Wednesday 8 June 2022

भगवान् का अर्जुन को प्रतिज्ञा भंग, भातृवध तथा आत्मघात से बचाना और युधिष्ठिर को वन जाने से रोकना

अर्जुन बोले_ श्रीकृष्ण ! कोई बहुत बड़ा विद्वान और बुद्धिमान मनुष्य जैसा उपदेश दे सकता है तथा जिसके अनुसार आचरण होने से हमलोगों का कल्याण होना संभव है, वैसी ही बात आपने बतायी है। आप हमलोगों के माता_पिता तुल्य हैं, आप ही परम गति हैं इसलिये आपने बहुत उत्तम बात बतायी है। तीनों लोकों में कहीं कोई भी ऐसी बात नहीं है, जो आपको विदित न हो। अतः आप ही परम धर्म को पूर्णरूप से तथा ठीक_ठीक जानते हैं। अब मैं राजा युधिष्ठिर को मारने योग्य नहीं समझता। मेरी इस प्रतिज्ञा के संबंध में आप ही अनुग्रह करके कुछ ऐसी बात बताइये, जिससे इसका पालन भी हो जाय और राजा का वध भी न होने पावे। भगवन् ! आप तो जानते ही हैं कि मेरा व्रत क्या है ? मनुष्यों में जो कोई भी यह कह दे कि ‘तुम अपना गाण्डीव धनुष दूसरे किसी वीर को दे डालो, जो अस्त्रविद्या और पराक्रम में तुमसे बढ़कर हो।‘ मैं तो हठात् उसकी जान ले लूं। इसी तरह भीमसेन को कोई ‘तूबरक’ ( बिना मूंछ का या अधिक खाने वाला ) कह दे, तो वे सहसा उसे मार डाले। राजा ने आपके सामने ही मुझसे कहा है कि ‘तुम अपना धनुष दूसरे को दे डालो। ऐसी दशा में यदि मैं इन्हें मार डालूं तो इनके बिना एक क्षण के लिये भी मैं इस संसार में नहीं रह सकूंगा और यदि इनका वध न करूं तो फिर प्रतिज्ञा भंग के पाप से कैसे मुक्त होऊंगा ? क्या करूं ? मेरी बुद्धि कुछ काम नहीं देती। कृष्ण ! संसार के लोगों की समझ में मेरी प्रतिज्ञा भी सच्ची हो तो राजा युधिष्ठिर का तथा मेरा जीवन भी सुरक्षित रहे_ऐसा कोई सलाह दीजिये।‘ 
श्रीकृष्ण ने कहा_वीरवर ! सुनो ! राजा युधिष्ठिर थक गये हैं और बहुत दुःखी हैं। कर्ण ने अपने तीखे बाणों से इन्हें संग्राम में अधिक घायल कर डाला है। इतना ही नहीं, ये जब युद्ध नहीं कर रहे थे, उस समय भी उसने इनके ऊपर बाणों का प्रहार किया। इसीलिए दुख और रोष में भरकर इन्होंने तुम्हें न कहने योग्य बात कह दी है। ये जानते हैं कि पापी कर्ण को सिर्फ तुम्हीं मार सकते हो; और उसके मारे जाने पर कौरवों को शीघ्र ही जीत लिया जा सकता है।
इसी विचार से इन्होंने वे बातें कह डाली हैं; इसलिये इनका वध करना उचित नहीं है। अर्जुन ! तुम्हें अपने प्रतिज्ञा का पालन करना है तो जिस उपाय से ये जीवित रहते हुए मरे के समान हो जायं, वहीं बताता हूं, सुनो। यही उपाय तुम्हारे अनुरूप होगा। सम्माननीय पुरुष जबतक संसार में सम्मान पाता है, जबतक ही उसका जीवित रहना माना जाता है, जिस दिन उसका बहुत बड़ा अपमान हो जाय, उस समय वह जीते_जी ‘मरा’ समझा जाता है। तुमने, भीमसेन ने, नकुल_सहदेव  ने तथा अन्य वृद्ध पुरुषों एवं शूरवीरों ने राजा युधिष्ठिर का हमेशा ही सम्मान किया है। आज तुम उनका अंशश: अपमान करो। यद्यपि युधिष्ठिर पूज्य होने के कारण ‘आप' कहने योग्य हैं तथापि इन्हें ‘तू’ कह दो। गुरुजन को ‘तू’ कह देना उनका वध कर देने के समान माना जाता है। जिसके देवता अथर्वा और अंगिरा हैं, ऐसी एक सर्वोत्तम श्रुति बताई जाती है। अपना भला चाहनेवाले को बिना बिचारे ही इसके अनुसार वर्ताव करना चाहिये। उस श्रुति का भाव यह है_’गुरु को तू कह देना उसे बिना मारे ही मार डालना है। ‘ इसलिये जैसा मैंने बताया उसी के अनुसार तुम धर्मराज के लिये ‘तू’ शब्द का प्रयोग करो। इसके बाद तुम इनके चरणों में प्रणाम करके शान्त्वना देना और अपनी कही हुई अनुचित बात के लिये क्षमा मांग लेना। 
तुम्हारे भाई राजा युधिष्ठिर समझदार हैं, वे धर्म का ख्याल करके भी तुम पर क्रोध नहीं करेंगे। इस प्रकार तुम मिथ्याभाषण और भातृवध के पाप से छूटकर प्रसन्नतापूर्वक सूतपुत्र कर्ण का वध करना। अपने सखा भगवान् श्रीकृष्ण का वचन सुनकर अर्जुन ने उसकी बड़ी प्रशंसा की, फिर वे हठपूर्वक धर्मराज के प्रति ऐसे कटुवचन कहने लगे, जैसे पहले कभी नहीं कहे थे। वे बोले_’तू चुप रह, न बोल, तू खुद ही लड़ाई से भागकर एक कोस दूर आ बैठा है, तू क्या उलाहना देगा ? हां, भीमसेन को मेरी निंदा करने का अधिकार है; क्योंकि वे समस्त संसार के प्रमुख वीरों के साथ लड़ रहे हैं। शत्रुओं को पीड़ा पहुंचा रहे हैं। असंख्य शूरवीरों, अनेकों राजाओं, रथियों, घुड़सवारों तथा हजारों हाथियों को मौत के घाट उतारकर कम्बोजों और पर्वतीय योद्धाओं को इस तरह नष्ट कर रहे हैं, जैसे सिंह मृगों को। तू अपने कठोर वचनों के चाबुक से अब मुझे न मार, मेरे कोप को फिर न बढ़ा। अर्जुन धर्मभीरू थे, वे युधिष्ठिर को ऐसी कठोर बातें सुनाकर बहुत उदास हो गये। यह जानकर कि ‘मुझसे कोई बहुत बड़ा पाप बन गया’ उनके चित्त में बड़ा खेद हुआ। बारंबार उच्छवास खींचते हुए उन्होंने फिर से तलवार उठा ली। यह देखकर श्रीकृष्ण ने कहा_’अर्जुन ! यह क्या ? तुम फिर क्यों तलवार उठा रहे हो ? मुझे जवाब दो, तुम्हारा अभीष्ट सिद्ध करने के लिये मैं पुनः कोई उपाय बताऊंगा।
पुरुषोत्तम के ऐसा कहने पर अर्जुन दु:खी होकर बोले_’भगवन् ! मैंने जिदमें आकर भाई का अपमान रूप महान् पाप कर डाला है, इसलिये अब मैं अपने इस शरीर को ही नष्ट कर डालूंगा।‘ अर्जुन की बात सुनकर भगवान् ने कहा_पार्थ ! राजा युधिष्ठिर को ‘तू’ मात्र कहकर तुम इतने घोर दु:ख में क्यों डूब गये ? उफ़ ! इसी के लिये आत्मघात करना चाहते हो ? अर्जुन ! श्रेष्ठ पुरुषों ने कभी ऐसा काम नहीं किया है। धर्म का स्वरूप सूक्ष्म है और उसको समझना कठिन। अज्ञानियों के लिये तो और भी मुश्किल है।
यहां जो कर्तव्य है , उसे मैं बताता हूं, सुनो ! भाई का वध करने से जिस नरक की प्राप्ति होती है, उससे भी भयानक नरक तुम्हें आत्मघात करने से मिलेगा। इसलिये अब अपने ही मुंह से अपने गुणों का बखान करो, ऐसा करने से यही समझा जायेगा कि तुमने अपने ही हाथों अपने को मार लिया।‘ यह सुनकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण की बातों का अभिनन्दन किया और ‘तथास्तु’ कहकर धनुष को नवाते हुए वे युधिष्ठिर से बोले_’राजन् ! अब मेरे गुणों को सुनिये_पिनाकधारी भगवान् शंकर को छोड़कर दूसरा कोई भी मेरे समान धनुर्धर नहीं है; मेरी वीरता का उन्होंने भी अनुमोदन किया है। यदि चाहूं तो इस चराचर जगत् को एक ही क्षण में नष्ट कर डालूंगा। मेरे चरणों में रथ और ध्वजा के चिह्न हैं। मुझ जैसा वीर यदि युद्ध में पहुंच जाय तो उसे कोई भी नहीं जीत सकता। उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम_इन सभी दिशाओं के राजाओं का मैंने संहार किया है।‘
कृष्ण ! अब हम दोनों विजयशाली रथ पर बैठकर सूतपुत्र कर्ण का वध करने के लिये शीघ्र ही चल दें। आज राजा युधिष्ठिर प्रसन्न हों, मैं कर्ण को अपने बाणों से नष्ट कर डालूंगा।‘ यों कहकर अर्जुन पुनः युधिष्ठिर से बोले_’आज या तो कर्ण की माता पुत्रवती न होगी या माता कुन्ती ही मुझसे ही हीन हो जायगी। मैं सत्य कहता हूं, अपने बाणों से कर्ण को मारे बिना आज कवच नहीं उतारुंगा। यह कहकर अर्जुन ने तुरंत अपने हथियार और धनुष नीचे डाल दिये, तलवार म्यान में रख दी, फिर लज्जित होकर उन्होंने युधिष्ठिर के चरणों में सिर झुकाया और हाथ जोड़कर कहा ‘महाराज ! मैंने जो कुछ कहा है उसे क्षमा कीजिये और मुझपर प्रसन्न हो जाइये। मैं आपको प्रणाम करता हूं। अब मैं सब तरह से प्रयत्न करके भीमसेन को युद्ध से छुड़ाने और सूतपुत्र कर्ण का वध करने के लिये जा रहा हूं। राजन् ! मेरा जीवन आपका प्रिय करने के लिये ही है_यह मैं सत्य कहता हूं।‘ ऐसा कहकर अर्जुन ने राजा के दोनों चरणों का स्पर्श किया और फिर वे रणभूमि की ओर जाने को उद्यत हो गये। धर्मराज युधिष्ठिर अर्जुन के कठोर वचनों को सुनकर अपने पलंग पर खड़े हो गये, उस समय उनका चित्त बहुत दुःखी हो गया था। वे कहने लगे_’पार्थ ! मैंने अच्छे काम नहीं किये हैं, इसलिये तुमलोगों पर घोर संकट आ पड़ा है। मेरी बुद्धि मारी गयी है, मैं आलसी और डरपोक हूं, इसलिये आज वन में चला जाता हूं। मेरे न रहने पर तुम सुख से रहना। महात्मा भीमसेन ही राजा होने के योग्य है, मैं तो क्रोधी और कायर हूं। अब मुझमें तुम्हारी ये कठोर बातें सहन करने की शक्ति नहीं है। इतना अपमान हो जाने पर मेरे जीवित रहने की कोई आवश्यकता नहीं है।‘_यह कहकर वे सहसा पलंग से कूद पड़े और वन जाने को उद्यत हो गये। यह देख भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें प्रणाम करके कहा_’राजन् ! आपको तो सत्यप्रतिज्ञ अर्जुन की यह प्रतिज्ञा मालूम ही है कि जो कोई उन्हें गाण्डीव धनुष दूसरे को देने के लिये कह देगा, वह उनका वध्य होगा। फिर भी आपने उन्हें वैसी बात कह दी। इससे अर्जुन ने अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा करते हुए मेरे कहने पर आपका अनादर किया है। गुरुजनों का अपमान ही उनका वध कहलाता है। इसलिए मैंने तथा अर्जुन ने सत्य की रक्षा की दृष्टि में रखकर आपके साथ न्याय के विरुद्ध आचरण किया है, उसे आप क्षमा कीजिये। हम दोनों ही आपकी शरण में आये हैं। मेरा भी अपराध है इसके लिये आपके चरणों पर गिरकर क्षमा की भीख मांगता हूं। आप मुझे भी क्षमा कर दें। आज यह पृथ्वी पापी कर्ण का रक्तपान करेगी, मैं आपसे सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूं, अब सूतपुत्र को मरा हुआ ही मान लीजिये।‘
भगवान् की यह बात सुनकर युधिष्ठिर ने सहसा उन्हें अपने चरणों पर से उठाया और हाथ जोड़कर कहा_’गोविन्द ! आप जो कुछ कहते हैं, बिलकुल ठीक है, सचमुच ही मुझसे यह भूल हो गयी है। माधव ! आपने यह रहस्य बताकर मुझपर बड़ी कृपा की, डूबने से बचा लिया। आज आपने हमलोगों की भयंकर विपत्ति से रक्षा की। आप जैसे स्वामी को पाकर ही हम दोनों संकट के भयानक समुद्र से पार हो गये। हमलोग अज्ञानवश मोहित हो रहे थे, आपकी ही बुद्धि रूप नौका का सहारा ले अपने मंत्रियोंसहित शोकसागर के पार हुए हैं। अच्युत ! हम आपसे ही सनाथ हैं।‘


अर्जुन बोले_ श्रीकृष्ण ! कोई बहुत बड़ा विद्वान और बुद्धिमान मनुष्य जैसा उपदेश दे सकता है तथा जिसके अनुसार आचरण होने से हमलोगों का कल्याण होना संभव है, वैसी ही बात आपने बतायी है। आप हमलोगों के माता_पिता तुल्य हैं, आप ही परम गति हैं इसलिये आपने बहुत उत्तम बात बतायी है।
तीनों लोकों में कहीं कोई भी ऐसी बात नहीं है, जो आपको विदित न हो। अतः आप ही परम धर्म को पूर्णरूप से तथा ठीक_ठीक जानते हैं। अब मैं राजा युधिष्ठिर को मारने योग्य नहीं समझता। मेरी इस प्रतिज्ञा के संबंध में आप ही अनुग्रह करके कुछ ऐसी बात बताइये, जिससे इसका पालन भी हो जाय और राजा का वध भी न होने पावे। 
भगवन् ! आप तो जानते ही हैं कि मेरा व्रत क्या है ? मनुष्यों में जो कोई भी यह कह दे कि ‘तुम अपना गाण्डीव धनुष दूसरे किसी वीर को दे डालो, जो अस्त्रविद्या और पराक्रम में तुमसे बढ़कर हो।‘ मैं तो हठात् उसकी जान ले लूं। इसी तरह भीमसेन को कोई ‘तूबरक’ ( बिना मूंछ का या अधिक खाने वाला ) कह दे, तो वे सहसा उसे मार डाले। हो राजा ने आपके सामने ही मुझसे कहा है कि ‘तुम अपना धनुष दूसरे को दे डालो। ऐसी दशा में यदि मैं इन्हें मार डालूं तो इनके बिना एक क्षण के रिमेक भी मैं इस संसार में नहीं रह सकूंगा और यदि इनका वध न करूं तो फिर प्रतिज्ञा भंग के पाप से कैसे मुक्त होऊंगा ? क्या करूं ? मेरी बुद्धि कुछ काम नहीं देती। कृष्ण ! संसार के लोगों की समझ में मेरी प्रतिज्ञा भी सच्ची हो तो राजा युधिष्ठिर का तथा मेरा जीवन भी सुरक्षित रहे_ऐसा कोई सलाह दीजिये।‘ 
श्रीकृष्ण ने कहा_वीरवर ! सुनो ! राजा युधिष्ठिर तक गये हैं और बहुत दुःखी हैं। कर्ण ने अपने तीखे बाणों से इन्हें संग्राम में अधिक घायल कर डाला है। इतना ही नहीं, ये जब युद्ध नहीं कर रहे थे, उस समय भी उसने इनके ऊपर बाणों का प्रहार किया। इसीलिए दुख और रोष में भरकर इन्होंने तुम्हें न कहने योग्य बात कह दी है। ये जानते हैं कि पापी कर्ण को सिर्फ तुम्हीं मार सकते हो; और उसके मारे जाने पर कौरवों को शीघ्र ही जीत लिया जा सकता है।
इसी विचार से इन्होंने वे बातें कह डाली हैं; इसलिये इनका वध करना उचित नहीं है। अर्जुन ! तुम्हें अपने प्रतिज्ञा का पालन करना है तो जिस उपाय से ये जीवित रहते हुए मरे के समान हो जायं, वहीं बताता हूं, सुनो। यही उपाय तुम्हारे अनुरूप होगा।
सम्माननीय पुरुष जबतक संसार में सम्मान पाता है, जबतक ही उसका जीवित रहना माना जाता है, जिस दिन उसका बहुत बड़ा अपमान हो जाय, उस समय वह जीते_जी ‘मरा’ समझा जाता है। तुमने, भीमसेन ने, नकुल_सहदेव  ने तथा अन्य वृद्ध पुरुषों एवं शूरवीरों ने राजा युधिष्ठिर का हमेशा ही सम्मान किया है। आज तुम उनका अंशश: अपमान करो। यद्यपि युधिष्ठिर पूज्य होने के कारण ‘आप' कहने योग्य हैं तथापि इन्हें ‘तू’ कह दो। गुरुजन को ‘तू’ कह देना उनका वध कर देने के समान माना जाता है।
जिसके देवता अथर्वा और अंगिरा हैं, ऐसी एक सर्वोत्तम श्रुति बताई जाती है। अपना भला चाहनेवाले को बिना बिचारे ही इसके अनुसार वर्ताव करना चाहिये। उस श्रुति का भाव यह है_’गुरु को तू कह देना उसे बिना मारे ही मार डालना है। ‘ इसलिये जैसा मैंने बताया उसी के अनुसार तुम धर्मराज के लिये ‘तू’ शब्द का प्रयोग करो। इसके बाद तुम इनके चरणों में प्रणाम करके शान्त्वना देना और अपनी कही हुई अनुचित बात के लिये क्षमा मांग लेना। 
तुम्हारे भाई राजा युधिष्ठिर समझदार हैं, वे धर्म का ख्याल करके भी तुम पर क्रोध नहीं करेंगे। इस प्रकार तुम मिथ्याभाषण और भातृवध के पाप से छूटकर प्रसन्नतापूर्वक सूतपुत्र कर्ण का वध करना।
अपने सखा भगवान् श्रीकृष्ण का वचन सुनकर अर्जुन ने उसकी बड़ी प्रशंसा की, फिर वे हठपूर्वक धर्मराज के प्रति ऐसे कटुवचन कहने लगे, जैसे पहले कभी नहीं कहे थे। वे बोले_’तू चुप रह, न बोल, तू खुद ही लड़ाई से भागकर एक कोस दूर आ बैठा है, तू क्या उलाहना देगा ? हां, भीमसेन को मेरी निंदा करने का अधिकार है; क्योंकि वे समस्त संसार के प्रमुख वीरों के साथ लड़ रहे हैं। शत्रुओं को पीड़ा पहुंचा रहे हैं। असंख्य शूरवीरों, अनेकों राजाओं, रथियों, घुड़सवारों तथा हजारों हाथियों को मौत के घाट उतारकर कम्बोजों और पर्वतीय योद्धाओं को इस तरह नष्ट कर रहे हैं, जैसे सिंह मृगों को। तू अपने कठोर वचनों के चाबुक से अब मुझे न मार, मेरे कोप को फिर न बढ़ा।
अर्जुन धर्मभीरू थे, वे युधिष्ठिर को ऐसी कठोर बातें सुनाकर बहुत उदास हो गये। यह जानकर कि ‘मुझसे कोई बहुत बड़ा पाप बन गया’ उनके चित्त में बड़ा खेद हुआ। बारंबार उच्छवास खींचते हुए उन्होंने फिर से तलवार उठा ली। यह देखकर श्रीकृष्ण ने कहा_’अर्जुन ! यह क्या ? तुम फिर क्यों तलवार उठा रहे हो ? मुझे जवाब दो, तुम्हारा अभीष्ट सिद्ध करने के लिये मैं पुनः कोई उपाय बताऊंगा।
पुरुषोत्तम के ऐसा कहने पर अर्जुन दु:की होकर बोले_’भगवन् ! मैंने जिदमें आकर भाई का अपमान रूप महान् पाप कर डाला है, इसलिये अब मैं अपने इस शरीर को ही नष्ट कर डालूंगा।‘ अर्जुन की बात सुनकर भगवान् ने कहा_पार्थ ! राजा युधिष्ठिर को ‘तू’ मात्र कहकर तुम इतने घोर दु:ख में क्यों डूब गये ? उफ़ ! इसी के रिमेक आत्मघात करना चाहते हो ? अर्जुन ! श्रेष्ठ पुरुषों ने कभी ऐसा काम नहीं किया है। धर्म का स्वरूप सूक्ष्म है और उसको समझना कठिन। अज्ञानियों के रिमेक तो और भी मुश्किल है।
यहां जो कर्तव्य है , उसे मैं बताता हूं, सुनो ! भाई का वध करने से जिस नरक की प्राप्ति होती है, उससे भी भयानक नरक तुम्हें आत्मघात करने से मिलेगा। इसलिये अब अपने ही मुंह से अपने गुणों का बखान करो, ऐसा करने से यही समझा जायेगा कि तुमने अपने ही हाथों अपने को मार लिया।‘ 
यह सुनकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण की बातों का अभिनन्दन किया और ‘तथास्तु’ कहकर धनुष को नवाते हुए वे युधिष्ठिर से बोले_’राजन् ! अब मेरे गुणों को सुनिये_पिनाकधारी भगवान् शंकर को छोड़कर दूसरा कोई भी मेरे समान धनुर्धर नहीं है; मेरी वीरता का उन्होंने भी अनुमोदन किया है। यदि चाहूं तो इस चराचर जगत् को एक ही क्षण में नष्ट कर डालूंगा। मेरे चरणों में रथ और ध्वजा के चिह्न हैं। मुझ जैसा वीर यदि युद्ध में पहुंच जाय तो उसे कोई भी नहीं जीत सकता। उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम_इन सभी दिशाओं के राजाओं का मैंने संहार किया है।‘
कृष्ण ! अब हम दोनों विजयशाली रथ पर बैठकर सूतपुत्र कर्ण का वध करने के लिये शीघ्र ही चल दें। आज राजा युधिष्ठिर प्रसन्न हों, मैं कर्ण को अपने बाणों से नष्ट कर डालूंगा।‘ यों कहकर अर्जुन पुनः युधिष्ठिर से बोले_’आज या तो कर्ण की माता पुत्री न होगी या माता कुन्ती ही मुझसे ही हीन हो जायगी। मैं सत्य कहता हूं, अपने बाणों से कर्ण को मारे बिना आज कवच नहीं उतारुंगा।
यह कहकर अर्जुन ने तुरंत अपने हथियार और धनुष नीचे डाल दिये, तलवार म्यान में रख दी, फिर लज्जित होकर उन्होंने युधिष्ठिर के चरणों में सिर झुकाया और हाथ जोड़कर कहा ‘महाराज ! मैंने जो कुछ कहा है उसे क्षमा कीजिये और मुजफर प्रसन्न हो जाते। मैं आपको प्रणाम करता हूं। अब मैं सब तरह से प्रयत्न करके भीमसेन को युद्ध से छुड़ाने और सूतपुत्र कर्ण का वध करने के लिये जा रहा हूं। राजन् ! मेरा जीवन आपका प्रिय करने के रिमेक ही है_यह मैं सत्य कहता हूं।‘ ऐसा कहकर अर्जुन ने राजा के दोनों चरणों का स्पर्श किया और फिर वे रणभूमि की ओर जाने को उद्यत हो गये।
धर्मराज युधिष्ठिर अर्जुन के कठोर वचनों को सुनकर अपने पलंग पर खड़े हो ग्रे, उस समय उनका चित्त बहुत दुःखी हो गया था। वे कहने लगे_’पार्थ ! मैंने अच्छे काम नहीं किये हैं, इसलिये तुमलोगों पर घोर संकट आ पड़ा है। मेरी बुद्धि मारी गरी है, मैं आलसी और डरपोक हूं, इसलिये आज वन में चला जाता हूं। मेरे न रहने पर तुम सुख से रहना। महात्मा भीमसेन ही राजा होने के योग्य है, मैं तो क्रोधी और कायर हूं। अब मुझमें तुम्हारी ये कठोर बातें सहन करने की शक्ति नहीं है। इतना अपमान हो जाने पर मेरे जीवित रहने की कोई आवश्यकता नहीं है।‘_यह कहकर वे सहसा पलंग से कूद पड़े और वन जाने को उद्यत हो गये।
यह देख भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें प्रणाम करके कहा_’राजन् ! आपको तो सत्यप्रतिज्ञ अर्जुन की यह प्रतिज्ञा मालूम ही है कि जो कोई उन्हें गाण्डीव धनुष दूसरे को देने के रिमेक कह देगा, वह उनका वध्य होगा। फिर भी आपने उन्हें वैसी बात कह दी। इससे अर्जुन ने अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा करते हुए मेरे कहने पर आपका अनादर किया है। गुरुजनों का अपमान ही उनका वध कहलाता है। इसलिए मैंने तथा अर्जुन ने सत्य की रक्षा की दृष्टि समें रखकर आपके साथ न्याय के विरुद्ध आचरण किया है, उसे आप क्षमा कीजिये। हम दोनों ही आपकी शरण में आये हैं। मेरा भी अपराध है इसके लिये आपके चरणों पर गिरकर क्षमा की भीख मांगता हूं। आप मुझे भी क्षमा कर दें। आज यह पृथ्वी पापी कर्ण का रक्तपान करेगी, मैं आपसे सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूं, अब सूतपुत्र को मरा हुआ ही मान लीजिये।‘
भगवान् की यह बात सुनकर युधिष्ठिर ने सहसा उन्हें अपने चरणों पर से उठाया और हाथ जोड़कर कहा_’गोविन्द ! आप जो कुछ कहते हैं, बिलकुल ठीक है, सचमुच ही मुझसे यह भूल हो गयी है। माधव ! आपने यह रहस्य बताकर मुझपर बड़ी कृपा की, डूबने से बचा लिया। आज आपने हमलोगों की भयंकर विपत्ति से रक्षा की। आप जैसे स्वामी को पाकर ही हम दोनों संकट के भयानक समुद्र से पार हो गये। हमलोग अज्ञानवश मोहित हो रहे थे, आपकी ही बुद्धि रूप नौका का सहारा ले अपने मंत्रियोंसहित शोकसागर के पार हुए हैं। अच्युत ! हम आपसे ही सनाथ हैं।‘


अर्जुन बोले_ श्रीकृष्ण ! कोई बहुत बड़ा विद्वान और बुद्धिमान मनुष्य जैसा उपदेश दे सकता है तथा जिसके अनुसार आचरण होने से हमलोगों का कल्याण होना संभव है, वैसी ही बात आपने बतायी है। आप हमलोगों के माता_पिता तुल्य हैं, आप ही परम गति हैं इसलिये आपने बहुत उत्तम बात बतायी है।
तीनों लोकों में कहीं कोई भी ऐसी बात नहीं है, जो आपको विदित न हो। अतः आप ही परम धर्म को पूर्णरूप से तथा ठीक_ठीक जानते हैं। अब मैं राजा युधिष्ठिर को मारने योग्य नहीं समझता। मेरी इस प्रतिज्ञा के संबंध में आप ही अनुग्रह करके कुछ ऐसी बात बताइये, जिससे इसका पालन भी हो जाय और राजा का वध भी न होने पावे। 
भगवन् ! आप तो जानते ही हैं कि मेरा व्रत क्या है ? मनुष्यों में जो कोई भी यह कह दे कि ‘तुम अपना गाण्डीव धनुष दूसरे किसी वीर को दे डालो, जो अस्त्रविद्या और पराक्रम में तुमसे बढ़कर हो।‘ मैं तो हठात् उसकी जान ले लूं। इसी तरह भीमसेन को कोई ‘तूबरक’ ( बिना मूंछ का या अधिक खाने वाला ) कह दे, तो वे सहसा उसे मार डाले। हो राजा ने आपके सामने ही मुझसे कहा है कि ‘तुम अपना धनुष दूसरे को दे डालो। ऐसी दशा में यदि मैं इन्हें मार डालूं तो इनके बिना एक क्षण के रिमेक भी मैं इस संसार में नहीं रह सकूंगा और यदि इनका वध न करूं तो फिर प्रतिज्ञा भंग के पाप से कैसे मुक्त होऊंगा ? क्या करूं ? मेरी बुद्धि कुछ काम नहीं देती। कृष्ण ! संसार के लोगों की समझ में मेरी प्रतिज्ञा भी सच्ची हो तो राजा युधिष्ठिर का तथा मेरा जीवन भी सुरक्षित रहे_ऐसा कोई सलाह दीजिये।‘ 
श्रीकृष्ण ने कहा_वीरवर ! सुनो ! राजा युधिष्ठिर तक गये हैं और बहुत दुःखी हैं। कर्ण ने अपने तीखे बाणों से इन्हें संग्राम में अधिक घायल कर डाला है। इतना ही नहीं, ये जब युद्ध नहीं कर रहे थे, उस समय भी उसने इनके ऊपर बाणों का प्रहार किया। इसीलिए दुख और रोष में भरकर इन्होंने तुम्हें न कहने योग्य बात कह दी है। ये जानते हैं कि पापी कर्ण को सिर्फ तुम्हीं मार सकते हो; और उसके मारे जाने पर कौरवों को शीघ्र ही जीत लिया जा सकता है।
इसी विचार से इन्होंने वे बातें कह डाली हैं; इसलिये इनका वध करना उचित नहीं है। अर्जुन ! तुम्हें अपने प्रतिज्ञा का पालन करना है तो जिस उपाय से ये जीवित रहते हुए मरे के समान हो जायं, वहीं बताता हूं, सुनो। यही उपाय तुम्हारे अनुरूप होगा।
सम्माननीय पुरुष जबतक संसार में सम्मान पाता है, जबतक ही उसका जीवित रहना माना जाता है, जिस दिन उसका बहुत बड़ा अपमान हो जाय, उस समय वह जीते_जी ‘मरा’ समझा जाता है। तुमने, भीमसेन ने, नकुल_सहदेव  ने तथा अन्य वृद्ध पुरुषों एवं शूरवीरों ने राजा युधिष्ठिर का हमेशा ही सम्मान किया है। आज तुम उनका अंशश: अपमान करो। यद्यपि युधिष्ठिर पूज्य होने के कारण ‘आप' कहने योग्य हैं तथापि इन्हें ‘तू’ कह दो। गुरुजन को ‘तू’ कह देना उनका वध कर देने के समान माना जाता है।
जिसके देवता अथर्वा और अंगिरा हैं, ऐसी एक सर्वोत्तम श्रुति बताई जाती है। अपना भला चाहनेवाले को बिना बिचारे ही इसके अनुसार वर्ताव करना चाहिये। उस श्रुति का भाव यह है_’गुरु को तू कह देना उसे बिना मारे ही मार डालना है। ‘ इसलिये जैसा मैंने बताया उसी के अनुसार तुम धर्मराज के लिये ‘तू’ शब्द का प्रयोग करो। इसके बाद तुम इनके चरणों में प्रणाम करके शान्त्वना देना और अपनी कही हुई अनुचित बात के लिये क्षमा मांग लेना। 
तुम्हारे भाई राजा युधिष्ठिर समझदार हैं, वे धर्म का ख्याल करके भी तुम पर क्रोध नहीं करेंगे। इस प्रकार तुम मिथ्याभाषण और भातृवध के पाप से छूटकर प्रसन्नतापूर्वक सूतपुत्र कर्ण का वध करना।
अपने सखा भगवान् श्रीकृष्ण का वचन सुनकर अर्जुन ने उसकी बड़ी प्रशंसा की, फिर वे हठपूर्वक धर्मराज के प्रति ऐसे कटुवचन कहने लगे, जैसे पहले कभी नहीं कहे थे। वे बोले_’तू चुप रह, न बोल, तू खुद ही लड़ाई से भागकर एक कोस दूर आ बैठा है, तू क्या उलाहना देगा ? हां, भीमसेन को मेरी निंदा करने का अधिकार है; क्योंकि वे समस्त संसार के प्रमुख वीरों के साथ लड़ रहे हैं। शत्रुओं को पीड़ा पहुंचा रहे हैं। असंख्य शूरवीरों, अनेकों राजाओं, रथियों, घुड़सवारों तथा हजारों हाथियों को मौत के घाट उतारकर कम्बोजों और पर्वतीय योद्धाओं को इस तरह नष्ट कर रहे हैं, जैसे सिंह मृगों को। तू अपने कठोर वचनों के चाबुक से अब मुझे न मार, मेरे कोप को फिर न बढ़ा।
अर्जुन धर्मभीरू थे, वे युधिष्ठिर को ऐसी कठोर बातें सुनाकर बहुत उदास हो गये। यह जानकर कि ‘मुझसे कोई बहुत बड़ा पाप बन गया’ उनके चित्त में बड़ा खेद हुआ। बारंबार उच्छवास खींचते हुए उन्होंने फिर से तलवार उठा ली। यह देखकर श्रीकृष्ण ने कहा_’अर्जुन ! यह क्या ? तुम फिर क्यों तलवार उठा रहे हो ? मुझे जवाब दो, तुम्हारा अभीष्ट सिद्ध करने के लिये मैं पुनः कोई उपाय बताऊंगा।
पुरुषोत्तम के ऐसा कहने पर अर्जुन दु:की होकर बोले_’भगवन् ! मैंने जिदमें आकर भाई का अपमान रूप महान् पाप कर डाला है, इसलिये अब मैं अपने इस शरीर को ही नष्ट कर डालूंगा।‘ अर्जुन की बात सुनकर भगवान् ने कहा_पार्थ ! राजा युधिष्ठिर को ‘तू’ मात्र कहकर तुम इतने घोर दु:ख में क्यों डूब गये ? उफ़ ! इसी के रिमेक आत्मघात करना चाहते हो ? अर्जुन ! श्रेष्ठ पुरुषों ने कभी ऐसा काम नहीं किया है। धर्म का स्वरूप सूक्ष्म है और उसको समझना कठिन। अज्ञानियों के रिमेक तो और भी मुश्किल है।
यहां जो कर्तव्य है , उसे मैं बताता हूं, सुनो ! भाई का वध करने से जिस नरक की प्राप्ति होती है, उससे भी भयानक नरक तुम्हें आत्मघात करने से मिलेगा। इसलिये अब अपने ही मुंह से अपने गुणों का बखान करो, ऐसा करने से यही समझा जायेगा कि तुमने अपने ही हाथों अपने को मार लिया।‘ 
यह सुनकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण की बातों का अभिनन्दन किया और ‘तथास्तु’ कहकर धनुष को नवाते हुए वे युधिष्ठिर से बोले_’राजन् ! अब मेरे गुणों को सुनिये_पिनाकधारी भगवान् शंकर को छोड़कर दूसरा कोई भी मेरे समान धनुर्धर नहीं है; मेरी वीरता का उन्होंने भी अनुमोदन किया है। यदि चाहूं तो इस चराचर जगत् को एक ही क्षण में नष्ट कर डालूंगा। मेरे चरणों में रथ और ध्वजा के चिह्न हैं। मुझ जैसा वीर यदि युद्ध में पहुंच जाय तो उसे कोई भी नहीं जीत सकता। उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम_इन सभी दिशाओं के राजाओं का मैंने संहार किया है।‘
कृष्ण ! अब हम दोनों विजयशाली रथ पर बैठकर सूतपुत्र कर्ण का वध करने के लिये शीघ्र ही चल दें। आज राजा युधिष्ठिर प्रसन्न हों, मैं कर्ण को अपने बाणों से नष्ट कर डालूंगा।‘ यों कहकर अर्जुन पुनः युधिष्ठिर से बोले_’आज या तो कर्ण की माता पुत्री न होगी या माता कुन्ती ही मुझसे ही हीन हो जायगी। मैं सत्य कहता हूं, अपने बाणों से कर्ण को मारे बिना आज कवच नहीं उतारुंगा।
यह कहकर अर्जुन ने तुरंत अपने हथियार और धनुष नीचे डाल दिये, तलवार म्यान में रख दी, फिर लज्जित होकर उन्होंने युधिष्ठिर के चरणों में सिर झुकाया और हाथ जोड़कर कहा ‘महाराज ! मैंने जो कुछ कहा है उसे क्षमा कीजिये और मुजफर प्रसन्न हो जाते। मैं आपको प्रणाम करता हूं। अब मैं सब तरह से प्रयत्न करके भीमसेन को युद्ध से छुड़ाने और सूतपुत्र कर्ण का वध करने के लिये जा रहा हूं। राजन् ! मेरा जीवन आपका प्रिय करने के रिमेक ही है_यह मैं सत्य कहता हूं।‘ ऐसा कहकर अर्जुन ने राजा के दोनों चरणों का स्पर्श किया और फिर वे रणभूमि की ओर जाने को उद्यत हो गये।
धर्मराज युधिष्ठिर अर्जुन के कठोर वचनों को सुनकर अपने पलंग पर खड़े हो ग्रे, उस समय उनका चित्त बहुत दुःखी हो गया था। वे कहने लगे_’पार्थ ! मैंने अच्छे काम नहीं किये हैं, इसलिये तुमलोगों पर घोर संकट आ पड़ा है। मेरी बुद्धि मारी गरी है, मैं आलसी और डरपोक हूं, इसलिये आज वन में चला जाता हूं। मेरे न रहने पर तुम सुख से रहना। महात्मा भीमसेन ही राजा होने के योग्य है, मैं तो क्रोधी और कायर हूं। अब मुझमें तुम्हारी ये कठोर बातें सहन करने की शक्ति नहीं है। इतना अपमान हो जाने पर मेरे जीवित रहने की कोई आवश्यकता नहीं है।‘_यह कहकर वे सहसा पलंग से कूद पड़े और वन जाने को उद्यत हो गये।
यह देख भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें प्रणाम करके कहा_’राजन् ! आपको तो सत्यप्रतिज्ञ अर्जुन की यह प्रतिज्ञा मालूम ही है कि जो कोई उन्हें गाण्डीव धनुष दूसरे को देने के रिमेक कह देगा, वह उनका वध्य होगा। फिर भी आपने उन्हें वैसी बात कह दी। इससे अर्जुन ने अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा करते हुए मेरे कहने पर आपका अनादर किया है। गुरुजनों का अपमान ही उनका वध कहलाता है। इसलिए मैंने तथा अर्जुन ने सत्य की रक्षा की दृष्टि समें रखकर आपके साथ न्याय के विरुद्ध आचरण किया है, उसे आप क्षमा कीजिये। हम दोनों ही आपकी शरण में आये हैं। मेरा भी अपराध है इसके लिये आपके चरणों पर गिरकर क्षमा की भीख मांगता हूं। आप मुझे भी क्षमा कर दें। आज यह पृथ्वी पापी कर्ण का रक्तपान करेगी, मैं आपसे सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूं, अब सूतपुत्र को मरा हुआ ही मान लीजिये।‘
भगवान् की यह बात सुनकर युधिष्ठिर ने सहसा उन्हें अपने चरणों पर से उठाया और हाथ जोड़कर कहा_’गोविन्द ! आप जो कुछ कहते हैं, बिलकुल ठीक है, सचमुच ही मुझसे यह भूल हो गयी है। माधव ! आपने यह रहस्य बताकर मुझपर बड़ी कृपा की, डूबने से बचा लिया। आज आपने हमलोगों की भयंकर विपत्ति से रक्षा की। आप जैसे स्वामी को पाकर ही हम दोनों संकट के भयानक समुद्र से पार हो गये। हमलोग अज्ञानवश मोहित हो रहे थे, आपकी ही बुद्धि रूप नौका का सहारा ले अपने मंत्रियोंसहित शोकसागर के पार हुए हैं। अच्युत ! हम आपसे ही सनाथ हैं।‘