धर्मराज युधिष्ठिर से व्यास का भविष्य-कथन
जब
महायज्ञ राजसूय, जिसका होना अत्यंत दुर्लभ है, समाप्त हो चुका, तब भगवान् व्यास अपने
शिष्यों के साथ युधिष्ठिर के पास आये। युधिष्ठिर ने भाइयों के साथ उठकर उनकी पूजा की।
उन्होंने सुवर्ण-सिंहासन पर बैठकर युधिष्ठिर आदि पाण्डवों को बैठने की आज्ञा दी। उन
सबके बैठ जाने पर भगवान् व्यास ने कहा, कुन्तीनन्दन, तुमने परम दुर्लभ सम्राटपद प्राप्त
करके इस देश की बड़ी उन्नति की है। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम्हारे जैसे सत्पुत्र
से कुरुवंश की कीर्ति बढ गयी। इस यज्ञ में मेरा भी खूब सत्कार हुआ। अब मैं तुमसे जाने
की अनुमति चाहता हूँ। धर्मराज ने हाथ जोड़कर पितामह व्यास का चरण-स्पर्श किया और कहा,
भगवान् मुझे एक बात का संशय है। आप ही उसे दूर कर सकते हैं। देवर्षि नारद ने कहा था
कि वज्रपात आदि दैविक, धूमकेतु आदि अंतरिक्ष और भूकम्प आदि पार्थिव उत्पात हो रहे हैं।
आप कृपा करके यह बतलाइये कि शिशुपाल की मृत्यु से उनकी समाप्ति हो गयी या वे अभी बाकी
हैं। धर्मराज युधिष्ठिर का प्रश्न सुनकर भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायण ने कहा, ऱाजन्, इन
उत्पातों का फल तेरह वर्ष बाद होगा और वह होगा समस्त क्षत्रियों का संहार। उस समय दुर्योधन
के अपराध से तुम्ही निमित्त बनोगे और सब क्षत्रियइकट्ठे होकर भीमसेन और अर्जुन के बल
से मर मिटेंगे।भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायण इस प्रकार कहकर अपने शिष्यों के साथ कैलास
चले गये।धर्मराज युधिष्ठिर चिन्ता और शोक से विह्वल हो गये।उनकी साँस गरम चलने लगी।
वे बीच-बीच में भगवान् व्यास की बात याद करके अपने भाइयों से कहते कि, भाइयों, आज से
मेरी जो प्रतिज्ञा है उसे सुनो। अब मैं तेरह वर्ष किसी के प्रति कड़वी बात नहीं कहूँगा।
भाई-बन्धुओं की आज्ञा में रहकर उनके कथनानुसार काम करूँगा। धर्मराज युधिष्ठिर भाइयों
के साथ ऐसा नियम बनाकर उसका पालन करने लगे। वे नियम से पितरों का तर्पण और देवताओं
की पूजा करते। इस प्रकार सबके चले जाने पर भी केवल दुर्योधन और शकुनी धर्मराज युधिष्ठिर
के पास इन्द्रप्रस्थ में ही रहे।
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