Friday 30 September 2016

उद्योग-पर्व---दुर्योधन का वक्तव्य और संजय द्वारा अर्जुन के रथ का वर्णन

दुर्योधन का वक्तव्य और संजय द्वारा अर्जुन के रथ का वर्णन
यह सब सुनकर दुर्योधन ने कहा---महाराज ! आप डरें नहीं। हमारे विषय में कोई चिन्ता करने की भी आवश्यकता नहीं है। हम काफी शक्तिमान हैं और शत्रुओं को संग्राम में परास्त कर सकते हैं। जिस समय इन्द्रप्रस्थ से थोड़ी ही दूरी पर वनवासी पाण्डवों के पास बड़ी भारी सेना के साथ श्रीकृष्ण आये थे तथा केकयराज, धृष्टकेतू, धृष्टधुम्न और पाण्डवों के साथी अन्यान्य महारथी एकत्रित हुए थे तो इन सभी ने आपकी और सब कौरवों की बड़ी निंदा की थी। वे लोग कुटुम्ब-सहित आपका नाश करने पर तुले हुए थे तथा पाण्डवों को अपना राज्य लौटा लेने की ही सम्मति देते थे। जब यह बात मेरे कानों में पड़ी तो बन्धुओं के विनाश की आशंका से मैने भीष्म, द्रोण और कृप को भी इसकी सूचना दी। उस समय मुझे यही दीखता था कि अब पाण्डवलोग ही राजसिंहासन पर बैठेंगे। मैने उनसे कहा कि 'श्रीकृष्ण तो हम सबका सर्वथा उच्छेद करके युधिष्ठिर को ही कौरवों का एकच्छत्र राजा बनाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में बतलाइये, हम क्या करें---उनके आगे सिर झुका दें ? डरकर भाग जायें ? अथवा प्राणों का मोह छोड़कर युद्ध में जूझें ? युधिष्ठिर के साथ युद्ध करने में तो निश्चित रूप से हमारी ही पराजय होगी; क्योंकि सब राजा उन्हीं के पक्ष में हैं। हमलोगों से तो देश भी प्रसन्न नहीं है, मित्रलोग भी रूठे हुए हैं तथा सब राजा और घर के लोग भी खरी-खोटी सुनाते हैं।' मेरी यह बात सुनकर द्रोणाचार्य, भीष्म, कृपाचार्य और अश्त्थामा ने कहा था---'राजन् ! तुम डरो मत। जिस समय हमलोग युद्ध में खड़े होंगे, शत्रु हमें जीत नहीं सकेंगे। हममें से प्रत्येक अकेला ही सारे राजाओं कोजीत सकता है। आवें तो सही हम अपने पैने बाणों से उनका गर्व ठण्डा कर देंगे।' उस समय महातेजस्वी द्रोणाचार्य आदि का ऐसा ही निश्चय हुआ था। पहले तो सारी पृथ्वी हमारे शत्रुओं के ही अधीन थी, परन्तु अब वह सब-की-सब हमारे हाथ में है। इसके सिवा यहाँ जो राजालोग इकट्ठे हुए हैं, वे भी हमारे सुख-दुःख को अपना ही समझते हैं। समय पड़ने पर ये मेरे लिये आग में भी प्रवेश कर सकते हैं और समुद्र में भी कूद सकते हैं---यह आप निश्चय मानें। आप शत्रुओं के विषय में बढ़-बढ़कर बातें सुनने से विलाप करने लगे और दुःखी होकर पागल से हो गये---यह सब देखकर ये सब राजा आपकी हँसी कर रहे हैं। इनमें से प्रत्येक राजा अपने को पाण्डवों का सामना करने में समर्थ समझता है। इसलिे आपको जिस भय ने दबा लिया है, उसे दूर कीजिये। महाराज ! अब युधिष्ठिर भी मेरे प्रभाव से ऐसे डर गये हैं कि नगर न माँगकर केवल पाँच गाँव माँगने लगे हैं।आप जो कुन्तीपुत्र भीम को बड़ा बली समझते हैं, यह भी आपका भ्रम ही है। आपको अभी मेरे प्रभाव का पूरा-पूरा पता नहीं है।इस पृथ्वी पर गदायुद्ध में कोई भी नहीं है, न कोई पहले था और न आगे ही होगा। जिस समय रणभूमि में भीम के ऊपर मेरी गदा गिरेगी, उस समय उसके सारे अंग चूर-चूर हो जायेंगे और वह धरती पर जा पड़ेगा। इसलिये इस महान् युद्ध में आप भीमसेन का भय न करें। आप उदास न हों, उसे तो मैं अवश्य मार डालूँगा। इसके सिवा भीष्म, द्रोण, कृप, अश्त्थामा, कर्ण, भूरिश्रवा, शल्य और जयद्रथ---इनमें से प्रत्येक वीर पाण्डवों को मारने में समर्थ हैं। फिर जिस समय ये सब मिलकर उनपर आक्रमण करेंगे, तब तो एक क्षण में ही उन्हें यमराज के घर भेज देंगे।  गंगादेवी के गर्भ से उत्पन्न हुए ब्रह्मर्षिकल्प पितामह भीष्म के पराक्रम को तो देवता भी नहीं सह सकते।  इसके सिवा उन्हें मारनेवाला भी संसार में कोई नहीं है; क्योंकि उनके पिता शान्तनु ने उन्हें प्रसन्न होकर यह वर दिया था, 'अपनी इच्छा बिना तुम नहीं मरोगे।' दूसरे वीर भरद्वाजपुत्र द्रोण हैं। उनके पुत्र अश्त्थामा भी शस्त्रास्त्र में पारंगत हैं। आचार्य कृप को भी कोई मार नहीं सकता। ये सब महारथी देवताओं के समान बलवान् हैं।  अर्जुन तो इनमें से किसी की ओर आँख भी नहीं उठा सकता। मैं तो कर्ण को भी भीष्म, द्रोण और कृपाचार् के समान ही समझता हूँ। संशप्तक क्षत्रियों का दल ऐसा ही पराक्रमी है। अतः उसके वध के लिये मैने ही उन्हें नियुक्त कर दिया है। राजन् ! आप व्यर्थ ही पाण्डवों से इतना क्यों डरते हैं ? बताइये तो, भीमसेन के मारे जाने पर फिर हमसे युद्ध करनेवाला उनमें कौन है ? यदि आपको कोई दीखता हो तो मुझे बताइये। शत्रुओं की सेना के तो पाँचों भाई पाण्डव तथा धृष्टधुम्न और सात्यकि---ये सात ही वीर प्रधान बल हैं। किन्तु हमारी ओर भीष्म, द्रोण, कृप, अश्त्थामा, कर्ण, सोमदत्त, बाह्लिक, प्राग्ज्योतिषप्रदेश के राजा शल्य, अवन्तिराज विन्द और अनुविन्द, जयद्रथ, दुःशासन, दुःसह, श्रुतायु, चित्रसेन, पुरुमित्र,विविंशति, शल, भूरिश्रवा और विकर्ण---ये बड़े-बड़े वीर हैं तथा ग्यारह अक्षौहिणी सेना है। फिर हमारी हार कैसे होगी ? अतः इन सब बातों से आप मेरी सेना की सबलता और पाण्डवों की सेना की दुर्बलता समझकर घबरायें नहीं। ऐसा कहकर राजा दुर्योधन ने समय पर प्राप्त हुए कार्य को जानने की इच्छा से संजय से फिर पूछा---संजय ! तुम पाण्डवों की बड़ी प्रशंसा कर रहे हो। भला यह बताओ कि अर्जुन के रथ में कैसे घोड़े और कैसी ध्वाजाएँ हैं ? संजय ने कहा---राजन् ! उस रथ की ध्वजा में देवताओं ने माया से अनेक प्रकार की छोटी-बड़ी दिव्य और बहुमूल्य मूर्तियाँ बनायी हैं। पवननन्दन हनुमानजी ने उसपर अपनी मूर्ति स्थापित की है और वह ध्वजा सब ओर एक योजन तक फैली हुई है। विधाता की ऐसी माया है कि वृक्षादि के कारण इसकी गति में कोई बाधा नहीं आती। अर्जुन के रथ में चित्ररथ गन्धर्व के दिये हुये वायु के समान वेगवाले सफेद रंग के उत्तम जाति के घोड़े जुते हुए हैं। उनकी गति पृथ्वी, आकाश और स्वर्गादि किसी भी स्थान में नहीं रुकती तथा उनमें से यदि कोई मर जाता है तो वर के प्रभाव से उसकी जगह नया घोड़ा उत्पन्न होकर उनकी सौ संख्या में कभी कमी नहीं आती।

Monday 26 September 2016

उद्योग-पर्व---धृतराष्ट्र का पाण्डव पक्ष के वीरों की प्रशंसा करते हुए युद्ध के लिये अनिच्छा प्रकट करना

धृतराष्ट्र का पाण्डव पक्ष के वीरों की प्रशंसा करते हुए युद्ध के लिये अनिच्छा प्रकट करना
राजा धृतराष्ट्र ने कहा---संजय ! यों तो तुमने जिन-जिनका उल्लेख किया है, वे सभी राजा बड़े उत्साही हैं। फिर भी एक ओर उन सबको मिलाकर समझो और दूसरी ओर अकेले भीम को। जैसे अन्य जीव सिंह से डरते रहते हैं, वैसे मैं भी भीम से डरकर रातभर गर्म-गर्म साँसे लेा हुआ जागता रहता हूँ। जैसे अन्य जीव सिंह से डरते रहते हैं, वैसे मैं भी भीम से डरकर रातभर गर्म-गर्म साँसे लेता हुआ जागता रहता हूँ। कुन्तीपुत्र भीम बड़ा ही असहनशील, कट्टर शत्रुता माननेवाला, सच्ची हँसी करनेवाला, उन्मत्त, टेढ़ी निगाह से देखनेवाला, भारी गर्जना करनेवाला, महान् वेगवान्, बड़ा ही उत्साही, विशालबाहु और बड़ा ही बली है।वह अवश्य युद्ध करके मेरे अल्पवीर्य पुत्रों को मार डालेगा। उसकी याद आने पर मेरा दिल धड़कने लगता है। बाल्यावस्था में भी जब मेरे पुत्र उसके साथ खेल में युद्ध करते थे तो वह उन्हें हाथी की तरह मसल डालता था। जिस समय वह रणभूमि में क्रोधित होगा उस समय अपनी गदा से रथ, हाथी, मनुष्य और घोड़े---सभी को कुचल डालेगा। वह मेरी सेना के बीच में होकर रास्ता निकाल लेगा, उसे इधर-उधर भगा देगा और जिस समय हाथमें गदा लेकर रणांगण में नृत्य-सा करने लगेगा उस समय प्रलय सा मचा देगा। देखो, मगधदेश के राजा महाबली जरासन्ध ने यह सारी पृथ्वी अपने वश में करके संतप्त कर रखी थी; किन्तु भीमसेन ने श्रीकृष्ण के साथ उसके अन्तःपुर में जाकर उसे भी मार डाला। भीमसेन के बल को मैं ही नहीं---ये भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य भी अच्छी तरह जानते हैं। शोक तो मुझे उन लोगों के लिये है, जो पाण्डवों के साथ युद्ध करने पर ही तुले हुए हैं। विदुर ने आरम्भ में ही जो रोना रोया था, आज वही सामने आ गया। इस समय कौरवों पर जो महान् विपत्ति आनेवाली है, उसका प्रधान कारण जूआ ही जान पड़ता है। मैं बड़ा मंदमति हूँ। 'हाय ! ऐश्वर्य के लोभ से मैने ही यह महापाप कर डाला था। संजय ! मैं क्या करूँ ? कैसे करूँ और कहाँ जाऊँ। ये मंदमति कौरव तो काल के अधीन होकर विनाश की ओर ही जा रहे हैं। हाय ! सौ पुत्रों के मरने पर जब मुझे विवश होकर उनकी स्त्रियों का करुणक्रन्दन सुनना पड़ेगा तो मौत भी मुझे कैसे स्पर्श करेगी ? जिस प्रकार वायु से प्रज्जवलित हुआ अग्नि घास-फूस की ढ़ेरी को भष्म कर देता है, वैसे ही अर्जुन की सहायता से गदाधारी भीम मेरे सब पुत्रों को मार डालेगा। देखो, आजतक युधिष्ठिर की मैने एक भी झूठ बात नहीं सुनी; और अर्जुन जैसा वीर उसके पक्ष में है, इसलिये वह तो त्रिलोकी का राज्य भी पा सकता है। रात-दिन विचार करने पर भी मुझे ऐसा कोई योद्धा दिखायी नहीं देता, जो रथयुद्ध में अर्जुन का सामना कर सके। यदि किसी प्रकार वीरवर द्रोणाचार्य और कर्ण उसका मुकाबला करने के लिये आगे बढ़ें भी, तो भी अर्जुन के जीतने के विषय में तो मुझे बड़ा भारी संदेह ही है।  इसलिये मेरी विजय होने की कोई सूरत नहीं है। अर्जुन तो सारे देवताओं को भी जीत चुका है। वह कहीं हारा हो---यह मैने आजतक नहीं सुना; क्योंकि जो स्वभाव और आचरण में उसी के समान है, वे श्रीकृष्ण उसके सारथि हैं। जिस समय वह रणभूमि में रोषपूर्वक पैने-पैने वाणों की वर्षा करेगा, उस समय विधाता के रचे हुए सर्वसंहारक काल के समान उसे काबू में करना असम्भव हो जायगा। उस समय महलों में बैठा हुआ मैं भी निरंतर कौरवों के संहार और कौरवों के फूट आदि की ही बातें सुनूँगा। वस्तुतः इस युद्ध में सब ओर से भरतवंश के विनाश का ही आक्रमण होगा। संजय ! जैसे पाण्डवलोग विजय के लिये उत्सुक, वैसे ही उनके सब साथी भी विजय के लिये कटिबद्ध और पाण्डवों के लिये अपने प्राण निछावर करने को तैयार है। तुमने मेरे सामने शत्रुपक्ष के पंचाल, केकय, मत्स्य और पाण्डवों के नाम लिये हैं। किन्तु जगत्स्त्रष्टा श्रीकृष्ण तो इच्छामात्र से इन्द्र के सहित इन लोकों को अपन वश में कर सकते हैं। वे भी पाण्डवों की विजय का निश्चय किये हुए हैं।सात्यकि ने भी अर्जुन से सारी शस्त्रविद्या सीख ली है; वह बीजों के समान वाणों की वर्षा करता हुआ युद्धक्षेत्र में डटा रहेगा। महारथी धृष्टधुम्न भी बड़ा भारी शस्त्रज्ञ है, वह भी मेरे पक्ष के वीरों से युद्ध करेगा ही। भैया ! मुझे तो हर समय युधिष्ठिर के क्रोध और अर्जुन के पराक्रम का तथा नकुल-सहदेव और भीमसेन का भय लगा रहता है। युधिष्ठिर सर्वगुणसम्पन्न हैं और प्रज्जवलित अग्नि के समान तेजस्वी हैं। ऐसा कौन मूढ़ है, जो पतंगे की तरह उसमें गिरना चाहेगा। इसलिये कौरवों ! मेरी बात सुनो। मैं तो उनके साथ युद्ध न ही करना अच्छा समझता हूँ। युद्ध करने पर तो निश्चय ही इस सारे कुल का नाश हो जायगा। मेरा तो यही निश्चित विचार है और ऐसा करने से ही मेरे मन को शान्ति मिल सकती है। यदि तुम सबको भी युद्ध न करना ही ठीक मालूम हो तो हम सन्धि के लिये प्रयत्न करें। संजय ने कहा---महाराज ! आप जैसा कह रहे हैं वैसी ही बात है। मुझे भी गाण्डीव धनुष से समस्त क्षत्रियों का नाश दिखायी दे रहा है। देखिये, यह कुरुजांगल देश तो पैतृक राज्य है और शेष सब भूमि आपको पाण्डवों की ही जीती हुई मिली है। पाण्डवों ने अपने बाहुबल से जीतकर यह भूमि आपको भेंट कर दी हैं; परन्तु आप इसे अपनी ही विजय की हुई मानते हैं। जब गन्धर्वराज चित्रसेन ने आपके पुत्रों को कैद कर लिया था, उस समय उसे भी अर्जुन ही छुड़ाकर लाया था। बाण छोड़नेवालों में अर्जुन श्रेष्ठ है, समस्त प्राणियों में श्रीकृष्ण श्रेष्ठ हैं और ध्वजाओं मे वानर के चिह्नवाली ध्वजा सबसे श्रेष्ठ है। अतः अर्जुन कालचक्र के समान हम सभी का नाश कर डालेगा। भरतश्रेष्ठ ! निश्चय मानिये--- जिसके सहायक भीम और अर्जुन हैं, यह सारी पृथ्वी आज उसी की है।

उद्योग-पर्व---कर्ण, भीष्म और द्रोण की सम्मति तथा संजय द्वारा पाण्डवपक्ष के वीरों का वर्णन

कर्ण, भीष्म और द्रोण की सम्मति तथा संजय द्वारा पाण्डवपक्ष के वीरों का वर्णन
भरतनन्दन ! उस समय कौरवों की सभा में सभी राजालोग एकत्रित थे। संजय का भाषण समाप्त होने पर शान्तनुनन्दन भीष्म ने दुर्योधन से कहा, "एक समय बृहस्पति, शुक्राचार्य तथा इन्द्रादि देवगण ब्रह्माजी के पास गये और उन्हें घेरकर बैठ गये। उसी समय दो प्राचीन ऋषि अपने तेज से सबके चित्त एवं तेज को हरते हुए सबको लाँघकर चले गये। बृहस्पतिजी ने ब्रह्माजी से पूछा कि 'ये दोनो कौन हैं, जो आपकी उपासना किये बिना ही चले जा रहे हैं ? तब ब्रह्माजी ने बतलाया कि 'ये प्रबल प्रतापी महाबली नर-नारायण ऋषि हैं, जो अपने तेज से पृथ्वी एवं स्वर्ग को प्रकाशित कर रहे हैं। इन्होंने अपने कर्म से संपूर्ण लोकों के आनन्द को बढ़ाया है। इन्होंने परस्पर अभिन्न होते हुए भी असुरं का विनाश करने के लिये दो शरीर धारण किये हैं। ये अत्यन्त बुद्धिमान् तथा शत्रुओं को संतप्त करनेवाले हैं। समस्त देवता एवं गन्धर्व इनकी पूजा करते हैं।' 'सुनते हैं---इस युद्ध में अर्जुन और श्रीकृष्ण एकत्र हैं, ये दोनो नर-नारायण नाम के प्राचीन देवता ही हैं। इन्हें इस संसार में इन्द्र के सहित देवता और असुर भी जीत सकते। इनमें श्रीकृष्ण नारायण और अर्जुन नर हैं। वस्तुतः नारायण और नर---ये दो रूपों में एक ही वस्तु हैं। भैया दुर्योधन ! जिस समय तुम शंख चक्र और गदा धारण किये तुम श्रीकृष्ण को और अनेकों अश्त्र-शस्त्र एवं भयंकर गाण्डीव धनुष लिये अर्जुन को एक ही रथ में बैठे देखोगे, उस समय तुम्हे मेरी बात याद आवेगी। यदि तुम मेरी बात पर ध्यान नहीं दोगे तो समझ लेना कि कौरवों का अन्त आ गया है तथा तुम्हारी बुद्धि अर्थ और धर्म से भ्रष्ट हो गयी है। तुम्हे तो तीनही की सलाह ठीक जान जान पड़ती है---एक तो अधम जाति सूतपुत्र कर्ण की, दूसरे सबलपुत्र शकुनि की और तीसरे अपने क्षुद्रबुद्धि पापात्मा भाई दुःशासन की। इसपर कर्ण बोल उठा---पितामह ! आप जैसी बात कह रहे हैं, वह आप जैसे बयोवृद्धों के मुख से अच्छी नहीं लगती। मैं क्षात्रधर्म में स्थित रहता हूँ और कभी अपने धर्म का परित्याग नहीं करता। मेरा ऐसा कौन सा दुराचार है, जिसके कारण आप मेरी निंदा कर रहे हैं ? मैने दुर्योधन का कभी कोई अनिष्ट नहीं किया और अकेला मैं ही युद्ध में सामने आने पर समस्त पाण्डवों को मार डालूँगा। कर्ण की बात सुनकर पितामह भीष्म ने राजा धृतराष्ट्र को सम्बोधन करके कहा----'कर्ण जो यह सदा ही कहता रहता है कि 'मैं पाण्डवों को मार डालूँगा' सो यह पाण्डवों के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं है। तुम्हारे दुष्ट पुत्रों को जो अनिष्ट फल मिलनेवाला है, वह सब इस दुष्टबुद्धि सूतपुत्र की ही करतूत है। तुम्हारे पुत्र मन्दमति दुर्योधन ने भी इसी का बल पाकर उनका तिरस्कार किया है। पाण्डवों ने मिलकर और अलग-अलग जैसे दुष्कर कर्म किये हैं, वैसा इस सूतपुत्र ने कौन सा पराक्रम किया है ? जब विराटनगर में अर्जुन ने इसके सामने ही इसके प्यारे भाई को मार डाला था तो इसने उसका क्या कर लिया था ?  जिस समय अर्जुन ने अकेले ही समस्त कौरवों पर आक्रमण किया और इन्हें परास्त करके इनके वस्त्र छीन लिये, उस समय क्या यह कहीं बाहर चला गया था ?  घोषयात्रा के समय जब गन्धर्वलोग तुम्हारे पुत्र को कैद करके ले गये थे, उस समय यह कहाँ था ? अब तो बड़ा बैल की तरह गरज रहा है ! यहाँ भीमसेन, अर्जुन और नकुल-सहदेव ने मिलकर ही गन्धर्वों को परास्त किया था। भरतश्रेष्ठ ! यह बड़ा ही बकवादी है। इसकी सब बातें इसी तरह झूठी हैं। यह तो धर्म और अर्थ दोनो को ही चौपट कर देनेवाला है।' भीष्म की बात सुनकर महामना द्रोण ने उनकी प्रशंसा की और फिर राजा धृतराष्ट्र से कहा---'राजन् ! भरतश्रेष्ठ भीष्म जैसा कहते हैं, वैसा ही करो; जो लोग अर्थ और कामके गुलाम हैं, उनकी बात नहीं माननी चाहिये। मैं तो युद्ध के पहले पाण्डवों के साथ सन्धि करना ही अच्छा समझता हूँ। अर्जुन ने जो बात कही है और संजय ने ज संदेश आपको सुनाया है, मैं उन सबको समझता हूँ। अर्जुन अवश्य वैसा ही करेगा। उसके समान तीनों लोकों में कोई धनुर्धर नहीं है।' राजा धृतराष्ट्र ने भीष्म एवं द्रोण के कथन पर कोई ध्यान नहीं दिया और वे संजय से पाण्डवों का समाचार पूछने लगे। उन्होंने पूछा---'संजय ! हमारी विशाल सेना का समाचार पाकर धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर ने क्या कहा था ?  युद्ध के लिये वे क्या-क्या तैयारियाँ कर रहे हैं तथा उनके भाई और पुत्रों में से कौन-कौन आज्ञा पाने के लिये उनके मुख की ओर ताकते रहते हैं ? संजय ने कहा---'महाराज ! राजा युधिष्ठिर के मुख की ओर तो पाण्डव और पांचाल दोनो ही कुटुम्बों के लोग देखते रहते हैं और वे सभी को आज्ञा भी देते हैं। ग्वालियों और गड़रियों से लेकर केकय और मत्सय देशों के राजवंश तक सभी युधिष्ठिर का सम्मान करते हैं। धृतराष्ट्र ने पूछा---संजय ! यह तो बताओ, पाण्डवलोग किसकी सहायता पाकर हमारे ऊपर चढ़ाई कर रहे हैं। संजय ने कहा---राजन् ! पाण्डवों के पक्ष में जो-जो योद्धा सम्मिलित हुए हैं, उनके नाम सुनिये। आपके साथ युद्ध करने के लिये वीर धृष्टधुम्न उनसे मिल गया है। हिडिम्ब राक्षस भी उनके पक्ष में है। भीमसेन तो अपने बल के लिये प्रसिद्ध है ही। वारणावत नगर में उन्होने पाण्डवों को भ्रष्ट होने से बचाया था। उन्होंने गन्धमादन पर्वत पर क्रोधवश नाम के राक्षसों का नाश किया था। उनकी भुजाओं में दस हजार हाथियों का बल है। उन्हीं महाबली भीम के साथ पाण्डवलोग आप पर आक्रमण कर रहे हैं। अर्जुन के पराक्रम के विषय में तो कहना ही क्या है ? श्रीकृष्ण के साथ अकेले अर्जुन ने ही अग्नि की तृप्ति के लिये युद्ध में इन्द्र को परास्त कर दिया था। इन्होंने युद्ध करके साक्षात् देवाधिदेव त्रिशूलपाणि भगवन् शंकर को प्रसन्न किया था। यही नहीं, धनुर्धर अर्जुन ने ही समस्त लोकपालों को जीत लिया था। उन्हीं अर्जुन को साथ लेकर पाण्डव आप पर चढ़ाई कर रहे हैं। जिन्होंने म्लेच्छों से भरी हुई पश्चिम दिशा को अपने अधीन कर लिया था, वे तरह-तरह से युद्ध करनेवाले वीर नकुल भी उनके साथ हैं तथा जिन्होंने काशी, अंग, मगध और कलिंग देशों को युद्ध में जीत लिया था, वे सहदेव भी उनके साथ हैं तथा जिन्होंने आक्रमण करने में उनके सहायक हैं। पितामह   भीष्म के वध के लिये जिसे यक्ष ने पुरुष कर दिया था, वह शिखण्डी भी बड़ा भारी धनुष धारण किये पाण्डवों के साथ है। केकय देश के पाँच सहोदर राजकुमार बड़े धनुर्धर हैं। वे भी कवच धारण करके आपपर चढ़ाई कर रहे हैं। सात्यकि कितनी फुर्ती से शस्त्र चलानेवाला है। उसके साथ भी आपको संग्राम करना पड़ेगा। जो अज्ञातवास के समय पाण्डवों का आश्रय बने थे, उन राजा विराट से भी युद्ध-स्थल में आपलोगों की मुठभेड़ होगी। महारथी काशीराज भी उनकी सेना के योद्धा हैं; आपके ऊपर चढ़ाई करते समय वह भी उनके साथ रहेगा। जो वीरता में श्रीकृष्ण के समान और संयम में महाराज युधिष्ठिर के समान है, उस अभिमन्यु के सहि पाण्डवलोग आपपर आक्रमण करेंगे। शिशुपाल का पुत्र एक अक्षौहिणी सेना लेकर पाण्डवों के पक्ष में सम्मिलित हुआ है। जरासन्ध के पुत्र सहदेव और जयत्सेन---ये रथयुद्ध में बड़े ही पराक्रमी हैं, वे भी पाण्डवों की ओर से युद्ध करने को तैयार हैं। महातेजस्वी द्रुपद बड़ी भारी सेना के सहित पाण्डवों के लिये प्राणान्त युद्ध करने के लिये तैयार हैं। इसी प्रकार पूर्व और उत्तर दिशाओं के और भी सैकड़ों राजा पाण्डवों के पक्ष में हैं, जिनकी सहायता से धर्मराज युधिष्ठिर युद्ध की तैयारी कर रहे हैं।

Monday 19 September 2016

उद्योग-पर्व---संजय का कौरव की सभा में आकर दुर्योधन को अर्जुन का संदेश सुनाना

संजय का कौरव की सभा में आकर दुर्योधन को अर्जुन का संदेश सुनाना
इस प्रकार भगवान् सनत्सुजात और बुद्धिमान विदुरजी के साथ बातचीत करते राजा धृतराष्ट्र को सारी रात बीत गयी। प्रातःकाल होते ही देश-देशान्तर से आये हुए राजालोग तथा भीष्म, द्रोण, कृप, शल्य, कृतवर्मा, जयद्रथ, अश्त्थामा, विकर्ण, सोमदत्त, बाह्लीक, विदुर और युयुत्सु ने महाराज धृतराष्ट्र के साथ तथा दुःशासन, चित्रसेन, शकुनि, दुर्मुख, दुःसह, कर्ण, उलूक और विविंशति ने कुरुराज दुर्योधन के साथ सभा में प्रवेश  किया। ये सभी संजय के मुख से पाण्डवों की धर्मार्थयुक्त बातें सुनने के लिये उत्सुक थे। सभा में पहुँचकर वे सब अपनी-अपनी मर्यादा के अनुसार आसनों पर बैठ गये। इतने में ही द्वारपाल ने सूचना दी कि संजय सभा के द्वार पर आ गये हैं। संजय तुरन्त ही रथ से उतरकर सभा के द्वार पर आ गये हैं। संजय तरन्त ही रथ से उतरकर सभा में आये और कहने लगे, 'कौरवगण ! मैं पाण्डवों के पास से आ रहा हूँ। उन्होंने आयु के अनुार सभी कौरवों को यथायोग्य कहा है।' धृतराष्ट्र ने पूछा---संजय ! मैं यह पूछता हूँ कि वहाँ सब राजाओं के बीच में दुरात्माओं को प्राणदण्ड देनेवाले अर्जुन ने क्या कहा था ? संजय ने कहा---राजन् ! वहाँ श्रीकृष्ण के सामने महाराज युधिष्ठिर की सम्मति से महात्मा अर्जुन ने जो शब्द के हैं, उन्हें कुरुराज दुर्योधन सुन लें।उन्होंने कहा है कि 'जो काल के गाल में जानेवाला, मन्दबुद्धि महामूढ़ सूतपुत्र सदा ही मुझसे युद्ध करने की डींग हाँकता रहता है, उस कटुभाषी दुरात्मा कर्ण को सुनाकर तथा जो राजालोग पाण्डवों के साथ युद्ध करने के लिये बुलाये गये हैं, उन्हें सुनाते हुए तुम मेरा संदेश इस प्रकार कहना जिसे मंत्रियों सहित राजा दुर्योधन उसे पूरा-पूरा सुन सकें।' गाण्डीवधारी अर्जुन युद्ध के लिये उत्सुक जान पड़ता था। उसने आँखें लाल करके कहा है---'यदि दु्योधन महाराज युधिष्ठिर का राज्य छोड़ने के लिये तैयार नहीं हैं तो अवश्य ही धृतराष्ट्र के पुत्रों का कोई ऐसा पापकर्म है, जिसका फल उन्हें भोगना बाकी है। यदि दुर्योधन चाहता है कि कौरवों का भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, श्रीकृष्ण, सात्यकि, धृष्टधुम्न, शिखंडी और अपने संकल्प मात्र से पृथ्वी एवं आकाश को भष्म कर सकनेवाले महाराज युधिष्ठिर के साथ युद्ध हो तो ठीक है; इससे तो पाण्डवों का सारा मनोरथ पूर्ण हो जायगा। पाण्डवों के हित की दृष्टि से आपको सन्धि करने की आवश्यकता नहीं है, फिर तो युद्ध ही होने दें। महाराज युधिष्ठिर तो नम्रता, सरलता, तप, दम, धर्मरक्षा और बल---इन सभी गुणों से सम्पन्न हैं। वे बहुत दिनों से अनेक प्रकार के कष्ट उठाते रहने पर भी सत्य ही बोलते हैं तथा आपलोगों के कपट-व्यवहारों को सहन करते रहते हैं। किन्तु जिस समय वे अनेकों वर्षों से इकट्ठे हुए अपने क्रोध को कौरवों पर छोड़ेंगे, उस समय दुर्योधन को पछताना पड़ेगा। जिस समय दुर्योधन रथ में बैठे हुए गदाधारी भीमसेन को बड़े वेग से क्रोधरूप विष उगलते देखेगा, उस समय उसे युद्ध करने के लिये अवश्य पश्चाताप होगा।जिस प्रकार फूस की झोपड़ियों का गाँव आग से जलकर खाक हो जाता है, वैसी ही दशा कौरवों की देखकर, बिजली मारे हुए खेत के समान अपनी विशाल वाहिनी को नष्ट-भ्रष्ट देखकर तथा भीमसेन की शस्त्राग्नि से झुलसकर कितने ही वीरों को धराशायी तथा कितनों को ही भय से भागते देखकर दुर्योधन को युद्ध छेड़ने के लिये जरूर पछताना पड़ेगा।जब विचित्र योद्धा नकुल युद्धस्थल में शत्रुओं के सिरों की ढ़ेरी लगा देगा, तब लज्जाशील सत्यवादी और समस्त धर्मों का आचरण करनेवाला फुर्तीला वीर सहदेव शत्रुओं का संहार करता हुआ शकुनि पर आक्रमण करेगा और जब दुर्योधन द्रौपदी के महान् धनुर्धर शूरवीर और रथयुद्धविशारद् पुत्रों को कौरवों पर झपटते देखेगा तो उसे युद्ध ठानने के लिये अवश्य अनुताप होगा। अभिमन्यु तो साक्षात् श्रीकृष्ण के समान बली  है; जिस समय वह अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर मेघों के समान वर्षा करके शत्रुओं को संतप्त करेगा,  उस समय दुर्योधन को रण रोपने के लिये अवश्य पछतावा होगा। जिस समय वृद्ध महारथी विराट और द्रुपद अपनी-अपनी सेनाओं के सहित सुसज्जित होकर सेनासहित धृतराष्ट्रपुत्रों पर दृष्टि डालेंगे, उस  समय दुर्योधन को पश्चाताप ही करना पड़ेगा। जब कौरवों में अग्रगन्य संतशिरोमणि महात्मा भीष्म शिखण्डी के हाथ से मारे जायेंगे तो मैं सच कहता हूँ मेरे शत्रु बच नहीं सकेंगे। इसमें तुम तनिक भी संदेह न करना। जब अतुलित तेजस्वी सेनानायक धृष्टधुम्न अपने वाणों से धृतराष्ट्र के पुत्रों को पीड़ित करते हुए द्रोणाचार्य पर आक्रमण करेंगे तो दुर्योधन को युद्ध छेड़ने के लिये पछताना पड़ेगा। सोमकवंश में श्रेष्ठ महाबली सात्यकि जिस सेना का नेता है, उसके वेग के शत्रु कभी सह नहीं सकेंगे। तुम दुर्योधन से कहना कि 'अब तुम राज्य की आशा छोड़ दो।' क्योंकि हमने शिनि के पौत्र, यु्ध में अद्वितीय रथी, महाबली सात्यकि को अपना सहायक बना लिया है। वह सर्वथा निर्भय और अस्त्र-शस्त्र संचालन में पारंगत है। जिस समय दुर्योधन रथ में गाण्डीव धनुष, श्रीकृष्ण और उनके दिव्य पांचजन्य शंख, घोड़े, दो अक्षय तूणीर, देवदत्त शंख और मुझको देखेगा उस सम उसे युद्ध के लिये पछतावा ही होगा। जिस समय युद्ध करने के लिये इकट्ठे हुए उन लुटेरों को नष्ट करके नवीन युग को प्रवृत करने के लिये मैं आग के समान प्रज्जवलित होकर कौरवों को भष्म करने लगूँगा, उस समय पुत्रों के सहित महाराज धृतराष्ट्र को भी बड़ा कष्ट होगा। दुर्योधन का सारा गर्व गलित हो जायगा और अपने भाई, सेना तथा सेवकों सहित राज्य से भ्रष्ट होकर वह मन्दगति वैरियों के हाथ से मार खाकर काँपने काँपने लगेगा तथा उसे बड़ा पश्चाताप होगा। मैने वज्रधर इन्द्र से यह वर माँगा था कि इस युद्ध में श्रीकृष्ण मेरे सहायक हों। "एक दिन पूर्वाह्न में जप करने बैठा था कि एक ब्राह्मण ने आकर मुझसे कहा---'अर्जुन ! तुम्हें दुष्कर कर्म करना है, अपने शत्रुओं के साथ युद्ध करना है। तुम क्या चाहते हो ?  उधैःश्रवा घोड़े पर बैठकर बज्र हाथ में लिये इन्द्र तुम्हारे शत्रुओं का नाश करते आगे-आगे चलें, अथवा सुग्रीव आदि घोड़ों से युक्त दिव्य रथ पर बैठे भगवान् श्रीकृष्ण तुम्हारी रक्षा करते हुए पीछे चलें ?' उस समय हम बज्रपाणि इन्द्र को छोड़कर इस युद्ध में सहायक रूप से श्रीकृष्ण का वरण किया। इस प्रकार इन डाकुओं के वध के लिये मुझे श्रीकृष्ण मिल गये हैं। मालूम होता है यह देवताओं का किया हुआ विधान है। श्रीकृष्ण भले ही युद्ध न करे, फिर भी यदि ये मन से ही किसी की जय का अभिनंदन करने लगे तो वह अपने शत्रुओं को अवश्य परास्त कर देगा; भले ही देवता और इन्द्र ही उसके शत्रु हों, फिर मनुष्यों की तो बात ही क्या है ? इन श्रीकृष्ण ने आकाशचारी सोभयान के स्वामी महाभयंकर और मायावी राजा शाल्व से युद्ध किया था और शौभ के दरवाजे पर ही शाल्व की छोड़ी हुई शतघ्नी को हाथों से पकड़ लिया था। भला इनके वेग को कौन मनुष्य सहन कर सकता है ? मैं राज्यप्राप्ति की इच्छा से पितामह भीष्म, पुत्र-सहित आचार्य द्रोण और अनुपम वीर कृपाचार्य को प्रणाम करके युद्ध करूँगा। मेरे विचार से तो कोई पापत्मा इस युद्ध में पाण्डवों से लड़ेगा; उसका निधन धर्मतः निश्चित है। कौरवों ! मैं तुमसे स्पष्ट कहता हूँ, धृतराष्ट्र के पुत्रों का जीवन यदि बच सकता है तो युद्ध से दूर रहने पर ही ऐसा सम्भव है। यह बात निश्चित है किमैं संग्रामभूमि में कर्ण और धृतराष्ट्र पुत्रों को मारकर कौरवों का सारा राज्य जीत लूँगा। जिस प्रकार अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिर शत्रुओं के संहार में हमें सफल-मनोरथ मान रहे हैं, वैसे ही अदृष्ट के ज्ञाता श्रीकृष्ण को भी इसमें कोई संदेह नहीं है। मैं स्वयं भी सावधान होकर अपनी बुद्धि से देखता हूँ तो मुझे इस युद्ध का भावी रूप ऐसा ही दिखायी देता है। मेरी योगदृष्टि भी भविष्यदर्शन में भूल करनेवाली नहीं है। मुझे यह स्पष्ट दीख रहा है कि युद्ध करने पर धृतराष्ट्र के पुत्र जीवित नहीं रहेंगे। संजय ! तुम उनसे स्पष्ट कह देना कि मेरा यह दृढ़ और उत्तम निश्चय है कि मुझे ऐसा कहने पर ही शान्ति मिलेगी। अतः उन्हें वही करना चाहिये जो वृद्ध भीष्म, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, अश्त्थामा, और बुद्धिमान विदुरजी कहें। वैसा करने पर ही कौरवलोग जीवित रह सकेंगे।"

Thursday 15 September 2016

उद्योग-पर्व---परमात्मा का स्वरूप और उनका योगीजनों के द्वारा साक्षात्कार

परमात्मा का स्वरूप और उनका योगीजनों के द्वारा साक्षात्कार
 सनत्सुजातीय ( छठा अध्याय )
परमात्मा से प्रकृति उत्पन्न हुई, प्रकृति से सलिल यानि महतत्व उत्पन्न हुआ, उसके भीतर आकाश में सूर्य और चन्द्रमा---ये दो देवता आश्रित हैं।
जगत् को उत्पन्न करनेवाले ब्रह्म का जो स्वयं प्रकाश स्वरूप है, वही सदा सावधान रहकर इन दोनो देवताओं और पृथ्वी और आकाश को धारण करता है। उन सनातन भगवान् का योगीजन साक्षात्कार करते हैं। दोनों देवताओं को, पृथ्वी और आकाश को, संपूर्ण दिशाओं को तथा इस विश्व को वह शुद्ध ब्रह्म ही धारण करता है। उसी से दिशाएँ प्रकट हुई हैं। उसी से सरिताएँ प्रवाहित होती हैं और उसी से बड़े-बड़े समुद्र प्रकट हुए हैं। स्वयं विनाशशील होने पर भी जिसका कर्म नष्ट नहीं होता, उस देहरुपी रथ के मनरुपी चक्र में जुते हुए इन्द्रियरुपी घोड़े बुद्धिमान्, दिव्य एवं अजर जीवात्मा को जिस परमात्मा की ओर ले जाते हैं, उन सनातन भगवान् का योगीजन साक्षात्कार करते हैं। दस इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि---इन बारह का समुदाय जिनके भीतर मौजूद है तथा जो परमात्मा से सुरक्षित है, उस अविद्या नामक नदी के विषयरूप मधुर जल को देखने और पीनेवाले लोग इस संसार में भयंकर दुर्गति को प्राप्त होते हैं; उससे मुक्त करनेवाले उस परमात्मा का  योगीजन साक्षात्कार करते हैं। परमात्मा ने समस्त प्राणियों के लिये उनके कर्मानुसार अन्न की व्यवस्था कर रखी है। पूर्ण परमेश्वर से चराचर प्राणी उत्पन्न होते हैं, पूर्ण से ही वे पूर्ण प्राणी चेष्टा करते हैं, फिर पूर्ण से ही पूर्ण ब्रह्म में उनका उपसंहार होता है तथा अन्त में एकमात्र पूर्ण ब्रह्म ही शेष रहता है। उस पूर्ण ब्रह्म से वायु का अविर्भाव हुआ है और उसी से उसकी स्थिति है। उसी से अग्नि और सोम की उत्पत्ति हुई है, और उसी में इस प्राण का विस्तार हुआ है। जैसे साँप बिलों का आश्रय ले अपने को छिपाये रखते हैं, उसी प्रकार कुछ दम्भी मनुष्य अपनी शिक्षा और व्यवहार की आड़ में गूढ़ पापों को छिपाये रखते हैं। जैसे सब ओर जल से लबालब भरे बड़े जलाशय के प्राप्त होने पर जल के लिये अन्यत्र जाने की आवश्यकता नहीं होती उसी प्रकार आत्मज्ञानी के लिये सम्पूर्ण वेदों की जरुरत नहीं रह जाती।

Wednesday 14 September 2016

उद्योग-पर्व---योगप्रधान ब्रह्मविद्या का प्रतिपादन

योगप्रधान ब्रह्मविद्या का प्रतिपादन
 सनत्सुजातीय---- ( पाँचवाँ अध्याय )
शोक, क्रोध, लोभ, काम, मान, अत्यन्त निद्रा, इर्ष्या, मोह, तृष्णा, कायरता, गुणों में दोष देखना और निन्दा करना---ये बारह महान् दोष मनुष्यों के प्राणनाशक हैं। एक-एक करके ये सभी दोष मनुष्यों को प्राप्त होते हैं, जिनसे आवेश में आकर मूढ़बुद्धि मानव पापकर्म करने लगता हैं। लोलुप, क्रूर, कठोरभाषी, कृपण, मन-ही-मन क्रोध करनेवाले और अधिक आत्मप्रशंसा करनेवाले---ये छः प्रकार के मनुष्य नश्चय ही क्रूर कर्म करनेवाले होते हैं। ये धन पाकर भी अच्छा वर्ताव नहीं करते हैं। सम्भोग में मन लगानेवाले, विषमता रखनेवाले, अत्यन्त अभिमानी, थोड़ा देकर बहुत डींग हाँकनेवाले, कृपण, दुर्बल होकर भी बहुत बड़ाई करनेवाले और स्त्रियों से सदा द्वेष रखनेवाले---ये सात प्रकार के मनुष्य ही पापी और क्रूर कहे गये हैं। धर्म, सत्य, तप, इन्द्रिय-संयम, डाह न करना, लज्जा, सहनशीलता, किसी के दोष न देखना, दान, शास्त्रज्ञान, धैर्य और क्षमा---ये बारह महान् व्रत हैं। जो इन बारह व्रतों से कभी च्युत नहीं होता, वह इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर शासन कर सकता है। इसमें से तीन, दो या एक गुण से भी युक्त, वह संपूर्ण पृथ्वी पर शासन कर सकता है। इसमें से तीन, दो या एक गुण से युक्त है, उसका अपना कुछ भी नहीं होता---ऐसा समझना चाहिये ( अर्थात् उसकी किसी भी वस्तु में ममता नहीं होती )। इन्द्रियनिग्रह, त्याग और अप्रमाद---इसमें अमृत की स्थिति है। विद्वान पुरुषों को मद के वशीभूत नहीं होना चाहिये। सौहार्द के छः गुण है। सुहृद का प्रिय होने पर हर्षित होना और अप्रिय होने पर मन में कष्ट का अनुभव करना---वे दो गुण है। तीसरा गुण यह है कि अपना जो कुछ चिरसंचित धन है, उसे मित्र के माँगने पर दे डाले। मित्र के लिये अपाच्य वस्तु भी अवश्य देने योग्य हो जाती है। मित्र को धन देकर उसके यहाँ प्रत्युपकार पाने की कामना से निवास न करे।

Tuesday 13 September 2016

उद्योग-पर्व---ब्रह्मचर्य तथा ब्रह्म का निरुपण

ब्रह्मचर्य तथा ब्रह्म का निरुपण
 सनत्सुजातीय ( चौथा अध्याय )
धृतराष्ट्र ने कहा---आप जिस सर्वोत्तम और सर्वरूपा ब्रह्मसम्बन्धिनी विद्या का उपदेश कर रहे हैं, उसमें विषय भोगों की चर्चा बिलकुल नहीं है। सनतसुजात ने कहा---राजन् ! तुम जो मुझसे प्रश्न करते समय अत्यन्त हर्ष से फूल उठते हो, सो इस प्रकार जल्दबाजी करने से ब्रह्म की उपलब्धि नहीं होती।  इस संसार में रहकर जो संपू्र्ण कामनाओं को जीत लेते हैं और नाना प्रकार के द्वन्दों को सहन करते हैं, वे सत्वगुण में स्थित हो इस देह से आत्मा को पृथक् कर लेते हैं। यद्यपि माता-पिता---ये दोनो ही इस शरीर को जन्म देते हैं, तथापि गुरु के उपदेश से जो जन्म प्राप्त होता है, व परम पवित्र और अजर-अमर है। गुरु को माता-पिता ही समझना चाहिये तथा उनके किये हुये उपकार का स्मरण करके कभी उने द्रोह नहीं करना चाहिये। शिष्य को चाहिये कि वह गुरु को प्रणाम करे। बाहर-भीतर से पवित्र हो और प्रमाद छोड़कर स्वाधयाय में मन लगावे, अभिमान न करे, मन में क्रोध को स्थान न दे। अपने प्राण और धन लगाकर भी मन, वाणी तथा कर्म से आचार्य का प्रिय करे। गुरु के प्रति  शिष्य का जैसा श्रद्धा और सम्मानपूर्ण वर्ताव हो, वैसा ही गुरु की पत्नी और पुत्र के साथ भी होना चाहिये। आचार्य ने जो अपना उपकार किया, उसे ध्यान में रखकर तथा उससे जो प्रयोजन सिद्ध हुआ, उसका भी विार करके मन-ही-मन प्रसन्न होकर शिष्य आचार्य के प्रति जो ऐसा भाव रखता है कि ---'इन्होंने मुझे बड़ी उन्नत अवस्था में पहुँचा दिया' यह भी ब्रह्मचर्य का पाद है। आचार्य के उपकार का बदला चुकाये बिना अर्थात् गुरुदक्षिणा आदि के द्वारा उन्हें संतुष्ट किये बिना विद्वान शिष्य वहाँ से न जाय।  ऐेसे शिष्य को संपू्र्ण-दिशा विदिशाएँ उसके लिये सुख की वर्षा करती है।

उद्योग-पर्व---ब्रह्मज्ञान में उपयोगी मौन, तप आदि के लक्षण तथा गुण-दोष का निरूपण सनत्सुजातीय ( तीसरा अध्याय )

ब्रह्मज्ञान में उपयोगी मौन, तप आदि के लक्षण तथा गुण-दोष का निरूपण
सनत्सुजातीय ( तीसरा अध्याय )
सनत्सुजात ने कहा---तपस्या के क्रोध आदि बारह दोष हैं तथा तेरह प्रकार के क्रूर मनुष्य होते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, असंतोष, निर्दयता, असूया, अभिमान, शोक स्पृहा और निंदा---मनुष्य में रहनेवाले ये बारह दोष सदा ही त्याग देेने योग्य हैं। अपनी बहुत बड़ाई करनेवाले, लोलुप, अहंकारी, निरंतर क्रोधी, चंचल और आश्रितों की रक्षा नहीं करनेवाले---ये छः प्रकार के मनुष्य पापी हैं। महान् संकट में पड़ने पर भी ये निडर होकर इन पापकर्मो का आचरण करते हैं। संभोग में ही मन लगानेवाले, विषमता रखनेवाले, अत्यन्त मानी, दान देकर पश्चाताप करनेवाले, अत्यन्त कृपण, अर्थ और काम की प्रशंसा करनेवाले तथा स्त्रियों के दोषी---ये सात और पहले के छः, कुल तेरह प्रकार के मनुष्य नृशंस-वर्ग धर्म, सत्य, इन्द्रिय-निग्रह, तप, मत्सरता का अभाव, लज्जा, सहनशीलता, किसी का दोष न देखना, यज्ञ करना, दान देना, धैर्य और शास्त्रज्ञान---ये बारह व्रत हैं। धर्म, सत्य, इन्द्रिय-निग्रह, तप, मत्सरता का अभाव, लज्जा, सहनशीलता, किसी का दोष न देखना, यज्ञ करना, दान देना, धैर्य और शास्त्रज्ञान---ये बारह व्रत हैं। जो इन बारह गुणों पर अपना प्रभुत्व रखता है, वह इस संपूर्ण पृथ्वी के मनुष्यों को अपने अधीन कर सकता है।  इनमें से तीन, दो या एक गुण से जो भी युक्त है, उसके पास सभी तरह का धन है---ऐसा समझना चाहिये। दम, त्याग और आत्मकल्याण में प्रमाद न करना---इन तीन गुणों में अमृत का वास है। दम अठ्ठारह गुणोंवाला है। अठ्ठारह दोषों को त्याग देना ही अठ्ठारह गुण समझना चाहिये।कर्तव्य-अकर्तव्य के बिषय में विपरीत धारणा, असत्यभाषण, गुणों में दोषदृष्टि, स्त्रीविषयक कामना, सदा धनोत्पा्जन में ही लगे रहना, भोगेच्छा, क्रोध, शोक, तृष्णा, लोभ, चुगली करने की आदत, डाह, हिंसा, संताप, चिंता, कर्तव्य की विस्मृति, अधिक बकवाद और अपने को बड़ा समझना---इन दोषों से मुक्त है, उसी को सत्पुरुष कहते हैं। त्याग छः प्रकार के हैं---लक्ष्मी को देखकर हर्षित न होना, यज्ञ-होमादि में तथा कुएँ, तालाब और बगीचे बनाने में पैसे खर्च करना, सदा वैराग्य से युक्त रहकर काम का त्याग करना, किये हुए कर्म सिद्ध न हो तो उसके लिये दुःख न करना, स्त्री-पुत्रादि से कभी याचना न करना और सुयोग्य याचक के आ जाने परउसे दान करना। इन त्यागमय गुणों से मनुष्य अप्रमादी होता है। उस अप्रमाद के भी आठ गुण बताये गये हैं---सत्य, ध्यान, समाधि, तर्क, वैराग्य, चोरी न करना, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। ये आठ गुण त्याग और अप्रमाद दोनो के ही समझने चाहिये।पाँच इन्द्रियाँ और छठा मन---इनकी अपने-अपने विषयों में जो भोगबुद्धि से प्रवृति होती है---छः तो ये ही प्रमादविषयक दोष हैं और भूतकाल की चिंता तथा भविष्य की आशा---दो दोष ये हैं। इन आठ दोषोंसे मुक्त पुरुष सुखी होता है। सत्य ही संपूर्ण लोक प्रतिष्ठित है। वे दम, त्याग और अप्रमाद आदि गुण भी सत्यस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति करानेवाले हैं, सत्य में ही अमृत की प्रतिष्ठा है। दोषों को निवृत करके ही यहाँ तप और व्रत का आचरण करना चाहिये---यह विधाता का बनाया हुआ नियम है। सत्य ही श्रेष्ठ पुरुषों का व्रत है। मनुष्य को उपर्युक्त दोषों से रहित और गुणों से युक्त होना है। ऐसे पुरुष का विशुद्ध तप अत्यन्त समृद्ध होता है। ज्ञान के तत्व को न जानकर भी कुछ लोग 'मैं विद्वान हूँ' ऐसा मानने लगते हैं; फिर उनकी दान, अध्ययन और यज्ञादि कर्मों में लौकिक और परलौकिक फल के लोभ से प्रवृति होती है। वास्तव में जो सत्यस्वरूप परमात्मा से च्युत हो ये हैं उन्हीं वैसा संकल्प होता है। फिर सत्यरूप वेद से प्रामाण्य निश्चय करके ही उनके द्वारा यज्ञों का विस्तार ( अनुष्ठान ) किया जाता है। किसी का यज्ञ मन से, किसी का वाणी से तथा किसी का क्रिया के द्वारा संपादित होता है।

Sunday 11 September 2016

उद्योग-पर्व---सनत्सुजातजी के द्वारा धृतराष्ट्र के प्रश्नों के उत्तर सनत्सुजातीय ( दूसरा अध्याय )

सनत्सुजातजी के द्वारा धृतराष्ट्र के प्रश्नों के उत्तर

सनत्सुजातीय ( दूसरा अध्याय )
तदनन्तर  बुद्धिमान धृतराष्ट्र ने पूछा---सनत्सुजातजी ! मैं यह सुना करता हूँ कि 'मृत्यु है ही नहीं' ऐसा आपका सिद्धान्त है। सुना है कि देवता और असुरों ने मृत्यु से बचने के लिये ब्रह्मचर्य का पालन किया था। इन दोनो में कौन सी बात ठीक है ? सनत्सुजात ने कहा---राजन् ! तुमने जो प्रश्न किया है, उसमें दो पक्ष है। मृत्यु है और वह कर्म से दूर होती है---एक पक्ष; और 'मृत्यु है ही नहीं'---यह दूसरा पक्ष। परन्तु वस्तव में यह बात जैसी है, वह मैं तुम्हें बताता हूँ; ध्यान से सुनो और मेरे कथन में संदेह न करना। कुछ विद्वानों ने मोहवश इस मृत्यु की सत्ता स्वीकार की है। किन्तु मेरा कहना तो यह है कि प्रमाद ही मृत्यु है और अप्रमाद अमृत है। प्रमाद के ही कारण आसुरी सम्पतिवाले मनुष्य मृत्यु से पराजित हुए और अप्रमाद से ही दैवी सम्पत्तिवाले महात्मा पुरुष दैवी सम्पत्तिवाले महात्मा पुरुष ब्रह्म्वरूप हो जाते हैं। यह निश्चय है कि मृत्यु व्याघ्र के समान प्राणियों का भक्षण नहीं करती; क्योंकि उसका कोई रूप देखने में नहीं आता। यमदेवता पुण्यकर्म करनेवाले के लिये सुखदायक और पापियों के लिये भयंकर हैं। इन यम की आज्ञा से ही क्रोध, प्रमाद और लोभरूपी मृत्यु मनुष्यों के विनाश में प्रवृत होती है। अहंकार के वशीभूत होकर विपरीत मार्ग चलता हुआ कोई भी मनुष्य आत्मा का साक्षात्कार नहीं कर पाता। मनुष्य मोहवश अहंकार के अधीन हो इस लोक से जाकर पुनः-पुनः जन्म-मरण के चक्कर में पड़ते हैं। मरने के बाद उनके मन, इन्द्रिय और प्राण भी साथ जाते हैं। शरीर से प्राणरूपी इन्द्रियों का वियोग होने के कारण मृत्यु 'मरण' संज्ञा को प्राप्त होती है। प्रारब्ध कर्म का उदय होने पर कर्म के फल में आसक्ति रखनेवाले लोग स्वर्गादि लोकों का अनुगमन करते हैं, इसलिये वे मृत्यु को पार नहीं कर पाते। देहाभिमानी जीव परमात्म साक्षात्कार के उपाय को न जानने के कारण भोग की वासना से सब ओर नाना प्रकार की योनियों में भटकता रहता है। इस प्रकार जो विषयों की ओर झुकाव है, वह अवश्य ही इन्द्रियों को महान् मोह में डालनेवाला है; और इन झूठे विषयों में राग रखनेवाले मनुष्य को उनकी ओर प्रवृति होनी स्वाभाविक है। मिथ्या भोगों में आसक्ति होने से जिसके अन्तःकरण की ज्ञानशक्ति नष्ट हो गयी है, वह सब ओर विषयों का ही करता हुआ मन-ही-मन उनका आस्वादन करता है। पहले तो विषयों का चिंतन ही लोगों को मारे डालता है, इसके बाद वह काम और क्रोध को साथ लेकर पुनः जल्दी ही प्रहार करता है। इस प्रकार ये विषय चिंतन, काम और क्रोध ही विवेकहीन मनुष्यों को मृत्यु के निकट पहुँचाते हैं। परन्तु जो स्थिरबुद्धिवाले पुरुष हैं, वे धैर्य से मृत्यु के पार हो जाते हैं। अतः जो मृत्यु को जीतने की इच्छा रखता है, उसे चाहिये कि विषयों के स्वरूप का विचार करके उन्हें कुछ मानकर कुछ भी न गिनते हुए उनकी कामनाओं को उत्पन्न होते ही नष्ट कर डाले। इस प्रकार जो विद्वान विषयों की इच्छा मिटा देता है, वह जन्म मरण से मुक्त हो जाता है। कामनाओं के पीछे चलनेवाला मनुष्य कामनाओं के साथ नष्ट हो जाता है और कामनाओं का त्याग कर देने पर जो कुछ भी दुःखरूप रजोगुण है, उस सबको वह नष्ट कर देता है। यह काम ही समस्त प्राणियों के लिये मोहक होने के कारण तमोगुण और अज्ञानरूप है तथा नरक के समान दुःखदायी देखा जाता है। जिसके चित्त की वृत्तियाँ कामनाओं से मोहित नहीं हुई हैं, उस ज्ञानी पुरुष का इस लोक में मृत्यु कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती। इसलिये राजन् ! इस काम की आयु ( सत्ता ) नष्ट करने की इच्छा दूसरे किसी भी विषयभोग को कुछ भी न गिनकर उसका चिन्तन त्याग देना चाहिये। राजन् ! यह जो तुम्हारे भीतर की अन्तरात्मा है, मोह के वशीभूत होकर यही क्रोध, लोभ और मृत्युरूप हो जाता है। इस प्रकार मोह से होनेवाले मृत्यु को जानकर जो ज्ञाननिष्ठ हो जाता है, वह इस लोक में मृत्यु से कभी नहीं डरता। धृतराष्ट्र बोले---इस जगत् में कुछ लोग ऐसे हैं, जो धर्म का आचरण नहीं करते तथा कुछ लोग उसका आचरण करते हैं। अतः मैं पूछता हूँ कि धर्म पाप के द्वारा नष्ट होता है या धर्म ही पाप को नष्ट कर देता है ? सनत्सुजात ने कहा---राजन् ! धर्म और पाप दोनो के दो प्रकार के फल होते हैं और उन दोनो का ही उपभोग करना पड़ता है। परमात्मा में स्थित होने पर विद्वान पुरुष उस नित्य मनुष्य के ज्ञान द्वारा अपने पूर्वकृत पाप और पुण्य दोनो का सदा के लिये नाश कर देता है। यदि ऐसी स्थिति नहीं हुई तो देहाभिमानी पुरुष कभी कभी पुणयफल को प्राप्त करता है और कभी क्रमशः प्राप्त हुए पूर्वोपार्जित पाप के फल का अनुभव करता है। इस प्रकार पुण्य और पाप के जो स्वर्ग-नरक रूप दो अस्थिर फल हैं, उनका भोग करके वह इस जगत् में जन्म ले पुनः तदनुसार कर्मों में लग जाता है। किन्तु कर्मों के तत्व को जाननेवाला निष्काम मनुष्य धर्मरूप कर्म के द्वारा अपने पूर्व पाप का यहाँ ही नाश कर देता है। इस प्रकार धर्म ही अत्यन्त बलवान् है; इसलिये धर्माचरण करनेवालों को समयानुसार अवश्य सि्धि प्राप्त होती है। धृतराष्ट्र बोले--पुण्यकर्म करनेवाले को अपने-अपने धर्म के फलस्वरूप जिन सनातन लोकों की प्राप्ति बतायी गयी है, उनका क्रम बताइये। सनत्सुजात ने कहा---जैसे बलवान् पहलवानों में अपना बल बढ़ाने के निमित्त एक-दूसरे से लाग-डाँट रहती है, उसी प्रकार जो निष्कामभाव से यम-नियमादि के पालन में दूसरों से बढ़ने का प्रयास करते हैं, वे यहाँ से मरने के बाद ब्रह्मलोक में अपने तेज का प्रकाश फैलाते हैं। जो दूसरों का सम्मान पाकर भी अभिमान न करे और सम्माननीय पुरुष को देखकर जले नहीं, तथा प्रयत्न न करने पर भी विद्वानलोग जिसे आदर दें, वही वास्तव में सम्मानित है। इस संसार में जो अधर्म में निपुण, छल-कपट में चतुर और माननीय पुरुषों का अपमान करनेवाले मूढ़ मनुष्य हैं, वे आदरणीय व्यक्तियों का कभी आदर नहीं करेंगे। ये निश्चित है कि मान और मौन सदा एक साथ नहीं रहते; क्योंकि मान से इस लोक में सुख मिलता है और मौन से परलोक में।

Wednesday 7 September 2016

उद्योग-पर्व---सनत्सुजात ऋषि का आगमन सनत्सुजातीय ( पहला अध्याय )

सनत्सुजात ऋषि का आगमन

सनत्सुजातीय ( पहला अध्याय )
धृतराष्ट्र बोले---विदुर ! यदि तुम्हारी वाणी से कुछ और कहना शेष रह गया हो तो कहो; मुझे उसे सुनने की बड़ी इच्छा है। विदुर ने कहा---भरतवंशी धृतराष्ट्र ! 'सनत्सुजात' नाम से विख्यात जो ब्रह्माजी के पुत्र परम प्राचीन सनातन ऋषि हैं, उन्होंने एक बार कहा था---'मृत्यु है ही नहीं'। महाराज ! वे समस्त बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं, वे ही आपके हृदय में स्थित व्यक्त और अव्यक्त---सभी प्रकार के प्रश्नों का उत्तर देंगे। धृतराष्ट्र ने कहा---विदुर ! क्या तुम उस तत्व को नहीं जानते, जिसे अब पुनः सनातन ऋषि मुझे बतावेंगे ?  धृतराष्ट्र ने कहा---विदुर ! क्या तुम उस तत्व कोनहीं जानते, जिसे अब पुनः सनातन ऋषि मुझे बतावेंगे ? यदि तुम्हारी बुद्धि कुछ भी काम देती हो तो तुम्हीं मुझे उपदेश करो। विदुर बोले---राजन् ! मेरा जन्म शूद्रा स्त्री के गर्भ से हुआ है; अतः इसके अतिरिक्त कोई उपदेश देने का मेरा अधिकार नहीं है। किन्तु कुमार सनत्सुजात की बुद्धि सनातन ब्रह्म को विषय करनेवाली है, मैं उसे जानता हूँ। धृतराष्ट्र ने कहा---विदुर ! उस परम प्राचीन सनातन ऋषि का पता मुझे बताओ। भला, इसी देह से यहाँ ही उनका समागम कैसे हो सकता है ? तदनन्तर विदुरजी ने उत्तम व्रतवाले उन सनातन ऋषि का स्मरण किया। उन्होने भी यह जानकर कि विदुर मेरा चिन्तन कर रहे हैं, प्रत्यक्ष दर्शन दिया। धृतराष्ट्र ने भी शास्त्रोक्त विधि से उनका स्वागत किया। इसके बाद जब वे सुखपूर्वक बैठकर विश्राम करने लगे तो विदुर ने उनसे कहा---'भगवन् ! धृतराष्ट्र के हृदय में कुछ संशय खड़ा हुआ है, जिसका समाधान मेरे द्वारा कराना उचित नहीं है। आप ही इस विषय का निरुपण करने के योग्य हैं। जिसे सुनकर ये नरेश सब दुःखों से पार हो जायँ और लाभ-हानि, प्रिय-अप्रिय, लाभ-हानि, भय-अमर्ष, भूख-प्यास, चिंता-आलस्य, काम-क्रोध तथा उन्नति-अवनति---ये सब इन्हें कष्ट न पहुँचा सके।

उद्योग-पर्व---विदुर नीति ( आठवाँ अध्याय )

विदुर नीति ( आठवाँ अध्याय )
विदुरजी कहते हैं---जो सज्जन पुरुषों से आदर पाकर आसक्तिरहित हो अपनी शक्ति के अनुसार अर्थ-साधन करता रहता है, उस श्रेष्ठ व्यक्ति को शीघ्र ही सुयश की प्राप्ति होती है; क्यंकि संत जिसपर प्रसन्न होते हैं, वह सदा सुखी रहता है।पुरुषों से आदर पाकर आसक्तिरहित हो अपनी शक्ति के अनुसार अर्थ-साधन करता रहता है, उस श्रेष्ठ व्यक्ति को शीघ्र ही सुयश की प्राप्ति होती है; क्यंकि संत जिसपर प्रसन्न होते हैं, वह सदा सुखी रहता है। पुरुषों से आदर पाकर आसक्तिरहित हो अपनी शक्ति के अनुसार अर्थ-साधन करता रहता है, उस श्रेष्ठ व्यक्ति को शीघ्र ही सुयश की प्राप्ति होती है; क्यंकि संत जिसपर प्रसन्न होते हैं, वह सदा सुखी रहता है। झूठ बोलकर उन्नति करना, राजा के पास तक चुगली करना, गुरु से भी मिथ्या आग्रह करना---ये तीन कार्य ब्रह्महत्या के समान है। गुणों में दोष देखना एकदम मृत्यु के समान है, कठोर बोलना या निंदा करना लक्ष्मी का वध है। सुनने की इच्छा का अभाव या सेवा का अभाव, उतावलापन या आत्मप्रशंसा---ये तीन विद्या के शत्रु हैं। आलस्य, मद, मोह, चंचलता, गोष्ठी, उद्दण्डता, अभिमान और लोभ---ये सात विद्यार्थियों के लिये सदा ही दोष माने गये हैं।  सुख चाहनेवाले को विद्या कहाँ से मिले ? विद्या चाहनेवाले के लिये सुख नहीं है। सुख की चाह हो तो विद्या छोड़े और विद्या चाहे तो सुख का त्याग करे। ईंधन से आग की, नदी से समुद्र की, समस्त प्राणियों से मृत्यु की और पुरुषों से कुलटा स्त्रियों की कभी तृप्ति नहीं होती। आशा धैर्य को, यमराज समृद्धि को क्ोध लक्ष्मी को, कृपणता यश को और सार-संभाल का अभाव पशुओं को नष्ट कर देता है। कामना से, भय से, लोभ से तथा इस जीवन के लिये कभी धर्म का त्याग न करें। धर्म नित्य है, किन्तु दुःख-सुख अनित्य है; जीव नित्य है, पर इसका कारण ( अविद्या ) अनित्य है। संतोष ही सबसे बड़ा लाभ है। धन-धान्यादि से परिपूर्ण पृथ्वी का शासन करके अन्त में समस्त राज्यों और विपुल भोगों को यहीं छोड़कर यमराज के वश में गये हुये बड़े-बड़े बलवान् एवं महानुभाव राजाओं की ओर दृष्टि डालिये। राजन् ! जिसको बड़े कष्ट से पाला-पोसा था, वही पुत्र जब मर जाता है तो मनुष्य उठाकर तुरत घर से बाहर कर देते हैं। पहले तो उसके लिये बाल छितराये करुण स्वर में विलाप करते हैं, फिर साधारण काठ की भाँति उसे जलती चिता मे झोंक देते हैं, फिर उसके शरीर की धातुओं को पक्षी खाते हैं या आग जलाती है। यह मनुष्य पुण्य-पाप से बँधा हुआ इन्हीं दोनो के साथ परलोक में गमन करता है। तात ! बिना फल-फूल के वृक्ष को जैसे पक्षी छोड़ देते हैं, उस प्रकार उस प्रेत को उसके जातिवाले, सुहृद और पुत्र चिता में छोड़कर लौट आते हैं। अग्नि में डाले हुए उस पुरुष के पीछे तो केवल उसके द्वारा अपना किया हुआ भला या बुरा कर्म ही जाता है। इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह धीरे-धीरे प्रयत्नपूर्वक धर्म का ही संग्रह करे। इसलोक और परलोक से ऊपर और नीचे तक सर्वत्र अज्ञानरूप महान् अंधकार फैला हुआ है; वह इन्द्रियों को महान् मोह में डालनेवाला है। राजन् ! आप इसको जान लीजिये, जिससे वह आपका स्पर्श न कर सके। मेरी यह बात को सुनकर यदि आप सब ठीक-ठीक समझ सकेंगे तो इस मनुष्यलोक में आपको महान् यश प्राप्त होगा और इहलोक तथा परलोक में आपके लिये भय नहीं रहेगा। यह जीवात्मा एक नदी है। इसमें पुण्य ही तीर्थ है, सत्यस्वरूप परमात्मा से इसका उद्यम हुआ है, धैर्य ही इसके किनारे है, इसमें दया की लहरें उठती हैं, पुण्यकर्म करनेवाला मनुष्य इसमें स्नान करके पवित्र होता है, क्योंकि लोभरहित आत्मा सदा पवित्र ही है। काम-क्रोधादिरूप ग्राह से भरी, पाँच इन्द्रियों के जल से पूर्ण इस संसार नदी के जन्म-मरण रूप दुर्गम प्रवाह को धैर्य की नौका बनाकर पार कीजिये। जो बुद्धि, धर्म, विद्या और अवस्था में बड़े  अपने बन्धु को आदर सत्कार से प्रसन्न करके उससे कर्तव्य-अकर्तव्य के विषय में प्रश्न करता है, वह कभी मोह में नहीं पड़ता। शिश्र और उदर की धैर्य से रक्षा करें, अर्थात् कामवेग और भूख की ज्वाला को धैर्यपूर्वक सहें। इसी प्रकार हाथ-पैर की नेत्रों से, नेत्र और कानों की मन से तथा मन और वाणी की सत्कर्मों से रक्षा करें। जो प्रतिदिन जल से स्नान, संध्या-तर्पण आदि करता है, नित्य स्वाध्याय करता है, पतितों का अन्न त्याग देता है, सत्य बोलता और गुरु की सेवा करता है, वह कभी ब्रह्मलोक से भ्रष्ट नहीं होता। शास्त्रों का अध्ययन करके, आश्रितजनों को समय-समय पर धन देकर उनकी सहायता करे और यज्ञों द्वारा तीनों अग्नियों की पवित्र धूम का सुगन्ध लेता रहे तो वह मरने के पश्चात् स्वर्गलोक में दिव्य सुख भोगता है। महाराज ! इन बातों के बताने का कारण सुनिये। आपके कारण पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर क्षत्रियधर्म से च्युत हो रहे हैं, अतः आप उन्हें पुनः राजधर्म में नियुक्त कीजिये। धृतराष्ट्र ने कहा---विदुर ! तुम प्रतिदिन मुझे जिस प्रकार उपदेश दिया करते हो, वह बहुत ठीक है। सौम्य ! तुम मुझसे जो कुछ भी कहते हो, ऐसा ही मेरा भी विचार है। यद्यपि मैं पाण्डवों के प्रति सदा ऐसी ही बुद्धि रखता हूँ, तथापि दुर्योधन से मिलने पर फिर बुद्धि पलट जाती है। प्रारब्ध का उल्लंघन करने की शक्ति किसी भी प्राणी में नहीं है।मैं तो प्रारब्ध को ही अचल मानता हूँ, उसके सामने पुरुषार्थ तो व्यर्थ है।

Monday 5 September 2016

उद्योग-पर्व---विदुरनीति ( सातवाँ अध्याय )

विदुरनीति ( सातवाँ अध्याय )
धृतराष्ट्र ने कहा---विदुर ! यह पुरुष ऐश्वर्य की प्राप्ति और नाश से स्वतंत्र नहीं है। ब्रह्मा के धागे से बँधी हुई कठपुतली की भाँति इसे प्रारब्ध के अधीन कर रखा है; इसलिये तुम कहते चलो, मैं सुनने के लिये धैर्य धारण किये बैठा हूँ। विदुरजी बोले---भारत ! समय के विपरीत यदि वृहस्पति भी कुछ बोले तो उनका अपमान ही होगा और उनके बुद्धि की भी अवज्ञा ही होगी। संसार में कोई भी मनुष्य दान देने से प्रिय होता है, दूसरा प्रिय वचन बोलने से प्रिय होता है और तीसरा मंत्र तथा औषध के बल से प्रिय होता है, किन्तु जो वास्तव में प्रिय है, वह तो सदा ही प्रिय ही है। जिससे द्वेष हो जाता है वह न तो साधु, न विद्वान्, न बुद्धिमान् ही जान पड़ता है। प्रियतम के तो सभी कर्म शुभ ही होते हैं और दुश्मन के सभी काम पापमय। राजन् ! दुर्योधन के जन्म लेते ही मैने कहा था 'केवल इसी एक पुत्र को तुम त्याग दो। इसके त्याग से सौ पुत्रों की वृद्धि होगी और न त्याग करने से सौ पुत्रों का नाश होगा।' जो वृद्धि भविष्य में नाश का कारण बने, उस अधिक महत्व नहीं देना चाहिये। और उस क्षय का भी बहुत आदर करना चाहिये, जो आगे चलकर अभ्युदय का कारण हो। महाराज ! वास्तव में जो क्षय बृद्धि का कारण होता है, वह क्षय ही नहीं है। परन्तु उस लाभ को भी क्षय ही मानना चाहिये, जिसे पाने से बहुतों का नाश हो जाय। धृतराष्ट्र ! कुछ लोग गुण के धनी होते हैं और कुछ लोग धन के धनी। जो धन के धनी होते हुए भी गुणों के कंगाल हैं, उन्हें सर्वथा त्याग दीजिये। धृतराष्ट्र ने कहा---विदुर ! तुम जो कुछ कह रहे हो, परिणाम में हितकर है; बुद्धिमान लोग उसका अनुमोदन करते हैं। यह भी ठीक है कि जिस ओर धर्म होता है, उसी पक्ष की जीत होती है तो भी मैं अपने बेटे का त्याग नहीं कर सकता। विदुरजी बोले---जो अधिक गुणों से सम्पन्न और विनयी है, वह प्राणियों का तनिक भी संहार होते देख उसकी कभी उपेक्षा नहीं कर सकता। जो दूसरों की निन्दा में ही लगे रहते हैं, दूसरों को दुःख देने और आपस में फूट डालने के लिये सदा उत्साह के साथ प्रयत्न करते हैं, जिनका दर्शन दोष से भरा ( अशुभ ) है और जिनके साथ रहे में भी बहुत बड़ा खतरा है, ऐसे लोगों से धन लेने में महान् दोष है और उन्हें देने में बहुत बड़ा भय है। दूसरों में फूट डालने का जिनका स्वभाव है, जो कामी, निर्लज्ज, शठ और प्रसिद्ध पापी है, वे साथ रखने के अयोग्य ( निन्दित ) माने गये हैं। उपर्युक्त दोषों के अतिरिक्त और भी जो महान् दोष हैं, उनसे युक्त मनुष्यों का त्याग कर देना चाहिये। सौहार्दभाव निवृत हो जाने पर नीच व्यक्तियों का प्रेम नष्ट हो जाता है, उस सौहार्द से होनेवाले फल की सिद्धि और सुख का भी नाश हो जाता है। फिर वह नीच पुरुष निंदा करने के यत्न करता है, थोड़ा भी अपराध हो जाने पर मोहवश विनाश के लिये उद्योग आरम्भ कर देता है। उसे तनिक भी शान्ति नहीं मिलती। उस प्रकार के नीच, क्रूर तथा अजितेन्द्रिय व्यक्तियों से होनेवाले संग पर अपनी बुद्धि से पूर्ण विचार करके विद्वान व्यक्ति उसे दूर से ही त्याग दे। जो अपने कुटुम्बी, दरिद्र, दीन तथा रोगी पर अनुग्रह करता है, वह पुत्र और धन-धान्य से सम्पन्न होता और अत्यन्त कल्याण का अनुभव करता है। राजेन्द्र ! जो लोग अपने भले  की इच्छा करते हैं, उन्हें अपने जाति भाइों को उन्नतिशील बनाना चाहिये; इसलिये आप भली-भाँति अपने कुल की वृद्धि करें। राजन् ! जो अपने कुटुम्बीजनों का सत्कार करता है, वह कल्याण का भागी होता है। भरतश्रेष्ठ ! अपने कुटुम्ब के लोग गुणहीन हों, तो भी उनकी रक्षा करनी चाहिये। फिर जो आपके कृपाभिलाषी एवं गुणवान् हैं, उनकी तो बात ही क्या है?
राजन् ! आप समर्थ हैं, वीर पाण्डवों पर कृपा कीजिये और उनकी जीविका के लिये कुछ गाँव दे दीजिये। ऐसा करने से इस संसार में यश प्राप्त होगा। तात ! आप बृद्ध हैं, इसलिये आपको अपने पुत्रों पर शासन करना चाहिये। भरतश्रेष्ठ ! मुझे भी आपके हित की ही बात कहनी चाहिये। आप मुझे अपना हितैषी समझें। तात ! शुभ चाहनेवालों को अपने जातिभाइयों के साथ कलह नहीं करना चाहिये; बल्कि उनके साथ मिलकर सुख का उपभोग करना चाहिये। जातिभाइयों के साथ परस्पर भोजन, बातचीत एवं प्रेम करना ही कर्तव्य है; उन साथ कभी विरोध नहीं करना चाहिये। इस जगत् में जातिभाई तारते और डुबाते भी हैं। इस जगत् में जातिभाई तारते और डुबाते भी हैं। उनमें जो सदाचारी हैं, वे तो ताड़ते हैं और दुराचारी डुबो देते हैं। राजेन्द्र ! आप पाण्डवों के प्रति सद्व्वहार करें। उनसे सुरक्षित होकर आप शत्रुओं के आक्रमण से बचे रहेंगे। विषैले बाण हाथ में लिये हुए व्याध के पास पहुँचकर जैसे मृग को कष्ट भोगना पड़ता है, उसी प्रकार जो जातीय बन्धु अपने धनी बन्धु के पास पहुँचकर दुःख पाता है, उसके पाप का भागी वह धनी होता है। नरश्रेष्ठ ! आप पाण्डवों को अथवा उनके पुत्रों को मारे गये सुनकर पीछे संताप करेंगे; अतः इस बात का पहले ही विचारकर लीजिये। ( इस जीवन का कोई ठिकाना नहीं है।) जिस कर्म के करने से अन्त में खाट पर बैठकर पछताना पड़े, उसको पहले से ही नहीं करना चाहिये। शुक्राचार्य के सिवा दूसरा कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है, जो नीति का उल्लंघन नहीं करता; अतः जो बीत गया सो बीत गया, अब शेष कर्तव्य का विचार आप जैसे बुद्धिमान पुरुषों पर ही निर्भर है। नरेश्वर ! दुर्योधन ने पहले यदि पाण्डवों के प्रति यह अपाध किया है, तो आप इस कुल में बड़े-बूढ़े हैं; आपके द्वारा उसका मार्जन हो जाना चाहिये। नरश्रेष्ठ ! यदि आप उनको राजपद पर स्थापित कर देंगे तो संसार में आपका कलंक धुल जायगा और आप बुद्धिमान पुरुषों में माननीय हो जायेंगे। जो धीर पुरुषों के वचनों क परिणाम पर विचार करके उन्हें कार्यरूप में परिणत करता है, वह चिरकाल तक यश का भागी बना रहता है। कुशल विद्वानों के द्वारा भी उपदेश किया हुआ ज्ञान व्यर्थ ही है, यदि उससे कर्तव्य का ज्ञान न हुआ अथवा ज्ञान होने पर भी उसका अनुष्ठान न हुआ। जो विद्वान पापकरूप फल देनेवाले कर्मों का आरम्भ नहीं करता, वह बढ़ता है। किन्तु जो पूर्व में किये हुए पापों का विचार न करके उन्हीं का अनुसरण करता है, वह बुद्धिहीन मनुष् अगाध कीचड़ से भरे हुए नरक में गिराया जाता है। बुद्धिमान पुरुष मंत्रभेद के इन छः द्वारों को जाने, और धन को रक्षित करने की इच्छा से इन्हें सदा बन्द रखे---नशे का सेवन, निद्रा, आवश्यक बातों की जानकारी न रखना, अपने नेत्र, मुख आदि का विकार, दुष्ट मंत्रियों में विश्वास और मूर्ख दूत पर भी भरोसा रखना। राजन् ! जो इन द्वारों को जानकर सदा बन्द किये रखता है, वह अर्थ, धर्म और काम के सेवन में लगा रहकर शत्रुओं को भी वश में कर लेता है। बृहस्पति के समान मनुष्य भी शास्त्रज्ञान अथवा बृद्धों की सेवा बिना धर्म और अर्थ का ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकते। समुद्र मे गिरी हुई वस्तु नष्ट हो जाती है;  सुनता नहीं उससे कही हुई बात नष्ट हो जाती है; अजितेन्द्रिय पुरुष का शास्त्रज्ञान औरराख में किया हुआ हवन भी नष्ट ही है। बुद्धिमान पुरुष बुद्धि से जाँचकर अपने अनुभव से  बारम्बार उनकी योग्यता का निश्चय करे; फिर दूसरों से सुनकर और एवं देखकर भलीभाँति विचारकर विद्वानों से मित्रता करे। विनयभाव अपयश का नाश करता है, पराक्रम अनर्थ को दूर करता है, क्षमा सदा ही क्रोध का नाश करती है और सदाचार कुलक्षण का अन्त करता है। राजन् ! नाना प्रकार की भोगसामग्री, माता, घर, स्वागत-सत्कार के ढ़ंग और भोजन तथा वस्त्र के द्वारा कुल की परीक्षा करें। देहाभिमान से रहित पुरुष के पास भी यदि न्याययुक्त पदार्थ स्वतः उपस्थित हो तो वह उसका विरोध नहीं करता, फिर कामासक्त मनुष्य के लिये कहना ही क्या है ? जो विद्वानों की सेवा करनेवाला, वैद्य, धार्मिक, देखने में सुन्दर, मित्रों से युक्त तथा मधुरभाषी हो, ऐसे सुहृद की सर्वथा रक्षा करनी चाहिये। अधम कुल में उत्पन्न हुआ हो या उत्तम कुल में---जो मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता, धर्म की अपेक्षा रखता है, कोमल स्वभाववाला तथा सलज्ज है, वह सैकड़ों कुलीनों से बढ़कर है। जिन दो मनुष्यों का चित्त से चित्त, गुप्त रहस्य से गुप्त रहस्य और बुद्धि से बुद्धि मिल जाती है, उनकी मित्रता कभी नष्ट नहीं होती। मेधावी पुरुष को चाहिये कि दुर्बुद्धि एवं विचार शक्ति से हीन पुरुष का तृण से ढ़के हुए कुएँ की भाँति परित्याग कर दे; क्योंकि उसके साथ की हुई मित्रता नष्ट हो जाती है। विद्वान पुरुष को उचित है कि अभिमानी, मूर्ख, क्रोधी, साहसिक और धर्महीन पुरुषों के साथ मित्रता न करे। मित्र तो ऐसा होना चाहिये जो कृतज्ञ, उदार, दृढ़ अनुराग रखनेवाला, जितेन्द्रिय, मर्यादा के भीतर रहनेवाला और मैत्री का त्याग न करनेवाला हो। इन्द्रियों को सर्वथा रोक रखना तो मृत्यु से भी बढ़कर कठिन है; और उन्हें बिलकुल खुली छोड़ देने से देवताओं का भी नाश हो जाता है। सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति कोमलता का भाव, गुणों में दोष न देखना, क्षमा, धैर्य और मित्रों का अपमान न करना---ये सब गुण आयु को बढ़ानेवाले हैं---ऐसा विद्वानलोग कहते हैं। जो अन्याय से नष्ट हुए धन को स्थिरबुद्धि का आश्रय ले अच्छी नीति से पुनः लौटा लाने की इच्छा रखता है, वह वीर पुरुषों का-सा आचरण करता है। जो आनेवाले दुःख को रोकने का उपाय जानता है, वर्तमानकालिक कर्तव्य के पालन में दृढ़-निश्चय रखनेवाला है और अतीतकाल में जो कर्तव्य शेष रह गया है, उसे भी जानता है, वह मनुष्य कभी अर्थ से हीन नहीं होता। मनुष्य मन, वाणी और कर्म से जिसका निरंतर सेवन करता है, वह कार्य उस मनुष्य को अपनी ओर खींच लेता है। इसलिये सदा कल्याणकारी कार्यों को ही करें। मांगलिक पदार्थों का स्पर्श, चित्तवृत्तियों का निरोध, शास्त्र का अभ्यास, उद्योगशीलता, सरलता और महापुरुषों के दर्शन---ये सब कल्याणकारी हैं। उद्योग में लगे रहना धन, लाभ और कल्याण का मूल है। इसलिये उद्योग न छोड़नेवाला मनुष्य महान् हो जाता है और अनन्त सुख का उपभोग करता है। तात ! समर्थ पुरुष के लिये सब जगह और सब समय में क्षमा के समान हितकारक और अत्यन्त श्रीसम्पन्न बनानेवाला उपाय दूसरा नहीं माना गया है। जो शक्तिहीन है, वह तो सब पर क्षमा करे ही; जो शक्तिमान है, वह भी धर्म के लिये क्षमा करे। तथा जिसकी दृष्टि में अर्थ और अनर्थ दोनो समान हैं, उसके लिये तो क्षमा सदा ही हितकारिणी होती है। जिस सुख का सेवन करते रहने पर भी मनुष्य धर्म और अर्थ से भ्रष्ट नहीं होता, उसका यथेष्ट सेवन करे; किन्तु मूढ़व्रत ( आसक्ति एवं अन्यायपूर्वक विषय सेवन ) न करें। जो दुःख से पीड़ित, प्रमादी, नास्तिक, आलसी, अजितेन्द्रिय हैं उनके यहाँ लक्ष्मी का वास नहीं होता। दुष्ट बुद्धिवाले लोग सरलता से युक्त और सरलता के ही कारण लज्जाशील मनुष्य को अशक्त बनाकर उसका तिरस्कार करते हैं। अत्यन्त श्रेष्ठ, अतिशय दानी, अति ही शूरवीर, अधिक व्रत नियमों का पालन करनेवाले और बुद्धि के घमण्ड में चूर रहनेवाले मनुष्य के पास लक्ष्मी भय के मारे नहीं जाती। राजलक्ष्मी न तो अत्यन्त गुणवानों के पास रहती है और न बहुत निर्गुणों के पास। यह न तो बहुत से गुणों को चाहती है और न गुणहीन के प्रति ही अनुराग रखती है। उन्मत्त गौ की भाँति यह लक्ष्मी कहीं-कहीं ही ठहरती है। वेदों का फल है अग्निहोत्र करना, शास्त्राध्ययन का फल है सुशीलता और सदाचार, स्त्री का फल है रतिसुख और संतान की प्राप्ति तथा धन का फल है दान और उपभोग। जो अधर्म के द्वारा कमाये हुए धन से परलोक-साधक यज्ञादि कर्म करता है, वह मरने के पश्चात् उसके फल को नहीं पाता; क्योंकि उसका धन बुरे रास्ते से आया होता है। घोर जंगल में, दुर्गम मार्ग में, कठिन आपत्ति के समय, घबराहट में और प्रहार के लिये शस्त्र उठे रहने पर भी मनोबल सम्पन्न पुरुष को भय नहीं होता। उद्योग, संयम, दक्षता, सावधानी, धैर्य, स्मृति और सोच-विचारकर कार्यारम्भ करना---  इन्हे उन्नति का मूल-मंत्र समझिये। तपस्वियों का बल है तप, वेदवेत्ताओं का बल है वेद, असाधुओं का बल है हिंसा और गुणवानों का बल है क्षमा। जल, मूल, दूध, घी, ब्राह्मण की इच्छापूर्ति, गुरु का वचन और औषध--- ये आठ व्रत के नाशक नहीं होते। जो अपने प्रतिकूल जान पड़े , उसे दूसरों के प्रति भी न करें। थोड़े में धर्म का यही स्वरूप है। इसके विपरीत जिसमें कामना से प्रवृति होती है---वह तो अधर्म है। अक्रोध से क्रोध को जीते, असाधु को सद्व्यवहार से वश में करे। धूर्त, आलसी, डरपोक, क्रोधी, पुरुषत्व के अभिमानी, चोर, कृतध्न और नास्तिक का विश्वास नहीं करना चाहिये। जो नित्य गुरुजनों को प्णाम करता है और वृद्ध पुरुषों की सेवा में लगा रहता है, उसकी कीर्ति, आयु, यश और बल---ये चारों बढ़ते हैं। जो धन अत्यन्त क्लेश उठाने से, धर्म का उ्लंघन करने से अथवा शत्रु के सामने सिर झुकाने से प्राप्त होता हो, उसमें आप मन न लगाइये। विद्याहीन मनुष्य, संतानोत्पत्ति रहित स्त्रीप्रसंग, आहार न पानेवाले प्रजा और बिना राजा के राज्यके लिये शोक करना चाहिये। अधिक राह चलना देहधारियों के लिये दुःखरूप बुढ़ापा है, बराबर पानी बहना पर्वतों का बुढ़ापा है, सम्भोग से वंचित रहना स्त्रियों के लिये बुढ़ापा है और वचन रूपी बाणों का आघात मन के लिये बुढ़ापा है। अभ्यास न करना वेदों का मल है, ब्राह्मणोचित नियमों का पालन न करना ब्राह्मण का मल है, बाह्लीक ( बलख बुखारा ) पृथ्वी का मल है तथा झूठ बोलना पुरुष का मल है, क्रीड़ा एवं हास-परिहास की उत्सुकता पतिव्रता स्त्री का मल है और पति के बिना परदेश में रहना स्त्रीमात्र का मल है। सोने का मल है चाँदी, चाँदी का मल है राँगा, राँगे का मल है सीसा और सीसे का मल है मल। सोकर नींद को जीतने का प्रयास न करें। कामोपभोग के द्वारा स्त्री को जीतने की इच्छा न रखें और अधिक पीकर मदिरा पीने की आदत को जीतन का प्रयास न करें। जिसका मित्र धन-दान के द्वारा वश में आ चुका है, शत्रु युद्ध में जीत लिये गये हैं और स्त्रियाँ खान-पान के द्वारा वशीभूत हो चुकी हैं, उसका जीवन सफल है। जिने पास हजार है, वे भी जीवित हैं, तथा जिनके पास सौ है वे भी जीवित है; अतः महाराज धृतराष्ट्र ! आप अधिक का लोभ छोड़ दीजिये, इससे भी किसी तरह जीवन रहेगा ही। इस पृथ्वी पर जो भी अन्न, सोना, पशु और स्त्रियाँ हैं, वे सब-के-सब एक पुुष के लिये भी पूरे नहीं हैं---ऐसा विचार करनेवाला मनुष्य मोह में नहीं पड़ता। राजन् ! मैं फिर कहता हूँ, यदि आपका अपने पुत्रों और पाण्डवों में समान भाव है तो उन सभी पुत्रों के साथ एक-सा वर्ताव कीजिये।