Wednesday 24 April 2024

अश्वत्थामा द्वारा पाण्डव और पांचाल वीरों का संहार

संजय कहते हैं_राजन् ! अब द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने शिविर में प्रवेश किया तथा कृपाचार्य और कृतवर्मा दरवाजे पर खड़े हो गये। उन्हें अपना साथ देने के लिए तैयार देखकर अश्वत्थामा को बड़ी प्रसन्नता हुई और उसने उनसे धीरे-से कहा, 'आप दोनों यदि तैयार हो जायं तो सभी क्षत्रियों का संहार कर सकते हैं, फिर निद्रा में पड़े हुए इन बचे_खुचे योद्धाओं की तो बात ही क्या है ? मैं शिविर के भीतर जाऊंगा और काल के समान मार_काट मचा दूंगा। आप लोग ऐसा करें, जिससे कोई भी आपके हाथों से जीवित बचकर न जा सके।'ऐसा कहकर द्रोणपुत्र पाण्डवों के उस विशाल शिविर में द्वार से न जाकर बीच ही से घुस गया।उसे अपने लक्ष्य धृष्टद्युम्न के तंबू का पता था, इसलिये वह चुपचाप वहीं पहुंच गया। वहां उसने देखा कि सब योद्धा थक जाने के कारण अचेत होकर सोये पड़े हैं। उनके पास ही एक रेशमी शय्या पर उसे धृष्टद्युम्न सोता दिखाई दिया। तब अश्वत्थामा ने उसे पैर से ठुकराकर जगाया। पैर लगते ही रणोन्मत्त धृष्टद्युम्न जग पड़ा और महारथी अश्वत्थामा को आया देख ज्योंहि वह पलंग से उठने लगा कि उस वीर ने उसके बाल पकड़कर पृथ्वी पर पटक दिया।इस समय धृष्टद्युम्न भय और निद्रा से दबा हुआ था, साथ ही अश्वत्थामा ने उसे जोर की पटक भी लगायी थी; इसलिये वह निरुपाय हो गया। अश्वत्थामा ने उसकी छाती और गले पर दोनों घुटने टेक दिये। धृष्टद्युम्न बहुतेरा चिल्लाया और छटपटाया, किन्तु अश्वत्थामा उसे पशु की तरह पीटता रहा। अंत में उसने अश्वत्थामा को नखों से बकोटते हुए लड़खड़ाती जबान में कहा, 'आचार्यपुत्र ! व्यर्थ देरी मत करो, मुझे हथियार से मार डालो।' उसने इतना कहा ही था कि अश्वत्थामा ने उसे जोर से दबाया और उसकी अस्पष्ट वाणी सुनकर कहा, 'रे कुलकलंक ! अपने आचार्य की हत्या करनेवाले को पुण्य लोक नहीं मिल सकते। इसलिये तुझे शस्त्र से मारना उचित नहीं है।'ऐसा कहकर कुपित होकर उसने अपने पैरों की चोट से धृष्टद्युम्न के मर्मस्थानों पर प्रहार किया। इस समय धृष्टद्युम्न की चइल्लआहट से घर की स्त्रियां और रखवाले भी जग पड़े। उन्होंने एक अलौकिक पराक्रम वाले पुरुष को प्रहार करते देखकर उसे कोई भूत समझा। इसलिये भय के कारण उनमें से कोई भी बोल न सका।अश्वत्थामा ने धृष्टद्युम्न को इसी प्रकार पशु की तरह पीट_पीटकर मार डाला। इसके बाद वह उस तंबू से बाहर आया और रथ पर चढ़कर सारी छावनी में चक्कर लगाने लगा। पांचाल राज धृष्टद्युम्न को मरा देखकर उसकी रानियां और रखवाले शोकाकुल होकर विलाप करने लगे। उनके कोलाहल से आसपास के क्षत्रिय वीर चौंककर कहने लगे, 'क्या हुआ ?' क्या हुआ ?' तब स्त्रियों ने बड़ी दीन वाणी से कहा, 'अरे ! जल्दी दौड़ो ! जल्दी दौड़ो! हमारी तो समझ में नहीं आता यह कोई राक्षस है या मनुष्य है। देखो, इसने पांचाल राज को मार डाला और अब इधर_उधर घूम रहा है।' यह सुनकर उन योद्धाओं ने एक साथ अश्वत्थामा को घेर लिया। किन्तु पास आते ही अश्वत्थामा ने उन्हें रुद्रास्त्र से मार डाला।इसके बाद उसने बराबर के तंबू में उत्तमौजा को पलंग पर सोते देखा। उसके भी कंठ और छाती को उसने पैरों से दबा लिया। उत्तमौजा चिल्लाने लगा किन्तु अश्वत्थामा ने उसे पशु की तरह पीट_पीटकर मार डाला। युधामन्यु ने समझा कि उत्तमौजा को किसी राक्षस ने मारा है। इसलिये वह गदा लेकर दौड़ा और उससे अश्वत्थामा की छाती पर चोट की। अश्वत्थामा ने लपककर उसे पकड़ लिया और फिर पृथ्वी पर पटक दिया। युधामन्यु ने छूटने के लिये बहुतेरे हाथ_पैर पटके, किन्तु अश्वत्थामा ने उसे भी पशु की तरह मार डाला।
इसी प्रकार उसने नींद में पड़े हुए अन्य महारथियों पर भी आक्रमण किया। वे सब भय से कांपने लगे , किन्तु अश्वत्थामा ने उन सभी को तलवार से मौत के घाट उतार दिया। शिविर के विभिन्न भागों में उसने मध्यम श्रेणी के सैनिकों को भी निद्रा में बेहोश देखा और उन सबको भी एक क्षण में ही तलवार से तहस_नहस कर डाला। इसी तरह अनेकों योद्धा, घोड़े और हाथियों को उस तलवार की भेंट चढ़ा दिया। इससे उसका सारा शरीर खून में लथपथ हो गया और वह साक्षात् काल के समान दिखाई देने लगा। उस समय जिन योद्धाओं की नींद टूटती थी, वे ही अश्वत्थामा का शब्द सुनकर भौंचक्के_से रह जाते थे और उसे राक्षस समझकर आंख मूंद लेते थे। इस प्रकार भयंकर रूप धारण किये वह सारी छावनी में चक्कर लगा रहा था। जब द्रोपदी के पुत्रों ने धृष्टद्युम्न के मारे जाने का समाचार सुना तो वे निर्भय होकर अश्वत्थामा पर बाण बरसाने लगे। अश्वत्थामा अपनी दिव्य तलवार लेकर उनपर टूट पड़ा और उससे प्रतिविन्ध्य की कोख फाड़ डाली। इससे वह प्राणहीन होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। सुतसोम ने पहले तो प्रस से चोट की। फिर वह भी तलवार लेकर द्रोणपुत्र की ओर चला। अश्वत्थामा ने तलवार के सहित उसकी वह भुजा काट डाली। और फिर उसकी पहली पर प्रहार किया। इससे हृदय फट जाने के कारण वह पृथ्वी पर गिर गया। इसी समय नकुल के पुत्र शतआनईक ने एक रथ का पहिया उठाकर बड़े जोर से अश्वत्थामा की छाती पर मारा। अश्वत्थामा ने भी तुरंत ही उसपर चोट की। उससे वह व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। फिर अश्वत्थामा ने उसका सिर काट डाला। अब श्रुतशर्मा परिघ लेकर अश्वत्थामा की ओर चला और उसके बायें गाल पर चोट की। किन्तु अश्वत्थामा ने अपनी तीखी तलवार से उसके मुंह पर ऐसा वार किया कि जिससे उसका चेहरा बिगड़ गया और वह बेहोश होकर पृथ्वी पर जा पड़ा। उसका शब्द सुनकर महारथी श्रुतकीर्ति अश्वत्थामा के सामने आया और उसपर बाणों की वर्षा करने लगा। किन्तु अश्वत्थामा के सामने आया और उसपर बाणों की वर्षा करने लगा। किन्तु अश्वत्थामा ने उसकी बाणवर्षा को ढाल पर रोक लिया और उसके सिर को धड़ से अलग कर दिया। इसके बाद उसने तरह_तरह के शस्त्रों से शिखण्डी और प्रभद्रक वीरों को मारना आरम्भ किया। उसने एक वाण से शिखण्डी की भृकुटियों के बीच में चोट की और फिर पास जाकर तलवार के एक ही हाथ से उसके दो टुकड़े कर दिये। इस प्रकार शिखण्डी को मारकर वह अत्यन्त क्रोध में भर गया और बड़े वेग से प्रभद्रकों पर टूट पड़ा। राजा विराट की जो कुछ सेना बची थी, उसे उसने एकदम कुचल डाला तथा राजा द्रुपद के पुत्र, पौत्र और सम्बन्धियों को खोज_खोजकर मौत के घाट उतार दिया। अश्वत्थामा का सिंहनाद सुनकर पाण्डवों की सेना में सैकड़ों_हजारों वीर जाग पड़े। उसने उनमें से किसी के पैर, किसी की जांघें और किसी की पसलियां काट डालीं। उन सभी को बहुत अधिक कुचल दिया गया था, इससे वे भयानक चित्कार कर रहे थे। इसी प्रकार घोड़े और हाथियों के बिगड़ जाने से भी अनेकों योद्धा पिस गये थे। उन सभी के लोगों से सारी रणभूमि पट गयी थी। घायल वीर 'यह क्या है ? कौन है ? किसका शब्द है? यह क्या कर डाला ?' इस प्रकार चिल्ला रहे थे। उनके लिये अश्वत्थामा प्राणान्तक काल के समान हो रहा था। पाण्डव और संजय वीरों में जो शस्त्र और कवचों से रहित थे और जिन्होंने कवच धारण कर लिये थे, उन सभी को अश्वत्थामा ने यमलोक भेज दिया। जो लोग नींद के कारण अंधे और अचेत_से हो रहे थे, वे उसके शब्द से चौंककर उछल पड़े, किन्तु फिर भयभीत होकर जहां_तहां छिप गये। डर के मारे उनकी घिग्घी बंध गयी और वे एक_दूसरे से लिपटकर बैठ गये। इसके बाद अश्वत्थामा फिर अपने रथ पर सवार हुआ और हाथ में धनुष लेकर दूसरे योद्धाओं को यमराज के हवाले कर दिया। फिर वह हाथ में ढाल तलवार लेकर उस सारी छावनी में चक्कर लगाने लगा। अश्वत्थामा का सिंहनाद सुनकर योद्धालोग चौंक पड़ते थे; किन्तु निद्रा और भय से व्याकुल होने के कारण अचेत_से होकर इधर_उधर भाग जाते थे। उनमें से कोई बुरी तरह चिल्लाने लगते थे और कोई अनेकों उटपटांग बातें करने लगते थे। उनके बाल बिखरे हुए थे। इसलिए आपस में एक_दूसरे को पहचान भी नहीं पाते थे। कोई इधर_उधर भागने में थककर गिर गये थे। किन्हीं को चक्कर आ रहा था। किन्हीं का मल_मूत्र निकल गया था। हाथी और घोड़े रस्से तुड़ाकर सब ओर गड़बड़ी करते दौड़ रहे थे। कोई डर के मारे पृथ्वी पर पड़कर छिप रहते थे; किन्तु हाथी_घोड़े उन्हें पैरों से खूंद डालते थे। इस प्रकार बड़ी ही गड़बड़ी मची हुई थी। लोगों के इधर_उधर दौड़ने से बड़ी धूल छा गयी, जिससे उस रात्रि के समय शिविर में दूना अंधकार हो गया। उस समय पिता पुत्रों को और भाई भाइयों को नहीं पहचान पाते थे। हाथी हाथियों पर और बिना सवार के घोड़े घोड़ों पर टूट पड़े तथा एक_दूसरे पर चोटें करते घायल होकर पृथ्वी पर लोटने लगे। बहुत_से लोग निद्रा में अचेत पड़े थे, वे अंधेरे में उठकर आपस में ही आघात करके एक_दूसरे को गिराने लगे। दैववश उनकी बुद्धि नष्ट हो गयी थी। 'हा तात ! हा पुत्र !' इस प्रकार चिल्लाते हुए अपने बन्धु_बान्धवों को छोड़कर इधर_उधर भागने लगे। बहुत से तो हाय_हाय करके पृथ्वी पर गिर गये। अनेकों वीर यन्त्र और कवचों के बिना ही शिविर से बाहर जाना चाहते थे। उनके बाल खुले हुए थे और वे हाथ जोड़े भय से थर_थर कांप रहे थे; तो भी कृपाचार्य और कृतवर्मा ने शिविर से बाहर निकलने पर किसी को जीवित नहीं छोड़ा। इन दोनों ने अश्वत्थामा को प्रसन्न करने के लिये शिविर के तीन ओर आग लगा दी। इससे सारी छावनी में उजाला हो गया और उसकी सहायता से अश्वत्थामा हाथ में तलवार लेकर सब ओर घूमने लगा। इस समय उसने अपने सामने आनेवाले और पीठ दिखाकर भागनेवाले दोनों ही प्रकार के योद्धाओं को तलवार से मौत के घाट उतार दिया। किन्हीं किन्ही को उसने तिल के पौधे के समान बीच ही से दो करके गिरा दिया। इसी प्रकार उसने किन्हीं के शस्त्रसहित भुजदण्डों को, किन्हीं के सिरों को, किन्हीं की जंघाओं को, किन्हीं के पैरों को, किन्हीं के पीठ को और किन्हीं की पसलियों को तलवार से उड़ा दिया। इसी प्रकार उसने किसी का मुंह फेर दिया, किसी को कर्णहीन कर डाला, किन्हीं के कंधे पर चोट करके उनका सिर शरीर में घुसेड़ दिया। इस प्रकार वह अनेकों वीरों का संहार करता शिविर में घूमने लगा। उस समय अंधकार के कारण रात बड़ी भयावनी हो रही थी। हजारों मरे और अधमरे मनुष्यों से तथा अनेकों हाथी_घोड़े से पटी हुई पृथ्वी को देखकर हृदय कांप उठता था। 
लोग हाहाकार करते हुए आपस में कह रहे थे, 'भाई ! आज पाण्डवों के पास न रहने से ही हमारी यह दुर्गति हुई है। अर्जुन को तो असुर, गन्धर्व, यक्ष और राक्षस _कोई भी नहीं जीत सकता; क्योंकि साक्षात् श्रीकृष्ण उनके रक्षक हैं।' दो घड़ी के बाद वह सारा कोलाहल शान्त हो गया। सारी भूमि खून से तह हो गयी थी। इसलिए एक क्षण में ही वह भयानक धूल दब गयी। अश्वत्थामा ने क्रोध में भरकर ऐसे हजारों वीरों को मार डाला, जो किसी प्रकार प्राण बचाने के प्रयत्न में लगे हुए थे, घबराये हुए थे और जिनमें तनिक भी उत्साह नहीं था। जो एक_दूसरे से लिपटकर पड़ गये थे, शिविर छोड़कर भाग रहे थे, छिपे हुए थे अथवा किसी प्रकार लड़ रहे थे उनमें से भी किसी को उसने जीवित नहीं छोड़ा। जो लोग आग में झुलसे जाते थे और आपस में ही मार_काट कर रहे थे, उन्हें भी उसने यमराज के हवाले कर दिया। राजन् ! इस प्रकार उस आधीरात के समय द्रोणपुत्र ने पाण्डवों की उस विशाल सेना को बात_की_बात में यमलोक पहुंचा दिया। पौ फटते ही अश्वत्थामा ने शिविर से बाहर आने का विचार किया। उस समय नर रक्त से सुनकर वह तलवार इस प्रकार उसके हाथ से चिपक गयी मानो वह उसी का एक अंग हो। इस प्रकार अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार वह कठोर कर्म करके अश्वत्थामा पिता के ऋण से मुक्त होकर निश्चिंत हो गया। वह छावनी से बाहर आया और कृपाचार्य और कृतवर्मा से मिलकर उन्हें प्रसन्नतापूर्वक अपनी सारी करतूत सुनाकर आनंदित हुआ। वे भी अश्वत्थामा का ही प्रिय करने में लगे हुए थे। अतः उन्होंने भी यह सुनकर कि हमने यहां रहकर हजारों पांचाल एवं संजय वीरों का संहार किया है, उसे प्रसन्न किया।
राजा धृतराष्ट्र पूछते हैं_संजय ! अश्वत्थामा तो मेरे पुत्र के विजय के लिये ही कमर कसे हुए था। फिर उसने ऐसा महान् कर्म पहले क्यों नहीं किया ?
संजय ने कहा_राजन् ! अश्वत्थामा को पाण्डव, श्रीकृष्ण और सात्यकि से खटका रहता था। इसी से वह अबतक ऐसा नहीं कर सका। इस समय इनके पास न रहने से ही उसने कर्म कर डाला। इसके बाद अश्वत्थामा ने आचार्य कृप और कृतवर्मा को गले लगाया और उन्होंने उसका अभिनन्दन किया। फिर उसने हर्ष में भरकर कहा, 'मैंने समस्त पांचालों को, द्रौपदी के पांचों पुत्रों को और संग्राम में बचे हुए सभी मत्स्य एवं सओमक वीरों को नष्ट कर डाला है। अब हमारा काम पूरा हो गया। इसलिये जहां राजा दुर्योधन है, वहीं चलना चाहिये। यदि वे जीवित हैं तो उन्हें भी यह समाचार सुना दिया जाय।'





Saturday 30 March 2024

अश्वत्थामा का श्रीमहादेवजी पर प्रहार, उसका प्रभाव और फिर आत्मसमर्पण करके उनसे खड्ग प्राप्त करना

संजय कहते हैं _महाराज ! कृपाचार्य जी से ऐसा कहकर द्रोणपुत्र अकेला ही अपने घोड़ों को जोतकर शत्रुओं पर चढ़ाई करने की तैयारी करने लगा। तब उससे कृपाचार्य और कृतवर्मा ने पूछा, 'तुम रथ किसलिये तैयार कर रहे हो, तुम्हारा क्या करने का विचार है ? हम भी तो तुम्हारे साथ ही हैं और सुख_दु:ख में तुम्हारे साथ ही रहेंगे।'यह सुनकर अश्वत्थामा ने जो कुछ वह करना चाहता था उन्हें साफ_साफ सुना दिया। वह बोला, 'धृष्टधुम्न ने मेरे पिताजी को उस स्थिति में मारा था, जब उन्होंने अपने शस्त्र रख दिये थे। अतः आज उस पापी पांचाल पुत्र को मैं भी उसी तरह पाप कर्म करके कवचहीन अवस्था में मारूंगा। मेरा यही विचार है कि उसे शस्त्रों द्वारा प्राप्त होने वाले लोक नहीं मिलने चाहिये। आप दोनों भी जल्दी ही कवच धारण कर लें, खड्ग तथा धनुष लेकर तैयार हो जायं और मेरे साथ रहकर अवसर की प्रतीक्षा करें।' ऐसा कहकर अश्वत्थामा रथ पर सवार हुआ और शत्रुओं की ओर चल दिया। उसके पीछे-पीछे कृपाचार्य और कृतवर्मा भी चले। वह रात्रि में ही, जबकि सब लोग सोये हुए थे, पाण्डवों के शिविर में पहुंचा और उसके द्वार पर जाकर खड़ा हो गया। वहां उसने चन्द्रमा और सूर्य के समान तेजस्वी एक विशालकाय पुरुष को दरवाजे पर खड़ा देखा। उस महापुरुष को देखकर शरीर में रोमांच हो जाता था। वह व्याघ्रचर्म धारण किये था, ऊपर से मृगचर्म ओढ़े था तथा सर्पों का यज्ञोपवीत पहने हुए था। उसकी विशाल भुजाओं  में तरह_तरह के शस्त्र सुशोभित थे, बाजूबंदों के स्थान में तरह_तरह के सर्प बंधे हुए थे तथा मुख से अग्नि की ज्वालाएं निकल रही थीं। उसके मुख, नाक, कान और हजारों नेत्रों से भी बड़ी_बड़ी लपटें निकल रही थीं। उसके तेज की किरणों से शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले सैकड़ों _हजारों विष्णु प्रकट हो जाते थे। समस्त लोकों को भयभीत करनेवाले उस अद्भुत पुरुष को देखकर भी अश्वत्थामा घबराया नहीं, बल्कि उसपर अनेकों दिव्य अस्त्रों की वर्षा_सी करने लगा। वह देव अश्वत्थामा के छोड़े हुए समस्त शस्त्रों को निगल गया। यह देखकर उसने एक अग्नि के समान देदीप्यमान रथशक्ति छोड़ी। परन्तु वह भी उससे टकराकर टूट गयी। तब अश्वत्थामा ने उसपर एक चमचमाती हुई तलवार चलायी। वह भी उसके शरीर में लीन हो गयी। इसपर उसने कुपित होकर एक गदा छोड़ी, किन्तु वह उसे भी लील गया। इस प्रकार जब अश्वत्थामा के सब शस्त्र समाप्त हो गये तो उसने इधर_उधर दृष्टि डाली। इस समय उसने देखा कि सारा आकाश वइष्णउओं से भरा हुआ है। शस्त्रहीन अश्वत्थामा यह अत्यंत अद्भुत दृश्य देखकर बड़ा ही दु:खी हुआ और आचार्य कृकप के वचन याद करके कहने लगा, जो पुरुष अप्रिय किन्तु हित की बात कहने वाले अपने सुहृदों की सीख नहीं सुनता, वह मेरी ही तरह आपत्ति में पड़कर शोक करता है । जो मूर्ख शास्त्र जाननेवालों की बात का तिरस्कार करके युद्ध में प्रवृत होता है, वह धर्म मार्ग से भ्रष्ट होकर कुमार्ग में जाने से उल्टे मुंह की खाता है। मनुष्य को गौ, ब्राह्मण, राजा, स्त्री, मित्र, माता, गुरु, दुर्बल, मूर्ख, कन्धे, सोये हुए, डरे हुए, नींद से उठे हुए, मतवाले, उन्मत्त और असावधान पुरुषों पर हथियार नहीं चलाना चाहिये। गुरुजनों ने पहले ही से सब पुरुषों को ऐसी शिक्षा दे रखी है। किन्तु मैं उस शास्त्रीय सनातन मार्ग का उल्लंघन करके उल्टे रास्ते से चलने लगा था। इसी से इस घोर आपत्ति में पड़ गया हूं। जब मनुष्य किसी काम को आरम्भ करके भय के कारण उसे बीच में ही छोड़ देता है तो बुद्धिमान लोग इसे उसकी मूर्खता ही कहते हैं। इस समय इस काम को करते हुए मेरे आगे भी ऐसा ही भय उपस्थित हो गया है। यों तो द्रोणपुत्र किसी प्रकार युद्ध से पीछे हटने वाला नहीं है। परन्तु यह महआभूत तो मेरे आगे विधाता के दण्ड के समान आकर खड़ा हो गया है। मैं बहुत सोचने पर भी इसे कुछ समझ नहीं पाता हूं। निश्चय ही मेरी बुद्धि जो अधर्म से कलुषित हो गयी है, उसका दमन करने के लिये ही यह भयंकर परिणाम सामने आया है। नि:संदेह इस समय मुझे जो युद्ध से हटना पड़ रहा है वह दैव का ही विधान है। सचमुच दैव की अनुकूलता के बिना आरम्भ किया हुआ मनुष्य का कोई भी काम सफल नहीं हो सकता। अतः: अब मैं भगवान शंकर की शरण लेता हूं, जो जटाजूटधारी, देवताओं के भी वंदनीय, उमापति, सर्वपापापहारी और त्रिशूल धारण करनेवाले हैं, वे ही इस भयानक दैवी विघ्न को नष्ट करेंगे।' ऐसा सोचकर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा रथ से उतर पड़ा और देवाधिदेव श्रीमहादेवजी के शरणागत होकर इस प्रकार स्तुति करने लगा, 'आप उग्र हैं, अचल हैं, करुणामय है, रुद्र हैं, शर्व हैं, सकल विद्याओं के अधीश्वर हैं, परमेश्वर हैं, पर्वत पर शयन करनेवाले हैं, वरदायक हैं, देव हैं, संसार को उत्पन्न करनेवाले हैं, वरदायक हैं, देव हैं, संसार को उत्पन्न करनेवाले हैं, देव हैं, संसार को उत्पन्न करनेवाले हैं, जगदीश्वर हैं, नीलकंठ हैं, अजन्मा हैं, शुक्र हैं, दक्ष यज्ञ का विनाश करनेवाले हैं, सर्वसंहारक हैं, विश्वरूप हैं, भयानक नेत्रों वाले हैं, बहुरूप हैं, उमापति हैं, श्मशान में निवास करनेवाले हैं, गर्वीले हैं, महान् गणाध्यक्ष हैं, व्यापक हैं, खड्गवान् धारण करनेवाले हैं। आप रुद्र नाम से प्रसिद्ध हैं, आपके मस्तक पर जटा सुशोभित है, आप ब्रह्मचारी हैं और त्रिपुरासुर का वध करनेवाले हैं। मैं अत्यन्त शुद्ध हृदय से आत्मसमर्पण करके आपका यजन करता हूं। सभी ने आपकी स्तुति की है, सभी के आप स्तुत्य हैं और सभी आपकी स्तुति करते हैं। आप भक्तों के सभी संकल्पों को पूर्ण करनेवाले हैं, गजराज के चर्म से सुशोभित हैं, रक्तवर्ण हैं, नीलग्रीव हैं, असह्य हैं, शत्रुओं के लिये दुर्जय हैं, इन्द्र और ब्रह्मा की भी रचना करनेवाले हैं, साक्षात् परमब्रह्म हैं, व्रतधारी हैं, तपोनिष्ठ हैं, अनन्त है । तपस्वियों के आश्रय हैं, अनेक रूप हैं, गणपति हैं, त्रिनयन हैं, अपने पार्षदों के प्रिय हैं, धनेश्वर हैं, पृथ्वी के मुखस्वरूप हैं, पार्वती जी के प्राणेश्वर हैं, स्वामि कार्तिकेय के पिता है, पीत वर्ण हैं, वृषवाहना हैं, दिगम्बर हैं। आपका वेष बड़ा ही उग्र है; आप पार्वती जी को विभूषित करने में तत्पर हैं, ब्रह्मादि से श्रेष्ठ हैं, परात्पर हैं तथा आपसे श्रेष्ठ कोई नहीं हैं।आप उत्तम धनुष धारण करनेवाले हैं, संपूर्ण दिशाओं की अन्तिम सीमा हैं, सब देशों के रक्षक हैं, सउवर्णमय कवच धारण करनेवाले हैं, आपका स्वरूप दिव्य है तथा आप अपने मस्तक पर आभूषण के रूप में चन्द्रकला को धारण करनेवाले हैं, मैं अत्यन्त समाहित होकर आपकी शरण लेता हूं। यदि आज मैं इस दुस्तर आपत्ति के पार हो गया तो समस्त भूतों के संघआतरूप इस शरीर की बलि देकर आपका यजन करूंगा।' इस प्रकार अश्वत्थामा का दृढ़ निश्चय देखकर उसके सामने एक सुवर्णमय वेदी प्रकट हुई। उस वेदी में अग्नि प्रज्वलित हो गयी। उससे बहुत _से गुण प्रकट हुए। उनके मुख और नेत्र देदीप्यमान थे; वे अनेकों सिर पैर और हाथों वाले थे; उनकी भुजाओं में तरह_तरह के रत्न जटित आभूषण सुशोभित थे तथा वे ऊपर की ओर हाथ उठाये हुए थे। उनके शरीर द्वीप और पर्वतों के समान विशाल थे, वे सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह और नक्षत्रों के सहित संपूर्ण ध्यउलओक को धराशायी करने की शक्ति रखते थे तथा उनमें जरायुज, अंडज, स्वेदज और उद्भिज_चारों प्रकार के प्राणियों का संहार करने की शक्ति थी। उन्हें किसी प्रकार का भय नहीं था, वे इच्छानुसार आचरण करनेवाले थे तथा तीनों लोकों के ईश्वरों के भी ईश्वर थे। वे सर्वदा आनन्द मग्न रहते थे, वाणी के अधीश्वर थे मत्सरहीन थे तथा ऐश्वर्य पाकर भी उन्हें अभिमान नहीं था। उनके अद्भुत कर्मों से सर्वदा भगवान् शंकर भी चकित रहते थे तथा वे मन, वाणी और कर्मों द्वारा सर्वदा अपने पुत्रों के समान उनकी रक्षा करते थे। ये सब भूत बड़े ही भयंकर थे। इनको देखने से तीनों लोक भयभीत हो सकते थे। तथापि महाबली अश्वत्थामा इन्हें देखकर डरा नहीं। अब उसने स्वयं अपने आप को ही बलिरूप से समर्पित करना चाहा।
इस कर्म को सम्पन्न करने के लिये उसने धनुष को समिधा, बाणों को दर्भ और अपने शरीर को ही हवि बनाया। उसने सोमदेवता का मंत्र पढ़ कर अग्नि में अपनी आहुति देनी चाही। उस समय वह हाथ जोड़कर भगवान् रुद्र की इस प्रकार स्तुति करने लगा, 'विश्वात्मन् ! इस आपत्ति के समय आपके प्रति अत्यन्त भक्तिभाव से समाहित होकर यह भेंट समर्पण करता हूं। आप इसे स्वीकार कीजिये। समस्त भूत आपमें स्थित है, आप संपूर्ण भूतों में स्थित हैं तथा आपसी में मुख्य _मुख्य गुणों की एकता होती है। विभो ! आप समस्त भूतों के आश्रय हैं; यदि इन शत्रुओं का पराभव मेरे द्वारा नहीं हो सकता तो आप हविष्यरूप से अर्पण किये हुए इस शरीर को स्वीकार कीजिये।' द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ऐसा कह उस अग्नि से देदीप्यमान वेदी पर चढ़ गया और अपने प्राणों का मोह छोड़कर आगे के बीच में आसन लगाकर बैठ गया। उसे हवइरूप से ऊध्वर्बाहु होकर निष्चेष्ट बैठे देखकर भगवान् शंकर ने हंसकर कहा, 'श्रीकृष्ण ने सत्य, शौच, सरलता, त्याग, तपस्या, नियम, क्षमा, भक्ति, धैर्य, बुद्धि और वाणी के द्वारा मेरी यथोचित अराधना की है। इसलिये उनसे बढ़कर मुझे कोई भी प्रिय नहीं है। पांचालों की रक्षा करके भी मैंने उन्हीं का सम्मान किया है; किन्तु कारणवश अब ये निस्तेज हो गये हैं, अब इनका जीवन शेष नहीं है।' ऐसा कहकर भगवान् शंकर ने अश्वत्थामा को एक तेज तलवार दी और अपने_आप को उसी के शरीर में लीन कर दिया। इस प्रकार उनसे अवशिष्ट होकर अश्वत्थामा अत्यन्त तेजस्वी हो गया।

Tuesday 12 March 2024

कृपाचार्य और अश्वत्थामा का संवाद


तब कृपाचार्य ने कहा_महाबाहो ! तुमने जो बात कहीं, वह मैंने सुन ली; अब कुछ मेरी भी बात सुन लो। सभी मनुष्य दैव और पुरुषार्थ_दो प्रकार के कर्मों से बंधे हुए हैं। इन दो के सिवा और कुछ नहीं है। अकेले दैव या पुरुषार्थ से कार्यसिद्धि नहीं होती। सफलता के लिये दोनों का सहयोग आवश्यक है। इन दोनों में दैव ही फल का निश्चय करके स्वयं उसे देने के लिये प्रवृत होता है, तो भी बुद्धिमान लोग कुशलतापूर्वक पुरुषार्थ में लगे रहते हैं। मनुष्यों के संपूर्ण कार्य और प्रयोजन इन्हीं दोनों से सिद्ध हो जाते हैं।उनके किये हुए पुरुषार्थ की सिद्धि भी दैव के ही अधीन है और दैव की अनुकूलता से ही उन्हें फल की प्राप्ति होती है। कार्यकुशल मनुष्य दैव के अनुकूल न होने पर जो कार्य में हाथ लेते हैं, बहुत सावधानी से करने पर भी उसका कोई फल नहीं होता। इसके विपरीत जो लोग आलसी और अमनस्वी होते हैं, उन्हें तो किसी काम को आरम्भ करना ही अच्छा नहीं लगता। किन्तु बुद्धिमानों को यह बात नहीं रुचती; क्योंकि संसार में कोई भी कर्म प्रायः निष्फल नहीं देखा जाता, परंतु कर्म न करने पर तो दु:ख ही दिखायी देता है।जो प्रयत्न न करने पर भी दैव योग से ही सब प्रकार के फल प्राप्त कर लेते हैं अथवा जिन्हें चेष्टा करने पर भी कोई फल न मिलता_ऐसे लोग तो विरले ही होते हैं।तथापि तत्परता पूर्वक कार्य में लगे हुए मनुष्य आनंद से जीवन व्यतीत कर सकते हैं और आलसियों को कभी सुख नहीं मिलता। इस जीवनलोक में प्रायः तत्परता के साथ कर्म करनेवाले ही अपना हित साधन करते देखे जाते हैं।यदि उन्हें कार्य आरम्भ करने पर भी कोई फल नहीं मिलता तो उनकी किसी प्रकार से निंदा नहीं की जा सकती। परन्तु जो बिना कुछ किये ही फल पा लेता है, उसकी लोक में निंदा होती है और प्रायः लोग उससे द्वेष करने लगते हैं।इस प्रकार जो पुरुष दैव और पुरुषार्थ दोनों के सहयोग को न मानकर केवल दैव या पुरुषार्थ के भरोसे ही पड़ा रहता है, वह अपना अनर्थ ही करता है_यही बुद्धिमानों का निश्चय है।बार बार उद्योग करने पर भी जो फल नहीं मिलता, उसमें पुरुषार्थ की न्यूनता और दैव_ये दो कारण हैं। परन्तु पुरुषार्थ न करने पर तो कोई कर्म सिद्ध हो ही नहीं सकता। अतः: जो पुरुष वृद्धों की सेवा करता है, उनसे अपने कल्याण का साधन पूछता है और उनके बताये हुए हितकारी वचनों का पालन करता है, उसका यह आचरण ठीक माना जाता है। कार्य का आरम्भ कर देने पर वृद्धजनों द्वारा सम्मानित पुरुषों से बार_बार सलाह लेनी चाहिये।कार्य की सफलता में वे परम कारण माने जाते हैं तथा सिद्धि उन्हीं के आश्रित कहीं जाती है। जो पुरुष वृद्धों की बात सुनकर कार्य आरम्भ करता है, उसे अपने कार्य का फल बहुत जल्द प्राप्त हो जाता है। किन्तु जो पुरुष राग, क्रोध, भय या लोभ से किसी कार्य में प्रवृत होता है वह उसमें सफलता पाने में असमर्थ रहता है और तुरंत ही ऐश्वर्य से भ्रष्ट हो जाता है। दुर्योधन भी लोभी और ओछी बुद्धि का पुरुष था। उसने असमर्थ होने पर भी मूर्खता के कारण बिना विचार किये अपने हितैषियों का अनादर करके दुष्टजनों की सलाह से यह कार्य आरम्भ किया था।पाण्डव_लोग गुणों में उससे बढ़े_चढ़े थे, तथापि बहुत रोकने पर भी उसने उससे वैर ठाना।वह पहले से भी बड़ा दुष्ट स्वभाव का था इसलिये धीरज धारण न कर सका और न उसने अपने मित्रों की ही बात सुनी। इसी से अपने प्रयास में विफल होकर उसे पश्चाताप करना पड़ा।हमलोगों ने उस पापी का पक्ष लिया था इसलिये हमें भी यह महान् अनर्थ भोगना पड़ा। मैं बहुत सोचता हूं, तथापि इस कष्ट से संतप्त होने के कारण मेरी बुद्धि को तो आज भी कोई हित की बात नहीं सूझती। मनुष्य स्वयं जब हिताहित का विचार करने में असमर्थ हो जाय तो अपने सुहृदों से सलाह लेनी चाहिये।वहीं इसे बुद्धि और विनय की प्राप्ति हो सकती है और वहीं इसे अपने हित का साधन भी मिल सकता है। पूछने पर वे लोग जैसी सलाह दें, वही इसे करना चाहिए।
अतः हमलोगों को राजा धृतराष्ट्र, गान्धारी और महामणि विदुर जी से मिलकर सलाह लें और हमारे पूछने पर जैसा वे कहें, वही हम करें_मेरी बुद्धि तो यही निश्चय करती है। यह बात तो निश्चित ही है कि कार्य आरम्भ किये बिना सफलता कभी नहीं मिलती तथा जिनका काम उद्योग करने पर भी सिद्ध नहीं होता, उनका तो प्रारब्ध ही खोटा समझना चाहिए।अतः हमलोगों को राजा धृतराष्ट्र, गान्धारी और महामणि विदुर जी से मिलकर सलाह लें और हमारे पूछने पर जैसा वे कहें, वही हम करें_मेरी बुद्धि तो यही निश्चय करती है। यह बात तो निश्चित ही है कि कार्य आरम्भ किये बिना सफलता कभी नहीं मिलती तथा जिनका काम उद्योग करने पर भी सिद्ध नहीं होता, उनका तो प्रारब्ध ही खोटा समझना चाहिए।
फिर उसने मन को कड़ा करके कृत और कृतवर्मा दोनों से कहा_प्रत्येक मनुष्य में जो बुद्धि होती है उसी से वे संतुष्ट रहते हैं। सब लोग अपने को ही विशेष बुद्धिमान समझते हैं।सबको अपनी ही समझ अच्छी जान पड़ती है। वे बार_बार दूसरों की बुद्धि की निंदा और अपनी बुद्धि की बड़ाई करते हैं।यदि किसी कारणवश किन्हीं का विचार बहुत _से मनुष्यों से मिल जाता है तो वे एक_दूसरे से संतुष्ट रहते हैं और बार_बार एक_दूसरे का सम्मान करते हैं परन्तु समय के फेर से फिर उन्हीं मनुष्यों की बुद्धि विपरीत होकर एक_दूसरे से विरुद्ध हो जाती है।मनुष्यों के चित्त प्रायः भिन्न_भिन्न प्रकार के होते हैं। अतः उनके विभिन्न चित्तों के परिणामस्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकार की बुद्धियां पैदा होती हैं। एक मनुष्य युवावस्था में एक प्रकार की बुद्धि से मुग्ध_सा हो जाता है, मध्यम अवस्था में दूसरे प्रकार की बुद्धि सवार होती है और वृद्धावस्था में उसे अन्य ही प्रकार की बुद्धि अच्छी लगने लगती है।मनुष्यों के चित्त प्रायः भिन्न_भिन्न प्रकार के होते हैं। अतः उनके विभिन्न चित्तों के परिणामस्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकार की बुद्धियां पैदा होती हैं। एक मनुष्य युवावस्था में एक प्रकार की बुद्धि से मुग्ध_सा हो जाता है, मध्यम अवस्था में दूसरे प्रकार की बुद्धि सवार होती है और वृद्धावस्था में उसे अन्य ही प्रकार की बुद्धि अच्छी लगने लगती है।सब लोग अपनी ही बुद्धि एवं समझ का आश्रय लेकर तरह_तरह की चेष्टाएं करते हैं और उन्हीं में अपना हित मानते हैं।आज आपत्तियों में पड़कर मुझे जो बुद्धि पैदा हुई है, वह मैं आपको सुनाता हूं। इससे अवश्य ही मेरे शोक का नाश हो जायगा। प्रजापति प्रथाओं को उत्पन्न करने के लिये कर्म का विधान करता है और प्रत्येक वर्ण को एक_एक विशेष गुण देता है।वह ब्राह्मण को सर्वोत्तम वेद_विद्या, क्षत्रिय को उत्तम तेज, वैश्य को व्यापार_कौशल और शूद्र को समस्त वर्णों के अनुकूल रहने की योग्यता देता है। संयमहीन ब्राह्मण बुरा है, तेजोहीन क्षत्रिय निकम्मा है, अकुशल वैद्य निंदनीय है और अन्य वणों के प्रतिकूल आचरण करनेवाला शूद्र अधम है। मैं तो ब्राह्मणों के अत्यन्त पूजनीय उत्तम कुल में उत्पन्न हुआ हूं। मन्द भाग्य होने से ही इस क्षात्रधर्म का अनुष्ठान कर रहा हूं। यदि क्षारधर्म को जानकर भी मैं ब्राह्मणत्व की ओट लेकर इस महान् कर्म को न करूं तो मेरा आचरण सत्पुरुषों को अच्छा नहीं लगेगा।मैं रणक्षेत्र में दिव्य धनुष और दिव्य शस्र धारण करता हूं। ऐसी स्थिति में पिताजी को युद्ध में मारा गया देखकर अब मैं किस मुंह से सभा में बोलूंगा ? अतः आज मैं क्षात्रधर्म का आश्रय लेकर अपने पिता और राजा दुर्योधन के ही मार्ग का अनुसरण करूंगा।आज विजयश्री ने देदीप्यमान पांचाल-वीर बड़े हर्ष से कवच उतारकर बेखटके सो रहे होंगे। अतः उन सोते हुओं पर ही मैं धावा करूंगा और नींद में बेहोश पड़े उन शत्रुओं को शिविर के भीतर ही तहस_नहस कर डालूंगा।तभी मुझे चैन पड़ेगा। दुर्योधन, कर्ण और जयद्रथ ने जो दुर्गम मार्ग पकड़ा है उसी से आंच मैं पांचालों को भी भेजकर छोड़ूंगा।आज रात्रि में ही मैं पशु के समान बलात् पांचाल राज धृष्टद्युम्न का सिर कुचल डालूंगा। आज रात्रि में ही मैं अपनी तीखी तलवार से सोये हुए पांचाल और पांडव_वीरों के सिर उड़ा दूंगा और रात्रि में ही मैं सोती हुई पांचाल_सेना को नष्ट करके सुखी और सफल मनोरथ होऊंगा।कृपाचार्य बोले_भैया ! तुम अपनी टेक से चलनेवाले नहीं हो। आज पाण्डवों से बदला लेने के लिये तुम्हारा ऐसा विचार हुआ है, सो ठीक ही है। कल सवेरा होने पर हमलोग भी तुम्हारे साथ चलेंगे।आज तुम बहुत देर तक जगते रहे, इसलिये आज की रात सो लो। इससे तुम्हें कुछ विश्राम मिल जायगा, तुम्हारी नींद पूरी हो जायेगी और तुम्हारा चित्त भी ठिकाने पर आ जायगा। इसके बाद यदि तुम शत्रुओं का सामना करोगे तो अवश्य ही उनका वध कर सकोगे।हमलोग भी रातभर सोकर नींद और थकान से छूट जायं। रात बीतने पर हम शत्रुओं का सामना करेंगे, उन्हें हम तीनों मिलकर मारेंगे। जब संग्रामभूमि में मेरा और तुम्हारा साथ होगा और कृतवर्मा भी तुम्हारा साथ होगा और कृतवर्मा भी तुम्हारी रक्षा करेगा तो साक्षात् इन्द्र भी हमारे पराक्रम को सहन नहीं कर सकेगा।आज तुम बहुत देर तक जगते रहे, इसलिये आज की रात सो लो। इससे तुम्हें कुछ विश्राम मिल जायगा, तुम्हारी नींद पूरी हो जायेगी और तुम्हारा चित्त भी ठिकाने पर आ जायगा। इसके बाद यदि तुम शत्रुओं का सामना करोगे तो अवश्य ही उनका वध कर सकोगे।हमलोग भी रातभर सोकर नींद और थकान से छूट जायं। रात बीतने पर हम शत्रुओं का सामना करेंगे, उन्हें हम तीनों मिलकर मारेंगे। जब संग्रामभूमि में मेरा और तुम्हारा साथ होगा और कृतवर्मा भी तुम्हारा साथ होगा और कृतवर्मा भी तुम्हारी रक्षा करेगा तो साक्षात् इन्द्र भी हमारे पराक्रम को सहन नहीं कर सकेगा।भैया ! तुम अपनी टेक से चलनेवाले नहीं हो। आज पाण्डवों से बदला लेने के लिये तुम्हारा ऐसा विचार हुआ है, सो ठीक ही है। कल सवेरा होने पर हम दोनों भी तुम्हारे साथ चलेंगे। आज तुम बहुत देर तक जगते रहे हो, इसलिए आज की रात तो सो लो।मामा कृपाचार्यजी के इस प्रकार हित की बात कहने पर अश्वत्थामा ने क्रोध से आंखें लाल करके कहा, 'जो पुरुष दु:खी है, क्रोध से भरा हुआ है, किसी अर्थ के चिंतन में लगा हुआ है अथवा किसी कार्यसिद्धि की उधेड़बुन में व्यस्त हैं, उसे नींद कैसे आ सकती है।आप विचार कीजिये, आज ये चारों बातें मुझे घेरे हुए हैं। मेरी नींद को तो क्रोध ने ही हराम कर दिया है। इन पापियों ने जिस प्रकार मेरे पिताजी का वध किया है, वह बात रात_दिन मेरे हृदय को जलाती रहती है।उसके कारण मुझे तनिक भी चैन नहीं है। आपने तो यह सब प्रत्यक्ष ही देखा था। उससे हर समय मेरे मर्म स्थान में पीड़ा होती रहती है। हाय ! मेरे जैसा व्यक्ति इस लोक में एक मुहूर्त भी किस प्रकार जी रहा है ?मैंने पांचालों के मुख से 'द्रोण मारे गये' यह शब्द सुना था। इसलिये आज मैं धृष्टद्युम्न को मारे बिना जीवित नहीं रह सकता। राजा दुर्योधन की जंघाएं टूट गयीं। उनकी ये दु:खभरी बातें सुनकर ऐसा कौन कठोरचित्त है, जिसकी आंखों से आंसू नहीं निकलेंगे।मेरे जीवित रहते मेरी मित्र मण्डली की ऐसी दुर्दशा हुई, इससे मेरा शोक बहुत ही बढ़ गया है। आजकल मेरा मन एकत्र होकर इसी उधेड़बुन में लगा रहता है। ऐसी स्थिति में मुझे नींद कैसे आ सकती है? और सुख भी कैसे मिल सकता है ?
जिस समय दूतों ने मुझे मित्रों की पराजय और पाण्डवों की विजय का समाचार सुनाया था उसी समय मेरे हृदय में आग_सी लग गयी थी। इसलिये मैं तो आज ही सोये हुए शत्रुओं का संहार करके विश्राम लूंगा और तभी निश्चिंत होकर सोऊंगा।'कृपाचार्य ने कहा_अश्त्थामा ! मेरा विचार है कि जिस मनुष्य की बुद्धि ठीक नहीं है, वह धर्म और अर्थ को पूरी तरह से नहीं जान सकता। इसी प्रकार मेधावी होने पर भी जिसने विनय नहीं सीखी, वह भी धर्म और अर्थ का निर्णय कुछ समझ नहीं सकता। मूर्ख योद्धा बहुत समय तक पण्डितों की सेवा में रहने पर भी धर्म का रहस्य नहीं जान सकता, जिस प्रकार करती दाल का स्वाद नहीं चख सकती; किन्तु जैसे जीभ दाल का स्वाद तुरंत जान लेती है, उसी तरह बुद्धिमान पुरुष एक मुहूर्त भी पण्डितों के पास रहकर तत्काल धर्म को पहचान लेता हैं।जो पुरुष धर्मश्रवण की इच्छा वाला, बुद्धिमान संयंत्रइय होता है वह सब शास्त्रों को समझ लेता है।परंतु जो दुरात्मा और पापी मनुष्य बतलाये हुए अच्छे काम को छोड़कर दु:खरूप फल देने वाले कर्मों को किया करता है उसे किसी प्रकार उस कर्म से नहीं रोका जा सकता।जो सनाथ होता है उसको सउहऋदगण ऐसे कर्म करने से रोका करते हैं। पर उसके प्रारब्ध में यदि सुख मिलना होता है तो वह उस कर्म से रुक जाता है नहीं तो नहीं। जिस प्रकार विक्षिप्तचित्त पुरुष को भला_बुरा कहकर काबू में किया जाता है, उसी प्रकार सुहृदगण भी समझा_बुझाकर और डांट_डपटकर उसे वश में कर सकते हैं, नहीं तो वह वश में नहीं आ सकता और उसे दु:ख ही उठाना पड़ता है।तात ! तुम भी मन को काबू में करके उसे कल्याण साधन में लगाओ और मेरी बात मानो, जिससे तुम्हें पश्चाताप न करना पड़े। जो सोये हुए हों, जिन्होंने शस्त्र रख दिये हों, रथ और घोड़े खोल दिये हों, जो 'मैं आपका ही हूं' ऐसा कह रहे हों, जो शरणागत हों, जिनके बाल खुले हुए हों और जिनके वाहन नष्ट हो गये हों, लोक में उन लोगों का वध करना धर्मत: अच्छा नहीं समझा जाता।इस समय रात्रि में सब पांचाल वीर निश्चितता पूर्वक कवच उतारकर निद्रा में अचेत पड़े होंगे। जो पुरुष उनसे इस स्थिति में द्रोह करेगा, वह अवश्य ही बिना नौका के अगाध नरक में डूबे जायगा। लोक में तुम समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ कहे जाते हो। अभी तक संसार में तुम्हारा कोई छोटे_से_छोटा दोष भी देखने में नहीं आया। तुम सूर्य के समान तेजस्वी हो। अतः कल जब सूर्य उदित हो तो सब प्राणियों के सामने अपने शत्रुओं को संग्राम में परास्त करना।अश्वत्थामा बोला_ मामाजी ! आप जैसा कहते हैं, नि:संदेह वह ठीक ही है। परंतु इस धर्म मर्यादा के तो पाण्डवों ने पहले ही सैकड़ों टुकड़े कर डाले हैं। धृष्टद्युम्न ने प्रत्यक्ष ही आपके और समस्त राजाओं के सामने मेरे शस्त्रहीन पिताजी का वध किया था।रथियों में श्रेष्ठ कर्ण को जब उनका पहिया फंस गया था और वे बड़े संकट में पड़ गये थे, उसी समय अर्जुन ने मार डाला था। भीष्म पितामह को भी शइखण्डई की ओट लेकर अर्जुन ने उसी समय मारा था, जब उन्होंने शस्त्र डाल दिये थे और वे सर्वथा निरायुध हो गये थे।वीरवर भूरिश्रवा तो रणक्षेत्र में अनशन व्रत लेकर बैठ गये थे।; परन्तु सात्यकि ने सब राजाओं के चिल्लाते रहने पर भी इसी स्थिति में उन्हें मार डाला। महाराज दुर्योधन भी भीमसेन के साथ गदा युद्ध में भिड़कर सब राजाओं के सामने अधर्म पूर्वक ही गिराये गये हैं।इसलिये भले ही मुझे कीट_पतंगों की योनि में शंजाना पड़े, मैं भी अपने पिता का वध करनेवाले इन पांचालों को रात में सोते हुए ही मार डालूंगा। मैंने जो काम करने का विचार किया है, उसके लिये मुझे बड़ी उतावली हो रही है। इस जल्दबाजी में मुझे नींद कैसे आ सकती है और चैन भी कैसे पर सकता है? संसार में न तो कोई ऐसा पुरुष जन्मा है और न जन्मेगा ही, जो पांचालों के वध के लिये किये हुए मेरे इस विचार को बदल सके।

Saturday 27 January 2024

सौप्तिक पर्व___तीन महारथियों का एक वन में विश्राम करना और अश्वत्थामा का पाण्डवों को कपटपूर्ण मारने का निश्चय करके कृपाचार्य और कृतवर्मा से सलाह लेना


नमस्कृत्यं नरं चैव नरोत्तम्। देवीं सरस्वतीं व्यासं जयमुदीरयेत्।।_अर्थ_अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, उनके नित्यसखा
 नरस्वरूप नरररत्न अर्जुन, उनकी लीला प्रगट करनेवाली भगवती सरस्वती और उसके वक्ता महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके आसुरी शक्तियों पर विजय प्राप्ति पूर्वक अन्त:करन को शुद्ध करनेवाले महाभारत ग्रंथ का पाठ करना चाहिये।

तब अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा_ये तीनों
 वीर दक्षिण की ओर चले और सूर्यास्त के समय शिविर के पास पहुंच गये। इतने में ही विजयाभिलाषी पाण्डव वीरों का भीषण नाद सुनायी दिया; अत: उनकी चढ़ाई की आशंका से वे भयभीत होकर पूर्व की ओर भागे कुछ दूर जाकर उन्होंने मुहूर्त भर विश्राम किया। राजा धृतराष्ट्र ने कहा_संजय ! मेरे पुत्र दुर्योधन में दस हजार हाथियों का बल था। उसे भीमसेन  की मृत्यु का संवाद सुनकर भी मार डाला_इस बात पर एकाएक विश्वास नहीं होता।
मेरे पुत्र का शरीर वज्र के समान कठोर था। उसे भी पाण्डवों ने संग्रामभूमि में नष्ट कर दिया। इससे निश्चय होता है कि प्रारब्ध से पार पाना किसी प्रकार संभव नहीं है। भैया संजय ! मेरा हृदय अवश्य ही फौलाद का बना हुआ है जो अपने सौ पुत्रों के मृत्यु का संवाद सुनकर भी इसके हजारों टुकड़े नहीं हुए। भला, अब पुत्रहीन होकर हम बूढ़े _बुढ़िया कैसे जीवित रहेंगे ? मैं एक राजा का पिता और स्वयं राजा ही था। सो अब पाण्डवों का दास बनकर किस प्रकार अपना जीवन व्यतीत करूंगा ? ओह ! जिसने अकेले ही मेरे सौ_के_सौ पुत्रों का वध कर डाला और मेरी जिंदगी के आखिरी दिन दु:समय कर दिये, उस भीमसेन की बातों को मैं कैसे सुन सकूंगा ? अच्छा संजय ! यह तो बताओ कि इस प्रकार बेटा दुर्योधन के अधर्म पूर्वक मारे जाने पर कृतवर्मा, कृपाचार्य और अश्वत्थामा ने क्या किया ?संजय ने कहा_'राजन् ! आपके पक्ष के ये तीनों वीर थोड़ी ही दूर गये थे कि इन्होंने तरह_तरह के वृक्ष और लताओं से भरा हुआ एक भयंकर वन देखा। वहां थोड़ी देर विश्राम करके उन्होंने घोड़ों को पानी पिलाया और थकावट दूर हो जाने के बाद उस सघन वन में प्रवेश किया। वहां चारों ओर दृष्टि डालने पर उन्हें एक विशाल वट_वृक्ष दिखायी दिया। वहां चारों ओर दृष्टि डालने पर उन्हें एक विशाल वट_वृक्ष दिखायी दिया, जिसकी हज़ारों शाखाएं सब ओर फैली हुईं थीं। उस वट के पास पहुंचकर वे महारथी अपने रथों से उतर गये और स्नानादि करके संध्यावन्दन करने लगे। इतने में ही भगवान भास्कर अस्ताचल के शिखर पर पहुंच गये और संपूर्ण संसार में निशादेवी का आधिपत्य हो गया। सब ओर छिटके हुए ग्रह, नक्षत्र और तारों से सुशोभित गगनमण्डल दर्शनीय विज्ञान के समान शोभा पाने लगा। अभी रात्रि का आरम्भ काल ही था। कृतवर्मा, कृपाचार्य और अश्वत्थामा दु:ख और शोक में डूबे हुए उस वटवृक्ष के निकट पास_ही पास बैठ गये और कौरवों तथा पाण्डवों के विगत   संहार के लिये शोक प्रकट करने लगे। अत्यन्त थके होने के कारण नींद ने उन्हें धर दबाया। इससे आचार्य कृप और कृतवर्मा सो गये। यद्यपि ये महामूल्य पलंगों पर सोनेवाले, सब प्रकार की सुख_सामग्रियों से सम्पन्न और दु:ख के अनभ्यासी थे, तो भी वे अनाथों की तरह पृथ्वी पर ही पड़ गये। किन्तु अश्वत्थामा इस समय अत्यन्त क्रोध और रोष में भरा हुआ था। इसलिये उसे नींद नहीं आयी। उसने चारों ओर वन में दृष्टि डाली तो उसे उसे उस वटवृक्ष पर बहुत _से कौए दिखायी दिये। उस रात हजारों कौओं ने उस वृक्ष पर बसेरा लिया था और वे आनंद से अलग_अलग घोंसलों में सोये हुए थे। इसी समय उसे एक भयानक उल्लू उस ओर आता दिखाई दिया। वह धीरे-धीरे गुनगुनाता वट की एक शाखा पर कूदा और उसपर सोये हुए अनेकों कौओं को मारने लगा। उसने अपने पंजों से किन्हीं कौओं के पर नोच डाले, किन्हीं के सिर काट लिये और किन्हीं के पैर तोड़ दिये। इस प्रकार अपनी आंखों के सामने आये हुए अनेकों कौओं को उसने बात_की_बात में मार डाला। इससे वह सारा वट_वृक्ष कौवों के शरीर के अंगावयवओं से भर गया। रात्रि के समय उल्लू का यह कपटपूर्ण व्यवहार देखकर अश्वत्थामा ने भी वैसा ही करने का संकल्प लिया। उस एकान्त देश में वह विचारने लगा, 'इस पक्षी ने अवश्य ही मुझे संग्राम करने की युक्ति का उपदेश किया है। यह समय भी इसी के योग्य है। पाण्डव_लोग विजय पाकर बड़े तेजस्वी, बलवआन् और उत्साही हो रहे हैं। इस समय मैं अपनी शक्ति से तो उन्हें मार नहीं सकता और राजा दुर्योधन के सामने उनका वध करने की प्रतिज्ञा कर चुका हूं। अब यदि मैं न्यायानुसार युद्ध करूंगा तो नि:संदेह मुझे अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा। हां, कपट से और सफलता हो सकती है और शत्रुओं का भी खूब संहार हो सकता है। पाण्डवों ने भी तो पद_पदपर अनेकों निंदनीय और कुत्सित कर्म किये हैं। युद्ध के अनुभवी लोगों का ऐसा कथन भी है कि जो सेना नींद में आधी रात के समय बेहोश हो, जिसका नायक नष्ट हो चुका हो, जिसके योद्धा छिन्न-भिन्न हो गये हों और जिसमें मतभेद पैदा हो गया हो, उसपर भी शत्रु को प्रहार करना चाहिये।' इस प्रकार विचार करके द्रोणपुत्र ने रात्रि के समय सोये हुए पाण्डव और पांचाल-वीरों को नष्ट करने का निश्चय किया। फिर उसने कृतवर्मा और कृपाचार्य को जगाकर अपना निश्चय सुनाया। वे दोनों महावीर अश्वत्थामा की बात सुनकर बड़े लज्जित हुए और उन्हें उसका कोई उत्तर न सूझा। तब अश्वत्थामा ने एक मुहूर्त तक विचार करके अश्रुगद्गद् होकर कहा, 'महाराज दुर्योधन ग्यारह अक्षौहिणी सेना के स्वामी थे। उन्हें अनेकों क्षुद्र योद्धाओं ने मिलकर भीमसेन के हाथ से मरवा दिया। पापी भीम ने एक मूर्धाभिषिक्त सम्राट के मस्तक पर लात मारी_यह उसका कितना खोटा काम था। हाय ! पाण्डवों ने कौरवों का कैसा भीषण संहार किया है कि आज हम इस महान् संहार से हम तीन ही बच पाये हैं। मैं तो इस सबको समय का फेर ही समझता हूं। यदि मोहवश आप दोनों की बुद्धि नष्ट नहीं हुई है तो इस घोर संकट के समय हमारा क्या कर्तव्य है, यह बताने की कृपा करें।'

Sunday 7 January 2024

दुर्योधन का विलाप तथा अश्वत्थामा का विषाद, प्रतिज्ञा और सेनापति के पद पर अभिषेक

धृतराष्ट्र ने पूछा_संजय ! मेरा पुत्र बड़ा क्रोधी था, पाण्डवों से वैर रखने के कारण उसपर बड़ा भारी संकट आ पहुंचा। बताओ, जब जांघें टूट जाने से वह पृथ्वी पर गिरा और भीमसेन ने उसके सिर पर पैर रखा, उसके बाद उसने क्या कहा ? संजय ने कहा_महाराज ! जांघ टूट जाने पर जब दुर्योधन धरती पर गिरा तो धूल में सन गया। फिर बिखरे हुए बालों को समेटता हुआ वह दसों दिशाओं की ओर देखने लगा। तत्पश्चात् बड़ी कोशिश किसी तरह बालों बांधकर उसने आंसू भरे नेत्रों से मेरी ओर देखा और अपनी दोनों भुजाओं को धरती पर पैर रखकर उच्छवास लेते हुए कहा_'ओह ! भीष्म, कर्ण, कृपाचार्य, शकुनि जैसे वीर मेरे रक्षक थे; तो भी मैं इस दशा को आ पहुंचा ! निश्चय ही काल का कोई उल्लंघन नहीं कर सकता।
जो एक दिन ग्यारह अक्षौहिणी सेना का स्वामी था, उसकी आज यह अवस्था ! संजय ! मेरे पक्ष के योद्धाओं में जो लोग जीवित हैं, उनसे कहना कि 'भीमसेन ने गदायुद्ध के नियम को तोड़कर दुर्योधन को मारा है। क्रूर कर्म करनेवाले पाण्डवों ने भीष्म, द्रोण, भूरिश्रवा और कर्ण को कपटपूर्वक मारने के पश्चात् मेरे साथ छल करके एक और कलंक का टीका लगा लिया। मुझे विश्वास है, उन्हें इस कुकर्म के कारण सत्पुरुषों के समाज में पछताना पड़ेगा। कौन ऐसा विद्वान होगा, जो मर्यादा का भंग करने वाले मनुष्य के प्रति सम्मान प्रकट करेगा ? आज पापी भीमसेन जैसा खुश हो रहा है, अधर्म से विजय पाने पर दूसरा कौन बुद्धिमान पुरुष ऐसी खुशी मनायेगा ? मेरी जांघें टूट गयी हैं; ऐसी दशा में भीम ने जो मेरे सिर को पैरों से दबाया है, इससे ज्यादा आश्चर्य की बात और क्या होगी ? आज पापी भीमसेन जैसा खुश हो रहा है, अधर्म से विजय पाने पर दूसरा कौन बुद्धिमान पुरुष ऐसी खुशी मनायेगा ? मेरी जांघें टूट गयीं है; ऐसी दशा में भीम ने जो मेरे सिर को पैरों से दबाया है, इससे बढ़कर आश्चर्य की बात और क्या होगी ?मेरे माता_पिता बहुत दु:खी होंगे, उनसे यह संदेश कहना__मैंने यज्ञ किये, जो भरण_पोषण करने योग्य थे, उनका पालन किया और समुद्र पर्यन्त पृथ्वी पर अच्छी तरह शासन किया। शत्रु जीवित थे, तो भी उनके मस्तक पर पैर रखा और शक्ति के अनुसार मित्रों का प्रिय किया। अपने बन्धु_बान्धवों का आदर तथा वश में रहनेवालों का सत्कार किया। धर्म, अर्थ तथा काम का सेवन किया; दूसरे राष्ट्रों पर आक्रमण करके जीता और दास की भांति राजाओं पर हुक्म चलाया। जो अपने प्रिय व्यक्ति थे, उनकी सदा ही भलाई की। फिर मुझसे अच्छा अन्त किसका हुआ होगा ? विधिवत् वेदों का स्वाध्याय किया, नाना प्रकार के दान दिये और आयउभर में मुझे कभी कोई रोग नहीं हुआ ! मैंने अपने धर्म से लोकों पर विजय पायी है तथा धर्मात्मा क्षत्रिय जैसी मृत्यु चाहते हैं, वही मुझे प्राप्त हो गयी। इससे अच्छा अन्त किसका होगा ?  संतोष की बात है कि मैं पीठ दिखाकर भागा नहीं, मेरे मन में कोई दुर्विचार नहीं उत्पन्न हुआ। तो भी सोये अथवा पागल हुए मनुष्य को जहर देकर मार डाला जाय, उसी तरह उस पापी ने युद्ध धर्म का उल्लंघन करके मेरा वध किया है। तत्पश्चात् आपके पुत्र ने संदेशवाहकों से कहा_'अश्त्थामा, कृतवर्मा और कृपाचार्य से मेरी बात कह देना_अनेकों बार युद्ध के नियमों को भंग करके पाप में प्रवृत हुए इन पाण्डवों का आपलोग कभी भी विश्वास न कीजियेगा। मैं भीम के द्वारा अधर्म पूर्वक मारा गया हूं। जो मेरे ही लिये स्वर्ग में गये हैं उन आचार्य द्रोण, कर्ण, शल्य, वृषसेन, शकुनि, जलसन्धि, भगदत्त, भूरिश्रवा, जयद्रथ तथा दु:शासन कुमार और अन्य हजारों राजाओं के पीछे अब मैं भी स्वर्गलोक में चला जाऊंगा। चिंता यही है कि अपने भाइयों और पति की मृत्यु का समाचार सुनकर मेरी दु:खाना बहिन दु:शीला की क्या हालत होगी। पुत्र और पौत्रों की बिलखती हुई बहुओं के साथ मेरे माता-पिता किस अवस्था में पहुंचेंगे ! बेटे और पति की मृत्यु सुनकर बेचारी लक्ष्मण की माता भी तुरंत प्राण दे देगी। व्याख्यान देने में कुशल और संन्यासी के वेष में चारों ओर घूमने _फिरनेवाले चार्वाक को यदि मेरी हालत मालूम हो जायगी तो अवश्य ही वे मेरे वैर का बदला लेंगे। मैं तो त्रिभुवन में प्रसिद्ध इस पवित्र तीर्थ समन्तपंचक में प्राण त्याग कर रहा हूं, इसलिये मुझे अक्षय लोकों की प्राप्ति होगी।' राजन् ! आपके पुत्र का यह विलाप सुनकर हजारों मनुष्यों की आंखों में आंसू भर आये। वे व्याकुल होकर वहां से इधर_उधर हट गये। दूतों ने आकर अश्वत्थामा से गदायुद्ध की सारी बातें तथा राजा को अन्यायपूर्वक गिराये जाने का समाचार भी कह सुनाया। इसके बाद वहां थोड़ी देर विचार करने के पश्चात् वे जहां से आये थे, वहीं लौट गये। संदेशवाहकों के मुख से दुर्योधन के मारे जाने का समाचार सुनकर बचे हुए कौरव महारथी अश्वत्थामा, कृपाचार्य तथा कृतवर्मा_जो स्वयं भी तीखे बाण, गंदा, तोमर और शक्तियों के प्रहार से विशेष घायल हो चुके थे_तेज चलनेवाले घोड़े से जीते हुए रथ पर सवार होकर तुरंत युद्धभूमि में गया । वहां पहुंचकर देखा कि दुर्योधन धरती पर गिरा हुआ छटपटा रहा है और उसका सारा शरीर खून से भींगा हुआ है। क्रोध के मारे उसकी भौंहें तनी और आंखें चढ़ी हुई थीं, वह अमर्ष से भरा दिखाई देता था। अपने राजा को इस अवस्था में पड़ा देख कृपाचार्य आदि को बड़ा मोह हुआ। वे रथों से उतरकर दुर्योधन के पास ही जमीन पर बैठ गये। उस समय अश्वत्थामा की आंखों में आंसू भर आये, वह सिसकता हुआ कहने लगा_'राजन् ! निश्चय ही इस मनुष्यलोक में कुछ भी सत्य नहीं है, जहां तुम्हारे_जैसा राजा धूल लोट रहा है। अन्यथा जो एक दिन समस्त भूमण्डल का स्वामी था, जिसने सबपर हुक्म चलाया, वहीं आज इस निर्जन वन में अकेला कैसे पड़ा हुआ है। आज मुझे दु:शासन नहीं दिखाई देता, महारथी कर्ण तथा संपूर्ण हितैषी मित्रों का भी दर्शन नहीं होता_यह क्या बात है ?
वास्तव में काल की गति को जानना बड़ा कठिन है। जरा समय का उलट_फेर तो देखो, तुम मूर्धाभिषिक्त एकराजाओं के अग्रगण्य होकर भी आज तिनकों सहित धूल में लोट रहे हो ! महाराज ! तुम्हारा वह श्वेत क्षत्र कहां है? चंवर कहां है ? और वह विशाल सेना कहां चली गयी ? किस कारण से कौन_सा काम होगा, इसको समझना बड़ा मुश्किल है; क्योंकि तुम समस्त प्रजा के माननीय राजा होकर भी आज इस दशा को पहुंच गये। तुम तो इन्द्र से भी भिड़ने का हौसला रखते थे; जब तुमपर भी यह विपत्ति आ गयी तो यह निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है किसी भी मनुष्य की सम्पत्ति स्थिर नहीं होती।' अत्यन्त दु:खी हुए अश्वत्थामा की बात सुनकर दुर्योधन की आंखों में शोक के आंसू उमड़ आये। उसने दोनों हाथों से नेत्रों को पोंछा और कृपाचार्य आदि से यह समयोचित वचन कहा_'मित्रों ! इस मर्र्त्यलोक का ऐसा ही नियम है, यह विधाता का बनाया हुआ धर्म है; इसलिये कालक्रम से एक_न_एक दिन समस्त प्राणियों का मरण होता है। वहीं आज मुझे भी प्राप्त हुआ है, जिसे आपलोग अपनी आंखों से देख रहे हैं।एक दिन मैं इस भूमण्डल का पालन करनेवाला राजा था और आज इस अवस्था को पहुंचा हुआ हूं। तो भी मुझे इस बात की खुशी है कि युद्ध में बड़ी _से_बड़ी विपत्ति आने पर भी कभी पीछे नहीं हटा। पापियों ने मुझे मारा भी तो छल से। मैंने युद्ध में सदा ही उत्साह दिखाया है और अपने बंधु_बांधवों के मारे जाने पर भी स्वयं भी युद्ध में ही प्राण त्याग रहा हूं, इससे मुझे विशेष संतोष है। सौभाग्य की बात है कि आप लोगों को इस नरसंहार से मुक्त देख रहा हूं। साथ ही आपलोग सकुशल एवं कुछ करने में समर्थ हैं_यह मेरे लिये भी प्रसन्नता की बात है। आप लोगों का मुझपर स्वाभाविक स्नेह है; इसलिये मेरे मरने से दु:खी हो रहे हैं; किन्तु चिंता करने की कोई बात नहीं है। यदि वेद प्रमाण भूत है, तो मैंने अक्षय लोकों पर अधिकार प्राप्त किया है; इसलिये मैं कदापि शोक के योग्य नहीं हूं। आपलोगों ने अपने स्वरूप के अनुरूप पराक्रम दिखाया और सदा ही विजय दिलाने का प्रयत्न किया है; किन्तु दैव के विधान का कौन उल्लंघन कर सकता है ?' महाराज ! इतना कहते-कहते दुर्योधन की आंखों में फिर से आंसू उमड़ आये तथा वह शरीर की पीड़ा से भी अत्यन्त व्याकुल हो गया; इसलिये अब आगे कुछ न बोल सका, चुप हो रहा। राजा की यह दशा देख अश्वत्थामा की आंखें भर आयीं, उसे बड़ा दु:ख हुआ। साथ ही शत्रुओं पर अमर्ष भी हुआ। वह क्रोध से आगबबूला हो गया और हाथ से हाथ दबाता हुआ कहने लगा, 'राजन् ! उन पापियों ने क्रूरकर्म करके मेरे पिता को भी मारा था। किन्तु उसका मुझे उतना संताप नहीं है, जितना आज तुम्हारी दशा देखकर हो रहा है। अच्छा, अब मेरी बात सुनो_'मैंने जो यज्ञ किये, कुएं तालाब आदि बनवाये तथा और जो दान, धर्म एवं पुण्य किये हैं, उन सबको तथा सत्य की भी शपथ खाकर कहता हूं_आज मैं श्रीकृष्ण के देखते_देखते हरेक उपाय से काम लेकर पांचालों को यमलोक भेज दूंगा। इसके लिये तुम आज्ञा दे दो।अश्वत्थामा की बात सुनकर दुर्योधन मन_ही_मन प्रसन्न हुआ और कृपाचार्य से बोला_'आचार्य ! आप शीघ्र ही जल से भरा हुआ कलश ले आइये।' कृपाचार्य ने ऐसा ही किया। जब कलश लेकर वे राजा के निकट आये, तो उसने कहा_'विप्रवर ! यदि आप मेरा प्रिय करना चाहते हैं, तो द्रोण कुमार को सेनापति के पद पर अभिषेक कर दीजिये; आपका भला होगा। राजा की आज्ञा से कृपाचार्य ने अश्वत्थामा का अभिषेक किया। इसके बाद वह दुर्योधन को हृदय से लगाकर संपूर्ण दिशाओं को सिंहनाद से प्रतिध्वनित करता हुआ वहां से चल दिया। दुर्योधन खून में डूबा हुआ रात_भर वहीं पड़ा रहा। युद्धभूमि से दूर जाकर वे तीनों महारथी आगे के कार्यक्रम पर विचार करने लगे।

शल्य पर्व समाप्त

Monday 13 November 2023

भगवान् श्रीकृष्ण का हस्तिनापुर जाना और धृतराष्ट्र तथा गान्धारी को सांत्वना देकर वापस आना

जनमेजय ने पूछा _विप्रवर ! धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण को गान्धारी के पास क्यों भेजा ? जब पहले वे संधि कराने के लिये कौरवों के पास गये थे, उस समय तो उनकी  इच्छा पूरी हुई नहीं, जिसके कारण वह युद्ध हुआ। अब जब सारे योद्धा मारे गये, दुर्योधन गिर गया और पाण्डव शत्रुहीन हो गये, तब ऐसी क्या आवश्यकता आ पड़ी, जिसके लिये भगवान् श्रीकृष्ण को फिर वहां जाना पड़ा! मुझे तो ऐसा जान पड़ता है, इसमें कोई छोटा_मोटा कारण नहीं होगा। वैशम्पायनजी ने कहा_राजन् ! तुमने जो प्रश्न किया है वह ठीक ही है; मैं इसका यथार्थ कारण बताता हूं, सुनो। भीमसेन ने गदायुद्ध के नियम का उल्लंघन करके महाबली दुर्योधन को मारा था_यह देखकर महाराज युधिष्ठिर को बड़ा भय हुआ। उन्होंने सोचा 'दुर्योधन की माता गांधारी बड़ी तपस्विनी है, उन्होंने जीवनभर घोर तपस्या की हैं। वे चाहे तो तीनों लोकों को भस्म कर सकती हैं, इसलिये सबसे पहले उन्हें ही शान्त करना चाहिये। अन्यथा हमलोगों के द्वारा जब वे अपने पुत्र का अन्यायपूर्वक वध सुनेंगी तो क्रोध में भरकर  अपने मन से अग्नि प्रकट करके हमें भष्म कर डालेंगी।' यह सब सोच_विचारकर धर्मराज ने श्रीकृष्ण से कहा_'गोविन्द ! आपकी ही कृपा से मैंने अकण्टक राज्य पाया है, अपने पुरुषार्थ से हम उसे पाने की बात भी नहीं सोच सकते थे। आपने ही सारथि बनकर हमारी सहायता और रक्षा की है। यदि आप इस युद्ध में अर्जुन के कर्णधार न होते, तो ये समुद्र जैसी कौरव_सेना को जीतकर उसके पार कैसे पहुंच पाते ? हमलोगों के लिये आपने कौन_कौन_सा कष्ट नहीं उठाया ? गदआओं के प्रहार, परिघों की मार, शक्ति, भिंदीपाल तोमर और परसों की चोटें सहीं तथा शत्रुओं की कठोर बातें भी सुनी। किन्तु दुर्योधन के मारे जाने से सब सफल हो गया। इस प्रकार यद्यपि हमलोगों की विजय हुई है, तथापि अभी हमारा चित्त संदेह के झूले में झूल रहा है। माधव ! जरा, आप गान्धारी के क्रोध का तो ख्याल कीजिये; वे नित्य कठोर तपस्या में संलग्न रहने के कारण दुर्बल हो गयी हैं, अपने पुत्र_पौत्रों का वध सुनकर निश्चय ही हमें भस्म कर डालेंगी। इसलिये इस समय उन्हें प्रसन्न करना आवश्यक है। पुरुषोत्तम! जब वे पुत्र के शोक से पीड़ित हो क्रोध से लाल_लाल आंखें करके देखेंगी, उस समय आपके सिवा दूसरा कौन उनकी ओर दृष्टि डालने का साहस करेगा ? अतः उन्हें शांत करने के लिये एक बार आपका वहां जाना उचित मालूम होता है। आपसी से इस जगत् का प्रादुर्भाव होता है और आपही में प्रलय। अतः आप ही यथार्थ कारणों से युक्त समयोचित बात कहकर गांधारी को शीघ्र शांत कर सकेंगे। बाबा व्यासजी भी वहीं होंगे। आपको पाण्डवों के हित की दृष्टि से हरेक उपाय करके गांधारी का क्रोध शान्त कर देना चाहिए।'
धर्मराज की बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने दारुक को बुलाया और उसे रथ तैयार करने की आज्ञा दी। दारुक ने बड़ी फुर्ती से रथ सजाया और उसे जोतकर भगवान् की सेवा में ला खड़ा किया। भगवान् उसपर सवार हो तुरंत हस्तिनापुर को चल दिये और रथ की घरघराहट से नगर को गुंजाते हुए वहां जा पहुंचे। नगर में प्रवेश करके रथ से उतरे और धृतराष्ट्र को अपने आने की सूचना देकर उनके महल में गये। जाते ही व्यासजी का दर्शन हुआ, जो पहले से ही वहां पधारे हुए थे। श्रीकृष्ण ने व्यासजी तथा राजा धृतराष्ट्र के चरण छूए और गान्धारी को भी प्रणाम किया। फिर वे धृतराष्ट्र का हाथ अपने हाथ में ले फूट_फूटकर रोने लगे। उन्होंने दो घड़ी तक शोक के आंसू बहाये। फिर जल से आंखें धोकर विधिवत् आचमन किया और धृतराष्ट्र से कहा_'भारत ! आप वृद्ध हैं। इसलिये काल के द्वारा जो कुछ संघटित हुआ है और हो रहा है, वह आपसे छिपा नहीं है। पाण्डव सदा से ही आपके इच्छानुसार वर्ताव करते हैं। उन्होंने बहुत चाहा कि आपके कुल का नाश न हो। वे सर्वथा निर्दोष थे; तो भी उन्हें कपटपूर्वक जूए में हराकर वनवास दिया गया। नाना प्रकार के वेष बनाकर उन्होंने अज्ञातवास का कष्ट भोगना। इसके अलावा भी उन्हें असमर्थ पुरुषों की तरह बहुत_से क्लेश सहने पड़े। जब युद्ध छिड़ने का अवसर आया, तो मैं स्वयं आपकी सेवा में उपस्थित हुआ और यह झगड़ा मिटाने के लिये मैंने सब लोगों के सामने आपसे केवल पांच गांव मांगे थे। किन्तु काल की प्रेरणा से आप भी लोभ में फंस गये और मेरी प्रार्थना ठुकरा दी गयी। इस तरह आपके अपराध से संपूर्ण क्षत्रियों का संहार हुआ है। भीष्म, सोमदत्त, बाह्लीक, कृप, द्रोण, अश्वत्थामा और विदुर जी भी आपसे सर्वथा सन्धि के लिये प्रार्थना करते रहे; किन्तु आपने किसी का कहना नहीं माना। सच है, जिसके मन पर काल का प्रभाव होता है, वह मोह में पड़ ही जाता है। जब युद्ध की तैयारी शुरू हुई, उस समय आपकी भी बुद्धि मारी गयी! इसे काल का प्रभाव या प्रारब्ध के सिवा और क्या कहा जा सकता है ? वास्तव में यह जीवन प्रारब्ध के ही अधीन है। महाराज! आप पाण्डवों पर दोषारोपण मत कीजियेगा, उन बेचारों का तनिक भी अपराध नहीं है। वे न कभी धर्म से गिरे हैं न न्याय से। आपके प्रति उनका स्नेह भी कम नहीं हुआ है और अब तो आपको और गान्धारी देवी पाण्डवों से ही पिण्डा_पानी मिलनेवाला है। उन्हीं से आपका वंश बढ़ेगा। पुत्र से मिलने वाला सारा फल अब पाण्डवों से ही मिलेगा। इसलिये आप लोग पाण्डवों के प्रति मन में मैल न रखें, उनकी बुराई न सोचें। अपना ही अपराध या भूल समझकर उनका कल्याण मनावें, उनकी रक्षा करें। महाराज! आप तो जानते ही हैं, धर्मराज युधिष्ठिर की आपके चरणों में कितनी भक्ति है। कितना स्वाभाविक स्नेह है ! उन्होंने अपनी बुराई करनेवाले शत्रुओं का ही संहार किया है; तो भी वे उनके शोक में दिन_रात जलते रहते हैं, उन्हें तनिक भी चैन नहीं मिलता ! आप और गान्धारी के लिए तो वे बहुत शोक करते हैं, उनके हृदय में शान्ति नहीं है। लज्जा के मारे उन्हें आपके सामने आने की हिम्मत नहीं पड़ती। राजा धृतराष्ट्र से इस प्रकार कहकर श्रीकृष्ण शोक से दुर्बल हुई गान्धारी देवी से बोले_'कल्याणी ! मैं तुमसे भी जो कह रहा हूं, उसे ध्यान देकर सुनो। आज संसार में तुम्हारे जैसी तपस्विनी स्त्री दूसरी कोई नहीं है। तुम्हें याद होगा, उस दिन सभा में मेरे सामने ही तुमने दोनों पक्षों के हित करनेवाला धर्म और अर्थ से संयुक्त वचन कहा था; किन्तु तुम्हारे पुत्रों ने उसे नहीं माना। दुर्योधन विजय का अभिलाषी था, उससे तुमने रुखाई के साथ कहा_'ओ मूर्ख ! जिधर धर्म होता है, उसी पक्ष की जीत होती है।' राजकुमारी! तुम्हारी वहीं बात आज सत्य हुई है, ऐसा समझकर मन में शोक न करो। तुममें तपस्या का बहुत बड़ा बल है, तुम अपनी क्रोध भरी दृष्टि से चराचर जगत् को भस्म कर डालने की शक्ति रखती हो; तो भी तुम्हें पाण्डवों के नाश का विचार कभी मन में लाना न चाहिये।' श्रीकृष्ण की बात सुनकर गांधारी ने कहा_'केशव ! तुम्हारी बात बिलकुल ठीक है। अबतक मेरे मन में बड़ी व्यथा थी, मैं चिंता की आग में जल रही थी; इसलिये मेरी बुद्धि विचलित हो गयी थी_मैं पाण्डवों के अनिष्ट की बात सोच रही थी। किन्तु अब तुम्हारी बातें सुनने से मेरी बुद्धि स्थिर हो गयी_क्रोध का आवेश जाता रहा। जनार्दन! ये राजा अंधे हैं, बूढ़े हैं और इनके पुत्र मारे गये पसंद नकहैं_इसके कारण शोक से पीड़ित भी हैं; अब वीरवर पाण्डवों के साथ तुम्हीं इनको सहारा देनेवाले हो।' इतना कहते-कहते गांधारी अंचल से मुंह ढांपकर फूट_फूटकर रोने लगी। पुत्रों के शोक सेसे उसे बड़ा संताप होने लगा। उस समय श्रीकृष्ण ने कितने ही कारण बताकर कितनी ही युतियां देकर गांधारी को शान्तवना दी_धीरज बंधाया।धृतराष्ट्र तथा गांधारी को आश्वासन देने के पश्चात् भगवान् ने अश्वत्थामा के भीषण संकल्प का स्मरण किया, फिर तो वे तुरंत खड़े हो गये और व्यासजी के चरणों में मस्तक झुकाकर राजा धृतराष्ट्र से बोले_'महाराज !  अब मैं यहां से जाने की आज्ञा चाहता हूं, आप शोक न करें। इस समय अश्वत्थामा के मन में पापपूर्ण विचार ओ़ोल काजाग्रत हुआ है, इसलिये सहसा उठ पड़ा हूं। उसने आज की रात पाण्डवों को मार डालने का निश्चय कर लिया है। यह सुनकर धृतराष्ट्र और गांधारी ने कहा_'जनार्दन ! यदि ऐसी बात है, तो जल्दी जाओ और पाण्डवों की रक्षा करो। हम फिर तुमसे शीघ्र मिलेंगे। तदनन्तर, भगवान् श्रीकृष्ण दारुक के साथ तुरंत चल दिये। उनके जाने के बाद महात्मा व्यासजी धृतराष्ट्र को आश्वासन देने लगे। छावनी के पास पहुंचकर श्रीकृष्ण पाण्डवों से मिले और हस्तिनापुर का सारा समाचार उन्हें कह सुनाया।

Sunday 29 October 2023

पाण्डवों का युधिष्ठिर के शिविर में आकर उसपर अधिकार करना, अर्जुन के रथ का दाह

धृतराष्ट्र ने पूछा_संजय ! दुर्योधन को भीमसेन के द्वारा मारा गया देख पाण्डवों और सृंजयों ने क्या किया ? संजय ने कहा_महाराज ! आपके पुत्र के मारे जाने पर श्रीकृष्णसहित पाण्डवों, पाण्डवों तथा सृंजयों को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे अपने दुपट्टे उछाल_उछालकर सिंहनाद करने लगे। किसी ने धनुष टंकारा तो कोई शंख बजाने लगा। किसी_किसी ने ढ़िंढ़ोरा पीटना शुरू किया बहुतेरे तो हंसने और खेलने लगे। कुछ लोग भीमसेन से बारंबार यों कहने लगे_'दुर्योधन ने गदायुद्ध में बड़ा परिश्रम किया था, उसको मारकर आपने बहुत बड़ा पराक्रम दिखाया ! भला नाना प्रकार के पैंतरे बदलते और सब तरह की मण्डल आकार गतियों से चलते हुए शूरवीर दुर्योधन भीमसेन के सिवा दूसरा कौन मार सकता था ? भीम ! आपने शत्रुओं को परास्त करके दुर्योधन का वध करने के कारण इस पृथ्वी पर अपना महान् यश फैलाया है। यह बड़े सौभाग्य की बात है।'  इस प्रकार जहां _तहां कुछ आदमी इकट्ठे होकर भीमसेन की प्रशंसा कर रहे थे। पांचाल और पाण्डव भी प्रसन्न होकर उनके सम्बन्ध में अलौकिक बातें सुना रहे थे। उस समय भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा_'राजाओं ! मरे हुए शत्रु को अपनी कठोर बातों से फिर मारना उचित नहीं है। यह पापी तो उसी समय मर चुका था, जब लज्जा को तिलांजलि दे लोभ में फंसा और पापियों की सहायता लेकर हित चाहनेवाले सुहृदों की आज्ञा का उल्लंघन करने लगा। विदुर, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, भीष्म और सृंजयों ने अनेकों बार अनुरोध किया; तो भी इसने पाण्डवों को उनकी पैतृक संपत्ति नहीं दी।  अब तो यह न तो मित्र कहने योग्य है, न शत्रु; यह महानीच है। काठ के समान जड़ है। इसे वचनरूपई बाणों से बेधने में कोई लाभ नहीं है। सब लोग रथों पर बैठो, अब छावनी में चलें। श्रीकृष्ण की बात सुनकर सब नरेश अपने _अपने शंख बजाते हुए शिविर की ओर चल दिये। आगे_आगे पाण्डव थे; उनके पीछे सात्यकि, धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, द्रौपदी के पुत्र तथा दूसरे_दूसरे धनुर्धर योद्धा चल रहे थे। सब लोग पर ले दुर्योधन की छावनी में गये, जो राजा के न होने से श्रीहीन दिखायी दे रहे थे। वहां कुछ बूढ़े मंत्री और हिजड़े बैठे हुए थे। बाकी लोग रानियों के साथ राजधानी चले गये थे। पाण्डवों के पहुंचने पर उनकी सेवा में दुर्योधन के सेवक हाथ जोड़े मैले कपड़े पहने उपस्थित हुए। पाण्डव भी दुर्योधन की छावनी में जाकर अपने_अपने रथों से उतर गये। अन्त में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा_'तुम स्वयं उतरकर अपने अक्षय तरकस और धनुष भी रथ से उतार लो, इसके बाद मैं उतरूंगा। ऐसा करने में ही तुम्हारी भलाई है।' अर्जुन ने वैसा ही किया। फिर भगवान ने घोड़ों की बागडोर छोड़ दी और स्वयं भी रथ से उतर पड़े। समस्त प्राणियों के ईश्वर श्रीकृष्ण के उतरते ही उस स्थान पर बैठा हुआ दिव्य कपि अन्तर्धान हो गया; फिर वह विशाल रथ, जो द्रोणाचार्य और कर्ण के दिव्यास्त्रों से दग्ध_सा ही हो चुका था, बिना आग लगाये ही प्रज्वलित हो उठा। उसके सारे उपकरण, जूआ, धूरी, राम और घोड़े _सब जलकर खाक हो गये। वह राख की ढेर होकर धरती पर बिखर गया। यह देख पाण्डवों को बड़ा आश्चर्य हुआ। अर्जुन ने हाथ जोड़कर भगवान् के चरणों में प्रणाम करके पूछा_'गोविन्द ! यह क्या आश्चर्यजनक घटना हो गयी ? एकाएक रथ क्यों जल गया ? यदि मेरे सुनने योग्य हो तो इसका कारण बताइये।' श्रीकृष्ण ने कहा_अर्जुन ! लड़ाई में नाना प्रकार के अस्त्रों के आघात से यह रथ तो पहले ही जल चुका था, सिर्फ मेरे बैठे रहने के कारण भस्म नहीं हुआ था। जब तुम्हारा सारा काम पूरा हो गया है, तब अभी_अभी इस रथ को मैंने छोड़ा है; इसलिये यह अब भष्म हुआ है। यों तो ब्रह्मास्त्र के तेज से यह पहले ही दग्ध हो चुका था। इसके बाद भगवान् ने किंचित् मुस्कराकर राजा युधिष्ठिर को हृदय से लगाया और कहा _'कुन्तीनन्दन ! आपके शत्रु परास्त हुए और आपकी विजय हुई _यह बड़े सौभाग्य की बात है। अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव तथा स्वयं आप इस विनाशकारी संग्राम से कुशलपूर्वक बच गये_यह और भी खुशी की बात है। अब आपको आगे क्या करना है, इसका शीघ्र विचार कीजिये। उपलव्य में जब मैं अर्जुन के साथ आपके पास आया था, उस समय आपने मुझे मधउपर्क देकर कहा था_'कृष्ण ! अर्जुन तुम्हारा भाई और मित्रों, इसी हर आफत से बचाना।' उस दिन मैंने 'हां' कहकर आपकी आज्ञा स्वीकार की थी।आपके उस अर्जुन की मैंने हर तरह से रक्षा की है, यह भाइयों सहित विजयी होकर इस रोमांचकारी संग्राम से छुटकारा पा गया।' श्रीकृष्ण की बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर को रोमांच हो आया, वे कहने लगे_'जनार्दन ! द्रोण और कर्ण ने जिस ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया था, उसे आपके सिवा दूसरा कौन सही सकता था ? वज्र धारी इन्द्र भी उसका सामना नहीं कर सकते थे । आपकी ही कृपा से संशप्तक परास्त हुए हैं। अर्जुन ने इस महासमर में कभी पीठ नहीं दिखायी_ यह भी आपके ही अनुग्रह का फल है। आपके द्वारा अनेकों बार हमारे कार्य सिद्ध हुए हैं। उपलव्य में महर्षि व्यास ने मुझसे पहले ही कहा था_जहां धर्म है, वहां श्रीकृष्ण हैं; और जहां श्रीकृष्ण हैं, वहीं विजय है।' तदनन्तर, उन सभी वीरों ने आपकी छावनी में घुसकर खजाना, रत्नों की ढ़ेरी तथा भंडार_घर पर अधिकार कर लिया। चांदी, सोना, मोती, मणि, अच्छे_अच्छे आभूषण, बढ़िया कम्बल, मऋगचर्म तथा राज्य के बहुत_से सामान उनके हाथ लगे। साथ ही असंख्य दास_दासियों को भी उन्होंने अपने अधीन किया। महाराज ! उस समय आपके अक्षय धन का भण्डार पाकर पाण्डव खुशी के मारे उछल पड़े, किलकारियां मारने लगे। इसके बाद अपने वाहनों को खोलकर वे वहीं विश्राम करने लगे। विश्राम के समय श्रीकृष्ण ने कहा_' आज की रात हमलोगों को अपने मंगल के लिए छावनी के बाहर ही रहना चाहिए।' 'बहुत अच्छा' कहकर पाण्डव श्रीकृष्ण और सात्यकि के साथ छावनी से बाहर निकल गये। उन्होंने परम पवित्र ओघवतई नदी के किनारे वह रात व्यतीत की। उस समय राजा युधिष्ठिर ने समयोचित कर्तव्य का विचार करके कहा_'माधव ! एक बार क्रोध में भरी हुई गान्धारी देवी को शान्त करने के लिये आपको हस्तिनापुर जाना चाहिये, यही उचित  जान पड़ता है।'