Friday 21 August 2015

वनपर्व---धृतराष्ट्र के क्रोधित होने पर विदुर का पाण्डवों के पास जाना और उनके बुलाने पर लौट आना

धृतराष्ट्र के क्रोधित होने पर विदुर का पाण्डवों के पास जाना और उनके बुलाने पर लौट आना
जब पाण्डव वन में चले गये; तब प्रज्ञाचक्षु धृतराष्ट्र के चित्त में बड़ी उद्विग्नता और जलन होने लगी। उन्होंने परम ज्ञानी विदुर को बुलाया और उनसे कहा--'भाई विदुर ! तुम्हारी बद्धि महात्मा शुक्राचार्य के समान शुद्ध है, तुम सूक्ष्म-से-सूक्ष्म और श्रेष्ठ धर्म को समझते हो। कौरव और पाण्डव तुम्हारा सम्मान करते हैं और दोनो के प्रति तुम्हारी समान दृष्टि है। अब तुम कोई ऐसा उपाय बतलाओ, जिससे दोनो का ही हित साधन हो। अब पाण्डवों के चले जाने पर मुझे क्या करना चाहिये ? प्रजा किस प्रकार हमलोगों से प्रेम करे ? पाण्डव भी क्रोधित होकर हमलोगों की कोई हानि न कर सके, ऐसा उपाय तुम बतलाओ।' विदुरजी ने कहा---राजन् ! अर्थ, धरम और काम---इन तीनों के फल की प्राप्ति धर्म से ही होती है। राज्य की जड़ है धर्म। आप धर्म में स्थित होकर पाण्डवों की और अपने पुत्रों की रक्षा कीजिये। आपके पुत्रों ने शकुनि की सलाह से भरी सभा में धर्म का तिरस्कार किया है, क्योंकि सत्यसंध युधिष्ठिर को कपट-जूए से हराकर उन्होंने उनका सर्वस्व छीन लिया है। यह बड़ा अधर्म हुआ। वैसा करने से आपका पुत्र पाप और कलंक से छूटकर प्रतिष्ठा प्राप्त करेगा। वह उपाय यह है कि आपने पाण्डवों का जो कुछ छीन लिया है, वह सब उन्हें दे दिया जाय। राजा का परम धर्म है कि वह अपने हक में ही संतुष्ट रहे, दूसरे का हक न चाहे। जो उपाय मैने बताया है उससे भाई-भाई में फूट नहीं पड़ेगी और अधर्म भी नहीं होगा। यह काम आपके लिये सबसे बढकर है कि आप पाण्डवों को संतुष्ट करें और शकुनि का अपमान करें। यदि आपके पुत्रों का सौभाग्य तनिक भी शेष रह गया हो तो शीघ्र-से-शीघ्र यह काम कर डालना चाहिये। यदि आप महवश ऐसा नहीं करेंगे तो कुरुवंश का नाश हो जायगा। विदुरजी ने कहा--- यदि आपका पुत्र दुर्योधन प्रसन्नता से पाण्डवों के साथ रहना स्वीकार कर ले तो ठीक ही है अन्यथा परिवार और प्रजा के सुख के लिये उस कुलकलंक और दुरात्मा को कैद करके युधिष्ठिर को राजसिंहासन पर बैठा दीजिये। युधिष्ठिर के चित्त में किसी के प्रति राग-द्वेष नहीं है, इसलिए वे ही धर्मपूर्वक पृथ्वी का शासन करें। यदि सब लोग मेल-मिलाप से रह सकें तो पृथ्वी के सभी राजा हमारे सामने सेवा करने के लिए उपस्थित हों। दुःशासन भरी सभा में भीमसेन और द्रौपदी से क्षमा-याचना करे। आप युधिष्ठिर को शान्त्वना देकर राजसिंहासन पर बैठा दें। धृतराष्ट्र ने कहा---'विदुर ! यह तुम क्या कह रहे हो। तुम पाण्डवों का हित पाण्डवों चाहते हो और मेरे पुत्रों का अहित। मेरे मन में तुम्हारी बातें नहीं बैठती। तुम बार-बार पाण्डवों के पक्ष की ही बात कहते हो। भला, मैं उनके लिये अपने पुत्रों को कैसे छोड़ सकता हूँ। विदुर ! मैं तो तुम्हारा इतना सम्मान करता हूँ और तुम मेरे पुत्रों का अहित चाहते हो। अब मुझे तुम्हारी कोई आवश्यकता नहीं है। तुम्हारी इच्छा हो तो यहाँ रहो अथवा चले जाओ।' इतना कहकर धृतराष्ट्र उठ खड़े हुए और झटपट महल में चले गये। धृतराष्ट्र की यह दशा देखकर विदुर ने कहा--'अब कौरवकुल का नाश अवश्यम्भावी है।' ऐसा कहकर उन्होंने पाण्डवों से मिलने के लिये यात्रा कर दी। यों तो विदुरजी के चित्त में सर्वदा ही पाण्डवों से मिलने की लालसा बनी रहती थी, परंतु आज धृतराष्ट्र के व्यवहार से उन्हें उसको पूरा करने का अवसर मिल गया और उन्होंने एक रथ पर सवार होकर काम्यक वन की यात्रा कर दी। उनके शीघ्रगामी घोड़ों ने थोड़े ही समय में उन्हें वहाँ पहुँचा दिया। उस समय धर्मात्मा युधिष्ठिर ब्राह्मणों, भाइयों और द्रौपदी के साथ बैठे हुए थे। उन्होंने देखा और दूर से ही पहचान लिया कि विदुरजी बड़ी शीघ्रता से हमारे पास आ रहे हैं। युधिष्ठिर ने भीमसेन से कहा---'भाई, पता नहीं कि इस बार विदुरजी यहाँ आकर हमलोगों से क्या कहेंगे।' तदन्तर पाण्डवों ने उठकर विदुरजी की आगवानी की। स्वागत-सत्कार किया। विदुरजी भी यथायोग्य सबसे मिले। विश्राम के अनन्तर पाण्डवों ने उनके पधारने का कारण पूछा। तब उन्होंने धृतराष्ट्र के व्यवहार का वर्णन किया। कुशल प्रश्न हो जाने के पश्चात् विदुरजी ने कहा---'धर्मराज ! मैं आपसे बड़े काम की बात कहता हूँ। जो मनुष्य शत्रुओं के दुःख देने पर भी क्षमा कर देता है वह अपनी उन्नति का अवसर देखता रहता है, साथ ही अपनीशक्ति एवं सहायकों का संग्रह करता है, वही पृथ्वी का राजा होता है। जो अपने भाइयों को अलग नहीं कर देता, मिलाकर अपने पास रखता है, उसके ऊपर कभी विपत्ति भी आ जाय तो सबलोग मिल-जुलकर उसे सहन करते हैं और प्रतिकार भी।इसलिये भाइयों को अलग नहीं करना चाहिये। भाइयों के साथ सच्ची और महत्वपूर्ण बात ही करनी चाहिेये। जो स्वयं खाय वही अपने भाइयों को भी साथ बैठाकर खिलाये। अपने आराम के पहले ही उनके आराम की व्यवस्था कर दे। जो ऐसा करता है उसी का भला होता है। युधिष्ठिर ने कहा--'चाचाजी ! मैं बड़ी सावधान के साथ आपके उपदेश के अनुसार काम करूँगा। और भी आप हमलोगों की अवस्था और समय के उपयुक्त जो कुछ ठीक समझते हों, बतलावें; हमलोग आपकी आज्ञा का पालन करेंगे। इधर जब विदुरजी हस्तिनापुर से पाण्डवों के पास काम्यक वन में चले गये, तब राजा धृतराष्ट्र को अपनी भूल पर बड़ा पश्चाताप हुआ। वे विदुरका प्रभाव, नीति और सन्धि-विग्रह आदि की कुशलता का स्मण करके सोचने लगे कि 'अब तो पाण्डवों की बन गयी।उन्हीं की बढती होगी।' धृतराष्ट्र व्याकुल हो गये और भरी सभा में राजाओं के सामने ही मूर्छित हकर गिर पड़े।जब होश हुआ, तब उन्होंने उठकर संजय से कहा--'संजय ! मेरा प्यारा भाई विदुर मेरा परम हितैषी और धर्म की साक्षात् मूर्ति है। उसके बिना मेरा कलेजा फट रहा है। मैने ही क्रोधवश होकर अपने निरपराध भाई को निकाल दिया है। तुम जल्दी जाकर उसे लिवा लाओ। विदुरके बिना मैं जी नहीं सकता। मेरे परणों की रक्षा करो।' धृतराष्ट्र की आज्ञा स्वीकार करके संजय ने काम्यक वन की यात्रा की। काम्यक वन में पहुँचकर संजय ने देखा कि धर्मराज युधिष्ठिर मृगछाला ओढे अपने भाई और विदुरजी के साथ हजारों ब्राह्मणों के बीच में बैठे हुए हैं। संजय ने प्रणाम किया और पाण्डवों ने उनका यथायोग्य सत्कार। विश्राम और कुशल-मंगल के पश्चात् संजय ने अपने आने का कारण बताते हुए कहा--'विदुरजी ! राजा धृतराष्ट्र आपकी याद कर रहे हैं। आप हस्तिनापुर में चलकर उन्हें दर्शन दीजिये और उनके प्राणों की रक्षा कीजिये।' विदुरजी ने संजय के कथनानुसार पाण्डवों से अनुमति ली और फिर हस्तिनापुर लौट आये। विदुर से मिलकर धृतराष्ट्र को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने कहा---'मेरे प्यारे भाई ! तुम्हारा कोई अपराध नहीं है। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम लौट आये। तुम्हें वहाँ मेरी याद तो आती थी न ? तुम्हारे जाने के बाद मुझे नींद नहीं आयी। मैं जाग्रत अवस्था में ही अपने शरीर को श्रीहीन देखता था। मैने तुमसे जो कुछ अनुचित कहा,उसके लिये मुझे क्षमा कर दो।' विदुरजी ने कहा--'राजन् ! आप मेरे पूजनीय और बड़े हैं। मैने तो आपकी बातों पर कुछ ध्यान ही नहीं दिया था। अब भला, उसमें क्षमा करना क्या है। आपके दर्शन के लिये ही मैं यहाँ आया हूँ। मेरे पाण्डव और आपके पुत्र एक से हैं, फिर भी पाण्डवों को असहाय देखकर मेरे मन में स्वभाव से ही उनकी सहायता करने की बात आ जाती है। मेरे चित्त में आपके पुत्रों के प्रति कोई द्वेषभाव नहीं है।' इस प्रकार दोनो एक-दूसरे को प्रसन्न करके सुख से रहने लगे। 



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