Tuesday 19 November 2019

घतोत्कच के हाथ से अलम्बुष ( द्वितीय ) वध तथा कर्ण और घतोत्कच का घोर युद्ध

संजय कहते हैं___महाराज ! दुर्योधन ने जब देखा कि घतोत्कच कर्ण का वध करने की इच्छा से उसके रथ की ओर बढ़ा आ रहा है, तो दुःशासन से कहा___’भाई ! संग्राम में कर्ण को पराक्रम करते देख यह राक्षस उसपर बड़े वेग से धावा कर रहा है। तुम बड़ी भारी सेना के साथ वहाँ जाकर इसे रोको ओर कर्ण की रक्षा करो।‘  दुर्योधन यह कह ही रहा था कि जटासुर का पुत्र अलम्बुष उसके पास आकर बोला___' दुर्योधन ! यदि तुम आज्ञा दो तो तुम्हारे प्रसिद्ध शत्रुओं को उनके अनुगामियों सहित मार डालना चाहता हूँ। मेरे पिता का नाम था जटासुर। वे समस्त राक्षसों के नेता थे। अभी कुछ ही दिन हुए, इन नीच पाण्डवों ने उन्हें मार डाला है। मैं इसका बदला चुकाना चाहता हूँ। तुम इस काम के लिये मुझे आज्ञा दो।‘ यह सुनकर दुर्योधन को बड़ी प्रसन्नता हुई, उसने कहा___’अलम्बुष ! शत्रुओं को जीतने के लिये तो द्रोण और कर्ण आदि के साथ मैं ही बहुत हूँ। तुम तो मेरी आज्ञा से क्रूर कर्म करनेवाले घतोत्कच का ही नाश करो।‘ ‘तथास्तु’ कहकर अलम्बुष ने घतोत्कच को युद्ध के लिये ललकारा और उसके ऊपर नाना प्रकार के शस्त्रों की वर्षा आरम्भ कर दी। किन्तु घतोत्कच अकेला ही अलम्बुष, कर्ण और कौरवों की दुस्तर सेना को रौंदने लगा। उसकी माया या बल देखकर अलम्बुष ने घतोत्कच पर नाना प्रकार के सायक समूहों की झड़ी लगा दी और अपने बाणों से पाण्डव_ सेना को मार भगाया। इसी प्रकार घतोत्कच के बाणों से क्षत_विक्षत होकर आपकी सेना भी हजारों मशालें फेंक_ फेंककर भागने लगीं। तदनन्तर अलम्बुष ने क्रोध में भरकर घतोत्कच को दस बाण मारे। उसने भी भयंकर गर्जना करते हुए अलम्बुष के घोड़ों और सारथि को मारकर उसके आयुधों के भी टुकड़े_टुकड़े कर डाले। फिर तो अलम्बुष क्रोध में भर गया और उसने घतोत्कच को बड़े जोर से मुक्का मारा। मुक्के की चोट से घतोत्कच काँप उठा। फिर उसने भी अलम्बुष को मुक्के से मारा और उसे भूमि पर पटककर दोनों कोहनियों से रगड़ने लगा। अलम्बुष ने किसी प्रकार घतोत्कच के चंगुल से छुड़ाया और उसे भी जमीन पर पटककर रोष के साथ रगड़ना आरम्भ किया। इस प्रकार दोनों महाकाय राक्षस गरजते हुए लड़ रहे थे। उनमें बड़ा रोमांचकारी युद्ध हो रहा था। वे दोनों बड़े पराक्रमी और मायावी थे और माया में एक_दूसरे से अपनी विशेषता दिखाते हुए युद्ध कर रहे थे। एक आग बनकर प्रगट होता तो दूसरा समुद्र। एक को नाग बनते देख दूसरा गरुड़ हो जाता। इसी प्रकार कभी मेघ और आँधी, कभी पर्वत और वज्र तथा कभी हाथी और सिंह बनकर प्रगट होते थे। एक सूर्य का रूप बनाता तो दूसरा राहू बनकर उसे ग्रसने आ जाता। इसी तरह एक_दूसरे को मार डालने की इच्छा से दोनों ही सैकड़ों मायाओं की सृष्टि करते थे। उनके युद्ध का ढंग बड़ा ही विचित्र था। वे परिघ, गदा, प्रास, मुद्गर, पट्टिश, मूसल और पर्वतशिखरों से परस्पर प्रहार करते थे। उनकी मायाशक्ति बहुत बड़ी थी, इसलिये वे कभी दो घुड़सवार बनकर लड़ते तो कभी दो हाथीसवारों के रूप में युद्ध करते थे। कभी दो पैदलों के रूप में ही लड़ते देखे जाते थे। इसी बीच अलम्बुष को मार डालने की इच्छा से घतोत्कच ऊपर को उछला और बाज की भाँति झपटकर उसने अलम्बुष को पकड़ लिया। फिर उसे ऊपर को उठाकर भूमि पर पटक दिया और तलवार निकालकर उसके भयंकर मस्तक को काट डाला। खून से भरे हुए उस मस्तक को लिये घतोत्कच दुर्योधन के पास गया और उसे उसके रथ में फेंककर बोला___’यह है तेरा सहायक बन्धु, इसे मैंने मार डाला। देख लिया न इसका पराक्रम ?  अब तुम अपनी तथा कर्ण की भी यही दशा देखेगा।‘ यह कहकर घतोत्कच तीखे बाणों की वर्षा करता हुआ कर्ण की ओर चला। उस समय मनुष्य और राक्षस में अत्यन्त भयंकर और आश्चर्यजनक युद्ध होने लगा। धृतराष्ट्र ने पूछा___ संजय ! आधी रात के समय जब कर्ण और घतोत्कच का सामना हुआ, उस समय उन दोनों में किस प्रकार युद्ध हुआ ? उस राक्षस का रूप कैसा था ? उसके रथ, घोड़े और अस्त्र_ शस्त्र कैसे थे ? संजय ने कहा___घतोत्कच का शरीर बहुत बड़ा था, उसका मुँह ताँबे जैसा और आँखें सुर्ख लाल रंग की थीं।  पेट धँसा हुआ, सिर के बाल ऊपर की ओर उठे हुए, दाढ़ी_ मूँछ काली, कान खूँटी जैसे, ठोढ़ी बड़ी और मुँह का छेद कान तक फैला हुआ था। दाढें तीखी और विकराल थीं। जीभ और ओठ ताँबे जैसे लाल_लाल और लम्बे थे। भौंहें बड़ी_ बड़ी, नाक मोटी, शरीर का रंग काला, कण्ठ लाल और देह पहाड़ जैसी भयंकर थी। भुजाएँ विशाल थीं, मस्तक का घेरा बड़ा था। उसकी आकृति बेडौल थी, शरीर का चमड़ा कड़ा था। सिर का ऊपरी भाग केवल बढ़ा हुआ माँस का पिंड था, उसपर बाल नहीं उगे थे। उसकी नाभि छिपी हुई और नितंब का भाग मोटा था। भुजाओं में भुजबंद आदि आभूषण शोभा पाते थे। मस्तक पर सोने का चमचमाता हुआ मुकुट, कानों में कुण्डल और गले में सुवर्णमयी माला थी। उसने काँटे का बना हुआ चमकता हुआ कवच पहन रखा था। उसका रथ भी बहुत बड़ा था, उसपर चारों ओर से पीछे का चमड़ा मढ़ा हुआ था, उसकी लम्बाई और चौड़ाई चार सौ हाथ थी। सभी प्रकार के श्रेष्ठ आयुध उस पर रखे हुए थे। उसके ऊपर ध्वजा थी।  आठ पहियों से वह रथ चलता था, उसकी घरघराहट मेघ की गम्भीर गर्जना को  मार करती थी। उस रथ में सौ घोड़े जुते हुए थे, जो बड़े ही भयंकर, इच्छानुसार रूप बनानेवाले तथा वेग से चलनेवाले थे। विरूपाक्क्ष नाम का राक्षस उसका सारथि था, जिसके मुख और पाण्डवों से दीप्ति बरस रहा थी। वह घोड़ों की बागडोर पकड़कर उन्हें काबू में रखता था। ऐसे रथ पर सवार घतोत्कच को आते देख कर्ण ने बड़े अभिमान के साथ आगे बढ़कर तुरंत ही उसे रोका। फिर दोनों ने अत्यंत वेगशाली धनुष को लेकर एक_दूसरे को घायल करते हुए बाणों से आच्छादित कर दिया। दोनों ही दोनो को शक्ति और सायकों से घायल करने लगे। वह रात्रियुद्ध इतनी देर तक चलता रहा, मानो एक वर्ष बीत गया हो। इतने में ही कर्ण ने दिव्य अस्त्रों को प्रकट किया___यह देख घतोत्कच ने राक्षसी माया फैलायी। उस समय राक्षसों की बहुत बड़ी सेना प्रकट हुई; किसी के हाथ में शूल था तो किसी के हाथ मे मुगदर। किसी ने शिमला की चट्टानें ले रखी थीं और किसी ने वृक्ष। उस सेना से घिरा हुआ घतोत्कच जब महान् धनुष लेकर आगे बढ़ा तो उसे देखकर संपूर्ण नरेश व्यथित हो उठे।इसी समय घतोत्कच ने भीषण सिंहनाद किया, उसे सुनकर हाथी डर के मारे मूत्र त्यागनेलगे। मनुष्यों को तो बड़ी व्यथा हुई। तदनन्तर सब ओर पत्थरों की भयंकर वर्षा होने लगी। आधी रात के समय राक्षसों का बल बढ़ा हुआ था; उनके छोड़े हुए लोहे के चक्र, भुशुण्डी, शक्ति, तोमर, शूल शतध्नी और पट्टिश आदि अस्त्र_शस्त्रों की वृष्टि हो रही थी। महाराज ! उस अत्यंत उग्र और भयंकर युद्ध देखकर आपके पुत्र और सैनिक व्यथित होकर रणभूमि से भाग चले। केवल अभिमानी कर्ण ही वहाँ डटा रहा, उसे तनिक भी व्यथा नहीं हुई। उसने अपने बाणों से घतोत्कच की रची हुई माया की संहार कर डाला। जब माया नष्ट हो गयी तो घतोत्कच बड़े अमर्ष में भरकर घोर बाणों का प्रहार करने लगा। वे बाण कर्ण का शरीर छेदकर पृथ्वी में समा गये। तब कर्ण ने दस बाण मारकर घतोत्कच को बींध डाला। उनसे उसके मर्मस्थानों को बड़ी चोट पहुँची और कुपित होकर उसने एक दिव्य चक्र हाथ में लिया तथा उसे कर्ण के ऊपर दे मारा। परंतु कर्ण के बाणों से टुकड़े_टुकड़े होकर वह चक्र भाग्यहीन के संकल्प की भाँति सफल हुए बिना ही नष्ट हो गया। अब तो घतोत्कच के क्रोध का ठिकाना न रहा, उसने बाणों की  वर्षा करके कर्ण को ढक दिया। सूतपुत्र ने भी अपने सायकों से तुरंत ही घतोत्कच के रथ को आच्छादित कर दिया। तब घतोत्कच ने कर्ण को एक गदा घुमाकर फेंकी, किन्तु कर्ण ने उसे बाणों से काट गिराया। यह देख घतोत्कच उड़कर आकाश में चला गया और वहाँ से कर्ण पर वृक्षों की वर्षा करने लगा। कर्ण भी नीचे से ही बाण छोड़कर उस मायावी राक्षस को बींधने लगा। उसने राक्षस के सभी घोड़ों को मारकर उसके रथ के भी सैकड़ों टुकड़े कर डाले। उस समय घतोत्कच के शरीर में दो अंगुल भी ऐसा स्थान नहीं बचा था, जहाँ बाण न लगा हो। उसने अपने दिव्य अस्त्र से कर्ण के दिव्यास्त्रों को काट डाला और उसके साथ मायापूर्वक युद्ध करने लगा। वह आकाश में अदृश्य होकर बाण छोड़ रहा था। उसके बाण भी दिखायी नहीं देते थे। वह माया से सबको मोहित_सा करता हुआ विचरने लगा और माया के ही बल से भयंकर एवं अशुभ मुँह बनाकर कर्ण के दिव्य अस्त्र निगल गया। फिर वह धैर्यहीन एवं उत्साह_ शून्य_सा होकर सैकड़ों टुकड़ों में कटकर गिरता दिखायी देने लगा। इससे उसे मरा हुआ समझकर कौरवों के प्रमुख वीर गर्जना करने लगे। इतने में ही वह कई नये_ नये शरीर धारण कर सभी दिशाओं में दीखने लगा। देखते_ ही_देखते उसके सैकडों मस्तक और सैकड़ों पेट हो गये। फिर शरीर बढ़ाकर वह मैनाक पर्वत_सा दीखने लगा। थोड़ी ही देर में उसकी शकल अंगूठे के बराबर हो गयी। फिर समुद्र के उत्ताल तरंगों की भाँति  उछलकर वह कभी ऊपर और कभी इधर_उधर होने लगा। एक ही क्षण में पृथ्वी फाड़कर पानी में डूब जाता और पुनः ऊपर आकर अन्यत्र दिखायी पड़ता था। इसके बाद आकाश से उतरकर वह पुनः अपने सुवर्णमण्डित रथ पर जा बैठा। फिर माया के ही प्रभाव से पृथ्वी आकाश और दिशाओं में घूमकर कवच से सुसज्जित होकर कर्ण के रथ के पास आकर बोला___’ सूतपुत्र ! खड़ा रहना, अब तू मुझसे जीवित बचकर कहाँ जायगा ? आज मैं इस समरांगण में तेरा युद्ध का शौक पूरा कर दूँगा।‘ ऐसा कहकर वह राक्षस पुनः आकाश में उड़ गया और कर्ण के ऊपर रथ के  धूरे के समान स्थूल बाणों की वर्षा करने लगा। उसकी बाणवर्षा को दूर से ही कर्ण ने काट गिराया।  इस प्रकार अपनी माया को, नष्ट हुई देख घतोत्कच पुनः अदृश्य होकर नूतन माया की सृष्टि करने लगा। एक ही क्षण में वह एक बहुत ऊँचा पर्वत बन गया और उससे पानी के झरने की भाँति शूल, प्रास, तलवार और मूसल आदि अस्त्र_ शस्त्रों का वृष्टि होने लगी। किन्तु कर्ण को इससे तनिक भी भय नहीं हुआ। उसने मुस्कराते हुए दिव्य अस्त्र प्रकट किया। उस अस्त्र का स्पर्श होते ही उस राक्षसराज का नाम_ निशान भी नहीं रह गया। इतने में ही वह राक्षस इन्द्रधनुष सहित मेघ बनकर उमड़ आया और सूतपुत्र पर पत्थरों की वर्षा करने लगा; किन्तु कर्ण ने वायव्यास्त्र का संधान करके उस काले मेघ को,फौरन उड़ा दिया। इतना ही नहीं, उसने सायकसमूहों से समस्त दिशाओं को,आच्छादित करके घतोत्कच के चलाये हुए संपूर्ण अस्त्रों का नाश कर डाला। तब भीमसेन के पुत्र ने कर्ण के सामने महामाया प्रकट की। कर्ण ने देखा, घतोत्कच रथ पर बैठा आ रहा है। उसके साथ राक्षसों की बहुत बड़ी सेना है। राक्षसों में कुछ हाथी पर हैं, कुछ रथ पर हैं और कुछ घोड़ों पर सवार हैं। उनके पास नाना प्रकार के अस्त्र_ शस्त्र और कवच दिखायी देते हैं।
घतोत्कच ने निकट आते ही कर्ण को पाँच बाण डालकर बींध डाला और सब राजाओं को भयभीत करता हुआ भैरव स्वर से गर्जना करने लगा। फिर उसने आंजलिक नामक बाण के प्रहार से कर्ण के हाथ का धनुष काट डाला। तब कर्ण द्वारा दूसरा धनुष हाथ में ले आकाशचारी राक्षसों की ओर बाण मारने लगा। इससे उन्हें बड़ी पीड़ा हुई। घोड़े, सारथि तथा हाथी के सहित संपूर्ण राक्षस कर्ण के हाथ से मारे गये। उस समय पाण्डवपक्ष के हजारों क्षत्रिय योद्धाओं में राक्षस घतोत्कच को छोड़ दूसरा कोई कर्ण की ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सकता था। घतोत्कच क्रोध से जल उठा, उसकी आँखों से चिनगारियाँ छूटने लगीं। उसने हाथ_ से_हाथ मलकर ओठ को दाँतो तले बजाया और पुनः माया के बल से दूसरे रथ का निर्माण किया। उसमें हाथी के समान मोटे_ ताजे तथा पिशाचों जैसे मुखवाले गदहे जोते गये। उस रथ पर बैठकर वह कर्ण के सामने गया और उसके ऊपर एक भयंकर अशनि का प्रहार किया। कर्ण ने अपना धनुष रथ पर रख दिया और कूदकर उस अशनि को हाथ से पकड़ लिया। फिर उसने उसे घतोत्कच पर ही चला दिया। घतोत्कच तो रथ से कूदकर दूर जा खड़ा हुआ किन्तु उस अशनि के तेज से गदहे, सारथि तथा ध्वजासहित उसका रथ जलकर भस्म हो गया। कर्ण का यह पराक्रम देखकर देवता भी आश्चर्य करने लगे। संपूर्ण प्राणियों मे उसकी प्रशंसा की। पूर्वोक्त पराक्रम करके कर्ण अपने रथ पर जा बैठा और पुनः राक्षससेना पर बाण बरसाने लगा। अब घतोत्कच। पुनः अदृश्य हो गया और माया से कर्ण के दिव्यास्त्रों का नाश करने लगा। फिर भी कर्ण ने अपना धैर्य नहीं खोया। उस राक्षस के साथ युद्ध जारी ही रखा।
तदनन्तर क्रोध में भरे हुए घतोत्कच ने अपने अनेकों स्वरूप बनाये और कौरव महारथियों को भयभीत कर दिया। तत्पश्चात् सिंह, व्याघ्र, लकड़बग्घे, आग के समान लपलपाती हुई जीभवाले साँप और लोहमय चोंचवाले पक्षी सब दिशाओं से कौरवसेना पर टूट पड़े। घतोत्कच तो कर्ण के बाणों से घायल होकर अन्तर्धान हो गया; परन्तु मायामय पिशाच, राक्षस, यातुधान, कुत्ते और भयंकर मुखवाले भेड़िये सब ओर से प्रकट होकर कर्ण  की ओर इस प्रकार दौड़े मानो उसे खा जायँगे और खून से रंगे हुए भयंकर अस्त्र_ शस्त्र लेकर कठोर बातें सुनाते हुए उसे डराने लगे। कर्ण ने उनमें से प्रत्येक को कई_कई बाण मारकर बींध डाला और दिव्य अस्त्र से उस राक्षसी माया का संहार करके घतोत्कच के घोड़ों को भी यमलोक भेज दिया। इस प्रकार पुनः अपनी माया का नाश हो जाने पर ‘अभी तुझे मौत के मुख में भेजता हूँ’ ऐसा कहकर घतोत्कच फिर अन्तर्धान हो गया।


द्रोण और कर्ण द्वारा पाण्डवसेना का संहार तथा भयभीत हुए युधिष्ठिर की बात से श्रीकृष्ण का घतोत्कच को कर्ण से युद्ध करने के लिये भेजना

संजय कहते हैं___ महाराज ! जब दुर्योधन ने देखा कि पाण्डव मेरी सेना का विध्वंस कर रहे हैं और वह भागी जा रही है तो उसे बड़ा क्रोध हुआ। वह सहसा द्रोणाचार्य और कर्ण के पास पहुँचा और अमर्ष में भरकर कहने लगा___'इस समय पाण्डवों की सेना मेरी वाहिनी का विध्वंस कर रही है और आप दोनों उसे जीतने में समर्थ होकर भी असमर्थ की भाँति तमाशा देखते हैं; यदि आप मुझे त्याग देना न चाहते हों तो अब भी अपने योग्य पराक्रम करके युद्ध कीजिये।‘ यह उपालम्भ सुनकर वे दोनों वीर पाण्डवों का सामना करने के लिये बढ़े। इसी प्रकार पाण्डव भी अपनी सेना के साथ बारम्बार गर्जना करते हुए इन दोनों पर टूट पड़े। उस समय द्रोणाचार्य ने क्रोध में भरकर दस बाणों से सात्यकि को बींध डाला। साथ ही कर्ण ने दस, आपके पुत्र ने सात, वृषसेन ने दस और शकुनि ने सात बाण मारे। उधर द्रोणाचार्य को पाण्डवसेना का संहार करते देख सोमक क्षत्रिय तुरंत वहाँ पहुँचे और सब ओर से द्रोणाचार्य पर बाण बरसाने लगे। आचार्य द्रोण भी चारों ओर बाणों की झड़ी लगाकर क्षत्रियों के प्राण लेने लगे। उनकी मार से पीड़ित हो पांचाल योद्धा एक_दूसरे की ओर देखकर आर्त चित्कार मचा रहे थे। कोई पिता को छोड़कर भागे, कोई पुत्रों को। किसी को अपने सगे भाई, मामा और भानजों की सुध भी न रही। मित्र, सम्बन्धी और बन्धु_बान्धवों को छोड़_छोड़कर सब लोग तेजी से भाग चले। सबको अपने_ अपने प्राणों की लगी हुई थी। श्रीकृष्ण, अर्जुन, भीमसेन, युधिष्ठिर तथा नकुल_सहदेव देखते ही रह गये और उनकी सेना द्रोण के प्रहार से पीड़ित हो जलती हुई हजारों मशालें फेंक_ फेंककर उस रात में भाग चलीं। सब ओर अंधकार का राज्य था। कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था, केवल कौरवसेना के दीपकों के प्रकाश से शत्रु भागते दिखायी देते थे। महारथी द्रोण और कर्ण भागती हुई सेना को भी पीछे से बाण बरसाकर मार रहे थे। यह सब देखकर भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा___’अर्जुन ! द्रोण और कर्ण ने धृष्टधुम्न और सात्यकि को तथा संपूर्ण पांचाल योद्धाओं को भी अपने बाणों से अत्यंत घायल कर डाला है। इनकी बाणवर्षा से तुम्हारे महारथियों के पैर उखड़ गये हैं; अब सेना रुकने से भी नहीं रुकती।‘ अर्जुन से इस प्रकार कहने के पश्चात् भगवान् कृष्ण और दोनों ने सैनिकों से कहा___ ‘पाण्डवसेना के शूरवीरों ! तुम भयभीत होकर भागो मत। भय को अपने हृदय से निकाल दो। हमलोग अभी व्यूह रचाकर द्रोण और कर्ण को दण्ड देने का प्रयत्न करते हैं। श्रीकृष्ण और अर्जुन इस प्रकार बात कर ही रहे थे कि भयंकर कर्म करनेवाले भीम अपनी सेना को लौटाकर शीघ्र ही वहाँ आ पहुँचे। उन्हें आते देख जनार्दन ने पुनः अर्जुन से कहा___’पाण्डुनन्दन ! यह देखो, सोमक और पांचाल योद्धाओं को साथ लिये भीमसेन बड़े वेग से द्रोण और कर्ण की ओर बढ़े जा रहे हैं। अब सेना को धैर्य बाँधाने के लिये तुम भी इनके साथ होकर युद्ध करो। तदनन्तर अर्जुन और श्रीकृष्ण द्रोण और कर्ण के साथ जाकर सेना के अग्रभाग में खड़े हो गये। फिर युधिष्ठिर की बड़ी भारी सेना लौट आयी। द्रोण और कर्ण ने पुनः शत्रुओं का  संहार आरम्भ किया। दोनों ओर की सेना में घमासान युद्ध होने लगा। उस समय आपके सैनिक भी हाथों से मशालें फेंक_फेंककर उन्मत्त की भाँति पाण्डवों से युद्ध करने लगे। चारों ओर अन्धकार और धूल छा रही थी। जैसे स्वयंवर में राजालोग अपना नाम देकर परिचय देते हैं, उसी प्रकार वहाँ प्रहार करनेवाले योद्धाओं के मुख से उनके नाम सुनायी पड़ते थे। जहाँ_ जहाँ दीपक का प्रकाश दिखायी देता, वहाँ_वहाँ लड़ाकू सैनिक पतंगों की भाँति टूट पड़ते थे। इस प्रकार युद्ध करते_ करते उस महारात्रि का अन्धकार बहुत घना हो गया। तत्पश्चात् कर्ण ने धृष्टधुम्न की छाती में दस मर्मभेदी बाणों का प्रहार किया। धृष्टधुम्न ने भी कर्ण को दस बाणों से बींधकर तुरत ही बदला चुकाया। इस प्रकार वे दोनों एक_दूसरे को सायकों से बींधने लगे। थोड़ी ही देर में कर्ण ने धृष्टधुम्न के घोड़ों को मारकर उसके सारथि को घायल किया, फिर तीखे बाणों से उसका धनुष काटकर उसके सारथि को भी मार गिराया। तब धृष्टधुम्न ने एक भयंकर परिघ के प्रहार से कर्ण के घोड़ों को मार डाला। फिर पैदल ही युधिष्ठिर की सेना में जाकर सहदेव के रथ पर बैठ गया। इधर कर्ण के सारथि ने उसके रथ में नये घोड़े जोत दिये। अब कर्ण पुनः पांचाल महारथियों को अपने बाणों से पीड़ित करने लगा। अत: वह सेेना भयभीत होकर रण से भाग चली। उस समय पांचाल और सृंजय इतने डर गये थे कि पत्ता खड़कने पर भी उन्हें कर्ण के आ जाने का संदेह हो जाता था। कर्ण उस भागती हुई सेना को भी पीछे से बाण मारकर खदेड़ रहा था।
अपनी सेना को भागते देख राजा युधिष्ठिर भी पलायन करने का विचार करके अर्जुन से बोले___’धनंजय ! तुम्हीं जिनके बन्धु एवं सहायक हो, उन हमारे सैनिकों का यह आर्तनाद निरन्तर सुनायी दे रहा है; ये कर्ण के बाणों से पीड़ित हो रहे हैं। अब इस समय कर्ण का वध करने के सम्बन्ध में जो कुछ भी कर्तव्य हो, उसे करो।‘
यह सुनकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा___’ मधुसूदन ! आज राजा युधिष्ठिर कर्ण की पराक्रम देखकर भयभीत हो गये हैं। एक ओर द्रोणाचार्य हमारे सैनिकों को आहत कर रहे हैं, दूसरी ओर कर्ण का त्रास छाया हुआ है; इसलिये वे भाग रहे हैं, उन्हें कहीं ठहरने को स्थान नहीं मिलता। मैं देखता हूँ, कर्ण भागते हुए योद्धाओं को भी मार रहा है। अत: आप जहाँ कर्ण है, वहीं चलिये; आज दो में से एक बात हो जाय, चाहे मैं उसे मार डालूँ या वह मुझे।‘ भगवान् श्रीकृष्ण बोले__अर्जुन ! तुमको और राक्षस घतोत्कच को छोड़कर दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो कर्ण से लोहा ले सके। किन्तु उसके साथ तुम्हारा युद्ध हो, इसके लिये अभी समय नहीं आया है। कारण, उसके पास इन्द्र की दी हुई देदीप्यमान शक्ति है, जो उसने तुम्हारे लिये ही रख छोड़ी है। मेरे विचार से इस समय महाबली घतोत्कच ही कर्ण का सामना करने जाय। उसके पास दिव्य, राक्षस और आसुर___ तीनों प्रकार के अस्त्र हैं। अत: वह अवश्य ही संग्राम में कर्ण पर विजयी होगा। श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर अर्जुन ने घतोत्कच को बुलवाया। वह कवच, धनुष, बाण और तलवार आदि से सुसज्जित होकर उनके सामने उपस्थित हुआ और श्रीकृष्ण तथा अर्जुन को प्रणाम करके श्रीकृष्ण की ओर देखते हुए बोला___’मैं सेवा में उपस्थित हूँ; आज्ञा कीजिये, कौन_सा काम करूँ ?’ भगवान् ने हँसकर कहा___’ बेटा घतोत्कच ! मैं जो कहता हूँ, सुनो___आज तुम्हारे पराक्रम दिखाने का समय आया है। यह काम दूसरे के लिये नहीं हो सकता; क्योंकि तुम्हारे पास कई प्रकार अस्त्र हैं, राक्षसी माया तो है ही। हिडिम्बानन्दन !  देखते हो न, जैसे चरवाहा गौओं को हाँकता है उसी प्रकार कर्ण आज पाण्डवसेना को खदेड़ रहा है। वह इस दल के प्रधान_ प्रधान क्षत्रियों को मारे डालता है। उसके बाणों से पीड़ित होकर हमारे सैनिक कहीं ठहर नहीं पाते। मैदान से भागे जाते हैं। इस प्रकार कर्ण संहार में प्रवृत हुआ है। इसे रोकनेवाला तुम्हारे सिवा दूसरा कोई नहीं दिखायी देता। इस समय तुम्हारा बल असीम है और तुम्हारी माया दुस्तर; क्योंकि रात्रि के समय राक्षसों का बल बहुत बढ़ जाता है, उनके पराक्रम की कोई सीमा नहीं रहती। शत्रु उन्हें दबा नहीं सकते। इस आधी रात में तुम अपनी माया फैलाकर महान् धनुर्धर कर्ण को मार डालो, फिर धृष्टधुम्न आदि वीर द्रोण का भी वध कर डालेंगे।‘ भगवान् की बात समाप्त होने पर अर्जुन ने भी घतोत्कच से कहा__'बेटा ! मैं तुमको, सात्यकि को तथा भैया भीमसेन को ही अपने सेना का प्रधान वीर मानता हूँ। इस रात में तुम कर्ण के साथ द्वैरथ युद्ध करो। महारथी सात्यकि पीछे से तुम्हारी रक्षा करेंगे। सात्यकि की सहायता लेकर तुम शूरवीर कर्ण को मार डालो। घतोत्कच बोला___’भारत ! मैं अकेला ही कर्ण, द्रोण तथा अन्य क्षत्रिय वीरों के लिये काफी हूँ। आज रात में सूतपुत्र के साथ ऐसा युद्ध करूँगा, जिसकी चर्चा जबतक यह पृथ्वी रहेगी तबतक लोग करते रहेंगे। आज मैं राक्षसधर्म का आश्रय लेकर संपूर्ण कौरवसेना का संहार करूँगा, किसी को जीता नहीं छोडूँगा। ऐसा कहकर महाबाहु घतोत्कच तुम्हारी सेना को भयभीत करता हुआ कर्ण की ओर बढ़ा। कर्ण ने भी हँसते_हँसते उसका सामना किया। फिर तो गर्जना करते हुए उन दोनों वीरों में घोर संग्राम छिड़ गया।