Saturday 22 August 2015

वनपर्व---भगवान् श्रीकृष्ण आदि का काम्यक वन में आगमन, उनके साथ पाण्डवों की बातचीत और उनका वापस लौटना

भगवान् श्रीकृष्ण आदि का काम्यक वन में आगमन, उनके साथ पाण्डवों की बातचीत और उनका वापस लौटना

 जब भोज, वृष्णि, अंधक आदि वंशों के यादव, पांचाल के धृष्टधुम्न, चेदि देश के धृष्टकेतु एवं कैकय देश के सगे-सम्बन्धियों यह संवाद मिला कि पाण्डवगण अत्यन्त दुःखी होकर राजधानी से चले गये और काम्यक वन में निवास कर रहे हैं, तब वे कौरवों पर बहुत चिढकर क्रोध के साथ उनकी निन्दा करते हुए अपना कर्तव्य निश्चय करने के लिये पाण्डवों के पास गये। सभी क्षत्रिय भगवान् श्रीकृष्ण को अपना नेता बनाकर धर्मराज युधिष्ठिर के चारों ओर बैठ गये। भगवान् श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को नमस्कार करके बड़ी खिन्नता के साथ कहा---'राजाओं ! अब यह बात निश्चित हो गयी कि पृथ्वी दुरात्मा दुर्योधन, कर्ण, शकुनि और दुःशासन का खून पीयेगी। यह सनातन धर्म है कि जो मनुष्य किसी को धोखा देकर सुख-भोग कर रहा हो, उसे मार डालना चाहिये। अब हमलोग इकट्ठे होकर कौरवों और उसके सहायकों को युद्ध में मार डालें तथा धर्मराज युधिष्ठिर का राजसिंहासन पर अभिषेक करें। अर्जुन ने देखा कि हमलोगों का तिरस्कार होने के कारण भगवान् श्रीकृष्ण क्रोधित हो गये हैं और अपना कालरूप प्रकट करना चाहते हैं। तब उन्होंने लोकमहेश्वर सनातन पुरुष भगवान् श्रीकृष्ण को शान्त करने के लिये उनकी स्तुति की। अर्जुन ने कहा---'श्रीकृष्ण! आप समस्त प्राणियों के हृदय में विराजमान अन्तर्यामी आत्मा हैं। सारा जगत् आपसे ही प्रकट होता और अन्ततः आपमें ही समा जाता है,समस्त तपस्याओं की अन्तिम गति आप ही हैं। आप नित्य यज्ञस्वरूप हैं, आपने अहंकारस्वरूप भौमासुर को मारकर मणि के दोनो कुण्डल इन्द्र को दिये तथा इन्द्र को इन्द्रत्व भी आपने ही दिया है। आपने जगत् के उद्धार के लिये ही मनुष्यों में अवतार ग्रहण किया है। आप ब्रह्मा, सोम, सूर्य, धर्म, ध्राता, यमराज, अग्नि, वायु, कुबेर, रुद्र, काल, आकाश, पृथ्वी और दिशास्वरूप हैं। पुरुषोत्तम ! आप स्वयं अजन्मा और चराचर जगत् के रचयिता हैं। आपने ही अदिति के यहाँ वामन विष्णु के रूप में अवतार ग्रहण किया था। उस समय आपने केवल तीन पग से स्वर्ग, मृत्यु एवं पाताल लोकों को नाप लिया। सर्वस्वरूप ! आप सूर्य में उनकी ज्योति के रूप में रहकर उन्हें प्रकाशित करते हैं। आपने विभिन्न प्रकार के सहस्त्रों अवतार ग्रहण करके धर्मविरोधी असुरों का संहार किया है। आपने द्वारकानगरी  को अपनाकर लीला का विस्तार किया है और अंत में आप उसे समुद्र में डुबा देंगे। आप सर्वथा स्वतंत्र हैं। ऐसा होने पर भी मधुसूदन ! आपमें क्रोध,इर्ष्या, द्वेष, असत्य और क्रूरता नहीं है। कुटिलता तो भला, हो ही कैसे सकती है। अच्युत ! सब ऋषि-मुनि आपको अपने हृदयमन्दिर में विराजमान दिव्य ज्योति के रूप में जानकर आपकी शरण ग्रहण करते और मोक्ष की याचना करते हैं। प्रलय के समय आप स्वतंत्रता से समस्त प्राणियों को अपने में लीन कर लेते और सृष्टि के समय समस्त जगत् के रूप में प्रकट हो जाते हैं।ब्रह्मा और शंकर दोनो ही आप से प्रकट हुए हैं।आपने बाललीला के समय बलराम के साथ रहकर जो-जो अलौकिक कार्य किये हैं,उन्हें अबतक न कोई कर सका और न आगे कर सकेगा। श्रीकृष्ण की आत्मा अर्जुन उनकी इस प्रकार स्तुति करके चुप हो गये। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा---'अर्जुन! तुम एकमात्र मेरे हो और मैं एकमात्र तुम्हारा हूँ। जो मेरे हैं, वे तुम्हारे और जो तुम्हारे हैं ,वे मेरे। जो तुमसे द्वेष करता है, वह मुझसे द्वेष करता है और जो तुम्हारा प्रेमी है, वह मेरा प्रेमी है। तुम नर हो और मैं नारायण। हमलोगों ने निश्चित समय पर अवतार ग्रहण किया है। जो मेरे हैं,वे तुम्हारे और जो तुम्हारे हैं, वे मेरे। जो तुमसे द्वेष करता है, वह मुझसे द्वेष करता है और जो तुम्हारा प्रेमी है, वह मेरा प्रेमी है। तुम नर हो और मैं नारायण। हमलोगों ने निश्चित समय पर अवतार ग्रहण किया है। तुम मुझसे अभिन्न हो और मैं तुमसे।' जिस समय भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से यह बात कह रहे थे, उसी समय पाण्डवों की राजरानी द्रौपदी शरणागतवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण करने के लिये उनके कुछ पास आकर कहने लगी। द्रौपदी ने कहा---'मधुसूदन ! मैने असित और देवल मुनि के मुँह से सुना है कि सृष्टि के प्रारंभ में आपने अकेले ही बिना किसी के सहायता के समस्त लोकों की सृष्टि की।परशुरामजी ने मुझसे यह बात कही थी कि आप अपराजित विष्णु हैं।आप यजमान,यज्ञ और यजनीय भी हैं। पुरुषोत्तम ! सभी ऋषि आपको क्षमारूप कहते हैं। आप पंचभूतस्वरूप हैं और इनसे सम्पन्न होनेवाले यज्ञस्वरूप भी हैं, ऐसा कश्यपजी ने कहा था। आप समस्त देवताओं के स्वामी, सब प्रकार के कल्याण के सम्पादक, सृष्टिकर्ता और महेश्वर हैं। जैसे बालक अपने खिलौनों के साथ स्वतंत्रतरूपसे खेलता है, वैसे ही आप ब्रह्मा-शंकर-इन्द्र आदि देवताओं से बर-बार खेलते रहते हैं। स्वर्ग आपके सिर से, पृथ्वी आपके पैर से और सारे लोक आपके उदर से व्याप्त हैं। आप सनातन पुरुष हैं। वेदाभ्यासी एवं तपस्वी ब्रह्मचारी, अतिथिसेवी गृहस्थ, शुद्धान्तःकर वाणप्रस्थ और आत्मदर्शी सन्यासियों के हृदय में सत्यस्वरूप ब्रह्म के रूप में स्फुरित होनेवाले आप ही हैं। आप युद्ध में पीठ न दिखानेवाले पुण्यात्मा राजर्षियों के एवं ससत धार्मिकों की परम गति हैं। आप समस्त प्राणियों के ईश्वर हैं, इसलिये मैं प्रेम से आपके सामने अपना दुःख निवेदन करती हूँ। श्रीकृष्ण ! मैं पाण्डवों की पत्नी, धृष्टधुम्न की बहिन और आपकी सखी हूँ। मुझ जैसी गौरवशालिनी स्त्री कौरवों की भरी सभा में घसीटी जाय, यह कितने दुःख की बात है। कौरवों ने बेईमानी से हमारा राज्य छीन लिया, वीर पाण्डवों को दास बना लिया और राजाओं से भरी सभा में मुझ एकवस्त्रा रजस्वला स्त्री को चोटी पकड़कर घसीट मँगवाया। मधुसूदन ! मैं जानती हूँ कि गाण्डीव धनुष को अर्जुन, भीमसेन और आपके अतिरिक्त कोई नहीं चला सकता। फिर भी भीमसेन और अर्जुन मेरी रक्षा नहीं कर सके। धिक्कार है इनके बल-पौरुष को ! इनके जीते-जी दुर्योधन क्षणभर भी कैसे जीवित है। यह वही दुर्योधन है जिसने अजातशत्रु सरलचित्त पाण्डवों को इनकी माता के साथ हस्तिनापुर से निकाल दिया था। इसी ने भीमसेन को विष देकर मारने की चेष्टा की थी। भीमसेन की आयु शेष थी, विष पच गया, वे जी गये---वह दूसरी बात है। जिस समय भीमसेन प्रमणकोटि वट के नीचे सो रह थे, उस समय दुर्यधन ने इन्हें रस्सी से बँधवाकर गंगा में डाल दिया था। अवश्य ही ये रस्सी तोड़ताड़कर तैर कर निकल आये। साँपों सेडँसवाने में भी उसने कोई कसर नहीं की। जिस समय हमारी सास अपने पाँचों पुत्रों के साथ वारणावत नगर में सो रही थीं, उसने आग लगाकर उन्हें जला डालने की चेष्टा की। ऐसा नीच कर्म भला,और कौन मनुष्य कर सकता है। श्रीकृष्ण ! मुझ सती की चोटी पकड़कर दुःशासन ने भरी सभा में घसीटा और ये पाण्डव टुकुरु-टुकुरु देखते रहे।' द्रौपदी के आँखों से आँसू की धारा बह चली। वह अपना मुँह ढक-कर रोने लगी। उसकी साँस लम्बी चलने लगी। उसने अपने को संभाला और गद्गद् कंठ से क्रध में भरकर फिर कहने लगी। द्रौपदी ने कहा---'श्रीकृष्ण ! चार कारणों से तुम्हें सदा मेरी रक्षा करनी चाहिये। एक तो तुम मेरे सम्बन्धी हो, दूसरे अग्निकुण्ड में उत्पन्न होने के कारण मैं गौरवशालिनी हूँ, तीसरे तुम्हारी सच्ची प्रेमिका हूँ और चौथे तुम पर मेरा पूरा अधिकार है तथा तुम मेरी रक्षा करने में समर्थ हो।' तब श्रीकृष्ण ने भरी सभा में वीरों के सामने द्रौपदी को संबोधित करके कहा---'कल्याणी ! तुम जिनपर क्रोधित हुई हो, उनकी स्त्रियाँ भी इसी तरह रोयेंगी। थोड़े ही दिनों में अर्जुन के वाणों से कटकर खून से लथपथ होकर वे जमीन पर सो जायेंगे। मैं वही काम करूँगा जो पाण्डवों के अनुकूल होगा। तुम शोक मत करो। मैं तुसे सत्य प्रतीज्ञा करता हूँ कि तुम राजरानी बनोगी। चाहे आकाश फट जाय, हिमाचल टुकड़े-टुकड़े हो जाय, पृथ्वी चूर-चूर हो जाय, समुद्र सूख जाय, परंतु द्रौपदी ! मेरी बात कभी झूठी नहीं हो सकती।' द्रौपदी ने श्रीकृष्ण की बात सुनकर टेढी नजर से अर्जुन की ओर देखा। अर्जुन ने कहा---'प्रिये ! तुम रोओ मत। श्रीकृष्ण ने जैसा कहा है वैसा ही होगा। उसे कोई टाल नहीं सकता।' धृष्टधुम्न ने कहा---'बहिन ! मैं द्रोण को, शिखंडी भीष्मपितामह को, भीमसेन दुर्योधन को और अर्जुन कर्ण को मार डालेंगे। जब हमें बलरामजी और श्रीकृष्ण की सहायता प्राप्त है, तब स्वयं इन्द्र भी नहीं जीत सकते। धृतराष्ट्र के लड़कों में तो रखा ही क्या है।' अब सबकी दृष्टि भगवान् श्रीकृष्ण की ओर घूम गयी। श्रीकृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर को संबधित करके कहा---''राजन् ! यदि उस समय मैं द्वारका में होता तो आपको इतना दुःख नहीं उठाना पड़ता। यदि कुरुवंशी मुझे जूए में नहीं भी बुलाते ,तब भी मैं स्वयं वहाँ जाता और बहुत से दोष दिखाकर जूए का अनर्थ रोक देता। मैं भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और बाह्लीक को बुलाकर धृतराष्ट्र से कहता---'राजन् ! तुम अपने पुत्रों में जूआ मत कराओ बस करो।' जूए के दोष से राजा नल को कितनी विपत्ति उठानी पड़ी, यह मैं उन्हें सुनाता। धर्मराज ! उसी जूए के कारण आप राजच्युत हुए हैं। जूए से बिना समय ही धन समंपत्ति का विनाश हो जाता है। बार-बार खेलने की ऐसी सनक सवार हो जाती है कि उसकी लड़ी टूटती ही नहीं। स्त्रियों से हेल-मेल, जूआ खेलना, शिकार का शौक और शराब पीना ---ये चारों बातें प्रत्यक्ष दुःख हैं। इनसे मनुष्य श्रीभ्रष्ट हो जाता है। यों तो चारों बातें बुरी हैं, परन्तु उनमें जूआ सबसे बढ-चढकर है। जूए से एक दिन में ही सारी सम्पत्ति का नाश हो जाता है। मनुष्य बुरी आदत में फँस जाता है। धर्म,अर्थ आदि का बिना भोगे ही नाश हो जाता है और इसके कारण मित्रों में भी गाली-गलौज होने लगती है। मैं राजा धृतराष्ट्र को जूए के और भी बहुत-से-दोष बतलाता। यदि वे मेरी बात मान लेते तो कुरुवंश का कल्याण होता, धर्म की रक्षा होती। यदि वे मेरी हितैषितापूर्ण प्रिय बातों को स्वीकार नहीं करते तो मैं बलपूर्वक उन्हें दण्ड देता। यदि उनके जुआरी सभासद् या मित्र अन्यायवश उनका पक्ष लेते तो मैं उन्हें मार डालता। उस समय मेरे द्वारका में न रहने से ही आपने जूआ खेलकर घर बैठे विपत्ति बुला ली और आज मैं आपको इस विपत्ति में देख रहा हूँ।"   युधिष्ठिर ने पूछा---'श्रीकृष्ण ! तुम उस समय द्वारका में नहीं थे तो कहाँ थे और कौन सा काम कर रहे थे?' भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा---"धर्मराज ! उस समय मैं शाल्व का और उसके नगराकार विमान सौभका नाश करने के लिये द्वारका से बाहर चला गया था। जिस समय आपके राजसूय यज्ञ में मेरी अग्रपूजा की गयी थी और शिशुपाल की दुष्टता के कारण मैने उसे भरी सभा में चक्र के द्वारा मार डाला था,उस समय मैं तो यहाँ था और उधर शिशुपाल की मृत्यु का समाचार पाकर शाल्व ने द्वारका पर चढाई कर दी। वह अपने सप्तधातुनिर्मित सौभ विमान पर बैठकर बड़ी क्रूरता के साथ द्वारका के कुमारों का संहार करने लगा। बाग-बगीचे, महल नष्ट-भ्रष्ट होने लगे। उसने वहाँ लोगों से इस प्रकार पूछा कि 'यादवाधम मूर्ख कृष्ण कहाँ है ? मैं उसका घमंड चूर-चूर कर दूँगा। वह जहाँ होगा,वहीं मैं उसके पास जाऊँगा। मैं अपने शस्त्र की सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि मैं कृष्ण को मारे बिना लौटूँगा नहीं।' शाल्व ने लोगों से और भी कहा कि 'विश्वासघाती कृष्ण ने मेरे मित्र शिशुपाल को मार डाला है। इसलिये आज मैं उसे यमराज के हवाले करूँगा।' धर्मराज ! शाल्व ने बहुत-कुछ बक-झक कर द्वारका में बहुत उधम मचाया और सौभ विमान पर बैठकर मेरी बाट जोहने लगा। मैं जब यहाँ से चलकर द्वारका पहुँचा और मैने वहाँ की दशा देखी, तब मुझे बहुत क्रोध आया और मैने उसकी करतूत पर विचार करके यही निर्णय किया कि उसको मार डालना चाहिये। मैने जब द्वारका से बाहर निकलकर उसकी खोज की, तब वह समुद्र के एक भयानक द्वीप में अपने सौभ विमान सहित मिला। मैने पांचजन्य शंख बजाकर युद्ध के लिये शाल्व को ललकारा। कुछ तक हमलोगों में घोर युद्ध होता रहा। अंत में मैने शाल्व समेत समस्त दानवों को मारकर धराशायी कर दिया। यही कारण है कि मैं उस समय द्वारका में नहीं था। जब मैं लौटकर द्वारका पहुँचा तो मालूम हुआ कि हस्तिनापुर में कपटध्यूत के द्वारा आपलोगों को जीत लिया गया है। उसी समय मैं वहाँ से चल पड़ा और हस्तिनापुर होकर यहाँ आया हूँ। भगवान् श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर के पूछने पर शाल्व-वध की कथा विस्तार से सुनायी और अंत में उनसे द्वारका जाने की अनुमति माँगी। अनुमति मिल जाने पर भगवान् श्रीकृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर को प्रणाम किया, भीमसेन ने भगवान् श्रीकृष्ण का सिर चूमा, श्रीकृष्ण और अर्जुन गले मिले, नकुल और सहदेव ने उन्हें प्रणाम किया, द्रौपदी ने अपने आँसुओं से श्रीकृष्ण को भिगो दिया। श्रीकृष्ण अपने सुवर्ण-रथ में सुभद्रा और अर्जुन को बैठाकर युधिष्ठिर को बार-बर धीरज दे द्वारका के लिये रवाना हुए। तदनन्तर धृष्टधुम्न ने द्रौपदी के पुत्रों को लेकर अपने नगर के लिये प्रस्थान किया। शिशुपाल के पुत्र धृष्टकेतु ने अपनी बहिन करेणुमति (नकुल की पत्नी) को लेकर अपनी नगरी शुक्तिमति की यात्रा की। सभी राजा-महाराजा अपने-अपने देश लौट गये। पाण्डवों ने बहुत समझा-बुझाकर अपनी प्रजा को लौटाना चाहा, परंतु लोग लौटे नहीं। वह दृश्य बड़ा अद्भुत था। किसी प्रकार सबके लौटने पर धर्मराज युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों का सत्कार किया और उनसे आगे जाने की आज्ञा माँगी और सेवकों से कहा---'तुमलोग रथ तैयार करो।'

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