Monday 24 August 2015

वनपर्व---दमयन्ती द्वारा राजा नल की परीक्षा, पहचान, मिलन, राज्यप्राप्ति और कथा का उपसंहार

दमयन्ती द्वारा राजा नल की परीक्षा, पहचान, मिलन, राज्यप्राप्ति और कथा का उपसंहार

विदर्भनरेश भीमक ने अयोध्याधिपति ऋतुपर्ण का खूब स्वागत-सत्कार किया। ऋतुपर्ण को एक अच्छे स्थान में ठहरा दिया गया। उन्हें कुण्डिनपुर में स्वयंवर का कोई चिह्न नहीं दिखाई पड़ा। भीमक को इस बात का बिलकुल पता नहीं था कि राजा ऋतुपर्ण मेरी पुत्री के स्वयंवर का निमंत्रण पाकर वहाँ आये हैं। उन्होंने कुशल-मंगल के बाद पूछा कि 'आप यहाँ किस उद्देश्य से पधारे हैं ?' ऋतुपर्ण ने स्वयंवर की कोई तैयारी न देखकर निमंत्रण की बात दबा दी और कहा---'मैं तो केवल आपको प्रणाम करने के लिये ही चला आया हूँ।' भीमक सोचने लगे कि 'सौ योजन से भी अधिक दूर कोई प्रणाम करने के लिये नहीं आ सकता। अस्तु, आगे चलकर यह बात खुल ही जायगी।' भीमक ने बड़े सत्कार के साथ आग्रह करके ऋतुपर्ण को अपने यहाँ रख लिया। बाहुक भी वाष्णेर्य के साथ अश्वशाला में ठहरकर घोड़ों की सेवा में संलग्न हो गया। दमयन्ती आकुल होकर सोचने लगी कि 'रथ की ध्वनि तो मेरे पतिदेव के रथ के ही समान जान पड़ती थी, परन्तु उनके कहीं दर्शन नहीं हो रहे हैं। हो-न-हो वाष्णेर्य ने उनसे रथ-विद्या सीख ली होगी, इसी कारण रथ उनका मालूम पड़ता था। उसने अपनी दासी को बुलाकर कहा कि 'केशिनी ! तू जा। इस बात का पता लगा कि वह कुरूप पुरुष कौन है। सम्भव है, वही हमारे पतिदेव हों। केशिनी ने जाकर बाहुक से बातें की। बाहुक ने राजा के आने का कारण बताया और संक्षेप में वाष्णेर्य तथा अपनी अस्त्र-विद्या एवं भोजन बनाने की चतुरता का परिचय दिया। केशिनी ने पूछा---'बाहुक ! राजा नल कहाँ हैं ? क्या तुम जानते हो ? अथवा तुम्हारा साथी वाष्णेर्य जानता है ?' बाहुक ने कहा---'केशिनी ! वाष्णेर्य राजा नल के बच्चे को यहाँ छोड़कर गया था। उसे उनके सम्बन्ध में कुछ भी मालूम नहीं है। इस समय नल का रूप बदल गया है। वे छिपकर रहते हैं। उन्हें या तो वे स्वयं ही पहचान सकते हैं या उनकी पत्नी दमयन्ती। क्योंकि वे अपने गुप्त चिह्नों को दूसरों के सामने प्रकट करना नहीं चाहते। केशिनी ! राजा नल विपत्ति में पड़ गये थे। इसी से उन्होंने अपनी पत्नी का त्याग किया। यह ठीक है कि उन्होंने अपनी पत्नी के साथ उचित व्यवहार नहीं कया फिर भी दमयन्ती को उनकी दुरावस्था पर विचार करके क्रोध नहीं करना चाहिये।' यह कहते नल का हृदय खिन्न हो गया। आँखों में आँसू आ गये, वे रोने लगे। केशिनीने दमयन्ती के पास आकर वहाँ कीसब बातचीत और उनका रोना भी बतलाया। अब दमयन्ती की आशंका और भी दृढ़ हो गयी कि यही राजा नल हैं। उसने दासी से कहा कि 'केशिनी ! तुम फिर बाहुक के पास जाओ और उसके पास बिना कुछ बोले खड़ी रहो। उसकी चेष्टाओं पर ध्यान दो। वह आग माँगे तो मत देना। जल माँगे तो देर कर देना। उसका एक-एक चरित्र मुझे आकर बताओ।' केशिनी फिर बाहुक के पास गयी और वहाँ उसके देवताओं एवं मनुष्यों के समान बहुत से चरित्र देखकर लौट आयी और दमयन्ती से कहने लगी---'राजकुमारी ! बाहुक ने तो जल, थल और अग्नि पर सब तरह से विजय प्राप्त कर ली है। मैने आजतक ऐसा पुरुष न कहीं देखा है और न सुना ही है। यदि कहीं नीचा द्वार आ जाता है तो वह झुकता नहीं,उसे देखकर द्वार ही ऊँचा हो जाता है। वह बिना झुके ही चला जाता है। छोटे-से-छोटा छेद भी उसके लिये गुफा बन जाता है। वहाँ जल के जो घड़े रखे थे, वे उसकी दृष्टि पड़ते ही जल से भर गये। वह अग्नि स्पर्श करके भी जलता नहीं है। पानी उसके इच्छानुसार बहता है। उसके हाथ से मसलने पर भी फूल कुम्हलाते नहीं। इन अद्भुत लक्षणों  को देखकर मैं तो भौचक्की सी रह गयी और बड़ी शीघ्रता से तुम्हारे पास चली आयी।' दमयन्ती बाहुक के कर्म और चेष्टाओं को सुनकर निश्चित रूप से जान गयी कि ये अवश्य ही मेरे पतिदेव हैं। उसने केशिनी के साथ अपने दोनो बच्चों को नल के पास भेज दिया। बाहुक इन्द्रसेना और  इन्द्रसेन को पहचानकर उनके पास आ गया और दोनो बालकों को छाती से लगाकर गोद में बैठा लिया। बाहुक अपनी संतानों से मिलकर घबरा गया और रोने लगा। उसके मुख पर पिता के समान स्नेह के भाव प्रकट होने लगे। तदनन्तर बाहुक ने दोनो बच्चे केशिनी को दे दिये और कहा---'ये बच्चे मेरे दोनो बच्चों के समान ही हैं, इसलिये मैं इन्हें देखकर रो पड़ा। केशिनी ! तुम बार-बार मेरे पास आती हो, लोग न जाने क्या सोचने लगेंगे। इसलिये यहाँ बार-बार मेरे पास आना उत्तम नहीं है। तुम जाओ।' केशिनी ने दमयन्ती के पास आकर वहाँ की सारी बातें कह दी। अब दमयन्ती ने केशिनी को अपनी माता के पास भेजा औरकहलवाया कि 'माताजी ! मैने राजा नल समझकर बार-बार बाहुक की परीक्षा करवायी है। अब मुझे केवल उसके रूप के संबंध में संदेह रह गया है। अब मैं स्वयं उसकी परीक्षा करना चाहती हूँ। इसलिये आप बाहुक को मेरे महल में आने की आज्ञा दे दीजिये। रानी ने अपने पति भीमक से अनुमति ली और बाहुक को रनिवास में बुलाने की आज्ञा दे दी। बहुक बुला लया गया। दमयन्ती के देखते ही नल का हृदय एक साथ ही शोक और दुःख से भर आया। वे आँसुओं से नहा गये।बाहुक की आकुलता देखकर दमयन्ती भी शोकग्रस्त हो गयी। उस समय दमयन्ती गेरुआ वस्त्र पहने हुए थी। केशों की जटा बँध गयी थी, शरीर मलीन था। दमयन्ती ने कहा---'बाहुक ! पहले एक धर्मज्ञ पुरुष अपनी पत्नी को वन में सोती छोड़कर चला गया था। क्या कहीं तुमने उसे देखा है ? उस समय वह स्त्री थकी-माँदी थी, नींद से अचेत थी; ऐसी निरपराध स्त्री को पुण्यश्लोक निषधनरेश के सिवा और कौन पुरुष निर्जन में छोड़ सकता है ? मैने जीवनभर में जान-बूझकर उनका कोई भी अपराध नहीं किया है। फिर भी वे मुझे वन में सोती छोड़कर चले गये।' इतना कहते-कहते दमयन्ती के नेत्रों से आँसुओं की झरी लगी गयी। दमयन्ती के विशाल, साँवले एवं रतनारे नेत्रों से आँसू टपकते देखकर नल से रहा न गया। वे कहने लगे---'प्रिये ! मैने जानबूझकर न तो राज्य का नाश किया है और न तो तुम्हे त्यागा है। यह तो कलियुग की करतूत है। मैं जानता हूँ कि जबसे तुम मुझसे बिछुड़ी हो तब से रात-दिन मेरा ही स्मरण-चिंतन करती हो। कलियुग मेरे शरीर में रहकर तुम्हारे शाप के कारण जलता रहता था। मैने उद्योग और तपस्या के बल से उसपर विजय पा ली है और अब हमारे दुःख का अन्त आ गया है। कलियुग अब मुझे छोड़कर चला गया है, मैं एकमात्र तुम्हारे लिये ही यहाँ आया हूँ। यह तो बतलाओ कि तुम मेरे-जैसे प्रेमी और अनुकूल पति को छोड़कर जिस प्रकार दूसरे पति से विवाह करने के लिये तैयार हुई हो, क्या कोई दूसरी स्त्री ऐसा कर सकती है ? तुम्हारे स्वयंवर का समाचार सुनकर ही तो राजा ऋतुपर्ण बड़ी शीघ्रता के साथ यहाँ आये हैं।' दमयन्ती यह सुनकर भय से थर-थर काँपने लगी। दमयन्ती ने कहा---'आर्यपुत्र ! मुझपर दोष लगाना उचित नहीं है। आप जानते हैं कि मैने अपने सामने प्रकट देवताओं को छोड़कर आपको वरण किया है। मैने आपको बुलाने के लिये यह युक्ति की थी। मैं जानती हूँ कि आपके अतिरिक्त दूसरा कोई मनुष्य नहीं है जो एक दिनमें घोड़ों के रथ से सौ योजन पहुँच जाय। मैने कभी मन से भी पर-पुरुष का चिन्तन नहीं किया है। उसी समय वयु ने अन्तरिक्ष में स्थित होकर कहा---'राजन् ! मैं सत्य कहता हूँ कि दमयन्ती ने कोई पाप नहीं किया है। इसने तीन वर्ष तक अपने उज्जवल शीलव्रत की रक्षा की है। हम देवता इसके साक्षी हैं। इसने स्वयंवर की सूचना तो कुम्हे ढ़ूँढ़ने के लिये ही दी थी। वास्तव में दमयन्ती तुम्हारे योग्य है और तुम दमयन्ती के योग्य हो। जिस समय पवन देवता यह बात कह रहे थे, उस समय आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी, देवताओं की दुन्दुभियाँ बजने लगीं।ऐसा अद्भुत दृश्य देखकर राजा नल ने अपना संदेह छोड़कर नागराज कर्कोटक का दिया हुआ वस्त्र ओढ़कर उसका स्मरण किया। उनका शरीर तुरंत पूर्ववत् हो गया। दमयन्ती राजा नल को पहले रूप में देखकर उनसे लिपट गयी और रोने लगी। राजा नल ने भी प्रेम के साथ दमयन्ती को गले से लगाया और दोनों बालकों को छाती से लिपटाकर उनके साथ प्यार की बात करने लगे। सारी रात दमयन्ती के साथ बातचीत करने में ही बीत गयी। प्रातःकाल होने पर नहा-धो, न्दर वस्त्र पहनकर दमयन्ती और राजा नल भीमक के पास जाकर उन्हें प्रणाम किया। बात-की-बात में यह समाचार सर्वत्र पहुँच गया। जब राजा ऋतुपर्ण को यह बात मालूम हुई कि बाहुक के रूप में राजा नल ही थे, यहाँ आकर वे अपनी पत्नी से मिल गये, तब उन्हें बड़ा आनंद हुआ और उन्होंने नल को अपने पास बुलाकर क्षमा माँगी। राजा नल ने उनके व्यवहार की उत्तमता बताकर प्रशंसा की और उनका सत्कार किया। साथ ही उन्हें अश्वविद्या भी सिखा दी। राजा ऋतुपर्ण किसी दूसरे सारथी को लेकर अपने नगर चले गये। राजा नल एक महीने तक कुण्डिननगर में ही रहे। तदनन्तर वे भीमक की आज्ञा लेकर निषध देश के लिये रवाना हुए। राजा भीमक ने एक श्वेत-वर्ण का रथ, सोलह हाथी, पचास घोड़े और छः सौ पैदल राजा नल के साथ भेज दिये। अपने नगर में प्रवेश कर राजा नल पुष्कर से मिले और बोले कि 'या तो तुम कपट-भरे जूए का खेल फिर मुझसे खेलो या धनुष पर डोरी चढ़ाओ।' पु्ष्कर ने हँसकर कहा---'अच्छी बात है, तुम्हें दावँ पर लगाने के लिये फिर धन मिल गया। आओ, अबकी बार तुम्हारे धन तथा दमयन्ती को भी जीत लूँगा।' राजा नल ने कहा---'अरे भाई ! जूआ खेल लो, बकते क्या हो ? हार जाओगे तो तुम्हारी क्या दशा होगी, जानते हो ? जूआ होने लगा, राजा नल ने पहले ही दावँ में पुष्कर के राज्य, रत्नों के भण्डार एवं उसके प्राणों को भी जीत लिया। उन्होंने पुष्कर से कहा कि 'यह सब राज्य मेरा हो गया। अब तुम दमयन्ती की ओर आँख उठाकर भी नहीं देख सकते। तुम दमयन्ती के सेवक हो। अे मूढ़ ! पहली बार भी तुमने मुझे नहीं जीता था। यह काम कलियुग का था, तुम्हें इस बात का पता नहीं है। मैं कलियुग के दोष को तुम्हारे सिर नहीं मढ़ना चाहता। तुम अपनाजीवन सुख से बिताओ, मैं तुम्हे छोड़ देता हूँ। तुम्हारी सब वस्तुएँ और तुम्हारे राज्य का भाग भी दे-देता हूँ। तुमपर मेरा प्रेम पहले के ही समान है। तुम मेरे भाई हो। मैं कभी तुमपर अपनी आँख टेढी नहीं करूँगा। तुम सौ वर्ष तक जीयो।' राजा नल ने इस प्रकार पुष्कर को धैर्य दिया और उसे अपने हृदय से लगाकर जाने की आज्ञा दी। पुष्कर ने हाथ जोड़कर राजा नल को प्रणाम किया और कहा---'जगत् में आपकी अक्षय कीर्ति हो और आप दस-हजार वर्ष तक सुख से जीवित रहें। आप मेरे अन्नदाता और प्राणदाता हैं।'पुष्कर बड़े सत्कार और सम्मान के साथ एक महीने तक राजा नल के नगर में ही रहा। तदनन्तर वह अपने नगर चला गया। राजा नल भी पुष्कर को पहुँचाकर अपनी राजधानी में लौट आये। सभी नागरिक, साधारण प्रजा और मंत्रीमण्डल के लोग राजा नल को पाकर बहुत प्रसन्न हुए। घर-घर में आनन्द मनाया जाने लगा। राजा नल ने सेना भेजकर दमयन्ती को बुलवाया। दमयन्ती अपनी दोनो संतानों को लेकर महल में आ गयी। राजा नल बड़े आनन्द के साथ समय बिताने लगे।  नल-दमयन्ती कथा सुनाने के बाद बृहदश्रव्जी कहते हैं---'युधिष्ठिर ! तुम्हें भी थोड़े ही दिनों में तुम्हारा राज्य और सगे-सम्बन्धी मिल जायेंगे। राजा नल ने जूआ खेलकर बड़ा भारी दुःख मोल लिया था। उसे अकेले ही सब दुःख भोगना पड़ा। तुम्हारे साथ तो भाई हैं, द्रौपदी है और बड़े-बड़े विद्वान तथा सदाचारी ब्रह्मण हैं। संसार की स्थितियाँ सर्वदा एक सी नहीं रहतीं। इसके बाद महर्षि बृहदव्श्र युधिष्ठिर को पासों की वशीकरण विद्या और अश्वविद्या सिखाकर स्नान करने चले गये।

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