Wednesday 27 January 2016

वनपर्व---जटायु-वध और कबन्ध का उद्धार

जटायु-वध और कबन्ध का उद्धार
गीधराज जटायु अरुण का पुत्र था, उसके बड़े भाई का नाम था संपाति। राजा दशरथ के साथ उसकी बड़ी मित्रता थी। इसी नाते सीता को वह अपनी पुत्रवधू के समान समझता था। उसे रावण के चंगुल में फँधी देखकर जटायु के क्रोध की सीमा न रही। महान् वीर तो वह था ही, रावण के ऊपर वेग से झपटा और ललकारकर कहने लगा---'निशाचर ! तू मिथिलेशकुमारी सीता को छोड़ दे, तुरंत छोड़ दे। यदि मेरी पुत्रवधू को नहीं छोड़ेगा तो तुझे जीवन स हाथ धोना पड़ेगा।' ऐसा कहकर जटायु ने रावण को छेदना आरम्भ किया। नखों से, पंखों से और चोंच से मार-मारकर उसके सैकड़ों घाव कर दिये। सारा शरीर जर्जर हो गया। देह से रक्त की धारा बहने लगी, मानो पहाड़ से झरना गिर रहा हो। रामचन्द्रजी का प्रिय और हित चाहनेवाले जटायु को इस प्रकार चोट करते देख रावण ने हाथ में तलवार ली और उसके दोनो पंख काट डाले। इस प्रकार जटायु को मारकर वह राक्षस सीता को लिये हुए फिर आकाशमार्ग से चल दिया। सीता को जहाँ कहीं मुनियों का आश्रम दीखता, जहाँ-तहाँ नदी, तालाब या पोखरा दिखाई पड़ता, उन सब स्थानों पर कोई-न-कोई अपना गहना गिरा देती थी। आगे जाकर सीता ने एक पर्वत की चोटी पर बैठे हुए पाँच बड़े-बड़े वानरों को देखा, वहाँ भी उसने शरीर का एक बहुमूल्य दिव्य वस्त्र गिरा दिया। रावण आकाशचारी पक्षी की भाँति बड़ी मौज से आकाश में चल रहा था, उसने बड़ी शीघ्रता से अपना मार्ग तय किया और सीता को लिये हुए विश्वकर्मा की बनायी हुई अपनी मनोहरपुरी लंका में जा पहुँचा। इस प्रकार इधर सीता हरी गयी और उधर श्रीरामचन्द्रजी उस कपटमृग को मारकर लौटे। रास्ते में उनकी लक्ष्मण से भेंट हुई। राम ने उलाहना देते हुए कहा---'लक्ष्मण ! राक्षसों से भरे हुए इस घोर जंगल में जानकी को अकेली छोड़कर तुम यहाँ कैसे चले आए ?' लक्ष्मण ने सीता की कही हुई सारी बातें उन्हें सुना दी। सुनकर श्रीरामचन्द्रजी के मन में बड़ा क्लेश हुआ। शीघ्रतापूर्वक आश्रम के पास पहुँचकर उन्होंने देखा कि एक पर्वत के समान विशालकाय गीध अधमरा पड़ा हुआ है। दोनो भाई जब निकट पहुँचे तो गीध ने उनसे कहा---'आप दोनो का कल्याण हो, मैं राजा दशरथ का मित्र गीधराज जटायु हूँ।' उसकी बात सुनकर दोनो भाई परस्पर कहने लगे---'यह कौन है जो हमारे पिता का नाम लेकर परिचय दे रहा है ?' निकट आने पर उन्होंने उसके दोनो पंख कटे हुए देखे। गीध ने बताया कि 'सीता को छुड़ाने के लिये युद्ध करते समय रावण के हाथ से मैं मारा गया हूँ।' राम ने पूछा---'रावण किस दिशा की ओर गया है ?' गीध ने सिर हिलाकर इशारे से दक्षिण दिशा बतायी और प्राण त्याग दिया। उसका संकेत समझकर भगवान् राम ने पिता का मित्र होने के नाते उसे आदर देते हुए उसका विधिवत् अन्त्येष्टि संस्कार किया।  तदनन्तर आश्रम पर जाकर उन्होंने देखा कुश की चटाई उजड़ी हुई है, कुटी उजाड़ हो गयी है, घर सूना है। इससे सीता-हरण का निश्चय हो जाने से दोनो भाइयों को बड़ी वेदना हुई। उनका हृदय दुःख और शोक से व्याकुल हो गया। फिर वे सीता की खोज करते हुए दण्डकारण्य के दक्षिण की ओर चल दिये। कुछ दूर जाने पर उस महान् वन में राम और लक्ष्मण ने देखा कि मृगों का झुण्ड इधर-उधर भाग रहे हैं। थोड़ी ही देर में उन्हे भयानक कबन्ध दिखायी पड़ा। वह मेघ के समान काला और पर्वत के सदृश विशालकाय था। शालवृक्ष की शाखा के समान उसकी बड़ी-बड़ी भुजाएँ थीं। चौड़ी छाती, विशाल आँखें, लम्बा सा पेट और उसमें बहुत बड़ा मुँह--यही उसकी हुलिया थी। उस राक्षस ने अचानक आकर लक्ष्मण का हाथ पकड़ लिया और उन्हें अपने मुँह की ओर खींचा। इससे लक्ष्मण बहुत दुःखी हुए और नाना प्रकार से विलाप करने लगे। तब भगवान् राम ने लक्ष्मण को धैर्य देते हुए कहा---'नरश्रेष्ठ ! तुम खेद न करो; मेरे रहते यह राक्षस तुम्हारा बाल भी बाँका नहीं कर सकता। देखो, मैं इसकी बायीं भुजा काटता हूँ; तुम भी दाहिनी बाँह काट लो।' यह कहते-कहते राम ने तिल के पौधे के समान उसकी एक बाँह तीखी तलवार से काटकर गिरा दी। फिर लक्षमण ने भी अपने खड्ग से उसकी दूसरी बाँह काट ली और पसली पर भी प्रहार किया। इससे कबन्ध के प्राण-पखेरू उड़ गये और वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसकी देह से एक सूर्य के समान प्रकाशमान दिव्य पुरुष निकलकर आकाश में स्थित हो गया। श्रीरामचन्द्रजी ने उससे पूछा---'तू कौन है ?' उसने कहा---"भगवन् ! मैं विश्वावसु नामक गन्धर्व हूँ, ब्राह्मण के शाप से राक्षसयोनि में आ पड़ा था। आज आपके स्पर्श से मैं शापमुक्त हो गया। अब सीता का समाचार सुनिये---लंका का राजा रावण सीता को हरकर ले गया है। यहाँ से थोड़ी दूर पर रिष्यमूक पर्वत है, उसके निकट 'पम्पा' नामक छोटा सरोवर है। वहाँ ही अपने चार मंत्रियों के साथ सुग्रीव रहा करते हैं। वे सुवर्णमालाधारी वानरराज वाली के छोटे भाई हैं। उनसे मिलकर आप अपने दुःख का कारण बताइये; उनका शील और स्वभाव आपके ही समान है, अवश्य ह वे आपकी मदद कर सकते हैं। मैं तो इतना ही कह सकता हूँ कि आपकी जानकी से भेंट होगी।" यह कहकर वह परम कान्तिमान् दिव्य पुरुष अन्तर्धानहो गया और राम तथा लक्ष्मण दोनो ही उसकी बात सुनकर बहुत विस्मित हुए।

Sunday 24 January 2016

वनपर्व--कपटमृग का वध और सीताहरण


कपटमृग का वध और सीताहरण
रावण को आया देख मारीच सहसा उठकर खड़ा हो गया और फल-मूल आदि लाकर उसने उसका अतिथि सत्कार किया। फिर कुशल मंगल के पश्चात् पूछा, 'राक्षसराज ! ऐसी क्या आवश्यकता पड़ी जिसके लिये आपने यहाँ तक आने का कष्ट उठाया ? मुझसे यदि आपका कोई कठिन-से-कठिन कार्य भी होनेवाला हो तो उसे आप निःसंकोच बतावें और ऐसा समझें कि यह काम अब पूरा ही हो गया।' रावण क्रोध और अमर्ष में भरा हुआ था, उसने एक-एक करके राम की सारी करतूतें संक्षेप में बयान कीं। सुनकर मारीच ने कहा---'रावण ! श्रीरामचन्द्रजी के पास जाने से तुम्हारा कोई लाभ नहीं है। मैं उनका पराक्रम जानता हूँ। भला, इस जगत् में ऐसा कौन है जो उनके वाणों का वेग सह सके। उन्हीं महापुरुष के कारण आज मैं यहाँ सन्यासी बना बैठा हूँ। बदला लेने की नियत से उनके पास जाना मृत्यु के मुख में जाना है ! किस दुरात्मा ने तुम्हे ऐसा करने की सलाह दी है ?' उसकी बात सुनकर रावण के क्रोध का पारा और भी चढ़ गया। उसने डाँटकर कहा---'मारीच ! यदि तू मेरी बात नहींमानेगा तो निश्चय जान, तुझे अभी मृत्यु के मुख में जाना पड़ेगा।' मारीच ने मन-ही-मन सोचा---यदि मृत्यु नश्चित है तो श्रेष्ठ पुरुष के हाथ से ही मरना अच्छा होगा। फिर उसने पूछा, 'अच्छा बताओ, मुझे तुम्हारी क्या सहायता करनी होगी ?' रावण बोला---'तुम एक सुन्दर मृग का रूप धारण करो, जिसके सिंग रत्नमय प्रतीत हों और शरीर के रोएँ भी चित्र-विचित्र रत्नों के ही रंगवाले जान पड़ें। फिर सीता की दृष्टि जहाँ पड़ सके, ऐसी जगह खड़े होकर उसे लुभाओ। सीता तुम्हें देखते ही, पकड़ लाने के लिये अवश्य ही रामचन्द्र को तुम्हारे पास भेजेगी। उसे दूर चले जाने पर सीता को वश में करना सहज होगा। मैं उसे हरकर ले आऊँगा और ऱामचन्द्र अपनी प्यारी स्त्री के वियोग में बेसुध होकर प्राण दे देंगे। बस, तुम्हें यही सहायता करनी है।' रावण की बात सुनकर मारीच को बहुत दुःख हुआ। वह रावण के पीछे-पीछे चला। श्रीरामचन्द्रजी के आश्रम निकट पहुँचकर दोनो ने पहले की सलाह के अनुसार कार्य आरम्भ कर दिया। मृगरूप में मारीच ऐसे स्थान पर खड़ा हुआ, जहाँ से सीता उसे भली-भाँति देख सके। विधि का विधान प्रबल है; उसी की प्रेरणा से सीता ने राम को वह मृग मार लाने के लिये भेजा। श्रीरामचन्द्रजी सीता का प्रिय करने के लिये हाथ में धनुष ले स्वयं तो मृग को मारने चले और लक्ष्मण को सीता की सेवा में नियुक्त किया। उनको अपना पीछा करते देख वह मृग कभी छिपता और कभी प्रकट होता हुआ उन्हें बहुत दूर ले गया। तब भगवान् राम ने यह जानकर कि यह तो निशाचर है, उसे अपने अचूक वाण का निशाना बनाया। रामचन्द्रजी के वाण की चोट खाकर मारीच ने उनके ही स्वर में 'हा सीते ! 'हा लक्ष्मण !!' कहकर आर्तनाद किया। वह करुणामयी पुकार सुनकर सीता जिधर से आवाज आयी थी, उसी ओर दौड़ पड़ी। यह देखकर लक्ष्मण ने कहा---'माता ! डरने की कोई बात नहीं है। भला कौन ऐसा है जो भगवान् राम को मार सके। घबराओ नहीं, एक ही मुहूर्त में तुम अपने पति श्रीरामचन्द्रजी को यहाँ उपस्थित देखोगी।' लक्ष्मण की बात सुनकर सीता ने उन्हें संदेहभरी दृष्टि से देखा। यद्यपि वह साध्वी और पतिव्रता थी ,सदाचार ही उनका भूषण था; तथापि स्त्रीस्वभाववश वह लक्ष्मण के प्रति बड़े कठोर वचन कहने लगी।लक्ष्मण भगवान् राम के प्रेमी और सदाचारी थे, सीता के मर्मभेदी वचन सुनकर उन्होंने दोनो कान बन्द कर लिये और श्रीरामचन्द्रजी जिस मार्ग से गये थे , उसी से वे चल पड़े। हाथ में धनुष ले श्रीराम के चरण चिह्नों को देखते हुए वे आगे बढ़ गये। इसी अवसर पर साध्वी सीता को हर ले जाने की इच्छा से सन्यासी के वेष में रावण वहाँ उपस्थित हुआ। यति को अपने आश्रम में आया देख धर्म को जाननेवाली जनकनन्दिनी ने फल-मूल के भोजन आदि से अतिथि-सत्कार के लिये उसे निमंत्रित किया। रावण बोला, 'सीते ! मैं राक्षसों का राजा रावण हूँ, मेरा नाम सर्वत्र विख्यात है। समुद्र के पार रमणीय लंकापुरी मेरी राजधानी है। सुन्दरी ! तुम इस तपस्वी राम को छोड़कर मेरे साथ लंका में चलो। वहाँ मेरी पत्नी बनकर रहना। बहुत सी सुन्दर स्त्रियाँ तुम्हारी सेवा में रहेंगी और तुम उन सब में रानी की भाँति शोभायमान होगी।' रावण के ऐसे वचन सुनकर जानकी ने अपने दोनो कान मूँद लिये और बोली--'बस, अब ऐसी बातें मुँह से मत निकाल। आकाश से सारे तारे टूट पड़ें, पृथ्वी टूक-टूक हो जाय और अग्नि अपने उष्ण स्वभाव का त्याग कर दे तो भी मैं श्रीरामचन्द्रजी का परित्याग नहीं कर सकती।' यह कहकर वह आश्रम में ज्योंहि प्रवेश करने लगी,रावण ने दौड़कर उसे रोक लिया और बड़े कठोर स्वर में डराने-धमकाने लगा। वह 'राम' का नाम ले-लेकर रो रही थी और रावण उसे हरकर लिये जा रहा था। इसी अवस्था में एक पर्वत की गुफा में रहनेवाले गीधराज जटायु ने सीता को देखा।