Friday 21 August 2015

सभापर्व---दुबारा कपट-ध्यूत और पाण्डवों की वनयात्रा

 दुबारा कपट-ध्यूत और पाण्डवों की वनयात्रा
     धृतराष्ट्र ने पाण्डवों को धन सम्पत्ति केसाथ जाने की अनुमति दे दी, यह सुनते ही दुःशासन अपने बड़े भाई दुर्योधन के पास गया और बड़े दुःख के साथ कहा कि,भैया,बूढे राजा ने हमारे बड़े कष्ट से प्राप्त धन को खो दिया।सब धन शत्रुओं के हाथ में चला गया।अभी कुछ सोच-विचार करना हो तो कर लो। यह सुनते ही दुर्योधन, कर्ण और शकुनि ने आपस में सलाह की और सब-के-सब एक साथ ही धृतराष्ट्र के पास गये। उन्होंने बड़े विनय से कहा, राजन्, यदि इस समय हमलोग पाण्डवों से प्राप्त धन के द्वारा ही राजाओं इसलिये हम वनवास की शर्त पर पाण्डवों के साथ फिर से जूआ खेलेंगे। इस प्रकार वे हमारे वश में हो जायेंगे। जूए में जो भी हार जायँ, हम या वे, बारह वर्ष तक मृगचर्म पहनकर वन में रहें और तेरहवें वर्ष किसी नगर में इस प्रकार छिपकर रहें कि किसी को पता न चले। यदि पता चल जाय कि ये कौरव या पाण्डव हैं तो फिर बारह वर्ष तक वन में रहें। इस शर्त पर आप फिर जूआ खेलने की आज्ञा दे दीजिये। यह काम बहुत आवश्यक है।पासे डालने की विद्या में हमारे मामा शकुनि बड़े चतुर हैं। यदि पाण्डव कदाचित् यह शर्त पूरी कर लेंगे तो भी हम इतने समय में बहुत से राजाओं को अपना मित्र बना लेंगे और दुर्जय सेना इकट्ठी कर लेंगे। उस समय हम युद्ध में भी पाण्डवों को जीत सकेंगे। इसलिये आप यह बात अवश्य मान लीजिये।धृतराष्ट्र ने हामी भर दी। उन्होंने ने कहा, बेटा, यदि ऐसी बात है तो पाण्डव दूर चले गये हों, तब भी दूत भेजकर उन्हें तुरंत बुला लो।वे आ जायँ तो फिर इसी शर्त पर खेल हो। धृतराष्ट्र की बात सुनकर द्रोणाचार्य, सोमदत्त, बाह्लीक, कृपाचार्य, विदुर, अश्त्थामा, युयुत्सु, भूरिश्रवा, भीष्मपितामह और विकर्ण--सभी ने एक स्वर से कहा कि अब जूआ मत खेलो, शान्ति धारण करो। परन्तु पुत्रस्नेहवश धृतराष्ट्र ने अपने सभी दूरदर्शी मित्रों की सलाह ठुकरा दी और पाण्डवों को जूआ खेलने के लिये बुलवाया। यह सब देख-सुनकर धर्मपरायणा गांधारी अत्यंत शोक-संतप्त हो रही थी। उन्होंने अपनें पति धृतराष्ट्र से कहा, स्वामी, दुर्योधन जन्मते ही गीदड़ के समान रोने चिल्लाने लगा था। इसलिये उसी समय परम ज्ञानी विदुरने कहा कि इस पुत्र का परित्याग कर दो। मुझे तो वह बात याद करके यही मालूम होता है कि यह कुरुवंश का नाश करके छोड़ेगा। आर्यपुत्र, आप अपने दोष से सबको विपत्ति के सागर में मत डुबाइये। इन ढीठ मूर्खों की 'हाँ' में हाँ मत मिलाइये। इस वंश का नाश मत कीजिये। बुझी हुई आग फिर धधक उठेगी। पाण्डव शान्त और वैर-विरोध से विमुख हैं। उनको अब क्रोधित करना ठीक नहीं है। यद्यपि यह बात आप जानते हैं फिर भी मैं स्मरण दिला रही हूँ। दुर्बुद्धि पुरुष के चित्त पर शास्त्र के उपदेश का भला-बुरा कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता। परन्तु आप वृद्ध होकर बालकों की सी बात करें, यह अनुचित है। इस समय आप अपने पुत्र तुल्य पाण्डवों को अपने वश में रखिये। कहीं वे दुःखी होकर आपसे विलग न हो जायँ। कुलकलंक दुर्योधन को त्यागना ही श्रेयस्कर है। मैने उस समय मोहवश विदुर की बात नहीं मानी थी। यह सब उसी का फल है। शान्ति, धर्म और मन्त्रियों की सम्मति से अपनी विचारशक्ति सुरक्षित रखिये। प्रमाद मत कीजिये। बिना विचारे काम करना आपको बड़ा दुःख देगा। राज्यलक्ष्मी क्रूर के हाथ में पड़कर उसी का सत्यानाश कर देती है।सरल पुरुष के पास रहकर ही वह पीढी-दर-पीढी चलती है। गान्धारी की बात सुनकर धृतराष्ट्र ने कहा, प्रिये, यदि कुल का नाश होना ही है तो होने दो। मैं उसे नहीं रोक सकता। अब तो दुर्योधन और दुःशासन जो चाहें, वही होना चाहिये। पाण्डवों को लौट आने दो। मेरे पुत्र फिर उनके साथ जूआ खेलेंगे। राजा धृतराष्ट्र की आज्ञा से प्रतिकामी पाण्डवों के पास पहुँचा। उस समय तक वे लोग मार्ग में बहुत आगे बढ गये थे। प्रतिकामी ने कहा, राजन् फिर सभा जोड़ी गयी है। महाराज  धृतराष्ट्र ने कहा है कि आप फिर वहाँ चलकर जूआ खेलिये। धर्मराज बोले, सभी प्राणी दैव के अधीन हैं। उसी के अनुसार शुभ-अशुभ फल भोगते हैं। किसी का कोई वश नहीं है। चलो, फिर जूआ खेलना पड़ता है तो ऐसा ही सही। मैं जानता हूँ कि ऐसा करने से वंश का नाश हो जायगा। अत्यधिक अभिमान, अत्यधिक बोलना, त्याग की कमी, क्रोध, स्वार्थ, मित्र द्रोह ये छह चीजें किसी मनुष्य की आयु को कम करती हैं. फिर भी मैं अपने बूढे ताऊजी की आज्ञा कैसे टालूँ। युधिष्ठिर भाइयों के साथ फिर लौट आये। वे 'शकुनि छली है' यह बात जानकर भी फिर उसके साथ जूआ खेलने को तैयार हो गये। धर्मराज की यह स्थिति देखकर उनके मित्रों को बड़ा कष्ट हुआ। शकुनि ने धर्मराज को सम्बोधन करके कहा, 'राजन् ! हमारे वृद्ध महाराज ने आपकी धनराशि आपके पास ही छोड़ दी है। इससे हमें प्रसन्नता हुई है। अब हम एक दावँ और लगाना चाहते हैं। यदि हम आपसे जूए में हार जायँ तो मृगचर्म धारण करके बारह वर्ष तक वन में रहें और तेरहवें वर्ष किसी नगर में अज्ञातरूप से रहें। यदि उस समय कोई पहचान ले तो बारह वर्ष और भी वन में रहें। और यदि हम आपको हरा दें तो द्रौपदी के साथ आपलोग मृगचर्म धारण करके बारह वर्ष तक वन में रहें और तेरहवें वर्ष अज्ञातवास करें। यदि उस समय कोई पहचान ले तो फिर बारह वर्ष वन में रहना होगा। इस प्रकार तेरह वर्ष पूरे होने पर आप या हम उचित रीति से अपना-अपना राज्य ले लेंगे। इसी शर्त पर हमलोग फिर पासे खेलें।' शकुनि की बात सुकर सभी भासद् खिन्न हो गये। वे बड़े उद्वेग से हाथ उठाकर कहने लगे कि 'अन्धे धृतराष्ट्र जूए के कारण आनेवाले भय को देख रहे हों या नहीं, परन्तु इनके मित्र तो धिक्कारने के योग्य हैं; क्योंकि वे समय पर इनको सावधान नहीं कर रहे हैं। 'सभासदों का यह बात युधिष्ठिर भी सुन रहे थे और वे यह भी समझ रहे थे कि इस बार के जूए का क्या दुष्परिणाम होगा। फिर भी उन्होंने यह सोचकर कि कौरवों का विनाशकाल समीप आ गया है, जूआ खेलना स्वीकार कर लिया। शकुनि ने उनकी स्वीकृति पाते ही छल से पासे डाले और युधिष्ठिर से कहा, 'लो, यह दाँव मैने जीत लिया !' जूए में हारकर पाण्डवों ने मृगचर्म धारण किया और वन में जाने के लिये तैयार हो गये। उनको ऐसी स्थिति में देखकर दुःशासन कहने लगा कि 'धन्य है, धन्य है। अब महाराज दुर्योधन का शासन प्रारम्भ हो गया। पाण्डव विपत्ति में पड़ गये। राजा द्रुपद तो बड़े बुद्धिमान हैं। फिर उन्होंने अपनी कन्या पाण्डवों को कैसे ब्याह दी ? अरे ! ये पाण्डव तो नपुंसक हैं। द्रुपद की बेटी ! अब तो ये पाण्डव थोड़े से वस्त्र और मृगचर्म से बड़ी गरीबी के साथ वन में जीवन बितायेंगे, तू अब इनके प्रति प्रेम कैसे रखेगी ? अब किसी मनचाहे पुरुष को वर क्यों नहीं लेती ? दुःशासन बकता ही रहा। भीमसेन ने जोर से ललकारकर कहा कि 'रे क्रूर ! तूने हमें अपने बाहुबल से नहीं जीता है। छल विद्या के बल पर जीतकर तू शेखी बघार रहा है ? ऐसी बात केवल पापी ही कह सकते हैं । तू इस समय कड़वे वचनों के वाण से हमारे मर्मस्थान पर चोट कर ले। मैं रणभूमि में तेरे मर्मस्थानों को काटकर इनकी याद दिलाऊँगा। आज जो लोग क्रोध या लोभ के वश में होकर तेरा पक्षपात कर रहे हैं, तेरे रक्षक बने हुए हैं, उन्हें भी मैं इष्ट-मित्रों के सहित यमराज के हवाले करूँगा।  इस समय भीमसेन मृगचर्म धारण किये खड़े थे। धर्म के कारण वे शत्रुओं का नाश नहीं कर सकते थे। भीमसेन के ऐसा कहने पर दुःशासन भरी सभा में 'ओ बैल ! ओ बैल !' कहकर निर्लज्ज की तरह नाचने कूदने लगा।भीमसेन ने कहा---'रे दुष्ट ! कटु वचन कहते तुझे शर्म नहीं आती?छल से सम्पत्ति छीनकर अब बढ-चढकर बातें बना रहा है? यदि यह वृकोदर भीम कुन्ती की कोख से जना है तो रणभूमि में तेरा कलेजा चीरकर खून पीयेगा। मैं सब धनुर्धरों के सामने ही धृतराष्ट्र के सारे-के-सारे पुत्रों का संहार करके शान्ति प्राप्त करूँगा। यह मेरी सत्य शपथ है। पाण्डव इस प्रकार और भी बहुत सी प्रतिज्ञाएँ करके राजा धृतराष्ट्र के पास गये। युधिष्ठिर ने कहा, 'ताऊजी ! मैं भरतवंश के वयोवृद्ध पितामह भीष्म, सोमदत्त, बाह्लीक, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, अश्त्थामा, विदुर, दुर्योधनादि सब भाई, युयुत्सु, संजय, अन्य नरपति तथा सभासदों की आज्ञा लेकर वनवास के लिये जा रहा हूँ। वहाँ से लौटकर आपलोगों के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होगा। 'उस समय सभा के किसी सभासद् से युधिष्ठिर के प्रति कुछ भी नहीं कहा गया। लज्जा के कारण सबका सिर झुक गया और सब मन-ही-मन धर्मराज का कल्याण चाहने लगे।विदुर ने कहा---'पाण्डवों ! आर्या कुन्ती राजकुमारी, कोमल शरीर और वृद्धा है। अब वे सर्वथा आराम करने योग्य हैं। इसलिये उनका वन में जाना उचित नहीं है। ये सत्कारपूर्वक मेरे घर रहें। यह बात आपलोगों से कहकर मैं आशीर्वाद देता हूँ कि आपलोग सर्वत्र स्वस्थ एवं प्रसन्न रहें। 'युधिष्ठिर ने कहा, 'हम आपकी आज्ञा शिरोधार्य करते हैं। आप हमारे चाचा, पितृतुल्य हैं। हम सदा आपके आश्रित हैं।' विदुरजी ने कहा---'युधिष्ठिर ! आप धर्म के मर्मज्ञ हैं। अर्जुन विजयशील है, भीमसेन शत्रुनाशक है, नकुल धन-संग्रहकुशल है और सहदेव शत्रुओं को वश में करनेवाले हैं। धौम्य ऋषि वेदज्ञ हैं, पतिव्रता द्रौपदी धर्म और अर्थ के संग्रह में निपुण है। आप सभी प्रेम-भाव से रहते हैं। शत्रु भी आपके मन में भेद-भाव की सृष्टि नहीं कर सकते। आप बड़े निर्मल और संतोषी हैं। जगत् के सभी लोग आपको चाहते हैं और आपके दर्शन के लिये उत्कण्ठित रहते हैं मैं आशीर्वाद देता हूँ आप पृथ्वी से क्षमा, सूर्यमण्डल से तेज, वायु से बल और समस्त प्राणियों से आत्मधन प्राप्त करें। आपका शरीर स्वस्थ एवं चित्त प्रसन्न रहे। आप अवश्य कृतार्थ होकर यहाँ लौटेंगे। आपका कल्याण हो।' राजा युधिष्ठिर विदुरजी की बातों को सिर आँखों चढाकर भीष्मपिताह और द्रोणाचार्य को प्रणाम करके वनवास के लिये चल पड़े। माता कुन्ती को प्रणाम कर उनसे भी आज्ञा ले ली। जिस समय दुःखातुर द्रौपदी अपनी सास कुन्ती एवंअन्य महिलाओं से विदा लेने के लिये आयीं, उस समय अन्तःपुर में बड़ा कोलाहल हुआ। माता कुन्ती ने शोकाकुल वाणी से कहा, 'बेटी ! तुम स्त्रियों का धर्म जानती हो। इस घोर संकटमें पड़कर दुःख मत करना। तुम स्वयं शील एवं सदाचार से सम्पन्न हो। इसलिये पतियों के प्रति तुम्हारे कर्तव्य के संबंध में शिक्षा देने की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम स्वयं परम साध्वी, गुणवती और दोनो कुलों की भूषण हो। निर्दोष द्रौपदी! तुमने कौरवों को शाप देकर भष्म नहीं किया, यह उनका सौभाग्य और तुम्हारा सौजन्य है। तुम्हारा मार्ग निष्कण्टक हो। सुहाग अचल रहे। कुलीन स्त्रियाँ अचानक दुःख पड़ने पर घबराती नहीं। पतिव्रत-धर्म सर्वदा तुम्हारी रक्षा करेगा। सब प्रकार तुम्हारा मंगल होगा। एक बात तुमसे कहनी है। तुम वन में रहते समय मरे प्यारे पुत्र सहदेव का विशेष ध्यान रखना। उसे कहीं कष्ट न होने पावे। माता कुन्ती ने पाण्डवों से कहा--'बेटा ! तुमलोग धर्मपरायण, सदाचारी, भक्त, पापरहित और देवताओं के पुजारी हो। तुमपर यह संकट कैसे आ पड़ा ? अवश्य ही यह प्रारब्ध का दोष है।तुमलोगों ने तो ऐसा कोई अपराध किया नहीं।यह अवश्य ही मेरे भाग्य का दोष है; क्योंकि तुम मेरे कोख से निकले हो। अवश्य सद्गुण सम्पन्न होने पर भी तुम्हारे दुःख और संकट का यही कारण है। हा कृष्ण ! हा द्वारकाधीश ! हा प्रभो ! आप इस खतरनाक कष्ट से मेरी और मेरे महात्मा पुत्रों की रक्षा क्यों नहीं करते ? आप अनादि और अनन्त हैं। जो आपका निरंतर ध्यान करते हैं, उनकी आप रक्षा करते हैं---आपके सम्बन्ध की यह प्रसिद्धि इस समय मिथ्या कैसे हो रही है ? मेरे पुत्र धार्मिक, गम्भीर, यशस्वी और पराक्रमी हैं। उनके ऊपर ऐसा कष्ट पड़ना उचित नहीं है। भगवन् ! इनपर दया कीजिये। कीजिये। नीति और व्यवहार में कुशल भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य आदि कुरुकुल के नायकों की उपस्थिति में ऐसी विपत्ति कैसे आ गयी ? बेटा सहदेव !  तू तो मुझे प्राणों से भी अधिक प्यारा है। तू मुझे छोड़कर कहीं मत जा। 'माता कुन्ती अधीर होकर विलाप करने लगी। उनके करुण-क्रन्दन से खिन्न होकर पाण्डवों ने उन्हें प्रणाम किया और वन की ओर चले। विदुरजी ने कुन्ती को दैव की प्रबलता समझाकर शान्त किया और स्वयं अत्यंत आर्त चित्त से धीरे-धीरे उन्हें अपने घर ले गये। कौरवकुल की महिलाएँ सभा में द्रौपदी को ले जाना, उन्हें केश पकड़कर घसीटना आदि अत्याचार देखकर दुर्योधन आदि की निंदा करने लगी और फफक-फफककर रोने लगीं। वे बहुत देर तक अपना मुँह हाथ पर रखकर इसी बात की चिन्ता करती रहीं।

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