Friday 28 June 2019

दुर्योधन और द्रोणाचार्य की अमर्षपूर्ण बातचीत तथा कर्ण_दुर्योधन_संवाद

संजय कहते हैं____ राजन् ! जयद्रथ के मारे जाने पर आपका पुत्र दुर्योधन आँसू बहाने लगा, उसकी दशा बड़ी दयनीय हो गयी; अब शत्रुओं पर विजय पाने का उसका सारा उत्साह जाता रहा। अर्जुन, भीमसेन और सात्यकि ने कौरवसेना का भारी संहार कर डाला है___ यह देखकर उसका चेहरा उदास हो गया, आँखें भर गयीं। वह सोचने लगा___’इस पृथ्वी पर अर्जुन के समान कोई योद्धा नहीं है। जब अर्जुन को क्रोध चढ़ आता है, उस समय उनके सामने  द्रोणाचार्य, कर्ण, अश्त्थामा और कृपाचार्य भी नहीं ठहर पाते। आज के युद्ध में उन्होंने हमारे सभी महारथियों को हराकर सिंधुराज का वध किया, किन्तु कोई भी उन्हें रोक न सका। हाय ! हमारी इतनी बड़ी सेना को पाण्डवों ने हर तरह से नष्ट कर डाला। जिसके भरोसे हमने युद्ध के लिये अस्त्र_शस्त्रों की तैयारी की, जिसके पराक्रम की आश्रय ले संधि का प्रस्ताव लेकर आनेवाले श्रीकृष्ण को तिनके के समान समझा, उस कर्ण को भी अर्जुन ने युद्ध मे परास्त कर दिया।‘महाराज ! सारे जगत् की अपराध करनेवाला आपका पुत्र दुर्योधन जब इस प्रकार सोचते_ सोचते मन_ही_मन बहुत व्याकुल हो गया तो आचार्य द्रोण का दर्शन करने के लिये उनके पास गया और उनसे कौरव_सेना के महान् संहार का सारा समाचार सुनाया। उसने यह भी बताया कि शत्रु विजयी हो रहे हैं और कौरव विपत्ति के समुद्र में डूब रहे हैं। फिर कहने लगा___’आचार्य ! अर्जुन ने हमारी सात अक्षौहिणी सेना का नाश करके आपके शिष्य जयद्रथ का भी वध कर डाला। ओह ! जिन्होंने हमें विजय दिलाने की इच्छा से अपने प्राण त्यागकर यमलोक की राह ली, उन उपकारी सुहृदों का ऋण हम कैसे चुका सकेंगे ! जो भुपाल हमारे लिये इस भूमि को जीतना चाहते थे, वे स्वयं भूमण्डल का ऐश्वर्य त्यागकर भूमि पर सो रहे हैं। इस प्रकार स्वार्थ के लिये मित्रों का संहार करके अब मैं हजार बार अश्वमेध यज्ञ करूँ तो भी अपने को पवित्र नहीं कर सकता। मैं आचारभ्रष्ट एवं पतित हूँ, अपने सगे_सम्बन्धियों से मैंने द्रोह किया है ! अहो ! राजाओं के समाज में मेरे लिये पृथ्वी फट क्यों नहीं गयी, जिससे मैं उसी में समा जाता। मेरे पितामह लोहूलुहान होकर बाणशय्या पर पड़े हैं; वे युद्ध में मारे गये, पर मैं उनकी रक्षा न कर सका। कम्बोजराज, अलम्बुष तथा अन्यान्य सुहृदों को मरा देखकर भी अब जीवित रहने से मुझे क्या लाभ है ? शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ आचार्य !  मैं अपने यज्ञ_ यागादी तथा कुआँ बावली बनवाने आदि शुभकर्मो की, पराक्रम की तथा पुत्रों की शपथ खाकर आपके सामने सच्ची प्रतिज्ञा करता हूँ कि अब मैं पाण्डवों के साथ संपूर्ण पांचाल राजाओं को मारकर ही शान्ति पाऊँगा, अथवा जो लोग मेरे लिये युद्ध करते_करते अर्जुन के हाथ से अपने प्राण खो चुके हैं, उनके ही लोक में चला जाऊँगा।इस समय मेरे सहायक भी मेरी मदद करना नहीं चाहते। औरों की तो बात जाने दीजिये, स्वयं आप हमलोगों की उपेक्षा करते हैं। अर्जुन आपका प्यारा शिष्य हैं न, इसीलिये ऐसा हुआ है। इस समय तो मैं केवल कर्ण को ही ऐसा देखता हूँ, जो सच्चे दिल से मेरी विजय चाहता है। जो मूर्ख मित्र को ठीक ठीक पहचाने बिना उसे मित्र के काम पर लगा देता है, उसका यह काम चौपट ही होता है। जयद्रथ, भूरिश्रवा, अमिषाह, शिवि और वसाति आदि नरेश मेरे लिये युद्ध में मारे गये। उसके बिना अब मुझे इस जीवन से कोई लाभ नहीं है; अत: मैं भी वहीं जाता हूँ, जहाँ वे पुरुषश्रेष्ठ पधारे हैं। आप तो केवल पाण्डवों के आचार्य हैं, अब हमें जाने की आज्ञा दीजिये।‘राजन् ! आपके पुत्र की कही हुई बातें सुनकर आचार्य द्रोण मन_ही_मन बहुत दुःखी हुए। वे थोड़ी देर तक चुपचाप कुछ सोचते रहे, फिर अत्यन्त व्यथित होकर बोले___’दुर्योधन ! तू क्यों इस प्रकार अपने वाग्बाणों से मुझे छेद रहा है ? मैं तो सदा ही तुझसे कहता आया हूँ कि अर्जुन को युद्ध में जीतना असम्भव है। जिन भीष्मपितामह को हमलोग त्रिभुवन का सर्वश्रेष्ठ वीर समझते थे, वे भी जब मारे गये तो औरों से क्या आशा रखें ? तूने जब जूआ खेलना आरम्भ किया था, उस समय विदुर ने कहा था___'बेटा दुर्योधन ! इस कौरव_सभा में शकुनि जो ये पासे फेंक रहा है, इन्हें पासा न समझो; ये एक दिन तीखे बाण बन जायेंगे। वे ही पासे अब अर्जुन के हाथ से बाण बनकर हमें मार रहे हैं। उस दिन विदुर की बात मेरी समझ में नहीं आयी ! विदुरजी धीर हैं, महात्मा पुरुष हैं; उन्होंने  तेरे कल्याण के लिये अच्छी बातें कही थी, किन्तु तूने विजय के उल्लास में अनसुनी कर दीं। आज जो यह भयंकर संग्राम मचा हुआ है, वह उनके वचनों के अनादर का ही फल है। जो मूर्ख अपने हितैषी मित्रों के हितकर वचन की अवहेलना करके मनमाना बर्ताव करता है, वह थोड़े ही समय में सोचनीय दशा को प्राप्त हो जाता है। यही नहीं,  तूने एक और बड़ा भारी अन्याय किया कि हमलोगों के सामने द्रौपदी को सभा में बुलाकर अपमानित किया। वह उच्चकुल में उत्पन्न हुई है, सब प्रकार के धर्मों का पालन करती है; वह इस अपमान के योग्य नहीं थी।गान्धारीनन्दन ! उस पाप का ही यह महान् फल प्राप्त हुआ है। यदि यहाँ यह फल नहीं मिलता तो परलोक में तुझे इससे भी अधिक दण्ड भोगना पड़ता। पाण्डव मेरे पुत्र के समान हैं, वे सदा धर्म का आचरण करते रहते हैं; मेरे सिवा दूसरा कौन मनुष्य है, जो ब्राह्मण कहलाकर भी उनसे द्रोह करे ? दुर्योधन ! तू तो नहीं मर गया था; कर्ण, कृपाचार्य, शल्य और अश्त्थामा___ ये सब तो जीवित थे; फिर सिंधुराज की मृत्यु  क्यों हुई ? तुम सबने मिलकर उसे क्यों नहीं बचा लिया ? राजा जयद्रथ विशेषतः मुझपर और मुझपर ही अपनी जीवनरक्षा का भरोसा किये बैठा था; तो भी जब अर्जुन के हाथ से उसकी रक्षा न की जा सकी तो मुझे अब अपने जीवन की रक्षा का भी कोई स्थान दिखाई नहीं देता। जहाँ बड़े_बड़े महारथियों के बीच सिंधुराज जयद्रथ और भूरिश्रवा मारे गये, वहाँ तू किसके बचने की आशा करता है ? जिन्हें इन्द्र सहित संपूर्ण देवता भी मार सकते थे उन भीष्मजी को जबसे मृत्यु के मुख में पड़ा देखा है, तब से यही सोचता हूँ कि अब यह पृथ्वी तेरी नहीं रह सकती। यह देखो, पाण्डवों और सृंजयों की सेना एक साथ मिलकर मुझपर चढ़ी आ रही है।
दुर्योधन ! अब मैं पांचाल राजाओं को मारे बिना अपना कवच नहीं उतारूँगा। आज युद्ध में वही कर्म करूँगा, जिससे तेरा हित हो। मेरे पुत्र अश्त्थामा से जाकर कहना कि वह युद्ध में अपने जीवन की रक्षा करते हुए जैसे भी हो सोमकों का संहार करे, उन्हें जीवित न छोड़े। दया, दम, सत्य और सरलता आदि सद्गुणों में स्थित रहे; धर्मप्रधान कर्मों का ही बारम्बार अनुष्ठान करे।  राजन् ! अब मैं महासंग्राम के लिये शत्रुसेना में प्रवेश करता हूँ। मुझमें शक्ति हो तो सेना की रक्षा करना; क्योंकि क्रोध में भरे हुए कौरव तथा सृंजयों का आज रात्रि में भी युद्ध होगा।‘ ऐसा कहकर आचार्य द्रोण पाण्डवों तथा सृंजयों से युद्ध करने चल दिये।आचार्य की प्रेरणा पाकर दुर्योधन ने युद्ध करने का ही निश्चय किया। उसने कर्ण से कहा___'देखो, श्रीकृष्ण की सहायता से अर्जुन ने द्रोणाचार्य का व्यूह भेदकर सब योद्धाओं के सामने ही सिन्धुराज का वध किया है। मेरी अधिकांश सेना अर्जुन के आगे नष्ट हो गयी, अब थोड़ी सी ही बची है। यदि इस युद्ध में आचार्य द्रोण अर्जुन को रोकने की पूरी कोशिश करते तो वे लाख प्रयत्न करने पर भी उस दुर्भेद्य व्यूह को नहीं तोड़ सकते थे। किन्तु वे तो द्रोण के परम प्रिय हैं, तभी तो आचार्य ने जयद्रथ को अभयदान देकर भी अर्जुन को व्यूह में घुसने का मार्ग दे दिया; यदि उन्होंने पहले ही सिंधुराज को घर जाने की आज्ञा दे दी होती तो अवश्य ही मनुष्यों का इतना बड़ा संहार नहीं होने पाता। मित्र ! जयद्रथ अपनी जीवनरक्षा के लिये घर जाने को तैयार था; किन्तु मुझ अधम ने ही द्रोण से अभय पाकर उसे रोक लिया। आज के युद्ध में चित्रसेन आदि मेरे भाई भी हमलोगों के देखते_देखते भीमसेन के हाथ से मारे गये।कर्ण ने कहा___भाई ! तुम आचार्य की निंदा न करो; वे तो अपने बल, शक्ति और उत्साह के अनुसार प्राणों की भी परवाह न करके युद्ध करते ही हैं। अर्जुन द्रोण का उल्लंघन करके सेना में घुस गये थे, इसलिये  इसमें उसका कोई दोष मैं नहीं देखता। मैंने भी उस रणांगण में तुम्हारे साथ रहकर बहुत प्रयत्न किया, तथापि सिंधुराज मारा गया; इसलिये इसमें प्रारब्ध को ही प्रधान समझो। मनुष्य को उद्योगशील होकर सदा निःशंक भाव से अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिये, सिद्धि तो दैव के ही अधीन है। हमलोगों ने कपट करके पाण्डवों को छला, उन्हें मारने को बिष दिया, लाक्षागृह  में जलाया, जूए में हराया और राजनीति का सहारा लेकर उन्हें वन में भी भेजा। इस प्रकार प्रयत्न करके हमने उनके प्रतिकूल जो कुछ किया, उसे प्रारब्ध ने व्यर्थ कर दिया। फिर भी दैव को निरर्थक समझकर तुम प्रयत्नपूर्वक युद्ध ही करते रहे।राजन् !  इस प्रकार कर्ण और दुर्योधन बहुत_सी बातें कर रहे थे, इतने में ही रणभूमि में उन्हें पाण्डवों की सेना दिखायी दी। फिर तो आपके पुत्रों का शत्रुओं के साथ घमासान युद्ध छिड़ गया।


Tuesday 18 June 2019

अर्जुन का कर्ण को फटकारना, युधिष्ठिर का अर्जन आदि से मिलना और भगवान् का स्तवन करना

संजय ने कहा___महाराज ! एक तो भीमसेन का रथ टूट गया था, दूसरे कर्ण ने उन्हें अपने वाग्वाणों से खूब पीड़ित किया; इससे वे क्रोध के वशीभूत होकर अर्जुन से बोले___’धनंजय ! सुनते हो न ? तुम्हारे सामने ही कर्ण मुझसे कहता है कि ‘अरे नपुंसक, मूढ़, पेटू, गँवार, बालक और कायर ! तू लड़ना छोड़ दे।‘ मेरे विषय में ऐसी बात मुँह से निकालने वाला मनुष्य मेरा वाक्य है; इसलिये तुम इसका वध करने के लिये मेरी बात याद रखो और ऐसा उद्योग करो, जिससे मेरा वचन मिथ्या न हो।‘ भीमसेन की बात सुनकर अर्जुन आगे बढ़े और कर्ण के निकट जाकर बोले___’पापी कर्ण ! तू आप ही अपनी तारीफ किया करता है। संग्रामभूमि में डटे हुए शूरवीरों को दो ही परिणाम प्राप्त होते हैं___ जीत या हार। आज युद्ध में सात्यकि ने तुझे रथहीन कर दिया था; तेरी इन्द्रियाँ विकल हो रही थीं, तू मौत के निकट पहुँच चुका था; तो भी तेरी मृत्यु मेरे हाथ से होने वाली है___यह सोचकर ही सात्यकि ने तुझे जीवित छोड़ दिया है; किन्तु ऐसा करके जो तूने उनके प्रति कड़वी बातें कही हैं, वह महान् पाप है। यह काम नीच पुरुषों का है। आखिर तू सूत का ही पुत्र ठहरा, तेरी समझ गँवारों की_सी  क्यों न हो ? महापराक्रमी भीमसेन के प्रति तूने जो अप्रिय बातें सुनायी हैं, वे सहन करने योग्य नहीं है। सारी सेना देख रही थी, हमारी और श्रीकृष्ण की भी उधर ही दृष्टि थी जबकि आर्य भीम ने तुझे अनेकों बार रथहीन किया था। परंतु उन्होंने तेरे लिये एक बार भी कड़ी जबान नहीं निकाली। इतने पर भी जो तूने उन्हें बहुत से कटु वचन सुनाये हैं तथा मेरी अनुपस्थिति में तुम सबने मिलकर जो सुभद्रानन्दन अभिमन्यु का वध किया है, उस अन्याय का अब तुझे शीघ्र ही फल मिलेगा। अब मैं तुझे तेरे सेवक, पुत्र और बन्धुओं सहित मार डालूँगा। युद्ध में तेरे देखते_देखते तेरे पुत्र वृषसेन का वध करूँगा। उस समय मोहवश यदि दूसरे राजा भी मेरे पास आ जायेंगे तो उनका भी संहार कर डालूँगा___ यह बात मैं अपने शस्त्रों की शपथ खाकर कहता हूँ।‘ इस प्रकार जब अर्जुन ने कर्ण के पुत्र का वध करने की प्रतिज्ञा की, उस समय रथियों ने महान् तुमुलनाद किया। वह अत्यन्त भयंकर संग्राम अभी चल ही रहा था, इतने में सूर्य अस्ताचल पर पहुँच गया। अर्जुन की प्रतिज्ञा पूरी हो चुकी थी,  अतः भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें छाती से लगाकर कहा___’विजय ! बड़े सौभाग्य की बात है कि तुमने अपनी बहुत बड़ी प्रतिज्ञा पूर्ण कर ली। यह भी बहुत अच्छा हुआ कि पापी वृद्धक्षत्र अपने पुत्र के साथ मारा गया। भारत ! कौरव_सेना के मुकाबले में आकर देवताओं का दल भी परास्त हो सकता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। अर्जुन ! मैं तो तीनों लोकों में तुम्हारे सिवा किसी दूसरे पुरुष को ऐसा नहीं देखता, जो इस सेना के साथ लोहा ले सके। तुम्हारा बल और पराक्रम रुद्र, इन्द्र और यमराज के समान है। आज अकेले तुमने जैसा पुरुषार्थ किया है, ऐसा कोई भी नहीं कर सकता। इसी प्रकार जब तुम बन्धु_बान्धवों सहित कर्ण को मार डालोगे तो तुम्हें पुनः बधाई दूँगा। अर्जुन ने कहा___’माधव ! यह तो तुम्हारी ही कृपा है, जिससे मैंने प्रतिज्ञा पूरी की। तुम जिनके स्वामी हो___ रक्षक हो, उनकी विजय होने में आश्चर्य ही क्या है ?’ अर्जुन के ऐसा कहने पर भगवान् धीरे_धीरे घोड़ों को हाँकते हुए चले और युद्ध का वह दारुण दृश्य अर्जुन को दिखाने लगे। वे बोले___’अर्जुन ! जो लोग युद्ध में विजय और महान् सुयश पाने की इच्छा कर रहे थे, वे ही ये शूरवीर नरेश आज तुम्हारे बाणों से मरकर पृथ्वी पर सो रहे हैं। इनके शरीर का मर्मस्थान छिन्न_भिन्न हो गया है। ये बड़ी विकलता के साथ मृत्यु को प्राप्त हुए हैं। यद्यपि इनकी देह में प्राण नहीं है तो भी बदन पर गिरता हुई दीप्ति के कारण ये जीवित_से दिखाई दे रहे हैं। साथ ही इनके नाना प्रकार के अस्त्र_ शस्त्र तथा वाहन यहाँ पड़े हुए हैं, जिनसे यह रणभूमि भर गयी है। इस प्रकार संग्रामभूमि का दर्शन कराते हुए भगवान् कृष्ण ने स्वजनों के साथ अपना पांचजन्य शंख बजाया। फिर अजातशत्रु राजा युधिष्ठिर के पास जा उन्हें प्रणाम करके कहा___’महाराज ! सौभाग्य की बात है कि आज शत्रु मारा गया; इसके लिये आपको बधाई है। आपके छोटे भाई ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की____यह बड़े हर्ष का विषय है।‘ यह सुनकर राजा युधिष्ठिर रथ से कूद पड़े और श्रीकृष्ण तथा अर्जुन से गले लगाकर मिले। उस समय वे आनन्द के उमड़ते हुए आँसुओं से भींग रहे थे। वे बोले___’कमलनयन श्रीकृष्ण ! आपके मुख से सब प्रिय समाचार सुनकर मेरे आनन्द की सीमा नहीं है। वास्तव में अर्जुन ने यह अद्भुत काम किया है।सौभाग्य की बात है कि आज मैं आप दोनों महारथियों को प्रतिज्ञा के भार से मुक्त देख रहा हूँ। यह बहुत अच्छा हुआ कि पापी जयद्रथ मारा गया। कृष्ण ! आपके द्वारा सुरक्षित होकर पार्थ ने जो जयद्रथ वध किया है, इससे मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। आप तो सदा सब प्रकार से हमारे प्रिय और हित के साधन में ही लगे रहते हैं। जनार्दन ! जो काम देवताओं से भी नहीं हो सकता था, उसे अर्जुन ने आपकी ही बुद्धि, बल और पराक्रम से सम्पन्न किया है। यह चराचर जगत् आपकी ही कृपा से अपने_ अपने वर्णाश्रमोचित मार्ग में स्थित हो जप होमादि कर्मों में प्रवृत होता है। पहले यह सारा दृश्य_प्रपंच एकार्णव में निमग्न___ अन्धकारमय था, आपके अनुग्रह से यह पुनः जगत् के रूप में प्रकट हुआ है। आप संपूर्ण लोकों की सृष्टि करनेवाले अविनाशी परमेश्वर हैं, आप ही इन्द्रियों के अधिष्ठाता हैं; जो आपका दर्शन पा जाते हैं, उन्हें कभी मोह नहीं होता। आप पुराण_पुरुष हैं, परम देव हैं; देवताओं के भी देवता, गुरु एवं सनातन हैं; जो लोग आपकी शरण में जाते हैं, वे तभी मोह में नहीं पड़ते। हृषिकेश ! आप आदि_अन्त से रहित, विश्वविख्यात और अविकारी देवता हैं; जो आपके भक्त हैं; वे बड़े_बड़े संकटों से पार जो जाते हैं। आप परम पुरातन पुरुष हैं, पर से भी पर हैं, आप परमेश्वर की शरण लेनेवाले भक्त को मुक्ति प्राप्त होती है। चारों वेद जिनका यश गान करते हैं, जो सभी वेदों में जाते गये हैं, उन महात्मा श्रीकृष्ण की शरण लेकर मैं अनुपम कल्याण प्राप्त करूँगा।
पुरुषोत्तम ! आप परमेश्वर हैं, ईश्वरों के ईश्वर हैं, पशु_पक्षी तथा मनुष्यों के भी ईश्वर हैं। अधिक क्या कहें___ जो सबके ईश्वर हैं, उनके भी आप ईश्वर हैं; मैं आपको नमस्कार करता हूँ। माधव ! आप ही सबकी उत्पत्ति और प्रेम के कारण हैं; सबके आत्मा हैं। आपका अभ्युदय हो। आप धनंजय के मित्र, गुरू और रक्षक हैं; आपकी शरण में जाने से मनुष्य की सुखपूर्वक उन्नति होती है। भगवन् ! प्राचीन महर्षि मार्कण्डेयजी आपके चरित्रों को जाननेवाले हैं; उन्होंने कुछ दिन पहले आपके महात्म्य और प्रभाव का वर्णन किया था। असित, देवल, महातपस्वी नारद और मेरे पितामह व्यासजी ने भी आपकी महिमा का गायन किया है। आप तेजःस्वरूप, परमब्रह्म, सत्य, महान्_तप, कल्याणमय तथा जगत् के आदि कारण हैं। आप ही ने इस स्थावर_जंगमरूप जगत् की सृष्टि की है। जगदीश्वर ! जब प्रलयकाल उपस्थित होता है, उस समय यह आदि_अंत से रहित आप परमेश्वर में लीन हो जाता है। वेदों के विद्वान आपको धाता, अजन्मा, अव्यक्त, भूतात्मा, महात्मा, अनंत तथा विश्वतोमुख आदि नामों से पुकारते हैं। आपका रहस्य गूढ़ है, आप सबके आदि कारण और इस जगत् के स्वामी हैं। आप ही परम देव, नारायण, परमात्मा और ईश्वर हैं। ज्ञानस्वरूप श्रीहरि और मुमुक्षुओं के आश्रयभूत भगवान् विष्णु भी आप ही हैं। आपके तत्व को देवता भी नहीं जानते। ऐसे सर्वगुणसम्पन्न आप परमात्मा को हमने अपना सखा बनाया है।‘ युधिष्ठिर के इस प्रकार कहने पर भगवान् श्रीकृष्ण बोले ___’धर्मराज ! आपकी उग्र तपस्या, परम धर्म, साधुता तथा सरलता से ही पापी जयद्रथ मारा गया है। संसार में शास्त्रज्ञान, बाहुबल, धैर्य, शीघ्रता, तथा अमोघ बुद्धि में कहीं कोई भी अर्जुन के समान नहीं है। इसलिये आपके छोटे भाई ने रणभूमि में शत्रुसेना का संहार करके सिंधुराज का मस्तक काट डाला है।‘
यह सुनकर युधिष्ठिर ने अर्जुन को गले लगाया और उनके बदन पर हाथ फेरकर शाबाशी देते हुए कहा___’अर्जुन ! जिसे इन्द्रसहित संपूर्ण देवता भी नहीं कर सकते थे, वह काम तूने आज कर दिखाया है। सौभाग्य का विषय यह है कि इस समय तुम्हारे सिर का भार उतर गया, जयद्रथ को मारकर तुमने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की।‘ तदनन्तर, शूरवीर भीमसेन और सात्यकि ने भी धर्मराज को प्रणाम किया, उनके साथ पांचालनरेशीय राजकुमार भी थे। उन दोनों वीरों को हाथ जोड़कर खड़े हुए देख युधिष्ठिर ने उनका अभिनन्दन किया। वे बोले___’आज बड़े आनन्द की बात है कि तुम दोनों को मैं इस सैन्यरूपी सागर से  मुक्त देख रहा हूँ। तुम दोनों युद्ध में विजयी हुए। तुम्हारे मुकाबले में आकर द्रोणाचार्य और कृतवर्मा परास्त गये। अनेकों प्रकार के शस्त्रों से कम वे कर्ण को हराया और राजा शल्य को भी मार भगाया। अब तुम्हें सकुशल देखकर मुझे प्रसन्नता हो रही है। तुमलोग मेरी आज्ञा का पालन  करते और मेरे प्रति गौरव के बन्धन में बँधे रहते हो। संग्राम में तुम्हारी कभी हार नहीं होती। तुम दोनों बिलकुल मेरे कहने के अनुरूप हो। सौभाग्य से ही आज तुम्हें जीते_जागते देख रहा हूँ। भीमसेन और सात्यकि से ऐसा कहकर धर्मराज ने उन्हें फिर गले लगाया और आनन्द के आँसू बहाने लगे। राजन् ! उस समय पाण्डवों की संपूर्ण सेना आनन्दमग्न हो गयी, फिर उसने बड़े उत्साह से युद्ध में मन लगाया।

Friday 7 June 2019

कृपाचार्य की मूर्छा और सात्यकि तथा कर्ण का युद्ध

धृतराष्ट्र ने पूछा___ संजय ! जब अर्जुन ने जयद्रथ को मार डाला, उस समय मेरे पक्षवाले योद्धाओं ने क्या किया ? संजय ने कहा___भारत ! सिंधुराज को युद्ध में अर्जुन के हाथ से मारा गया देख कृपाचार्य ने क्रोध में भरकर उनपर बड़ी भारी बाणवर्षा आरम्भ की। दूसरी ओर से अश्त्थामा ने भी आक्रमण किया। फिर दोनों दो ओर से अर्जुन पर तीखे बाणों की वर्षा करने लगे। इससे अर्जुन को बड़ी व्यथा हुई। कृपाचार्य गुरु थे और अश्त्थामा गुरुपुत्र, अतः अर्जुन उन दोनों के प्राण नहीं लेना चाहते थे; इसलिये वे धीरे_धीरे उनपर बाण छोड़ रहे थे, फिर भी इनके छोड़े हुए बाण उन्हें चोट पहुँचाते थे। अधिक बाण लगने के कारण उन दोनों को बड़ी वेदना हुई। कृपाचार्य तो रथ के पिछले भाग में बैठ गये और उन्हें मूर्छा आ गयी। यह देख सारथि उन्हें रणभूमि से बाहर ले गया। उनके हटते ही अश्त्थामा भी वहाँ से भाग गया। कृपाचार्य को अपने बाणों की पीड़ा से मूर्छित देख अर्जुन को बड़ी दया आयी; उनकी आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी, वे बहुत दीन होकर रथ पर बैठे_ही_बैठे इस प्रकार विलाप करने लगे___’ पापी दुर्योधन के जन्म लेते ही, महाबुद्धिमान विदुरजी ने राजा धृतराष्ट्र ने से कहा था कि ‘ यह बालक अपने वंश का नाश करनेवाला है; इसे मृत्यु के हवाले कर दिया जाय, तभी कुशल है !  इससे कुरुवंश के प्रमुख महारथियों को महान् भय प्राप्त होगा।‘ उन सत्यवादी महात्मा की कही हुई आज प्रत्यक्ष दिखायी दे रही है। दुर्योधन के कारण ही आज अपने दुर्भाग्य को वाणशय्या पर सोते देख रहा हूँ। क्षत्रियों के ऐसे आचार और बल_पौरुष को धिक्कार है। मेरे_जैसा कौन मनुष्य ब्राह्मण_आचार्य से द्रोह करेगा ? हाय ! शरद्वान् ऋषि के पुत्र, मेरे आचार्य और द्रोण के परम सखा ये कृप आज मेरे ही बाणों से पीड़ित होकर रथ की बैठक में पड़े हैं। इच्छा न रहते हुए भी मैंने इन्हें बाणों से बहुत घायल कर दिया। अब इन्हें दुःख पाते देख मेरे प्राणों को बड़ा कष्ट हो रहा है। पहले की बात है, एक दिन अस्त्रविद्या की शिक्षा देते हुए आचार्य कृप ने मुझसे कहा था___'कुरुनंदन ! शिष्य को गुरु पर किसी तरह प्रहार नहीं करना चाहिये।‘ उन साधु, महात्मा एवं आचार्य के इस आदेश का मैंने आज इस युद्ध में पालन नहीं किया। गोविन्द ! मुझे धिक्कार है कि इन पर भी बारम्बार हाथ उठाता हूँ।‘ अर्जुन इस प्रकार विलाप कर ही रहे थे कि राधानन्दन कर्ण सिंधुराज को मारा गया देख उनपर चढ़ आया। यह देख पांचालराज के दोनों पुत्रों और सात्यकि ने सहसा कर्ण पर धावा किया। महारथी अर्जुन ने जब कर्ण को आते देखा, तो हँसकर भगवान् देवकीनन्दन से कहा___’जनार्दन ! यह देखिये, कर्ण सात्यकि के रथ की ओर बढ़ा जा रहा है। युद्ध में  सात्यकि ने जो भूरिश्रवा को मार डाला है, यह उससे नहीं सहा जाता। अतः जहाँ कर्ण जा रहा है, वहीं आप भी घोड़ों को हाँककर ले चलिये।‘  अर्जुन के ऐसा कहने पर भगवान् श्रीकृष्ण ने यह समयोचित बात कही___’पाण्डुनन्दन ! कर्ण के लिये सात्यकि अकेला ही काफी है; फिर जबतक पांचालराज के दो पुत्र भी उसके साथ हैं, तब तो कहना ही क्या है ?  इस समय कर्ण के साथ तुम्हारा युद्ध होना ठीक नहीं है; क्योंकि उसके रास इन्द्र की दी हुई दो शक्ति मौजूद है; तुम्हें मारने के लिये वह बड़े यत्न से उसे रखता है और बार_बार उसकी पूजा करता है। अत: कर्ण को जैसे_ तैसे सात्यकि के पास ही जाने दो। मैं उस दुरात्मा के अन्तकाल को जानता हूँ,समय आने पर बताऊँगा; फिर तुम अपने बाणों से उसे इस भूतल पर मार गिराओगे।
धृतराष्ट्र ने पूछा___ संजय  ! भूरिश्रवा और जयद्रथ के मारे जाने पर जब कर्ण के साथ सात्यकि का युद्ध हुआ, उस समय सात्यकि के पास तो कोई रथ तो था ही नहीं; फिर वह किसके रथ पर सवार हुआ ? संजय ने कहा___ महाराज ! भगवान् श्रीकृष्ण भूत और भविष्य को भी जानते हैं; उनके मन में यह बात पहले से ही आ गयी थी कि भूरिश्रवा सात्यकि को हरा देगा। अतः उन्होंने अपने सारथि दारुक को आज्ञा दे दी थी कि ‘ तुम सवेरे ही मेरा रथ तैयार कर तैयार रखना।‘ राजन् !  देवता, गन्धर्व, यक्ष, सर्प, राक्षस अथवा मनुष्य___ कोई भी श्रीकृष्ण और अर्जुन को नहीं जीत सकते। ब्रह्मा आदि देवता और सिद्ध पुरुष इन दोनों के अनुपम प्रभाव को जानते हैं। अब युद्ध का समाचार सुनिये।
सात्यकि को रथहीन और कर्ण को उसपर धावा करते देख भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने महान् शंख पांचजन्य को ऋषभ_ स्वर से बजाया। शंख सुनते ही दारुक भगवान् का संदेश समझ गया और रथ उनके पास ले आया। फिर सात्यकि भगवान् की आज्ञा से उसपर जा बैठा। वह रथ विमान के समान देदीप्यमान था, सात्यकि उसपर सवार हो बाणों की झड़ी लगाता हुआ कर्ण की ओर दौड़ा। उस समय अर्जुन के चक्ररक्षक युधामन्यु और उत्तमौजा भी कर्ण के रथ पर टूट पड़े। कर्ण ने भी  बाणवर्षा करते हुए क्रोध में भरकर सात्यकि के ऊपर धावा किया। इन दोनों में जैसा युद्ध हुआ था, वैसा इस पृथ्वी पर या देवलोक में देवता, गन्धर्व, असुर, नाग और राक्षसों का भी युद्ध नहीं सुना गया। महाराज ! उन दोनों के अद्भुत पराक्रम को देख सभी योद्धा युद्ध बन्द कर उन्हीं दोनों के अलौकिक संग्राम को मुग्ध होकर देखने लगे। दारुक का सारथि_कर्म भी अद्भुत था; वह कभी रथ को आगे बढ़ाता, कभी पीछे हटाता, कभी मण्डलाकार में चारों ओर घुमाने लगता और कभी बहुत आगे बढ़कर सहसा लौट आता था। उसके रथ_संचालन की कला देख आकाश में खड़े हुए देवता, गन्धर्व और दानव भी विस्मय_विमुग्ध हो रहे थे; सभी बड़ी सावधानी से कर्ण और सात्यकि का युद्ध देख रहे थे। वे दोनों वीर एक_दूसरे पर बाणों की झड़ी लगा रहे थे। सात्यकि ने अपने सायकों की चोट से कर्ण को खूब घायल किया। कर्ण भी जलसन्ध और भूरिश्रवा की मृत्यु से सहमा हुआ था, वह सात्यकि को अपनी दृष्टि से दग्ध_सा करता हुआ बारम्बार बड़े वेग से धावा करता था; किन्तु सात्यकि उसे कुपित देख अपने बाणवर्षा के द्वारा बराबर बींधता ही रहा। रण में उन दोनों के पराक्रम की तुलना कहीं  नहीं थी, दोनों ही दोनों के अंग_प्रत्यंग छेद रहे थे। थोड़ी ही देर में सात्यकि ने कर्ण के संपूर्ण शरीर में घाव कर दिया और एक भल्ल मारकर उसके सारथि को भी रथ की बैठक से नीचे गिरा दिया। इतना ही नहीं, अपने तीखे तीरों से उसने कर्ण के चारों श्वेत घोड़े भी मार डाले। फिर ध्वजा काटकर उसके रथ के भी सैकड़ों टुकड़े कर दिये। इस प्रकार सात्यकि ने आपके पुत्र के देखते_देखते कर्ण को रथहीन कर दिया। तब कर्णपुत्र वृषसेन, मद्रराज शल्य और द्रोणनन्दन अश्त्थामा ने आकर सात्यकि को सब ओर से घेर लिया। उधर कर्ण के रथहीन हो जाने से संपूर्ण सेना में हाहाकार मच गया। कर्ण शोकाच्छवास खींचता हुआ तुरंत ही दुर्योधन के रथ पर जा बैठा। सात्यकि कर्ण तथा आपके पुत्रों को मारने में समर्थ था तो भी उसने अर्जुन और भीमसेन की प्रतिज्ञा रखने के लिये उनके प्राण नहीं लिये। केवल उन्हें घायल और व्याकुल करके ही छोड़ दिया। जिस समय पिछली बार जूआ खेला गया था, उसी समय भीमसेन ने आपके पुत्रों को और अर्जुन ने कर्ण को मार डालने की प्रतिज्ञा की थी। कर्ण आदि प्रधान_ प्रधान वीरों ने सात्यकि को मार डालने की पूरा प्रयत्न किया, किन्तु वे सफल न हो सके। अश्त्थामा, कृतवर्मा और अन्य सैकड़ों क्षत्रियों को सात्यकि ने एक ही धनुष से परास्त कर दिया।  वह श्रीकृष्ण और अर्जुन के समान पराक्रमी था, उसने आपकी संपूर्ण सेना को हँसते_हँसते जीत लिया। तत्पश्चात् दारुक का छोटा भाई एक सुन्दर रथ सजाकर सात्यकि के पास ले आया। उसी पर सवार हो सात्यकि ने पुनः आपकी सेना पर धावा किया। फिर दारुक इच्छानुसार श्रीकृष्ण के पास चला गया। इधर कौरव भी कर्ण के लिये एक सुन्दर रथ ले आये, जिसमें बड़े वेगवान् उत्तम घोड़े जुते हुए थे। उस रथ पर यंत्र रखा था, पताका फहराती थी, नाना प्रकार के अस्त्र रखे हुए थे और उसका सारथि सुयोग्य था। उस रथ पर बैठकर कर्ण ने भी शत्रुओं पर आक्रमण किया। राजन् उस युद्ध में भीमसेन ने आपके इकतीस पुत्रों को मार डाला। इस प्रकार आपकी अनीति के कारण ही यह भयंकर संहार हुआ।