Sunday 23 August 2015

वनपर्व---स्वर्ग में अर्जुन की अस्त्र एवं नृत्य-शिक्षा, उर्वशी के प्रति मातृभाव, इन्द्र का लोमश मुनि को पाण्डवों के पास भेजना

स्वर्ग में अर्जुन की अस्त्र एवं नृत्य-शिक्षा, उर्वशी के प्रति मातृभाव, इन्द्र का लोमश मुनि को पाण्डवों के पास भेजना
देवताओं के चले जाने के बाद अर्जुन वहीं रहकर देवराज इन्द्र के रथ की प्रतीक्षा कर रहे थे। थोड़ी ही देर में इन्द्र का सारथी मातलि दिव्य रथ लेकर वहाँ उपस्थित हुआ। उस रथ की उज्जवल कांति से आकाश का अंधेरा मिट रहा था। रथ में तलवार, शक्ति, गदाएँ, तेजस्वी भाले, वज्र, पहियोंवाली तोपें, वायुवेग से गोलियाँ फेंकनेवाले यन्त्र, तमंचे तथा और भी बहुत से शस्त्र भरे हुए थे। उस मायामय दिव्य रथ की चमक से आँखें चौंधिया जातीं। सोने के दण्ड में कमल के समान श्याम वर्ण की वैज्यन्ती नामक ध्वजा फहरा रही थी।मातलि सारथी ने अर्जुन के पास आकर प्रणाम करके कहा---'इन्द्रनन्दन ! श्रीमान् देवराज इन्द्र आपसे मिलना चाहते हैं। आप उनके इस रथ में सवार होकर शीघ्र ही चलिये।'सारथि की बात सुनकर अर्जुन के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने गंगास्नान करके पवित्रता के साथ विधिपूर्वक मंत्र का जप किया। तदनन्तर शास्त्रोक्त रीति से देवता, ऋषि और पितरों का तर्पण किया। फिर मन्दराचल से आज्ञा माँगकर इन्द्र के दिव्य रथ पर आ बैठे।उस समय इन्द्र का रथ और भी चमक उठा। क्षणभर में ही वह रथ मन्दराचल से उठकर वहाँ के तपस्वी ऋषि-मुनियों की दृष्टि से ओझल हो गया। अर्जुन ने देखा कि वहाँ सूर्य का, चन्द्रमा अथवा अग्नि का प्रकाश नहीं था। हजारों विमान वहाँ अद्भुत रूप में चमक रहे थे। वे अपनीपुण्यप्राप्त कांति से चमकते रहते हैं और पृथ्वी से तारों के रूप में दीपक के समान दीखते हैं। जब अर्जुन ने इस विषय पर मातलि से प्रश्न किया, तब मातलि ने कहा कि 'वीर ! पृथ्वी पर आप जिन्हें तारों के रूप में देखते हैं, वे पुण्यात्मा पुरुषों के निवास-स्थान हैं।' अबतक यह रथ सिद्ध पुरुषों का मार्ग लाँघकर आगे निकल गया था। इसके बाद राजरषियों के पुण्यवान् लोक पड़े। तदनन्तर इन्द्र की पुरी अमरावती के दर्शन हुए। स्वर्ग की शोभा, सुगन्धि, दिव्यता, अभिजन और दृश्य अनूठा ही था। यह लक बड़े-बड़े पुण्यातमा पुरुषों को प्राप्त होता है, जिसने तप नहीं किया, अग्निहोत्र नहीं किया, जो युद्ध से पीठ दिखाकर भाग गया, वह इस लोक का दर्शन नहीं कर सकता। जो यज्ञ नहीं करते, व्रत नहीं करते, वेदमंत्र नहीं जानते, तीर्थों में स्नान नहीं करते, यज्ञ और दानों से बचे रहते हैं, क्षुद्र हैं, शराबी, माँसभोजी और दुरात्मा हैं, उन्हें किसी प्रकार स्वर्ग का दर्शन नहीं हो सकता। अमरावती में देवताओं के सहस्त्रों इच्छानुसार चलनेवाले विमान खड़े थे। सहस्त्रों इधर-उधर आ-जा रहे थे। जब अप्सरा और गन्धर्वों ने देखा कि अर्जुन स्वर्ग में आ गये हैं, तब वे उनकी स्तुति सेवा करने लगे। सबके साथ व्यवहार के अनुसार मिलकर आगे जाने पर अर्जुन को देवराज इन्द्र के दर्शन हुए। रथ से उतरकर अर्जुन ने देवराज इन्द्र के पास जा, सिर झुकाकर उनके चरणों में प्रणाम किया। इन्द्र ने अपने प्रेमपूर्ण हाथों से अर्जुन को उठाकर अपने पवित्र देवासन पर बैठा लिया और अपनी गोद में बैठाकर प्रेम से सिर सूँघा। इन्द्र के अभिप्राय के अनुसार देवता और गन्धर्वों ने उत्तम अर्ध्य सेअर्जुन का सेवा सत्कार किया। वीर अर्जुन इन्द्र के महल में ठहरकर अस्त्रों के प्रयोग और उपसंहार का अभ्यास करने लगे। उन्होंने अचानक ही घटा छा जाने, गर्जना करने और बिजलियों के चमकने का अभ्यास कर लिया। समस्त शस्त्र-अस्त्र का ज्ञान प्राप्त करने के अनन्तर अर्जुन अपने वनवासी भाइयों का स्मरण करके स्वर्ग से मृत्युलोक आना चाहते थे। परन्तु इन्द्र की आज्ञा से वे पाँच वर्ष तक स्वर्ग में ही रहे। एक दिन अनुकूल अवसर पाकर देवराज इन्द्र ने अस्त्र-विद्या के मर्मज्ञ अर्जुन से कहा कि 'प्रिय अर्जुन ! अब तुम चित्रसेन गन्धर्व से नाचना और गाना सीख लो। साथ ही मृत्युलोक में जो बाजे नहीं हैं उन्हें भी बजाना सीख लो।' इन्द्र के मित्रता करा देने पर अर्जुन चित्रसेन से मिलकर गाने-बजाने और नाचने का अभ्यास करने लगे। अर्जुन इस विद्या में प्रवीण हो गये। यह सब करते समय भी जब अर्जुन को अपने भाइयों और माता की याद आ जाती तब वे दुःख से विह्वल हो जाते। एक दिन की बात है। इन्द्र ने देखा कि अर्जुन निर्निमेष नेत्रों से अप्सरा उर्वशी की ओर देख रह है। उन्होंने चित्रसेन को एकान्त में बुलाकर कहा कि 'तुम उर्वशी के पास जाकर मेरा संदेश कहो कि वह अर्जुन के पास जाय।' चित्रसेन ने उस परम सुन्दरी अप्सरा के पास जाकर कहा कि 'मैं देवराज इन्द्र की आज्ञा से तुम्हारे पास आया हूँ। तुम उनका अभिप्राय सुनो। मध्यम पाण्डव अर्जुन सौन्दर्य, स्वभाव,रूप, व्रत, जितन्द्रियता आदि स्वाभाविक गुणों से देवताओं और मनुष्यों में प्रतिष्ठित, बलवान् तथा प्रतिभासम्पन्न हैं। वे सत्यप्रेमी, अहंकाररहित, प्रेमपात्र और दृढप्रतिज्ञ हैं। वे और गुणों में भी इन्द्र के समकक्ष हैं। तुमने अवश्य ही अर्जुन के गुण सुने होंगे। वे तुम्हारी सेवा से स्वर्ग का सुख प्राप्त करें। इसके लिये तुम्हें मेरी बात माननी चाहिये।उर्वशी ने चित्रसेन का सत्कार किया और प्रसन्न होकर कहा---'गन्धर्वराज ! तुमने अर्जुन के जिन प्रधान-प्रधान गुणों का वर्णन किया है, उन्हें मैं पहले ही सुनकर उनपर मोहित हो चुकी हूँ। अब देवराज की आज्ञा और तुम्हारे प्रेम से उनके प्रति मेरा आकर्षण और भी बढ़ा है। मैं अर्जुन की सेवा करूँगी। आप जा सकते हैं।चित्रसेन के चले जाने के बाद अर्जुन के सेवा करने की लालसा से उर्वशी ने आनन्द के साथ सुगन्धस्नान किया। वह सुन्दर तो थी ही, अच्छे-अच्छे वस्त्राभूषण भी धारण कर लिये। सुगन्धित पुष्पों की माला पहनकर उर्वशी सब प्रकार से सज-धज चुकी। तब वह मुस्कराती हुई पवन और मन के समान तज गति से क्षणभर में ही अर्जुन के स्थान पर जा पहुँची। द्वारपालों ने उसके आगमन का समाचार अर्जुन को पहुँचाया। उर्वशी अर्जुन के पास पहुँच गयी। अर्जुन मन-ही-मन अनेकों प्रकार की शंका करने लगे। उन्होंने संकोचवश अपनी आँखें बन्द करके प्रणाम किया और गुरुजन के समान आदर-सत्कार करके कहने लगे---'देवि ! मैं तुम्हे सिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ। मैं तुम्हारा सेवक हूँ, मुझे आज्ञा करो।' उर्वशी अचेत सी हो गयी। उसने कहा---'देवराज इन्द्र की आज्ञा से चित्रसेन गन्धर्व मेरे पास आया था। उसने मेरे पास आकर आपके गुणों का वर्णन किया और आपके पास आने की प्रेरणा की। आपके पिता इन्द्र और चित्रसेन गन्धर्व की आज्ञा से मैं आपकी सेवा करने के लिये आई हूँ। केवल आज्ञा की ही बात नहीं। जबसे मैने आपके गुणों को सुना है, तभी से मेरा मन आप पर लग गया है। आप मुझे स्वीकार कीजिये। उर्वशी की बात सुनकर अर्जुन संकोच के मारे धरती में गड़ से गये। उन्होंने अपने हाथों से कान बंद कर लिये और बोले--'हरे-हरे, कहीं यह बात मेरे कान में प्रवेश न कर जाय। देवी ! निःसंदेह तुम मेरी गुरुपत्नी के समान हो। देव-सभा में मैने तुम्हे निर्निमेष नेत्रों से देखा था अवश्य, परंतु मेरे मन में कोई बुरा भाव नहीं था। मैं यही सोच रहा था कि पुरुवंश की यही आनंदमयी माता हैं। तुम्हे पहचानते ही मेरी आँखें आनंद से खिल उठीं। इसी से मैं तुमको देख रहा था। देवी ! मेरे संबंध में और कोई बात सोचनी ही नहीं चाहिये। तुम मेरे लिये बड़ों की भी बड़ी और पूर्वजों की जननी हो।' उर्वशी ने कहा---'वीर !' हम अप्सराओं का किसी के साथ विवाह नहीं होता। हम स्वतंत्र हैं। इसलिये मुझे गुरुजन की पदवी पर बैठना उचित नहीं है। आप मुझपर प्रसन्न हो जाइये और मेरा त्याग मत कीजिये।' अर्जुन ने कहा---'देवी ! मैं तुमसे सत्य-सत्य कह रहा हूँ। दिशा और विदिशाएँ अपने अधिदेवताओं  के साथ मेरी बात सुन लें। जैसे कुन्ती, माद्री और इन्द्रपत्नी शचि मेरी माताएँ हैं, वैसे ही तुम भी पुरुवंश की जननी होने के कारण मेरी पूजनीया माता हो। मैं तुम्हारे चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ। तुम माता के समान पूजनीय औरमैं तुम्हारा पुत्र के समान रक्षनीय हो। अर्जुन की बात सुनकर उर्वशी क्रोध के मारे काँपने लगी। उसने भौंहें टेढी करके अर्जुन को शाप दिया---'अर्जुन ! मैं तुम्हारे पिता इन्द्र की आज्ञा से कामातुर होकर तुम्हारे पास आयी हूँ, फिर भी तुम मेरी इच्छा पूर्ण नहीं कर रहे हो। इसलिये जाओ, तुम्हे स्त्रियों में नर्तक होकर रहना पड़ेगा और सम्मानरहित होकर तुम नपुंसक के नाम से प्रसिद्ध होओगे।' उस समय उर्वशी के ओंठ फड़क रहे थे। साँसें लम्बी चल रही थीं। वह अपने निवास-स्थान पर लौट गयी। अर्जुन शीघ्रता से चित्रसेन के पास गये और उर्वशी ने जो कुछ कहा था,कह सुनाया। चित्रसेन ने सारी बातें इन्द्र से कहीं। इन्द्र ने अर्जुन को एकान्त में बुलाकर बहुत-कुछ समझाया-बुझाया और तनिक हँसते हुए कहा---'प्रिय अर्जुन ! तुम्हारे जैसा पुत्र पाकर कुन्ती सचमुच पुत्रवती हुई। तुमने अपने धैर्य से ऋषियों को भी जीत लिया। उर्वशी ने तुम्हे जो शाप दिया है, उससे तुम्हारा बहुत काम बनेगा। जिस समय तुम तेरहवें वर्ष में गुप्तवास करोगे, उस समय तुम नपुंसक के रूप में एक वर्ष तक छिपकर यह शाप भोगोगे। फिर तुम्हे पुरुषत्व की प्राप्ति हो जायगी।' अर्जुन बहुत प्रसन्न हुए। उनकी चिन्ता मिट गयी। वे गन्धर्वराज चित्रसेन के साथ रहकर स्वर्ग के सुख लूटने लगे। अर्जुन का यह चरित्र इतना पवित्र है कि  जो इसका प्रतिदिन श्रवण करता है, उसके मन में पाप करने की इच्छा नहीं होती। वास्तव में अर्जुन का यह चरित्र ऐसा ही है। इन्ही दिनों एक दिन महर्षि लोमश स्वर्ग में आये। उन्होंने देखा कि अर्जुन इन्द्र के आधे आसन पर बैठे हुए हैं। वे भी एक आसन पर बैठ गये और मन-ही-मन सोचने लगे कि 'अर्जुन को यह आसन कैसे मिल गया ? इसने कौन सा ऐसा पुण्य किया है, किन देशों को जीता है, जिससे इसे सर्वदेववन्दित इन्द्रासन प्राप्त हुआ है ?' देवराज इन्द्र ने लोमश मुनि के मनकी बात जान ली। उन्होंने कहा---"ब्रह्मर्षे ! आपके मन में जो विचार उत्पन्न हुआ है, उसका उत्तर मैं देता हूँ। यह अर्जुन केवल मनुष्य नहीं है। यह मनुष्यरूपधारी देवता है।मनुष्यों में तो इसका अवतार हुआ है। यह सनातन ऋषि नर है। इसने इस समय पृथ्वी पर अवतार ग्रहण किया है। महर्षि नर और नारायण कार्यवश पवित्र पृथ्वी पर श्रीकृष्ण और अर्जुन के रूप में अवतीर्ण हुए हैं। इस समय निवातकवच नामक दैत्य मदोन्मत्त होकर मेरा अनिष्ट कर रहे हैं। वे  वरदान पाकर अपने आपे को भूल गये हैं। इसमें संदेह नहीं कि भगवान् श्रीकृष्ण ने जैसे कालिंदी के कलियहृद से सर्पों का उच्छेद किया था, वैसे ही वे दृष्टिमात्र से निवातकवच दैत्यों को अनुचरों सहित नष्ट कर सकते हैं। परंतु इस छोटे से काम के लिये भगवान् श्रीकृष्ण से कुछ कहना ठीक नहीं है, क्योंकि वे महान् तेजपुंज हैं।उनका क्रोध कहीं जाग उठे तो वह सारे जगत् को जलाकर भष्म कर सकता है। इस काम के लिये तो अकेले अर्जुन ही पर्याप्त हैं। ये निवातकवचों का नाश करके तब मनुष्यलोक में जायेंगे। ब्रह्मर्षे ! आप पृथ्वी पर जाकर काम्यक वन में रहनेवाले दृढप्रतिज्ञ महात्मा युधिष्ठिर से मिलिये और कहये कि वे अर्जुन की तनिक भी चिन्ता न करे। साथ ही यह भी कहयेगा कि 'अब अर्जुन अस्त्रविद्या में निपुण हो गया है। वह दिव्य नृत्य, गायन और वादनकला में भी बड़ा कुशल हो गया है। आप अपने भाइयों के साथ एकान्त और पवित्र तीर्थों की यात्रा कीजिये। तीर्थयात्रा से सारे पाप-ताप नष्ट हो जायेंगे और आप पवित्र होकर राज्य भोगेंगे।' ब्रह्मर्षे ! आप बड़े तपस्वी और समर्थ हैं,इसलिये पृथ्वी पर विचरते समय पाण्डवों का ध्यान रखियेगा।' इन्द्र की बात सुनकर लोमश मुनि काम्यक वन में पाण्डवों के पास आये।


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