Tuesday 25 August 2015

वनपर्व---परशुरामजी के तेजोहीन होने तथा पुनः तेज प्राप्त करने का प्रसंग

परशुरामजी के तेजोहीन होने तथा पुनः तेज प्राप्त करने का प्रसंग

महर्षि लोमश की यह बात सुनकर युधिष्ठिर ने भाइयों और द्रौपदी के सहित वहाँ स्नान किया। उसमें स्नान करने से उनका तेजस्वी शरीर और भी कान्तिवान् प्रकट होने लगा और वे शत्रुओं के लिये दुर्जय हो गये।फिर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने पूछा, 'भगवन् ! कृपा करके बताइये कि परशुरामजी के शरीर का तेज क्यों क्षीण हो गया था और वह उन्हें फिर किस प्रकार प्राप्त हुआ।' लोमशजी बोले---महाराज ! मैं आपको भगवान् श्रीराम और मणिमान् परशुरामजी का चरित्र सुनाता हूँ। महात्मा दशरथ के यहाँ पुत्ररूप में स्वयं भगवान् विष्णु ने ही रावण के वध के लिये रामावतार धारण किया था। श्रीरामजी ने बाल्यकाल में ही अनेको अद्भुत पराक्रम किये थे। उनका सुयश सुनकर परशुरामजी को बड़ा कुतूहल हुआ ऱ वे अपना क्षत्रियों को संहार करनेवाला दिव्य धनुष ले उनके परा्रम की परीक्षा लेने के लिये अयोध्यापुरी में आये। जब दशरथजी ने उनके आने का समाचार सुना तो उन्होंने राजकुमार राम को सबसे आगे रखकर अपने राज्य की सीमा पर भेजा। रामजी को प्रसन्नवदन और शस्त्रास्त्र स सुसज्जित देखकर परशुरामजी ने कहा, 'राजकुमार ! मेरा यह धनुष काल के समान कराल है, यदि तुममे बल हो तो इसे चढ़ाओ।'  तब श्रीरामचन्द्रजी ने परशुरामजी के हाथ से वह दिव्य धनुष ले लिया और खेल ही में उसे चढ़ा दिया। फिर मुस्कराते हुए उसकी प्रत्यंचा का टंकार किया। उसके शब्द से समस्त प्राणी ऐसे भयभीत हो गये मानो उनपर वज्र टूट पड़ा हो। इसके पश्चात् उन्होंने परशुरामजी से कहा, 'ब्रह्मण् ! लीजिये, आपका धनुष तो चढ़ा दिया, अब और क्या सेवा करूँ ?' तब परशुरामजी ने उन्हें एक दिव्य वाण देकर कहा कि 'इसे धनुष पर रखकर उसे कान तक खींचकर दिखाओ।' यह सुनकर श्रीरामजी ने कहा, भृगुनन्दन ! आप बड़े अभिमानी जान पड़ते हैं। आपने अपने पितामह ऋचीक की कृपा से विशेषतः क्षत्रियों को हराकर ही यह तेज प्राप्त किया है। अच्छा, मैं आपको दिव्य नेत्र देता हूँ, उनसे आप मेरे स्वरूप को देखिये।'तब परशुराम ने श्रीराम के शरीर में आदित्य, वसु, रुद्र, साध्य, अग्नि, नक्षत्र, मेघ, वर्षा, समुद्र और पर्वतों को देखा। फिर भगवान् श्रीराम ने वह वाण छोड़ा तो बड़ी-बड़ी लपटों सहित सूखा वज्रपात होने लगा; सारा भूमण्डल धूलवर्षा और मेघवर्षा से छा गया; पृथ्वी काँपने लगी तथा सर्वत्र भीषण आघात और भयंकर शब्द होने लगा। रामचन्द्रजी की भुजाओं से छूटे हुए उस वाण ने परशुरामजी को भी व्याकुल कर दिया और केवल उनका तेज हरकर वह फिर रामजी के पास लौट आया। जब उन्हें कुछ चेत हुआ तो उनके शरीर में मानो प्राणों का संचार हो गया और उन्होंने भगवान् विष्णु के अंशरूप भगवान् श्रीराम को प्रणाम किया। फिर उनकी आज्ञा पाकर वे महेन्द्र-पर्वत चले गये और बड़े शान्त और लज्जित होकर वहाँ रहने लगे।इस प्रकार एक वर्ष बीत जाने पर जब पितृगण ने देखा कि परशुरामजी बड़े निस्तेज हो रहे हैं, उनका सारा मद चूर-चूर हो गया है और वे अत्यन्त दुःखी हैं तो उन्होंने उनसे कहा, 'वत्स ! तुमने साक्षात् विष्णु के सामने जाकर जैसा वर्ताव किया, वह ठीक नहीं था। वे तो तीनं लोकों में सर्वदा ही पूजनीय है। अब तुम जाकर वधूसरकृता नाम की पवित्र नदी में स्नान करो। पितरों के इस प्रकार कहने से परशुरामजी ने इस तीर्थ में स्नान किया और ऐसा करनेसे उन्हें पुनः अपना खोया हुआ तेज प्राप्त हुआ।

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