Tuesday 25 August 2015

वनपर्व---वृत्रवध और अगस्त्यजी के समुद्रशोषण का वृतांत

वृत्रवध और अगस्त्यजी के   समुद्रशोषण का वृतांत

  युधिष्ठिर के पूछने पर महर्षि लोमश ने परम तेजस्वी अगस्तयजी की कथा प्रारंभ की। सत्ययुग में कालकेय नाम के बड़े भयंकर और रणवीर दैत्यगण थे। वे वृत्रासुर के अधीन रहकर नाना प्रकार के शस्त्रास्त्र से सुसज्जित हो इन्द्रादि सभी देवताओं पर आक्रमण करते रहते थे। तब सब देवताओं ने मिलकर वृत्रासुर के वध का उद्योग आरम्भ किया। वे इन्द्र को आगे लेकर ब्रह्माजी के पास आये। ब्रह्मा ने यह देखकर उनसे कहा, 'देवताओं ! तुम जो काम करना चाहते हो वह मुझसे छिपा नहीं है। मैं तुम्हे वृत्रासुर के वध का उपाय बताता हूँ। भू-लोक में दधीच नाम के एक बड़े उदार-हृदय महर्षि हैं। तुम सब लोग जाकर उनसे वर माँगो। जब वे प्रसन्न होकर तुम्हें वर देने को तैयार हों तो उनसे ऐसा कहना कि मुनिवर ! तीनों लोकों के हित के लिये आप अपनी हड्डियाँ दे दजिये। तब वे देह त्यागकर तुम्हें अपनी हड्डियाँ दे देंगे। उनकी  हड्डियों से तुम एक छः दातोंवाला बड़ा भयंकर और सुदृढ़ वज्र बनाना। उस वज्र से इन्द्र वृत्रासुर का वध कर सकेगा। मैंने तुम्हें सब बातें बता दी हैं,अब जल्दी करो। ब्रह्माजी के इस प्रकार कहने पर उनकी आज्ञा ले सब देवता सरस्वती के दूसरे तट पर दधीच  ऋषि के आश्रम में आये। यह आश्रम अनेकों प्रकार के वृक्ष और लतादि से सुशोभित था। वहाँ सूर्य के समान तेजस्वी महर्षि दधीच के दर्शन कर उनके चरणों में प्रणाम किया और ब्रह्माजी के कथनानुसार उनसे वर प्रदान के लिये प्रार्थना की। तब दधीच ऋषि ने अत्यन्त प्रसन्न होकर कहा, 'देवगण ! तुम्हारा जिसमें हित हो, वही मैं करूँगा; तुम्हारे लिये मैं अपने शरीर को भी न्योछावर कर सकता हूँ।' फिर देवताओं के अस्थि-याचना करने पर मन और इन्द्रियों को वश में रखनेवाले मुनिवर दधीच ने सहसा अपने प्राण त्याग दिये। देवताओं ने ब्रह्माजी के आदेशानुसार दधिच के निष्प्राण शरीर की हड्डियाँ ले लीं और विश्वकर्मा के पास आकर अपना प्रयोजन बताया; विश्वकर्मा ने उन हड्डियों से एक भयंकर वज्र तैयार किया और अत्यन्त प्रसन्न होकर इन्द्र से कहा, 'देवराज ! इस वज्र से आप देवताओं के शत्रु उग्रकर्मा वृत्रासुर को भष्म कर डालिये।'विश्वकर्मा के ऐसा कहने पर देवराज इन्द्र ने वज्र लेकर बलशाली देवताओं को साथ ले पृथ्वी और आकाश को घेरकर खड़े हुए और वृत्रासुर पर धावा बोल दिया। उस समय शिखरयुक्त पर्वतों के समान विशालकाय कालकेयगण अनेकों अस्त्र-शस्त्र लिये वृत्रासुर की सब ओर से रक्षा कर रहे थे।देवता और ऋषियों के तेज से सम्पन्न इन्द्र का बल बढ़ा हुआ देख वृत्रासुर ने बड़ा भीषण सिंहनाद किया। उसकी गर्जना से पृथ्वी,आकाश, समस्त दिशाएँ और पर्वत डगमगाने लगे। यहाँ तक कि उससे इनद्र भी भयभीत हो गया और उसने वृत्रासुर पर अपना भीषण वज्र छोड़ा। उस वज्र की चोट से प्राणहीन होकर वह महादैत्य उसी प्रकार पृथ्वी पर गिर पड़ा, जैसे पूर्वकाल में विष्णुभगवान् के हाथ से खिसककर महाशैल मन्दराचल गिर गया था।वृत्रासुर के मारे जाने से सभी देवता और महर्षियों को बड़ा आनन्द हुआ और वे इन्द्र की स्तुति करने लगे। इसके पश्चात् उन्होंने वृत्रासुर के वध से दुःखी कालकेयादि समस्त दैत्यों को भी मारना आरंभ किया। तब से सब दैत्य उनसे भयभीत होकर बड़े-बड़े मच्छों और नाकों से भरे हुए अगाध समुद्र में घुसकर छिप गये।वृत्रासुर के मारे जाने से सभी देवता और महर्षियों को बड़ा आनन्द हुआ और वे इन्द्र की स्तुति करने लगे। इसके पश्चात् उन्होंने वृत्रासुर के वध से दुःखी कालकेयादि समस्त दैत्यों को भी मारना आरंभ किया। तब से सब दैत्य उनसे भयभीत होकर बड़े-बड़े मच्छों और नाकों से भरे हुए अगाध समुद्र में घुसकर छिप गये।   दैत्यगण व्याकुल होकर आपस में त्रिलोकी के नाश का उपाय सोचने लगे। विचार करते-करते उन्हें काल-वश एक बड़ा ही भयंकर उपाय सूझा। उन्होंने निश्चय किया कि समस्त लोकों की रक्षा तप से होती है, अतः सबसे पहले तप का ही नाश करना चाहिये।पृथ्वी में जो भी तपस्वी, धर्मात्मा और ज्ञाननिष्ठ पुरुष हैं, उनके संहार के लिये शीघ्रता करनी चाहिये।बस, उनका नाश होने से सारा संसार स्वयं नष्ट हो जायगा। ऐसा निश्चय कर वे समुद्र में रहते हुए भी त्रिलोकी का नाश करने में तत्पर हो गये। वे क्रोध में भर गये और नित्य प्रति रात में समुद्र से बाहर आकर आस-पास के आश्रम और तीर्थादि में रहने वाले मुनियों को खा जाते तथा दिन में समुद्र में छिपे रहते। उनका अत्याचार यहाँ तक बढ़ा कि सारी पृथ्वी पर ऋषि-मुनियों की हड्डियाँ दिखाई देने लगी और उनके कारण संसार का संहार होने लगा तथा यज्ञ-यागादि के समारोह नष्ट हो गये तथा देवतालोग बड़े दुःखी हुए। उन्होंने देवराज इन्द्र से सलाह की और श्रीमन् नारायण की शरण ली। देवताओं ने वैकुण्ठनाथ अपराजित भगवान् मधुसूदन के पास जाकर उनकी स्तुति की---'हे प्रभो ! आप सारे संसार के उत्पत्ति, पालन और संहार करने वाले हैं; आप ही ने इस चराचर विश्व की रचना की है। पूर्वकाल में जब पृथ्वी समुद्र में डूब गयी थी तो आप ही ने वाराह-रूप धारण करके इसका उद्धार किया था।पुरुषोत्तम ! आप ही ने नरसिंहरूप धारण करके महाबली आदिदैत्य हिरण्यकशिपु का वध किया था। महादैत्य बालि को मारना किसी भी ददेहधारी के वश की बात नहीं थी, उसे भी आप ही ने वामनरूप धारण करके त्रिलोकी के ऐश्वर्य से भ्रष्ट किया था। महान् धनुर्धर जम्भ बड़ा ही क्रूर और यज्ञादि ध्वंश करनेवाला था। उस सुप्रसिद्ध दानव का भी आपने ही दलन किया था। इसी प्रकार आपके अगणित पराक्रम हैं। हे मधुसूदन ! हम भयभीतों के तो एकमात्र आप ही आश्रय हैं। इस समय ससार पर बड़ा भारी भय उपस्थित है; पता नहीं, रात में कौन आकर ब्राह्मणों को मार डालता है। ब्राह्मणों के नाश होने से तो पृथ्वी का ही नाश हो जायगा और पृथ्वी के नष्ट होने से स्वर्ग भी नहीं बच सकेगा। जगत्पते ! अब तो कृपापूर्वक आपके रक्षा करने से ही इन लोकों का संहार रुक सकता है।' देवताओं की प्रार्थना सुनकर भगवान् विष्णु ने कहा---'देवगण ! मैं इस प्रजाओं के क्षय का कारण पूरी तरह से जानता हूँ। कालकेय नाम से प्रसिद्ध एक दैत्यों का बड़ा विकट दल है।वे सब दैत्य वृतासुर का आश्रय लेकर सारे संसार को पीड़ित करते थे। दिन में तो नाकों और ग्राहों से भरे हुए समुद्र में छिपे रहते हैं, किन्तु रात्रि के समय संसार का उच्चछेद करने के लिये बाहर निकलकर ब्राह्मणों का वध करते हैं। समुद्र में रहने के कारण तुम उन दैत्यों का दलन नहीं कर सकोगे, इसलिये पहले तुम्हे समुद्र को सुखाने का उपाय सोच लेना चाहिये। समुद्र को सुखाने में अगस्त्यजी के सिवा और कोई समर्थ नहीं है और इसलिये तुम किसी प्रकार अगस्त्यजी को इस काम के लिये तैयार कर लो।'भगवान् विष्णु की यह बात सुनकर देवगण ब्रह्माजी की आज्ञा से अगस्त्य मुनि के आश्रम में आये। वहाँ उन्होंने देखा कि मित्रावरुण के पुत्र परम तेजस्वी तपोमूर्ति महात्मा अगस्त्यजी ऋषियों से घिरे हुए विराजमान हैं। देवता उनके निकट गये और मुनि के अलौकिक कर्मों का बखान करते हुए उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगे---'पूर्वकाल में जबइन्द्रपद पाकर राजा नहुष ने लोकों को संतप्त करना आरंभ किया तो आपही ने उनका दुःख दूर किया था और उस संसार के कण्टक को देवलोक के ऐश्वर्य से गिराया था। पर्वतराज विन्ध्याचल सूर्य पर कुपित होकर एक साथ बहुत ऊँचा हो गया था। इससे संसार में अंधेरा रहने लगा और प्रजा मृत्यु से पीड़ित होने लगी। उस समय आपकी शरण लेने से ही उसे शान्ति मिली थी। भगवन् ! हम भी बहुत भयभीत हैं, अब आप ही हमारे आश्रय हैं। आप सबकी इच्छाएँ पूर्ण करनेवाले हैं, अतः हम भी दीन होकर आपे वर माँगते हैं।' युधिष्ठिर ने पूछा---मुनिवर ! मुझे यह बात विस्तार से सुनने की इच्छा है कि विन्ध्याचल क्रोधित होकर अकस्मात् क्यों बढ़ने लगा था।   लोमश जी बोले---विन्ध्याचल के क्रोधित होकर अकस्मात् बढ़ने से सूर्य उदय और अस्त होने से पर्वतराज सुवर्णगिरि सुमेरु की प्रदक्षिणा किया करते थे। यह देखकर विन्ध्याचल ने कहा, 'सूर्यदेव ! जिस प्रकार तुम सुमेरु के पास जाकर नित्यप्रति उसकी परिक्रमा करते हो, उसी प्रकार मेरी भी किया करो।' इसपर सूर्य ने कहा, मैं अपनी इच्छा से सुमेरु की प्रदक्षिणा नहीं करता, बल्कि जिन्होंने इसजगत् की रचना की है, उन्होंने मेरे लिये यह मार्ग निर्दिष्ट कर दिया है।' सूर्य के इस प्रकार कहने पर विन्ध्यक्रोध में भर गया और सूर्य एवं चन्द्रमा का मार्ग रोकने के विचार से अकस्मात् बढ़ने लगा। तब सब देवता मिलकर पर्वतराज विन्ध्य के पास आये और अनेकों उपायों से रोकने लगे, किन्तु उसने उनकी एक न सुनी।फिर वे सब-के-सब अगस्त्यजी के पास गये और उन्हें अपना आने का प्रयोजन सुनाया।वे कहने लगे, 'भगवन् ! क्रोध के वशीभूत हुआ ये पर्वतराज सूर्य औ चन्द्रमा के मार्ग तथा नक्षत्रों की गति को रोक रहा है। द्विजवर ! आपके सिवा और कोई भी पुरुष उसको रोकने में समर्थ नहीं है। इसलिये आप रोकने की कृपा करें।' देवताओं का यह बात सुनकर अगस्त्यजी अपनी पत्नी के सहित विन्ध्याचल के पास आये और उससे बोले, 'पर्वतप्रवर ! मैं किसी कार्य से दक्षिण की ओर जा रहा हूँ, इसलिये मेरी इच्छा है कि तुम मुझे उधर जाने का मार्ग दो।जबतक मैं उधर से लौटूँ तबतक मेरी प्रतीक्षा करना, उसके बाद इच्छानुसार बढ़ते रहना।'शत्रुदमन युधिष्ठिरजी ! विन्ध्याचल से यह कहकर अगस्त्यजी दक्षिण की ओर चले गये और आज तक नहीं लौटे। इसी से अगस्त्यजी के प्रभाव से विन्ध्याचल का बढ़ना रुका हुआ है। तुम्हारे पूछने से यह सारा प्रसंग मैने तुम्हे सुना दिया। अब जिस प्रकार उनसेवर पाकर देवताओं ने कालकेय का संहार किया था वह सुनो। देवताओं की प्रार्थना सुनकर अगस्त्यजी ने कहा, 'आप लोग यहाँ कैसे आये हैंऔर मुझसे क्या वर चाहते हैं ?' तब देवताओं ने कहा, 'महात्मन् ! हमारी ऐसी इच्छा है कि आप महासागर को पी जाइये। ऐसा होने पर हम देवद्रोही कालकेयों को उनके परिवार के सहित मार डालेंगे।' देवताओं की बात सुनकर मुनिवर अगस्त्य ने कहा, 'अच्छा, मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूँगा और संसार का दुःख दूर करूँगा।' तदनन्तर वे तपःसिद्ध ऋषियों और देवताओं को साथ ले समुद्र के तट पर पहुँचकर वहाँ एकत्रित हुए और देवता और ऋषियों से कहने लगे, मैं संसार के हित के लिये समुद्र का पान करता हूँ।' ऐसा कहकर उन्होंने बात-की-बात में समुद्र को जलहीन कर दिया। तब देवतालोग प्रबल होकर अपने दिव्य शस्त्रों से कालकेयों का संहार करने लगे। इस प्रकार गर्ज-गर्ज कर संहार करते हुए देवताओं की मार से वे व्याकुल हो गये और उन्हें उनका वेग असह्य हो गया। उनकी मार खाकर दो घड़ी तक तो कालकेयों ने भी भयंकर सिंहनाद करते हुए घनघोर युद्ध किया।किन्तु वे पवित्रात्मा मुनियों के तप से पहले ही दग्ध हो चुके थे, इसलिये सारी शक्ति लगाकर प्रयत्न करने पर भी वे देवताओं के हाथ से नष्ट हो गये तथा जो किसी प्रकार उस संहार से बचे, वे पृथ्वी को फोड़कर पाताल में चले गये।इस प्रकार दानवों का ध्वंस हो जाने पर देवताओं ने अनेकों प्रकार से स्तुति करते हुए अगस्त्यजी से प्रार्थना की कि अब आप पीये हुए जल को छोड़कर फिर समुद्र को भर दीजिये। इसपर अगस्त्यजी बोले, 'वह जल जो पच गया, अब समुद्र को भरने के लिये कोई और उपाय सोचो।' महर्षि की इस बात से  देवताओं को बड़ा आश्चर्य हुआ और वे उदास हो गये। फिर उन्हें प्रणाम कर वे ब्रह्माजी के पास आये और हाथ जोड़कर उनसे समुद्र को भरने की प्रार्थना की। ब्रह्माजी ने कहा, 'देवगण ! अब तुम इच्छानुसार अपने-अपने स्थानों को जाओ। आज से बहुत समय बाद राजा भगीरथ अपने पुरखों के उद्धार का प्रयत्नकरेगा, उससे समुद्र फिर जल से भर जायगा।'ब्रह्माजी की बात सुनकर देवता अपने-अपने स्थानों को चले गये और उस समय की प्रतीक्षा करने लगे।


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