Friday 6 March 2020

आचार्य द्रोण का वध

संजय कहते हैं___महाराज ! राजा द्रुपद ने बहुत बड़ा यज्ञ करके प्रज्वलित अग्नि से जिसको द्रोण का नाश करने के लिये प्राप्त उस धृष्टधुम्न ने जब देखा कि आचार्य द्रोण बड़े ही उद्विग्न हैं और उनका चित्त शोकाकुल हो रहा है तो उसने उस अवसाद का लाभ उठाने के लिये उनपर धावा कर दिया। धृष्टधुम्न ने एक विजय दिलानेवाला सुदृढ़ धनुष हाथ में ले उसपर अग्नि के समान तेजस्वी बाण रखा। यह देख द्रोण ने उसे रोकने के लिये अंगिरस नामक धनुष और ब्रह्मदण्ड के समान अनेकों बाण हाथ में लिये। फिर उन बाणों की वर्षा से उन्होंने धृष्टधुम्न को ढक दिया, उसे घायल भी कर डाला तथा उसके बाण, धनुष और ध्वजा को काटकर सारथि को भी मार गिराया। तब धृष्टधुम्न ने हँसकर दूसरा धनुष उठाया और आचार्य की छाती में एक तेज किया हुआ बाण मारा। उसकी करारी चोट से उन्हें चक्कर आ गया। अब उन्होंने एक तीखी धारवाला भाला लिया और उससे उसके धनुष को पुनः काट डाला। इतना ही नहीं, इसके अलावा भी उसके पास जितने धनुष थे, उन सबको काट दिया। केवल गदा और तलवार  को रहने दिया। इसके बाद उन्होंने धृष्टधुम्न को नौ बाणों से बींध डाला। तब उस महारथी ने अपने घोड़ों को द्रोण के रथ के घोड़ों के साथ मिला दिया और ब्रह्मास्त्र छोड़ने का विचार किया। इतने में  ही द्रोण ने उसके ईषा, चक्र और रथ का बन्धन काट दिया। धनुष, ध्वजा और सारथि का नाश तो पहले ही हो चुका था। इस भारी विपत्ति में फँसकर धृष्टधुम्न ने गदा उठायी, किन्तु आचार्य वे तीखे सायकों से उसके भी टुकड़े_टुकड़े कर दिये। अब उसने चमकती हुई तलवार हाथ में ली और अपने रथ से द्रोणाचार्य के रथ पर पहुँचकर उनकी छाती में वह कटार भोंक देने का विचार किया। यह देख द्रोण ने शक्ति उठायी और उसके द्वारा एक_ एक करके धृष्टधुम्न के चारों घोड़ों को मार डाला। यद्यपि दोनों के घोड़े एक साथ मिल गये थे तो भी उन्होंने अपने लाल रंग के घोड़ों को बचा लिया। उनकी यह करतूत धृष्टधुम्न से नहीं सही गयी। वह द्रोण की ओर तलवार के अनेकों हाथ दिखाने लगा। इसी बीच एक हजार ‘ वैतस्तिक’ नामक बाण मारकर आचार्य ने उसका ढ़ाल_तलवार के  खण्ड_खण्ड कर डाले। उपर्युक्त बाण निकट से युद्ध करने में उपयोगी होते हैं तथा बित्तेभर के होने के कारण ही वैतस्तिक कहलाते हैं। द्रोण, कृप, अर्जुन, कर्ण, प्रद्युम्न, सात्यकि तथा अभिमन्यु के सिवा और किसी के सिवा वैसे बाण नहीं थे। तलवार काट देने के बाद आचार्य ने अपने शिष्य धृष्टधुम्न का वध करने की इच्छा से एक उत्तम बाण धनुष पर रखा। सात्यकि यह देख रहा था।  उसने दस तीखे बाण मारकर कर्ण और दुर्योधन के सामने द्रोण का वह अस्त्र काट दिया तथा धृष्टधुम्न को द्रोण के चंगुल से बचा लिया। उस समय सात्यकि, द्रोण, कर्ण और कृपाचार्य के बीच बेखटके घूम रहा था। उसकी हिम्मत देख श्रीकृष्ण और अर्जुन प्रशंसा करते हुए शाबाशी देने लगे। अर्जुन श्रीकृष्ण से कहने लगे___’ जनार्दन ! देखिये तो सही, आचार्य के पास खड़े हुए मुख्य महारथियों के बीच सात्यकि खेल_सा करता हुआ विचार रहा है, उसे देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही है। दोनों ओर के सैनिक आज उसके पराक्रम की मुक्तकण्ठ से सराहना कर रहे हैं।‘ जब सात्यकि ने द्रोणाचार्य का वह बाण काट डाला तो दुर्योधन आदि महारथियों को बड़ा क्रोध हुआ। कृपाचार्य, कर्ण तथा आपके पुत्र उसके निकट पहुँचकर बड़ी फुर्ती के साथ तेज किये हुए बाण मारने लगे। यह देख राजा युधिष्ठिर, नकुल_ सहदेव और भीम वहाँ आ गये तथा सात्यकि के चारों ओर खड़े उसकी रक्षा करने लगे। अपने ऊपर सहसा होनेवाली उस बाणवर्षा को सात्यकि ने रोक दिया और दिव्यास्त्रों से शत्रुओं के सभी अस्त्रों का नाश कर डाला। उस समय धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने पक्ष के क्षत्रिय योद्धाओं से कहा___'महारथियों !  क्या देखते हो, पूरी शक्ति लगाकर द्रोणाचार्य पर धावा करो। वीरवर धृष्टधुम्न अकेला ही द्रोण से लोहा ले रहा है और अपनी शक्तिभर उसके नाश की चेष्टा में लगा है। आशा है, वह आज उसे मार गिरायेगा। अब तुमलोग भी एक साथ उनपर टूट पड़ो।‘  युधिष्ठिर की आज्ञा पाते ही सृंजय महारथी द्रोण को मार डालने की इच्छा से आगे बढ़े। उन्हें आते देख द्रोणाचार्य यह निश्चय करके कि ‘आज तो मरने ही है, बड़े वेग से उनकी ओर झपटे। उस समय पृथ्वी काँप उठी। उल्कापात होने लगा। द्रोण की बायीं आँख और बायीं भुजा फड़कने लगी। इतने ही में द्रुपदकुमार की सेना ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया। अब उन्होंने क्षत्रियों का संहार करने के लिये पुनः ब्रह्मास्त्र उठाया। उस समय धृष्टधुम्न बिना रथ के ही खड़ा था, उसके आयुध भी नष्ट हो चुके थे। उसको इस अवस्था में देख भीमसेन शीघ्र ही उसके पास गये और अपने रथ में बिठाकर बोला____’वीरवर तुम्हारे सिवा दूसरा कोई योद्धा ऐसा नहीं है, जो आचार्य से लोहा लेने साहस कर सके। इनके मारने का भार तुम्हारे ही ऊपर है।‘
भीमसेन की बात सुनकर धृष्टधुम्न ने एक सुदृढ़ धनुष हाथ में लिया और द्रोण को पीछे हटाने की इच्छा से इन पर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। फिर दोनों ही क्रोध में भरकर एक_दूसरे पर ब्रह्मास्त्र आदि दिव्य अस्त्रों का प्रहार करने लगे। धृष्टधुम्न ने बड़े_बड़े अस्त्रों से द्रोणाचार्य कोआच्छादित कर दिया और उनके छोड़े हुए सभी अस्त्रों को काटकर उनकी रक्षा करनेवाले वसाति, शिबि, बाह्लीक और कौरव_योद्धाओ को भी घायल कर दिया। तब द्रोण ने उसका धनुष काट डाला और सायकों से उसके मर्मस्थानों को भी बींध दिया। इससे धृष्टधुम्न को बड़ी वेदना हुई। अब भीमसेन ये नहीं रहा गया। वे आचार्य के रथ के पास जा उससे सटकर धीरे_ धीरे बोले___’यदि ब्राह्मण अपना कर्म छोड़कर युद्ध न करते तो क्षत्रियों का भीषण संहार न होता। प्राणियों का हिंसा न करना__यह सब धर्मों में श्रेष्ठ बताया गया है,उसकी जड़ है ब्राह्मण और आप तो उन ब्राह्मणों में भी सबसे उत्तम वेदवेत्ता हैं। ब्राह्मण होकर भी स्त्री, पुत्र और धन के लोभ में आपने चाण्डाल की भाँति म्लेच्छों तथा अन्य राजाओं का संहार कर डाला है। जिसके लिये आपने हथियार उठाया, जिसका मुँह देखकर जी रहे हैं, वह अश्त्थामा तो आपकी नजरों से दूर मरा पड़ा है। इसकी आपको खबर तक नहीं दी गयी है। क्या युधिष्ठिर के रहने पर भी आपको विश्वास नहीं हुआ ? उनकी बात पर तो संदेह नहीं करना चाहिये। भीम का कथन सुनकर द्रोणाचार्य ने धनुष नीचे डाल दिया और अपने पक्ष के योद्धाओं से पुकारकर कहा___'कर्ण ! कृपाचार्य और दुर्योधन ! अब तुमलोग स्वयं ही युद्ध के लिये प्रयत्न करो___ यही मेरा तुमसे बारम्बार कहना है। अब मैं अस्त्रों का त्याग करता हूँ।‘ यह कहकर उन्होंने ‘ अश्त्थामा’ नाम ले_ लेकर पुकारा। फिर सारे अस्त्र_ शस्त्रों को फेंककर वे रथ के पिछले भाग में बैठ गये और संपूर्ण प्राणियों को अभयदान देकर ध्यानमग्न हो गये।‘ धृष्टधुम्न को यह एक मौका हाथ लगा। उसने धनुष और बाण तो रख दिया और तलवार हाथ में ले ली। फिर कूदकर वह सहसा द्रोण के निकट पहुँच गया। द्रोणाचार्य तो योगनिष्ठ थे और धृष्टधुम्न उन्हें मारने चाहता था___ यह देखकर सबलोग हाहाकार करने लगे। सबने एक स्वर से उसे धिक्कारा। इधर आचार्य शस्त्र त्यागकर परमज्ञानस्वरूप में स्थित हो गये और योगधारणा के द्वारा मन_ही_मन पुराणपुरुष विष्णु का ध्यान करने लगे। उन्होंने मुँह को कुछ ऊपर उठाया और सीने को आगे की ओर जानकर स्थिर किया, फिर विशुद्ध सर्व में स्थित होकर हृदयकमल में एकाक्षर ब्रह्म___ प्रवण की धारणा करके देवदेवेश्वर अविनाशी परमात्मा का चिंतन किया। इसके बाद शरीर त्यागकर वे उस उत्तम गति को प्राप्त हुए, जो बड़े_बड़े संतों के लिये दुर्लभ है। जब वे सूर्य के समान तेजस्वी स्वरूप से ऊर्ध्वलोक को जा रहे थे, उस समय सारा आकाशमण्डल दिव्य ज्योति से आलोकित हो उठा था। इस प्रकार आचार्य ब्रह्मलोक चले गये और धृष्टधुम्न मोहग्रस्त होकर वहाँ चुपचाप खड़ा था। महाराज ! योगयुक्त महात्मा द्रोणाचार्य जिस समय परमधाम को जा रहे थे, उस समय मनुष्यों में केवल मैं, कृपाचार्य, श्रीकृष्ण, अर्जुन और युधिष्ठिर___ ये ही पाँच उनका दर्शन कर सके थे। और किसी को उनकी महिमा का ज्ञान न हो सका। इसके बाद धृष्टधुम्न ने द्रोण के शरीर में हाथ लगाया। उस समय सब प्राणी उसे धिक्कार रहे थे। द्रोण के शरीर में चेतना नहीं थी, वे कुछ बोल नहीं रहे थे। इस अवस्था में धृष्टधुम्न ने तलवार से उनका मस्तक काट लिया और बड़ी उमंग में भरकर उस कटार को घुमाता हुआ सिंहनाद करने लगा। आचार्य के शरीर का रंग लाल था, उनकी आयु पचासी वर्ष की हो चुकी थी, ऊपर से लेकर कान तक सफेद बाल हो गये थे; तो भी आपके हित के लिये वे संग्राम में सोलह वर्ष का उम्र वाले तरुण की भाँति विचरते थे। कुन्तीनन्दन अर्जुन पुकारकर कहते ही रह गये कि ‘द्रुपदकुमार ! आचार्य का वध न करो, उन्हें जीते_जी ही उठा ले आओ।‘ पर उसने नहीं सुना। आपके सैनिक भी ‘न मारो, न मारो’  की रट लगाते ही रह गये। अर्जुन तो करुणा में भरकर धृष्टधुम्न के पीछे_ पीछे दौड़े भी, पर कुछ फल न हुआ। सब लोग पुकारते ही रह गये, किन्तु उसने उसका वध ही कर डाला। खून से भीगी हुई आचार्य की लाश तो रथ से  नीचे गिर पड़ी और उनके मस्तक को धृष्टधुम्न ने आपके पुत्रों के सामने फेंक दिया। उस युद्ध में आपके बहुत योद्धा मारे गये थे। अधमरे मनुष्यों की संख्या भी कम नहीं थी। द्रोण के मरते ही सभी की हालत मुर्दे की_सी हो गयी। हमारे पक्ष के राजाओं ने द्रोण के मृतक शरीर को बहुत खोजा; पर वहाँ इतनी लाशों बिछी थी कि वे उसे प्राप्त न कर सके। तदनन्तर भीमसेन और धृष्टधुम्न एक_दूसरे से गले मिलकर सेना के बीच में खुशी के मारे नाचने लगे। भीम ने कहा___ पांचालकुमार !  जब कर्ण और दुष्ट दुर्योधन मारे जायेंगे, उस समय फिर तुम्हें इसी प्रकार छाती से लगाऊँगा।