Sunday 24 May 2020

अश्त्थामा द्वारा आग्नेयास्त्र का प्रयोग और व्यासजी का उसे श्रीकृष्ण और अर्जुन की महिमा सुनाना

संजय कहते हैं___ महाराज !  अर्जुन ने देखा कि मेरी सेना भाग रही है, तो द्रोणपुत्र को जीतने की इच्छा से स्वयं आगे बढ़कर उसे रोका। फिर वे सोमक तथा मत्स्य राजाओं के साथ कौरवों की ओर लौटे। अर्जुन ने अश्त्थामा के पास पहुँचकर कहा___’तुम्हारे अन्दर जितनी शक्ति, जितना विज्ञान, जितनी वीरता और जितना पराक्रम हो, कौरवों पर जितना प्रेम और हमलोगों से जितना द्वेष हो, वह सब आज हमारे पर ही दिखा लो। धृष्टधुम्न का या श्रीकृष्ण सहित मेरा सामना करने आ जाओ; तुम आजकल बहुत उदण्ड हो गये हो, आज मैं तुम्हारा सारा घमण्ड दूर कर दूँगा।
राजन् ! अश्त्थामा ने चेदिदेश के युवराज, कुरुवंशी बृहच्क्षत्र और सुदर्शन को मार डाला तथा धृष्टधुम्न, सात्यकि एवं भीमसेन को भी पराजित कर दिया था___ इन कई कारणों से विवश होकर अर्जुन ने आचार्यपुत्र से ये अप्रियवचन कहे थे। उनके तीखे और मर्मभेदी वचनों को सुनकर अश्त्थामा श्रीकृष्ण तथा अर्जुन पर कुपित हो उठा; वह सावधान होकर रथ पर बैठा और आचमन करके उसने आग्नेयास्त्र उठाया। फिर उसे मंत्रों से अभिमन्त्रित करके प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष जितने भी शत्रु थे, उन सबको नष्ट करने के उद्देश्य से छोड़ा। वह बाण धूमरहित अग्नि के समान देदीप्यमान हो रहा था। उसके छूटते ही आकाश से बाणों की घनघोर वृष्टि होने लगी। चारों ओर फैली हुई आग की लपट अर्जुन पर ही आ पड़ी। उस समय राक्षस और पिशाच एकत्रित होकर गर्जना करने लगे। हवा गरम हो गयी। सूर्य का तेज फीका पड़ गया और बादलों से रक्त की वर्षा होने लगी। तीनों लोक संतप्त हो उठे। उस अस्त्र के तेज से जलाशयों के गरम हो जाने के कारण उनके भीतर रहनेवाले जीव जलने तथा छटपटाने लगे। दिशाओं, विदिशाओं, आकाश और पृथ्वी___ सब ओर से बाणवर्षा हो रही थी। वज्र के समान वेगवाले उन बाणों के प्रहार से शत्रु दग्ध होकर आग से जलाये हुए वृक्षों की भाँति गिर रहे थे। बड़े_ बड़े हाथी चारों ओर चिघ्घाड़ते हुए झुलस_ झुलसकर धराशायी हो रहे थे। महाप्रलय के समय संवर्तक नामवाली आग जैसे संपूर्ण प्राणियों को जलाकर खाक कर डालती है, उसी प्रकार पाण्डवों की सेना उस आग्नेयास्त्र से दग्ध हो रही थी। यह देख आपके पुत्र विजय की उमंग से उल्लसित हो सिंहनाद करने लगे। हजारों प्रकार के बाजे बजाये जाने लगे। उस समय इतना घोर अंधकार छा रहा था कि अर्जुन और उनकी एक अक्षौहिणी सेना को कोई देख नहीं पाता था। अश्त्थामा ने अमर्ष में भरकर उस समय जैसे अस्त्र का प्रहार किया था, वैसा हमने पहले न कभी देखा था और न सुना ही था। तदनन्तर अर्जुन ने अश्त्थामा के संपूर्ण अस्त्रों का नाश करने के लिये ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। फिर तो क्षणभर में ही सारा अन्धकार नष्ट हो गया। ठंडी_ठंडी हवा चलने लगी, समस्त दिशाएँ प्रकाशित हो गयीं। उजाला होने पर वहाँ एक अद्भुत बात दिखायी दी। पाण्डवों की एक अक्षौहिणी सेना उस अस्त्र के तेज से इस प्रकार दग्ध हो गयी थी उसका नामोनिशान तक मिट गया था, परन्तु श्रीकृष्ण और अर्जुन के शरीर पर आँचतक नहीं आयी थी। ज्वाला से मुक्त होकर पताका, ध्वजा, घोड़े तथा आयुधों से सुशोभित अर्जुन का रथ वहाँ शोभा पाने लगा। उसे देख आपके पुत्रों को बड़ा भय हुआ, परंतु पाण्डवों के हर्ष की सीमा न रही। वे शंख और भेरी बजाने लगे। श्रीकृष्ण और अर्जुन ने भी शंखनाद किया।
उन दोनों महापुरुषों को आग्नेयास्त्र से मुक्त देख अश्त्थामा दुःखी और हक्का_ बक्का_सा होकर थोड़ी देर सोचता रहा कि ‘यह क्या बात हुई' ? फिर अपने हाथ का धनुष फेंककर वह रथ से कूद पड़ा और ‘धिक्कार है ! धिक्कार है ! ! यह सब कुछ झूठा है !’ ऐसा कहता हुआ वह रणभूमि से भाग चला। इतने में ही उसे व्यासजी खड़े दिखायी दिये। उन्हें सामने पाकर उसे प्रणाम किया और अत्यन्त दीन की भाँति गद्गद् कण्ठ से कहा___’भगवन् ! इसे माया कहें या दैव की इच्छा ? मेरी समझ में नहीं आता___ यह सब क्या हो रहा है । यह अस्त्र झूठा कैसे हुआ ? मुझसे कौन सी गलती हो गयी है ? अथवा यह संसार के किसी उलटफेर की सूचना है, जिससे श्रीकृष्ण और अर्जुन जीवित बच गये हैं ? मेरे चलाये हुए इस अस्त्र को असुर, गन्धर्व, पिशाच, राक्षस, सर्प, यक्ष तथा,मनुष्य किसी प्रकार अन्यथा नहीं कर सकते थे; तो भी यह केवल एक अक्षौहिणी सेना को ही जलाकर शान्त हो गया। श्रीकृष्ण और अर्जुन भी तो मरणधर्मा मनुष्य ही हैं, इन दोनों का वध क्यों नहीं हुआ ? आप मेरे प्रश्न का ठीक_ठीक उत्तर दीजिये, मैं यह सब सुनना चाहता हूँ।‘ व्यासजी बोले___तू जिसके सम्बन्ध में आश्चर्य के साथ प्रश्न कर रहा है, वह बड़ा महत्वपूर्ण विषय है। अपने मन को एकाग्र करके सुन। एक समय की बात है, हमारे पूर्वजों के भी पूर्वज विश्वविधाता भगवान् नारायण ने विशेष कार्यवश धर्म के पुत्र में अवतार लिया था। उन्होंने हिमालय पर्वत पर रहकर बड़ी कठिन तपस्या की। छाछठ हजार वर्ष तक केवल वायु का आहार करके अपने  शरीर को सुखा डाला।
इसके बाद भी उन्होंने इससे दूने वर्षों तक पुनः भारी तपस्या की। इससे प्रसन्न होकर भगवान् शंकर ने उन्हें दर्शन दिया। विश्वेश्वर की झाँकी करके नारायण ऋषि आनन्दमग्न हो गये, उनको प्रणाम करके वे बड़े भक्तिभाव से भगवान् की स्तुति करने लगे___’आदिदेव ! जिन्होंने पृथ्वी में आपके पुरातन सर्ग की रक्षा की थी तथा जो इस विश्व की भी रक्षा करते हैं, वे संपूर्ण प्राणियों की सृष्टि करनेवाले प्रजापति भी आपसे ही प्रगट हुए हैं। देवता, असुर, नाग, राक्षस, पिशाच, मनुष्य, पक्षी, गन्धर्व तथा यक्ष आदि विभिन्न प्राणियों के जो समुदाय हैं, इन सबकी उत्पत्ति आपसे ही हुई है। इन्द्र, यम, वरुण और कुबेर का पद, पितरों का लोक तथा विश्वकर्मा की सुन्दर शिल्पकला आदि का अविर्भाव भी आपसे ही हुआ है। शब्द और आकाश, स्पर्श और वायु, रूप और तेज,  रस और जल तथा गन्ध और पृथ्वी की आप ही से उत्पत्ति हुई है। काल, ब्रह्मा, वेद, ब्राह्मण तथा यह संपूर्ण चराचर जगत् आपसे ही प्रगट हुआ है।
जैसे जल से उत्पन्न होनेवाले जीव उससे भिन्न दिखायी देते हैं परन्तु नष्ट होने पर उस जल के साथ एकीभूत हो जाते हैं, उसी प्रकार यह समस्त विश्व आपसे ही प्रगट होकर आपमें ही लीन हो जाता है। इस तरह जो भी आपको संपूर्ण भूतों की उत्पत्ति और प्रलयकाल का अधिष्ठान जनाते हैं, वे विद्वान पुरुष आपके सामुज्य को प्राप्त होते है। जिनका स्वरूप मन बुद्धि के चिन्तन का विषय नहीं होता, वे पिनाकधारी भगवान् नीलकण्ठ नारायण ऋषि के इस प्रकार स्तुति करने पर उन्हें वरदान देते हुए बोले___’नारायण ! मेरी कृपा से किसी प्रकार के शस्त्र, वज्र, अग्नि, वायु, गीले या सूखे पदार्थ और स्थावर या जंगम प्राणी के द्वारा भी कोई तुम्हें चोट नहीं पहुँचा सकता। समरभूमि में पहुँचने पर तुम मुझसे भी अधिक बलिष्ठ हो जाओगे।‘ इस प्रकार श्रीकृष्ण ने पहले ही भगवान् शंकर से अनेकों वरदान पा लिये हैं। वे ही भगवान् नारायण माया से इस संसार को मोहित करते हुए इनके रूप में विचर रहे हैं नारायण के ही तप से महामुनि नर प्रकट हुए, अर्जुन को उन्हीं का अवतार समझ। इनका स्वरूप भी नारायण के समान ही है। ये दोनों ऋषि संसार को धर्ममर्यादा में रखने के लिये प्रत्येक युग में अवतार लेते हैं।
 अश्त्थामा ! तूने भी पूर्वजन्म में भगवान् शंकर को प्रसन्न करने के लिये कठोर  नियमों का पालन करते हुए अपने शरीर को दुर्बल कर डाला था, इससे प्रसन्न होकर भगवान् ने  तुम्हें बहुत से मनोवांछित वरदान दिये थे। जो मनुष्य भगवान् शंकर के सर्वमय स्वरूप को जानकर लिंगरूप में उनकी पूजा करता है, उसे सनातन शास्त्रज्ञान तथा आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। जो शिवलिंग को सर्वमान्य जानकर उसका अर्चन करता हैं, उसपर भगवान शंकर की बड़ी कृपा होती है।
वेदव्यास की ये बातें सुनकर अश्त्थामा ने मन_ही_मन शंकरजी को प्रणाम किया और श्रीकृष्ण में उसकी महत्वबुद्धि हो गयी। उसने रोमांचित शरीर से महर्षि व्यास को प्रणाम किया और सेना की ओर देखकर उसे छावनी में लौटने की आज्ञा दी। तदनन्तर कौरव और पाण्डव दोनों पक्ष की सेनाएँ अपने_अपने  शिविर को चल दीं। इस प्रकार वेदों के पारगामी आचार्य द्रोण पाँच दिनों तक पाण्डवसेना का संहार करके ब्रह्ममलोक में चले गये।

Friday 22 May 2020

नारायणास्त्र का प्रभाव देख युधिष्ठिर का विषाद तथा भगवान् कृष्ण के बताये हुए उपाय से उसका निवारण; अश्त्थामा के साथ धृष्टधुम्न, सात्यकि तथा भीमसेन का घोर युद्ध

संजय कहते हैं___राजन् ! तदनन्तर अश्त्थामा ने दुर्योधन से पुनः अपनी प्रतिज्ञा कह सुनायी___’धर्म का चोला पहने हुए कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर ने युद्ध करते हुए आचार्य से कपटपूर्ण बात कहकर उन्हें शस्त्र त्यागने के लिये बाध्य किया है; इसलिये आज उनके देखते_देखते उनकी सेना को मार भगाऊँगा और धृष्टधुम्न को मार भी डालूँगा। यह मेरी सच्ची प्रतिज्ञा है; अतः तुम सेना को लौटाकर ले चलो।‘ उसकी बात सुनकर आपके पुत्र ने सेना को पीछे लौटाया और भय को त्यागकर बड़े जोर से सिंहनाद किया। फिर कौरवों और पाण्डवों में युद्ध आरम्भ हुआ। हजारों शंख और भेरियाँ बज उठीं। इसी समय अश्त्थामा ने पाण्डवों तथा पांचालों की सेना को लक्ष्य करके नारायणास्त्र का प्रयोग किया था। उससे हजारों बाण निकलकर आकाश में छा गये, उन सबके अग्रभाग प्रज्वलित हो रहे थे। उनके अंतरिक्ष और दिशाएँ आच्छादित हो गयीं। फिर लोहे के गोले, चतुश्रच्क, द्विचक्र, शतध्नी, गदा और जिसके चारों ओर छुरे लगे हुए थे, ऐसे सूर्यमण्डलाकार चक्र प्रकट हुए। इस प्रकार नाना प्रकार के शस्त्रों से आकाश को व्याप्त देख पाण्डव, पांचाल और सृंजय घबरा उठे। पाण्डव महारथी ज्यों_ ज्यों युद्ध करते, त्यों_त्यों उस अस्त्र का जोर बढ़ता जाता था। उससे पाण्डवसेना भस्म होने लगी। यह संहार देख धर्मराज को बड़ा भय हुआ। उन्होंने देखा___ मेरी सेना अचेत सी होकर भाग रही है और अर्जुन उदासीन भाव से चुपचाप खड़े है, तो सब योद्धाओं से कहा___’ धृष्टधुम्न ! पाचालों की सेना के साथ तुम भाग जाओ। सात्यके ! तुम भी वृष्णि और अंधकों के साथ चल दो। अब धर्मात्मा श्रीकृष्ण से जो कुछ हो सकेगा, करेंगे। ये सारे जगत् के कल्याण का उपदेश देते हैं, तो अपना क्यों नहीं करेंगे ? मैं संपूर्ण सैनिकों से कह रहा हूँ, कोई भी युद्ध न करो। भाइयों को साथ लेकर मैं अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगा। अर्जुन की मेरे प्रति जो कामना है, वह शीघ्र ही पूरी हो जानी चााहिये; क्योंकि सदा ही अपना कल्याण करनेवाले आचार्य का मैंने वध करवाया ! अतः उनके लिये मैं भी बन्धुओंसहित मर जाऊँगा।‘ जब युधिष्ठिर इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय भगवान् श्रीकृष्ण ने दोनों भुजाएँ उठाकर सबको रोका और इस प्रकार कहा___’योद्धाओं ! अपने हथियार शीघ्र ही नीचे डाल दो और सवारियों से उतर जाओ; नारायणास्त्र की शान्ति का यही उपाय बताया गया है। भूमि पर खड़े हुए निहत्थे लोगों को यह अस्त्र नहीं मारेगा। इसके विपरीत , ज्यों_ ही_ ज्यों योद्धा इस अस्त्र के सामने युद्ध करेंगे त्यों_ही_त्यों कौरव अधिक बलवान् होते जायँगे। जो इस अस्त्र की सामना करने के लिये मन में विचार भी करेंगे, वे रसातल में चले जायँ तो भी यह अस्त्र मारे बिना नहीं छोड़ेगा।‘ भगवान् कृष्ण की बातें सुनकर सभी योद्धाओं ने हाथ से और मन से भी शस्त्र त्याग देने का विचार कर लिया। सबको अस्त्र त्यागने के लिये उद्यत देख भीमसेन ने कहा___ वीरों ! कोई भी अस्त्र न फेंकना। मैं अपने बाणों से अश्त्थामा के अस्त्रों का वारण करूँगा। इस भारी गदा से उसके अस्त्रों का नाश करके मैं उसके ऊपर भी काल की भाँति प्रहार करूँगा। यदि इस नारायणास्त्र का मुकाबला करने के लिये अब तक कोई योद्धा समर्थ नहीं हुआ, तो आज कौरव_ पाण्डवों के देखते_देखते मैं इसका सामना करूँगा। अर्जुन ! अर्जुन तुम अपने गाण्डीव को नीचे न डाल देना; नहीं तो चन्द्रमा की भाँति तुम्हें भी कल॑क लग जायगा, जो तुम्हारी शक्ति को नष्ट कर देगा। अर्जुन बोले___ भैया ! नारायणास्त्र, गौ और ब्राह्मणों के सामने नीचे डाल देने का  मेरा व्रत है।
अर्जुन के ऐसा कहने पर भीमसेन अकेले ही मेघ के समान गर्जना करते हुए अश्त्थामा के सामने गये और उसपर बाणसमूहों की वर्षा  करने लगे। अश्त्थामा ने भी उनसे हँसकर बात की और उनपर नारायणास्त्र से अभिमन्त्रित बाणों की झड़ी लगा दी। महाराज ! भीमसेन जब उस अस्त्र के सामने बाण मारने लगे, उस समय जैसे हवा का सहारा पाकर आग प्रज्वलित हो उठती है उसी प्रकार उस अस्त्र का वेग बढ़ने लगा। उसे बढ़ते देख भीम के सिवा पाण्डव सेना के सभी सैनिक भयभीत हो गये। सबलोग अपने दिव्य अस्त्रों को नीचे डालकर रथ, हाथी और घोड़े आदि वाहनों से उतर गये। अब वे महाबली अस्त्र सब ओर से हटकर भीम के मस्तक पर आ पड़ा। उससे अच्छऻदित होकर भीमसेन अदृश्य हो गये। इससे सभी प्राणी और विशेषतः पाण्डवलोग हाहाकार मचाने लगे। भीमसेन के साथ ही उनके रथ, घोड़े और सारथि भी अश्त्थामा के अस्त्र से आच्छादित हो आग के भीतर आ पड़े। जैसे प्रलयकाल में संवर्तक अग्नि संपूर्ण चराचर जगत् को भस्म करके परमात्मा के मुख में प्रवेश कर जाती है, उसी प्रकार उस अस्त्र ने भीमसेन को दग्ध करने के लिये उन्हें चारों ओर से घेर लिया। उसका तेज भीमसेन के भीतर प्रविष्ट हो गया। यह देख अर्जुन और श्रीकृष्ण दोनों वीर तुरंत ही रथ ले कूद पड़े और भीम की ओर दौड़े। वहाँ पहुँचकर दोनों उस अस्त्र की आग में घुस गये, किन्तु अस्त्र त्याग देने के कारण वह आग इन्हें जला न सकी। नारायणास्त्र की शान्ति के लिये दोनों ही भीमसेन को तथा उनके संपूर्ण अस्त्र_ शस्त्रों को जोर लगाकर खींचने लगे। उनके खींचने पर भीमसेन और जोर से गर्जना करने लगे; इससे वह भयंकर अस्त्र और भी उग्ररूप धारण करने लगा। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने भीम से कहा___’पाण्डुनन्दन ! यह क्या बात है ? मना करने पर भी तुम युद्ध बन्द क्यों नहीं करते ? यदि इस  युद्ध से ही कौरव जीते जा सकते तो हम तथा ये सभी राजा युद्ध ही करते। यहाँ हठ से काम नहीं चलेगा। तुम्हारे पक्ष के सभी योद्धा रथ से उतर चुके हैं, तुम भी शीघ्र उतर जाओ।‘ यह कहकर श्रीकृष्ण ने उन्हें रथ से नीचे खींच लिया। नाचे उतरकर ज्योंही अपना अस्त्र धरती पर डाला, ज्योंही नारायणास्त्र शान्त हो गया।
इस प्रकार उस दुःसह तेज के शान्त हो जाने पर संपूर्ण दिशाएँ साफ हो गयीं, ठण्डी हवा चलने लगी तथा पशु_पक्षियों का कोलाहल बन्द हो गया। हाथी और घोड़े आदि वाहन भी सुखी हो गये। पाण्डवों की जो सेना मरने से बच गयी थी, वह अब आपके पुत्रों का नाश करने के लिये पुनः हर्ष से भर गयी। उस समय दुर्योधन ने द्रोणपुत्र से कहा___’अश्त्थामन् ! एक बार फिर इस अस्त्र का प्रयोग करो; देखो, वह पांचालों की सेना विजय की इच्छा से पुनः संग्रामभूमि में आकर डट गयी है।‘ आपके पुत्र पर ऐसा कहने पर अश्त्थामा दीनतापूर्ण उच्छ्वास् लेकर बोला____’राजन् ! इस अस्त्र का दुबारा प्रयोग नहीं हो सकता है। दुबारा  प्रयोग करने पर यह अपने ही ऊपर आकर पड़ता है। श्रीकृष्ण ने इसे शान्त करने का उपाय बता दिया, नहीं तो आज संपूर्ण शत्रुओं का वध ही हो जाता।‘ दुर्योधन ने कहा___’भाई ! तुम तो संपूर्ण अस्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ हो;  यदि इस अस्त्र का दो बार प्रयोग नहीं हो सकता तो अन्य अस्त्रों से ही इनका संहार करो; क्योंकि ये सभी गुरुदेव द्रोण के हत्यारे हैं। तुम्हारे पास बहुत से दिव्यास्त्र हैं; यदि मारना चाहो तो क्रोध में भरे हुए इन्द्र भी तुमसे बचाकर नहीं जा सकते।‘ पिता की मृत्यु याद आ जाने से अश्त्थामा पुनः क्रोध में भरकर धृष्टधुम्न की ओर दौड़ा। निकट पहुँचकर उसने पहले बीस और फिर पाँच बाणों से उसे घायल किया। धृष्टधुम्न ने भी चौंसठ बाण मारकर अश्त्थामा को बींध डाला तथा बीस बाणों से सारथि को और चार से चारों घोड़ों को घायल कर दिया। धृष्टधुम्न अश्त्थामा को बारम्बार बींधकर पृथ्वी को कंपायमान करके गरजने लगा।
 अश्त्थामा ने भी कुपित हो धृष्टधुम्न को दस बाण मारे, फिर उसकी ध्वजा और धनुष काट दिये। इसके बाद अन्य बहुत से सायकों द्वारा धृष्टधुम्न को पीड़ित कर दिया और घोड़ों तथा सारथि को मारकर उसे रथहीन कर दिया। तत्पश्चात् उसके सैनिकों को भी मार भगाया। यह देखकर सात्यकि अपने रथ को अश्त्थामा के पास ले गया। वहाँ पहुँचकर उसने अश्त्थामा को पहले आठ, फिर बीस बाणों से बींध दिया। इसके बाद सारथि तथा घोड़ों को घायल किया। फिर उसके धनुष और ध्वजा को काटकर रथ को तोड़ डाला। तदनन्तर उसकी  छाती में तीस बाण मारे। उस समय दुर्योधन ने बीस, कृपाचार्य ने तीन, कृतवर्मा ने दस, कर्ण ने पचास, दुःशासन ने सौ तथा वृषसेन ने सात बाण मारकर सात्यकि को घायल किया। तब सात्यकि ने एक ही क्षण में उन सभी महारथियों को रथहीन करके रणभूमि से भगा दिया। इतने में अश्त्थामा दूसरे रथ पर सवार होकर आया और सैकड़ों सायकों की वृष्टि करता हुआ सात्यकि को रोकने लगा। सात्यकि ने जब उसे आते देखा, तो पुनः उसके रथ के टुकड़े करके उसे मार भगाया। सात्यकि का वह पराक्रम देख पाण्डव बारम्बार शंख बजाने और सिंहनाद करने लगे। इस प्रकार द्रोणपुत्र को रथहीन करके सात्यकि ने बृषकेतु के तीन हजार महारथियों का, कृपाचार्य के पन्द्रह हजार हाथियों का तथा शकुनि के पचास हजार घोड़ों का संहार कर डाला। यह कहकर अश्त्थामा ने सात्यकि पर एक बहुत तीखा बाण मारा। उसने सात्यकि का कवच छेदकर उसे अत्यन्त चोट पहुँचायी। कवच छिन्न_भिन्न हो गया, उसके हाथ से धनुष और बाण गिर गये, खून से लथपथ हो वह रथ के पिछले भाग में जा बैठा। यह देख सारथि उसे अश्त्थामा के सामने से अन्यत्र हटा ले गया। तदनन्तर अर्जुन, भीमसेन, बृहच्क्षत्र, चेदिराजकुमार, सुदर्शन___ ये पाँच महारथी आ पहुँचे और सबने चारों ओर से अश्त्थामा को घेर लिया। उन्होंने बीस पद दूर रहकर अश्त्थामा को पाँच_पाँच बाण मारे। अश्त्थामा ने भी एक ही साथ पच्चीस बाण मारकर उनके सब बाणों को काट दिया। इसके बाद उसने बृहच्क्षत्र को सात, सुदर्शन को तीन, अर्जुन को एक और भीमसेन को  छः बाणों से बींध डाला। तब चेदिदेशिय युवराज ने बीस, अर्जुन ने आठ और अन्य सब लोगों ने तीन तीन बाणों से अश्त्थामा को घायल कर दिया। इसके बाद अश्त्थामा ने अर्जुन को छः, श्रीकृष्ण को दस, भीमसेन को पाँच, चेदियुवराज को चार और सुदर्शन तथा बृहच्क्षत्र को दो_ दो बाण मारे। फिर भीमसेन ने सारथि को छः बाणों से. घायल कर दो बाणों से उनकी ध्वजा और धनुष काट डाले। तत्पश्चात् अपने सायकों की वर्षा से अर्जुन को बींधकर उसने सिंह के समान गर्जना की। फिर तीन बाणों से उसने रथ के पास ही खड़े हुए सुदर्शन की दोनों भुजाएँ और मस्तक उड़ा दिये, शक्ति से पौरव बृहच्क्षत्र को मार डाला तथा अग्नि के समान तेजस्वी बाणों से चेदिदेश के युवराज को सारथि और घोड़ोंसहित यमलोक भेज दिया। यह देखकर भीमसेन के क्रोध की सीमा न रही, उन्होंने सैकड़ों तीखे बाणों से अश्त्थामा को ढक दिया। परन्तु अश्त्थामा ने अपने सायकों से उनकी बाणवर्षा का नाश कर दिया और क्रोध में भरकर उन्हें भी घायल किया। तब भीमसेन ने यमदण्ड के समान भयंकर दस नाराच चलाये, वे अश्त्थामा के गले का हँसली छेदकर भीतर घुस गये। इस चोट से अत्यन्त पीड़ित हो उसने आँखें बन्द कर लीं और ध्वजा का सहारा लेकर बैठ गया। थोड़ी देर में जब होश हुआ, तो उसने भीमसेन को सौ बाण मारे। इस प्रकार दोनों ही वर्षाकाल के मेघ के समान एक दूसरे पर बाणों की वर्षा करने लगे।
महाराज ! उस युद्ध में हमलोगों को भीमसेन के अद्भुत पराक्रम, अद्भुत बल, अद्भुत वीरता, अद्भुत प्रभाव तथा अद्भुत पराक्रम का परिचय मिला। उन्होंने द्रोणपुत्र का वध करने की इच्छा से बाणों की बड़ी भयंकर वृष्टि की। इधर अश्त्थामा भी बड़ा भारी अस्त्रवेत्ता था, उसने अस्त्रों का माया से उनकी बाणवर्षा रोक दी और उनका धनुष काट डाला; फिर क्रोध में भरकर अनेकों बाणों से उन्हें घायल किया। धनुष कट जाने पर भीम ने भयंकर रथशक्ति हाथ में ली और उसे बड़े वेग से घुमाकर अश्त्थामा के रथ पर चलाया; किन्तु उसने तेज बाण मारकर उसके टुकड़े_ टुकड़े कर डाले। इसी बीच में भीमसेन ने एक सुदृढ़ धनुष हाथ में लिया और बहुत_ से बाणों का प्रहार कर अश्त्थामा को बींध डाला। तब अश्त्थामा ने एक बाण मारकर भीमसेन के सारथि का ललाट चीर दिया, उस प्रहार से सारथि मूर्छित हो गया। उसके हाथ से घोड़ों की बागडोर छूट गयी। सारथि के बेहोश होते ही भीमसेन के घोड़े सब धनुर्धारियों के देखते_ देखते भाग चले। विजयी अश्त्थामा हर्ष में भरकर शंख बजाने लगा और पांचालयोद्धा तथा भीमसेन भयभीत होकर इधर_ उधर भाग निकले।