Monday 24 August 2015

वनपर्व---नल का दमयन्ती को त्यागना, दमयन्ती को संकटों से बचते हुए दिव्य ऋषियों के दर्शन और राजा सुबाहु के महल में निवास

नल का दमयन्ती को त्यागना, दमयन्ती को संकटों से बचते हुए दिव्य ऋषियों के दर्शन और राजा सुबाहु के महल में निवास

उस समय राजा नल के शरीर पर वस्त्र नहीं था। और तो क्या, धरती पर बिछाने के लिये चटाई भी नहीं थी। शरीर धूल से लथपथ हो रहा था। भूख-प्यास की पीड़ा अलग ही थी। राजा नल जमीन पर ही सो गये। दमयन्ती के जीवन में भी कभी ऐसी परिस्थिति नहीं आयी थी। वह सुकुमारी भी वहीं सो गयी। दमयन्ती के सो जाने पर राजा नल की नींद टूटी।सच्ची बात तो यह थी कि वे दुःख और शोक की अधिकता के कारण सुख की नींद सो भी नहीं सकते थे। आँख खुलने पर उनके सामने राज्य के छिन जाने, सगे-सम्बन्धियों के छूटने और पक्षियों के वस्त्र लेकर उड़ जाने के दृश्य एक-एक करके आने लगे। वे सोचने लगे कि 'दमयन्ती मुझपर बड़ा प्रेम करती है। प्रेम के कारण ही वह इतना दुःख भी भोग रही है। यदि मैं इसे छोड़कर चला जाऊँगा तो यह अपने पिता के घर चली जायगी। मेरे साथ तो इसे दुःख-दुःख भोगना पड़ेगा। यदि मैं इसे छोड़कर चला जाऊँ तो सम्भव है कि इसे सुख भी मिल जाय।' अन्त में राजा नल ने यही निश्चय किया कि दमयन्ती को छोड़कर चले जाने में ही भला है। दमयन्ती सच्ची पतिव्रता है। कोई भी इसके सतीत्व को भंग नहीं कर सकता।' इस प्रकार त्यागने का निश्चय करके और सतीत्व की ओर से निश्चित होकर राजा नल ने यह विचार किया कि 'मैं वस्त्रहीन हूँ और दमयन्ती के शरीर पर केवल एक ही वस्त्र है। फिर भी इसके वस्त्र में से आधा फाड़ लेना ही श्रेयस्कर है। परंतु फाड़ूँ कैसे ? शायद यह जग जाय ?' वे धर्मशाला में इधर-उधर घूमने लगे। उनकी दृष्टि एक बिना म्यान के तलवार पर पड़ गयी। राजा नल ने उसे उठा लिया और धीरे से दमयन्ती का आधा वस्त्र फाड़कर अपना शरीर ढक लिया। दमयन्ती नींद में थी। राजा नल उसे छोड़कर निकल पड़े। थोड़ी देर बाद जब उनका हृदय शान्त हुआ, तब वे फिर धर्मशाला में लौट आये और दमयन्ती को देखकर रोने लगे। वे सोचने लगे कि 'अबतक मेरी प्राणप्रिया अन्तःपुर के पर्दे में रहती थी, इसे कोई छू भी नहीं सकता था। आज यह अनाथ के समान आधा वस्त्र पहने धूल में सो रही है। यह मेरे बिना दुःखी होकर वन में कैसे फिरेगी ? तू धर्मात्मा है; इसलिये आदित्य, वसु, रुद्र, अश्विनीकुमार और पवन देवता तेरी रक्षा करें।' उस समय राजा नल का हृदय दुःख के मारे टुकड़े-टुकड़े हुआ जा रहा था, वे झूले की तरह बार-बार धर्मशाला केबाहर निकलते और फिर लौट आते। शरीर में कलियुग का प्रवेश होने के कारण बुद्धि नष्ट हो गयी थी, इसलिये अंततः वे अपनी प्राणप्रिया पत्नी को वन में अकेली छोड़कर वे वहाँ से चले गये। जब दमयन्ती की नींद टूटी ,तब उसने देखा कि राजा नल वहाँ नहीं हैं। वह आशंका से भरकर पुकारने लगी कि 'महाराज ! मेरे स्वामी ! आप कहाँ हैं ? मैं अकेली डर रही हूँ, आप कहाँ गये ? बस, अब अधिक हँसी न कीजिये। मेरे कठोर स्वामी ! मुझे क्यों डरा रहे हैं ? शीघ्र दर्शन दीजिये। मैं आपको देख रही हूँ। लो, यह देख लिया। लताओं की आड़ में छिपकर चुप क्यों हो रहे हैं ? मैं दुःख में पड़कर इतना विलाप कर रही हूँ और आप मेरे पास आकर धैर्य भी नहीं देते ? दमयन्ती इस तरह विलाप करते हुए इधर-उधर दौड़ने लगी। वह उन्मत्त सी होकर इधर-उधर घूमती हुई एक अजगर के पास जा पहुँची, शोकग्रस्त होने के कारण उसे इस बात का पता भी नहीं चला। अजगर दमयन्ती को निगलने लगा। उस समय भी दमयन्ती के चित्त में अपनी नहीं, राजा नल की ही चिन्ता थी कि वे अकेले कैसे रहेंगे। वह पुकारने लगी---'स्वामी ! मुझे अनाथ की भाँति यह अजगर निगल रहा है, आप मुझे छुड़ाने के लिये क्यों नहीं आते ?' दमयन्ती की आवाज एक व्याध के कान में पड़ी। वह उधर ही घूम रहा था। वह वहाँ दौड़कर आया और यह देखकर कि दमयन्ती को अजगर निगल रहा है, अपने तेज शस्त्र से अजगर का मुँह चीर डाला। उसने दमयन्ती को छुड़ाकर लाया और आश्वासन देकर भोजन कराया। दमयन्ती कुछ शान्त हुई। व्याध ने पूछा---'सुन्दरी ! तुम कौन हो ? किस कष्ट में पड़कर किस उद्देश्य से यहाँ आयी हो ? दमयन्ती ने व्याध से अपनी कष्ट-कहानी कही। दमयन्ती की सुन्दरता, बोल-चाल और मनोहरता देखकर व्याध काममोहित हो गया। वह मीठी-मीठी बातें करके दमयन्ती को अपने वश में करने की चेष्टा करने लगा।दमयन्ती दुरात्मा व्याध के मन का भाव जानकर क्रोध के आवेश से प्रज्जवलित हो गयी। दमयन्ती ने व्याध के बलात्कार की चेष्टा को बहुत रोकना चाहा; परन्तु जब वह किसी प्रकार न माना, तब उसने शाप दे दिया---'यदि मैने निषधनरेश राजा नल को छोड़कर किसी और पुरुष का मन से भी चिन्तन नहीं किया हो तो यह पापी क्षुद्र व्याध मरकर जमीन पर गिर पड़े।' दमयन्ती के मुँह से ऐसी बात निकलते ही व्याध के प्राण-पखेरू उड़ गये, वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। व्याध के मर जाने पर दमयन्ती राजा नल को ढूँढती हुई एक निर्जन और भयंकर वन में जा पहुँची। बहुत से पर्वत, नदी, जंगल आदि पार करते हुए वह उत्तर की ओर बढ़ने लगी। तीन दिन, तीन रात बीत जाने के बाद वह एक तपोवन में पहुँची जहाँ तपस्वी ऋषि थे जो मृगछाला धारण किये हुए थे। दमयन्ती को कुछ धैर्य मिला। उसने आश्रम में जाकर बड़ी नम्रता के साथ तपस्वी ऋषियों को प्रणाम किया। ऋषियों ने दमयन्ती का सत्कार किया। ऋषियों ने कहा---'कल्याणी ! तुम कौन हो और किस उद्देश्य से यहाँ आयी हो ? दमयन्ती ने कहा---'महात्माओं ! मैं विदर्भनरेश राजा भीमक की पुत्री हूँ। निषधनरेश नल मेरे पति हैं। कपटध्यूत के विशेषज्ञ एवं दुरात्मा पुरुषों ने मेरे धर्मात्मा पति को जूआ खेलने के लिये उत्साहित करके उनका राज्य और धन ले लिया है। मैं उन्हीं की पत्नी दमयन्ती हूँ। संयोगवश वे मुझसे बिछड़ गये हैं। मैं अपने महात्मा पतिदेव को ढूँढने के लिये वन-वन भटक रही हूँ। मैं यदि उन्हें शीघ्र ही नहीं देख पाऊँगी तो जीवित नहीं रह सकूँगी। उनके बिना मेरा जीवन निष्फल है। तपस्वियों ने कहा---'कल्याणी ! हम अपनी तपःशुद्धि दृष्टि से देख रहे हैं कि तुम्हे आगे बहुत सुख मिलेगा और थोड़े ही दिनों में राजा नल का दर्शन होगा। धर्मात्मा निषधनरेश थोड़े ही दिनों में समस्त दुःखों से छूटकर सम्पत्तिशाली निषध देश पर राज्य करेंगे।' इस प्रकार कहकर वे तपस्वी अपने आश्रम के साथ अन्तर्धान हो गये। यह आश्चर्य की घटना देखकर दमयन्ती विस्मित हो गयी। वहाँ से चलकर दमयन्ती विलाप करती हुई अशोकवृक्ष के पास पहुँची। उसकी आँखों से झर-झर आँसू बह रहे थे। उसने अशोक-वृक्ष से गद्-गद् स्वर में कहा---'शोकरहित अशोक ! तू मेरा शोक मिटा दे। दमयन्ती ने अशोक की प्रदक्षिणा की और वह आगे बढी।भयंकर वन में अनेकों वृक्ष, गुफा, पर्वतों के शिखर और नदियों के आस-पासअपने पतिदेव को ढूँढती हुई दमयन्ती बहुत दूर निकल गई। वहाँ उसने देखा कि बहुत-से हाथी,घोड़ों और रथों के साथ व्यापारियों का एक समूह आगे बढ रहा है। व्यापारियों के प्रधान से बातचीत करके और यह जानकर कि ये व्यापारी राजा सुबाहु के राज्य चेदिदेश में जा रहे हैं, दमयन्ती उनके साथ हो गयी।कई दिनों तक चलने के बाद वे व्यापारी एक भयंकर वन में पहुँचे। वहाँ एक बड़ा ही सुन्दर सरोवर था। लम्बी यात्रा करने के कारण सब लोग थक गये थे। इसलिये उनलोगों ने वहीं पड़ाव डाल दिया। दैव व्यापारियों के प्रतिकूल था। रात के समय जंगली हाथी व्यापारियों के हाथियों पर टूट पड़े और उनकी भगदड़ में सब-के-सब व्यापारी नष्ट-भ्रष्ट हो गये। कोलाहल सुनकर दमयन्ती की नींद टूटी। वह इस महासंहार का दृश्य देखकर बावली-सी हो गयी। उसने कभी ऐसी घटना नहीं देखी थी। वह डरकर वहाँ से भाग निकली और जहाँ कुछ बचे हुए मनुष्य खड़े थे वहाँ जा पहुँची। तदनन्तर दमयन्ती उन वेदपाठी और संयमी ब्राह्मणों के साथ, जो इस महासंहार से बच गये थे, शरीर पर आधा वस्त्र धारण किये चलने लगी और सायंकाल के समय चेदिनरेश राजा सुबाहुकी राजधानी जा पहुँची। जिस समय दमयन्ती राजधानी के राजपथ पर चल रही थी, नागरिकों ने यही समझा कि यह कोई बावली स्त्री है। छोटे-छोटे बच्चे उसके पीछे लग गये। दमयन्ती राजमहल के पास जा पहुँची। उस समय राजमता राजमहल की खिड़की में बैठी हुईं थीं। उन्होंने बच्चों से घिरी दमयन्ती को देखकर धाय से कहा कि 'अरी ! देख तो, यह स्त्री बड़ी दुखिया मालूम पड़ती है। अपने लिये कोई आश्रय ढूँढ रही है। तू जा, इसे मेरे पास ले आ। यह सुन्दरी तो इतनी है, मानो मेरे महल को भी दमका देगी।' धाय ने आज्ञापालन किया। दमयन्ती राजमहल में आ गयी। राजमाता ने दमयन्ती का सुन्दर शरीर देखकर पूछा---देखने में तो तुम दुखिया जान पड़ती हो, तो भी तुम्हारा शरीर इतना तेजस्वी कैसे है ? बताओ, तुम कौन हो, किसकी पत्नी हो, असहाय अवस्था में भी किसी से डरती क्यों नहीं हो ?'दमयन्ती ने कहा---'मैं एक पतिव्रता नारी हूँ। मैं हूँ तो कुलीन परंतु दासी का काम करती हूँ। अन्तःपुर में रह चुकी हूँ। मैं कहीं भी रह जाती हूँ। फल-मूल खाकर दिन बिता देती हूँ। मेरे पतिदेव बहुत गुणी हैं और मुझसे प्रेम भी बहुत करते हैं। मेरे अभाग्य की बात है कि वे बिना मेरे किसी अपराध के ही रात के सय मुझे सोती छोड़कर न जाने कहाँ चले गये हैं। मैं दिन-रात अपने प्राण-पति को ढ़ूँढ़ती और उनके वियोग में जलती रहती हूँ।'इतना कहते-कहते दमयन्ती के आँखों में आँसू उमड़ आये, वह रोने लगी। दमयन्ती के दुःखभरे विलाप से राजमाता का जी भर आया। वे कहने लगीं---'कल्याणी ! मेरा तुमपर स्वाभाविक ही प्रेम हो रहा है। तुम मेरे पास रहो, मैं तुम्हारे पति को ढ़ूँढ़ने का प्रबंध करूँगी।जब वे आवें, तब तुम उनसे यहीं मिलना।' दमयन्ती ने कहा---'माताजी ! मैं एक शर्त पर आपके यहाँ रह सकती हूँ। मैं कभी जूठा न खाऊँगी, किसी के पैर नहीं धोऊँगी और पर-पुरुष के साथ किसी प्रकार भी बातचीत नहीं करूँगी। यदि कोई पुरुष मुझसे दुश्चेष्टा करे तो उसे दण्ड देना होगा। यदि आप मेरी यह शर्त स्वीकार करें तो मैं रह सकती हूँ, अन्यथा नहीं।' राजमाता दमयन्ती के नियमों को सुनकर प्रसन्न हुईं और उन्होंने कहा कि ऐसा ही होगा। तदनन्तर उन्होंने अपनी पुत्री सुनंदा को बुलाया और उससे कहा कि, बेटी ! देखो,  दमयन्ती अवस्था में तुम्हारे बराबर की है, इसलिये इसे सखी के समान राजमहल में रखो। सुनन्दा प्रसन्नता के साथ दमयन्ती को अपने महल में ले गयी। दमयन्ती अपने नियमों का पालन करती हुई महल में रहने लगी। 






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