Tuesday 18 August 2015

सभापर्व---श्रीकृष्ण, भीमसेन और अर्जुन की मगध-यात्रा और जरासंध से बातचीत

  श्रीकृष्ण, भीमसेन और अर्जुन की मगध-यात्रा और जरासंध से बातचीत
    जरासन्ध के मुख्य सहायक थे--हंस और डिम्भक। वे मारे जा चुके। साथियों सहित कंस का भी सत्यानाश हो गया। अब जरासन्ध के नाश का समय आ पहुँचा है। आमने-सामने की लड़ाई में देव-दानव सभी के लिये उसको हराना कठिन है। इसलिये उससे द्वन्द-युद्ध अथवा कुश्ती लड़कर ही उसे जीतना चाहिये। जैसे तीन अग्नियों से यज्ञकार्य सम्पन्न होता है, वैसे ही मेरी नीति, भीमसेन के बल और अर्जुन की रक्षा से जरासंध का वध सध सकता है। जब एकान्त में हम तीनों से उसकी भेंट होगी तो वह अवश्य ही किसी-न-किसी के साथ युद्ध करना स्वीकार कर लेगा। यह निश्चित है कि वह घमंडी भीमसेन से ही लड़ेगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि  भीमसेन उसके लिये यमराज के समान प्राणान्तक है। यदि आप मेरे हृदय की बात जानते हैं, मुझपर विश्वास करते हैं, तो भीमसेन और अर्जुन को धरोहर के रूप में मुझे दे दीजिये। मैं सब काम बना लूँगा। यदि आप मेरे हृदय की बात जानते हैं, मुझपर विश्वास करते हैं, तो भीमसेन और अर्जुन को धरोहर के रूप में मुझे दे दीजिये। मैं सब काम बना लूँगा। भगवान् श्रीकृष्ण की वाणी सुनकर भीमसेन और अर्जुन प्रसन्नता के मारे खिल रहे थे। उनकी ओर देखकर युधिष्ठिर ने कहा, श्रीकृष्ण, उफ ऐसी बात न कहिये। आप हमारे स्वामी हैं, हम आपके आश्रित हैं, सेवक हैं। आपकी वाणी, आपका एक-एक अक्षर सत्य है। आप जिसके पक्ष में हैं, उसकी विजय निश्चित हैं। आपकी आज्ञा में स्थित होकर मैं तो ऐसा समझ रहा हूँ जरासन्ध का वध, कैदी राजाओं का छुटकारा, जसूय यज्ञ की समाप्ति--सबकुछ समाप्त हो गया। स्वामी आप सावधान होकर वही कीजिये जिससे काम बने। आप तीनों के बिना मैं जीना पसंद नहीं करता।अर्जुन के बिना आप और आपके बिना अर्जुन नहीं रह सकता। आप दोनो के लिये कोई भी अजेय नहीं है। नीति, जय और बल के मेल से अवश्य सिद्धि मिलेगी। युधिष्ठिर की अनुमति प्राप्त करके श्रीकृष्ण, भीमसेन और अर्जुन--तीनो भाई मगध के लिये चल पड़े। कालकूट, गण्डकी, महासोण, सदानीरा, गंगा, चर्मण्वती आदि पर्वत और नदी-नदों को पार करते हुए वे मगध देश में जा पहुँचे। उस समय वे लोग वल्कल वस्त्र धारण किये हुए थे। कुछ ही समय में वे श्रेष्ठ पर्वत गोरथ पर पहुँच गये। उसपर बड़े सुन्दर-सुन्दर वृक्ष एवं जलाशय थे। गौओं के लिये तो वह मुख्य क्षेत्र था। वहाँ से मगधराज की राजधानी स्पष्ट दीख रही थी। वहाँ पहुँचते ही उन लोगों ने सबसे पहले राजधानी की पुरानी बुर्ज नष्ट-भ्रष्ट कर दी। तदन्तर मगधपुरी में प्रवेश किया। इन दिनों वहाँ बड़े अपशगुन हो रहे थे। ब्राह्मणों ने जाकर जरासंध से निवेदन किया और अरिष्ट की शान्ति के लिये जरासंध को हाथी पर चढाकर अग्नि की प्रदक्षिणा करवायी। स्वयं मगधराज ने भी अरिष्टशान्ति के लिये बहुत से नियमों का पालन करते हुए उपवास किया। इधर भगवान् श्रीकृष्ण,अर्जुन और भीमसेन ने शस्त्रों का परित्याग करके तपस्वियों के से वेश में जरासंध से बाहुयुद्ध करने का उद्देश्य रखकर नगर में घुसे। उनके विशाल वक्षःस्थल देखकर नागरिक चकित एवं विस्मित हो रहे थे। वे निःशंक भाव से जरासंध के पास पहुँच गये। जरासंध उन्हें देखते ही खड़ा हो गया और उसने अर्ध्य, पाद्य, मधुपर्क आदि से उनका सत्कार किया। श्रीकृष्ण आदि के वेष से उनके आचरण का कोई मेल नहीं था। इसलिये जरासंध ने कुछ तिरस्कारपूर्वक कहा--ब्राह्मणों मैं जानता हूँ कि स्नातक ब्रह्मचारी सभा में जाने के अतिरिक्त और किसी भी समय माला और चन्दन धारण नहीं करते। आपलोग, बताइये कौन हैं। आपके कपड़े लाल हैं, शरीर पर पुष्पों की माला है। आपलोगों की भुजाओं पर धनुष की प्रत्यन्चा का निशान स्पष्ट झलक रहा है। आपलोग द्वार से होकर क्यों नहीं आये। निर्भयतापूर्वक वेष बदलकर आने का क्या कारण है। जरासंध की बात सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा, हम स्नातक ब्राह्मण हैं, यह तो आपकी समझ की बात है। स्नातक का वेष तो सभी धारण कर सकते है। पुष्पमाला धारण करना तो श्रीमानों का काम है। क्षत्रियों की भुजाएँ ही उनका बल है। हम वाणी की वीरता नहीं दिखाते। यदि आप मेरा बाहुबल देखना चाहते हों तो अभी देख लें। धीर-वीर पुरुष शत्रु के घर में बिना द्वार के और मित्र के घर में द्वार से प्रवेश करते हैं। हमने जो कुछ किया है सब सुसंगत है। जरासन्ध ने कहा, मैने किस समय आपलोगों के साथ शत्रुता या दुर्व्यव्यवहार किया है, यह ध्यान देने पर भी याद नहीं पड़ता। मुझ निरपराध को शत्रु समझने का क्या कारण है। श्रीकृष्ण ने कहा, राजन्, तुमने क्षत्रियों का बलिदान करने का निश्चय किया है। क्या यह क्रूर अपराध नहीं है। तुम सर्वश्रेष्ठ राजा होकर भी निरपराध राजाओं की हिंसा करना कैसे उचित समझते हो। हम दुखियों की सहायता करते हैं और तुम क्षत्रिय जाति का नाश करना चाहते हो। हम जाति की अभिवृद्धि के लिए तुम्हारे वध का निश्चय करके यहाँ आये हैं। तुम जो इस घमंड में फूले रहते हो कि मेरे समान कोई योद्धा क्षत्रिय नहीं है, यह तुम्हारा भ्रम है। इस विशाल पृथ्वी पर तुमसे भी अधिक वीर है। हमारे लिये तुमहारा यह घमंड असह्य है। अपने बराबरवाले के सामने यह घमंड छोड़ दो, अन्यथा तुम्हें पुत्र, मंत्री और सेना के साथ यमपुरी जाना पड़ेगा। हमारे आने का उद्देश्य निश्चय ही युद्ध है। हम ब्राह्मण नही हैं। मैं हूँ वसुदेव का पुत्र कृष्ण। ये दोनो हैं पाण्डुनन्दन भीमसेन और अर्जुन। हम तुम्हे युद्ध के लये ललकारते हैं।तुम या तो समस्त कैदी नरपतियों को छोड़ दो अथवा हमारे साथ युद्ध करके परलोक सिधारो। जरासन्ध ने कहा, वासुदेव, मैं किसी भी राजा को बिना जीते नहीं लाया हूँ। तनिक दिखाओ तो सही--वह कौन है, जिसे मैने जीता न हो, जो मेरा सामना कर सकता हो। क्या तुमसे डरकर मैं इन राजाओं को छोड़ दूँ। यह नहीं हो सकता। तुम चाहो तो सेना के साथ लड़ लो। मैं एक के साथ या तीनों के साथ अकेले ही लड़ सकता हूँ। चाहे एक साथ लड़लो या अलग-अलग। यह कहकर जरासन्ध ने अपने पुत्र सहदेव के राज्याभिषेक की आज्ञा दे दी। भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि आकाशवाणी के अनुसार यदुवंशियों के हाथ से जरासन्ध का वध नहीं होना चाहिये। इसलिये उन्होंने जरासन्ध को स्वयं न मारकर भीमसेन के हाथों मरवाने का निश्चय किया। जब भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि जरासन्ध युद्ध करने के लिये उद्यत हो गया है, तब उन्होंने उससे पूछा, तुम हम तीनों में से किसके साथ युद्ध करना चाहते हो। हममें से कौन युद्ध के लिये तैयार हो। जरासन्ध ने भीमसेन के साथ कुश्ती लड़ना स्वीकार किया। उसने माला और मांगलिक चिह्न धारण किये, पीड़ा मिटाने वाले बाजूबन्द पहने, बख्तर पहना, मुकुट उतारा और बालों को बाँधता हुआ खड़ा हो गया। जरासन्ध ने कहा, भीमसेन आओ, बलवान के साथ लड़कर हारने पर भी यश मिलता है। बलवान् भीमसेन श्रीकृष्ण से परामर्श लेकर जरासन्ध से भिड़ने के लिये अखाड़े में उतर गये। दोनो ही अपनी-अपनी विजय चाहते थे। दोनो ने अपनी-अपनी भुजाओं को ही शस्त्र बनाया था। दाथ मिलाने के पहले एक ने दूसरे का पैर छुआ, तदन्तर खम और ताल ठोंकते हुए परस्पर गुँथ गये। उन्होंने तृणपीड, पूर्णयोग, समुष्टिक आदि अनेकों दाव-पेंच किये। उनकी कुश्ती अपूर्व थी। उनका मल्लयुद्ध देखने के लिये स्त्री-पुरुष एवं बृद्ध इकट्ठे हो गये। उनके प्रहार और छीना-झपटी से कर्कश ध्वनि होने लगी। वे कभी हाथों से एक-दूसरे को ढकेल देते, गर्दन पकड़कर घुमा देते, कभी एक-दूसरे को खदेड़ते, खींचते, घसीटते, घुटनों से चोट करते और हुँकार करते हुए घूसों का प्रहार करते। वे जिधर जाते, उधर की जनता भाग खड़ी होती। दोनो हट्टे-कट्टे चौड़ी छाती और लम्बी बाँह वाले पहलवान अपनी भुजाओं से इस प्रकार लड़ रहे थे, मानो लोहे के बेलन टकरा रहे थे। वह युद्ध कार्तिक कृष्ण-पक्ष प्रतिपदा से प्रारंभ होकर लगातार तेरह दिन-रात तक बिना खाये-पिये और बिना रुके चलता रहा। चौदहवें दिन रात के समय जरासंध थककर कुछ ढीला पड़ गया। उसकी यह दशा देखकर भगवान् श्रीकृष्ण ने भीमकर्मा भीमसेन को उभारते हुए कहा--वीर भीमसेन, थक जाने पर शत्रु को अधिक दबाना उचित नहीं। अरे, अधिक जोर लगाने पर तो वह मर ही जायगा। इसलिये अब तुम जरासन्ध को दबाकर केवल बाहुयुद्ध करते रहो। श्रीकृष्ण की बात सुनते ही भीमसेन ने जरासन्ध की स्थिति समझ ली और उसे मार डालने का संकल्प किया। भगवान् श्रीकृष्ण ने भीमसेन को और भी फुर्ती करने के लिये उत्साहित करते हुए संकेत किया कि भीमसेन, तुममे दैवबल और वायुबल दोनो ही विद्यमान हैं। तुम जरासन्ध पर तनिक उन बलों को दिखाओ तो। श्रीकृष्ण का इशारा समझकर बलवान् भीमसेन ने जरासन्ध को उठा लिया और बड़े जोर से उसे आकाश में घुमाने लगे। सौ बार घुमाकर उसे उन्होंने जमीन पर पटका और घुटनों की चोट से उसकी पीठ की रीढ तोड़कर पस दिया। साथ ही हुँकार करके उसका एक पैर पकड़ा और दूसरे पैर पर अपना पैर रखकर उसे दो खण्डों में चीर डाला। जरासन्ध की इस दुर्दशा और भीमसेन की गर्जना से उपस्थित जनता भयभीत हो गयी। स्त्रियों के तो गर्भपात तक की नौबत आ गयी। सब लोग चकित-विस्मित होकर सोचने लगे कि कहीं हिमालय तो नहीं टूट पड़ा, पृथ्वी तो खण्ड-खण्ड नहीं हो गयी। भगवान् श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीमसेन ने शत्रु का नाश कर उसके प्राणहीन शरीर को रनिवास की ड्योढी पर डाल दिया और वे रातों-रात वहाँ से बाहर निकल गये। श्रीकृष्ण ने जरासन्ध के ध्वजामण्डित दिव्य रथ को जोता। उसपर भीमसेन और अर्जुन को बैठाया और वहाँ से चलकर कैदी राजाओं को पहाड़ी खोह से बाहर किया।उस रथ से ही वे राजाओं के साथ वहाँ से चल पड़े। उस रथ का नाम था सोदर्यवान्।दो महारथी उसपर बैठकर युद्ध कर सकते थे।उसपर भीमसेन और अर्जुन बैठ गये।भगवान् श्रीकृष्ण सारथी बने। उसी रथ पर बैठकर इन्द्र ने पहले निन्यानवे बार दानवों का संहार किया था। उसके ऊपर एक दिव्य ध्वजा थी, जो बिना किसी आधार के ही लहराती रहती, इन्द्रधनुष की सी चमकती और एक योजनदूर से ही दीख जाती थी। वह रथ इन्द्र ने वसु नाम के राजा को, वसु ने बृहद्रथ को और बृहद्रथ ने जरासंध को दिया था। वह दिव्य रथ पाकर बड़ी प्रसन्नता से तीनों भाइयों ने वहाँ से यात्रा की। परम यशस्वी करुणावरुणामय भगवान् श्रीकृष्ण रथ हाँककर गिरिव्रज से बाहर निकले, खुले मैदान में आये। वहाँ कैद से छूटे राजाओं ने श्रीकृष्ण की विधिवत पूजा की। राजाओं ने कहा, सर्वशक्तिमान प्रभो, आपने भीम और अर्जुन के साथ हमें छुड़ाकर अपने धर्म की रक्षा की है। यह आपके लिये कोई नवीनता नहीं। हम जरासंध रूप विशाल ताल के दुःख दलदल में फँस रहे थे। आपने हमारा उद्धार किया। हम आपके सामने नम्रता से झुककर खड़े हैं। हमें कुछ आज्ञा दीजिये, आपका कठिन-से-कठिन काम भी करें। भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा, धर्मराज युधिष्ठिर चक्रवर्ती पद प्राप्त करने के लिये राजसूय यज्ञ करना चाहते हैं। आपलोग उनकी सहायता कीजिये। राजाओं की प्रसन्नता की सीमा न रही। उन्होंने हृदय से यह प्रस्ताव स्वीकार किया। अब वे लोग भगवान् श्रीकृष्ण को रत्नराशि की भेंट देने लगे। भगवान् ने उनपर कृपा करके बड़ी कठिनाई से भेंट स्वीकार कर ली। जरासन्ध का पुत्र सहदेव मंत्रियों के साथ अनेकों रत्न लिये बड़ी नम्रता से श्रीकृष्ण के सामने उपस्थित हुआ। भगवान् श्रीकृष्ण ने भयभीत सहदेव को अभयदान देकर भेंट स्वीकार की। श्रीकृष्ण, भीमसेन और अर्जुन ने वहीं सहदेव का अभिषेक किया। सहदेव बड़ी प्रसन्नता से अपनी राजधानी लौट गया। पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण अपने दोनो फुफेरे भाइयों और उन सब राजाओं के साथ धन-रत्न से लदे रथ पर शोभायमान हो इन्द्रप्रस्थ पहुँचे। उन्हें देखकर धर्मराज के आनन्द की सीमा न रही। भगवान् ने कहा, राजेन्द्र यह बड़े सौभाग्य की बात है कि वीरवर भीमसेन ने जरासन्ध मारने और कैदी राजाओं को कैद से छुड़ाने का सुयश प्राप्त किया है। इससे बढकर और क्या आनन्द होगा कि भीमसेन और अर्जुन कार्य सिद्ध करके सकुशल निर्विघ्न लौट आये। धर्मराज युधिष्ठिर ने बड़ी प्रसन्नता से भगवान् श्रीकृष्ण का सत्कार किया और अपने भाइयों को प्रेम से गले लगाया। जरासन्ध की मृत्यु से सभी पाण्डव आनन्दित हुए। उन्होंने सब बन्धनमुक्त राजाओं से मिल-भेंटकर उनका यथोचित आदर-सत्कार किया और समय पर उन्हें विदा किया। सब राजा धर्मराज की अनुमति से बड़ी प्रसन्नता के साथ विभिन्न वाहनों के द्वारा अपने-अपने देश चले गये। परम प्रवीण भगवान् श्रीकृष्ण ने इस प्रकार जरासन्ध का वध कराकर धर्मराज की अनुमति प्राप्त करके कुन्ती, द्रौपदी, सुभद्रा, भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव और धौम्य से विदा ली तथा उसी रथ पर, जो जरासन्ध के यहाँ से ले आये थे, युधिष्ठिर के कहने से सवार होकर द्वारका की यात्रा की। यात्रा के समय पाण्डवों ने भगवान् श्रीकृष्ण की यथोचित अभिवादन एवं परिक्रमा की। इस ऐतिहासिक विजय एवं ऱाजाओं को छुड़ाकर अभय देने के कारण पाण्डवों का यश दिग्-दिगन्त में फैल गया। धर्मराज युधिष्ठिर समय के अनुसार धर्म पर दृढ रहकर प्रजा पालन करने लगे। धरम, काम और अर्थ--तीनों ही पुरुषार्थ उनकी सेवा में संलग्न थे। 

No comments:

Post a Comment