Tuesday 24 May 2022

अर्जुन की बात से कर्ण के जीवित रहने का पता पाकर युधिष्ठिर का उन्हें

अर्जुन की बात से कर्ण के जीवित रहने का पता पाकर युधिष्ठिर का उन्हें धिक्कारना तथा युधिष्ठिर का वध करने के लिये उद्यत हुए अर्जुन को भगवान द्वारा धर्म का तत्व समझाया जाना

संजय कहते हैं_महाराज ! धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर की यह बात सुनकर अतिरथी वीर अर्जुन इस प्रकार बोले_’राजन् ! आज जब मैं संशप्तकों के साथ युद्ध कर रहा था, उस समय अश्वत्थामा बाणों की वर्षा करता हुआ सहसा मेरे सामने आ धमका। मेरा रथ देखते ही उसकी सारी सेना मेरे साथ युद्ध करने के लिये खड़ी हो गयी। तब मैं उस सेना के पांच सौ वीरों को मारकर अश्वत्थामा पर जा चढ़ा। अश्वत्थामा अपने तीखे बाणों से मुझे और भगवान् कृष्ण को पीड़ा देने लगा।
मेरे साथ लड़ते समय उसके पीछे आठ सौ आठ बैल बाणों का बोझा ढो रहे थे, उसने वे सभी बाण मुझपर चलाये; किन्तु मैंने अपने हाथों से उन सबको नष्ट कर डाला। तत्पश्चात् उसके ऊपर मैंने वज्र के समान तीस बाण मारे। उनसे जीत जाने के कारण उसका रूप शिकारी जानवर के तरह दिखाई देने लगा। फिर तो अपने समस्त शरीर से खून की धारा बहाता हुआ वह सूतपुत्र के रथियों के दल में घुस गया। उस समय उसको दूसरे प्रधान_प्रधान योद्धा भी खून से लथपथ ही दिखाई पड़े। तदनन्तर कौरव_सेना को पराजित तथा सैनिकों को भयभीत देख कर्ण पचास  प्रधान प्रधान रथियों को साथ लेकर बड़ी तेजी के साथ मेरी ओर चला। मैंने उसके सैनिकों का संहार तो कर डाला; मगर कर्ण को वहां ही छोड़कर आपके दर्शन करने के लिये जल्दी यहां चला आया। मैंने सुना कि कर्ण ने युद्ध में आपको बहुत घायल कर दिया है। कर्ण बड़ा क्रूर है, उसके सामने से आपका यहां चला आना अनुचित नहीं है। मैं समझता हूं, वह समय युद्ध से हट आने का ही था। युद्ध में अपने सामने ही मैंने कर्ण के अद्भुत अस्त्र को देखा है। पांचालों में कोई भी ऐसा वीर नहीं है, जो आज कर्ण का वेग सह सके। महाराज ! सात्यकि और धृष्टद्युम्न मेरे पहियों की रक्षा करें। राजकुमार युधामन्यु तथा उत्तमौजा_ये मेरे पृष्ठभाग की रक्षा में रहें। फिर मैं इस संग्राम में महारथी कर्ण के साथ युद्ध करूंगा। आपकी भी इच्छा हो तो देखिये, हम दोनों किस प्रकार एक_दूसरे को जीतने का प्रयास करते हैं ।
  मैं आज बलपूर्वक कर्ण को बन्धु_बान्धवों सहित न मार डालूं तो प्रतिज्ञा करके उसका पालन न करने वालों को जो कष्टप्रद गति मिलती है,  वहीं मुझे भी मिले। अब मैं आपसे युद्ध में जाने की आज्ञा चाहता हूं। आशीर्वाद दीजिये, जिससे रण में मेरी विजय हो। राजन् ! मैं सूतपुत्र कर्ण, उसकी सेना तथा संपूर्ण शत्रुओं का संहार करूंगा।‘ युधिष्ठिर कर्ण के बाणों की चोट से बहुत कष्ट पा रहे थे, अर्जुन के मुख से जब उन्होंने कर्ण के जीवित रहने का समाचार सुना तो उन्हें बड़ा क्रोध हुआ। वे धनंजय से इस प्रकार बोले_’तात ! तुम्हारी सेना शत्रुओं से तिरस्कृत होकर रण से भाग गयी है और तुम जब कर्ण को नहीं मार सके तो भयभीत होकर भीम को अकेले ही छोड़कर यहां भाग आते, यह तुमने खूब स्नेह निभाया !
वीरमाता कुन्ती के गर्भ से जन्म लेकर यह अच्छा काम नहीं किया। द्वैतवन में तुमने यह सच्ची प्रतिज्ञा की थी कि ‘मैं अकेले ही कर्ण को मार डालूंगा', फिर उसे जीते_जी ही छोड़कर तुम यहां कैसे चले आये ? अर्जुन ! जब तुम जन्म लेकर सात दिन के ही हुए थे, उस समय आकाशवाणी ने कुन्ती से कहा था _’यह बालक इन्द्र के समान पराक्रमी होगा। समस्त शत्रुओं पर विजय पायेगा। यह खाण्डववन में संपूर्ण देवताओं तथा सब प्राणियों को जीत लेगा। राजाओं के बीच यह मद्र, कलिंग, केकय तथा कौरव_वीरों का संहार करेगा। संसार में इससे बढ़कर कोई धनुर्धर नहीं होगा। कोई भी प्राणी कभी युद्ध में इसे परास्त नहीं कर सकेगा। यह संपूर्ण विद्याओं का ज्ञाता तथा जितेन्द्रिय होगा। इच्छा करते ही यह समस्त प्राणियों को अपने अधीन कर लेगा। चन्द्रमा के समान इसकी कान्ति होगी और वायु के समान वेग। यह स्थिरता में मेरू और क्षमा में पृथ्वी के समान होगा। सूर्य के समान तेजस्वी, कुबेर के समान धनी, इन्द्र के समान पराक्रमी और भगवान् विष्णु के समान बलवान होगा। कुन्ती ! जैसे अदिति के गर्भ से शत्रुहन्ता विष्णु ने जन्म लिया था, उसी प्रकार तुम्हारा यह महात्मा पुत्र भी तुम्हारे गर्भ से उत्पन्न हुआ है। अपने पक्ष की विजय तथा शत्रु पक्ष का संहार करने में इसकी ख्याति होगी। इससे ही वंशपरंपरा का विस्तार होगा।‘ इस प्रकार शतश्रृंगपर्वत के ऊपर यह आकाशवाणी हुई, जिसे अनेकों तपस्वियों ने सुना। किन्तु यह सत्य नहीं हुई। निश्चय ही अब देवता भी झूठ बोलने लगे हैं। सदा ही तुम्हारी प्रशंसा करनेवाले बड़े_बड़े ऋषियों के मुख से भी मैंने ऐसी बातें सुनी है, इसीलिये मुझे दुर्योधन की उन्नति के विषय में कभी भी विश्वास नहीं हुआ तथा आजतक मुझे इस बात का भी पता नहीं था कि तुम कर्ण के भय से डरते हो। ऐसी परिस्थिति में अब मैं क्या कर सकता हूं ? आज कौरवों, अपने मित्रों तथा अन्य संपूर्ण योद्धाओं के सामने मुझे सूतपुत्र के वश में होना पड़ा, इसलिये मेरे जीवन को धिक्कार है। पार्थ ! यदि तुम्हारा पुत्र महारथी अभिमन्यु आज जीवित होता तो वह शत्रु पक्ष के संपूर्ण महारथियों का नाश कर डालता। उसके रहते युद्ध से मुझे ऐसा अपमान कभी नहीं उठाना पड़ता। यदि घतोत्कच जीवित होता तो भी मुझे युद्ध से विमुख नहीं होना पड़ता।  किन्तु मैं अपने अभाग्य के लिये क्या कहूं, जान पड़ता है, मेरे पूर्वजन्म के पाप बड़े ही प्रबल हैं, तभी तो दुरात्मा कर्ण ने तुम्हें तिनके के समान भी न गिनकर मेरे साथ वह व्यवहार किया जो किसी बन्धुहीन एवं असमर्थ मनुष्य के साथ किया जाता है। जो पुरुष आपत्ति में पड़े हुए को उससे छुड़ाता है, वहीं सच्चा बन्धु एवं सुहृद है_ऐसा प्राचीन मुनियों का कथन है तथा सत्पुरुषों ने भी इस धर्म का सदा ही पालन किया है। परन्तु तुमने नहीं किया। तुम्हारे पास विश्वकर्मा का बनाया हुआ रथ है, जिसके धूरे से कभी आवाज नहीं होती तथा जिसकी ध्वजा पर वानर विराजमान है।
यही नहीं, तुम्हारे हाथ में गाण्डीव_जैसा धनुष तथा भगवान् श्रीकृष्ण तुम्हारा रथ हांकते हैं। इन सबके होते हुए भी तुम कर्ण से डरकर भाग कैसे आये ? यदि युद्ध में आज कर्ण का मुकाबला करने की शक्ति नहीं रखते तो जो राजा तुमसे अस्त्र_बल में बड़ा हो उसे अपना गाण्डीव धनुष दे दो। धिक्कार है तुम्हारे इस गाण्डीव को ! धिक्कार है तुम्हारी भुजाओं के पराक्रम को तथा धिक्कार है तुम्हारे इन असंख्य बाणों को !! अग्नि के दिये हुए इस रथ और ध्वजा को भी धिक्कार है!’
युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर अर्जुन को बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने धर्मराज को मार डालने की इच्छा से हाथ में तलवार उठा ली। भगवान् श्रीकृष्ण तो सबके हृदय  की बात जानने वाले ही ठहरे, उन्होंने अर्जुन का क्रोध देखते ही उनकी चेष्टा ताड़ ली और कहा_’अर्जुन ! यह क्या ? तुमने तलवार क्यों उठायी ? यहां किसी से युद्ध करना हो_ऐसा तो नहीं दिखाई देता । मैं किसी ऐसे मनुष्य को यहां नहीं देखता, जो तुम्हारा बध्य हो। फिर प्रहार क्यों करना चाहते हो ? तुम पर सनक तो नहीं सवार हो गयी ? मैं पूछता हूं, बताओ, इस समय क्या करने का विचार है ?’ श्रीकृष्ण के पूछने पर क्रोध में भरे हुए अर्जुन ने युधिष्ठिर की ओर देखते हुए कहा_’गोविन्द ! मैंने गुप्त रूप से यह प्रतिज्ञा की है कि ' जो कोई मुझसे ऐसा कह देगा कि तुम अपना गाण्डीव दूसरे को दे डालो, उसका मैं सिर काट लूंगा।‘ राजा ने आपके सामने ही मुझसे ऐसी बात कही है, अत: मैं क्षमा नहीं कर सकता। आज इनका वध करके अपनी प्रतिज्ञा पूरी करूंगा। इसलिए मैंने तलवार उठायी है। इस अवसर पर आप क्या करना उचित समझते हैं ? आप ही इस जगत् के भूत और भविष्य को जानते हैं; आप जैसी आज्ञा दें वैसा ही करूंगा। यह सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा_’धिक्कार है ! धिक्कार है ! !’ फिर वे अर्जुन से बोले _’पार्थ_आज मुझे मालूम हुआ कि तुमने कभी वृद्ध पुरुषों की सेवा नहीं की है, तभी तो तुम्हें बेमौके क्रोध आ गया। धनंजय ! जो धर्म के विभाग को जानता है, वह कभी ऐसा नहीं कर सकता।  इस समय यहां तुमने जैसा वर्ताव किया है, उससे तुम्हारी धर्मभीरुता तथा अज्ञानता का पता चलता है। जो नहीं करने योग्य काम करता है, वह मनुष्य अधम है। जो स्वयं धर्म का आचरण करके शिष्यों द्वारा उपासना किये जाने पर उन्हें धर्म का उपदेश देते हैं; धर्म के संक्षेप और विस्तार को जाननेवाले गुरुजनों का इस विषय में क्या निर्णय है ? इसे तुम नहीं जानते। उस निर्णय को नहीं जाननेवाला मनुष्य कर्तव्य और अकर्तव्य के निश्चय में तुम्हारी ही तरह असमर्थ एवं मोहित हो जाता है। क्या करना चाहिए और क्या नहीं ? इसे जान लेना सहज नहीं है। इसका ज्ञान होता है शास्त्र से और शास्त्र तुम्हें पता ही नहीं है। अज्ञानवश अपने को धर्मवेत्ता मानकर जो तुम धर्म की रक्षा करने चले हो, उसमें जीवहिंसा का पाप है_ यह बात तुम्हारे जैसे धार्मिक की समझ में नहीं आती ? तात ! मेरे विचार से प्राणियों की हिंसा न करना ही सबसे बड़ा धर्म है। किसी की जान बचाने के लिये झूठ बोलना पड़े तो बोल दे, परंतु उसकी हिंसा न होने दे। भला, तुम्हारे जैसा श्रेष्ठ पुरुष अन्य साधारण मनुष्यों के समान अपने धर्मज्ञ भाई और चक्रवर्ती राजा को मारने के लिए कैसे तैयार होगा ? भारत ! जो युद्ध न करता हो, शत्रुता न रखता हो, रण से विमुख होकर भागा जा रहा हो, शरण में आता हो, हाथ जोड़कर पड़ा हो अथवा असावधान हो, ऐसे मनुष्य का वध करना श्रेष्ठ पुरुष अच्छा नहीं समझते ! तुम्हारे बड़े भाई में प्रायः उपर्युक्त सभी बातें हैं। तुमने नासमझ बालक की तरह पहले प्रतिज्ञा कर ली थी, इसलिये मूर्खतावश अधर्मयुक्त कार्य करने के लिये तैयार हो गये हो। पार्थ ! बताओ तो भला, धर्म के दुर्बोध एवं सूक्ष्म स्वरूप का अच्छी तरह विचार किये बिना ही अपने ज्येष्ठ भ्राता का वध करने कैसे दौड़ पड़े ? पाण्डुनन्दन ! अब मैं तुम्हें धर्म का रहस्य बता रहा हूं,  पितामह भीष्म, धर्मज्ञ युधिष्ठिर, विदुर जी अथवा यशस्विनी कुन्तीदेवी तुम्हें धर्म के जिस तत्व का उपदेश कर सकती हैं उसको मैं ठीक_ठीक बता रहा हूं, सुनो। सत्य बोलना बहुत अच्छा काम है, सत्य से बढ़कर कुछ भी नहीं फिर भी सत्यवादी को ही कभी_कभी सत्य के स्वरूप का ठीक_ठीक ज्ञान कठिन हो जाता है। देखो, सत्य का अनुष्ठान कैसे होता है ? जहां सत्य का परिणाम असत्य और असत्य का परिणाम सत्य होता हो वहां सत्य न बोलकर असत्य बोलना ही उचित है। विवाह_काल में, स्त्री_प्रसंग के समय, किसी के प्राणों के संकट आने पर, सर्वस्व का अपहरण होते समय तथा ब्राह्मण की भलाई के लिये आवश्यकता हो तो असत्य बोल दे। इन पांच अवसरों पर झूठ बोलने पर पाप नहीं होता। जब किसी का सर्वस्व छीना जा रहा हो तो उसे बचाने के लिये झूठ बोलना कर्तव्य है। वहां असत्य ही सत्य और सत्य ही असत्य हो जाता है। जो वहां भी सत्य कह देता है ऐसे मनुष्य को लोग मूर्ख समझते हैं। पहले सत्य और असत्य का अच्छी तरह निर्णय करके जो परिणाम में सत्य हो उसका पालन करें। केवल अनुष्ठान की दृष्टि से असत्यरूप सत्य का भाषण नहीं करना चाहिए। जो ऐसा करता है वही धर्मवेत्ता है। जिसकी बुद्धि निष्काम है वह पुरुष अंधे  पशु को मारने वाले बलाक व्याध की भांति अत्यंत कठोर कर्म करके भी यदि महान् पुण्य प्राप्त कर लें तो क्या आश्चर्य है ?  इसी प्रकार जो धर्म पालन की इच्छा तो रखता है, पर है मूर्ख और गंवार; वह नदियों के संगम पर बने हुए कौशिक मुनि की भांति यदि अज्ञानपूर्वक धर्म करके भी महान् पाप का भागी हो जाय तो क्या आश्चर्य है ?’ अर्जुन ने कहा_भगवन् ! बलाक और कौशिक मुनि की कथा मुझे सुनाते, जिससे मैं इस विषय को अच्छी तरह समझ लूं।  श्रीकृष्ण ने कहा_भारत ! एक व्याध था, जिसका नाम था, बलाक। वह अपनी स्त्री और पुत्रों की जीवनरक्षा के लिये मृगों को मारा करता था, कामना या आसक्ति के वशीभूत होकर नहीं। बूढ़े माता_पिता तथा अन्य आश्रित जनों का पालन_पोषण किया करता था। सदा अपने धर्म में लगा रहता, सत्य बोलता और किसी की निंदा नहीं किया करता था। एक दिन वह मृगों को मारकर लाने के लिए वन में गया; किन्तु कोशिश करने पर भी उसे कोई मृग नहीं मिला। इतने में उसकी दृष्टि पानी पीते हुए एक शिकारी जानवर पर पड़ी, जो अंधा था, वह नाक से सूंघकर ही आंख का काम निकाल लिया करता था। यद्यपि वैसे जानवर को व्याध ने, पहले कभी नहीं देखा था, तो भी उसे मार डाला। अंधे के मरते ही आकाश से फूलों की वृष्टि होने लगी। व्याध को ले जाने के लिये स्वर्ग से एक सुन्दर विमान उतर आया, जिसपर अप्सराओं के गाने_बजाने का मनोरम शब्द हो रहा था। बात यह थी कि उस जन्तु ने पूर्वजन्म में तप करके संपूर्ण प्राणियों का संहार कर डालने के लिये वर प्राप्त किया था, इसलिये ब्रह्मा जी ने उसे अंधा बना दिया था। वह प्राणी समस्त जीवों का अन्त कर देने का निश्चय किये हुए था, अतः उसे मारकर व्याध स्वर्ग में गया। इस प्रकार धर्म के स्वरूप को समझना बड़ा कठिन है। इसी तरह कौशिक नाम का एक तपस्वी ब्राह्मण था, जो बहुत पढ़ा_लिखा नहीं था। वह गांव से दूर नदियों के संगम के बीच रहा करता था। उसने यह व्रत ले लिया था कि ‘मैं सदा सत्य बोलूंगा।‘ इससे वह ‘सत्यवादी’ नाम से विख्यात हो गया। एक दिन की बात है, कुछ लोग लुटेरों के भय से छिपने के रि
लिये उसके आश्रम के पास वन में घुस गये।
एक दिन की बात है, कुछ लोग लुटेरों के भय से छिपने के लिये उसके आश्रम के पास के वन में घुस गये। लुटेरे भी यत्नपूर्वक उनका पता लगा रहे थे। वे सत्यवादी कौशिक के पास आकर बोले_’भगवन् ! बहुत से लोग, जो इधर ही आते हैं, किस रास्ते से गये हैं ? हम सच्ची बात पूछते हैं, यदि आप जानते हों तो बता दीजिये।‘
उनके पूछने पर कौशिक ने सच्ची बात कह दी_’इस वन में जहां घने वृक्ष, लता और झाड़ियां हैं, उधर ही वे गये हैं।‘ पता लग जाने पर उन निर्दयी डाकुओं ने सब लोगों को पकड़कर मार डाला। ऐसी किंवदन्ती है। इस प्रकार वाणी का दुरुपयोग करने के कारण ब्राह्मण को महान् पाप लगा और उस पाप की वजह से कौशिक को दु:खंदायी नरक की हवा खानी पड़ी; क्योंकि वह धर्म के सूक्ष्म स्वरूप को बिलकुल नहीं जानता था। इसी तरह जिसने शास्त्र  बहुत कम पढ़ा है, जो गंवार है, धर्म के विभाग को ठीक_ठीक नहीं जानता, वह मनुष्य यदि वृद्ध पुरुषों से अपने संदेह नहीं पूछता उसे महान् नरक का_सा कष्ट उठाना पड़ता है। अब तुम्हारे लिये संक्षेप से धर्म की पहचान बताती जाती है। कितने ही मनुष्य ‘परमज्ञान’ रूप को तर्क के द्वारा जानने का प्रयत्न करते हैं; किन्तु बहुत लोग ऐसा कहते हैं कि वेदों से ही धर्म का ज्ञान होता है। मैंने तो यहां धर्म के स्वरूप की व्याख्या की है, वह समस्त प्राणियों के लाभ को ही दृष्टि में रखकर की है। धर्म के संबंध में ऐसा निश्चय है कि जो अहिंसायुक्त है, वहीं धर्म है। हिंसकों को हिंसा से रोकने के रिमेक धर्म की यह व्याख्या की गयी है।
धर्म ही प्रजा को धारण करता है और धारण करने के कारण ही उसे धर्म कहते हैं, इसलिये जो प्राणरक्षा से युक्त हो _जिसमें किसी भी जीव की हिंसा न की जाती हो, वही धर्म है_यही धर्मवेत्ताओं का सिद्धांत है। जो लोग स्वयं अन्यायपूर्वक धन छीन लेने की इच्छा रखते हुए दूसरों से सत्यभाषण कराना चाहते हैं, वहां यदि मौन रहने से छुटकारा मिल जाय तो वैसा ही करें, किसी तरह बोले ही नहीं। किन्तु यदि बोलना अनिवार्य हो जाय और न बोलने से लुटेरों को संदेह होने लगे तो वहां असत्य बोलना ही ठीक है। इसी को बिना बिचारे सत्य समझो।
जो मनुष्य किसी काम के लिये प्रतिज्ञा करके उसका प्रकारान्तर से पालन करता है, उसे उसका फल नहीं मिलता_ऐसा मनीषी विद्वानों का कथन है। प्राण संकट में, विवाह में, समस्त कुटुम्बियों के प्राणान्तक का समय उपस्थित होने पर या हंसी_परिहास में यदि असत्य बोला गया तो वह असत्य नहीं माना जाता। धर्म का तत्व जाननेवाले विद्वान उक्त अवसरों पर मिथ्या बोलने में पाप नहीं मानते। जहां लुटेरों के चंगुल में फंस जाने पर झूठी शपथ खाने से छुटकारा मिलता हो, वहां झूठ बोलना ही ठीक है, इसी को बिना बिचारे सत्य समझो। जहां तक वश चले उन लुटेरों को धन नहीं देना चाहिये; क्योंकि पापियों को दिया हुआ धन दाता को दु:ख होता है। अत: धर्म के लिये झूठ बोलने पर भी मनुष्य को झूठ का दोष नहीं लगता। अर्जुन ! मैं तुम्हारा हित चाहता हूं, इसलिये अपनी बुद्धि तथा धर्म के अनुसार मैंने संक्षेप से तुम्हें यह धर्म का लक्षण बताया है। इसे तुमने सुना, अब बताओ, क्या इस समय भी युधिष्ठिर को वध्य ही समझते हो।