Friday 31 March 2017

व्यासजी द्वारा संजय की नियुक्ति कथा अनिष्टसूचक उत्पातों का वर्णन


तदनन्तर पूर्व और पश्चिम दिशा में आमने_सामने खड़ी हुई दोनों ओर की सेनाओं को देखकर भूत, भविष्य और वर्तमान___तीनों कालों का ज्ञान रखनेवाले भगवान् व्यास ने एकान्त में बैठे हुए राजा धृतराष्ट्र के पास आकर कहा, ‘राजन् ! तुम्हारे पुत्रों तथा अन्य राजाओं का काल आ पहुँचा है; वे युद्ध में एक_दूसरे का संहार करने को तैयार हैं। बेटा ! यदि तुम इन्हें संग्राम में देखना चाहो तो तो मैं तुम्हें दिव्यदृष्टि प्रदान करूँ। इससे तुम वहाँ का युद्ध भलीभाँति देख सकेंगे।‘ धृतराष्ट्र ने कहा___ब्रह्मर्षिवर ! युद्ध में मैं अपने ही कुटुम्ब का वध नहीं देखना चाहता; किन्तु आपके प्रभाव से युद्ध का पूरा समाचार सुन सकूँ, ऐसी कृपा अवश्य कीजिये। धृतराष्ट्र युद्ध का समाचार सुनना चाहता है___ यह जानकर व्यासजी ने संजय को दिव्यदृष्टि दिया। वे धृतराष्ट्र से बोले___’राजन् ! यह संजय तुम्हें युद्ध का वृतांत सुनायेगा। संपूर्ण युद्धक्षेत्र में कोई भी ऐसी बात न होगी, जो इससे छिपी रहे। यह दिव्यदृष्टि से सम्पन्न और सर्वज्ञ हो जायगा। सामने हो या परोक्ष में, दिन में हो या रात में, अथवा मन में सोची हुई ही क्यों न हो, वह बात भी संजय को मालूम हो जायगी। इसे शस्त्र नहीं काट सकेंगे, परिश्रम कष्ट नहीं पहुँचा सकेगा तथा यह इस युद्ध में जीता_जागता निकल आयेगा। मैं इन कौरवों और पाण्डवों की कीर्ति का विस्तार करूँगा, तुम इनके लिये शोक न करना। यह दैव का विधान है, इसे टाला नहीं जा सकता। युद्ध में जिस ओर धर्म होगा, उसी पक्ष की जीत होगी।महाराज ! इस संग्राम में बड़ा भारी संहार होगा; क्योंकि ऐसे ही भयसूचक अपशकुन दिखायी देते हैं। दोनों संध्याओं की वेला में बिजली चमकती है और सूर्य की तरंगे बादल ढक देते हैं, ये ऊपर_नीचे सफेद और लाल तथा बीच में काले होते हैं। सूर्य, चन्द्रमा और तारे जलते हुए_से दीखते हैं। दिन रात में कोई अन्तर नहीं जान पड़ता; यह लक्षण भय उत्पन्न करनेवाला है। कार्तिक की पूर्णिमा को नीलकमल के समान रंगवाले आकाश में चन्द्रमा प्रभाहीन होने के कारण कम दीखता था, उसका रंग अग्नि के समान था। इससे यह सूचित होता था कि अनेकों शूरवीर राजा और राजकुमार युद्ध में प्राणत्याग कर पृथ्वी पर शयन करेंगे। प्रतिदिन सूअर और बिलाव लड़ते हैं और उनका भयंकर नाद सुनायी पड़ता है। देवमूर्तियाँ काँपती, हँसती और रक्त वमन करती हैं तथा अकस्मात् पसीने से तर हो जाती और गिर पड़ती हैं। जो तीनों लोकों में प्रसिद्ध है, उस परम साध्वी अरुन्धती ने इस समय वशिष्ठ को आगे से पीछे कर लिया है। शनैश्चर रोहिणी को पीड़ा दे रहा है, चन्द्रमा का मृगचिह्न मिट सा गया है; इससे बड़ा भारी भय होनेवाला है। आजकल गौओं के पेट से गधे उत्पन्न होते हैं। घोड़ी से गौ के बछड़े की उत्पत्ति होती है और कुत्ते गीदड़ पैदा कर रहे हैं। चारों ओर बड़े जोर की आँधी चलती है, धूल का उड़ना बन्द ही नहीं होता। बारंबार भूकम्प होता है। राहू सूर्य पर आक्रमण करता है, केतू चित्रा पर स्थित है, धूमकेतु पुष्य नक्षत्र में स्थित है, यह महान् ग्रह दोनों सेनाओं का घोर अमंगल करेगा। मंगल वक्री होकर मघा_नक्षत्र पर स्थित है। बृहस्पति श्रवण_नक्षत्र पर है और शुक्र पूर्वाभाद्रपदापर स्थित है। पहले चौदह, पंद्रह और सोलह दिनों पर अमावस्या हो चुकी है; किन्तु कभी पक्ष के तेरहवें दिन ही अमावस्या हुई हो___यह मुझे स्मरण नहीं है। इस बार तो एक ही महीने के दोनों पक्षों में त्रयोदशी को ही सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण हो गये हैं। इस प्रकार बिना पर्व का ग्रहण होने से ये दोनों ग्रह अवश्य ही प्रजा का संहार करेंगे। पृथ्वी हजारों राजाओं का रक्तपान करेगी। कैलास, मंदराचल और हिमालय_जैसे पर्वतों से हजारों बार घोर शब्द होते हैं, उनके शिखर टूट_टूटकर गिर रहे हैं और चारों महासागर अलग_अलग उफनाते तथा पृथ्वी पर हलचल पैदा करते हुए बढ़कर मानो अपनी सीमा का उल्लंघन कर रहे हैं।

दोनों सेनाओं की व्यूह_रचना

धृतराष्ट्र ने पूछा___संजय ! भीष्मजी तो मनुष्य, देवता, गन्धर्व और असुरों द्वारा की जानेवाली व्यूहरचना भी जानते थे। जब उन्होंने मेरी ग्यारह अक्षौहिणी सेना की व्यूहरचना की, तोे् पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने अपनी थोड़ी_सी सेना से किस प्रकार व्यूह बनाया ?
संजय ने कहा___महाराज ! आपकी सेना को व्यूह_रचना_पूर्वक सुसज्जित देख धर्मराज युधिष्ठिर ने अर्जुन से कहा___तात ! महर्षि बृहस्पति के वचन से यह बात ज्ञात होती है कि यदि शत्रु की अपेक्षा अपनी सेना थोड़ी हो तो उसे समेटकर थोड़ी ही दूर में रखकर युद्ध करना चाहिये और यदि अपनी सेना अधिक हो तो उसे इच्छानुसार फैलाकर लड़ना चाहिये। जब थोड़ी सेना को अधिक सेना के साथ युद्ध करना पड़े तो उसे सूचीमुख नाम की व्यूह की रचना करनी चाहिये। हमलोगों की यह सेना शत्रुओं के मुकाबले में बहुत थोड़ी है, इसलिये तुम व्यूहरचना करो।‘ यह सुनकर अर्जुन ने युधिष्ठिर से कहा___'महाराज ! मैं आपके लिये वज्रनामक दुर्भेद्य व्यूह की रचना करता हूँ; यह भी इन्द्र का बताया हुआ दुर्जय व्यूह है। जिसका वेग वायु के समान प्रबल और शत्रुओं के लिये दुःसह है, वे योद्धाओं में अग्रगण्य भीमसेन इस व्यूह में हमलोगों के आगे रहकर युद्ध करेंगे। उन्हें देखते ही दुर्योधन आदि कौरव भयभीत होकर इस तरह भागेंगे, जैसे सिंह को देखकर क्षुद्र मृग भाग जाते हैं।‘ ऐसा कहकर धनंजय ने वज्रव्यूह की रचना की। सेना को व्यूहाकार में खड़ी करके अर्जुन शीघ्र ही शत्रुओं की ओर बढ़ा। कौरवों को अपनी ओर आते देखकर पाण्डवसेना भी जल से भरी हुई गंगा के समान धीरे_धीरे आगे बढ़ती दिखायी देने लगी। भीमसेन, धृष्टधुम्न, नकुल, सहदेव और धृष्टकेतू___ये उस सेना के आगे चल रहे थे। इनके पीछे रहकर राजा विराट अपने भाई, पुत्र और एक अक्षौहिणी सेना के साथ रक्षा कर रहे थे। नकुल और सहदेव भीमसेन के दायें,_बायें रहकर उनके रथ के पहियों की रक्षा करते थे। द्रौपदी के पाँचों पुत्र और अभिमन्यु उनके पृष्ठभाग के रक्षक थे। सबके पीछे शिखण्डी चलता था, जो अर्जुन की रक्षा में रहकर भीष्मजी का विनाश करने के लिये तैयार था। अर्जुन के पीछे महाबली सात्यकि था तथा युधामन्यु और उत्तमौजा उनके चक्रों की रक्षा करते थे। कैकेय धृष्टकेतू और बलवान् चेकितान भी अर्जुन की ही रक्षा में थे। अर्जुन ने जिसकी रचना की थी, वह वज्रव्यूह भय की आशंका से शून्य था। उसके सब ओर मुख थे, देखने में बड़ा भयानक था। वीरों के धनुष इसमें बिजली के समान चमक रहे थे और स्वयं अर्जुन गाण्डीव धनुष हाथ में लेकर उसकी रक्षा कर रहे थे। उसी का आश्रय लेकर पाण्डवलोग तुम्हारी सेना के मुकाबले में डटे हुए थे। पाण्डवों से सुरक्षित वह व्यूह मानव_जगत् के लिये सर्वथा अजेय था। इतने में सूर्योदय होते देख समस्त सैनिक संध्या_वंदन करने लगे। उस समय यद्यपि आकाश में बादल नहीं थे, तो भी मेघ की_सी गर्जना हुई और हवा के साथ बूँदें पड़ने लगीं। फिर चारों ओर से प्रचण्ड आँधी उठी और नीचे की ओर कंकड़ बरसाने लगी। इतनी धूल उड़ी कि सारे जगत् में अंधेरा सा छा गया। पूर्व दिशा की ओर बड़ा भारी उल्कापात हुआ। वह उल्का उदय होते हुए सूर्य से टकराकर गिरी और बड़े जोर की आवाज करती हुई पृथ्वी में विलीन हो गयी। संध्या_वंदन के पश्चात् जब सब सैनिक तैयार होने लगे को सूर्य की प्रभा फीकी पड़ गयी तथा पृथ्वी भयानक शब्द  करती हुई काँपने और फटने लगी। सब दिशाओं में बारंम्बार वज्रपात होने लगे। इस प्रकार युद्ध का अभिनन्दन करनेवाले पाण्डव आपके पुत्र दुर्योधन की सेना का सामना करने के लिये व्यूह_रचना करके भीमसेन को आगे किये खड़े थे उस समय गदाधारी भीम को सामने देखकर हमारे योद्धाओं की मज्जा सूख रही थी। धृतराष्ट्र ने पूछा____संजय ! सूर्योदय होने पर भीष्म की अधिनायकता में रहनेवाले मेरे पक्ष के वीरों और भीमसेन के सेनापतित्व में उपस्थित हुए पाण्डव पक्ष के सैनिकों में पहले किन्होंने युद्ध की इच्छा से हर्ष प्रकट किया था। संजय ने कहा___नरेन्द्र ! दोनों ही सेनाओं की समान अवस्था थी। जब दोनों एक दूसरे के पास आ गयीं तो दोनों ही प्रसन्न दिखायी पड़ीं। हाथी, घोड़े और रथों से भरी हुई दोनों ही सेनाओं की विचित्र शोभा हो रही थी। कौरवसेना का मुख पश्चिम की ओर था और पाण्डव पूर्वाभिमुख होकर खड़े थे। कौरवों की सेना दैत्यराज की सेना के समान जान पड़ती थी और पाण्डवों की सेना देवराज इन्द्र की सेना के समान शोभा पा रही थी। पाण्डवों के पीछे हवा चलने लगी और कौरवों के पृष्ठभाग में मांसाहारी पशु कोलाहल करने लगे। भारत ! आपकी सेना के व्यूह में एक लाख से अधिक हाथी थे, प्रत्येक हाथी के साथ सौ_सौ रथ खड़े थे, एक_एक रथ के साथ सौ_सौ घोड़े थे, प्रत्येक घोड़े के साथ दस_दस धनुर्धर सैनिक थे और एक_एक धनुर्धर के साथ दस_दस ढ़ालवाले थे। इस प्रकार भीष्मजी ने आपकी सेना का व्यूह बनाया था। वे प्रतिदिन व्यूह बदलते रहते थे। किसी दिन मानव_व्यूह रचत्ते थे तो किसी दिन दैव_व्यूह तथा किसी दिन गान्धर्व_व्यूह बनाते थे तथा किसी दिन आसुर_व्यूह। आपकी सेना के व्यूह में महारथी सैनिकों की भरमार थी। वह समुद्र के समान गर्जना करता था। राजन् ! कौरव_सेना यद्यपि असंख्य और भयंकर है  तथा पाण्डवों की सेना ऐसी नहीं है, तो भी मेरा यह विश्वास है कि वास्तव में वही सेना दुर्धर्ष और बड़ी है जिस के नेता भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं।

युद्ध में भीष्मजी का पतन सुनकर धृतराष्ट्र का विषाद तथा संजय द्वारा कौरवसेना के संगठन का वर्णन


एक दिन की बात है, राजा धृतराष्ट्र चिन्ता में निमग्न होकर बैठे थे। इसी समय सहसा संग्रामभूमि से लौटकर संजय उनके पास आया और बहुत दुःखी होकर बोला, ‘महाराज ! मैं संजय हूँ, आपको प्रणाम करता हूँ। शान्तनुनन्दन भीष्मजी युद्ध में मारे गये ? जो समस्त योद्धाओं के शिरोमणि और धनुर्धारियों के सहारे थे, वे कौरवों के पितामह आज बाण_शैय्या पर सो रहे हैं। जिन महारथी ने काशीपुरी में अकेले ही एकमात्र रथ की सहायता से वहाँ जुटे हुए समस्त राजाओं को युद्ध में परास्त कर दिया था, जो निडर होकर युद्ध के लिये परशुरामजी के साथ भिड़ गये थे और साक्षात् परशुरामजी भी जिन्हें मार नहीं सके थे, वे ही आज शिखण्डी के हाथ से मारे गये। जो शूरता में इन्द्र के समान, स्थिरता में हिमालय के सदृश, गम्भीरता में समुद्र के समान और सहनशीलता में पृथ्वी के तुल्य थे, जिन्होंने हजारों बाणों की वर्षा करते हुए दस दिनों में एक अरब सेना का संहार किया था, वे ही इस समय आँधी के उखाड़े हुए वृक्ष की भाँति पृथ्वी पर पड़े हैं। राजन् ! यह सब आपकी कुमंत्रणा का फल है; भीष्मजी कदापि ऐसी दशा के योग्य नहीं थे।‘ धृतराष्ट्र बोले___संजय ! कौरवों में श्रेष्ठ और इन्द्र के समान पराक्रमी पितृवर भीष्मजी  शिखण्डी के हाथ से कैसे मारे गये ? उनकी मृत्यु का समाचार सुनकर मेरे हृदय में बड़ी पीड़ा हो रही है। जिस समय वे युद्ध के लिये अग्रसर हुए थे, उस समय उनके पीछे कौन गये थे तथा आगे कौन थे ? उनके धनुष और बाण तो बड़े ही उग्र थे, रथ भी बहुत उत्तम था, वे अपने बाणों से प्रतिदिन शत्रुओं के मस्तक काटते थे तथा कालाग्नि के समान दुर्घर्ष थे। उन्हें युद्ध के लिये उद्यत देखकर पाण्डवों की बहुत बड़ी सेना काँप उठती थी। वे दस दिन से लगातार पाण्डवसेना का संहार कर रहे थे। हाय ! ऐसा दुष्कर कार्य करके वे आज सूर्य के समान अस्त हो गये।कृपाचार्य और द्रोणाचार्य  भी उनके पास ही थे, तो भी उनकी मृत्यु कैसे हो गयी ? जिन्हें देवता भी नहीं दबा सकते और जो अतिरथी वीर थे, उन्हें पांचालदेशीय  शिखण्डी ने कैसे मार गिराया ?  मेरे पक्ष के किन_किन वीरों ने अन्त तक उनका साथ नहीं छोड़ा ? दुर्योधन की आज्ञा से कौन_कौन वीर उन्हें चारों ओर से घेरे हुए थे ? संजय ! सचमुच ही मेरा हृदय पत्थर का बना है, बड़ा ही कठोर है; तभी तो भीष्मजी की मृत्यु का समाचार सुनकर भी यह नहीं फटता। भीष्मजी को सत्य, बुद्धि तथा नीति आदि सद्गुणों की तो थाह ही नहीं थी; वे युद्ध में कैसे मारे गये ? संजय ! बताओ, उस समय पाण्डवों के साथ भीष्मजी का कैसा युद्ध हुआ ? हाय ! उनके मरने से मेरे पुत्रों की सेना पति और पुत्र से हीन स्त्री के समान असहाय हो गयी। हमारे पिता भीष्म संसार में प्रसिद्ध धर्मात्मा और महापराक्रमी थे, उन्हें मरवाकर अब हमारे जीने के लिये भी कौन सा सहारा रह गया है ? मैं समझता हूँ नदी के पार जाने की इच्छावाले मनुष्य नाव को पानी में डूबी देखकर जैसे व्याकुल हो जाते हैं, उसी प्रकार भीष्मजी की मृत्यु से मेरे पुत्र भी शोक में डूब गये होंगे। जान पड़ता है धैर्य अथवा त्याग के बल से किसी का मृत्यु से छुटकारा नहीं हो सकता। अवश्य ही काल बड़ा बलवान् है, संपूर्ण जगत् में कोई भी इसका उल्लंघन नहीं कर सकता। मुझे तो भीष्मजी से ही अपनी रक्षा की बड़ी आशा थी। उनको रणभूमि में गिरा देख दुर्योधन ने क्या विचार किया ? तथा कर्ण शकुनि और दुःशासन को क्या कहा ? भीष्म के अतिरिक्त और किन_किन राजाओं की हार_जीत हुई ? तथा कौन_ कौन बाण के निशाने बनाकर मार गिराये गये ? संजय ! मैं दुर्योधन के किये हुए दुःखदायी कर्मों को सुनना चाहता हूँ। उस घोर संग्राम में जो_जो घटनाएँ हुई हों, वे सब सुनाओ। मंदबुद्धि दुर्योधन की मूर्खता के कारण जो भी अन्याय अथवा न्यायपूर्ण घटनाएँ हुई हों तथा विजय की इच्छा से भीष्मजी ने जो_जो तेजस्वितापूर्ण कार्य किये हों, वे सब मुझे सुनाओ। साथ ही यह भी बताओ कि कौरव और पाण्डवों की सेना में किस तरह युद्ध हुआ ? तथा किस क्रम से किस समय कौन_कौन सा कार्य किस प्रकार घटित हुआ ? संजय ने कहा____महाराज ! आपका यह प्रश्न आपके योग्य ही है; परंतु यह सारा दोष आप दुर्योधन के माथे नहीं मढ़ सकते। जो मनुष्य अपने ही दुष्कर्मों के कारण अशुभ फल भोग रहा है, उसे उस पाप का बोझा दूसरे पर नहीं डालना चाहिये। बुद्धिमान पाण्डव अपने साथ किये गये कपट एवं अपमान को अच्छी तरह समझते थे, तो भी उन्हें केवल आपकी ओर देखकर अपने मंत्रियों सहित चिरकाल तक वन में रहकर सबकुछ सहन किया। अब जिनकी कृपा से मुझे भूत_भविष्य_वर्तमान का ज्ञान तथा आकाश में विचरना और दिव्यदृष्टि आदि प्राप्त हुए हैं, उन पराशरनन्दन भगवान् व्यास को प्रणाम करके भरतवंशियों के रोमांचकारी और अद्भुत् संग्राम का विस्तार से वर्णन करता हूँ; सुनिये।  जब दोनों ओर की सेनाएँ तैयार होकर व्यूह के आकार में खड़ी हो गयीं, तब दुर्योधन ने दुःशासन से कहा___”दुःशासन ! भीष्मजी की रक्षा के लिये जो रथ नियत है, उन्हें तैयार कराओ। इस युद्ध में भीष्मजी की रक्षा से बढ़कर हमलोगों के लिये दूसरा कोई काम नहीं है। शुद्ध हृदयवाले पितामह ने पहले से ही कह रखा है कि ‘शिखण्डी को नहीं मारूँगा; क्योंकि वह पहले स्त्रीरूप में उत्पन्न हुआ था।‘ अतः मेरा विचार है कि शिखण्डी के हाथ से भीष्मजीको बचाने का विशेष प्रयत्न होना चाहिये। मेरे सभी सैनिक शिखण्डी का वध करने के लिये तैयार रहें। पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण के जो वीर सब प्रकार से अस्त्रसंचालन में कुशल हों, वे पितामह की रक्षा में रहें। देखो, अर्जुन के रथ के बायें चक्र की युधामन्यु रक्षा कर रहा है और दाहिने चक्र की उत्तमौजा। अर्जुन को ये दो रक्षक प्राप्त हैं और अर्जुन स्वयं शिखण्डी की रक्षा करता है। अत: तुम ऐसा प्रयत्न करो, जिससे अर्जुन के द्वारा सुरक्षित और भीष्म से उपेक्षित शिखण्डी पितामह का वध न कर सके।“ तदनन्तर जब रात बीती और सूर्योदय हुआ तो आपके पुत्रों और पाण्डवों की सेनाएँ अस्त्र_शस्त्रों से सुसज्जित दिखायी देने लगीं। खड़े हुए योद्धाओं के हाथ में धनुष, तलवार, गदा, शक्ति तोमर तथा और भी बहुत से चमकीले शस्त्र शोभा पा रहे थे। सैकड़ों और हजारों की संख्या में हाथी, पैदल, रथी और घोड़े शत्रुओं को फंदे में फँसाने के लिये व्यूहबद्ध होकर खड़े थे। शकुनि, शल्य, जयद्रथ, अवन्तिराज विन्द और अनुविन्द, केकयनरेश, कम्बोजराज सुदक्षिण, कलिंगनरेश श्रुतायुध, राजा जयत्सेन, बृहद्वल और कृतवर्मा___ये दस वीर एक_एक अक्षौहिणी सेना के नायक थे। इनके सिवा और भी बहुत से महारथी राजा और राजकुमार दुर्योधन के अधीन हो युद्ध में अपनी_अपनी सेनाओं के साथ खड़े दिखायी देते थे। इनके अतिरिक्त ग्यारहवीं महासेना दुर्योधन की थी। यह सब सेनाओं के आगे थी, इसके अधिनायक थे शान्तनुनन्दन भीष्मजी। महाराज ! उनके सिर पर सफेद पगड़ी थी, शरीर पर सफेद कवच था और रथ के घोड़े भी सफेद थे। उस समय अपनी श्वेत कान्ति से वे चन्द्रमा को समान शोभा पा रहे थे। उन्हें देखकर बड़े_बड़े धनुष धारण करनेवाले संजयवंश के वीर तथा धृष्टधुम्न आदि पांचालवीर भी भयभीत हो उठे। इस प्रकार ये ग्यारह अक्षौहिणी सेनाएँ आपकी ओर से खड़ी थीं। राजन् ! कौरवों की इतनी बड़ी सेना का संगठन न मैंने कभी देखा था, न सुना था। भीष्मजी और द्रोणाचार्य प्रतिदिन सबेरे उठकर यही मनाया करते थे कि ‘पाण्डवों की जय हो'; तो भी अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार वे युद्ध आपके लिये ही करते थे। उस दिन भीष्मजी ने सब राजाओं को अपने पास बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा___’क्षत्रियों ! आपलोगों के लिये स्वर्ग में जाने का यह युद्धरूपी महान् दरवाजा खुल गया है, इसके द्वारा आप इन्द्रलोक और ब्रह्मलोक में जा सकते हैं। यही आपका सनातन मार्ग है और सतत्पुरुषों ने भी अनुसरण किया है। रोग से घर में पड़े_पड़े प्राण त्यागना क्षत्रिय के लिये अधर्म माना गया है। युद्ध में जो इसकी मृत्यु होती है___वही इसका सनातन धर्म है।‘ भीष्मजी की यह बात सुनकर सभी राजा बढ़िया_बढ़िया रथों से अपनी सेना की शोभा बढ़ाते हुए युद्ध के लिये आगे बढ़े। केवल कर्ण अपने मंत्री और बन्धु_बान्धवों के सहित रह गया; भीष्मजी ने उसके अस्त्र_शस्त्र रखवा दिये थे। समस्त कौरव सेना के सेनापति भीष्मजी रथ पर बैठे हुए सूर्य के समान सुशोभित हो रहे थे, उनके रथ की ध्वजा पर विशाल ताड़ और पाँच तारों के चिह्न बने हुए थे। आपके पक्ष में जितने महान् धनुर्धर राजा थे, वे सब शान्तनुनन्दन भीष्मजी की आज्ञा के अनुसार युद्ध के लिये तैयार हो गये। आचार्य द्रोण की जो ध्वज फहरा रहा थी, उसमें सोने की वेदी, कण्डलु और धनुष के चिह्न थे। कृपाचार्य अपने बहुमूल्य रथ पर बैठकर वृषभ के चिह्नवाली ध्वजा फहराते चल रहे थे। राजन् ! इस प्रकार आपके पुत्रों की ग्यारह अक्षौहिणी सेना यमुना में मिली हुई गंगा के समान दिखायी देती थी।

व्यास_धृतराष्ट्र संवाद तथा संजय द्वारा भूमि के गुणों का वर्णन

धृतराष्ट्र से ऐसा कहकर मुनिवर व्यासजी क्षणभर के लिये ध्यानमग्न हो गये; इसके बाद फिर कहने लगे, ‘राजन् ! इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि काल सारे जगत् का संहार करता रहता है। यहाँ सदा रहने वाला कुछ भी नहीं है। इसलिये तुम अपने कुटुम्बी कौरवों, सम्बन्धियों और हितैषी मित्रों को इस क्रूर कर्म से रोको, उन्हें धर्मयुक्त मार्ग का उपदेश करो; अपने बन्धु_बान्धवों का वध करना बड़ा नीच काम है, इसे न होने दो। चुप रहकर मेरा अप्रिय न करो। किसी के वध को वेद में अच्छा नहीं कहा गया है, इससे अपना भला भी नहीं होता। कुलधर्म अपने शरीर के समान है; जो उसका नाश करता है, वह कुलधर्म भी उस मनुष्य का नाश कर देता है। इस कुलधर्म की रक्षा तुम कर सकते हो, तो भी काल से प्रेरित होकर आपत्तिकाल के समान अधर्म_पथ में प्रवृत्त हो रहे हो ! तुम्हें राज्य के रूप में बहुत बड़ा अनर्थ प्राप्त हुआ है; क्योंकि यह समस्त कुल के तथा अनेकों राजाओं के विनाश का कारण बन गया है। यद्यपि तुम धर्म का बहुत लोप कर चुके हो, तो भी मेरे कहने से अपने पुत्रों को धर्म का मार्ग दिखाओ। ऐसे राज्य से तुम्हें क्या लेना है, जिससे पाप का भागी होना पड़ा। धर्म की रक्षा करने से तुम्हें यश, कीर्ति और स्वर्ग मिलेगा। अब ऐसा, करो, जिससे पाण्डव अपना राज्य पा सकें और कौरव भी सुख शान्ति का अनुभव करें। धृतराष्ट्र ने कहा___तात ! सारा संसार स्वार्थ से मोहित हो रहा है, मुझे भी सर्वसाधारण के समान ही समझिये। मेरी बुद्धि भी अधर्म करना नहीं चाहती, परन्तु क्या करूँ ? मेरे पुत्र मेरे वश में नहीं हैं। व्यासजी ने कहा___अच्छा, तुम्हारे मन में यदि मुझसे कुछ पूछने की बात हो तो कहो; मैं तुम्हारे सभी संदेहों को दूर कर दूँगा।
धृतराष्ट्र ने कहा___भगवन् ! संग्राम में विजय पानेवालों को जो शुभ शकुन दृष्टिगोचर होते हैं, उन सबको मैं सुनना चाहता हूँ। व्यासजी ने कहा___हवनीय अग्नि की प्रभा निर्मल हो, उसकी लपटें ऊपर उठती हों अथवा प्रदक्षिण क्रम से घूमती हों, उनसे धूआँ न निकले, आहुति डालने पर उनमें से पवित्र गंध फैलने लगे, तो इसे भावी विजय का चिह्न बताया गया है। भारत ! जिस पक्ष में योद्धाओं के मुख से हर्षभरे वचन निकलते हों, उनका धैर्य बना रहता हो, पहनी हुई मालाएँ कुम्हलाती न हों, वे ही युद्धरूपी महासागर तो पार करते हैं। सेना थोड़ी हो या बहुत, योद्धाओं का उत्साहपूर्ण हर्ष ही विजय का प्रधान लक्षण माना गया है। एक_दूसरे तो अच्छी तरह जाननेलाले, उत्साही, स्त्री आदि में अनासक्त तथा दृढ़निश्चयी पचास वीर भी बहुत बड़ी सेना को रौंद डालते हैं। यदि युद्ध से पीछे पैर न हटानेवाले पाँच_ही_सात योद्धा हों, तो वे भी विजय प्राप्त कर सकते हैं। अतः सदा सेना अधिक होने से ही विजय होती हो, ऐसी बात नहीं है। इस प्रकार कहकर भगवान् वेदव्यास चले गये और यह सब सुनकर राजा धृतराष्ट्र विचार में पड़ गये। थोड़ी देर तक सोचकर उन्होंने संजय से पूछा, ‘संजय ! ये युद्धप्रेमी राजालोग पृथ्वी के लोभ से जीवन का मोह छोड़कर नाना प्रकार के अस्त्र_शस्त्रों द्वारा एक दूसरे की हत्या करते हैं, पृथ्वी के ऐश्वर्य का इच्छा से परस्पर प्रहार करते हुए यमलोक की जनसंख्या बढ़ाते हैं और शान्त नहीं होते, इससे मैं समझता हूँ कि पृथ्वी में बहुत से गुण हैं। तभी तो इसके लिये यह नरसंहार होता है। अतः तुम मुझसे इस पृथ्वी का ही वर्णन करो।‘ संजय बोला___भरतश्रेष्ठ ! आपको नमस्कार है। मैं आपकी आज्ञा के अनुसार पृथ्वी के गुणों का वर्णन करता हूँ। इस पृथ्वी पर दो प्रकार के प्राणी हैं___चर और अचर। चरों के तीन भेद हैं___ अण्डज, स्वेदज  और जरायुज। इन तीनों में जरायुज श्रेष्ठ हैं तथा जरायुजों में मनुष्य और पशु प्रधान हैं। इनमें से कुछ ग्रामवासी और कुछ वनवासी होते हैं। ग्रामवासियों में मनुष्य श्रेष्ठ है और वनवासियों में सिंह। अचर या स्थावरों को उद्भिज्ज भी कहते हैं। इनकी पाँच जातियाँ हैं___वृक्ष, गुल्म, लता, वल्ली और त्वक्सार ( बाँस आदि )। ये तृण जाति के अन्तर्गत हैं। यह संपूर्ण जगत् इस पृथ्वी पर ही उत्पन्न होता और इसी में नष्ट हो जाता है। भूमि ही संपूर्ण भूतों की प्रतिष्ठा है, भूमि ही अधिक काल तक स्थिर रहनेवाली है। जिसका भूमि पर अधिकार है, उसी के वश में संपूर्ण चराचर जगत् है। इसलिये इस भूमि में अत्यन्त लोभ रखकर सब राजा एक_दूसरे का प्राणघात करते हैं।