Sunday 16 August 2015

आदिपर्व---नियमभंग के कारण अर्जुन का वनवास एवं उलूपी और चित्रांगदा के साथ विवाह

  नियमभंग के कारण अर्जुन का वनवास एवं उलूपी और चित्रांगदा के साथ विवाह
    पाण्डव अपने शारीरिक बल और अस्त्र-कौशल से एक-एक करके राजाओं को वश में कर लिया। द्रौपदी भी अनुकूल रहती। पाण्डव उसे पाकर बहुत संतुष्ट और सुखी हुए। वे धर्मानुसार प्रजा का पालन करते थे। उनकी धार्मिकता के प्रभाव से कुरुवंशियों के दोष भी मिटने लगे। एक दिन की बात है, लुटेरों ने किसी ब्राह्मण की गौएँ लूट लीं और उन्हे लेकर भागने लगे। ब्राह्मण को बड़ा क्रोध आया और वह इन्द्रप्रस्थ मे आकर पाण्डवों के सामने करुण क्रंदन करने लगा। ब्राह्मण ने कहा, पाण्डव, तुम्हारे राज्य में दुरात्मा और क्षुद्र लुटेरे मेरी गौएँ छीनकर बलपूर्वक लिये जा रहे हैं। तुम दौड़कर इनहें बचाओ। जो राजा प्रजा से कर लेकर भी उसकी रक्षा प्रबंध नहीं करता, वह निःसंदेह पापी है। अर्जुन ने ब्राह्मण का करुण-क्रंदन सुनकर उन्हें ढाढस बंधाया। परन्तु उनके सामने अड़चन यह थी जिस घर में राजा यधिष्ठिर द्रौपदी के साथ बैठे हुए थे, उसी घर में उनके अस्त्र-शस्त्र थे। नियमानुसार अर्जुन उस घर में नहीं जा सकते थे। एक ओर कौटुम्बिक नियम, दूसरी ओर ब्राह्मण की करुण पुकार। अर्जुन बड़े असमंजस में पड़ गये। उन्होंने सोचा कि ब्राह्मण का गोधन लौटाकर आँसू पोंछना मेरा निश्चित कर्तव्य है। यदि मैं इसकी उपेक्षा कर दूँगा तो राजा को अधर्म होगा, हमलोगों की निंदा होगी और पापभी लगेगा। दूसरी ओर प्रतिज्ञा भंग करने में भी पाप लगेगा, वन में जाना पड़ेगा। अच्छी बात है। मैं ब्राह्मण की रक्षा करूँगा। कोई रुकावट हो तो रहे। नियम भंग के कारण कितना भी कठिन प्रायश्चित क्यों न करना पड़े, चाहे प्राण ही क्यों न चले जायँ, इस दीन ब्राह्मण के गोधन की रक्षा करना मेरा धर्म है और यह मेरे जीवन के रक्षा से भी अधिक महत्वपूर्ण है। अर्जुन राजा युधिष्ठिर के घर में निःसंकोच चले गये। राजा से अनुमति लेकर धनुष उठाया और आकर ब्राह्मण से बोले, ब्राह्मणदेवता, जल्दी चलो। अभी वे दुष्ट अधिक दूर नहीं गये हैं। थोड़ी ही दे में अर्जुन ने बाणों की बौछार से लुटेरों को मारकर गौएँ  ब्राह्मण को सौंप दी। नागरिकों ने अर्जुन की बड़ी प्रशंसा की, कुरुवंशियों ने अभिनंदन किया।अर्जुन ने युधिष्ठिर के पास जाकर कहा, भाईजी, मैने आपके एकान्त-गृह में जाकर प्रतिज्ञा तोड़ी है। इसलिये मुझे बारह वर्ष तक वनवास करने की आज्ञा दीजिये। क्योंकि हमलोगों में ऐसा नियम बन चुका है। यकायक अर्जुन के मुँह से ऐसी बात सुनकर युधिष्ठिर शोक में पड़ गये। उन्होंने व्याकुल होकर अर्जुन से कहा, भैया यदि तुम मेरी बात मानते हो तो मैं जो कहता हूँ, सुनो। यदि तुमने नियम-भंग किया भी है तो उसे मैं क्षमा करता हूँ। मेरे अंतःकरण में उससे तनिक भी दुःख नहीं हुआ। तुमने तो बहुत अच्छा काम किया। बड़ा भाई स्त्री के साथ बैठा है तो वहाँ छोटे भाई का जाना अपराध नहीं है। छोटा भाई स्त्री के साथ बैठा हो तो वहाँ छोटे भाई को नहीं जाना चाहिये। तुम वनवास जाने का विचार छोड़ दो। न तो तुम्हारे धर्म का लोप हुआ है और न ही मेरा अपमान। अर्जुन ने कहा, आप ही कहते हैं कि धर्म-पालन में बहानेबाजी नहीं करनी चाहिये। मैं शस्त्र छूकर सच-सच कहता हूँ कि अपनी सत्य प्रतिज्ञा को कभी नहीं तोड़ूँगा। अर्जुन ने वनवास की दीक्षा ली और बारह वर्ष तक वनवास करने के लिये चल पड़े। अर्जुन के साथ बहुत से वेद-वेदांग के मर्मज्ञ, आध्यात्म-चिंतक, भगवत्-भक्त, त्यागी ब्रा्ह्मण, कथा-वाचक, वाणप्रस्थ और भिक्षाजीवी भी चले। उन्होंने सैकड़ों वन, सरोवर, नदी, पुण्यतीर्थ, देश एवं समुद्र के दर्शन किये। अन्त में हरिद्वार पहुँचकर वे कुछ दिनों के लिये ठहर गये। एक दिन अर्जुन स्नान करने के लिये गंगाजी में उतरे। वे स्नान-तर्पण करके हवन करने के लिये बाहर निकलने ही वाले थे कि नागकन्या उलूपी ने कामासक्त होकर उन्हें जल के भीतर खींच लिया और अपने भवन को ले गयी। अर्जुन ने देखा कि वहाँ यज्ञीय अग्नि प्रज्जवलित हो रहा है।उन्होंने उसमें हवन किया और अग्निदेव को प्रसन्न करके नागकन्या उलूपी से पूछा,सुन्दरी तुम कौन हो।तुम ऐसा साहस करके मुझे किस देश में ले आयी हो। उलूपी ने कहा, मैं ऐरावत वंश के कौरव्य नाग की कन्या उलूपी हूँ। मैं आपसे प्रेम करती हूँ। इसके अतिरिक्त मेरी दूसरी गति नहीं है। आप मेरी अभिलाषा पूर्ण कीजिये, मुझे स्वीकार कीजिये। अर्जुन ने कहा, देवी, मैंने धर्मराज युधिष्ठिर की आज्ञा से बारह वर्ष के ब्रह्मचर्य का नियम ले रखा है। मैं स्वाधीन नहीं हूँ। मैं तुम्हे प्रसन्न करना चाहता तो हूँ, परन्तु मैने अबतक कभी किसी प्रकार असत्यभाषण नहीं किया है। मुझे झूठ का पाप न लगे, मेरे धर्मका लोप न हो, ऐसा ही काम तुम्हे करना चाहिये। उलूपी ने कहा, आपलोगो नें द्रौपदी के लिये जो मर्यादा बनायी थी उसे मैं जानती हूँ। परंतु यह नियम द्रौपदी के साथधर्म-पालन करने के लिये ही है, इस लोक में मेरे सथ उस धर्म का लोप नहीं होता। साथ ही आर्त-रक्षा भी तो परम धर्म है। मैं दुःखिनी हूँ, आपके सामने रो रही हूँ। यदि आप मेरी इच्छा पूर्ण नहीं करेगे तो मैं मर जाऊँगी। मेरी प्राण-रक्षा करने से आपका धर्म-लोप नहीं होगा, आर्त-रक्षा का पुण्य ही होगा। आप मुझे प्राण-दान देकर धर्म उपार्जन कीजिये। अर्जुन ने उलूपी की प्राण-रक्षा को धर्म समझकर उसकी इच्छा पूर्ण की और रात-भर वहीं रहे। दूसरे दिन वे वहाँ से निकलकर हरिद्वार में आ गये। चलते समय नागकन्या उलूपी ने अर्जुन को वर दिया कि किसी भी जलचर प्राणी से आपको भय नहीं रहेगा। सब जलचर आपके अधीन रहेंगे। अर्जुन ने वहाँ सब घटना ब्राह्मण से कही। वे हिमालय की तराई में चले गये। अगस्त्यवट, वशिष्ठपर्वत, भृगुतुंग आदि पुण्यतीर्थों में स्नान करते, ऋृषियों के दर्शन करते विचरण करने लगे। उन्होंने बहुत सी गौएँ दान कीं तथा अंग, वंग, कलिंग आदि देशों के तीर्थों के दर्शन किये। जो कुछ ब्राह्ण अर्जुन के साथ रह गये थे वे भी कलिंग देश की सीमा से उनकी अनुमति लेकर लौट गये। अर्जुन महेन्द्र पर्वतपर होकर समुद्र किनारे चलते-चलते मणिपुर पहुँचे। वहाँ के राजा चित्रवाहन बड़े धर्मात्मा थे। एक दिन अर्जुन की दृष्टि उसपर पड़ गयी। उन्होंने समझ लिया कि यह वहाँ की राजकुमारी है, और राजा चित्रवाहन के पास जाकर कहा--राजन् मैं कुलीन क्षत्रिय हूँ। आप मुझसे अपनी कन्या का विवाह कर दीजिये। चित्रवाहन के पूछने पर अर्जुन ने बताया कि मैं पाण्डुपुत्र अर्जुन हूँ। चित्रवाहन ने कहा कि वीरवर, मेरे पूर्वज में प्रभंजन नाम के एक राजा हो गये हैं। उन्होंने संतान न होने पर उग्र तपस्या करके देवधदेव महादेव को प्रसन्न किया। उन्होंने वर दिया कि तुम्हारे वंश में एक-एक संतान होती जायगी। वीर तबसे हमारे वंश में वैसा ही होता आया है। मेरे यह एक ही कन्या है, इसे मैं पुत्र ही समझता हूँ। इसका मैं पुत्रिका -धर्म के अनुसार विवाह करूँगा, जिससे इसका पुत्र मेरा दत्तक पुत्र हो जाय और मेरा वंशप्रवर्तक बने। अर्जुन ने राजा की शर्त मान ली।विधिपूर्वक विवाह हुआ। पुत्र होने पर अर्जुन ने राजा से अनुमति लेकर फिर तीर्थ-यात्रा के लिये चल पड़े। वीरवर अर्जुन वहाँ से चलकर समुद्र के किनारे-किनारे अगस्त्यतीर्थ, सौभद्रतीर्थ, पौलोमतीर्थ, कारन्धमतीर्थ और भारद्वाज तीर्थ गये।उन तीर्थों के पास के ऋषि-मुनि उनमें स्नान नहीं करते थे। अर्जुन के पूछने पर मालूम हुआ कि उनमें बड़े-बड़े ग्राह रहते हैं, जो ऋषियों को निगल जाते हैं। तपस्वियों के रोकने पर भी अर्जुन ने सौभद्रतीर्थ जाकर स्नान किया। जब वहाँ मगरने अर्जुन का पैर पकड़ा, तब वे उसे उठाकर ऊपर ले आये। परंतु उस समय यह बड़ी विचित्र घटना घटी कि वह मगर तत्क्षण एक सुन्दरी अप्सरा के रूप में परिणत हो गया। अर्जुन के पूछने पर अप्सरा ने बतलाया कि मैं कुबेर की प्रेयसीवर्गा नाम की अप्सरा हूँ। एक बार मैं अपनी चार सखियों के साथ कुबेरजी के पास आ रही थी। रास्ते में एक तपस्वी के तप में हमलोगों ने विघ्न डालना चाहा। तपस्वी के चित्त में काम का तो उदय नहीं हुआ परन्तु उन्होंने क्रोधवश शाप दे दिया कि तुम पाँचों मगर होकर सौ वर्षों तक पानी में रहो। देवर्षि नारद से यह जानकर कि पाण्डव अर्जुन यहाँ आकर थोड़े ही दिनों में हमलोगों का उद्धार करेंगे, हमलोग इन तीर्थों में मगर होकर रह रही हैं। आपने मेरा तो उद्धार कर दिया।अब मेरी चार सखियों का भी उद्धार कर दीजिये। उलूपी के वरदान के कारण अर्जुन को जलचरों से कोई भय तो था ही नही, उन्होंने सब अप्सराओं का उद्धार भी कर दिया और उनके प्रयत्न से वहाँ के सब तीर्थ बाधाहीन भी हो गये। वहाँ से लौटकर अर्जुन फिर एक बार मणिपुर गये। चित्रांगदा के गर्भ से जो पुत्र हुआ उसका नाम वभ्रुवाहन रखा गया। अर्जुन ने राजा चित्रवाहन से कहा कि आप इस लड़के को ले लीजिये, जिससे इसकी शर्त पूरी हो जाय। उन्होंने चित्रांगदा को भी वभ्रुवाहन के पालन-पोषण के लिये वहाँ रहने की आवश्यकता बतलायी और उसे राजसूय यज्ञ में अपने पिता के साथ इन्द्रप्रस्थ आने के लिये कहकर फिर तीर्थ-यात्रा के लिये गोकर्णक्षेत्र चले गये। दक्षिणी समुद्र के उत्तर-तटवर्ती तीर्थों की यात्रा करके अर्जुन पश्चिमी समुद्र के तटवर्ती तीर्थों की यात्रा करने लगे। जब वे प्रभासक्षेत्र में पहुँचे, तब भगवान् श्रीकृष्ण को उनके वहाँ आने का समाचार मिला और उन्होंने उसी समय अपने परम मित्र अर्जुन से मिलने के लिये प्रभासक्षेत्र की यात्रा की। नर और नारायण के मिलने से आनन्द की बाढ आ गयी, दोनो परस्पर गले मिले। कुशल-मंगल तीर्थ-यात्रा और उसके कारण के संबंध में विस्तार से बातचीत हुई। कुछ सय के बाद दोनो मित्र रैवतक पर्वत पर जाकर रहने लगे। वहाँ श्रीकृष्ण के सेवकों ने पहले से ही सब प्रकार की सजावट एवं खाने-पीने, सोने, घूमने की सुविधा कर रखी थी। वहाँ भगवान् श्रीकृष्ण की ओर से अर्जुन का राजोचित सम्मान और तरह-तरह से मनोरंजन किया। रात को सोने के समय अर्जुन अपनी यात्रा की बातें सुनाते रहे। वहाँ से रथ पर सवार होकर दोनो मित्र द्वारका गये। अर्जुन के सम्मान के लिये द्वारकापुरी के उपवन, महल, सड़कें--सब सजा दिये गये थे। यदुवंशियों ने बड़े उत्साह के साथ अर्जुन का स्वागत-सत्कार किया और अपनी स्थिति, पद और योग्यता के अनुसार उनका अभिनन्दन किया। द्वारकापुरी में वे भगवान् श्रीकृष्ण के निज मन्दिर में ही ठहरे और दोनो अनेक रात्रियों में एक साथ ही सोये। 






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