Sunday 16 August 2015

आदिपर्व---व्यासजी के द्वारा द्रौपदी के साथ पाण्डवों के विवाह का निर्णय

व्यासजी के द्वारा द्रौपदी के साथ पाण्डवों के विवाह का निर्णय

 धर्मराज युधिष्ठिर की बात सुनकर द्रुपद की आँखें प्रसन्नता से खिल उठीं। आनन्दमग्न हो जाने के कारण वे कुछ भी बोल न सके। द्रुपद ने ज्यों-त्यों करके अपने को संभाला और युधिष्ठिर से वारणावत नगर के लाक्षाभवन से निकलकर भागने तथा अबतक के जीवन निर्वाह का समाचार पूछा। युधिष्ठिर ने संक्षेप में क्रमशःसब बातें कह दीं। तब द्रुपद ने धृतराष्ट्र को बहुत कुछ भला-बुरा कहा और युधिष्ठिर को आश्वासन दिया कि मैं तुम्हारा राज्य तुम्हें दिलवा दूँगा। अनन्तर उन्होंने कहा कि युधिष्ठिर अब तुम अर्जुन को आज्ञा दो कि वे विधिपूर्वक द्रौपदी का पाणिग्रहण करें। युधिष्ठिर ने कहा, राजन् विवाह तो मुझे भी करना ही है। द्रुपद बोले, यह तो बड़ी अच्छी बात है, तुम्ही मेरी कन्या का विधिपूर्वक पाणिग्रहण करो। युधिष्ठिर ने कहा, राजन् आपकी राजकुमारी हम सब की पटरानी होगी। हमारी माताजी ऐसी ही आज्ञा दे चुकी है । इसलिये आप आज्ञा दीजिये हम सभी क्रमशः उसका पाणिग्रहण करें। राजा द्रुपद बोले, कुरुवंशभूषण तुम यह कैसी बात कर रहे हो। एक राजा की बहुत सी रानियाँ हो सकती हैं, परंतु एक स्त्री के बहुत से पति हों---ऐसा तो कभी सुनने में नहीं आया। तुम धर्म के मर्मज्ञ और पवित्र हो, तुम्हें लोकमर्यादा और धर्म के विपरीत ऐसी बात सोचनी भी नहीं चाहिये। युधिष्ठिर बोले, महाराज धर्म की गति बड़ी सूक्ष्म है। हमलोग तो उसे ठीक-ठीक समझते भी नही हैं। हम तो उसी मार्ग से चलते हैं, जिससे पहले के लोग चलते रहे हैं। मेरी वाणी से कभी झूठ नहीं निकला है। मेरा मन कभी अधर्म की ओर नहीं जाता। मेरी माता की ऐसी आज्ञा है और मेरा मन इसे स्वीकार करता है। द्रुपद ने कहा, अच्छी बात है। पहले तुम, तुम्हारी माता और धृष्टधुम्न सब मिलकर कर्तव्य का निर्णय करें और फिर बतलावें। उसके अनुसार जो कुछ करना होगा कल किया जायगा। सब लोग इकट्ठे होकर विचार करने लगे। उसी समय भगवान् वेदव्यास अचानक आ गये। सब लोगों ने अपने-अपने आसन से उठकर उनका स्वागत अभिननंदन किया और प्रणाम करके उन्हें सर्वश्रेष्ठ स्वर्ण-सिंहासन पर बैठाया। व्यासजी की आज्ञा से सब लोग अपने-अपने आसन पर बैठ गये। कुशल समाचार निवेदन करने के बाद राजा द्रुपद ने भगवान् वेदव्यास से प्रश्न किया, भगवन् एक ही स्त्री अनेक पुरुषों की धर्मपत्नी किस प्रकार हो सकती है। आप कृपा करके मेरा धर्म-संकट दूर कीजिये। व्यासजी ने कहा, राजन् एक स्त्री के अनेक पति हों यह बात लोकाचार और वेद के विरुद्ध है। समाज में यह प्रचलित भी नहीं है। इस विषय में तुमलोगों ने क्या-क्या सोच रखा है, पहले अपना मत सुनाओ। द्रुपद ने कहा, भगवन् मैं तो ऐसा समझता हूँ कि ऐसा करना अधर्म है। लोकाचार, वेदाचार और सदाचार के विपरीत होने के कारण एक स्त्री बहुत से पुरुषों की पत्नी नहीं हो सकती। लोकाचार, वेदाचार और सदाचार के विपरीत होने के कारणएक स्त्री बहुत से पुरुषों की पत्नी नहीं हो सकती।धृष्टधुम्न बोला,भगवन् मेरा भी यही निश्चय है। कोई भी सदाचारी पुरुष अपने भाई की पत्नी के साथ कैसे सहवास कर सकता है। युधिष्ठिर ने कहा,मैं आपलोगों के सामने फिर से यह बात दोहराता हूँ कि मेरी वाणी से कभी झूठी बात नहीं निकलती।        मेरा मन कभी अधर्म की ओर नहीं जाता।मेरी बुद्धि मुझे स्पष्ट आदेश दे रही है कि यह अधर्म नहीं है। शास्त्रों में गुरुजनों के वचन को ही धर्म कहा गया है और माता गुरुजनों में सर्वश्रेष्ठ है। कुन्ती ने कहा, मेरा बेटा युधिष्ठिर बड़ा धार्मिक है। उसने जो कुछ कहा है, बात वैसी ही है। मुझे अपनी वाणी मिथ्या होने का भय है। इसलिये आपलोग बताइये कि ऐसा कौन सा उपाय है, जिससे मैं असत्य से बच जाऊँ। व्यासजी ने कहा, कल्याणी, इसमें संदेह नहीं कि असत्य से तुम्हारी रक्षा हो जायगी। द्रुपद राजा युधिष्ठिर ने जो कुछ कहा है, वह धर्म के प्रतिकूल नहीं,अनुकूल ही है। परन्तु इस बात का रहस्य मैं सबके सामने नहीं बतला सकता। इसलिये तुम मेरे साथ एकान्त में चलो। ऐसा कहकर व्यासजी उठ गये और राजा द्रुपद का हाथ पकड़कर एकान्त में ले गये।धृष्टधुम्न आदि उनकी बाट देखते हुए वहीं बैठे रहे।व्यासजी ने द्रुपद को एकान्त में ले जाकर द्रौपदी के पहले दो जन्मों की कथा सुनायी और यह बतलाया कि भगवान् शंकर के वरदान के कारण ये पाँचों ही द्रौपदी के पति होंगे। इसके बाद उन्होंने कहा, द्रुपद मैं प्रसन्नतापूर्वक तुम्हे दिव्यदृष्टि देता हूँ। उसके द्वारा तुम इन पाण्डवों के पूर्वजन्म के शरीर को देखो। द्रुपद ने भगवान् वेदव्यास के कृपा-प्रसाद से दिव्यदृष्टि प्राप्त करके देखा कि पाँचों पाण्डवों के दिव्य रूप चमक रह हैं। वे अनेकों आभूषण धारण किये हुए हैं,विशाल वक्षःस्थल पर दिव्य वस्त्र हैं, वे ऐसे जान पड़ते हैं मानो स्वयं भगवान् शिव,आदित्य अथवा वसु विराजमान हो रहे हों।साथ ही उन्होंने यह भी देखा कि उनकी पुत्री द्रौपदी दिव्य रूप से चन्द्रकला के समान देदिप्यमान हो रही हैं। वह रूप तेज और कीर्ति के कारण पाण्डवों के सर्वथा अनुरूप दीख रही है। वह झाँकी देखकर द्रुपद को बड़ी प्रसन्नता हुई। आश्चर्यचकित होकर उन्होंने व्यासजी के चरण पकड़ लिये। बोल उठे, धन्य है, धन्य है। आपकी कृपा से ऐसा अनुभव होना कुछ विचित्र नहीं है। राजा द्रुपद ने आगे कहा, भगवन्, मैने आपके मुख से जबतक अपनी कन्या के पूर्वजन्म की बात नहीं सुनी थी और यह विचित्र दृश्य नहीं देखा था,तभी तक मैं युधिष्ठिर की बात का विरोध कर रहा था। परंतु विधाता का ऐसा ही विधान है तब उसे कौन टाल सकता है। आपकी जैसी आज्ञा है वैसा ही किया जायगा। भगवान् शंकर ने जैसा वर दिया है,चाहे वह धर्म हो या अधर्म, वैसा ही होना चाहिये। अब इसमें मेरा कोई अपराध नहीं समझा जायगा। इसलिये पाँचों पाण्डव प्रसन्नता के साथ द्रौपदी का पाणिग्रहण करें। क्योंकि द्रौपदी पाँचों भाइयों की पत्नी के रूप में प्रकट हुई हैं। 

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