना करेगा ?' जब अर्जुन अस्त्र प्राप्त करने के लिये इन्द्रलोक चले गये, तब पाण्डव काम्यक वन में निवास कर रहे थे। वे राज्य के नाश और अर्जुन के वियोग से बड़े ही दुःखी हो रहे थे। एक दिन की बात है, पाणडव और द्रौपदी इसी सम्बन्ध में कुछ चर्चा कर रहे थे। भीमसेन ने राजा युधिष्ठिर से कहा कि 'भाइजी ! अर्जुन पर ही हमलोगों का सब भार है। अर्जुन के बाहुबल के आधार पर ही हमलोग ऐसा समझते हैं कि शत्रु हमसे हारे हुए हैं, पृथ्वी हमारे वश में आ गयी है। हमारी बाँहों में बल है। भगवान् श्रीकृष्ण हमारे सहायक एवं रक्षक हैं। हमारे मन में कौरवों को पीस डालने के लिये बार-बार क्रोध मन में उठता है। परन्तु हम आपके कारण उसे पीकर रह जाते हैं। हम भगवान् श्रीकृष्ण की सहायता से कर्ण आदि सब शत्रुओं को मार डालेंगे और अपने बाहुबल से सारी पृथ्वी को जीतकर राज्य करेंगे। भाईजी ! जबतक दुर्योधन पृथ्वी को पूर्णरीति से अपने वश में कर ले, उसके पहले ही उसे और उसके कुटुम्ब को मार डालना चाहिये। शास्त्रों में तो यहाँ तक कहा गया है कि कपटी पुरुष को कपट करके भी मार डालना चाहिये। इसलिये आप यदि मुझे आज्ञा दें तो मैं आग की तरह भभक-कर वहाँ जाऊँ और दुर्योधन का नाश कर डालूँ।' भीमसेन की बात सुनकर युधिष्ठिर ने उन्हें शान्त करते हुए माथा सूँघा और कहा---'मेरे बलशाली भैया ! तेरह वर्ष पूरे हो जाने दो। फिर तुम और अर्जुन दोनो मिलकर दुर्योधन का नाश करना। जब तुम बिना कपट के भी दुर्योधन और उसके सहायकों का नाश कर सकते हो, तब कपट करने की क्या आवश्यकता है ?' धर्मराज युधिष्ठिर इस प्रकार भीमसेन को समझा ही रहे थे कि महर्षि वृहदश्र्व उनके आश्रम में आते हुए दीख पड़े।

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