महर्षि वशिष्ठ
की क्षमा---कल्माषपाद की कथा उन्ही दिनों राजा इक्ष्वाकु
के वंश में कल्माषपाद नाम का एक राजा शिकार खेलने वन में गया।लौटने समय वह एक ऐसे मार्ग
से आने लगा,जिससे केवल एक ही मनुष्य चल सकता था।वह थका-माँदा और भूखा-प्यासा तो था
ही, उसी मार्ग पर सामने से शक्तिमुनि आते दीख पड़े। शक्तिमुनि वशिष्ठ के सौ पुत्रों
में सबसे बड़े थे।राजा ने कहा, तुम हट जाओ, मेरे लिये रास्ता छोड़ दो। शक्ति ने कहा,
महाराज, सनातन धर्म के अनुसार क्षत्रिय का धर्म है कि वह ब्राह्मण के लिये रास्ता छोड़
दे। इस प्रकार दोनो में कुछ कहा-सुनी हो गयी।न ऋषि हटे न राजा।राजा के हाथ में चाबुक
था, उन्होंने बिना सोचे-विचारे ऋषि पर चला दिया। शक्तिमुनि ने राजा का अन्याय समझकर
उन्हें शाप दिया कि, अरे नृपाधम, तू राक्षस की तरह तपस्वी पर चाबुक चलाता है, जा राक्षस
हो जा। राजा ने कहा, तुमने मुझे अयोग्य शाप दिया है इसलिये लो मैं तुमसे ही राक्षसपना
प्रारंभ करता हूँ। इसके बाद कल्माषपाद शक्तिमुनि को तुरंत खा गया। केवल शक्तिमुनि को
ही नहीं,वशिष्ठ के जितने पुत्र थे सभी को उसने खा लिया। शक्ति और वशिष्ठ के दूसरे पुत्रों
के भक्षण में कल्माषपाद का राक्षसपना तो कारण था ही इसके सिवा विश्वामित्र ने भी पहले
द्वेष का स्मरण करके किंकर नाम के राक्षस को आज्ञा दी कि वह कल्माषपाद में प्रवेश कर
जाय, जिसके कारण वह ऐसे नीच कर्म में प्रवृत हुआ। वशिष्ठजी को यह बात मालूम हुई।उन्होंने
जाना कि इसमें विश्वामित्र की प्रेरणा है। फिर भी उन्होंने अपने शोक के वेग को धारण
कर लिया। उन्होंने प्रतिकार की सामर्थ्य होने पर भी उनसे किसी प्रकार का बदला नहीं
लिया। एक बार महर्षि वशिष्ठ अपने आश्रम पर लौट रहे थे। इसी समय ऐसा जान पड़ा मानो उनके
पीछे-पीछे कोई वेदों का अध्ययन करता हुआ चलता है। वशिष्ठ ने पूछा कि मेरे पीछे-पीछे
कौन चल रहा है। आवाज आयी कि मैं आपकी पुत्रवधू शक्तिपत्नी अदृश्यन्ती हूँ। वशिष्ठ बोले,
बेटी मेरे पुत्र शक्ति के समान स्वर से वेदों का अध्ययन कौन कर रहा है। अदृश्यन्ती
ने कहा, आपका पौत्र मेरे गर्भ में है। वह बारह वर्ष से गर्भ में ही वेदाध्ययन कर रहा
है। यह सुनकर वशिष्ठ मुनि को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने सोचा अच्छी बात है, मेरी
वंश-परंपरा का उच्छेद नहीं हुआ। यही सब सोचते हुए वे लौट ही रहे थे कि एक निर्जन वन
में कल्माषपाद से उनकी भेंट हो गयी। कल्माषपाद विश्वामित्र के द्वारा प्रेरित उग्र
राक्षस से अविष्ट होकर वशिष्ठ मुनि को खा जाने के लिये दौड़ा। उस राक्षस को देखकर अदृश्यन्ती
डर गयी और कहने लगी, भगवन् देखिये, देखिये, यह हाथ में सूखा काठ लिये भयंकर राक्षस
दौड़ा आ रहा है। आप इससे मेरी रक्षा कीजिये। वशिष्ठ ने कहा, बेटी डरो मत। यह राक्षस
नहीं कल्माषपाद है। यह कहकर महर्षि वशिष्ठ ने हुँकार से ही उसे रोक लिया। इसके बाद
उन्होने जल हाथ में लेकर मंत्र अभिमंत्रित किया और कल्माषपाद के ऊपर डाला। वह तुरत
शाप से मुक्त हो गया। बारह वर्ष बाद आज वह शाप से छूटा। उसका तेज बढ गया, वह होश में
आया और हाथ जोड़कर श्रेष्ठ महर्षि वशिष्ठ से कहने लगा, महाराज मैं आपकी क्या सेवा करूँ।
अब जाओ तुम अपने राज्य की देखभाल करो। इतना ध्यान रखना, कभी किसी का तिरस्कार न करना।
क्षमाशील महर्षि वशिष्ठ इसी पुत्रघाती राज के साथ अयोध्या में आये और अपने कृपाप्रसाद
से उसे पुत्रवान बनाया। इधर वशिष्ठ की आश्रम पर अदृश्यन्ति के गर्भ से पराशर का जन्म
हुआ।स्वयं भगवान् वशिष्ठ ने पराशर के जातकर्मादि संस्कार कराये।पराशर वशिष्ठ मुनि को
ही अपना पिता समझते थे। एक दिन अदृश्यन्ती ने बतलाया कि ये तुम्हारे पिता नहीं, दादा
हैं। इसी प्रसंग में परासरजी को यह भी मालूम हुआ कि मेरे पिता को राक्षस ने खा डाला।
यह सुनकर उसके चित्त में बड़ा दुःख हुआ और उसने सब राजाओं पर विजय प्राप्त करने का निश्चय
किया। महर्षि वशिष्ठ ने प्राचीन कथाएँ कहकर उन्हें समझाया और आज्ञा दी कि तुम्हारा
कल्याण इसी में है। वशिष्ठ के समझाने बुझाने से पराशर ने राजाओं को पराजित करने का
निश्चय तो छोड़ दिया, परन्तु राक्षसों के विनाश के लिये घोर यज्ञ प्रारंभ किया। उस यज्ञ
से जब राक्षसों का नाश होने लगा तब महर्षि पुलस्त्य और वशिष्ठ ने उन्हें समझाया,पराशर
क्षमा ही परम धर्म है। मनुष्य तो यों ही किसी की मृत्यु का निमित्त बन जाता है। तुम
यह भयंकर क्रोध त्याग दो। ऋषियों की आज्ञा से पराशर ने भी क्षमा स्वीकार की और अपने
य़ज्ञाग्नि को हमाचल में छोड़ दिया। वह आग अब भी राक्षस, वृक्ष और पत्थरों को जलाती फिरती
है।
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