Tuesday 25 September 2018

भगीरथ, दिलीप, मान्धाता, ययाति, अम्बरीष और शाशबिन्दु की मृत्यु का दृष्टांत

नारदजी ने पुनः कहा___सृंजय ! राजा भगीरथ की मृत्यु होने की बात सुनी गयी है। उन्होंने यज्ञ करते समय गंगा के दोनों किनारों पर सोने की ईंटों के घाट बनवाये थे तथा सोने के आभूषणों से विभूषित दस लाख कन्याएँ ब्राह्मणों को दान की थीं। सभी कन्याएँ रथों में बैठी थीं, सभी रथों में चार_चार घोड़े जुते थे। प्रत्येक रथ के पीछे सौ_सौ हाथी सुवर्ण का मालाएँ  पहने चलते थे। एक_एक हाथी के पीछे हजार_हजार  घोड़े, प्रत्येक घोड़े के साथ सौ_सौ गौएँ और गौओं के पीछे बकरी और भेडों के झुण्ड थे। इस प्रकार उन्होंने बहुत_सी दक्षिणा दी थी। गंगाजी भीड़_ भाड़ से घबराकर ‘मेरी रक्षा करो’ कहती हुई भगीरथ के गोद में जा बैठीं। इससे वे उनकी पुत्री हुईं और उनका नाम भागीरथी पड़ा। गंगादेवी ने भी उन्हें पिता कहकर पुकारा था। जिस ब्राह्मण ने जब_जब जिस_जिस अभीष्ट वस्तु की इच्छा की, जितेन्द्रिय राजा ने प्रसन्नतापूर्वक वह_वह वस्तु उसे तत्काल अर्पण की। राजा भगीरथ ब्राह्मणों की कृपा से ब्रह्मलोक को प्राप्त हुए। सृंजय ! वे तुमसे और तुम्हारे पुत्र से सर्वथा बढ़े_ चढ़े थे। जब वे भी यहाँ नहीं रहे तो औरों की तो बात ही क्या है ? इसलिये तुम्हें अपने पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये। राजा दिलीप भी मरे थे जिनके सौ यज्ञों में लाखों तत्वज्ञानी एवं याग्यिक ब्राह्मण नियुक्त हुए थे। उन्होंने यज्ञ करते समय धन_धान्य से सम्पन्न यह सारी पृथ्वी ब्राह्मणों को दान कर दी थी। राजा दिलीप के यज्ञों में सोने की सड़कें बनायी गयी थीं। इन्द्र आदि देवता उन्हें धर्म के समान मानकर उनके यज्ञ में पधारे थे। उनका सुवर्णमय सभाभवन सदा देदीप्यमान रहता था।  अन्न के पहाड़ लगे हुए थे। सोने के बने हुए हजारों यूप थे। वहाँ गन्धर्वराज विश्वावसु बड़ी प्रसन्नता के साथ वीणा बजाते थे। सभी प्राणी उन सत्यवादी राजा का सम्मान करते थे। एक बात उनके यहाँ सबसे अद्भुत थी, जो अन्य राजाओं के यहाँ नहीं है____राजा दिलीप जल में भी जाते तो उनके रथ के पहिये नहीं डूबते थे। उन सत्यवादी तथा उदार नरेश का जो दर्शन कर लेते थे, वे भी स्वर्गलोककेे अधिकारी हो जाते थे। खद्वांग ( दिलीप ) के घर ये पाँच प्रकार के शब्द कभी बन्द नहीं होते थे___ स्वाध्याय की आवाज, धनुष की टंकार और अतिथियों के लिये ‘ खाओ, पीओ तथा भिक्षा ग्रहण करो'___ये तीन वाक्यों की घोषणा। सृंजय ! वे राजा तुमसे और तुम्हारे पुत्र से बहुत बढ़_चढ़कर थे, किन्तु वे भी जीवित न रह सके। फिर तुम अपने पुत्र के लिये क्यों शोक करते हो ? युवनाश्र्व के पुत्र मान्धाता की भी मृत्यु सुनी गयी है। वे देवता, असुर और मनुष्य___ तीनों लोकों में विजयी थे। एक समय की बात है, राजा युवनाश्र्व वन में शिकार खेलने गये। वहाँ उनका घोड़ा थक गया और उन्हें भी बहुत प्यास लगी। इतने में उन्हें दूर से धुआँ दिखायी पड़ा, उसी को लक्ष्य करके ले यज्ञमण्डप में जा पहुँचे। वहाँ एक पात्र में घृतमिश्रित जल रखा हुआ था; राजा ने उसे पी लिया। पेट में जाते ही वह मन्त्रपूत जल बालक के रूप में परिणत हो गया। इसके लिये वैद्यशिरोमणि अश्विनीकुमार बुलाये गये। उन्होंने उस गर्भ से बालक को निकाला। वह देवता के समान तेजस्वी था। उसे अपने पिता की गोद में शयन करते देख देवताओं ने आपस में कहा___’यह किसका दूध पियेगा ?’ यह सुनकर इन्द्र ने सबसे पहले कहा___’मां धाता___मेरा दूध पियेगा।‘ उसी समय इन्द्र की अंगुलियों से घी और दूध की धारा बहने लगी। चूँकि इन्द्र ने दयावशीभूत होकर ‘मां धाता’ कहा था, इसलिये उसका नाम मान्धाता पड़ गया। इन्द्र के हाथ से घी और दूध पीकर वह प्रतिदिन बढ़ने लगा। बारह दिनों में ही वह बालक बारह वर्ष का हो गया। राजा होने पर मान्धाता ने संपूर्ण पृथ्वी को एक ही दिन में जीत लिया था। वे धर्मात्मा, धैर्यवान्, वीर, सत्यप्रतिज्ञ और जितेन्द्रिय थे। उन्होंने जन्मेजय, सुधन्वा,  गय, पूरु, बृहद्रथ, असित और  नृग को भी जीत लिया था। सूर्य जहाँ से उदय होते थे और जहाँ जाकर अस्त होते थे, वह सब_का_सब क्षेत्र मान्धाता का राज्य कहलाता था। मान्धाता ने सौ अश्वमेध और सौ राजसूय यज्ञ किये थे। उन्होंने सौ योजनों के विस्तार का मत्स्यदेश ब्राह्मणों को दे दिया था। उनके यज्ञ में मधु तथा दूध बहानेवाली नदियाँ अन्न के पर्वतों को चारों ओर से घेरकर बहती थीं। उन नदियों के भीतर घी के कई कुण्ड थे। दही उनके फेन_सा दिखायी देता था। गुड़ का रस ही उनका जल था। उस राजा के यज्ञ में देवता, असुर, मनुष्य, यक्ष, गन्धर्व, सर्प, पक्षी, ऋषि तथा श्रेष्ठ ब्राह्मण पधारे थे। मूर्ख तो वहाँ एक भी नहीं था। उन्होंने धन_धान्य से सम्पन्न समुद्रतक की पृथ्वी ब्राह्मणों के अधीन कर दी थी और फिर समय आने पर स्वयं ही इस लोक से अस्त हो गये थे। सम्पूर्ण दिशाओं में अपना सुयश फैलाकर वे पुण्यवानों के लोक में पहुँच गये। सृंजय ! वे भी तुमसे और तुम्हारे पुत्र से सर्वथा श्रेष्ठ थे। जब वे भी मृत्यु से नहीं बच सके तो दूसरों की क्या बात है ! अतः तुम्हें अपने पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये।
नहुषनन्दन ययाति की मृत्यु भी सुनी गयी है। उन्होंने सौ राजसूय, सौ अश्वमेध, हजार पुण्डरीक  याग तथा चातुर्मास्य और अग्निष्ठोम आदि नाना प्रकार के यज्ञ किये थे और इनमें ब्राह्मणों को बहुत दक्षिणा दी थी। परम पवित्र सरस्वती नदी ने, समुद्रों ने तथा पर्वतों सहित अन्यान्य सरिताओं ने यज्ञ करनेवाले ययाति को घी और दूध प्रदान किया था। नाना प्रकार के यज्ञों से परमात्मा का पूजन करके उन्होंने पृथ्वी के चार भाग किये और उन्हें ऋत्विज, अध्वर्यु, होता तथा उद्गाता___ इन चारों को बाँट दिया। फिर देवयानी और शर्मिष्ठा से उत्तम संतानें उत्पन्न की। जब भोगों से उन्हें शान्ति नहीं मिली तो निम्नांग्कित गाथा का जानकर उन्होंने अपनी धर्मपत्नी के साथ वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश किया। वह गाथा इस प्रकार है___’इस पृथ्वी पर जितने भी धान, जौ, सुवर्ण, पशु  आदि भोग्य पदार्थ हैं, वे सब एक मनुष्य को भी संतोष कराने के लिये पर्याप्त नहीं हैं___ऐसा विचारकर मन को शान्त करना चाहिये।‘
इस प्रकार राजा ययाति ने धैर्य के साथ कामनाओं का त्याग किया और अपने पुत्र पुरु को राजसिंहासन पर बिठाकर वे वन में चले गये। सृंजय ! वे भी तुमसे और तुम्हारे पुत्र से बढ़े_चढ़े थे। जब वे भी मर गये तो तुम्हें भी अपने मरे हुए पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये।
सुना है, नाभाग के पुत्र अम्बरीष भी मृत्यु को प्राप्त हुए थे। उन्होंने अकेले ही दस लाख योद्धाओं से युद्ध किया था। एक समय की बात है, राजा के शत्रुओं ने उन्हें युद्ध में जीतने की इच्छा से आकर चारों ओर ये घेर लिया। वे सब_के_सब अस्त्रयुद्ध के ज्ञाता थे और राजा के प्रति अशुभ वचनों का प्रयोग कर रहे थे। तब अम्बरीष ने अपने शरीरबल, अस्त्रबल, हस्तलाघव और युद्ध संबंधी शिक्षा के द्वारा शत्रुओं के छत्र, आयुध, ध्वजा और रथों के टुकड़े_टुकड़े कर डाले। फिर तो वे अपने प्राण बचाने के लिये प्रार्थना करने लगे और ‘हम आपकी शरण में हैं’ ऐसा कहते हुए उनके शरणागत हो गये। इस प्रकार उन शत्रुओं को वशीभूत करके संपूर्ण पृथ्वी पर विजय पाकर शास्त्रविधि के अनुसार उन्होंने सौ यज्ञों का अनुष्ठान किया। उन यज्ञों में श्रेष्ठ ब्राह्मण तथा दूसरे लोग भी सब प्रकार से सम्पन्न उत्तम अन्न भोजन करके अत्यंत तृप्त हुए थे तथा राजा ने भी सबका बहुत सत्कार किया था। साथ ही उन्होंने बहुत अधिक मात्रा में दक्षिणा दी थी। अनेकों मूर्धाभिषिक्त राजाओं और सैकड़ों राजकुमारों को दण्ड तथा कोषसहित उन्होंने ब्राह्मणों के अधीन कर दिया था। महर्षिलोग उन पर प्रसन्न होकर कहते थे कि ‘असंख्य दक्षिणा देनेवाले राजा अम्बरीष जैसा यज्ञ करते हैं, वैसा न तो पहले के राजाओं ने किया और न आगे कोई करेंगे।‘ सृंजय ! वे तुमसे और तुम्हारे पुत्र से बहुत बढ़_चढ़कर थे; जब वे भी मृत्यु के वश में पड़ गये, तो तुम्हें अपने मरे हुए पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये। सुना है, जिन्होंने नाना प्रकार के यज्ञ किये थे, वे राजा शशबिन्दु भी मर गये। उनके एक लाख स्त्रियाँ थीं और प्रत्येक स्त्री के गर्भ से एक_एक हजार संतानें उत्पन्न हुई थीं। सभी राजकुमार पराक्रमी, वेदों के विद्वान् और उत्तम धनुष धारण करनेवाले थे। सबने यज्ञ किये थे। राजा शशबिन्दु ने अपने उन कुमारों को अश्वमेध यज्ञ में ब्राह्मणों को दे दिया था। प्रत्येक राजपुत्र के पीछे स्वर्णभूषित सौ_सौ कन्याएँ थीं, एक_एक कन्या के पीछे सौ_सौ हाथी, प्रत्येक हाथी के पीछे सौ_सौ रथ, हर एक रथ के साथ, सौ_सौ घोड़े, प्रत्येक घोड़े कै पीछे हजार_हजार गौएँ तथा प्रत्येक गौ के पीछे पचास_पचास भेड़ें थीं। यह अपार धन राजा शशबिन्दु ने अपने महायज्ञ में ब्राह्मणों को दान दिया था। उस यज्ञ में कोसों तक पर्वतों के समान अन्न के ढेर लगे थे। राजा का अश्वमेध यज्ञ पूरा हो जाने पर अन्न के तेरह पर्वत बच गये थे। उनके राज्यकाल में इस पृथ्वी पर हृष्ट_पुष्ट मनुष्य रहते थे, यहाँ कोई विघ्न नहीं था, कोई रोग नहीं था। बहुत समय तक राज्य का उपभोग करके अन्त में वे दिव्यलोक को प्राप्त हुए। सृंजय ! वे तुमसे और तुम्हारे पुत्र से बहुत बढ़_चढ़कर थे; जब वे भी नहीं रह सके तो तुम्हें  अपने पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये।

Sunday 23 September 2018

व्यासजी के द्वारा सृंजय_पुत्र, मरुत, सहोत्र, शिबि और राम के परलोकगमन का वर्णन

युधिष्ठिर ने कहा___मुनिवर ! प्राचीन काल के पुण्यात्मा, सत्यवादी एवं गौरवशाली राजर्षियों के कर्मों का वर्णन करते हुए पुनः अपने यथार्थ वचनों से मुझे शान्त्वना दीजिये। व्यासजी बोले___पूर्वकाल में एक शैव्य नामक राजा थे, उनके पुत्र का नाम था सृंजय। जब सृंजय राजा हुआ तो उसकी देवर्षि नारद और पर्वत___दोनो ऋषियों से मित्रता हो गया। एक समय की बात है, वे दोनों ऋषि राजा सृंजय से मिलने के लिये उसके घर आये। राजा ने  उनका विधिवत् आथिथ्य_सत्कार किया और वे बड़ी प्रसन्नता के साथ सुखपूर्वक वहाँ रहने लगे। सृंजय को पुत्र की अभिलाषा थी, उसने अपनी शक्ति के अनुसार ब्राह्मणों की बड़ी सेवा की। वे ब्राह्मण वेद_ वेदांग के ज्ञाता तथा तप और स्वाध्याय में लगे रहनेवाले थे। राजा की सुश्रुषा से प्रसन्न होकर उन ब्राह्मणों ने नारदजी से कहा___’भगवन् !  आप राजा सृंजय को उनकी इच्छा के अनुसार पुत्र प्रदान करें।‘ नारदजी ने ‘तथास्तु’ कहकर सृंजय से कहा___’राजर्षे ! ब्राह्मणलोग आपपर प्रसन्न हैं और आपको पुत्र देना चाहते हैं। अतः आपका कल्याण हो, आप जैसा पुत्र चाहते हो, उसके लिये वर माँग ले।‘ नारदजी के ऐसा कहने पर राजा ने हाथ जोड़कर कहा, ‘भगवन् ! मैं ऐसा पुत्र चाहता हूँ, जो यशस्वी, तेजस्वी और शत्रुओं को दबानेवाला हो तथा जिसके मल, मूत्र, थूक और पसीने भी सुवर्णमय हों।‘ राजा को ऐसा ही पुत्र हुआ। उसका नाम पड़ा सुवर्णष्ठीवी। उक्त वरदान से राजा के घर निरंतर धन बढ़ने लगा। उन्होंने अपने महल, चहारदिवारी, किले, ब्राह्मणों के घर, पलंग, बिछौने,रथ और भोजनपात्र आदि सभी आवश्यक सामग्रियों को सोने का बनवा लिया। कुछ काल के पश्चात् राजा के महल में लुटेरे घुसने और राजकुमार सुवर्णष्ठीवी को बलपूर्वक पकड़कर जंगल में ले गये। सुवर्ण पाने का उपाय तो उन्हें ज्ञात नहीं था, इसलिये उन मूर्खों ने राजकुमार को मार डाला। फिर उसका शरीर फाड़कर देखा, किन्तु कुछ भी धन नहीं मिला। जब उसके प्राण निकल गये तो वह धन प्राप्त करनेवाला वरदान भी नष्ट हो गया। बेवकूफ डाकू उस अद्भुत राजकुमार को मारकर स्वयं भी आपस में लड़_भिड़कर नष्ट हो गये। अन्त में वे पापी असम्भाव्य नामक नरक में पड़े। राजा अपने मरे हुए पुत्र को देखकर बहुत दुःखी हुआ और बड़ी करुणा के साथ विलाप करने लगा। यह समाचार पाकर देवर्षि नारद ने वहाँ दर्शन दिया और कहा___’सृंजय ! अपनी अपूर्ण कामनाएँ लिये तुम भी तो एक दिन मरोगे, फिर दूसरे के लिये इतना शोक क्यों ? औरों की तो बात ही क्या है, अविक्षित् के पुत्र राजा मरुत भी जीवित नहीं रह सके। बृहस्पति से लागडाँट होने के कारण संवर्त ने राजा मरुत से यज्ञ कराया था। भगवान् शंकर ने राजर्षि मरुत को सुवर्ण का एक गिरिशिखर प्रदान किया था। इनकी यज्ञशाला में इन्द्र आदि देवता, बृहस्पति तथा समस्त प्रजापतिगण विराजमान थे। यज्ञ का सारा सामान सोने का बना हुआ था। इनके यज्ञों में ब्राह्मणों को दूध, दही, घी, मधु, रुचिकर भक्ष्यभोज्य तथा इच्छानुसार वस्त्र और आभूषण भी दिये जाते थे। मरुत के घर में मरुत् ( पवन ) देवता रसोई परोसने का काम करते थे और विश्वेदेव सभासद् थे। उन्होंने देवता, ऋषि और पितरों को हविष्य, श्राद्ध तथा सुवर्णराशि____यह अपार धन उन्होंने ब्राह्मणों को स्वेच्छा से दान कर दिया था। इन्द्र भी उनका भला चाहते थे, उनके राज्य में प्रजा को रोग_ व्याधि नहीं सताती थी। वे बड़े श्रद्धालु थे और शुभकर्मों से जीते हुए अक्षय पुण्यलोकों को प्राप्त हुए थे। राजा मरुत ने तरुणावस्था में रहकर प्रजा, मंत्री, धर्मपत्नी, पुत्र और भाइयों के साथ एक हजार वर्ष तक राज्य शासन किया था। सृंजय ! ऐसे प्रतापी राजा भी, जो तुमसे और तुम्हारे पुत्र से बहुत बढ़_चढ़कर थे, यदि मृत्यु से नहीं बच सके तो तुम्हें भी अपने पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये।‘
नारदजी ने पुनः कहा___राजा सुहोत्र की भी मृत्यु सुनी गयी है। वे अपने समय के अद्वितीय वीर थे, देवता भी उनकी ओर आँख उठाकर नहीं देख सकते थे। वे प्रजा के पालन, धर्म, दान, यज्ञ और शत्रुओं पर विजय पाना___ इन सबको कल्याणकारी समझते थे। धर्म से देवताओं की अराधना करते, बाणों से शत्रुओं पर विजय पाते और  अपने गुणों से समस्त प्रजा को प्रसन्न रखते थे। उन्होंने म्लेच्छ और लुटेरों का नाश करके इस संपूर्ण पृथ्वी का राज्य किया था। उनकी प्रसन्नता के लिये बादलों ने अनेकों वर्षों तक उनके राज्य में सुवर्ण की वर्षा की थी। वहाँ सुवर्णरस की नदियाँ बहती थीं। उसमें सोने के मगर और मछलियाँ रहती थीं। मेघ अभीष्ट वस्तुओं की वर्षा करते थे। राज्य में एक_एक कोस की लम्बी_चौड़ी बावलियाँ थीं, उनमें भी सुवर्णमय मगर और कछुए थे। उन सबको देखकर राजा को आश्चर्य होता था। उन्होंने कुरुजांगल देश में यज्ञ किया और वह अपार सुवर्णराशि ब्राह्मणों को बाँट दी। राजा सुहोत्र ने एक हजार अश्वमेध, सौ राजसूय तथा बहुत_सी दक्षिणावाले अनेकों क्षत्रिय यज्ञों और नित्य_नैमित्तिक यज्ञों का अनुष्ठान किया था। सृंजय ! वे सुहोत्र भी तुमसे और तुम्हारे पुत्र से सर्वथा श्रेष्ठ थे, किन्तु मृत्यु ने उन्हें भी नहीं छोड़ा। ऐसा सोचकर तुम्हें अपने पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये।
नारदजी फिर कहने लगे___राजन् ! जिन्होंने संपूर्ण पृथ्वी को चमड़े की भाँति लपेट लिया था, वे उशीनरपुत्र राजा शिबि भी मरे थे। उन्होंने संपूर्ण पृथ्वी को जीतकर अनेकों अश्वमेध यज्ञ किये थे। उन्होंने दस अरब अशर्फियाँ दान की थीं। साथ ही हाथी, घोड़े, पशु, धान्य, मृग, गौ, बकरे, भेंड आदि के सहित अनेकों भूखंड ब्राह्मणों के अधीन किये थे। बरसते हुए मेघ से जितनी धाराएँ गिरती हैं, आकाश में जितने नक्षत्र दिखायी देते हैं, गंगा के किनारे जितने बालू के कण हैं, मेरुपर्वत पर जितने शिलाओं के टुकड़े हैं और समुद्र में जितने रत्न एवं जल चल जीव हैं, उतनी गौएँ शिबि ने ब्राह्मणों को दान में दी थीं। प्रजापति ने भी शिबि के समान महान् कार्यभार को वहन करनेवाला कोई दूसरा महापुरुष भूत, भविष्य और वर्तमान में नहीं देखा। उन्होंने कई यज्ञ किये, जिनमें प्रार्थियों की संपूर्ण कामनाएँ पूर्ण की जाती थीं। उन यज्ञों में यज्ञस्तंभ, आसन, गृह, चहारदिवारी और बाहरी दरवाजा___ ये सब वस्तुएँ सुवर्ण की बनी थीं। यज्ञ के बाड़ेमें दूध_दही के बड़े_बड़े कुण्ड भरे रहते थे तथा नदियाँ बहती रहती थीं। शुद्ध अन्न के पर्वतों के समान ढेर लगे रहते थे। वहाँ सबके लिये घोषणा की जाती थी कि ‘ सज्जनों ! स्नान करो और जिसका जैसी रुचि हो, उसके अनुसार अन्नपान लेकर खाओ, पीओ।‘ भगवान् शिव ने राजा शिबि के पुण्यकर्म से प्रसन्न होकर यह वर दिया था___’ राजन् !  सदा दान करते रहने पर भी तुम्हारा धन क्षीण नहीं होगा। इसी प्रकार तुम्हारी श्रद्धा, सुयश और पुण्यकर्म अक्षय होंगे। तुम्हारे कहने के अनुसार ही सभी प्राणी तुमसे प्रेम करेंगे और अंत में तुम्हें उत्तम लोक की प्राप्ति होगी।
इन उत्तम वरों को प्राप्त करके राजा शिबि समय आने पर मर्त्यलोक तो चले गये। वे तुमसे और तुम्हारे पुत्र से भू बढ़कर पुण्यात्मा थे। जब वे भू मृत्यु से नहीं बच सके तो तुम्हें अपने पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये।
सृंजय ! जो प्रजा पर पुत्र के समान प्रेम रखते थे, वे दशरथनन्दन राम भी परमधाम को चले गये। वे अत्यन्त तेजस्वी थे और उनमें असंख्य गुण थे। अपने पिता की आज्ञा से उन्होंने धर्मपत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ चौदह वर्ष तक वनवास किया था। जनस्थान में रहकर तपस्वी मुनियों की रक्षा के लिये उन्होंने चौदह हजार राक्षसों का वध किया। वहाँ रहते समय ही लक्ष्मणसहित राम को मोह में डालकर रावण नामक राक्षस ने उनकी पत्नी सीता को हर लिया। यद्यपि रावण देवता और दैत्यों से भी अवध्य था, फिर भी साथ ही ब्राह्मण और देवताओं के लिये कण्टकरूप था, किन्तु राम ने उसे उसके साथियोंसहित मार डाला। देवताओं ने उनकी स्तुति की, सारे संसार में उनकी कीर्ति फैल गयी, देवता और ऋषि उनकी सेवा में रहने लगे। उन्होंने विशाल साम्राज्य पाकर संपूर्ण प्राणियों पर दया की। धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करते हुए अश्वमेध नामक महायज्ञ का अनुष्ठान किया।
श्रीरामचन्द्रजी ने भूख और प्यास को जीत लिया था। संपूर्ण देहधारियों के रोगों को नष्ट कर दिया था। वे कल्याणप्रद गुणों से संपन्न थे और सदा अपने तेज से प्रकाशमान रहते थे। सब प्राणियों से अधिक तेजस्वी थे। राम के शासनकाल में इस पृथ्वी पर देवता, ऋषि और मनुष्य एक साथ रहते थे। उनके राज्य में प्राणियों के प्राण क्षीण नहीं होते थे। उस समय सबकी आयु बड़ी होती थी। कोई नौजवान नहीं मरता था। देवता और पितर वेदों की विधियों से प्रसन्न होकर हव्य_ कव्य को ग्रहण करते थे। राम के राज्य में डाँस_मच्छरों का नाम नहीं था। जहरीले साँप नष्ट हो चुके थे। न कोई पानी में डूबकर मरता था और न असमय में आग ही किसी को जलाती था। उस समय के लोग अधर्म में रुचि रखनेवाले, लोभी और मूर्ख नहीं होते थे। सभी वर्णों के लोग शिष्ट, बुद्धिमान् और अपने कर्तव्य का पालन करनेवाले थे।
जनस्थान में राक्षसों ने जो पितरों और देवताओं की पूजा नष्ट कर दी थी, उसे भगवान् राम ने राक्षसों को मारकर पुनः प्रचलित किया। उस समय एक_एक मनुष्य के हजार_हजार  संतानें होती थीं और उनकी आयु भी एक_एक सहस्त्र वर्ष की हुआ करती थी। बड़ों को अपने से छोटे की श्राद्ध नहीं करना पड़ता था। भगवान् राम की श्याम_सुन्दर छवि, तरुण अवस्था और कुछ अरुणाई लिये विशाल आँखें थीं। भुजाएँ सुन्दर तथा घुटनों तक लम्बी थीं। सिंह के समान कंधे थे। उनकी झाँकी भी जीवों का मन मोहनेवाली थीं। उन्होंने ग्यारह हजार वर्ष तक राज्य किया था। उस समय के लोगों के जबान पर केवल राम का ही नाम था। अन्त में अपने और भाइयों के अंशरूप दो_दो पुत्रों के द्वारा आठ प्रकार के राजेश की स्थापना करके उन्होंने चारों वर्णों की प्रजा को साथ ले सदेह परमधाम को गमन किया। सृंजय ! तुमसे और तुम्हारे पुत्र से सर्वथा श्रेष्ठ वे राम भी यदि यहाँ नहीं रह सके तो तुम अपने पुत्र के लिये क्यों शोक करते हो ?

Friday 7 September 2018

युधिष्ठिर का विलाप तथा व्यासजी के द्वारा मृत्यु की उत्पत्ति की वर्णन

संजय कहते हैं___ महाराज ! महावीर अभिमन्यु के मारे जाने के पश्चात् सभी पाण्डवयोद्धा रथ छोड़, कवच उतार और धनुष फेंककर राजा युधिष्ठिर के चारों ओर बैठ गये तथा अभिमन्यु को मन_ही_मन याद करते हुए उसके युद्ध का स्मरण करने लगे। भाई का पुत्र अभिमन्यु_जैसा वीर मारा गया, यह सोचकर राजा युधिष्ठिर बहुत दुःखी हो गये और विलाप करने लगे___’जैसे गौओं के झुण्ड में सिंह काड बच्चा प्रवेश कर जाय उसी प्रकार जो केवल मेरा प्रिय करने की इच्छा से द्रोण के दुर्भेद्य व्यूह में जा घुसा, युद्ध में जिसके सामने आकर बड़े_बड़े धनुर्धर और अस्त्र_विद्या में कुशल वीर भी भाग गये, जिसने हमारे कट्टर शत्रु दुःशासन को अपने बाणों से शीघ्र ही मार भगाया था, वह वीर अभिमन्यु द्रोणसेनारूपी महासागर के पार होकर भी दुःशासनकुमार के पास जा मृत्यु को प्राप्त हुआ। सुभद्राकुमार के मारे जाने के बाद अब मैं अर्जुन अथवा सुभद्रा को कैसे मुँह दिखाऊँगा ? हाय ! वह बेचारी अब अपने प्यारे बेटे को नहीं देख सकेगी। श्रीकृष्ण और अर्जुन को यह दुःखद समाचार कैसे सुनाऊँगा ? आह ! मैं कितना निर्दयी हूँ; जिस सुकुमार बालक को भोजन और शयन करने, सवारी पर चलने तथा भूषण_वस्त्र पहनने में आगे रखना चाहिये था, उसे मैंने युद्ध में आगे कर दिया ! अभी तो वह तरुण कुमार युद्ध की कला में पूरा प्रवीण भी नहीं हुआ था, फिर कैसे कुशल से लौटता ?  अर्जुन बुद्धिमान, निर्लोभ, संकोचशील, क्षमावान्, रूपवान्, बलवान्, बड़ों का मान देनेवाले, वीर और सत्यपराक्रमी हैं, जिनके कर्मों की देवतालोग भी प्रशंसा करते हैं, जो अभय चाहनेवाले शत्रु को भी अभयदान देते हैं, उन्हीं के बलवान् पुत्र की भी हमलोग रक्षा न कर सके। बल और पुरुषार्थ में जो सबसे आगे था, उस अर्जुनकुमार को मारा गया देखकर अब विजय से भी मुझे प्रसन्नता न होगी; उसके बिना पृथ्वी का राज्य, अमरत्व अथवा देवताओं के लोक का अधिकार भी मेरे लिये किसी काम का नहीं है।
कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर जब इस प्रकार विलाप कर रहे थे, उसी समय महर्षि वेदव्यासजी वहाँ आ पहुँचे। युधिष्ठिर ने उनका यथोचित सत्कार किया और जब वे आसन पर विराजमान हुए तो अभिमन्यु की मृत्यु के शोक से संतप्त होकर उनसे कहा___’मुनिवर ! सुभद्रानन्दन अभिमन्यु युद्ध कर रहा था, उस समय उसे अनेक अधर्मी महारथियों ने घेरकर मार डाला है। मैंने उससे कहा था, ‘हमलोगों के लिये व्यूह में घुसने का दरवाजा बना दो।‘ उसने वैसा ही किया। जब स्वयं भीतर घुस गया, तब उसके पीछे हमलोग भी घुसने लगे; किन्तु जयद्रथ ने हमें रोक दिया। योद्धाओं को अपने समान वीर से युद्ध करना चाहिये; किन्तु शत्रुओं ने जो उसके साथ व्यवहार किया है, वह नितान्त अनुचित है। इसी कारण मेरे हृदय में बड़ा संताप हो रहा है। बार_बार उसी की चिन्ता होने लगती है, तनिक भी शान्ति नहीं मिलती’।
व्यासजी ने कहा___युधिष्ठिर ! तुम तो महान् बुद्धिमान और समस्त शास्त्रों के ज्ञाता हो। तुम्हारे जैसे पुरुष संकट पड़ने पर मोहित नहीं होते। अभिमन्यु युद्ध में बहुत_से वीरों को मारकर प्रौढ़ योद्धाओं के समान पराक्रम दिखाकर स्वर्गलोक में गया है। भारत ! विधाता के विधान को कोई टाल नहीं सकता। मृत्यु तो देवता,  गन्धर्व और  दानवों के भी प्राण ले लेती है; फिर मनुष्यों की तो बात ही क्या है ?
युधिष्ठिर ने कहा___मुने ! ये शूरवीर राजकुमार शत्रुओं के वश में पड़कर विनाश के मुख में चले गये। कहते हैं, ये मर गये; किन्तु मुझे संदेह होता है कि इन्हे ‘मर गये'  ऐसा क्यों कहा जाता है। मृत्यु किसकी होती है ? क्यों होती है ?  और वह किस प्रकार प्रजा का संहार करती है ? तथा कैसे यह जीव को परलोक में ले जाती है ? पितामह !  ये सब बातें मुझे बताइये।
व्यासजी ने कहा___ राजन् ! जानकार लोग इस विषय में एक प्राचीन इतिहास का दृष्टान्त दिया करते हैं। इसको सुनकर तुम स्नेहबंधन के कारण होनेवाले दुःख से छूट जाओगे। यह उपख्यान समस्त पापों को नष्ट करनेवाला, आयु बढ़ानेवाला, शोकनाशक, अत्यन्त मंगलकारी तथा वेदाध्ययन के समान पवित्र है। आयुष्मान् पुत्र, राज्य और लक्ष्मी चाहनेवाले द्विजों को प्रतिदिन प्रातःकाल इस आख्यान की श्रवण करना चाहिये।
प्राचीन काल की बात है। सतयुग में एक अकम्पन नाम के राजा थे। उन पर शत्रुओं ने आक्रमण किया। राजा के एक पुत्र था, जिसका नाम था हरि। वह बल में नारायण के समान था और युद्ध में इन्द्र के समान। उस युद्ध में दुष्कर पराक्रम दिखाकर अन्त में वह शत्रुओं के हाथ से मारा गया। इससे राजा को बड़ा शोक हुआ। उसके पुत्र_शोक का समाचार सुनकर देवर्षि नारद आये। राजा वे उनका यथोचित पूजन करके बैठने के पश्चात् उनसे कहा___”भगवन् ! मेरा पुत्र इन्द्र और विष्णु के समान कान्तिमान् एवं महाबली था। उसको बहुत से शत्रुओं ने मिलकर युद्ध में मार डाला है। अब मैं यह ठीक_ठीक जानना और सुनना चाहता हूँ कि ‘यह मृत्यु क्या है ? इसका वीर्य, बल और पौरुष कैसा है ?”
राजा की बात सुनकर नारदजी ने कहा___ राजन् ! आदि में सृष्टि के समय पितामह ब्रह्माजी ने जब संपूर्ण प्रजा की सृष्टि की तो उसका संहार न होता देख उसके लिये वे विचार करने लगे। सोचते_सोचते जब कुछ समझ में न आया तो उन्हें क्रोध आ गया। उनके उस क्रोध के कारण आकाश से अग्नि प्रकट हुई और वह संपूर्ण दिशाओं में फैल गयी। भगवान् ब्रह्मा ने उसी अग्नि से पृथ्वी, आकाश एवं संपूर्ण चराचर जगत् को जलाना आरम्भ किया। यह देख रुद्रदेवता ब्रह्माजी का शरण में गये। शंकरजी के आने पर प्रजा के हित के लिये ब्रह्माजी ने कहा___’बेटा ! तुम अपनी इच्छा से उत्पन्न हुए हो और मुझसे अभीष्ट वस्तु पाने के योग्य हो। बताओ, तुम्हारी कौन_सी कामना पूर्ण करूँ ? तुम्हें जो भी अभीष्ट होगा, उसे पूर्ण करूँगा।‘
रुद्र ने कहा___ प्रभो ! आपने नाना प्रकार के प्राणियों की सृष्टि की है, किन्तु वे सभी आज आपकी क्रोधाग्नि से दग्ध हो रहे हैं। उनकी दशा देखकर मुझे दया आती है। भगवन् ! अब तो उन पर प्रसन्न होइये।
ब्रह्माजी ने कहा___पृथ्वीदेवी जगत् के भार से पीड़ित हो रही थी, इसी ने मुझे संहार के लिये प्रेरित किया। इस विषय में बहुत विचार करने पर भी जब कोई उपाय न सूझा तो मुझे बहुत क्रोध चढ़ आया।
रुद्र ने कहा___भगवन् ! संहार के लिये आप क्रोध न करें। प्रजा पर प्रसन्न हों। आपके क्रोध से प्रकट हुई आग पर्वत, वृक्ष, नदी, जलाशय, तृण, घास आदि संपूर्ण स्थावर_जंगमरूप जगत् को जला रही है। अब आपका क्रोध शान्त हो जाय___यही वरदान मुझे दीजिये। प्रजा के हित के लिये कोई ऐसा उपाय सोचिये, जिससे इन प्राणियों की जान बचे।
नारदजी कहते हैं_____ शंकरजी की बात सुनकर ब्रह्माजी ने प्रजा का कल्याण करने के लिये उस अग्नि को पुनः अपने में लीन कर लिया। उसे लीन करते समय उनकी सब इन्द्रियों से एक स्त्री प्रकट हुई। उसका रंग था काला, लाल और पीला। उसकी जिह्वा, मुख और नेत्र भी लाल थे। ब्रह्माजी ने उसे ‘मृत्यु’ कहकर पुकारा और बताया कि ‘मैंने लोकों का संहार करने की इच्छा से क्रोध किया था, उसी से तुम्हारी उत्पत्ति हुई है; अत: तुम मेरी आज्ञा से संपूर्ण चराचर जगत् का नाश करो। इसी से तुम्हारा कल्याण होगा।‘
ब्रह्माजी की ऐसी आज्ञा सुनकर वह स्त्री अत्यन्त सोच में पड़ गयी और फूट_फूटकर रोने लगी। उसकी आँखों से जो आँसू झड़ रहे थे, उसे ब्रह्माजी ने हाथों में ले लिया और उसे भी शान्त्वना दी। तब मृत्यु ने कहा___’ भगवन् ! आपने मुझे ऐसा स्त्री क्यों बनाया ? क्या मैं जान_बूझकर मैं यह अहितकारक कठोर कर्म करूँ ?  मैं भी पाप से डरती हूँ। मेरे सताये हुए लोग रोयेंगे; उन दुःखियों के आँसुओं से मुझे बड़ा भय हो रहा है, इसलिये मैं आपकी शरण में आयी हूँ। मुझे वर दीजिये, मैं आज से धेनुकाश्रम में जाकर आपकी ही अराधना में संलग्न हो तीव्र तपस्या करूँगी। रोते_बिलखते लोगों के प्राण लेने की काम मुझसे नहीं हो सकेगा। मुझे इस पाप से बचाइये।‘
ब्रह्माजी ने कहा___मृत्यो ! प्रजा का संहार करने के लिये ही तुम्हारी सृष्टि हुई है। जाओ, सब प्रजा का नाश करती रहो।  इसमें कुछ विचार करने का आवश्यकता नहीं है। ऐसा ही होगा, इसमें कभी परिवर्तन नहीं हो सकता। तुम मेरी आज्ञा का पालन करो। इसमें तुम्हारी निंदा नहीं होगी।
यह सुनकर मृत्यु ने ब्रह्माजी के चरणों में मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर कहा, ‘प्रभो ! यदि यह कार्य मेरे बिना नहीं हो सकता तो आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। अब एक बार कहती हूँ, उसे सुनिये। लोभ, क्रोध, असूया, ईर्ष्या, द्रोह, मोह, निर्लज्जता तथा परस्पर कटु वचन बोलना___ये नाना प्रकार के दोष ही प्राणियों की देह का नाश करें।‘ ब्रह्माजी ने कहा___’मृत्यो ! ऐसा ही होगा। तुम्हारे आँसुओं की बूँदें, जिन्हें मैंने हाथ में ले लिया था, व्याधि बनकर गतायु प्राणियों का नाश करेगी। तुम्हें पाप नहीं लगेगा। अतः डरो मत ! तुम कामना और क्रोध का त्याग करके संपूर्ण जीवों के प्राणों का अपहरण करो। ऐसा करने से तुम्हें अक्षय धर्म की प्राप्ति होगी। जो मिथ्या के आवरण से ढके हुए हैं, उन जीवों को अधर्म ही मारेगा। असत्य से ही प्राणी अपने को पापपंक में डुबाते हैं।‘
नारदजी कहते हैं____उस मृत्युनामधारिणी स्त्री ने ब्रह्माजी के उपदेश से तथा विशेषतः उनके शाप के भय से ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। तबसे वह काम और क्रोध को त्यागकर अनासक्त भाव से प्राणियों का अंतकाल उपस्थित होने पर उनके प्राणों को हर लेती है। यही प्राणियों की मृत्यु है, इसी से व्याधियों की उत्पत्ति हुई है। व्याधि कहते हैं रोग को, जिससे जीव रुग्ण हो जाता है। अन्तकाल आने पर सभी प्राणियों की मृत्यु होती है, इसलिये राजन् ! तुम व्यर्थ शोक न करो। मरण के पश्चात् सभी प्राणी परलोक में जाते हैं और वहाँ से इन्द्रियों तथा वृत्तियों के साथ ही यहाँ लौट आते हैं। देवता भी परलोक में अपने कर्मभोग पूर्ण करके फिर इस मर्त्यलोक में जन्म लेते हैं। इसलिये तुम्हें अपने पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये। वह वीरों को प्राप्त होने योग्य रमणीय लोकों में पहुँचकर वहाँ स्वर्गीय आनन्द का उपभोग करता है। ब्रह्माजी ने मृत्यु को प्रजा का संहार करने के लिये स्वयं ही उत्पन्न किया है; अतः वह समय आने पर सबका संहार करती ही है। यह सारी सृष्टि विधाता की बनायी हुई है, वे स्वेच्छानुसार इसका उपसंहार करते हैं, इसलिये तुम अपने मरे हुए पुत्र का शोक शीघ्र ही त्याग दो।
व्यासजी कहते हैं___नारदजी की यह अर्थभरी बात सुनकर राजा अकम्पन ने उनसे कहा___’भगवन् ! मेरा शोक दूर हुआ, अब मैं प्रसन्न हूँ। आपके मुँह से यह इतिहास सुनकर मैं कृतार्थ हो गया, आपको प्रणाम है।‘  राजा की ऐसी  वाणी सुनकर देवर्षि नारद तुरंत नन्दनवन को चले गये। राजा युधिष्ठिर !  इस उपाख्यान को सुनने_सुनाने से पुण्य, यश, आयु, धन तथा स्वर्ग की प्राप्ति होती है। महारथी अभिमन्यु युद्ध में धनुष, तलवार, गदा तथा शक्ति से प्रहार करता हुआ मृत्यु को प्राप्त हुआ है। इसलिये तुम धैर्य धारण करो और प्रमाद त्यागकर भाइयों के साथ ले शीघ्र ही युद्ध के लिये तैयार हो जाओ।