Tuesday 30 October 2018

श्रीकृष्ण का आश्वासन, सुभद्रा का विलाप तथा दारुक से श्रीकृष्ण का वार्तालाप

संजय कहते हैं____ तदनन्तर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा, ‘भगवन् ! अब आप सुभद्रा और उत्तरा को जाकर समझाइये; जैसे भी हो, उनका शोक दूर कीजिये।‘ तब श्रीकृष्ण बहुत उदास होकर अर्जुन के शिविर में गये और पुत्रशोक से पीड़ित अपनी दुःखी बहिन को समझाने लगे। उन्होंने कहा___ ‘बहिन ! तुम और बहू उत्तरा___ दोनों ही शोक न करो। काल के द्वारा सब प्राणियों की एक दिन यही स्थिति होती है। तुम्हारा पुत्र उच्च वंश में उत्पन्न, धीर, वीर और क्षत्रिय था; वह मृत्यु उसके योग्य ही हुई है, इसलिये शोक त्याग दो। देखो ! बड़े_बड़े संत पुरुष तपस्या, ब्रह्मचर्य, शास्त्रज्ञान और सद्बुद्धि के द्वारा जिस गति को प्राप्त करना चाहते हैं, वही गति तुम्हारे पुत्र को मिली है। तुम वीरमाता, वीरपत्नी, वीरकन्या तथा वीर की बहिन हो; कल्याणी ! तुम्हारे पुत्र को बहुत उत्तम गति प्राप्त हुई है, तुम उसके लिये शोक न करो। बालक की हत्या करनेवाला पापी जयद्रथ यदि अमरावती में जाकर छिपे तो भी अब अर्जुन के हाथ से उसका छुटकारा नहीं हो सकता।
कल ही तुम सुनेगा कि जयद्रथ का मस्तक कटकर समन्तपंचक से बाहर जा गिरा है। शूरवीर अभिमन्यु ने क्षत्रियधर्म का पालन करके सत्पुरुषों की गति पाया है, जिसे हमलोग तथा दूसरे शस्त्रधारी क्षत्रिय भी पाना चाहते हैं। रानी बहिन ! चिंता छोड़ो और बहू को धीरज बँधाओ। अर्जुन ने जैसी प्रतिज्ञा की है, वह ठीक ही होगी; उसे कोई पलट नहीं सकता। तुम्हारे स्वामी जो कुछ करना चाहते हैं, वह भविष्यफल नहीं होता। यदि मनुष्य, नाग, पिशाच, राक्छस, पक्षी, देवता और असुर भी युद्ध में जयद्रथ की सहायता करें तो,भी वह कल जीवित नहीं रह सकता।‘ श्रीकृष्ण की बात सुनकर सुभद्रा का पुत्रशोक उमड़ पड़ा और वह बहुत दुःखी होकर विलाप करने लगी___ ‘हा पुत्र !  तुम्हारे बिना आज मैं मन्दभागिनी हो गयी। बेटा ! तुम तो अपने पिता के समान पराक्रमी थे, फिर युद्ध में जाकर मारे कैसे गये ? पाण्डव, वृष्णिवंशी तथा पांचालवीरों के जीते_जी तुम्हें किसने अनाथ की भाँति मार डाला। हाय ! तुम्हें देखने के लिये तरसती ही रह गयी। आज भीमसेन के बल को धिक्कार है ! अर्जुन के धनुष_धारण को और वृष्णि तथा पांचाल_ वीरों के पराक्रम को भी धिक्कार है ! केकय, चेदि, मत्स्य और सृंजयों को भी बारम्बार धिक्कार है, जो ये युद्ध में होने पर तुम्हारी रक्षा न कर सके। आज सारी पृथ्वी सूनी और श्रीहीन दिखायी देती है। मेरी शोकाकुल आँखें अभिमन्यु को ढूँढती हैं, पर देख नहीं पातीं। हाय ! श्रीकृष्ण के भानजे और गाण्डीवधारी अर्जुन के अतिरथी पुत्र होकर भी तुम रणभूमि में पड़े हो, मैं कैसे तुम्हें देख सकूँगी ?
बेटा ! तुम असमय ही चले गये; तुम्हारी यह तरुणी पत्नी शोक में डूबी हुई है, इसे कैसे धीरज बँधाऊँगी ? निश्चय ही काल की गति को जानना विद्वानों के लिये भी कठिन है; तभी तो श्रीकृष्ण_जैसे सहायक के जीते_जी तुम अनाथ की भाँति मारे गये। वत्स ! यज्ञ और दान करनेवाले आत्मज्ञानी ब्राह्मण, ब्रह्मचारी, पुण्यतीर्थों में स्नान करनेवाले, कृतज्ञ, उदार, गुरुसेवक तथा सहस्त्रों गोदाम करनेवाले जिस गति को प्राप्त होते हैं, वही तुम्हें भी प्राप्त हो। बेटा ! आपत्ति और संकट के समय भी जो धैर्यपूर्वक अपने को संभाले रहते हैं, सदा माता_ पिता की सेवा करते हैं और अपनी ही स्त्री से संतुष्ट रहते हैं, उनकी जो गति होती है, वही तुम्हारी भी हो। जो मात्सर्य से रहित सब प्राणियों को सान्त्वनापूर्ण दृष्टि से देखते हैं, क्षमाभाव रखते हैं, किसी को चोट पहुँचानेवाले बात नहीं करते, जो मद्य, माँस, मद, दम्भ और मिथ्या से दूर रहते हैं, दूसरों को कष्ट नहीं पहुँचाते, जिनका स्वभाव संकोची है, जो संपूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता, ज्ञानानंद से परिपूर्ण और जितेन्द्रिय हैं, उन साधु पुरुषों की जो गति होती है, वही तुम्हारी भी हो।‘ इस प्रकार शोक से दुर्बल एवं दीन भाव से विलाप करती हुई सुभद्रा के पास द्रौपदी और उत्तरा भी आ पहुँचीं। अब तो उनके दुःख की सीमा न रही। सब फूट_फूटकर रोने लगीं और उन्मत्त की तरह पृथ्वी पर गिरकर बेहोश हो गयीं। उनकी यह दशा देख भगवान् श्रीकृष्ण बहुत दुःखी हुए और उन्हें होश में लाने की तरकीब करने लगे। उन्होंने जल छिड़ककर उन्हें सचेत किया और कहा___’ सुभद्रे ! अब पुत्र के लिये शोक न करो। द्रौपदी ! तुम उत्तरा को धीरज बँधाओ। अभिमन्यु को बड़ी उत्तम गति प्राप्त हुई है। हम तो यह चाहते हैं कि हमारे वंश में जो श्रेष्ठ पुरुष हैं, वे सब यशस्वी अभिमन्यु की ही गति प्राप्त करें। तुम्हारे महारथी पुत्र ने अकेले जो काम कर दिखाया है, वही हम और हमारे सुहृद् भी करें। सुभद्रा, द्रौपदी और उत्तरा को इस प्रकार आश्वासन देकर भगवान् कृष्ण पुनः अर्जुन के पास गये और मुस्कराते हुए बोले____’अर्जुन ! तुम्हारा कल्याण हो, अब जाकर सो रहो। मैं भी जाता हूँ।‘ यह कहकर उन्होंने अर्जुन के शिविर पर द्वारपालों को खड़ा किया और कई शस्त्रधारी रक्षक तैनात कर दिये। फिर वे दारुक को साथ ले अपनी छावनी में गये और बहुत से कार्यों के विषय में विचार करके हुए शय्या पर लेट गये। आधी रात के समय ही उनकी नींद टूट गयी; तब वे अर्जुन की प्रतिज्ञा का स्मरण करके दारुक से बोले___’पुत्रशोक से व्यथित होने के कारण अर्जुन ने यह प्रतिज्ञा कर डाली है कि ‘मैं कल जयद्रथ का वध करूँगा।‘ किन्तु द्रोण की रक्षा में रहनेवाले पुरुष को इन्द्र भी नहीं मार सकते। इसलिये कल मैं ऐसी व्यवस्था करूँगा, जिससे अर्जुन सूर्य अस्त होने के पहले ही जयद्रथ को मार डाले। दारुक ! मेरे लिये स्त्री, मित्र अथवा भाई_बन्धु___ कोई भी अर्जुन से बढ़कर प्रिय नहीं है। इस संसार को अर्जुन के बिना मैं एक क्षण भी नहीं देख सकता। ऐसा हो ही नहीं सकता। अर्जुन के लिये मैं कर्ण, दुर्योधन आदि सभी महारथियों को उनके घोड़े और हाथियों सहित मार डालूँगा। कल सारी दुनिया इस बात का परिचय पा जायगी कि मैं अर्जुन का मित्र हूँ। जो उनसे द्वेष रखता है, वह मुझसे भी रखता है; जो उनके अनुकूल है, वह मेरे भी अनुकूल है। तुम अपनी बुद्धि में इस बात का निश्चय कर लो कि अर्जुन मेरा आधा शरीर है। सबेरा होते ही मेरा रथ सजाकर तैयार कर देना। उसमें सुदर्शन चक्र, कौमोदकी गदा, दिव्य शक्ति और शांर्ग धनुष के साथ ही सभी आवश्यक सामग्री रख लेना। घोड़े रोककर प्रतीक्षा करना; ज्यों ही मेरे पांचजन्य की ध्वनि हो, बड़े वेग से मेरे रास रथ ले आना। मैं आशा करता हूँ___ अर्जुन जिस_जिस वीर के वध का प्रयत्न करेंगे, वहाँ_वहाँ उनकी अवश्य विजय होगी।‘
दारुक ने कहा___पुरुषोत्तम ! आप जिसके सारथि हैं उसकी विजय तो निश्चित है, पराजय हो ही कैसे सकती है ? अर्जुन की विजय के लिये आप मुझे जो कुछ करने की आज्ञा दे रहे हैं, उसे सबेरे होते ही मैं पूर्ण करूँगा।

Saturday 20 October 2018

भयभीत हुए जयद्रथ को द्रोण का आश्वासन तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन का बातचीत

संजय कहते हैं___महाराज ! दूसरों ने आकर जयद्रथ से अर्जुन की प्रतिज्ञा कह सुनायी। सुनते ही जयद्रथ शोक से विह्वल हो गया। बहुत सोच_विचारकर वह राजाओं की सभा में गया और वहाँ रोने_ विलखने लगा। अर्जुन से डर जाने के कारण उसने लजाते_ लजाते कहा___राजाओं ! पाण्डवों की हर्षध्वनि सुनकर मुझे बड़ा भय हो रहा है। मरणासन्न मनुष्य की भाँति मेरा शरीर शिथिल हो गया है। निश्चय ही अर्जुन ने मेरा वध करने की प्रतिज्ञा की है, तभी तो शोक के समय भी  पाण्डव हर्ष मना रहे हैं। यदि ऐसा बात है तो अर्जुन की प्रतिज्ञा को देवता, गन्धर्व, असुर, नाग और राक्षस भी अन्यथा नहीं कर सकते; फिर नरेशों की तो बात ही क्या है ? अतः आपलोगों का भला हो, मुझे यहाँ से जाने की,आज्ञा दीजिये। मैं जाकर ऐसी जगह छिप जाऊँगा, जहाँ पाण्डव मुझे देख नहीं सकेंगे। जयद्रथ को इस प्रकार भय से व्याकुल हो विलाप करते देख राजा दुर्योधन ने कहा____पुरुषश्रेष्ठ ! तुम इतने भयभीत न होओ। युद्ध में संपूर्ण क्षत्रिय वीरों के कहने पर तुम्हें कौन पा सकता है ? मैं कर्ण, चित्रसेन, विविंशति, भूरिश्रवा, शल, शल्य, वृषसेन, पुरुमित्र, जय, भोज, सुदक्षिण, सत्यव्रत, विकर्ण, दुर्मुख, दुःशासन, सुबाहु, कलिंगराज, विन्द, अनुविन्द, द्रोण, अश्त्थामा, शकुनि___ये तथा और भी बहुत से राजालोग अपनी_अपनी सेना के साथ तुम्हारी रक्षा के लिये चलेंगे। तुम अपने,मन की चिंता दूर कर दो। सिन्धुराज ! तुम स्वयं भी तो श्रेष्ठ महारथी हो, शूरवीर हो, फिर पाण्डवों से डरते क्यों हो ?  मेरी सारी सेना तुम्हारी रक्षा के लिये सावधान रहेगी, तुम अपना,भय निकाल दो।‘
राजन् ! आपके पुत्र ने जब इस प्रकार आश्वासन दिया तब जयद्रथ उसको साथ लेकर रात्रि में द्रोणाचार्य के पास गया। आचार्य के चरणों में प्रणाम कर उसने पूछा____’भगवन् ! दूर का लक्ष्य बेधने में, हाथ की फुर्ती में तथा दृढ़ निशाना मारने में कौन बड़ा है___मैं या अर्जुन ? द्रोणाचार्य ने कहा___तात ! यद्यपि तुम्हारे और अर्जुन के हम एक ही आचार्य हैं, तथापि अभ्यास और क्लेश सहने के कारण अर्जुन तुमसे बढ़े_चढ़े हैं। तो भी तुम्हें उनसे डरना नहीं चाहिये; क्योंकि मैं तुम्हारा रक्षक हूँ। मेरी भुजाएँ जिसकी रक्षा करती हों, उस पर देवताओं का जोर भी नहीं चल सकता। मैं ऐसा व्यूह बनाऊँगा, जिसमें अर्जुन पहुँच ही नहीं सकेंगे। इसलिये डरो मत, खूब उत्साह ये युद्ध करो। तुम्हारे जैसे वीर को तो मृत्यु का डर होना ही नहीं चाहिये; क्योंकि तपस्वी लोग तप करने पर जिन लोकों तो पाते हैं, क्षत्रिय धर्म का आश्रय लेने वाले वीर  पुरुष उन्हें अनायास पा जाते हैं। इस प्रकार आश्वासन मिलने पर जयद्रथ का भय दूर हुआ और उसने युद्ध करने का विचार किया। उस समय आपकी सेना में भी हर्ष_ध्वनि होने लगी। अर्जुन ने जब जयद्रथ_वध की प्रतिज्ञा कर ली, उसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा___’धनन्जय ! तुमने न तो भाइयों की सम्मति ली और न मुझसे ही सलाह पूछी, फिर भी लोगों को सुनकर जयद्रथ को मारने की प्रतिज्ञा कर डाली___यह तुम्हारा दु: साहस है ! क्या इससे सब लोग हमारी हँसी नहीं उड़ावेंगे ? मैंने कौरवों की छावनी में अपने गुप्तचर भेजे थे, वे सभी आकर वहाँ की समाचार बता गये हैं। जब तुमने सिंधुराज के वध की प्रतिज्ञा की थी, उस समय यहाँ रणभेरी बजी थी और सिंहनाद किया गया था। उसकी आवाज कौरवों ने सुनी, उन्हें तुम्हारी प्रतिज्ञा मालूम हो गयी। इससे दुर्योधन के मंत्री उदास और भयभीत हो गये। जयद्रथ भी बहुत दुःखी हुआ और राजसभा में जाकर दुर्योधन से बोला___’राजन् ! अर्जुन मुझे ही अपने पुत्र का घालक मानता है, इसलिये उसने अपनी सेना के बीच खड़े होकर मुझे मार डालने की प्रतिज्ञा की है। यह सव्यसाची की प्रतिज्ञा है; इसे देवता, गन्धर्व, असुर, नाग, और राक्षस भी अन्यथा नहीं कर सकते; तुम्हारी सेना में  मुझे ऐसा कोई धनुर्धर नहीं दिखायी देता, जो महायुद्ध में अपने अस्त्रों से अर्जुन के अस्त्रों का निवारण कर सके। मेरा तो ऐसा विश्वास है कि श्रीकृष्ण की सहायता पाकर अर्जुन देवताओंसहित तीनों लोकों को नष्ट कर सकता है। इसलिये मैं यहाँ से चले जाने की आज्ञा चाहता हूँ। अथवा यदि तुम ठीक समझो अश्त्थामा और द्रोणाचार्य से मेरी रक्षा का आश्वासन दिलाओ।‘ अब दुर्योधन ने स्वयं जाकर द्रोणाचार्य से बहुत प्रार्थना की है। जयद्रथ की रक्षा का पूरा प्रबंध कर लिया गया है, रथ भी सजा लिये गये हैं। कल के युद्ध में कर्ण, भूरिश्रवा, वृषसेन, कृपाचार्य और शल्य___ये छः महारथी आगे रहेंगे द्रोणाचार्य ने ऐसा व्यूह बनाया है, जिसका अगला आशा भाग शकट के आकार का है और पिछला कमल के समान। कमलव्यूह के मध्य की कर्णिका के बीच सूची_व्यूह के पास जयद्रथ खड़ा होगा और बाकी सभी वीर चारों ओर से उसकी रक्षा में रहेंगे। ये ऊपर बताये हुए छः महारथी धनुष, बाण, पराक्रम और शारीरिक बल में दुःसह हैं। इनमें से एक_एक के पराक्रम का विचार करो। जब ये छः एक साथ होंगे, उस समय इनका जीतना सहज नहीं होगा। अब अपने हित का खयाल रखकर कार्य सिद्ध करने के लिये मैं राजनीतिज्ञ मंत्रियों और हितैषियों से चलकर सलाह करूँगा।‘
  ब्राह्मण में सत्य, साधुओं में नम्रता और यज्ञों में लक्ष्मी का होना जैसे निश्चित है, उसी प्रकार जहाँ नारायण हों वहाँ विजय भी निश्चित है। कल सँवारा होते ही मेरा रथ तैयार हो जाय, ऐसा प्रबंध कर लीजिये; क्योंकि हमलोगों पर बहुत भारी काम आ पड़ा है।

Friday 12 October 2018

अर्जुन का विवाद और जयद्रथ को मारने की प्रतिज्ञा

संजय कहते हैं___महाराज ! उस दिन जब सूर्यनारायण अस्त हो गये, प्राणियों का घोर संहार बंद हुआ तथा सभी सैनिक अपनी_अपनी छावनी को जाने लगे, उसी समय अर्जुन भी अपने दिव्य अस्त्रों से संशप्तकों का वध करके रथ पर बैठ शिविर की ओर चले। चलते_चलते ही वे भगवान् श्रीकृष्ण से बोले____’ केशव !  न जाने क्यों आज मेरा हृदय धड़क रहा है। कोई अनिष्ट अवश्य हुआ है, यह बात हृदय से निकलती ही नहीं। पृथ्वी पर तथा संपूर्ण दिशाओं में होनेवाले भयंकर उत्पात मुझे डरा रहे हैं। कहिये, मेरे पूज्य भ्राता राजा युधिष्ठिर अपने मंत्रियोंसहित सकुशल तो होंगे ?’
श्रीकृष्ण ने कहा___शोक न करो, मंत्रियोंसहित तुम्हारे भाई का तो कल्याण ही होगा। इस अपशकुन के अनुसार कोई दूसरा ही अनिष्ट हुआ होगा।
तदनन्तर दोनों वीरों ने संध्योपासना की और फिर रथ पर बैठकर युद्ध_संबंधी बातें करते हुए आगे बढ़े। जब छावनी के पास पहुँचे तो उसे आनन्दरहित और श्रीहीन देखा। वे चिन्तित होकर श्रीकृष्ण से कहने लगे___’जनार्दन ! आज इस शिविर में मांगलिक बाजे नहीं बज रहे हैं। न दुंदुभि का निनाद है, न शंख का ध्वनि। आज वीणा भी नहीं बजती, मंगलगीत नहीं गाये जाते। बंदीगन न स्तुति करते हैं, न पाठ। मेरे सैनिक मुझे देखकर मुँह नीचे किये चल देते हैं। इन स्वजनों को व्याकुल देखकर मेरे हृदय का खटका नहीं मिटता। आज प्रतिदिन की,भाँति सुभद्राकुमार अभिमन्यु भाइयोंसहित हँसती हुआ मेरी अगवानी करने नहीं आ रहा है।‘ इस प्रकार बातें करते हुए दोनों ने शिविर में पहुँचकर देखा कि पाण्डव अत्यन्त व्याकुल और हतोत्साह हो रहे हैं। भाइयों तथा पुत्रों को इस अवस्था में देख और सुभद्रानन्दन अभिमन्यु को वहाँ न पाकर अर्जुन बहुत दुःखी होकर बोले, ‘आज आप सब लोगों के मुँह पर अप्रसन्नता दिखायी दे रही है। इधर मैं अभिमन्यु को नहीं देखता और आपलोग मुझसे प्रसन्नतापूर्वक बोलते नहीं; इसका क्या कारण है ? मैंने सुना था, आचार्य द्रोण ने चक्रव्यूह की रचना की थी, आपलोगों में से बालक अभिमन्यु के सिवा दूसरा कोई उस व्यूह का भेदन नहीं कर सकता था। अभिमन्यु को भी मैंने उस व्यूह से निकलने का ढंग अभी नहीं बताया था। कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि आपलोगों ने उस बालक को शत्रु के व्यूह में भेज दिया हो ? सुभद्रानन्दन उस व्यूह को अनेकों बार तोड़कर युद्ध में मारा तो नहीं गया ? वह सुभद्रा और द्रौपदी का प्यारा तथा माता कुन्ती और श्रीकृष्ण का दुलारा था; बताइये तो काल के वश में पड़ा हुआ ऐसा कौन है, जिसने उसका वध किया है। हा ! वह कैसे हँस_हँसकर बातें करता था और सदा बड़ों की आज्ञा में रहता था। बचपन में भी उसके पराक्रम की कहीं तुलना रहीं थी। कितनी प्यारी_प्यारी बातें करता था। ईर्ष्या_द्वेष तो,उसे छू नहीं गया था। वह महान् उत्साही था। उसकी भुजाएँ बड़ी_बड़ी  और आँखें कमल के समान विशाल थीं। अपने सेवकों पर उसकी बड़ी दया थी, कभी नीच पुरुषों की संगति नहीं करता था। वह कृतज्ञ, ज्ञानी और अस्त्रविद्या में कुशल था; युद्ध में पीछे पैर नहीं हटाता था। युद्ध का तो वह अभिनन्दन करता था, शत्रु उसे देखते ही भयभीत हो जाते थे। वह आत्मीय जनों का प्रिय करनेवाला और पितृवर्ग की विजय चाहनेवाला था। शत्रु पर पहले कभी नहीं प्रहार करता था और युद्ध में सदा निर्भीक रहता था। रथियों की गणना होते समय जिसे महारथी गिना गया था, उस वीर अभिमन्यु का मुख देखे बिना अब मेरे हृदय को क्या शान्ति मिलेगी ? अपने से अधिक दुःख तो सुभद्रा के लिये हो रहा है, वह बेचारी बेटे की मृत्यु सुनते ही शोक से पीड़ित होकर प्राण त्याग देगी। अभिमन्यु को न देखकर सुभद्रा और द्रौपदी मुझसे क्या कहेंगी ? उन दोनों को,मैं क्या जवाब दूँगा ? सचमुच मेरा हृदय वज्र का बना हुआ है, तभी तो पुत्रवधू उत्तरा के रोने_बिलखने का ध्यान आते ही इसके हजारों टुकड़े नहीं जो जाते।‘ इस प्रकार अर्जुन को पुत्रशोक से पीड़ित और उसी की याद में आँसू बहाते देख भगवान् कृष्ण ने उन्हें पकड़कर संभाला और कहा___’मित्र ! इतने व्याकुल न होओ। जो युद्ध में पीठ नहीं दिखाते, उन सभी शूरवीरों को एक दिन इसी मार्ग से जाना पड़ता है। जिनकी युद्ध से ही जीविका चलती है, उन क्षत्रियों का तो विशेषतः यही मार्ग है; उनके लिये संपूर्ण शास्त्रज्ञों ने यही गति निश्चित की है। युद्ध में शत्रु का सामना करते हुए मृत्यु हो जाय___ ऐसा तो सभी शूरवीर चाहते हैं। अभिमन्यु ने बड़े_बड़े वीर एवं महाबली राजकुमारों को युद्ध में मारा है और शत्रु के सामने डटे रहकर वीरों के लिये वांछनीय मृत्यु प्राप्त की है। तुम्हें शोक करते देख ये तुम्हारे भाई और मित्र अधिक दुःखी हो रहे हैं। इन्हें सान्त्वनाभरी बातों से आश्वासन दो। तुम तो जाननेयोग्य तत्व को जान चुके हो; तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये।‘ भगवान् कृष्ण के इस प्रकार समझाने पर अर्जुन ने अपने भाइयों से कहा___’मैं अभिमन्यु की मृत्यु का वृतांत आरम्भ से ही सुनना चाहता हूँ। आप सबलोग अस्त्रविद्या में कुशल हैं, हाथों में शस्त्र लिये वहाँ खड़े थे। ऐसे समय में वह यदि इन्द्र से भी युद्ध करता हो तो भी नहीं मारा जाना चाहिये; फिर आपके रह के कैसे उसकी मृत्यु हुई ? यदि मैं जानता कि पाण्डव और पांचाल मेरे बेटे की रक्षा करने में असमर्थ हैं तो स्वयं ही उपस्थित होकर उसकी रक्षा करता।‘ इतना कहकर अर्जुन चुप हो गये। उस संयम युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण के सिवा, दूसरा कोई भी उनकी ओर देखने या बोलने का साहस नहीं कर सका। युधिष्ठिर ने कहा___’महाबाहो ! जब तुम संशप्तकों की सेना से लड़ने चले गये, उसी समय द्रोणाचार्य ने मुझे पकड़ने का घोर प्रयत्न किया, वे रथों की सेना की व्यूह बनाकर बारम्बार उद्योग करते थे और हमलोग व्यूहाकार में संगठित हो उनके आक्रमण को व्यर्थ कर रहे थे। किन्तु द्रोणाचार्य तीखे बाणों से हमें बहुत पीड़ा देने लगे। उस समय व्यूह_भेदन करना तो दूर की बात है, हम उनकी ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सकते थे। ऐसी स्थिति आ जाने पर हम सबने अभिमन्यु को कहा___’बेटा ! तुम व्यूह तोड़ डालो।‘ हमारे कहने से ही उसने इस असह्य भार को भी वहन करना स्वीकार किया और तुम्हारी दी हुई शिक्षा के अनुसार वह व्यूह तोड़कर उसमें घुस गया। हम भी उसके बनाये हुए मार्ग से व्यूह में प्रवेश करने को जब पीछे_पीछे चले तो नीच जयद्रथ ने शंकरजी के दिये हुए वरदान के बल से हमें रोक लिया। तदनन्तर द्रोण, कृप, कर्ण, अश्त्थामा, बृहद्वल और कृतवर्मा___इन छः महारथियों ने उसे सब ओर से घेर लिया। घिरे होने पर भी उस बालक ने अपनी शक्ति के अनुसार उन्हें जीतने का पूर्ण प्रयास किया, किन्तु उन सबने मिलकर उसे रथहीन कर दिया। जब वह अकेला और असहाय हो गया तो दुःशासन के पुत्र ने संकटापन्न अवस्था में उसे मार डाला। उसने पहले एक हजार हाथी, घोड़े, रथी और मनुष्यों को मारा; फिर आठ हजार रथी और नौ सौ हाथियों का संहार किया; तत्पश्चात् दो हजार राजकुमारों तथा अन्य बहुत_से अज्ञातवीरों को मारकर राजा बृहद्वल को भी स्वर्गलोक का अतिथि बनाया। इसके बाद वह स्वयं मरा है और यही हमलोगों के लिये सबसे बढ़कर शोक की बात हुई है।‘ धर्मराज की यह बात सुनकर अर्जुन ‘ हा पुत्र !’ कहते हुए करुण उच्छवास लेने लगे और अत्यन्त व्यथा से पीड़ित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। उस समय सबके मुख पर विषाद छा गया, सभी अर्जुन को घेरकर बैठ गये और निर्निमेष नेत्रों से एक_दूसरे को देखने लगे। थोड़ी देर बाद अर्जुन को होश हुआ, तब वे क्रोध में भरकर बोले____’मैं आपलोगों के सामने यह सच्ची प्रतिज्ञा करता हूँ कि यदि जयद्रथ कौरवों का आश्रय छोड़कर भाग नहीं गया या हमलोगों की, भगवान् श्रीकृष्ण की अथवा महाराज युधिष्ठिर की शरण में नहीं आ गया तो कल उसे अवश्य मार डालूँगा। अगर कल उसे न मारूँ तो माता_पिता की हत्या करनेवाले, गुरुस्त्रीगामी, चुगलखोर, साधुनिन्दक, दूसरों पर कलंक लगानेवाले, धरोहर को हड़प लेनेवाले और विश्वासघाती पुरुषों की जो गति होती है वही मेरी भी हो। जो वेदाध्ययन करनेवाले उत्तम ब्राह्मणों का तथा बड़े_बूढ़ों, साधुओं और गुरुजनों का अनादर करते हैं, ब्राह्मण, गौ और अग्नि का चरणों से स्पर्श करते हैं और जल में मल_मूत्र या थूक डालते हैं, उन्हें जो दुर्गति प्राप्त होती है वही कल जयद्रथ को न मारने पर मेरी भी हो। नंगे नहानेवाले, अतिथि को निराश करनेवाले, सूदखोर, मिथ्यावादी, ठग, आत्मवंचक, दूसरों पर झूठे दोष लगानेवाले तथा परिवारवालों को दिये बिना अकेले ही मिठाई उड़ानेवाले लोगों को जो दुर्गति भोगनी पड़ती है, वही जयद्रथ का वध न करने पर मेरी भी हो। जो शरण में आये हुए का त्याग करता है तथा कहने के अनुसार चलनेवाले सज्जनपुरुष का पालन_पोषण नहीं करता, उपकारी की निंदा करता है, पड़ोस में रहनेवाले सुयोग्य व्यक्ति को श्राद्ध का दान न देकर अयोग्य व्यक्तियों को देता है और शूद्र जाति की स्त्री से सम्बन्ध रखनेवालों को श्राद्धान्न जिमाता है तथा जो शराबी, मर्यादा भंग करनेवाला, कृतध्न और स्वामी का निन्दक है, उस पुरुष की जो दुर्गति होती है वही जयद्रथ को न मारने पर मेरी भी हो। जो बायें हाथ से भोजन करते, गोद में रखकर खाते, पलाश के पत्ते पर बैठते और तेंदूकी दातून करते हैं, जिन्होंने धर्म का त्याग किया है, जो प्रातःकाल सोते हैं, ब्राह्मण होकर शीत से और क्षत्रिय होकर युद्ध से डरते हैं, शास्त्र की निंदा करते हैं, दिन में नींद लेते या मैथुन करते हैं, घर में आग लगाते, अग्निहोत्र और अतिथिसत्कार से विमुख रहते तथा गौओं के पानी पीने में विघ्न डालते हैं, जो रजस्वला से संसर्ग करते हैं, कीमत लेकर कन्या को बेचते हैं, बहुत लोगों की पुरोहिती करते हैं, ब्राह्मण होकर दासवृति से जीविका चलाते हैं, तथा जो ब्राह्मण का संकल्प करके फिर लोभवश नहीं देते, उन सबकी जो दुःखदायिनी गति होती है, वही जयद्रथ को न मारने पर मेरी भी हो। ऊपर जिन पापियों का नाम मैंने दिखाया है तथा जिनका नाम नहीं गिनाया है, उनको जो दुर्गति प्राप्त होती है वही मेरी भी हो___यदि कल जयद्रथ का वध न कर सकूँ।
अब मेरी यह दूसरी प्रतिज्ञा भी सुनिये___यदि कल सूर्य अस्त होने के पहले पापी जयद्रथ नहीं,मारा गया तो मैं स्वयं ही जल की हुई आग में प्रवेश कर जाऊँगा। देवता, असुर, मनुष्य, पक्षी, नाग, पितर, राक्षस, ब्रह्मर्षि, देवर्षि, यह चराचरजगत् तथा इसके परे जो कुछ है, वह भी___ये सब मिलकर भी मेरे शत्रु की रक्षा नहीं कर सकते। यदि जयद्रथ पाताल में घुस जायगा या उससे आगे बढ़ जायगा अथवा अंतरिक्ष में, देवताओं के,नगर में या दैत्यों की पुरी में,भागकर छिपेगा तो भी मैं कल अपने सैकड़ों बाणों से अभिमन्यु के उस शत्रु का सिर उतारूँगा ही। यह कहकर अर्जुन ने गाण्डीव धनुष की टंकार की, उसकी ध्वनि आकाश में गूँज उठी। अर्जुन की वह प्रतिज्ञा सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण ने अपना पांचजन्य शंख बजाया और कुपित हुए अर्जुन ने देवदत्त नामक शंख की ध्वनि फैलायी। वह शंखनाद सुनकर आकाश_पातालसहित सम्पूर्ण जगत् काँप उठा। उस समय शिविर में युद्ध के बाजे बज उठे और पाण्डव सिंहनाद करने लगे।