Sunday 25 June 2023

व्याधों से दुर्योधन का पता पाकर युधिष्ठिर का सेनासहित सरोवर पर जाना और कृपाचार्य आदि का दूर हट जाना

धृतराष्ट्र ने पूछा_'संजय ! पाण्डवों ने रणभूमि में जब हमारी सारी सेना का संहार कर डाला, उस समय बचे हुए महारथी कृतवर्मा, कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा ने क्या किया ? और मूर्ख दुर्योधन ने कौन_सा काम किया ? संजय ने कहा_महाराज ! जब राजरानियां नगर की ओर चल दीं और शिविर के दूसरे लोग भी पलायन कर गये, उस समय सारी छावनी सूनी देखकर उन तीनों महारथियों को बड़ा दु:ख हुआ। अब उस स्थान पर मन न लगा; इसलिये वे भी सरोवर की ओर ही चल दिये। उधर, धर्मात्मा युधिष्ठिर अपने भाइयों को साथ लेकर दुर्योधन का वध करने के लिये इधर_उधर विचरने लगे, किन्तु बहुत ढ़ूंढ़ने पर भी वे उसका पता न पा सके। इधर, उनके वाहन बहुत तक गये थे, इसलिये समस्त पाण्डव अपनी छावनी में जाकर सैनिकों सहित विश्राम करने लगे। तदनन्तर कृपाचार्य, अश्वत्थामा और कृतवर्मा उस सरोवर पर गये। जहां दुर्योधन हो रहा था। वहां पहुंचकर वे उससे बोले_'राजन् ! उठो और हमलोगों को साथ लेकर युधिष्ठिर से युद्ध करो या तो युद्ध करके पृथ्वी का राज भोगों या रण में प्राण देकर स्वर्ग प्राप्त करो। पाण्डवों को भी सारी सेना का तुमने संहार कर दिया है, जो सैनिक बच गये हैं, वे भी बहुत घायल हो चुके हैं। अब वे तुम्हारा वेग नहीं सह सकते। हम सर्वथा तुम्हारी रक्षा करेंगे। इसलिये तुम युद्ध के लिये तैयार हो जाओ। दुर्योधन बोला_ जहां इतना बड़ा नर_संहार हुआ है, वहां से आपलोगों को बचकर आये देख मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही है। अवश्य ही हमलोग शत्रुओं पर विजय पायेंगे; किन्तु यह तभी हो सकता है, जब कुछ समय तक विश्राम करके अपनी थकावट दूर कर ले। आपलोग भी बहुत तक गये हैं और मैं भी विशेष घायल हो चुका हूं। उधर पाण्डवों का बल और उत्साह बढ़ा हुआ है। इसलिये इस समय उनके साथ युद्ध करना मुझे पसंद नहीं है। आज एक रात यहां विश्राम करके कल आपलोगों को साथ लेकर शत्रुओं से युद्ध करूंगा। संजय कहते हैं _दुर्योधन के ऐसा कहने पर अश्वत्थामा ने कहा_'राजन् ! तुम्हारा कल्याण हो। उठो, हमलोग अवश्य अपने शत्रुओं को जीतेंगे। मैं अपने यज्ञ_याग, दान, सत्य तथा जप आदि पुण्यकर्मों की सौगंध खाकर कहता हूं, आज मैं सोमकों को अवश्य मार डालूंगा। यदि इसी रात मैं अपने शत्रुओं का संहार न कर डालूं तो सत्पुरुषों को मिलने योग्य यज्ञ का फल मुझे न मिले। इस प्रकार जब वे बातें कर रहे थे, उसी समय मांस के बोझ से थके हुए कुछ व्याधे पानी पीने के लिये अकस्मात् वहां आ पहुंचे। उनकी भीमसेन के प्रति बड़ी भक्ति थी। वहां खड़े होकर व्याधों ने उन लोगों का एकान्त वार्तालाप सुन लिया। उन्हें दुर्योधन की बात भी सुनायी दी। सब देख_सुनकर उन्होंने जाने दिया कि 'राजा दुर्योधन जल में छिपा है, उसका युद्ध करने काश मन नहीं है, तो भी ये महारथी उसे उकसा रहे हैं।'
अब ये आपस में सलाह करने लगे_'यह तो साफ जाहिर हो गया कि दुर्योधन पोखरे के पानी में आ बैठा है। अतः भीमसेन से जाकर कहना चाहिए कि 'दुर्योधन पानी में सो रहा है'। इससे हमें खुशी होगी और बहुत_सा धन मिल जायगा। इस सूखे मांस को ढ़ोकर व्यर्थ का क्लेश उठाने से क्या फायदा है? यह निश्चय करके वे बड़े प्रसन्न हुए, उन्हें धन का लोभ जो था ! मांस का बोझ सिर पर उठाया और छावनी की ओर चल दिये। उधर पाण्डवों ने भी दुर्योधन का पता लगाने के लिये चारों ओर जासूस रवाने किये थे; किन्तु सबने लौटकर यही बताया कि 'वह कहीं भाग गया, उसका कुछ पता नहीं चलता।' जासूसों की बात सुनकर राजा को बड़ी चिंता हुई। उसका पता न लगने से समस्त पाण्डव उदास होकर बैठे थे, इतने में ही व्याधे वहां आ पहुंचे। उन्होंने भीमसेन के पास जाकर जो वहां देखा_सुना था, सब कह सुनाया। तब भीमसेन ने उन्हें बहुत_सा धन देकर विदा किया और धर्मराज से आकर कहा_'महाराज ! जिसके लिये आप चिंता में पड़े हैं, उस दुर्योधन का पता व्याधों द्वारा लग गया है। वह माया से पानी बांधकर पोखरे में सो रहा है।' यह प्रिय समाचार सुनकर भाइयोंसहित युधिष्ठिर बहुत प्रसन्न हुए और भगवान श्रीकृष्ण को आगे करके तुरंत सरोवर की ओर चल दिये। उनके साथ सोमक क्षत्रिय भी थे। जाते समय उनके रथ की घरघराहट बहुत दूर तक सुनाई देती थी। उस समय अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव, धृष्टद्युम्न, शिखंडी, उत्तमौजा, युधामन्यु, सात्यकि, द्रौपदी के पुत्र तथा शेष पांचाल योद्धा, हाथी सवार, घुड़सवार और सैकड़ों पैदलों के साथ युधिष्ठिर पीछे_पीछे गये। तदनन्तर, महाराज युधिष्ठिर सके साथ उस अत्यंत भयंकर द्वैपायन नाक सरोवर के पास, जहां दुर्योधन छिपा था, जा पहुंचे। युधिष्ठिर की सेना ने जब प्रस्थान किया था, उसी समय उसका महान् कोलाहल सुनकर कृतवर्मा, कृपाचार्य और अश्वत्थामा ने दुर्योधन से कहा_'राजन् ! विजयोल्लास से सुशोभित पाण्डव अत्यन्त आनन्द में भरकर इधर ही आ रहे हैं। यदि आप आज्ञा दें तो हमलोग कुछ देर के लिये हट जायें।' उनकी बात सुनकर दुर्योधन ने कहा _'अच्छा, आप लोग जाइये। उनसे ऐसा कहकर वह सरोवर के भीतर चला गया और माया से जल को बांध दिया। कृपाचार्य आदि महारथी राजा की आज्ञा लेकर शोकमग्न हो वहां से दूर चले गये। रास्ते में उन्हें एक बरगद का पेड़ दिखाई पड़ा। वे थके तो थे ही, उसके नीचे बैठ गये और राजा दुर्योधन के विषय में विचार करने लगे। ' अब युद्ध किस तरह होगा ? राजा दुर्योधन की क्या दशा होगी ? पाण्डवों को दुर्योधन का पता कैसे लगेगा ?' यही सब सोचते_सोचते उन्होंने घोड़ों को रथ से खोल दिया और सब_के _सब वृक्ष के नीचे आराम करने लगे।

दुर्योधन का सरोवर में प्रवेश और युयुत्सु का हस्तिनापुर जाना

संजय कहते हैं _महाराज ! तदनन्तर शकुनि के अनुचर क्रोध में भर गये और प्राणों का मोह छोड़कर उन्होंने पाण्डवों को चारों ओर से घेर लिया। किन्तु अर्जुन और भीमसेन ने उसकी प्रगति रोक दी। वे लोग शक्ति, ऋष्टि हाथ में लेकर सहदेव को मार डालने की इच्छा से आगे बढ़ रहे थे, परन्तु अर्जुन ने गाण्डीव के द्वारा उनका संकल्प व्यर्थ कर दिया। उन्होंने भल्ल मारकर उन योद्धाओं की आयुधोंसहित भुजाओं तथा मस्तकों को काट डाला और उनके घोड़ों को भी मौत के घाट उतार दिया। इस तरह अपनी सेना का संहार देखकर राजा दुर्योधन को बड़ा क्रोध हुआ। उसने मरने से बचे हुए सब योद्धाओं को एकत्रित किया, उनमें सौ तो रथी थे और बाकी कुछ हाथी सवार, घुड़सवार और पैदल थे। सबके इकठ्ठे हो जाने पर दुर्योधन ने उनसे कहा_'वीरों ! तुमनलोग पाण्डवों को उनके मित्रों सहित मार डालो, साथ ही सेनासहित धृष्टद्युम्न का भी संहार कर डालो। इसके बाद शीघ्र मेरे पास लौट आना। दुर्योधन की आज्ञा शिरोधार्य करके वे रणोन्मत्त वीर पाण्डवों की ओर दौड़े। उन्हें आते देख पाण्डव भी बाणों की बौछार करने लगे। कुछ ही क्षणों में वह सेना पाण्डवों के साथ से मारी गयी, उसे कोई बचाने वाला न मिला। वह युद्ध के लिये प्रस्थित तो हुई, मगर भय के मारे ठहर न सकी। पाण्डव_दल के बहुत_से सैनिकों ने मिलकर आपके उन योद्धाओं का कुछ ही क्षणों में सफाया कर डाला। उनमें _से एक भी सिपाही नहीं बचा। महाराज ! आपके पुत्र ने अट्ठारह अक्षौहिणी सेना इकट्ठी की थी, किन्तु पाण्डव और सृंजयों ने सबका अन्त कर डाला। आपकी ओर से लड़ने वाले हजारों राजाओं में केवल दुर्योधन ही उस समय दिखायी पड़ा, वह भी बहुत घायल हो चुका था। उसने अपने चारों ओर दृष्टिपात किया, किन्तु सारी पृथ्वी सूनी दिखायी पड़ती। दुर्योधन ने जब अपने को सब योद्धाओं से रहित अकेला पाया और पाण्डवों को सफल मनोरथ एवं प्रसन्न देखा तो उसे बड़ा शोक हुआ। उसके पास न सेना थी न सवारी, इसलिये वह भाग जाने का विचार करने लगा। धृतराष्ट्र ने पूछा_संजय ! जब मेरे सब सैनिक मार डाले गये तो सारी छावनी सूनी हो गयी, उस समय पाण्डवों के पास कितनी सेना बच गयी थी ? अकेला हो जाने पर मेरे मूर्ख पुत्र दुर्योधन ने क्या किया ? संजय ने कहा_महाराज ! उस समय पाण्डवों के पास दो हजार रथी, सात सौ हाथी सवार, पांच हजार घुड़सवार और दस हजार पैदल थे। उनकी इतनी सेना अभी बची हुई थी। राजा दुर्योधन जब अकेला हो गया और उसे समरभूमि में अपना कोई भी अपना सहायक नहीं दिखायी पड़ा तो अपने मरे हुए घोड़े को वहीं छोड़कर वह पूर्व दिशा की ओर पैदल ही भागा। जो एक दिन ग्यारह अक्षौहिणी सेना का मालिक था वहीं दुर्योधन गदा लेकर अब पैदल ही सरोवर की ओर भागा जा रहा था। अभी थोड़ी ही देर गया था कि उसे धर्मात्मा विदुरजी की कही हुई बातें याद आने लगीं। उसने सोचा_'अहो ! हमारा और इन क्षत्रियों का जो महान् संहार हुआ है, इसे महान् बुद्धिमान विदुरजी ने पहले ही जान लिया था।' इस प्रकार की बातें सोचता हुआ वह सरोवर में प्रवेश करने के लिये बढ़ता चला गया। उस समय अपनी सेना का संहार देखकर उसका हृदय शोक से संतप्त हो रहा था। राजन् ! दुर्योधन की सेना में कई लाख वीर थे, किन्तु उस समय अश्वत्थामा, कृतवर्मा, तथा कृपाचार्य के सिवा कोई भी जीवित नहीं दिखाई पड़ता था। मुझे कैद में पड़ा देख धृष्टद्युम्न ने सात्यकि से हंसकर कहा_'इसको कैद करके क्या करना है, इसके जीवित रहने से अपना कोई लाभ तो है ही नहीं।' उसकी बात सुनकर सात्यकि ने मेरा वध करने के लिये तीखी तलवार उठायी; किन्तु श्रीवेदव्यासजी ने सहसा वहां प्रकट होकर कहा_'संजय को जीवित छोड़ दो, इसे किसी तरह मारना नहीं।' व्यासजी की बात सुनकर सात्यकि ने मुझसे कहा_'सात्यकि ने मुझसे कहा_'संजय ! जा अपना कल्याण साधन कर।' उसकी आज्ञा पाकर संध्या के समय में वहां से हस्तिनापुर के लिये प्रस्थित हुआ। उस समय मेरे पास न कवच था, न कोई हथियार। चलते _चलते जब मैं एक कोस इधर आ गया तो गदा हाथ में लिये दुर्योधन को अकेला खड़ा देखा, उसके शरीर पर बहुत _से घाव हो गये थे। मुझपर दृष्टि पड़ते ही उसकी आंखों में आंसू भर गये, वह अच्छी तरह मेरी ओर देख न सका। मैं भी उसे उस अवस्था में देख शोक में डूब गया, कुछ देर तक मेरे मुंह से कोई बात न निकल सकी। तदनन्तर मैंने अपने कैद होने और व्यासजी की कृपा से जीते-जी छुटकारा पाने का समाचार कह सुनाया। सुनकर थोड़ी देर तक कुछ सोचता रहा, इसके बाद उसने अपने भाइयों और सेना का हाल पूछा। मैंने भी जो कुछ आंखों देखा था, वह सब बता दिया और कहा_राजन् ! तुम्हारे भाई मारे गये और सारी सेना का संहार हो गया। रणभूमि से चलते समय व्यासजी ने मुझसे कहा था कि तुम्हारे पक्ष में तीन ही महारथी बच गये हैं।' यह सुनकर उसने कहा_'संजय ! तुम प्रज्ञा चक्षु महाराज से जाकर कहना कि 'आपका पुत्र दुर्योधन उस महासंग्राम से जीवित बचकर पानी से भरे सरोवर में सो रहा है, वह बहुत घायल हो चुका है।' यों कहकर दुर्योधन ने उस सरोवर में प्रवेश किया और माया से उसका पानी बांध दिया। इसके बाद कृपाचार्य, अश्वत्थामा और कृतवर्मा भी उधर ही आ निकले; इन तीनों महारथियों के घोड़े बहुत तक गये थे। मेरे पास आकर उन्होंने कहा_'संजय ! सौभाग्य की बात है कि तुम जीवित हो। 'फिर वे लोग आपके पुत्र का समाचार पूछते हुए बोले_'संजय ! क्या हमारे राजा दुर्योधन जीवित हैं ?' मेरी बात सुनकर वे महारथी थोड़ी देर तक वहां विलाप करते रहे, किन्तु पाण्डवों को रण में खड़े देख वहां से भाग चले। उन्होंने मुझे भी कृपाचार्य के रथ में बिठा लिया।  फिर सब लोग छावनी पर आ गये। सूर्यास्त निकट था,  छावनी के पहरेदार घबराये हुए थे; आपके पुत्रों का मरण सुनकर वे सब एक साथ रो पड़े। तदनन्तर स्त्रियों की रक्षा में नियुक्त हुए वृद्ध पुरुषों ने राजरानियों को साथ लेकर नगर की ओर प्रस्थान करने का विचार किया। बेचारी रानियां पतियों का मरण का समाचार सुनकर कुररी के समान विलाप करने लगीं। वे हाय ! हाय ! करती हुई हाथों से सिर और छाती पीटने लगीं। उनका करुणक्रन्दन चारों ओर फैल गया। राज्यमंत्री व्याकुल हो उठे, उनका गला भर आया ; वे रानियों को साथ लेकर नगर की ओर प्रस्थित हुए; साथ में रक्षा करने के लिये छड़ीदार सिपाही भी थे। रक्षा करनेवाले सिपाही रथ पर बैठकर अपनी_अपनी स्त्रियों को साथ ले नगर की ओर जा रहे थे। राजमहल में रहने पर जिन राशियों को सूर्य भी नहीं देख पाते थे। उन्हें ही नगर को जाते समय साधारण लोग भी दे रहे थे। उस समय ग्वाले और भेड़ चरानेवाले तक भीमसेन के डर से नगर की ओर भाग रहे थे। उस भगदड़ के समय युयुत्सु शोक से मूर्छित हो मन_ही_मन सोचने लगा_'भयंकर पराक्रम करनेवाले पाण्डवों ने ग्यारह अक्षौहिणी सेना के स्वामी राजा दुर्योधन को परास्त कर दिया, उसके सब भाइयों को मार डाला और भीष्म और द्रोण जैसे कौरव_वीर भी मौत के घाट उतर गये। भाग्यवश केवल मैं बच गया हूं। दुर्योधन के मंत्री रानियों को साथ लेकर नगर की ओर भागे जा रहे हैं। अब उचित यही होगा कि मैं युधिष्ठिर तथा भीमसेन से पूछकर उनके साथ नगर में चला जाऊं।' यह सोचकर उसने युधिष्ठिर और भीमसेन से अपना मनोभाव प्रकट किया। राजा युधिष्ठिर बड़े दयालु हैं, युयुत्सु की बात सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए और उसे छाती से लगाकर उन्होंने जाने की आज्ञा दे दी। तब युयुत्सु ने अपने रथ पर बैठकर घोड़ों को बड़ी तेजी से हांका और राजरानियों को भी साथ लेकर नगर में प्रवेश किया। उस समय सूर्यास्त हो रहा था। नगर में पहुंचते ही उसका गला भर आया, आंखों से आंसुओं की धारा बह चली। इसी अवस्था में उसे विदुरजी मिल गये, उसे देखते ही विदुरजी के नेत्रों में भी अश्रुप्रवाह जारी हो गया। वे विनीत भाव से सामने खड़े हुए युयुत्सु से बोले_' बेटा ! इस कुरुवंश का संहार हो जाने पर भी तुम अभी जीवित हो_ यह बड़े सौभाग्य की बात है ? किन्तु राजा युधिष्ठिर के नगर में प्रवेश करने के पहले तुम यहां कैसे आ गये। इसका कारण विस्तारपूर्वक बताओ।' युयुत्सु ने कहा_' तात ! अपने जाति, भाई और पुत्र के साथ जब मामा शकुनि मारे गये, उस समय राजा दुर्योधन रक्षकों से रहित हो जाने के कारण अपने मरे हुए घोड़ों को वहीं छोड़ डर के मारे पूर्व दिशा की ओर भाग गये। उनके भागते ही छावनी के सब लोग डरकर भागने लगे। फिर स्त्रियों के रक्षक भी राजा और उनके भाइयों की रानियों को सवारी पर बिठाकर भाग चले। तब मैं भी राजा युधिष्ठिर और भगवान् श्रीकृष्ण से पूछकर भागते हुए लोगों की रक्षा के लिये हस्तिनापुर तक आ गया। युयुत्सु की बात सुनकर विदुरजी ने सोचा, 'इसने वही काम किया है, जो ऐसे अवसर पर उचित था।' अतः वे बहुत प्रसन्न हुए और उसकी प्रशंसा करते हुए बोले_'बेटा ! यह ठीक ही हुआ है। दयालु होने के कारण तुमने अपने कुलधर्म की रक्षा की है। उस संहारकारी संग्राम से आज तुम्हें सकुशल लौटे देखकर मुझे बड़ा आनन्द मिला है। अपने अंधे पिता के तुम्हीं लाठी कू सहारे हो। विपत्ति में डूबकर दु:ख पाते हुए राजा धृतराष्ट्र को धैर्य देने के लिये केवल तुम्हीं जीवित हो। आज यहां रहकर विश्राम करो, कर सवेरे ही युधिष्ठिर के पास चले जाना।' यह कहकर विदुरजी आंसू बहाते हुए चले। उन्होंने युयुत्सु को राजभवन में भेजकर स्वयं भी प्रवेश किया। उस समय वहां नगर और प्रांत के लोग एकत्रित होकर बड़े दु:ख से हाहाकार कर रहे थे। वह भवन आनंदशून्य और श्रीहीन दिखाई देता था। राजमहल की यह अवस्था देखकर विदुरजी को बड़ा कष्ट हुआ। वे मन_ही_मन विकल हो धीरे_धीरे उच्छ्वास लेते हुए वहां से लौटकर नगर में चले गये। युयुत्सु ने वह रात अपने ही घर में रहकर व्यतीत की।