Sunday 29 October 2023

पाण्डवों का युधिष्ठिर के शिविर में आकर उसपर अधिकार करना, अर्जुन के रथ का दाह

धृतराष्ट्र ने पूछा_संजय ! दुर्योधन को भीमसेन के द्वारा मारा गया देख पाण्डवों और सृंजयों ने क्या किया ? संजय ने कहा_महाराज ! आपके पुत्र के मारे जाने पर श्रीकृष्णसहित पाण्डवों, पाण्डवों तथा सृंजयों को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे अपने दुपट्टे उछाल_उछालकर सिंहनाद करने लगे। किसी ने धनुष टंकारा तो कोई शंख बजाने लगा। किसी_किसी ने ढ़िंढ़ोरा पीटना शुरू किया बहुतेरे तो हंसने और खेलने लगे। कुछ लोग भीमसेन से बारंबार यों कहने लगे_'दुर्योधन ने गदायुद्ध में बड़ा परिश्रम किया था, उसको मारकर आपने बहुत बड़ा पराक्रम दिखाया ! भला नाना प्रकार के पैंतरे बदलते और सब तरह की मण्डल आकार गतियों से चलते हुए शूरवीर दुर्योधन भीमसेन के सिवा दूसरा कौन मार सकता था ? भीम ! आपने शत्रुओं को परास्त करके दुर्योधन का वध करने के कारण इस पृथ्वी पर अपना महान् यश फैलाया है। यह बड़े सौभाग्य की बात है।'  इस प्रकार जहां _तहां कुछ आदमी इकट्ठे होकर भीमसेन की प्रशंसा कर रहे थे। पांचाल और पाण्डव भी प्रसन्न होकर उनके सम्बन्ध में अलौकिक बातें सुना रहे थे। उस समय भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा_'राजाओं ! मरे हुए शत्रु को अपनी कठोर बातों से फिर मारना उचित नहीं है। यह पापी तो उसी समय मर चुका था, जब लज्जा को तिलांजलि दे लोभ में फंसा और पापियों की सहायता लेकर हित चाहनेवाले सुहृदों की आज्ञा का उल्लंघन करने लगा। विदुर, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, भीष्म और सृंजयों ने अनेकों बार अनुरोध किया; तो भी इसने पाण्डवों को उनकी पैतृक संपत्ति नहीं दी।  अब तो यह न तो मित्र कहने योग्य है, न शत्रु; यह महानीच है। काठ के समान जड़ है। इसे वचनरूपई बाणों से बेधने में कोई लाभ नहीं है। सब लोग रथों पर बैठो, अब छावनी में चलें। श्रीकृष्ण की बात सुनकर सब नरेश अपने _अपने शंख बजाते हुए शिविर की ओर चल दिये। आगे_आगे पाण्डव थे; उनके पीछे सात्यकि, धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, द्रौपदी के पुत्र तथा दूसरे_दूसरे धनुर्धर योद्धा चल रहे थे। सब लोग पर ले दुर्योधन की छावनी में गये, जो राजा के न होने से श्रीहीन दिखायी दे रहे थे। वहां कुछ बूढ़े मंत्री और हिजड़े बैठे हुए थे। बाकी लोग रानियों के साथ राजधानी चले गये थे। पाण्डवों के पहुंचने पर उनकी सेवा में दुर्योधन के सेवक हाथ जोड़े मैले कपड़े पहने उपस्थित हुए। पाण्डव भी दुर्योधन की छावनी में जाकर अपने_अपने रथों से उतर गये। अन्त में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा_'तुम स्वयं उतरकर अपने अक्षय तरकस और धनुष भी रथ से उतार लो, इसके बाद मैं उतरूंगा। ऐसा करने में ही तुम्हारी भलाई है।' अर्जुन ने वैसा ही किया। फिर भगवान ने घोड़ों की बागडोर छोड़ दी और स्वयं भी रथ से उतर पड़े। समस्त प्राणियों के ईश्वर श्रीकृष्ण के उतरते ही उस स्थान पर बैठा हुआ दिव्य कपि अन्तर्धान हो गया; फिर वह विशाल रथ, जो द्रोणाचार्य और कर्ण के दिव्यास्त्रों से दग्ध_सा ही हो चुका था, बिना आग लगाये ही प्रज्वलित हो उठा। उसके सारे उपकरण, जूआ, धूरी, राम और घोड़े _सब जलकर खाक हो गये। वह राख की ढेर होकर धरती पर बिखर गया। यह देख पाण्डवों को बड़ा आश्चर्य हुआ। अर्जुन ने हाथ जोड़कर भगवान् के चरणों में प्रणाम करके पूछा_'गोविन्द ! यह क्या आश्चर्यजनक घटना हो गयी ? एकाएक रथ क्यों जल गया ? यदि मेरे सुनने योग्य हो तो इसका कारण बताइये।' श्रीकृष्ण ने कहा_अर्जुन ! लड़ाई में नाना प्रकार के अस्त्रों के आघात से यह रथ तो पहले ही जल चुका था, सिर्फ मेरे बैठे रहने के कारण भस्म नहीं हुआ था। जब तुम्हारा सारा काम पूरा हो गया है, तब अभी_अभी इस रथ को मैंने छोड़ा है; इसलिये यह अब भष्म हुआ है। यों तो ब्रह्मास्त्र के तेज से यह पहले ही दग्ध हो चुका था। इसके बाद भगवान् ने किंचित् मुस्कराकर राजा युधिष्ठिर को हृदय से लगाया और कहा _'कुन्तीनन्दन ! आपके शत्रु परास्त हुए और आपकी विजय हुई _यह बड़े सौभाग्य की बात है। अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव तथा स्वयं आप इस विनाशकारी संग्राम से कुशलपूर्वक बच गये_यह और भी खुशी की बात है। अब आपको आगे क्या करना है, इसका शीघ्र विचार कीजिये। उपलव्य में जब मैं अर्जुन के साथ आपके पास आया था, उस समय आपने मुझे मधउपर्क देकर कहा था_'कृष्ण ! अर्जुन तुम्हारा भाई और मित्रों, इसी हर आफत से बचाना।' उस दिन मैंने 'हां' कहकर आपकी आज्ञा स्वीकार की थी।आपके उस अर्जुन की मैंने हर तरह से रक्षा की है, यह भाइयों सहित विजयी होकर इस रोमांचकारी संग्राम से छुटकारा पा गया।' श्रीकृष्ण की बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर को रोमांच हो आया, वे कहने लगे_'जनार्दन ! द्रोण और कर्ण ने जिस ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया था, उसे आपके सिवा दूसरा कौन सही सकता था ? वज्र धारी इन्द्र भी उसका सामना नहीं कर सकते थे । आपकी ही कृपा से संशप्तक परास्त हुए हैं। अर्जुन ने इस महासमर में कभी पीठ नहीं दिखायी_ यह भी आपके ही अनुग्रह का फल है। आपके द्वारा अनेकों बार हमारे कार्य सिद्ध हुए हैं। उपलव्य में महर्षि व्यास ने मुझसे पहले ही कहा था_जहां धर्म है, वहां श्रीकृष्ण हैं; और जहां श्रीकृष्ण हैं, वहीं विजय है।' तदनन्तर, उन सभी वीरों ने आपकी छावनी में घुसकर खजाना, रत्नों की ढ़ेरी तथा भंडार_घर पर अधिकार कर लिया। चांदी, सोना, मोती, मणि, अच्छे_अच्छे आभूषण, बढ़िया कम्बल, मऋगचर्म तथा राज्य के बहुत_से सामान उनके हाथ लगे। साथ ही असंख्य दास_दासियों को भी उन्होंने अपने अधीन किया। महाराज ! उस समय आपके अक्षय धन का भण्डार पाकर पाण्डव खुशी के मारे उछल पड़े, किलकारियां मारने लगे। इसके बाद अपने वाहनों को खोलकर वे वहीं विश्राम करने लगे। विश्राम के समय श्रीकृष्ण ने कहा_' आज की रात हमलोगों को अपने मंगल के लिए छावनी के बाहर ही रहना चाहिए।' 'बहुत अच्छा' कहकर पाण्डव श्रीकृष्ण और सात्यकि के साथ छावनी से बाहर निकल गये। उन्होंने परम पवित्र ओघवतई नदी के किनारे वह रात व्यतीत की। उस समय राजा युधिष्ठिर ने समयोचित कर्तव्य का विचार करके कहा_'माधव ! एक बार क्रोध में भरी हुई गान्धारी देवी को शान्त करने के लिये आपको हस्तिनापुर जाना चाहिये, यही उचित  जान पड़ता है।'


Saturday 14 October 2023

क्रोध में भरे हुए बलराम को श्रीकृष्ण का समझाना और युधिष्ठिर के साथ श्रीकृष्ण की तथा भीमसैन की बातचीत


धृतराष्ट्र ने पूछा_संजय ! जब राजा दुर्योधन अधर्मपूर्वक मारा गया, उस समय बलभद्रजी ने क्या कहा ? वे तो गदायुद्ध के विशेषज्ञ हैं, यह अन्याय देखकर चुप न रहे होंगे; अतः उन्होंने यदि कुछ किया हो तो बताओ। संजय ने कहा_महाराज ! भीमसेन ने आपके पुत्र की जांघों में प्रहार किया_यह देख महाबली बलरामजी को बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने सब राजाओं के बीच अपना हाथ ऊपर उठाकर भयंकर आर्तनाद करते हुए कहा_"भीमसेन ! तुम्हें धिक्कार है ! धिक्कार है !! बड़े अफसोस की बात है कि इस युद्ध में नाभि के नीचे के अंग में गदा का प्रहार किया गया। आज भीम ने जैसा अन्याय किया है, वह गदायुद्ध में पहले कभी नहीं देखा गया। शास्त्र ने यह निर्णय कर दिया है कि 'गदायुद्ध में नाभि से नीचे नहीं प्रहार करना चाहिये।' किन्तु यह तो मूर्ख है, शास्त्र को बिलकुल नहीं जानता, इसलिये मनमाना वर्ताव करता है।" इसके बाद उन्होंने दुर्योधन की ओर दृष्टिपात किया, उसकी दशा देख उनकी आंखें क्रोध से लाल हो गयीं; वे फिर कहने लगे_'कृष्ण ! दुर्योधन मेरे समान बलवान है, इसकी समानता करनेवाला कोई योद्धा नहीं है। आज अन्याय करके केवल दुर्योधन ही नहीं गिराया गया है, मेरा भी अपमान किया गया है। शरणागत की दुर्बलता देखकर शरण देनेवाले का तिरस्कार किया जा रहा है।' यह कहकर वे अपना हल ऊपर को उठाया भीमसेन की ओर दौड़े। यह देख श्रीकृष्ण ने बड़ी विनती और बड़े प्रयत्न के साथ अपनी दोनों भुजाओं से बलरामजी को पकड़ लिया और उन्हें शान्त करते हुए कहा_"भैया ! अपनी उन्नति छः प्रकार की होती है _अपनी वृद्धि और शत्रु की हानि, अपने मित्र की वृद्धि और शत्रु के मित्र की हानि। अपने या मित्र को जब विपरीत दशा आ घेरती है, तो मन में ग्लानि होती है ही। आप जानते हैं पाण्डव हमलोगों के स्वाभाविक मित्र हैं; ये विशुद्ध पुरुषार्थ का भरोसा रखनेवाले हैं, बुआ के लड़के होने के कारण हर तरह से अपने हैं। शत्रुओं ने कपटपूर्ण वर्ताव करके पहले इन्हें बहुत कष्ट पहुंचाया है। सभामवन में भीम ने यह प्रतिज्ञा की थी कि 'मैं अपनी गदा से दुर्योधन की जांघें तोड़ डालूंगा।' प्रतिज्ञा पालन क्षत्रिय के लिये धर्म है और भीम ने उसी का पालन किया है। महर्षि मैत्रेय ने भी दुर्योधन को यह शाप दिया था कि 'भीम अपनी गदा से तेरी जांघें तोड़ डालेगा।' इस प्रकार यही होनहार थी, मैं भीम का इसमें कोई दोष नहीं देखता। इसलिये  आप अपना क्रोध शान्त कीजिये। बुआ और बहन के नाते पाण्डवों के साथ हमलोगों का यौन संबंध भी है; मित्र तो ये हैं ही। अतः इनकी उन्नति में ही हमलोगों की उन्नति है। इसलिये आप क्रोध न कीजिये।" श्रीकृष्ण की बात सुनकर धर्म को जाननेवाले बलदेवजी ने कहा_'सत्पुरुषों ने धर्म का अच्छी तरह आचरण किया है, किन्तु वह अर्थ और काम_इन दो वस्तुओं से संकुचित हो जाता है। अत्यन्त लोभी का अर्थ और अधिक आसक्ति रखनेवाले का काम_ये दोनों ही धर्म को हानि पहुंचाते हैं। जो मनुष्य काम से धर्म और अर्थ को, अर्थ से धर्म और काम को तथा धर्म से काम और अर्थ को हानि न पहुंचाकर धर्म, अर्थ अथवा काम_इन तीनों का सेवन करता है, वहीं अत्यन्त सुख का भागी होता है। भीमसेन ने तो धर्म को हानि पहुंचाकर इन सबको विकृत कर डाला है। श्रीकृष्ण ने कहा_'भैया ! संसार के सबलओग आपको क्रोध रहित और धर्मात्मा समझते हैं; इसलिये शान्त हो जाइये, क्रोध न कीजिये। समझ लीजिये कि कलयुग आ गया। भीम की प्रतिज्ञा को भी भुला न दीजिये। पाण्डवों को वैर और प्रतिज्ञा के ऋण से मुक्त होने दीजिये। संजय कहते हैं_श्रीकृष्ण की बात सुनकर बलदेवजी को बहुत संतोष नहीं हुआ, उन्होंने राजाओं की सभा में फिर से कहा_'धर्मात्मा राजा दुर्योधन को अधर्मपूर्वक मारने के कारण भीमसेन संसार में कपटपूर्ण युद्ध करनेवाला कहा जायगा। दुर्योधन सरलता से युद्ध कर रहा था, उस अवस्था में वह मारा गया है; अतः: वह सनातन सद्गति को प्राप्त करेगा।'  यह कहकर रोहिणीनन्दन बलरामजी द्वारका को चल दिये। उनके चले जाने से पांचाल, वृष्णि तथा पाण्डव वीर उदास हो गये। युधिष्ठिर भी बहुत दुःखी थे, वे नीचे मुंह किये चिंता में मग्न हो रहे थे। उस समय भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा_'धर्मराज ! आप चुप होकर अधर्म का अनुमोदन क्यों कर रहे हैं? दुर्योधन के भाई और सहायक मर चुके हैं, बेचारा बेहोश होकर गिरा हुआ है; ऐसी दशा में भीम इसके मस्तक को पैरों से ठुकरा रहे हैं और आप धर्मज्ञ होकर चुपचाप तमाशा देखते हैं ! क्यों ऐसा हो रहा है ? युधिष्ठिर ने कहा_कृष्ण ! भीमसेन ने क्रोध में भरकर जो इसके मस्तक को पैरों से ठुकराया है, यह मुझे भी अच्छा नहीं लगा है। अपने कुल का संहार हो जाने से मैं खुश नहीं हूं। किंतु क्या करूं ? धृतराष्ट्र के पुत्रों ने सदा ही हमें अपने कपटजाल का शिकार बनाया, कटु वचन सुनाये और वनवास दिया; भीमसेन के हृदय में इन सब बातों के लिये बड़ा दु:ख था, यही सोचकर मैंने उसके इस काम की उपेक्षा की है। धर्मराज के ऐसा कहने पर श्रीकृष्ण ने बड़े कष्ट से कहा_'अच्छा, ऐसा ही सही।' राजन् ! आपके पुत्र को मारकर भीमसेन बहुत प्रसन्न हुए थे। उन्होंने युधिष्ठिर के सामने खड़े हो हाथ जोड़कर प्रणाम किया और विजयोल्लास के साथ कहा _'महाराज ! आज यह संपूर्ण पृथ्वी आपकी हो गयी। इसके कांटे दूर हुए तथा यह मंगलमयी हो गयी। अब आप अपने धर्म का पालन करते हुए इसका शासन कीजिये। कपट से प्रेम करनेवाले जिस मनुष्य ने कपट करके ही वैर की नींव डाली थी, वह मारा जाकर पृथ्वी पर पड़ा हुआ है। जिन्होंने आपसे कटु वचन कहे थे वे दु:शासन, कर्ण तथा शकुनि भी नष्ट हो गये। अब सारा राज्य आपका है।' युधिष्ठिर ने कहा_सौभाग्य की बात है कि राजा दुर्योधन मारा गया और आपस के वैर का अंत हो गया। श्रीकृष्ण की सलाह के अनुसार चलकर हमने पृथ्वी पर विजय पायी। अच्छा हुआ कि तुम माता की ऋण से उऋण हो गये और अपना क्रोध भी तुमने शान्त कर लिया। शत्रु मरा और तुम्हारी विजय हुई, यह कितने आनन्द की बात है !


Wednesday 11 October 2023

भीम के प्रहार से दुर्योधन की जंघाओं का टूटना, भीमद्वारा दुर्योधन का तिरस्कार और युधिष्ठिर का विलाप

संजय कहते हैं_भगवान् श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर अर्जुन भीमसेन के देखते _देखते अपनी बायीं जंघा ठोंकने लगे। भीम ने उनका संकेत समझ लिया। फिर वे गदा लिये अनेकों प्रकार के पैंतरे बदलते हुए रणभूमि में विचरने लगे। उस समय शत्रु को चकमा देने के लिये दायें_बायें तथा वक्रगति से घूम रहे थे। इस तरह आपका पुत्र भी भीम को मार डालने की इच्छा से बड़ी फुर्ती के साथ तरह_तरह की चालें दिखा रहा था। दोनों ही चन्दन और अगर से चर्चित हुई अपनी भयंकर गदाएं  घुमाते हुए आपस के वैर का अंत कर डालना चाहते थे। जब उनकी गदाएं टकरातीं तो आग की लपटें निकलने लगती थीं। और उनसे वज्रपात के समान भयंकर आवाज होती थी। लड़ते_लड़ते जब तक जाते तो दोनों ही घड़ी भर विश्राम करते और फिर गदा उठाकर एक_दूसरे से भिड़ जाते थे। गदा के भयंकर प्रहार से दोनो के शरीर जर्जर हो रहे थे, दोनों ही खून में लथपथ थे। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो हिमालय पर ढ़ाक के दो वृक्ष फूले हुए हों। अर्जुन ने भीम को जो इशारा किया, उसे दुर्योधन भी कुछ_कुछ समझ गया था; इसलिये वह सहसा उनके पास से दूर हट गया। जब वह निकट था, उसी समय भीम ने बड़े वेग से उसपर गदा चलायी; किन्तु वह अपने स्थान से एकाएक हट गया, इसलिये गदा उसे न लगकर जमीन पर आ पड़ी। इस करार उनके प्रहार को बचाकर दुर्योधन ने भीम पर स्वयं गदा का वार किया। भीमसेन को गहरी चोट लगी। उनके शरीर से खून की धारा बह चली और वे मूर्छित_से हो गये। किंतु दुर्योधन को उनकी मूर्छा का पता न चला; क्योंकि भीम अत्यन्त वेदना सहकर भी अपने शरीर को संभाले हुए थे। दुर्योधन ने यहीं समझा कि अब भीमसेन प्रहार करेंगे, इसलिये उसने उनके ऊपर पुनः प्रहार नहीं किया, वह अपने बचाव की फ़िक्र में पड़ गया। थोड़ी ही देर में जब भीमसेन पूरी तरह संभल गये तो उन्होंने दुर्योधन पर बड़े वेग से आक्रमण किया। उन्हें क्रोध में भरकर आते देख दुर्योधन ने पुनः उनके प्रहार को व्यर्थ करने का विचार किया और अवस्थान नामक दांव खेल भीम को धोखे में डालने के लिये ऊपर उछल जाना चाहा। भीमसेन उसका मनोभाव ताड़ गये थे; इसलिये सिंह के समान गर्जना करके उसके ऊपर टूट पड़े। अब वह कूदना ही चाहता था कि भीम ने उसकी जांघों पर बड़े वेग से गदा मारी। उस वज्र सरीखी गदा ने आपके पुत्र की दोनों जांघें तोड़ डालीं और वह आर्तनाद करता हुआ जमीन पर गिर पड़ा। जो एक दिन संपूर्ण राजाओं का राजा था, उस वीरवर दुर्योधन के गिरते ही बड़े जोर की आंधी चली, बिजली कौंधने लगी। धूल की वर्षा शुरु हो गयी तथा वृक्षों और पर्वतओंसहइत सारी पृथ्वी कांप उठी। धूल के साथ रक्त की वर्षा भी होने लगी। आकाश में यक्षों, राक्षसों तथा पिशाचों कोलाहल सुनाई देने लगा। बहुत _से हाथ पैरों वाले भयंकर कबंध नाचने लगे। कुओं और तालाबों में खून उफनने लगा। नदियां अपने उद्गम की ओर बहने लगीं। स्त्रियों में पुरुषों का तथा पुरुषों में स्त्रियों का_सा भाव आ गया। इस करार नाना प्रकार के अद्भुत उत्पात दिखाई देने लगे। देवता, गन्धर्व, अप्सराएं, सिद्ध तथा चारण लोग आपके दोनों पुत्रों के अद्भुत संग्राम की चर्चा करते हुए जहां से आये थे वहीं चले गये।
संजय कहते हैं_महाराज ! आपके पुत्र को इस प्रकार भूमि पर पड़ा देख पाण्डवों तथा सोमकों को बड़ी प्रसन्नता हुई। तदनन्तर, प्रतापी भीमसेन दुर्योधन के पास जाकर बोले_'अरे मूर्ख ! पहले भरी सभा में तूने जो एकवस्त्रा द्रौपदी की हंसी उड़ाई थी और हमलोगों को बैल कहकर अपमानित किया था,उस उपहास का फल आज भोग ले।' यों कहकर उन्होंने बातें पैर से दुर्योधन के मुकुट को ठुकरा दिया और उसके सिर को भी पैर से दबाकर रगड़ डाला। उसके बाद जो कुछ-कुछ कहा, वह भी सुनिये_'हमलोगों ने शत्रुओं कोअ दबाने के लिये छल_कपट से काम नहीं लिया, आग में जलाकर कोशिश नहीं की, न जुआ खेला, न कोई धोखाधड़ी की, न जुआ खेला, न और कोई धोखा_धड़ी; केवल अपने बाहुबल के भरोसे दुश्मनों को पछाड़ा है। ऐसा कहकर भीमसेन खूब हंसे; फिर युधिष्ठिर, श्रीकृष्ण, अर्जुन, नकुल, सहदेव तथा सृंजय से धीरे धीरे बोले_'आपलोग देखते हैं न ? जो रजस्वला अवस्था में द्रौपदी को सभा के भीतर घसीट लाए थे और जिन्होंने उसे नंगी करने का प्रयत्न किया था, वे धृतराष्ट्र के सभी पुत्र पाण्डवों के हाथ से मारे गये। यह द्रुपद कुमारी की तपस्या का फल है। जिन्होंने हमें तेलहीन तिल के समान सारहीन एवं नपुंसक कहा था, उन सबको सेवकों तथा सम्बन्धियोंसहित मौर के घाट उतार दिया गया।' इसके बाद भीम ने दुर्योधन के कंधे पर रखी हुई गदा ले ली और कपटी कहकर पुनः उसके मस्तक को अपने बायें पैर से दबाया। किन्तु उनके इस वर्ताव को धर्मात्मा सोमकों ने पसंद नहीं किया। उस समय धर्मराज युधिष्ठिर ने भी उनसे कहा_'भैया भीम ! तुमने अपने वैर का बदला ले लिया, तुम्हारी प्रतिज्ञा भी पूरी हो गयी; अब तो शान्त हो जाओ। दुर्योधन के मस्तक को पैर से न ठुकराओ, धर्म का उल्लंघन न करो। एक दिन यह ग्यारह अक्षौहिणी सेना का स्वामी था और अपना कुटुम्बी रहा है; अतः पैर से इसका स्पर्श नहीं करना चाहिये। इसके भाई और मंत्री मारे गये, सेना भी नष्ट हो गयी और स्वयं भी युद्ध में मारा गया; अतः यह सब प्रकार से सोचनीय है, दया का पात्र है, इसकी हंसी नहीं उड़ानी चाहिये। सोचो तो, इसकी संतानें नष्ट हो गयीं, अब इसे पिण्ड देनेवाला भी कोई न रहा। इसके सिवा अपना भाई ही तो है, क्या इसके साथ यह वर्ताव उचित था ? इसे पैरों से ठुकराकर तुमने न्याय नहीं किया है। भीमसेन ! तुम्हें तो लोग धार्मिक बताते हैं, फिर तुम क्यों राजा का अपमान करते हो ?'भीमसेन से ऐसा कहकर दुर्योधन युधिष्ठिर के निकट गये और बहुत दु:ख प्रगट करते हुए गद्गद् कण्ठ से बोले_'तात ! तुम हमलोगों पर क्रोध न करना, अपने लिये भी शोक न करना; क्योंकि सब प्राणियों को अपने पूर्वजन्म में किये हुए कर्मों का भयंकर परिणाम भोगना पड़ता है। तुमने अपने ही अपराध से इतना बड़ा संकट मोर लिया है। लोभ, मद और मूर्खता के कारण मित्रों, भाइयों, चाचाओं, पुत्रों तथा पौत्रों को मरवाकर अन्त में तुम स्वयं भी मौत के मुख में जा पड़े। तुम्हारे ही अपराध से हमें तुम्हारे महारथी भाइयों तथा अन्य कुटुम्बी का वध करना पड़ा है। वास्तव में प्रारब्ध को कोई टाल नहीं सकता। भैया ! तुम्हें अपने आत्मा के कल्याण के विषय में शोक नहीं करना चाहिये; तुम्हारी मृत्यु इतनी उत्तम हुई है, जिसकी दूसरे लोग इच्छा करते हैं। इस समय तो हम ही लोग सब तरह से शोक के योग्य हो गये; क्योंकि अब हमें अपने प्यारे बन्धुओं के वियोग में बड़े दुःख के साथ जीवन बिताना होगा। जब भाइयों, पुत्रों और पौत्रों की विधवा स्त्रियां शोक में डूबीं हुई हमारे सामने आयेंगी, उस समय हम कैसे उनकी ओर देख सकेंगे ? राजन् ! तुमने तो अकेले स्वर्ग की राह ली है, निश्चय ही तुम्हें स्वर्ग में स्थान मिलेगा।' यह कहकर धर्मपुत्र युधिष्ठिर शोक से आतुर हो गये और लम्बी_लम्बी सांसें भरते हुए देर तक विलाप करते रहे।