Tuesday 18 August 2015

सभापर्व---शिशुपाल की जन्मकथा और वध

  शिशुपाल की जन्मकथा और वध
     भीष्मपितामह ने कहा, यह शिशुपाल जब चेदिराज के वंश में पैदा हुआ, तब इसके तीन नेत्र थे और चार भुजाएँ थीं। पैदा होते ही यह गधों के समान रेंकने चिल्लाने लगा था। सगे-सम्बन्धी इसकी यह दशा देखकर डर गये और इसके त्याग का विचार करने लगे। माता, पिता मंत्री आदि का एक ही एक ही विचार देखकर आकाशवाणी हुई -- राजन् तुम्हारा यह पुत्र बड़ा बली होगा। इससे डरो मत, निश्चिन्त होकर इसका पालन करो। माता यह सुनकर प्रेम में पग गयी। उसने हाथ जोड़कर कहा, जिसने मेरे पुत्र के सम्बन्ध में यह भविष्यवाणी की है, वह चाहे कोई हो, स्वयं भगवान्, देवता अथवा अन्य---मैं उसे प्रणाम करती हूँ और उससे इतना जानना चाहती हूँ कि मेरे पुत्र की मृत्यु किसके हाथों होगी। आकाशवाणी ने दुबारा कहा, जिसकी गोद में जाने पर तुम्हारे पुत्र की दो अधिक भुजाएँ गिर पड़े और जिसे देखने मात्र से ही तीसरा नेत्र लुप्त हो जाय, उसी के हाथों इसकी मृत्यु होगी। उस समय इस विचित्र शिशु का समाचार सुनकर पृथ्वी के अधिकांश राजा इसे देखने के लिए आये थे। चेदिराज ने सबका यथोचित सत्कार करके बालक शिशुपाल को सबकी गोद में रखा, परंतु न अधिक भुजाएँ गिरीं न तीसरा नेत्र लुप्त हुआ। भगवान् श्रीकृष्ण और महाबली बलराम भी अपनी बुआ सेमिलने और उनके लड़के को देखने के लिये आये। प्रणाम, आशीर्वाद और कुशल-मंगल के पश्चात् स्वागत-सत्कार हुआ। अनन्तर बुआ ने अपने भतीजे श्रीकृष्ण की गोद में बड़े प्रेम से अपना बालक रख दिया। उसी समय उसकी अधिक दो भुजाएँ गिर गयीं और तीसरा नेत्र गायब हो गया। शिशुपाल की माता व्याकुल और भयभीत होकर श्रीकृष्ण से कहने लगी, श्रीकृष्ण, मैं तुमसे डर गयी हूँ। तुम आर्तों को आश्वासन और भयभीतों को अभय देते हो। इसलिये मुझे एक वर दो। तुम मेरी ओर देखकर शिशुपाल के सारे अपराध क्षमा कर देना। बस, मैं केवल इतना ही वर माँगती हूँ। श्रीकृष्ण ने कहा, बुआजी, तुम शोक न करो। मैं तुम्हारे पुत्र के ऐसे सौ अपराध भी क्षमा कर दूँगा, जिनके बदले इसे मार डालना चाहिये। भीमसेन, इसी से कुल-कलंक शिशुपाल ने आज भरी सभा में मेरा तिरस्कार किया है। भला, और किस राजा की ऐसी हिम्मत है, जो इस प्रकार मेरा अपमान कर सके। यह कुल-कलंक अब काल के गाल में है। इस समय यह मूर्ख हमलोगों को कुछ न समझकर सिंह के समान दहाड़ रहा है, परंतु इसे पता नहीं कि कुछ ही क्षणों में श्रीकृष्ण इस तेज को ले लेना चाहते हैं। भीष्म की बात शिशुपाल से सही नही गयी। वह क्रोध से जलकर कहने लगा, भीष्म, तुम भाट के समान बार-बार जिसका गुणगान कर रहे हो, वह कृष्ण क्यों नहीं मुझपर अपना प्रभाव दिखलाता। हम तो निश्चय ही उससे द्वेष करते हैं। यदि तुम्हारी आदत ही प्रशंसा करने की है तो दूसरों की प्रशंसा क्यों नहीं करते। बाह्लीक की स्तुति करो जिसके जन्मते ही पृथ्वी काँप उठी थी। कर्ण, महारथी द्रोण और अश्त्थामा---इनकी भरपेट स्तुति कर लो। क्या तुम्हे प्रशंसा करने के लिये कोई मिलता ही नही है। तुम अपने मन से ही भोजपति कंस के चरवाहे दुरात्मा कृष्ण को ही सबकुछ मानकर बातें बघार रहे हो। वास्तव में इन राजाओं की दया से ही तुम जी रहे हो। ये चाहें तो अभी तुम्हारे प्राण ले लें। सचमुच तुम बहुत ही खोटे हो। भीष्मपितामह ने कहा, तू कहता है कि मैं राजाओं के दया से जीवित हूँ, परंतु मैं इन राजाओं को तृण के बराबर भी नहीं समझता। हमने जिन श्रीकृष्ण की पूजा की है वे सबके सामने ही बैठे हैं। जो मरने के लिये उतावले हो रहे हैं, वे चक्र-गदाधारी श्रीकृष्ण को युद्ध के लिये ललकारते क्यों नहीं। मैं दावे के साथ कहता हूँ कि उनको ललकारनेवाला रणभूमि में धराशायी होगा और उसे उनहीं के शरीर में स्थान मिलेगा। शिशुपाल जोश में आकर श्रीकृष्ण की ओर रुख करके बोला, कृष्ण, मैं तुम्हें ललकारता हूँ। आओ, मुझसे भिड़ जाओ। मैं पाण्डवों के साथ तुम्हें यमपुरी भेज दूँ। पाण्डवों ने मूर्खतावश तुम्हारे जैसे दास, मूर्ख और अयोग्य की पूजा की है। अब तुमलोगों का वध ही उचित है। शिशुपाल की बात समाप्त होने पर भगवान् श्रीकृष्ण ने बड़ी गम्भीरता से मधुर शब्दों में कहा, राजाओं यह हमलोगों का संबंधी है। फिर भी हमसे बड़ी शत्रुता रखता है। इसने हम यदुवंशियों का सत्यानाश करने में कोई कोर-कसर नहीं की। इस दुरात्मा ने मेरे प्राग्ज्योतिषपुर चले जाने पर बिना किसी अपराध के ही द्वारकापुरी जला देने की चेष्टा की। जिस समय भोजराज रैवतक पर्वत पर विहार करने के लिये गये हुए थे, इसने उनके सभी साथियों को मार डाला अथवा बाँधकर अपनी राजधानी में ले आया। जब मेरे पिता अश्वमेध कर रहे थे, तब इस पापात्मा ने उसमें विघ्न डालने के लिये यज्ञीय अश्व को पकड़ लिया था। यदुवंशी तपस्वी बभ्रु की पत्नी जिस समय सौवीरदेश के लिये जा रही थीं, यह उन्हें देखकर मोहित हो गया और बलपूर्वक हर ले गया। इसकी ममेरी बहन भद्रा करुषराज के लिये तपस्या कर रही थी,परंतु इसने छल से रूप बदलकर उसे हर लिया। यह सब देख-सुनकर मुझे बड़ा कष्ट होता था, परंतु अपनी बुआ की बात मानकर मैं अबतक सहता रहा। आज यह दुष्ट आपलोगों के सामने ही विद्यमान है। यहाँ इस भरी सभा में इसने मेरे साथ जैसा व्यवहार किया है, वह आपलोग देख ही रहे हैं। इससे आपलोग समझ सकते हैं कि आपलोगों की अनुपस्थिति में इसने क्या किया होगा। आज इसने इस आदरणीय राजसमाज के बीच में घमंडवश जो दुर्व्यवहार किया है, उसे मैं कदापि सहन नहीं कर सकता। भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार कह ही रहे थे कि शिशुपाल उठकर खड़ा हो गया और ठठा-ठठाकर हँसने लगा। उसने कहा, कृष्ण, यदि तुझे सौ बार गरज हो तो मेरी बात सुन और सह। न गरज हो तो जो चाहे कर ले। तेरे क्रोध या प्रसन्नता से न मेरी कुछ हानि है और न लाभ। जिस समय शिशुपाल इस तरह कह रहा था, उसी समय भगवान् श्रीकृष्ण ने चक्र का स्मरण किया। स्मरण करते-न-करते चक्र उनके हाथ में चमकने लगा। भगवान् श्रीकृष्ण ने ऊँचे स्वर से कहा, नरपतियों, मैने अबतक इसे जो क्षमा किया था, इसका कारण यह था कि मैने इसकी माता की प्रार्थना से इसके सौ अपराध क्षमा करने की बात स्वीकार कर ली थी अब मेरे वचन के अनुसार संख्या पूरी हो गयी। इसलिये आपलोगों के सामने ही इसका सिर धड़ से अलग किये देता हूँ। भगवान् श्रीकृष्ण ने यह कहकर बिना विलंब उसी चक्र से शिशुपाल का सर काट डाला और सब लोग के देखते- देखते ही वह वज्रविद्ध पर्वत के समान धराशायी हो गया। उस समय राजाओं ने देखा कि शिशुपाल के शरीर से सूर्य के समान प्रकाशमान एक श्रेष्ठ ज्योति निकली।उसने भगवान् को प्रणाम किया और लोगों के देखते-ही-देखते वह उनमें समा गयी।धर्मराज युधिष्ठिर की आज्ञा से भीमसेन आदि ने तत्काल उसके प्रेत संस्कार का प्रबंध किया।तदन्तर राज युधिष्ठिर ने सभी नरपतियों के साथ शिशुपाल के पुत्र का चेदिराज पर अभिषेक कर दिया। 

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