Tuesday 22 December 2015

वनपर्व---दुर्योधन का प्रायोपवेश परित्याग

दुर्योधन का प्रायोपवेश परित्याग

दुर्योधन को प्रायोपवेश करते देखकर देवताओं से पराजित पातालवासी दैत्य और दानवों ने विचारा कि यदि इस प्रकार दुर्योधन का प्राणान्त हो गया तो हमारा पक्ष गिर जायगा। इसलिये उन्होंने उसे अपने पास बुलाने के लिये बृहस्पति और शुक्र के बताये हुए अथर्ववेदोक्त मंत्रों द्वारा औपनिषद् कर्मकाण्ड आरम्भ किया। कर्म समाप्त होने पर एक बड़ी ही अद्भुत कृत्या जम्हाई लेते हुए प्रकट हुई और बोली, 'बताओ मैं क्या करूँ ? तब दैत्यों ने प्रसन्न होकर कहा, 'तू प्रायोपवेश करते हुए राजा दुर्योधन को यहाँ ले आ।' तब कृत्या 'जो आज्ञा' कहकर चली गई और एक क्षण में ही दुर्योधन को लेकर रसातल में पहुँच गई। दुर्योधन को आया देखकर दानवों के चित्त प्रसन्न हो गये और उन्होंने उससे अभिमानपूर्वक कहा, 'भरतकुलदीपक महाराज दुर्योधन ! आपके पास सदा ही बड़े-बड़े शूरवीर और महात्मा बने रहते हैं। फिर आपने यह प्रायोपवेश का साहस क्यों किया है ? जो पुरुष आत्महत्या करता है, वह अधोगति को प्राप्त होता है और लोक में भी उसकी निन्दा होती है। आपका यह विचार तो धर्म, अर्थ और सुख का नाश करनेवाला है; इसे आप छोड़ दीजिये। आप शोक क्यों करते हैं, आपके लिये अब किसी प्रकार का खटका नहीं है। आपकी सहायता के लिये अनेक दानववीर पृथ्वी पर उत्पन्न हो चुके हैं। कुछ दूसरे दैत्य, भीष्म, द्रोण और कृप आदि के शरीर में प्रवेश करेंगे, जिससे वे दया और स्नेह को तिलांजली देकर आपके शत्रुओं से संग्राम करेंगे। उनके सिवा क्षत्रिय जाति में उत्पन्न हुए और भी अनेकों दैत्य और दानव आपके शत्रओं के साथ युद्ध में पूरे पराक्रम से भिड़ जायेंगे। महारथी कर्ण अर्जुन तथा और भी सभी शत्रुओं को परास्त करेगा। इस काम के लिये हमने संशप्तक नामवाले सहस्त्रों दैत्य और राक्षसों को नियुक्त कर दिया है। वे सुप्रसिद्ध वीर अर्जुन को नष्ट कर डालेंगे। आप शोक न करें, अब इस पृथ्वी को शत्रुओं से रहित ही समझें। देखिये, देवताओं ने तो पाण्डवों का आश्रय ले रखा है और आप सर्वदा मेरी गति हैं।' इस प्रकार दुर्योधन को उपदेश देकर उन्होंने कहा, 'आप अब अपने घर जाइये और शत्रुओं पर विजय प्राप्त कीजिये।' दैत्योंं के विदा करने पर कृत्या ने दुर्योधन को फिर प्रायोपवेश के स्थान पर ही पहुँचा दिया और वह वहीं अन्तर्धान हो गयी। कृत्या के चले जाने पर दुर्योधन को चेत हुआ और उसने इस सब प्रसंग को एक स्वप्न सा समझा। दूसरे दिन सवेरा होते ही सूतपुत्र कर्ण ने हाथ जोड़कर हँसते हुए कहा, 'महाराज ! मरकर कोई भी मनुष्य शत्रुओं को नहीं जीत सकता; जो जीता रहता है, वह कभी सुख के दिन भी देख लेता है। आप इस तरह क्यों सो रहे हैं, शोक की ऐसी क्या बात है ? एक बार अपने पराक्रम से शत्रुओं को संतप्त करके अब क्यों मरना चाहते हैं ? आपको अर्जुन का पराक्रम देखकर भय तो नहीं हो गया है। यदि ऐसा है तो आपके सामने सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि मैं उसे संग्राम में मार डालूँगा। मैं प्रतिज्ञापूर्वक शस्त्र छूकर कहता हूँ कि पाण्डवों के अज्ञातवास का तेरहवाँ वर्ष समाप्त होते हीमैं उन्हें आपके अधीन कर दूँगा।' कर्ण के इस प्रकार कहने और दुःशासनादि के बहुत अनुनय-विनय करने पर तथा दैत्यों की बात याद करके दुर्योधन आसन से खड़ा हो गया। उसने पाण्डवों के साथ युद्ध करने का पक्का विचार कर लिया और फिर हस्तिनापुर चलने के लिये रथ, हाथी, घोड़े और पदातियों से युक्त चतुरंगिणी सेना को तैयारी करने की आज्ञा दी। वह विशाल वाहिनी सज-धजकर गंगाजी के प्रवाह के समान चलने लगी। इस प्रकार कुछ ही समय में सब लोग हस्तिनापुर पहुँच गये।

वनपर्व---दुर्योधन का अनुताप और प्रायोपवेश का निश्चय

दुर्योधन का अनुताप और प्रायोपवेश का निश्चय
जब युधिष्ठिर ने दुर्योधन को विदा किया तो वह लज्जा से मुख नीचा किये हृदय में कुढ़ता हुआ चतुरंगिनी सेना के सहित वहाँ से हस्तिनापुर को चला। मार्ग में एक रमणीक स्थान पर, जहाँ जल और घास की अधिकता थी, उसने विश्राम किया। वहाँ कर्ण ने उसके पास आकर कहा, 'राजन् ! बड़े सौभाग्य की बात है कि आपका जीवन बच गया। मुझे तो आपके सामने ही गन्धर्वों ने ऐसा तंग किया कि मैं उनके वाणों से पीड़ित हुई सेना को भी नहीं संभाल सका। अन्त में जब नाकमें दम आ गया तो वहाँ से भागना ही पड़ा। उस अतिमानुष युद्ध में आप रानियों और सेना सहित सकुशल लौट आये, किसी प्रकार का घाव आदि भी आपको नहीं लगा। यह देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है। इस समय भाइयों सहित आपने युद्ध में जो काम करके दिखाया है, उसे कर सकनेवाला दूसरा पुरुष संसार में दिखाई नहीं देता।' कर्ण के इस प्रकार कहनेपर दुर्योधन ने गद्गद् कण्ठ होकर कहा---राधेय ! तुम्हे असली भेद का पता नहीं है, इसी से मैं तुम्हारे कथन का बुरा नहीं मानता। तुम तो यही समझते हो कि गन्धर्वों को मैने अपने पराक्रम से हराया है। सच्ची बात तो यह है कि मेरे और मेरे भाइयों के साथ गन्धर्वों का बहुत देर तक युद्ध हुआ और उसमें दोनो ही ओर की हानि भी हुई। किन्तु जब वे माया से युद्ध करने लगे तो हम उनका सामना नहीं कर सके। अन्त में हार हमारी ही हुई और गन्धर्वों ने हमें सेवक, मंत्री, पुत्र, स्त्री, सेना और सवारियों के सहित कैद कर लिया। फिर वे हमें आकाशमार्ग से ले चले। उसी समय हमारे कुछ सैनिक और मंत्रियों ने पाण्डवों के पास जाकर कहा कि 'गन्धर्वलोग दुर्योधन तथा उनके भाइयों को पकड़कर ले जा रहे हैं, इस समय आप उन्हें छुड़ाइये।' तब धर्मात्मा युधिष्ठिर ने अपने सब भाइयों को समझाकर हमें बन्धन से छुड़ाने के लिये आज्ञा दी। पाण्डवलोग उस स्थान पर आये और हमें हराने की शक्ति रखते हुए उन्होंने उन्हें समझाकर शान्तिपूर्वक छोड़ देने का प्रस्ताव किया। किन्तु गन्धर्व हमें छोड़ने को तैयार नहीं हुए। इसपर भीमेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव उनपर वाणों की वर्षा करने लगे। तब गन्धर्वलोग रणभूमि छोड़कर हमें घसीटते हुए आकाश में चढ़ने लगे। उस समय हमने आँख उठायी तो देखा कि सब ओर से बाणों की जाल से घिरा हुआ अर्जुन दिव्य अस्त्रों की वर्षा कर रहा है। इस प्रकार जब अर्जुन के पैने वाणों से सारी दिशाएँ रुक गयीं तो अर्जुन के मित्र चित्रसेन ने अपना रूप प्रकट कर दिया। फिर दोनो मित्र आपस में खूब मिले और दोनो ने ही कुशल प्रश्न किया। फिर वीरवर अर्जुन ने हँसते हुए उत्साहपूर्वक यह बात कही, 'वीरवर ! आप मेरे भाइयों को छोड़ दीजिेये। पाण्डवों के जीवित रहते इनका तिरस्कार नहीं होना चाहिये।' अर्जुन के इस प्रकार कहने पर गन्धर्वराज चित्रसेन ने उसे बताया कि हमलोग पाण्डवों को उनकी स्त्री के सहित इस दुर्दशा में देखने के लिये वहाँ गये थे। चित्रसेन ने जब ये शब्द कहे तो मैं लज्जा से यह सोचने लगा कि धरती फट जाय और मैं उसमें समा जाऊँ।फिर पाण्डवों के सहित गन्धर्वों ने युधिष्ठिर के पास जाकर हमें कैदी के हालत में खड़ा किया और उन्हें भी हमें खोटा विचार सुनाया। इस प्रकार स्त्रियों के सामने मैं दीन और कैदी की दशा में युधिष्ठिर को भेंट किया गया। बताओ, इससे बढ़कर दुःख की और क्या बात होगी ? जिनका मैने सर्वदा निरादर किया और जिनका सदा से ही शत्रु बना रहा, उन्होंने मुझ मंदमति को बंधन से छुड़ाया और मुझे जीवनदान दिया। हे वीर ! इसकी अपेक्षा तो उस महान् संग्राम में मेरे प्राण निकल जाते तो बहुत अच्छा होता। इस प्रकार का जीना किस काम का ? यदि गन्धर्व मुझे मार डाले तो संसार में मेरा यश फैल जाता और मुझे अक्षयलोकों की प्राप्ति होती। अब मेरा जो विचार है, सुनो। मैं यहाँ अन्न-जल छोड़कर प्राण त्याग दूँगा। तुम और दुःशासनादि मेरे सब भाई हस्तिनापुर चले जाओ। अब मैं हस्तिनापुर जाकर सभी को क्या उत्तर दूँगा ? इस जीने से तो मरना ही अच्छा है। इस प्रकार दुर्योधन अत्यन्त चिन्ताग्रस्त हो रहा था। उसने फिर दुःशासन से कहा, 'भैया ! तुम मेरी बात सुनो। मैं तुम्हे राज्य देता हूँ। इसे स्वीकार करके तुम मेरी जगह राजा बनो और कर्ण तथा शकुनि की सलाह से इस समृद्धिशाली पृथ्वी का शासन करो।' दुर्योधन की यह बात सुनकर दुःशासन का गला दुःख से भर आया और उसने दुर्योधन के चरणों में सिर रखकर रोते हुए कहा, 'महाराज ! ऐसा कभी नहीं हो सकता; मैं आपके बिना पृथ्वी का शासन नहीं करूँगा। बस आप प्रसन्न हो जाइये।' ऐसा कहकर दुःशासन ने दोनो हाथों से अपने बड़े भाई के चरण पकड़ लिये और ढ़ाढ़ मारकर रोने लगा। दुर्योधन और दुःशासन को अत्न्त दुःखी देख कर्ण को भी बड़ी व्यथा हुई और उसने उनसे कहा, 'आप दोनो नासमझी से सामान्य पुरुषों के समान क्यों शोक करते हैं ? शोक करनेवालों का शोक तो कभी दूर नहीं हो सकता। अतः धैर्य धारण करें, इस प्रकार शोक करके शत्रुओं का हर्ष मत बढ़ाइये। पाण्डवों ने आपको गन्धर्वों के हाथ से छुड़ाया--ऐसा करके तो उन्होंने अपने कर्तव्य का ही पालन किया है। राज्य के भीतर रहनेवाले पुरुषों को सर्वदा राजा का प्रिय ही करना चाहिये। इसलिये ऐसी कोई बात हो भी गयी तो आपको संताप नहीं होना चाहिये। देखिये, आपके प्रायोपवेश के विचार को सुनकर आपके सभी भाई उदास हो गये हैं। इसलिये इस संकल्प को छोड़कर खड़े होइये और अपने भाइयों को ढ़ाढ़स बँधाइये। यदि आप मेरी बात नहीं मानेंगे मैं भी यहीं रहूँगा। आपके बिना तो मैं भी जीवित नहीं रह सकता।' तब शकुनि ने भी दुर्योधन को समझाते हुए कहा, राजन ! कर्ण ने यथार्थ बात कही है। तुम आज मूर्खता से अपने प्राण त्यागने को तैयार हुए हो। तुम उदासी छोड़ दो और पाण्डवों ने तुम्हारे साथ जो उपकार किया है, उन्हें स्मरण करके उन्हें उनका राज्य दे दो। इससे तुम यश और धर्म प्राप्त करोगे। तुम पाण्डवों के साथ भाईका-सा व्यवहार करके उन्हें अपनी जगह बैठा दो और उनका पैतृक राज्य उन्हें सौंप दो। इससे तुम्हे सुख मिलेगा। दुर्योधन को किसी के समझाने का कोई असर न हुआ। वह अपने निश्चय से नहीं डिगा और कुश और वल्कल वस्त्र धारण किये और वाणी का संयम कर उपवास के नियमों का पालन करने लगा।

वनपर्व---पाण्डवों का गन्धर्वों से युद्ध करके दुर्योधनादि को छुड़ाना

पाण्डवों का गन्धर्वों से युद्ध करके दुर्योधनादि को छुड़ाना

युधिष्ठिर की बातें सुनकर भीम आदि सभी पाण्डवों केमुख हर्ष से खिल गये और वे युद्ध के लिये उत्साहित होकर खड़े हो गये। फिर उन्होंने अभेद्य कवच और तरह-तरह के दिव्य आयुध धारण किये और गन्धर्वों पर धावा बोल दिया। जब विजयोन्मत्त गन्धर्वों ने देखा कि लोकपालों के समान चारों पाण्डव रथों पर चढ़कर रणभूमि में आये हैं तो वे लौट पड़े और व्यूहरचना करके उनके सामने खड़े हो गये। तब अर्जुन ने गन्धर्वों को समझाते हुए कहा, 'तुम मेरे भाई राजा दुर्योधन को छोड़ दो।' इसपर गन्धर्वों ने कहा, 'हमें आज्ञा देनेवाला तो गन्धर्वराज चित्रसेन के सिवा और कोई नहीं है; एक वे ही हमें जैसी आज्ञा देते हैं, वैसा हम करते हैं।' गन्धर्वों के ऐसा कहने पर अर्जुन ने उनसे फिर कहा, 'परायी स्त्रियों को पकड़ना और मनुष्यों के साथ युद्ध करना---ऐसा निन्दनीय काम गन्धर्वराज को शोभा नहीं देता। तुमलोग धर्मराज युधिष्ठिर की आज्ञा मानकर इन महापराक्रमी धृतराष्ट्रपुत्रों को छोड़ दो। यदि तुम शान्ति से इन्हें नहीं छोड़ोगे तो मैं स्वयं ही पराक्रम द्वारा इनको छुड़ा लूँगा। ' ऐसा कहने पर भी जब गन्धर्वों ने अर्जुन की बात उड़ा दी तो वे उनके ऊपर पैने-पैने वाण बरसाने लगे तथा गन्धर्वों ने भी उनपर वाण की झरी लगा दी। अर्जुन ने आग्नेयास्त्र छोड़कर हजारों गन्धर्वों को यमराज के पास भेज दिया। महाबली भीम ने भी तीखे-तीखे तीरों से सैकड़ों गन्धर्वों का अन्त कर दिया। माद्रीपुत्र नकुल और सहदेव ने भी संग्रामभूमि में कदम बढ़ाकर अनेक शत्रुओं को घेर-घेरकर मार डाला। महारथी पाण्डवलोग जब गन्धर्वों को इस प्रकार जब दिव्य अस्त्रों से मारने लगे तो वे धृतराष्ट्र के पुत्रों को लेकर आकाश में उड़कर जाने लगे। कुन्तीकुमार अर्जुन ने उन्हें आकाश की ओर उड़ते देख वाणों का एक ऐसा विस्तृत जाल छा दिया कि जिसने चारों ओर से उनकी गति रोक दी। उस जाल में वो उसी प्रकार बन्द हो गये, जैसे पिंजड़े में पक्षी। अतः वे अत्यन्त कुपित होकर अर्जुन पर गदा, शक्ति और ऋष्टि आदि अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करने लगे। तब महावीर अर्जुन ने उनपर स्थुणाकर्ण, इन्द्रजाल, सौर, आग्नेय तथा सौम्य आदि दिव्य अस्त्र चलाये। इनकी मार से वे अत्यन्त पीड़ित होने लगे। ऊपर जाने से तो उन्हें वाणों का जाल रोक रहा था और इधर-उधर जाते तो अर्जुन के वाणों से बींधने लगते। जब चित्रसेन ने देखा कि गन्धर्व अर्जुन के वाणों से अत्यन्त त्रस्त हो रहे हैं तो वह गदा लेकर उनकी ओर दौड़ा। किन्तु अर्जुन ने अपने वाणों द्वारा उस लोहे की गदा के सात टुकड़े कर दिये। तब वह माया से अदृश्य रहकर अर्जुन के साथ युद्ध करने लगा।  इससे अर्जुन को बड़ा क्रोध हुआ और वे दिव्यास्त्रों से अभिमंत्रित आकाशचारी आयुधों से युद्ध करने लगे तथा अन्तर्धान रहने पर भी उसके शब्द का अनुसरण करके शब्दबेधी बाणों से उसे बींधने लगे। अर्जुन के उन अस्त्र-शस्त्रों से चित्रसेन तिलमला उठा और उसने अपने को प्रकट करके कहा, 'अर्जुन ! देखो, युद्ध में तुम्हारे सामने आया हुआ मैं तुम्हारा सखा चित्रसेन हूँ।' अर्जुन ने जब अपने सखा को युद्ध से जर्जरित देखा तो उन्होंने अपने दिव्यास्त्रों को लौटा लिया। यह देखकर सब पाण्डव बड़े प्रसन्न हुए और फिर रथों में बैठे हुए भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव और चित्रसेन आपस में कुशल-प्रश्न करने लगे।तब महाधनुर्धर अर्जुन ने चित्रसेन से पूछा---'वीरवर ! कौरवों का पराभव करने में तुम्हारा क्या उद्देश्य था ? तुमने स्त्रियों के सहित दुर्योधन को क्यों कैद किया है ?' चित्रसेन ने कहा, "वीर धनंजय ! देवराज इन्द्र को स्वर्ग में ही दुरात्मा दुर्योधन और पापी कर्ण का अभिप्राय मालूम हो गया था। ये लोग यह सोचकर कि आजकल पाण्डवलोग वन में विपरीत परिस्थिति में रहकर अनाथों की तरह कष्ट भोग रहे हैं और हम खूब आनन्द में हैं, तुम्हे देखने और इस दशा में यशस्विनि द्रौपदी की हँसी उड़ाने के लिेये आये थे। इनकी ऐसी खोटी मनोवृति जानकर उन्होंने मुझसे कहा, 'जाओ' दुर्योधन को उसके भाई और मंत्रियों सहित बाँधकर यहाँ ले आओ। किन्तु देखो, भाइयों के सहित अर्जुन की सब प्रकार रक्षा करना; क्योंकि वह तुम्हारा प्रिय सखा और (गानविद्याका) शिष्य है।' तब देवराज के कहने से मैं तुरन्त ही यहाँ आ गया और इस दुष्ट को बाँध भी लिया। अब मैं देवलोक को जा रहा हूँ और इन्द्र के आज्ञानुसार इस दुरात्मा को भी ले जाऊँगा।" अर्जुन ने कहा, 'चित्रसेन ! यदि तुम मेरा प्रिय करना चाहते हो तो धर्मराज के आदेश से तुम हमारे भाई दुर्योधन को छोड़ दो।' चित्रसेन ने कहा, अर्जुन ! यह पापी है और बड़ा घमण्ड से भरा रहता है, इसे छोड़ना उचित नहीं है। इसने तो धर्मराज और कृष्णा को धोखा दिया था। धर्मराज का यह इस समय जो कुछ करना चाहता था, उसका पता नहीं है; अच्छा, चलो उन्हें सब बातें बता देंगे; फिर उनकी जैसी इच्छा होगी, वैसा करेंगे। फिर वे सब महाराज युधिष्ठिर के पास गये और उसकी सब बातें उन्हें बता दी। तब अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिर ने गन्धर्वों की बात सुनकर उनकी प्रशंसा की और समस्त कौरवों को छुड़वा दिया। वे गन्धर्वों से कहने लगे, 'आपलोग बलवान् और शक्तिसम्पन्न हैं; यह बड़े सौभाग्य की बात है कि आपने मेरे भाई-बन्धु और मंत्रियों के सहित दुराचारी दुर्योधन का वध नहीं किया। मेरे ऊपर आपलोगों का यह बड़ा उपकार हुआ है।' फिर बुद्धिमान महाराज युधिष्ठिर की आज्ञा लेकर अप्सराओं के सहित चित्रसेनादि गन्धर्व अत्यन्त प्रसन्नचित्त से स्वर्ग को चले गये। देवराज इन्द्र ने दिव्य अमृत की वर्षा करके कौरवों के हाथ से मरे हुए गन्धर्वों को जीवित कर दिया।अपने स्वजन और राजमहिषियों को मुक्त कराकर पाण्डवों को बड़ी प्रसन्नता हुई। कौरवों ने स्त्री और कुमारों के सहित पाण्डवों का बड़ा सत्कार किया। तब भाइयों के सहित बन्धन से छूटे हुए दुर्योधन से धर्मराज युधिष्ठिर से बड़े प्रेम से कहा, 'भैया ! ऐसा साहस फिर कभी मत करना; देखो, साहस करनेवालों को कभी सुख नहीं मिलता। अब तुम सब भाइयों के सहित कुशलपूर्वक अपने घर जाओ। इस घटना से मन में किसी प्रकार का खेद मत मानना।' धर्मराज के इस प्रकार आज्ञा देने पर दुर्योधन ने उन्हें प्रणाम किया और हृदय में अत्यन्त लज्जित होकर अपने नगर की ओर चला गया। उस समय वह ऐसा व्याकुल हो रहा था मानो उसकी इन्द्रियाँ नष्ट हो गयीं हों तथा क्षोभ के कारण उसका हृदय फटा जाता था।

वनपर्व---कौरवों की घोषयात्रा और उनका गन्धर्वों के साथ युद्ध में पराभव

कौरवों की घोषयात्रा और उनका गन्धर्वों के साथ युद्ध में पराभव
इस प्रकार पाण्डव वन में रहकर जाड़ा, गर्मी, वायु और धूप सहने से पाण्डवों के शरीर बहुत कृश हो गये थे। ऐसी स्थिति में उन्होंने द्वैतवन में उस पवित्र सरोवर पर आकर अपने हितचिन्तकों को विदा कर दिया  तथा वहाँ कुटी बनाकर आसपास के रमणीक वन, पर्वत और नदियों के किनारे विचरने लगे। इन्ही दिनों वाँ एक बातचीत करने में कुशल ब्राह्मण आया। उनसे मिलकर वह कौरवों से मिला और धृतराष्ट्रजी के पास पहुँचा। वृद्ध कुरुराज ने आसन देकर उसका यथोचित सत्कार किया और आग्रहपूर्वक पाण्डवों का वृतांत पूछा। तब ब्राह्मण ने कहा कि 'इस समय युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव बड़ा भीषण कष्ट सह रहे हैं; वायु और धूप के कारण उनके शरीर बहुत कृश हो गये हैं। द्रौपदी वीरपत्नी होकर भी अनाथा-सी हो रही है तथा सब ओर से दुःखों से दबी हुई है। उनकी बातें सुनकर राजा धृतराष्ट्र को बड़ा दुःख हुआ। जब उन्होंने सुना कि राजा के पुत्र और पौत्र होकर भी पाण्डवलोग इस प्रकार दुःख की नदी में पड़े हुए हैं तो उनका हृदय करुणा से भर आया और वे लम्बी-लम्बी साँसें लेकर कहने लगे, 'धर्मपुत्र युधिष्ठिर तो मेरे अपराध पर ध्यान नहीं देंगे और अर्जुन भी उनहीं का अनुसरण करेगा। किन्तु इस वनवास से भीम का कोप तो उसी प्रकार बढ़ रहा है, जैसे हवा लगने से आग सुलगती रहती है। उस क्रोधानल से जलकर वह वीर हाथ-से-हाथ मलकर इस प्रकार अत्यन्त भयानक और ग् साँसे लिया करता है मानो मेरे पुत्र और पौत्रों को जलाकर भष्म कर देगा। अरे ! इन दुर्योधन, शकुनि, कर्ण और दुःशासन की बुद्धि न जाने कहाँ मारी गयी है। इन्होंने जो राज्य जुए के द्वारा छीना है, उसे ये मधु-सा मीठा समझते हैं; इसके द्वारा अपने सर्वनाश की ओर इनकी दृष्टि ही नहीं जाती। देखो ! शकुनि ने कपट की चालें चलकर अच्छा नहीं किया, फिर भी पाण्डवों ने इतनी साधुता की कि उसी समय उन्हें नहीं मारा। किन्तु इस कुपुत्र के मोह में फँसकर मैंने तो वह काम कर डाला, जिसके कारण कौरवों का अंतकाल समीप दिखायी दे रहा है। सव्यसाची अर्जुन अद्वितीय धनुर्धर है, उसका गाण्डीव धनुष भी बड़े प्रचण्ड वेगवाला है।और अब उसके सिवा उसने और भी अनेकों दिव्य अस्त्र प्राप्त कर लिये हैं। भला ऐसा कौन है जो इन तीनों के तेज को सहन कर सके।' धृतराष्ट्र की ये सब बातें सुबलपुत्र शकुनि ने सुनीं और फिर कर्ण के साथ एकान्त में बैठकर दुर्योधन के पास जाकर उसे सुनायीं। यह सब सुनकर उस समय क्षुद्रबुद्धि दुर्योधन भी उदास हो गया। तब शकुनि और कर्ण ने उससे कहा, 'भरतनन्दन ! अपने पराक्रम से तुमने पाण्डवों को यहाँ से निकाला है। अब तुम अकेले ही पृथ्वी को इस प्रकार भोगो, जैसे इन्द्र स्वर्ग का राज्य भोगता है। देखो ! तुम्हारे बाहुबल से आज पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर---चारों दिशाओं के नृपतिगण तुम्हे कर देते हैं। जो दीप्तिमति राज्यलक्ष्मी पहले पाण्डवों की सेवा करती थी, आज वह तुम्हें और तुम्हारे भाइयों को मिली हुई है। राजन् ! सुना है कि आजकल पाण्डवलोग द्वैतवन में एक सरोवर के ऊपर कुछ ब्राह्मणों के साथ रहते हैं। सो मेरा ऐसा विचार है कि तुम खूब ठाट-बाट से वहाँ चलो और सूर्य जैसे अपने ताप से संसार को तपाता है उसी प्रकार अपने तेज से पाण्डवों को संतप्त करो। तुम्हारी महिषियाँ भी बहुमूल्य वस्त्रों से सुसज्जित होकर चलें और मृगचर्म एवं वल्कलधारिणी कृष्णा को देखकर छाती ठण्डी करें तथा अपने ऐश्वर्य से उसका जी जलावें। ' दुर्योधन से ऐसा कहकर कर्ण और शकुनि चुप हो गये। तब राजा दुर्योधन ने कहा, तुम जो कुछ कहते हो, वह बात मेरे मन में भी बसी हुई है। पाण्डवों को वल्कलवस्त्र और मृगचर्म ओढ़े देखकर मुझे जैसी खुशी होगी, वैसी इस सारी पृथ्वी का राज्य पाकर भी नही होगी, भला, इससे बढ़कर प्रसन्नता की बात क्या होगी कि मैं द्रौपदी को वन में गेरुए कपड़े पहने देखूँ। परन्तु मुझे कोई ऐसा उपाय नहीं सूझ रहा है, जिससे कि मैं द्वैतवन में जा सकूँ और महाराज भी मुझे वहाँ जाने की आज्ञा दे दें। इसलिये तुम मामा शकुनि और भाई दुःशासन के साथ सलाह करके कोई ऐसी युक्ति निकालो, जिससे हमलोग द्वैतवन में जा सकें।' तदनन्तर सब लोग 'बहुत ठीक' ऐसा कहकर अपने-अपने स्थानों को चले गये। रात्रि बीतने पर भोर होते ही वे फिर दुर्योधन के पास आये। तब कर्ण ने हँसकर दुर्योधन से कहा, 'राजन् ! मुझे द्वैतवन जाने का एक उपाय सूझ गया है, उसे सुनिये। आजकल आपकी गौओं के गोष्ठ द्वैतवन में ही हैं और वे आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं; इसलिये हमलोग घोषयात्रा के बहाने वहाँ चलेंगे।' यह सुनकर शकुनि भी हँसकर बोल उठा, 'द्वैतवन में जाने का यह उपाय तो मुझे भी खूब जँचता है। इस काम के लिये महाराज हमें अवश्य अनुमति दे देंगे और पाण्डवों से मेल-जोल करने के लिये भी समझावेंगे। ग्वाले लोग द्वैतवन में तुम्हारे आने की बाट देखते ही हैं, इसलिये घोषयात्रा के मिससे हम वहाँ जरूर जा सकते हैं। राजन् ! इस प्रकार सलाह कर वे सब राजा धृतराष्ट्र के पास आये उन सबने धृतराष्ट्र से तथा धृतराष्ट्र ने उनसे कुशल समाचार पूछा। उन्होंने पहले से ही समंग नाम के एक गोप को ठीक कर लिया था। उसने राजा धृतराष्ट्र की सेवा में निवेदन किया कि महाराज ! आजकल आपकी गौएँ समीप ही आयी हुईं हैं। इसपर कर्ण और शकुनि ने कहा, 'कुरुराज ! इस समय गौएँ बड़े रमणीक प्रदेश में ठहरी हुईं हैं। यह समय गाय और बछड़ों की गणना करने तथा उनके रंग एवं आयु का व्योरा लिखने के लिये भी बहुत उपयुक्त है। इसलिये आप दुर्योधन को वहाँ जाने की आज्ञा दे दीजिये।' यह सुनकर धृतराष्ट्र ने कहा, 'हे तात ! गौओं की देखभाल करने में तो कोई आपत्ति नहीं है; किन्तु मैने सुना है कि पाण्डवलोग भी उधर कहीं पास ही में ठहरे हुए हैं। इसलिये मैं तुमलोगों को वहाँ जाने की अनुमति नहीं दे सकता, क्योंकि तुमने उन्हें कपट से जूए में हराया है और उन्हें वन में रहकर बहुत कष्ट भोगना पड़ा है। कर्ण ! वे लोग तब से निरंतर तप करते रहे हैं और अब सब परकार शक्ति सम्पन्न हो गये हैं। तुम तो अहंकार और मोह में चूर हो रहे हो, इसलिये उनका अपराध किये बिना मानोगे नहीं; और ऐसा होने पर वे अपने तप के प्रभाव से तुम्हे अवश्य भष्म कर देंगे। यही नहीं, उनके पास अस्त्र-शस्त्र भी है। इसलिये क्रोधित हो जाने पर वे पाँचों वीर मिलकर तुम्हे अपने शस्त्राग्नि में भी होम सकते हैं। यदि संख्या में अधिक होने के कारण किसी प्रकार तुमने ही उन्हें दबा लिया तो यह भी नीचता समझी जायगी। और मैं तो तुम्हारे लिये उनपर काबू पाना असंभव ही समझता हूँ। देखो ! अर्जुन को जिस समय दिव्य अस्त्र नहीं मिले थे, तभी उसने सारी पृथ्वी को जीत लिया था; फिर अब दिव्यास्त्र पाकर तुम्हे मार डालना उसके लिये कौन बड़ी बात है ? इसलिये मुझे स्वयं तुमलोगों का वहाँ जाना उचित नहीं जान पड़ता। गौओं की गणना के लिये कोई दूसरे विश्वासपात्र आदमी भेजे जा सकते हैं।' इसपर शकुनि ने कहा, 'राजन् ! हमलोग केवल गौओं की गणना करना चाहते हैं। पाण्डवों से मिलने का हमारा विचार नहीं है। इसलिये वहाँ हमसे कोई अभद्रता होने की सम्भावना नहीं है। जहाँ पाण्डवलोग रहते होंगे, वहाँ तो हम जायेंगे ही नहीं।' शकुनि के इस प्रकार कहने पर महाराज धृतराष्ट्र ने, इच्छा न होने पर भी , दुर्योधन को मंत्रियों सहित जाने की आज्ञा दे दी। उनकी आज्ञा पाकर राजा दुर्योधन बड़ी भारी सेना लेकर हस्तिनापुर से चला। उसके साथ दुःशासन, शकुनि, कई भाई और हजारों स्त्रियाँ थीं। उनके सिवा आठ हजार रथ, तीस हजार हाथी, हजारों पैदल और नौ हजार घोड़े भी थे तथा सैकड़ों की संख्या में बोझा ढ़ोने के छकड़े, दुकानें, बनिये और बन्दीजन भी चले। इस सब लश्कर के साथ वह जहाँ-तहाँ पड़ाव डालता घोषों के साथ पहुँच गया और वहाँ अपना डेरा लगा दिया। उसके साथियों ने भी उस सर्वगुणसम्पन्न, रमणीय, परिचित, सजल और सघन प्रदेश में अपने-अपने ठहरन की जगहें ठीक कर लीं।इस प्रकार जब सबके ठहरने का ठीक-ठाक हो गया तो दुर्योधन ने अपनी असंख्य गौओं का निरीक्षण किया और उनपर नंबर और निशानी डलवाकर सबकी अलग-अलग पहचान कर दी। फिर बछड़ों पर निशानी डलवायी और उनमें जो नाथनेयोग्य थे, उन्हें अलग बता दिया। इस प्रकार सब गाय-बछड़ों की गणना कर उनमें से तीन-तीन वर्ष के बछड़ों को अलग गिनकर वह ग्वालों के साथ आनन्द से वन में विहार करने लगा। घूमते-घूमते वह द्वैतवन के सरोवर तक पहुँचा। उस समय उसका ठाट-बाट बहुत बढ़ा-चढ़ा था। वहाँ उस सरोवर के तट पर ही धर्मपुत्र युधिष्ठिर कुटी बनाकर रहते थे। वे महारानी द्रौपदी के सहित इस समय दिव्य विधि से एक दिन में समाप्त होनेवाला राजर्षि नामक यज्ञ कर रहे थे। तभीदुर्योधन ने अपने सहस्त्रों सेवकों को आज्ञा दी कि शीघ्र ही यहाँ क्रीड़ाभवन तैयार करो। सेवकलोग राजाज्ञा को सिर पर रख क्रीड़ाभवन बनाने के विचारों से द्वैतवन के सरोवर पर गये। जब वे वन के दरवाजे में घुसने लगे तो उनके मुखिया ने गन्धर्वों को रोक दिया, क्योंकि उनके पहुँचने से पहले ही वहाँ गन्धर्वराज चित्रसेन जलक्रीड़ा करने के विचार से अपने सेवक, देवता और अप्सराओं के सहित आया हुआ था और उसी ने उस सरोवर को घेर रखा था। इस प्रकार सरोवर को घिरा हुआ देख सब दुर्योधन के पास लौट आये। उनकी बात सुनकर दुर्योधन ने कुछ रणोन्मत्त सैनिकों को यह आज्ञा देकर कि 'उन्हें वहाँ से निकाल दो' उस सरोवर पर भेजा। उन्होंने वहाँ जाकर गन्धर्वों से कहा, 'इस समय धृतराष्ट्र के पुत्र महाराज दुर्योधन यहाँ जलविहार के लिये आ रहे हैं, इसलिये तुमलोग यहाँ से हट जाओ।' राजपुरुषों की यह बात सुनकर गन्धर्व हँसने लगे और बोले, 'मालूम होता है तुम्हारा राजा दुर्योधन बड़ा ही मन्दबुद्धि है, उसे कुछ होश भी नहीं है; इसी से वह हम देवताओं पर हुकुम चलाता है। तुमलोग भी निःसंदेह बुद्धिहीन हो और मृत्यु के मुँह में जाना चाहते हो, इसी से होश की बात छोड़कर उसके कहने से ही हमारे सामने ऐसे वचन बोल रहे हो। इसलिये तुम या तो अपने राजा के पास लौट जाओ, नहीं तो इसी समय यमराज के घर की हवा खाओगे।' तब वे योद्धा इकट्ठे होकर दु्र्योधन के पास आये और गन्धर्वों ने जो-जो बातें कही थीं, वे सब दुर्योधन को सुना दीं। इससे दुर्योधन की क्रोधाग्नि भड़क उठी और उसने अपने सेनापतियों को आज्ञा दी, 'अरे ! मेरा अपमान करनेवाले इन पापियों को जरा मजा तो चखा दो। कोई परवा नहीं, वहाँ देवताओं के सहित इन्द्र ही क्रीड़ा क्यों न करता हो।' दुर्योधन की आज्ञा पाते ही धृतराष्ट्र के सभी पुत्र और सहस्त्रों योद्धा कमर कसकर तैयार हो गये और गन्धर्वों को मार-पीटकर बलात् उस वन में घुस गये। गन्धर्वों ने यह सब समाचार अपने स्वामी चित्रसेन को जाकर सुनाया। तब उसने आज्ञा दी कि जाओ, 'इन नीच कौरवों की अच्छी तरह मरम्मत कर दो।' तब वे सब अस्त्र-शस्त्र लेकर कौरवों पर टूट पड़े। कौरवों ने जब उन्हें अकस्मात् हथियार उठाये अपनी ओर आते देखा तो वे दुर्योधन के देखते-देखते इधर-उधर भाग गये। तब दुर्योधन, शकुनि, दुःशासन, विकर्ण तथा धृतराष्ट्र के कुछ और पुत्र रथों पर चढ़कर गन्धर्वों के सामने डट गये। बस, दोनो ओर सेबड़ा भीषण और रोमांचकारी युद्ध छिड़ गया। कौरवों की वाणवर्षा ने  गन्धर्वों के शिकंजे ढ़ीले कर दिये। तब गन्धर्वों को भयभीत देख चित्रसेन को क्रोध चढ़ गया और उसने कौरवों को नाश करने के लिये मायास्त्र उठाया। चित्रसेन की माया से कौरव चक्कर में पड़ गये। उस समय एक-एक कौरव वीर को दस-दस गन्धर्वों ने घेर लिया। उनकी मार से पीड़ित होकर वे रणभूमि से प्राण लेकर भागे। इस प्रकार कौरवों की सारी सेना तितर-बितर हो गयी। अकेला कर्ण ही पर्वत के समान अपने स्थान पर अचल खड़ा रहा। दुर्योधन, कर्ण और शकुनि यद्यपि बहुत घायल हो गये थे तो भी उन्होंने गन्धर्वों के आगे पीठ नहीं दिखायी। वे बराबर मैदान में डटे ही रहे। तब गन्धर्वों ने सैकड़ों और हजारों की संख्या में मिलकर अकेले कर्ण पर ही धावा बोल दिया। उन्होंने कर्ण के रथ के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। तब वह हाथ में ढ़ाल तलवार लेकर रथ से कूद पड़ा और विकर्ण के रथ पर बैठकर प्राण बचाने के लिये उसके घोड़े छोड़ दिये। अब तो दुर्योधन के देखते-देखते कौरवों की सेना भागने लगी। किन्तु और सब भाइयों के पीठ दिखाने पर भी दुर्योधन ने मुँह न मोड़ा। जब उसने देखा कि गन्धर्वों की अपार सेना उसी की ओर बढ़ रही है तो उसका जवाब उसने भीषण वाणवर्षा से ही दिया। किन्तु उस वाणवर्षा की कुछ भी परवा न कर गन्धर्वों ने उसे मार डालने के विचार से चारों ओर घेर लिया। उन्होंने अपने वाणों से उसके रथ को चूर-चूर कर दिया।इस प्रकर रथ से गिर जाने पर उसे चित्रसेन ने झपटकर जीवित ही कैद कर लिया। उसके बाद बहुत-से गन्धर्वों ने रथ में बैठे हुए दुःशासन को घेरकर पकड़ लिया। कुछ गन्धर्वों ने विन्द, अनुविन्द और समस्त राजमहिलाओं को पकड़ लिया। गन्धर्वों के आगे से भागी हुई कौरवों की सेना से सारा बचा-खुचा सामान लेकर पाण्डवों की शरण ली। तब दुर्योधन को गन्धर्वों के पंजे से छुड़ाने के लिये अत्यन्त आतुर हुए उनके मंत्रियों ने रो-रोकर धर्मराज से कहा, 'महाराज ! हमारे महाराज दुर्योधन को गन्धर्व पकड़कर लिये जाते हैं। उन्होंने दुःशासन, दुर्विषह, दुर्मुख, दुर्जय तथा सब रानियों को भी कैद कर लिया है। अतः आप उनकी रक्षा के लिये दौड़िये। दुर्योधन के उन बूढ़े मंत्रियों को इस प्रकार दीन और दुःखी होकर युधिष्ठिर के सामने गिड़गिड़ाते देख भीमसेन ने कहा, 'हम बहुत प्रयत्न करके हाथी घोड़ों से लैस होकर जो काम करते, वही आज गन्धर्वों ने कर दिया। यह बात हमारे सुनने में आयी है कि जो लोग असमर्थ पुरुषों से द्वेष करते हैं, उन्हें दूसरे लोग ही नीचा दिखाते हैं। यह बात हमें गन्धर्वों ने प्रत्यक्ष करके दिखा दी। हमलोग इस समय वन में रहकर शीत, वायु और घाम आदि सह रहे हैं तथा तप करने से हमारे शरीर बहुत कृश हो गये हैं। इस प्रकार हम इस विपरीत स्थिति में हैं और दुर्योधन समय की अनुकूलता से मौज उड़ा रहा है, सो वह दुर्मति हमें इस अवस्था में देखना चाहता था ! वास्तव में कौरवलोग बड़े ही कुटिल हैं।' जब भीमसेन कठोर स्वर से इस प्रकार कहने लगे तो धर्मराज ने कहा, 'भैया भीम ! यह समय कड़वी बातें सुनाने का नहीं है। देखो, ये लोग भय से पीड़ित होकर उसे त्राण पाने के लिये हमारी शरण में आये हैं और इस समय बड़ी विकट परिस्थिति में पड़े हुए हैं। फिर भी तुम ऐसी बातें क्यों करते हो ? कुटुम्बियों में मतभेद और लड़ाई-झगड़े होते ही रहते हैं, कभी-कभी उनमें वैर भी ठन जाता है; किन्तु जब कोई बाहर का पुरुष उनके कुल पर आक्रमण करता है तो उस तिरस्कार को वे नहीं सह सकते। समर्थ भीम ! गन्धर्वलोग बलात् दुर्योधन को पकड़कर ले गये हैं और हमारे कुल की स्त्रियाँ भी आज बाहरी लोगों के अधिकार में हैं।इस प्रकार यह हमारे कुल का ही तिरस्कार है। अतः शूरवीरों ! शरणागतों की रक्षा करने और अपने कुल की लाज रखने के लिये खड़े हो जाओ। अस्त्र-शस्त्र धारण कर लो। देरी मत करो ! अर्जुन, नकुल, सहदेव और तुम सब मिलकर जाओ और दुर्योधन को छुड़ा लाओ। देखो, कौरवों के इन सुनहरी ध्वजाओं वाले रथों में सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्र मौजूद हैं। तुम इनमें बैठकर जाओ और गन्धर्वों से लड़कर दुर्यधन को छुड़ाने के लिये सावधानी से प्रयत्न करो। अपने शरण में आये हुए की तो प्रत्येक राजा यथाशक्ति रक्षा करता है, फिर तुम तो महाबली भीम हो।भला इससे बढ़कर और क्या बात होगी कि आज दुर्योधन तुम्हारे बाहुबल के भरोसे अपने जीवन की आशा कर रहा है। हे वीर ! मैं तो स्वयं ही इस कार्य के लिये जाता; किन्तु इस समय मैने यज्ञ आरम्भ किया है, इसलिये मुझे इस समय कोई दूसरा विचार नहीं करना चाहिये। देखो, यदि वह गन्धर्वराज समझाने-बुझाने से न माने तो थोड़ा पराक्रम दिखाकर दुर्योधन को छुड़ा लाना और यदि हल्के-हल्का युद्ध करने पर भी वह न छोड़े तो किसी भी प्रकार उसे दबाकर दुर्योधन को मुक्त कर देना।' धर्मराज की यह बात सुनकर अर्जुन ने प्रतिज्ञा की कि 'यदि गन्धर्वलोग समझाने-बुझाने से कौरवों को नहीं छोड़ेंगे तो आज पृथ्वी गन्धर्वराज का रक्तपात करेगी।' सत्यवादी अर्जुन की ऐसी प्रतिज्ञा सुनकर कौरवों के जी-में-जी आया।

Thursday 10 December 2015

वनपर्व---द्रौपदी का सत्यभामा को उपदेश तथा सत्यभामा की विदाई

द्रौपदी का सत्यभामा को उपदेश तथा सत्यभामा की विदाई
द्रौपदी ने कहा---सत्ये ! मैं पति के चित्त को अपने वश में करने का यह निर्दोष मार्ग बताती हूँ। यदि तुम इसपर चलोगी तो स्वामी के मन को अपनी ओर खींच लोगी। स्त्री के लिये इसलोक या परलोक में पति के समान कोई दूसरा देवता नहीं है; उसकी प्रसन्नता होने पर वह सब प्रकार के सुख पा सकती है और असंतुष्ट होने पर अपने सब सुखों को मिट्टी में मिला देती है। सुख के द्वारा सुख कभी नहीं मिल सकता, सुखप्राप्ति का साधन तो दुःख ही है। अतः तुम सुहृदता, प्रेम, परिचर्या, कार्यकुशलता तथा तरह-तरह के पुष्प और चन्दनादि से श्रीकृष्ण की सेवा करो तथा जिस प्रकार वे यह समझें कि मैं इसे प्यारा हूँ, तुम वही काम करो। जब तुम्हारे कान में पतिदेव के आने की आवाज पड़े तो तुम आँगन में खड़ी होकर उनके स्वागत के लिये तैयार रहो और जब वे भीतर आ जायँ तो तुरन्त ही आसन और पैर धोने के लिये जल देकर उनका सत्कार करो। यदि वे किसी काम के लिये दासी को आज्ञा दें तो तुम स्वयं ही उठकर उनके सब काम करो। श्रीकृष्णचन्द्र को ऐसा मालूम होना चाहिये कि तुम सब प्रकार से उन्हें ही चाहती हो। तुम्हारे पति तुमसे कोई ऐसी बात कहें कि जिसे गुप्त रखना आवश्यक न हो तो भी तुम उसे किसी से मत कहो। पतिदेव के जो प्रिय, स्नेही और हितैषी हों उन्हें तरह-तरह के उपायों से भोजन कराओ तथा जो उनके शत्रु, उपेक्षनीय एवं अशुभचिंतक हों अथवा उनके प्रति कपटभाव रखते हों, उनसे सर्वदा दूर रहो। जो अत्यन्त कुलीन, दोषरहित और सती हों, उन्हीं स्त्रियों से तुम्हारा प्रेम होना चाहिये; क्रूर, लड़ाकी, पेटू, चोरी की आदतवाली, दुष्टा और चंचल स्वभाववाली स्त्रियों से सर्वदा दूर रहो। इस प्रकार तुमसब तरह अपने पतिदेव की सेवा करो। इससे तुम्हारे यश और सौभाग्य की वृद्धि होगी, अन्त में स्वर्ग मिलेगा और तुम्हारे विरोधियों का अन्त हो जायगा। इस समय भगवान् श्रीकृष्ण मार्कण्डेय आदि मुनियों और महात्मा पाण्डवों के साथ तरह-तरह की बातें कर रहे थे। जब वे द्वारका चलने के लिये रथ में चढ़ने लगे तो उन्होंने सत्यभामा को बुलाया। तब सत्यभामाजी ने द्रौपदी से गले मिलकर अपने विचार के अनुसार बहुत सी ढ़ाढ़स बँधानेवाली बातें कहीं। वे बोलीं, 'कृष्णे ! तुम चिन्ता न करो, व्याकुल मत होओ। तुम्हारे देवतुल्य पति फिर अपना राज्य प्राप्त करेंगे। तुम्हारे समान शीलसम्पन्न और आदरणीय महिलाएँ, अधिक दिन दुःख नहीं भोगा करतीं। मैने महापुरुषों के मुँह से सुनी है कि तुम अवश्य ही निष्कण्टक होकर अपने पतियों के सहित इस पृथ्वी पर राज्य करोगी। इस प्रकार बहुतसी प्रिय, सत्य, आनन्ददायिनी और मनोनुकूल बातें कहकर सत्यभामाजी ने श्रीकृष्ण के रथ की ओर जाने का विचार किया। उन्होंने द्रौपदी की परिक्रमा की और फिर रथ पर चढ़ गयीं। श्रीकृष्ण ने मुस्कराकर द्रौपदी को धीरज बँधाया फिर पाण्डवों को लौटाकर घोड़ों को तेज कर द्वारकापुरी को चले।

वनपर्व--द्रौपदी का सत्यभामा को अपनी चर्या सुनाना-

द्रौपदी का सत्यभामा को अपनी चर्या सुनाना
एक दिन महात्मा पाण्डव आश्रम में बैठे थे। उसी समय प्रियवादिनी द्रौपदी और सत्यभामा भी आपस में मिलकर एक जगह बैठीं। उन दोनो की भेंट बहुत दिनों पर हुई थी। इसलिये वे प्रेमपूर्वक आपस में हँसी करने लगीं औरकुरुकुल और यदुकुल से सम्बद्ध तरह-तरह की बातें करने लगीं। इसी समय श्रीकृष्ण की प्रेयसी महारानी सत्यभामा ने द्रुपदनन्दनी कृष्णा से कहा, 'बहिन ! तुम्हारे पति पाण्डवलोग लोकपालों के समान शूरवीर और सुदृढ़ शरीरवाले हैं; तुम उनके साथ किस प्रकार का बर्ताव करती हो, जिससे कि वे कुपित नहीं होते और सर्वदा तुम्हारे अधीन रहते है ? प्रिये ! मैं देखती हूँ कि पाण्डवलोग सर्वदा तुम्हारे वश में रहते हैं और तुम्हारा मुँह ताका करते हैं; सो यह रहस्य मुझे भी बताओ न। पांचाली ! तुम मुझे भी कोई ऐसा व्रत, तप, स्नान, मंत्र, औषधि, विद्या और यौवन का प्रभाव तथा जप, होम या जड़ी-बूटी बताओ, जो यश और सौभाग्य की वृद्धि करनेवाला हो और जिससे सर्वदा ही श्यामसुन्दर मेरे अधीन रहें।' ऐसा कहकर यशस्विनी सत्यभामा चुप हो गयी। तब पतिपायणा सौभाग्यवती यशस्विनी द्रौपदी ने उससे कहा--- 'सत्ये ! तुम तो मुझसे दुराचारिणी स्त्रियों के आचरण की बात पूछ रही हो। भला, उन दूषित आचरणवाली स्त्रियों के मार्ग की बात मैं कैसे कहूँ ? उनके विषय में तो तुम्हारा प्रश्न करना या शंका करना भी उचित नहीं है; क्योंकि तुम बुद्धिमती और श्रीकृष्ण की पट्टमहिषी हो। जब पति को यह मालूम हो जाता है कि गृहदेवी उसे काबू में करने के लिये किसी मंत्र-तंत्र का प्रयोग कर रही है तो वह उससे उसी प्रकार दूर रहने लगता है, जैसे घर में घुसे हुए साँप से। इस प्रकार जब चित्त में उद्वेग हो ाता है तो शान्ति कैसे रह सकती है, और जो शान्त नहीं है उसे सुख कैसे मिल सकता है। अतः मंत्र-तंत्र से कभी भी पति अपनी पत्नी के वश में नहीं हो सकता। इसके विपरीत इससे कई प्रकार के अनर्थ हो जाते हैं। धूर्त लोग जन्तर-मन्तर के बहाने ऐसी चीजें दे देते हैं, जिससे भयंकर रोग पैदा हो जाते हैं तथा पति के शत्रु इसी मिससे विष तक दे डालते हैं। वे ऐसे चूर्ण होते हैं कि जिन्हें पति जिह्वा या त्वचा से भी स्पर्श कर ले तो वे निःसंदेह उसी क्षण सबको मार डाले। ऐसी स्त्रियाँ अपने-अपने पतियों को तरह-तरह के रोग का शिकार बना देती हैं। वे उनकी कुमति से जलोदर, कोढ़, बुढ़ापे, नपुंसकता, जड़ता और बधिरता आदि के पंजों में पड़ जाते हैं। इस प्रकार पापियों की बातें माननेवाली ये पापिनी नारयाँ अपने पतियों को तंग कर डालती हैं। किन्तु स्त्री को तो कभी किसी प्रकार अपने पति का अप्रिय नहीं करना चाहिेये। यशस्विनी सत्यभामे ! महात्मा पाण्डवों के प्रति मैं जिस प्रकार का आचरण करती हूँ, वह सब सच-सच सुनाती हूँ; तुम सुनो। मैं अहंकार और काम-क्रोध को छोड़कर बड़ी सावधानी से सब पाण्डवों की, उनकी अन्यान्य स्त्रियों सहित सेवा करती हूँ।मैं ईर्ष्या से दूर रहती हूँ और मन को काबू में रखकर केवल सेवा की इच्छा से ही अपने पतियों का मन रखती हूँ। यह सब करते हुए भी मैं अभिमान को अपने पास नहीं फटकने देती। मैं कटु-भाषण से दूर रहती हूँ, असभ्यता से खड़ी नहीं होती, खोटी बातों पर दृष्टि नहीं डालती, बुरी जगह पर नहीं बैठती, दूषित आचरण के पास नहीं फटकती तथा उनके अभिप्रायपूर्ण संकेत का अनुकरण करती हूँ। देवता, मनुष्य, गन्धर्व, युवा, सजधजवाला, धनी अथवा रूपवान्--कैसा ही पुरुष हो, मेरा मन पाण्डवों के सिवा और कहीं नहीं जाता। अपने तयों के भोजन किये बिना मैं भोजन नहीं करती, स्नान किये बिना स्नान नहीं करती और बैठे बिना स्वयं नहीं बैठती। जब-जब मेरे पति घर में आते हैं, तभी मैं खड़ी होकर आसन जल देकर उनका सत्कार करती हूँ। मैं स्वच्छ रसोई में मधुर व्यंजन तैयार करती हूँ और समय पर भोजन कराती हूँ। सदा सावधान रहती हूँ। गुप्त रूप से अाज का संचय रखती हूँ और घर को साफ रखती हूँ। मैं बातचीत में किसी का तिरस्कार नहीं करती, कुलटा स्त्रियों के पास नहीं फटकती और सदा ही पतयों के अनुकूल रहकर आलस्य से दूर रहती हूँ। मैं दरवाजे पर बार-बार जाकर खड़ी नहीं होती तथा खुली और कूड़ा-करकट डालने की जगह भी नहीं ठहरती, किन्तु सदा ही सत्यभाषण और पतिसेवा में तत्पर रहती हूँ। पतिदेव के बिना अकेली रहना मुझे बिलकुल पसंद नहीं है। जब किसी कौटुम्बिक कार्य से पतिदेव बाहर जाते हैं तो मैं पुष्प और चन्दनादि को छोड़कर नियम और व्रतों का पालन करते हुए रहती हूँ। मेरे पति जिस चीज को नहीं खाते, नहीं पीते अथवा सेवन नहीं करते, उससे मैं भी दूर रहती हूँ। स्त्रियों के लिये शास्त्र ने जो-जो बातें बतायी हैं, उन सबका मैं पालन करती हूँ। शरीर को यथा प्राप्त वस्त्रालंकारों से सुसज्जित रखती हूँ तथा सर्वदा सावधान रहकर पतिदेव का प्रिय करने में तत्पर रहती हूँ। सासजी ने मुझे कुटुम्बसंबंधी जो-जो धर्म बताये हैं, उन सबका मैं पालन करती हूँ। भिक्षा देना, पूजन, श्राद्ध, त्योहारों पर पकवान बनाना, माननीयों का सत्कार करना तथा और भी जो-जो धर्म मेरे लिेये विहित है, उन सभी का सावधानी से दिन-रात आचरण करती हूँ। मैं विनय औरनियमों को सर्वदा सब प्रकार अपनाये रहती हूँ। मेरे पति मृदुलचित्त, सरल स्वभाव, सत्यनिष्ठ और सत्यधर्म का ही पालन करनेवाले हैं। मैं सर्वदा साधान रहकर उनकी सेवा में तत्पर रहती हूँ। मरे विचार से तो स्त्रियों का सनातन धर्म पति के अधीन रहना ही है, वही उनका इष्टदेव है और वही आश्रय है। मैं अपने पतियों से बढ़कर कभी नहीं रहती, उनसे अच्छा भोजन नहीं करती, उनकी अपेक्षा बढ़िया वस्त्राभूषण नहीं पहनती और न कभी सासजी से ही वाद-विवाद करती हूँ, तथा सदा ही संयम का पालन करती हूँ। मैं सावधानी से सर्वदा अपने पतियों से पहले उठती हूँ तथा बड़े-बूढ़े की सेवा में लगी रहती हूँ। इसी से मेरे पति मेरे वश में रहते हैं। वीरमाता, सत्यवादिनी, आर्या कुन्ती की मैं भोजन, वस्त्र और जल आदि से सदा ही सेवा करती रहती हूँ। वस्त्र, आभूषण और भोजनादि में मैं कभी भी उनकी अपेक्षा अपने लिये कोई विशेषता नहीं रखती। पहले महाराज युधिष्ठिर के महल में नित्य प्रति आठ हजार लोग सुवर्ण पात्रों में भोजन किया करते थे। महाराज युधिष्ठिर अठ्ठासी हजार गृहस्थों का भरण-पोषण करते थे और उनके दस हजार दासियाँ थीं। मझे उनके नाम, रूप, भोजन, वस्त्र--सभी बातों का पता रहता था और इस बात की निगाह रहती थी कि किसने क्या काम किया है और क्या नहीं किया। जिस समय इन्द्रप्रस्थ में रहकर महाराज युधिष्ठिर पृथ्वी-पालन करते थे, उस समय उनके साथ एक लाख घोड़े और एक लाख हाथी चलते थे। उनकी गणना का प्रबंध मैं ही करती थी और मैं ही उनकी आवश्यकताएँ सुनती थी। अन्तःपुर के ग्वालों और गड़रियों से लेकर सभी सेवकों के कामकाज की देखरेख भी मैं ही किया करती थी। महाराज की जो कुछ आमदनी, व्यय और बचत होती थी, उन सबका विवरण मैं अकेली ही रखती थी। पाण्डवलोग कुटुम्ब का सारा भार मेरे ऊपर छोड़कर पूजा-पाठ में लगे रहते थे और आये-गयों का स्वागत-सत्कार करते थे, और मैं सब प्रकार के सुख छोड़कर उसकी सँभाल करती थी। मेरे धर्मात्मा पतियों का जो वरुण के भंडार के समान अटूट खजाना था, उसका पता भी एक मुझही को था। मैं भूख-प्यास को सहकर रात-दिन पाण्डवों की सेवा में लगी रहती। उस समय रात और दिन मेरे लिये समान हो गये थे। मेरी यह बात सुन सच मानो कि मैं सदा ही सबसे पहले उठती थी और सबसे पीछे सोती थी। पतियों को वश में करने का मुझे तो यही उपाय मालूम हैं, दुष्टा स्त्रियोंके-से आचरण न तो मैं करती हूँ और न मुझे अच्छे ही लगते हैं। द्रौपदी की ये धर्मयुक्त बातें सुनकर सत्यभामा ने उसका आदर करते हुए कहा, 'पांचाली ! मेरी एक प्रार्थना है, तुम मेरे कहे-सुने को क्षमा करना। सखियों में तो जान बूझकर भी ऐसी हँसी की बातें कह दी जाती हैं।

Wednesday 9 December 2015

वनपर्व---श्रीकार्तिकेयजी के उदार कर्म और नाम

श्रीकार्तिकेयजी के उदार कर्म और नाम
मार्कण्डेयजी कहते हैं---राजन् ! कार्तिकेय को श्रीसम्पन्न और देवताओं का सेनापति हुआ देख सप्तर्षियों की छः पत्नियाँ उनके पास आयीं। वे धर्मयुक्ता और व्रतशीला थीं, फिर भी ऋषियों ने उन्हें त्याग दिया था। उन्होंने देवसेना के स्वामी कार्तिकेय से कहा, 'बेटा ! मारे देवतुल्य पतियों ने अकारण ही हमारा त्याग कर दिया है, इसलिये हम पुण्यलोक से च्युत हो गयीं हैं। उन्हें किसी ने यह समझा दिया है कि हमसे ही तुम्हारा जन्म हुआ है। अतः हमारी सच्ची बात सुनकर तुम हमारी रक्षा करो। तुम्हारी कृपा से हमें अक्षय स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है। इसके सिवा हम तुम्हें अपना पुत्र भी बनाना चाहती हैं।' स्कन्द ने कहा, 'निर्दोष देवियों ! आप मेरी माताएँ हैं और मैं आपका पुत्र हूँ। इसके सिवा आपकी यदि कोई और इच्छा हो तो वह भी पूर्ण हो जायगी।' जब कार्तिकेयजी ने अपनी माताओं का इस प्रकार प्रिय किया तो स्वाहा ने भी उनसे कहा, 'तुम मेरे औरस पुत्र हो। मैं चाहती हूँ कि तुम मेरा अत्यन्त दुर्लभ प्रिय कार्य करो।' तब स्कन्द ने उससे कहा, 'तुम्हारी क्या इच्छा है ?' स्वाहा बोली, 'मैं दक्ष-प्रजापति की लाडिली कन्या हूँ। बचपन से ही अग्निदेव पर मेरा अनुराग है। किनतु अग्नि को पूर्णतया मेरे प्रेम का पता नहीं है।मैं निरन्तर उन्हीं के साथ रहना चाहती हूँ।' तब स्कन्द ने कहा, 'ब्राह्मणों के हव्य कव्यादि जो भी पदार्थ मंत्रों से शुद्ध किये हुए होंगे, उन्हें वे 'स्वाहा' ऐसा कहकर ही अग्नि में हवन करेंगे। कल्याणी ! इस प्रकार अग्निदेव सर्वदा तुम्हारे साथ ही रहेंगे। स्कन्द ने ऐसा कहकर फिर स्वाहा का पूजन किया। इससे उसे बड़ा संतोष हुआ और फिर अग्नि से संयुक्त हो उसने स्कन्द का पूजन किया। तदनन्तर ब्रह्माजी ने स्कन्द से कहा, 'तुम अपने पिता त्रिपुरविनाशक महादेवजी के पास जाओ, क्योंकि संपूर्ण लोकों के हित के लिेये गगवान् रुद्र ने अग्निमें और उमा ने स्वाहा में प्रवेश करके तुम्हे उ्पन्न किया है।' ब्रह्माजी की बात सुकर श्रीकार्तिकेयजी 'तथास्तु' ऐसा कहकर श्रीमहादेवजी के पास चले गये। मार्कण्डेयजी कहते हैं---जिस समय इन्द्र ने अग्निकुमार कार्तिकेय को सेनापति के पद पर अभिषिक्त किया, उस समय भगवान् शंकर अत्यन्त प्रसन्न होकर पार्वतीजी के सहित एक सूर्य के समान कान्तिवाले रथ में बैठकर भद्रवट को चले। उस समय गुह्यकों के सहित श्रीकुबेरजी पुष्पक विमान में बैठकर उनके आगे चलते थे। इन्द्र ऐरावत पर चढ़कर देवताओं के सहित उनके पीछे चलते थे। उनकी दाहिनी ओर वसु और रुद्रों के सहित अनेकों अद्भुत देवसेनानी थे। यमराज भी मृत्यु के सहित उन्हीं के साथ थे। यमराज के पीछे भगवान् शंकर का अत्यन्त दारुण तीन नोकोंवाला विजय नाम का त्रिशूल चलता था। उसके पीछे तरह-तरह के जलचरों से घिरे हुए जलाधीश वरुणजी चल रहे थे। उस समय चन्द्रमा ने महादेवजी के ऊपर श्वेत छत्र लगाया। वायु और अग्नि चँवर  लिये स्थित थे। उनके सहित राजर्षियों सहित देवराज इन्द्र स्तुति करते चलते थे। तब महादेवजी ने बड़ी उदारता से कार्तिकेयजी ने कहा, 'तुम सर्वदा सावधानी से व्यूह की रक्षा करना।' स्कन्द ने कहा, 'भगवन् ! मैं उसकी रक्षा अवश्य करूँगा। इसके सिवा कोई और सेवा हो तो कहिये।' श्रीमहादेवजी बोले बोले, बेटा ! काम करने के समय भी तुम मुझसे मिलते रहना। मेरे दर्शन और भक्ति से तुम्हारा परम कल्याण होगा। ऐसा कहकर उन्होंने कार्तिकेयजी को हृदय से लगाकर विदा किया। उनके विदा होते ही बड़ा भारी उत्पात होने लगे।उससे समस्त देवगण सहसा मोह में पड़ गये। नक्षत्रों के सहित आकाश जलने लगा, संसार मुग्ध सा हो गया, पृथ्वी डगमगाने और गड़गड़ाने लगी, जगत् में अंधकार छा गया। इतने में ही वहाँ पर्वत और मेघों के समान अनेकों प्रकार के आयुधों से सुसज्जित बड़ी भयानक सेना दिखायी दी। वह बड़ी ही भीषण और असंख्येय थी तथा अनेक प्रकार से कोलाहल कर रही थी। वह विकट वाहिनी सहसा भगवान् शंकर और समस्त देवताओं पर टूट पड़ी तथा अनेकों प्रकार के बाण, पर्वत, प्रास, तलवार, परिघ और गदाओं की वर्षा करने लगी। उन भयंकर शस्त्रों की वर्षा से व्यथित होकर थोड़ी ही देर में देवताओं की सेना संग्राम छोड़कर भागने लगी। दानवों से पीड़ित होकर अपनी सेना को भागती देख देवराज इन्द्र ने उसे ढ़ाढ़स बँधाकर कहा, 'वीरों ! भय छोड़कर अपने अस्त्र संभालो, तुम्हारा मंगल होगा। जरा पराक्रम दिखाने का साहस करो, तुम्हारा सब दुःख दूर हो जायगा। इन भयानक और दुःशील दानवों को परास्त कर दो। आओ, मेरे साथ मिलकर इनपर टूट पड़ो।' इन्द्र की बात सुनकर देवताओं को धीरज बँधा और वे इन्द्र का आश्रय लेकर दानवों से युद्ध करने लगे। तब वे समस्त देवता और महाबली मरुत, साध्य एवं वसुगण भी शत्रुओं से भिड़ गये और उनके छोड़े हुए वाण दैत्यों के शरीर का भरपेट रुधिर पान करने लगे। वाणों की वर्षा से दानवों के शरीर छलनी हो गये और छितराये हुए बादलों के समान रणभूमि में सब ओर गिरने लगे। इस प्रकार देवताओं ने उस दानवसेना को अनेकों प्रकार के वाणों से व्यथित कर डाला और उसके पैर उखाड़ दिये। इतने में ही महिष नाम का एक दारुण दैत्य बड़ा भारी पर्वत लेकर देवताओं की ओर दौड़ा। उसे देखकर देवता भागने लगे। किन्तु उसने पीछा करते हुए देवताओं पर वह पहाड़ पटक दिया। उसके प्रहार से दस हजार योद्धा धराशायी हो गये। फिर महिषासुर दूसे दानवों के सहित देवताओं पर टूट पड़ा। उसे अपने ओर आते देख इन्द्र के सहित सभी देवगण भागने लगे। तब क्रोधातुर महिषासुर फुर्ती से भगवान रुद्र के रथ के पास पहुँचा और उसका धुरा पकड़ लिया। यह देखकर श्रीमहादेवजी ने महिषासुर के संहार का संकल्प कर उसके कालरूप श्रीकार्तिकेयजी का स्मरण किया। बस, उसी समय कान्तिवान् कार्तिकेय रणभूमि में उपस्थित हो गये। वे लाल वस्त्र पहने हुए थे, उनके गले में लाल रंग की मालाएँ थीं, उनके रथ के घोड़े लाल थे, वे सुवर्ण का कवच धारण किये थे तथा सूर्य के समान सुनहरी कान्तिवाले रथ में विराजमान थे। उन्हें देखते ही दैत्यों की सेना मैदान छोड़कर भागने लगी। महाबली कार्तिकेयजी ने महिषासुर का नाश करने के लिये एक प्रज्जवलित शक्ति छोड़ी। उसने छूटते ही उसका विशाल मस्तक काट डाला। सिर कटते ही महिषासुर प्राणहीन होकर गिर गया। महिषासुर के पर्वतसदृश सिर ने गिरकर उत्तरकुरुदेश का सोलह योजन चौड़ा मार्ग रोक लिया। इस प्रकार वह शक्ति बार-बार छोड़े जाने पर सहस्त्रों शक्तियों का संहार करके फिर कार्तिकेयजी के ही हाथ में लौट आती थी। इसी क्रम से कीर्तिमान कार्तिकेयजी ने अपने समस्त शत्रुओं को परास्त कर दिया---जैसे कि सूर्य अंधकार को, अग्नि वृक्षों को और वायु मेघों को नष्ट कर देता है। फिर उन्होंने भगवान् शंकर को प्रणाम किया और देवताओं ने उनका पूजन किया। इससे वे किरणजालमण्डित सूर्य के समान सुशोभित हुए। तब इन्द्र ने उन्हें आलिंगन करके कहा, 'कार्तिकेयजी ! यह महिषासुर ब्रह्माजी से वर प्राप्त किये हुये था, इसलिये सब देवता इसके लिये तृण के समान थे; सो आज आपने इसका वध कर दिया। इस प्रकार आपने देवताओं का एक बड़ा भारी काँटा निकाल दिया। देव ! आप भगवान् शंकर के समान ही संग्राम में अजेय होंगे और यह आपका प्रथम पराक्रम प्रसिद्ध होगा। तीनों लोकों में आपकी अक्षय कीर्ति फैल जायगी और सब देवता आपके अधीन रहेंगे।' कार्तिकेयजी से ऐसा कहकर देवताओं सहित इन्द्र भगवान शिव की आज्ञा पाकर वहाँ से चल दिये। फिर महादेवजी ने अन्य देवताओं से कहा, 'तुम सब कार्तिकेय को मेे समान ही मानना।' ऐसा कहकर शिवजी भद्रवट को चले गये और देवता अपने-अपने स्थानों को लौट आये। अग्निकुमार कार्तिकेय ने एक ही दिन में समस्त दानवों का संहार करके त्रिलोकी को जीत लिया। युधिष्ठिर बोले, द्विजवर ! मैं भगवान् कार्तिकेयजी का तीनों लोकों में विख्यात् नाम सुनना चाहता हूँ। मार्कण्डेयजी ने कहा---सुनिये ! आग्नेय, स्कन्द, दीप्तकीर्ति, अनामय, मयूरकेतू, भूतेश, महिषमर्दन, कामजित्, कामद, कान्त, सत्यवाक्, भुवनेश्वर, शिशु, शीघ्र, शुचि, चण्ड, दीप्तवर्ण, शुभानन, अमोघ, अनघ, रौद्र, चन्द्रानन, प्रिय, दीप्तशक्ति,प्रशान्तात्मा, भद्रकृत,कूटमोहन, षष्ठीप्रिय, धर्मात्मा, पवित्र, मातृवत्सल, कन्याभर्ता, विभक्त, स्वाय, रेवतीसुत, प्रभु, नेता, विशाख, नैगमेय, सुव्रत, ललित, ब्रह्मचारी, शूर, देवसेनाप्रिय, वासुदेवप्रिय और प्रियकृत---ये कार्तिकेयजी के दिव्य नाम हैं। जो इसका पाठ करता है वह निःसंदेह स्वर्ग, कीर्ति और धन प्राप्त करता है।