Saturday 27 June 2020

व्यासजी के द्वारा अर्जुन के प्रति भगवान् शंकर की महिमा का वर्णन

धृतराष्ट्र ने पूछा__संजय ! धृष्टधुम्न के द्वारा अतिरथी वीर द्रोणाचार्य के मारे जाने पर मेरे पुत्रों तथा पाण्डवों ने आगे कौन सा कार्य किया ?  संजय ने कहा___महाराज ! उस दिन का युद्ध समाप्त हो जाने पर महर्षि वेदव्यासजी स्वेच्छा से घूमते हुए अकस्मात् अर्जुन के पास आ गये। उन्हें देखकर अर्जुन ने पूछा___’महर्षे ! जब मैं अपने बाणों से शत्रुसेना का संहार कर रहा था, उस समय देखा कि एक अग्नि के समान तेजस्वी महत्रिशूल मेरे आगे चल रहे हैं। वे ही मेरे शत्रुओं का नाश करते थे, किन्तु लोग समझते थे मैं कर रहा हूँ। मैं तो केवल उनके पीछे_पीछे चलता था। भगवन् ! बताइये, वे महापुरुष कौन थे ? 
उनके हाथ में त्रिशूल था, वे सूर्य के समान तेजस्वी थे, अपने पैरों से पृथ्वी का स्पर्श नहीं करते थे । त्रिशूल का प्रहार करते हुए भी वे उसे हाथ से कभी नहीं छोड़ते थे। उनके तेज से उस एक ही त्रिशूल से हजारों नये_नये त्रिशूल प्रकट हो जाते।‘
व्यासजी बोले___अर्जुन ! तुमने भगवान् शंकर का दर्शन किया है । वे तेजोमय अन्तर्यामी प्रभु संपूर्ण जगत् के ईश्वर हैं। सबके शासक तथा वरदाता हैं। तुम उन भगवान् भुवनेश्वर की शरण में जाओ। वे महान् देव हैं, उनका हृदय विशाल है। सर्वत्र व्यापक होते हुए भी वे जटाधारी त्रिनेत्ररूप धारण करते हैं। उनकी ‘रुद्र’ संज्ञा है। उनकी भुजाएँ बडी हैं। उनके मस्तक पर शिखा तथा शरीर पर वल्कल वस्त्र शोभा देता है। वे सबके संहारक होकर भी निर्विकार हैं। किसी से पराजित न होनेवाले और सबको सुख देनेवाले हैं। सबके साक्षी, जगत् की उत्पत्ति के कारण, जगत् के सहारे, विश्व के आत्मा, विश्वविधाता और विश्वरूप हैं। वे ही प्रभु कर्मों के अधिष्ठाता__कर्मों का फल देनेवाले हैं। सबका कल्याण करनेवाले और स्वायम्भू हैं। संपूर्ण भूतों के स्वामी तथा भूत, भविष्य और वर्तमान के कारण भी वे ही हैं। वे ही योग हैं, वे ही योगेश्वर हैं। वे ही सर्व हैं और वे ही सर्वलोकेश्वर। सबसे श्रेष्ठ, सारे जगत् से श्रेष्ठ, श्रेष्ठतम परमेठी भी वे ही हैं। वे ही तीनों लोकों के त्रष्टा और त्रिभुवन के अधिष्ठानभूत विशुद्ध परमात्मा हैं। भगवान् भव भयानक होकर भी चन्द्रमा को मुकुटरूप से धारण करते हैं। वे सनातन परमेश्वर संपूर्ण वागीश्वरों के भी ईश्वर हैं। वे अजेय हैं; जन्म_मृत्यु और जरा आदि विकार उन्हें छू भी नहीं सकते। वे ज्ञानरूप, ज्ञानगम्य तथा ज्ञान में सर्वश्रेष्ठ हैं। भक्तों पर कृपा करके उन्हें मनोवांछित वर दिया करते हैं। भगवान् शंकर के दिव्य पार्षद नाना प्रकार के रूपों में दिखायी देते हैं। वे सब महादेवजी की सदा ही पूजा किया करते हैं। तात् ! वे साक्षात् भगवान् शंकर ही वह तेजस्वी पुरुष हैं, जो कृपा करके तुम्हारे आगे_आगे चला करते हैं उस घोर रोमांचकारी संग्राम में अश्त्थामा, कृपाचार्य और कर्ण जैसे महान् धनुर्धर जिस सेना की रक्षा करते हैं, वे नाना रूपधारी भगवान् महेश्वर के सिवा दूसरा कौन नष्ट कर सकता है ? और जब वे ही आगे आकर खड़े हो जायँ, तो उनके सामने ठहरने का भी कौन साहस कर सकता है ? तीनों लोकों में कोई ऐसा प्राणी नहीं है, जो उनकी बराबरी कर सके। संग्राम में भगवान् शंकर के कुपित होने पर उनकी गंध से भी शत्रु बेहोश होकर काँपने लगते हैं और अधमरे होकर गिर जाते हैं। जो भक्त मनुष्य सदा अनन्यभाव से उमानाथ भगवान् शिव की उपासना करते हैं, वे इस लोक में सुख पाकर अन्त में परमपद को प्राप्त होते हैं। कुन्तीनन्दन ! तुम भी नीचे लिखे अनुसार उन शान्तस्वरूप भगवान् शंकर को सदा नमस्कार किया करो। ‘जो नीलकण्ठ, सूक्ष्मस्वरूप और अत्यन्त तेजस्वी हैं। संसार_समुद्र से तारनेवाले सुन्दर तीर्थ हैं, सूर्यस्वरूप हैं। देवताओं के भी देवता, अनन्त रूपधारी, हजारों नेत्रोंवाले और कामनाओं को पूर्ण करनेवाले हैं, परम शान्त और सबके पालक हैं, उन भगवान् भूतनाथ को सदा प्रणाम है।‘
उनके हजारों मस्तक, हजारों नेत्र, हजारों भुजाएँ और हजारों चरण हैं। कुन्तीनन्दन ! तुम उन वरदायक भुवनेश्वर भगवान् शिव की शरण में जाओ।  वे निर्विकार भाव से प्रजा का पालन करते हैं, उनके मस्तक पर जटाजूट सुशोभित होता है। वे धर्मस्वरूप और धर्म के स्वामी हैं। कोटि कोटि ब्रह्माण्डों को धारण करने के कारण उनका उदर और शरीर विशाल है। वे व्याघ्रचर्म ओढा करते हैं। ब्राह्मणों पर कृपा रखनेवाले और ब्राह्मणों के प्रिय हैं।‘जिनके हाथ में त्रिशूल, ढाल_तलवार और पिनाक आदि अस्त्र शोभा पाते हैं, उन शरणागतवत्सल भगवान शिव की शरण में जाता हूँ।‘ इस प्रकार उनकी शरण ग्रहण करनी चाहिये। जो देवताओं के स्वामी और कुबेर के सखा हैं, उन भगवान् शिव को प्रणाम है। जो सुन्दर व्रत का पालन करते और सुन्दर धनुष धारण करते हैं, जो धनुर्वेद के आचार्य हैं, उन उग्र आयुधवाले देवश्रेष्ठ भगवान् रुद्र को नमस्कार है।
जिनके अनेकों रूप हैं, अनेकों धनुष हैं, जो स्थानु एवं तपस्वी हैं, उन भगवान् रुद्र को नमस्कार है। जो गणपति, वाक्पति, यग्यपति तथा जल और देवताओं के पति हैं, जिनका वर्ण, पीत और मस्तक के बाल सुवर्ण के समान कान्तिमान हैं, उन भगवान् शंकर को नमस्कार है। अब मैं महादेवजी के दिव्य कर्मों को अपने ग्यान और बुद्धि के अनुसार बता रहा हूँ। यदि वे कुपित हो जायँ तो देवता, गन्धर्व, असुर और राक्षस पाताल में छिप जाने पर भी चैन से नहीं रहने पाते।
एक समय की बात है, दक्ष ने भगवान् शंकर की अवहेलना की; इससे उनके यज्ञ में महान् उपद्रव खडा हो गया। जब उन्हें उनका भाग अर्पण किया गया, तभी दक्ष का यज्ञ पूर्ण हो पाया। 
पूर्वकाल की बात है, तीन बलवान असुरों ने आकाश में अपने नगर बना रखे थे। वे नगर विमान के रूप में आकाश में विचरा करते थे। उन तीन नगरों में एक लोहे का, दूसरा चाँदी का और तीसरा सोने का बना था। जो सोने का बना था उसका स्वामी था कमलाक्ष। चाँदी के बने हुए पुर में तारकाक्ष रहता था तथा लोहे के नगर में विद्युन्माली का निवास था। इन्द्रने उन पुरों का भेदन करने के लिये अपने सभी अस्त्रों का प्रयोग किया, पर वे कृतकार्य न हो सके तब इन्द्रादि सभी देवता दुःखी होकर भगवान् शंकर की शरण में गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने कहा___’भगवन् ! इन त्रिपुरनिवासी दैत्यों को ब्रह्माजी ने वरदान दे रखा है, उसके घमण्ड में फूलकर ये भयंकर दैत्य तीनों लोकों को कष्ट पहुँचा रहे हैं। महादेव ! आपके सिवा दूसरा कोई उसका नाश करने में समर्थ नहीं है, आप ही इन देवद्रोहियों का वध कीजिये। ‘देवताओं के ऐसा कहने पर भगवान् शंकर ने उनका हितसाधन करने के लिये ‘तथास्तु’ कहा और गन्धमादन तथा विन्ध्याचल_इन दो पर्वतों को अपनी रथ का ध्वजा बनाया। समुद्र और वनों के सहित संपूर्ण पृथ्वी ही रथ हुई। नागराज शेष को रथ की धुरी के स्थान पर रखा गया। चन्द्रमा और सूर्य_ये दोनों पहिये बने।
एलपत्र के पुत्र को और पुष्पदन्त को जुए की कीलें बनाया। मलयाचल का जुआ बनाया गया। तक्षक नाग ने जुआ बाँधने की रस्सी का काम किया। मलयाचल का जुआ बनाया गया। भगवान् शंकर ने संपूर्ण प्राणियों को घोड़ों की बागडोर में सम्मिलित किया। चारों वेद रथ के चार घोडे बनाये गये। उपवेद लगाम बने। गायत्री और सावित्री का पगहा बना। ॐकार चाबुक हुआ और ब्रह्माजी सारथि। मन्दराचल को गाण्डीव धनुष का रूपदिया गया और वासुकि नाग से उसकी प्रत्यंचा का काम लिया गया। भगवान् विष्णु हुए उत्तम बाण और अग्निदेव को उसका फल बनाया गया। बिजली उसबाण की धार हुई। मेरु को प्रधान ध्वजा बनाया गया। इस प्रकार सर्वदेवमय दिव्य रथ तैयार कर भगवान् शंकर उसपर आरूढ हुए। उस समय संपूर्ण देवता उनकी स्तुति करने लगे। भगवान् शंकर उस रथ में एक हजार वर्ष तक रहे। जब तीनों पुर आकाश में एकत्रित हुए, तो उन्होंने तीन गाँठ तथा तीन फलवाले बाण से उन तीनों पुरों को भेद डाला। दानव उनकी ओर आँख उठाकर देख भी न सके। कालाग्नि के समान बाण से जिस समय वे तीनों लोकों को भष्म कर रहे थे, उस समय पार्वती देवी भी देखने के लिये वहाँ आयीं। उनकी गोदी में एक बालक था,  जिसके सिर में पाँच शिखाएँ थीं। पार्वती ने देवताओं से पूछा__’यह कौन है ?’ इस प्रश्न से इन्द्र के हृदय में असूया की आग जल उठी और उन्होंने उस बालक पर वज्र का प्रहार करना चाहा; किन्तु उस बालक ने हँसकर उन्हें स्तंभित कर दिया। उसकी वज्रसहित उठी हुई बाँह ज्यों_की_त्यों रह गयी। अपनी वैसी ही बाँह लिये इन्द्र देवताओं के साथ ब्रह्माजी की शरण में गये तथा उनको प्रणाम करके बोले, ‘भगवन् ! पार्वतीजी की गोद में एक अपूर्व बालक था, हमने उसे नहीं पहचाना। उसने बिना युद्ध किये खेल ही में हमलोगों को जीत लिया। अतः आप पूछते हैं कि वह कौन था ? उनकी बात सुनकर ब्रह्माजी ने उस अमित तेजस्वी बालक का ध्यान किया और सारा रहस्य जानकर देवताओं से कहा_’उस बालक के रूप में चराचर जगत् के स्वामी भगवान् शंकर थे, उनसे श्रेष्ठ कोई देवता नहीं है। इसीलिये अब तुम मेरे साथ चलकर उन्हीं की शरण लो।‘ उस समय ब्रह्माजी ने उन्हें ही सब देवताओं में श्रेष्ठ जानकर प्रणाम किया और इस प्रकार स्तुति की_‘भगवन् ! तुमही यज्ञ हो, तुमही इस विश्व के सहारे हो और तुमही सबको शरण देनेवाले हो। सबको उत्पन्न करनेवाले महादेव तुमही हो। परमधाम या परमपद तुम्हारा ही स्वरूप है। तुमने इस संपूर्ण चराचर जगत् को व्याप्त कर रखा है। भूत और भविष्य के स्वामी जगदीश्वर ! ये इन्द्र तुम्हारे कोप से पीडित हैं,इनपर कृपा करो। ब्रह्माजी की बात सुनकर महेश्वर प्रसन्न हो गये, देवताओं के कृपा करने के लिये वे ठठाकर हँस पड़े। फिर तो देवताओं ने पार्वतीसहित महादेवजी को प्रसन्न किया। शिव के कोप से जो इन्द्र की बाँह सुन्न हो गयी थी, वह ठीक हो गयी। वे भगवान् शंकर ही रुद्र, शिव, अग्नि, सर्वज्ञ, इन्द्र, वायु और अश्विनीकुमार हैं।
वे ही बिजली और मेघ हैं। सूर्य, चन्द्रमा, वरुण, काल, म़ृत्यु, यम, रात, दिवस, मास,पक्ष, सन्ध्या, धाता, विधाता,विश्वात्मा और विश्वकर्मा भी वे ही हैं। वे निराकार होकर भी संपूर्ण देवताओं का आकार धारण करते हैं। सब देवता उनकी स्तुति करते रहते हैं। वे एक, अनेक, सौ, हजार और लाख हैं। वेदज्ञ ब्राह्मण उनके दो शरीर बताते हैं_ शिव और घोर। ये दोनों अलग_अलग हैं। इन दोनों के भी कई भेद हो जाते हैं। उनका घोर शरीर अग्नि और सूर्य आदि के रूप में प्रकट हैं तथा सौम्य शरीर जल, नक्षत्र एवं चन्द्रमा के रूप में। वेद, वेदांग, उपनिषद, पुराण तथा अध्यात्मशास्त्रों में जो परम रहस्य है, वह भगवान् महेश्वर ही हैं। अर्जुन ! यह है महादेवजी की महिमा। इतनी ही नहीं, वह अत्यन्त महान् तथा अनन्त हैं। मैं एक हजार वर्ष तक कहता रहूँ, तो भी उनके गुणों का पार नहीं पा सकता। जो लोग सब प्रकार की ग्रह_बाधाओं से पीडित हैं और सब प्रकार के पापों में डूबे हुए हैं, वे भी यदि उनकी शरण में आ जायँ तो वे प्रसन्न होकर उन्हें पाप_ताप से मुक्त कर देते हैं तथा आयु, आरोग्य,ऐश्वर्य धन एवं प्रचुर भोग सामग्री प्रदान करते हैं। कुपित होने पर वे सबका संहार कर डालते हैं। महाभूतों के ईश्वर होने के कारण उन्हें महेश्वर कहते हैं। वेदों में भी इनकी शतरुद्रिय और अनन्तरुद्रियनाम की उपासना बतायी गयी है। भगवान् शंकर दिव्य और मानव सभी भोगों के स्वामी हैं। संपूर्ण विश्व को व्याप्त करने के कारण वे ही विभु और प्रभु हैं। शिवलिंग की पूजा करने से भगवान् शिव बहुत प्रसन्न होते हैं।
यद्यपि उनके सब ओर नेत्र हैं, तथापि एक विलक्षण अग्निमय नेत्र अलग भी है, जो सदा प्रज्जवलित रहता है। वे सब लोकों में व्याप्त होने के कारण सर्व कहलाते हैं। वे सबके कर्मों में सब प्रकार के अर्थ सिद्ध करते हैं। तथा संपूर्ण मनुष्यों का कल्याण चाहते हैं, इसलिये इन्हें शिव कहते हैं। महान् विश्व का पालन करने से महादेव, स्थिति के हेतु होने से स्थानु और सबके उद्भव होने के कारण भव कहलाते हैं। वे सबके कर्मों में सब प्रकार का अर्थ सिद्ध करते हैं। तथा संपूर्ण मनुष्यों का कल्याण चाहते हैं, इसलिये उन्हें शिव कहते हैं। महान् विश्व का पालन करने से महादेव, स्थिति का हेतु होने से स्थानु और सबके उद्भव होने के कारण भव कहलाते हैं। कपि नाम है श्रेष्ठ का और वृष धर्म का वाचक है; वे धर्म और श्रेष्ठ दोनो हैं, इसलिये उन्हें वृषाकपि कहते हैं। उन्होंने अपने दो नेत्रों को बन्दकर बलात् ललाट में तीसरा नेत्र उत्पन्न किया, इसलिये वे त्रिनेत्र कहे जाते हैं।
अर्जुन ! जो तुम्हारे शत्रुओं का संहार करते हुए देखे गये थे, वे पिनाकधारी महादेवजी ही हैं। जयद्रथवध की प्रतिज्ञा करने पर श्रीकृष्ण ने स्वप्न में गिरिराज हिमालय के शिखर पर तुम्हें जिनका दर्शन कराया था,  वे ही भगवान् शंकर यहाँ तुम्हारे आगे_आगे चलते हैं जिन्होंने ही वे अस्त्र दिये, जिनसे तुमने दानवों का संहार किया है।
यह भगवान् शिव का शतरुद्रिय उपाख्यान तुम्हें सुनाया गया है। यह धन, यश  और आयु की वृद्धि करनेवाला है, परम पवित्र तथा वेद के समान है। भगवान् शंकर का यह चरित्क संग्राम में विजय दिलानेवाला है। इस शतरुद्रिय उपाख्यान को जो सदा पढता और सुनता है तथा जो भगवान् शंकर का भक्त है, वह मनुष्य सभी उत्तम कामनाओं को प्राप्त करता है। अर्जुन ! जाओ, युद्ध करो, तुम्हारी पराजय नहीं हो सकती; क्योंकि तुम्हारे मंत्री, रक्षक और पार्शवर्ती भगवान् श्रीकृष्ण हैं।
संजय कहते हैं_महाराज !  पराशरनन्दन व्यासजी अर्जुन से यह कहकर जैसे आये थे, वैसे ही चले गये।वेदों के स्वाध्याय से जो फल मिलता है, वही इस पर्व के पाठ और श्रवण से भी मिलता है। इनमें वीर क्षत्रियों के महान् यश  का वर्णन किया गया है। जो नित्य इसे पढता और सुनता है, वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है। इसके पाठ से ब्राह्मणों को यज्ञ का फल मिलता है, क्षत्रियों को संग्राम में सुयश की प्राप्ति होती है तथा शेष दो वर्णों को भी पुत्र_पौत्र आदि आदि अभीष्ट वस्तुएँ उपलब्ध होती हैं।
द्रोणपर्व समाप्त