Thursday 18 May 2017

• श्रीमद्भगवद्गीता___सांख्ययोग

संजय बोले___उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रवाले शोकयुक्त उन अर्जुन के प्रति भगवान् मधुसूदन ने यह वचन कहा। श्रीभगवान् बोले___ अर्जुन ! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देनेवाला है और न कीर्ति को करनेवाला ही है। इसलिये अर्जुन ! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। परंतप ! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिये खड़ा हो जा। अर्जुन बोले___मधुसूदन ! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्मपितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूँगा ? क्योंकि अरिसूदन ! वे दोनों ही पूजनीय हैं। इसलिये इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न खाना भी कल्याणकारक समझता हूँ; क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में पुष्प से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा। हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिये युद्ध करना और न करना___ इन दोनों में से कौन सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं। इसलिये कायरतारूप दोष से उपहत हुए स्वभाववाला तथा धर्म के विषय में मोहचित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चय ही कल्याणकारक हो, वह मेरे लिये कहिये; क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिये आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिये; क्योंकि भूमि में निष्कण्टक, धन_धान्य सम्पन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों को सुखानेवाले शोक को दूर कर सके। संजय बोले___राजन् निद्रा को जातनेवाले अर्जुन अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्रीगोविन्दभगवान् से ‘युद्ध नहीं करूँगा’ यह स्पष्ट कहकर चुप हो गये। भरतवंशी धृतराष्ट्र ! अन्तर्यामी श्रीकृष्णमहाराज दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते हुए उन अर्जुन को हँसते हुए यह वचन बोले___
अर्जुन ! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिये शोक करता है और पंडितों के_से वचनों को कहता है। परंतु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये भी पंडितलोग शोक नहीं करते। न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था या तू नहीं था अथवा ये राजालोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे। जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है,  वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है; उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता। कुन्तीपुत्र ! सर्दी, गर्मी और सुख_दुःख को देनेवाले  इन्द्रियों और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति_विनाशशील और अनित्य हैं; इसलिये भारत ! उनको तू सहन कर; क्योंकि पुरुषश्रेष्ठ ! दुःख_सुख  को समान समझनेवाले जिस वीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है। असत् वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व ज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है। नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह संपूर्ण जगत्___दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है। इस नैसर्गिक, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा को ये सब शरीर नाशवान् कहे गये हैं। इसलिये भरतवंशी अर्जुन ! तू युद्ध कर। जो इस आत्मा को मारनेवाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है न किसी के द्वारा मारा जाता है। यह आत्मा किसी काल में न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर. फिर होनेवाला ही है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है; शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता। पृथापुत्र अर्जुन ! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित  नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है ? जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र को त्यागकर  दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नये शरीर को प्राप्त होता है। इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता; क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है; यह आत्मा अदह्य, अक्लेद्य और निःसंदेह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहनेवाला और सनातन है। यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिंत्य है और यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है। इससे अर्जुन ! इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर तू शोक करने के योग्य नही है और यदि तू इस आत्मा को सदा मरनेवाला मानता हो तो भी महाबाहो ! तू इस प्रकार शोक करने के योग्य नहीं है; क्योंकि  इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इससे भी इस बिना उपायवाले विषय में तू शोक करने के योग्य नहीं है। अर्जुन ! संपूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जानेवाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट हैं; फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है ? कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्व का आश्चर्य की भाँति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भाँति सुनता है और कोई_कोई तो सुनकर भी इसे नहीं जानता। अर्जुन ! यह आत्मा  सबके शरीर में सदा अवध्य है। इसलिये संपूर्ण प्राणियों के लिये तू शोक करने के योग्य नहीं है। तथा अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है; क्योंकि क्षत्रिय के लिये धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है। पार्थ ! अपने आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वाररूप इस प्रकार के युद्घ को भाग्यवान् क्षत्रियलोग ही पाते हैं; और यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा; तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहनेवाली अपकीर्ति  का भी कथन करेंगे; और माननीय पुरुष के लिये अपकीर्ति मरणसे भी बढ़कर है, और जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी भय के कारण युद्ध से विरत हुआ मानेंगे; और तेरे वैरीलोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए बहुत_से न कहने योग्य वचन कहेंगे; उससे अधिक दुःख क्या होगा ? या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण अर्जुन ! तू युद्ध के लिये निश्चय करके खड़ा हो जा। जय_पराजय, लाभ_हानि और सुख_दुःख  समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिये तैयार हो जा; इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा। पार्थ ! यह बुद्धि तेरे लिये ज्ञानयोग के विषय में कही गयी है और अब तू इसको कर्मयोग के विषय में सुन___जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बन्धन को भली_भाँति त्याग देना। इस कर्मयोग में आरम्भ का___बीज का नाश नहीं है और उलटा उसकी फलरूप दोष भी नहीं है। बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोड़ा सा भी साधन जन्म_मृत्यु रूप महान् भय से उबार लेता है। अर्जुन  ! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक होती है; किन्तु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनष्य की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदोंवाली और अनन्त होती हैं। अर्जुन ! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखने वाले हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं___ऐसा कहनेवाले हैं, वे अविवेकीजन भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये नाना प्रकार की बहुत सी क्रियाओं की वर्णन करनेवाली और जन्मरूप कर्मफल देनेवाली इस प्रकार की जिस पुष्पित यानी दिखाऊ शोभायुक्त वाणी तो कहा करते हैं, उस वाणी द्वारा हरे हुए चित्तवाले जो भोग और ऐश्वर्य में आसक्त हैं, उन पुरुषों की परमात्मा के स्वरूप में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती। अर्जुन ! सब वेद उपर्युक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्यरूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करनेवाले हैं; इसलिये तू  उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्षशोकादि द्वन्दों से रहित, नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित, योगक्षेम को न चाहनेवाला और जीतेहुए मनवाला हो। सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जाननेलाले ब्राह्मण का समस्त वेंदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है। तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिये तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म करने में  भी आसक्ति न हो। धनंजय ! तू  आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर; समत्व ही योग कहलाता है। इस समत्वरूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का है। इसलिये धनंजय ! तू समत्वबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूँढ; क्योंकि फल के हेतु बननेवाले अत्यन्त दीन हैं। समत्वबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप को इसी लोक में त्याग देता है। इससे तू समत्वरूप योग के लिये ही चेष्टा कर; यह समत्वयुक्त योग ही कर्मों में कुशलता है; क्योंकि समत्वबुद्धि से युक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होनेवाले फल को त्यागकर जन्मरूप बन्धन से मुक्त हो निर्विकार परमपद को प्राप्त हो जाते हैं। जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूप दलदल को भली_भाँति पार कर जायगी, उस समय तू सुनी हुई और सुनने में आनेवाली इसलोक और परलोक संबंधी सभी बातों संबंधी सभी बातों से बैराग्य को प्राप्त हो जायगा। भाँति_भाँति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा के स्वरूप में अचल और स्थित होकर ठहर जायगी, तब तू भगवत्प्राप्ति_रूप योग को प्राप्त हो जायगा। अर्जुन बोले___केशव ! समाधि में स्थित स्थितप्रज्ञ पुरुष का क्या लक्षण है ? वह स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है ? श्रीभगवान् बोले___अर्जुन ! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित संपूर्ण भावनाओं को भलीभाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राज, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है। जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है और कछुआ सब ओर से अपने अंगों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही यह पुरुष जब इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है।
इन्द्रियों के द्वारा विषयों को ग्रहण न करनेवाले पुरुष के केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं; परन्तु उसमें रहनेवाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है। अर्जुन ! क्योंकि आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमुख प्रभावशाली इन्द्रियाँ यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात् हर लेती है, इसलिये साधक को चाहिये कि वह उन संपूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहितचित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे; क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर होती है। विषयों का चिन्तन करनेवाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है तथा क्रोध से अत्यन्त मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है। परंतु अपने अधीन किये हुए अंतःकरणवाला साधक वश में की हुई, राग_द्वेष से रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अंतःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है। अंत:करण की प्रसन्नता होने पर इसके संपूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित् वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भली_भाँति स्थिर हो जाती है। न जीते हुए मन और इन्द्रियाँ वाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती; और उस अयुक्त व्यक्ति के अंतःकरण में भावना भी नहीं होती; तथा भावनाहीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती और शान्तिरहित पुरुष को सुख कैसे मिल सकता है; क्योंकि वायु जल मे चलनेवाली नाव को जैसे हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में मन जिस इन्द्रियाँ के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष के बुद्धि को हर लेती है। इसलिये महाबाहो ! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ इन्द्रियों  के विषयों से सब प्रकार निग्रह की हुई है; उसी की बुद्धि स्थिर है। संपूर्ण प्राणियों के लिये जो रात्रि के समान है, उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानंद की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है; और जिस नाशवान् सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा के तत्व को जाननेवाले मुनि के लिये वह रात्रि के समान है। जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं वही पुरुष परम शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहनेवाला नहीं। जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्यागकर कामनाओं, अहंकारसहित और स्नेहरहित हुआ विचरता है, वही शान्ति को प्राप्त होता है। अर्जुन ! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है; इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अंतराल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है।