Thursday 27 July 2023

विनसन आदि तीर्थों का वर्णन, नैमिषीय तथा सप्तसारस्वत तीर्थों का विशेष वृतांत


संजय कहते हैं_महाराज ! वहां सरस्वती नदी जमीन के भीतर अदृश्य रूप से बहती है, इसलिये ऋषिगण उसे 'विनशन तीर्थ' कहते हैं। बलदेवजी वहां आचमन करके आगे बढ़े और सरस्वती के उत्तम तट पर सुभूमिक तीर्थ में जा पहुंचे। वहां उन्हें बहुत_से गन्धर्व और अप्सराएं दिखाई पड़ीं। उस पवित्र तीर्थ में स्नान तथा दान करके वे गन्धर्वतीर्थ में गये, जहां तपस्या में लगे हुए विश्र्वावसु आदि प्रधान _प्रधान वसु गाना बजाना तथा नृत्य कर रहे थे। उस तीर्थ में स्नान करके बलदेवजी ने ब्राह्मणों को सोना_चांदी आदि विविध वस्तुओं का दान किया। फिर उन्हें भोजन कराकर बहुमूल्य वस्तुएं दे उनकी कामनाएं पूर्ण की। तत्पश्चात् वे गर्गस्त्रोत नामक तीर्थ में गये। जहां वृद्ध गर्ग ने तपस्या करके अन्त:कर्ण को पवित्र किया था तथा काल का ज्ञान, काल की गति, नक्षत्रों और ग्रहों की गति का उलट_फेर, भयंकर उत्पात और शुभ शकुन आदि ज्योति:शास्त्र के विषयों की पूर्ण जानकारी प्राप्त की थीं। उन्हीं के नाम पर यह तीर्थ 'गर्गस्त्रोत' कहा जाने लगा। वहां पर बलदेवजी ने ब्राह्मणों को विधिपूर्वक धन दान दिया और नाना प्रकार के पदार्थ भोजन कराकर शंखतीर्थ में पदार्पण किया। वहां उन्होंन मेरुगिरि के समान एक बहुत ऊंचा शंख देखा; जो अनेकों ऋषियों से सुसेवित था। वहीं सरस्वती के तट पर एक बहुत बड़ा वृक्ष था, जहां हजारों की संख्या में यक्ष, विद्याधर, राक्षस, पिशाच तथा सिद्ध रहते थे। वे सब अन्न त्याग करके व्रत और नियमों का पालन करते हुए समय_समय पर उस वृक्ष का फल ही खाया करते थे। वहां बलदेवजी ने ब्राह्मणों की पूजा करके उन्हें बर्तन और वस्त्र दान दिये। इसके बाद वे परम पवित्र द्वैतवन में आये। उस वन में रहनेवाले ऋषि_मुनियों का दर्शन करके उन्होंने वहां के तीर्थ_जल में डुबकी लगाई और ब्राह्मणों की पूजा करके उन्हें विविध प्रकार के भोज्यपदार्थ दान किये। फिर वहां से चलकर वे सरस्वती के दक्षिणभाग में थोड़ी ही दूर पर स्थित नागधन्वा तीर्थ में गये जहां नित्य चौदह हजार ऋषि मौजूद रहते हैं। उसी स्थान पर देवताओं ने वासुकि को सर्पों का राजा बनाकर अभिषेक किया था। वहां किसी को भी सांपों के डसने का भय नहीं रहता। बलदेवजी वहां भी ब्राह्मणों को ढ़ेर_के_ढ़ेर रत्न दान किये। फिर वे पूर्व दिशा की ओर चल दिये, जहां पग_पग पर लाखों तीर्थ प्रकट हुए हैं। उन सब तीर्थों में उन्होंने गोते लगाये और ऋषियों के बताये अनुसार व्रत_नियमादि का पालन किया। फिर सब प्रकार के दिन करके वे अपने अभीष्ट मार्ग की ओर चल दिये। जाते_जाते वहां पहुंचे, जहां पश्चिम की ओर बहनेवाली सरस्वती नदी नैमिषीय मुनियों के दर्शन की इच्छा से पुनः पूर्व दिशा की ओर लौट पड़ी है। उसे पीछे की ओर लौटी देख बलदेवजी को बड़ा आश्चर्य हुआ।जनमेजय ने पूछा _ब्रह्मण् ! सरस्वती नदी पूर्व की ओर क्यों लौटी ? बलभद्रजी के आश्चर्य का भी कोई कारण होना चाहिये। उस नदी के पीछे लौटने में क्या हेतु है ? वैशम्पायनजी ने कहा _राजन् ! सतयुग की बात है। नैमिषीय तपस्वी ऋषियों ने मिलकर बारह वर्षों में समाप्त होने वाला एक महान् सत्र आरम्भ किया, उसमें सम्मिलित होने के लिये बहुत _से ऋषि पधारे थे। जब सत्र समाप्त हुआ, उस समय भी तीर्थ के कारण वहां बहुत _से ऋषि महर्षियों का शुभागमन हुआ।उनकी संख्या इतनी अधिक हो गयी कि सरस्वती के दक्षिण किनारे के तीर्थ नगरों के समान मनुष्यों से भर गये। नदी के तीर पर नैमिषारण्य से लेकर समन्तपंचक तक ऋषि_मुनि ठहरे हुए थे। वे वहां यज्ञ_होमादि करने लगे, उनके द्वारा उच्चारित वेद_मंत्रों के गम्भीर घोष से संपूर्ण दिशाएं गूंज उठीं। महाराज! उन ऋषियों में सुप्रसिद्ध बालखिल्य, अश्मकउट्ट ( पत्थर से फोड़े हुए फल का भोजन करने वाले ) , दन्तोलूखली (दांत से ही ओखली का काम लेनेवाले अर्थात्  ओखली में कूटकर नहीं दांतों से ही चबाकर खाने वाले ) का पेड़ और प्रसंख्यान ( गिने हुए फल खानेवाले  ) भी थे। कोई हवा पीकर रहता था कोई पानी। बहुतेरे तपस्वी पत्ते चबाकर रहते थे। सब लोग मिट्टी की वेदी पर सोते और नाना प्रकार के नियमों में लगे रहते थे। वे सब ऋषि सरस्वती के निकट आकर उसकी शोभा बढ़ाने लगे, किन्तु वहां तीर्थ भूमि में उन्हें रहने की जगह नहीं दिखाई दी। इससे वे निराश एवं चिंतित हो गये। उनकी यह अवस्था देख सरस्वती ने दयावश उन्हें दर्शन दिया। वह अनेकों कुंजों का निर्माण करती हुई पीछे लौट पड़ी और ऋषियों के लिये तीर्थभूमि बनाकर फिर पश्चिम की ओर मुड़ गयी। इस महानदी ने ऋषियों के आगमन को सफल बनाने का निश्चय कर लिया था, इसीलिए यह अत्यंत अद्भुत कार्य कर दिखाया। सरस्वती का बनाया हुआ वह निकुंजों का समुदाय ही 'नैमिषिय'नाम से विख्यात हुआ। वहां के अनेकों कुंजों तथा पीछे लौटी हुई सरस्वती नदी को देखकर बलदेवजी को बड़ा विस्मय हुआ। वहां भी उन्होंने विधिवत् आचमन एवं स्नान किया और ब्राह्मणों को भांति _भांति के भोज्यपदार्थ तथा बर्तन दान करके वे सप्तसारस्वत नाम के तीर्थ में चले गये; जहां वायु, जल, फल अथवा पत्ता खाकर रहनेवाले बहुत_से महात्मा थे। उनके स्वाध्याय का गंभीर घोष सब ओर गूंज रहा था। वहां अहिंसक एवं धर्मपरायण मनुष्य निवास करते थे।
जनमेजय ने पूछा _मुनिवर ! सप्तसारस्वत तीर्थ कैसे प्रकट हुआ ?  मैं इसका वृतांत विधिपूर्वक सुनना चाहता हूं। वैशम्पायनजी कहते हैं _ राजन्! सरस्वती नाम से प्रसिद्ध सात नदियां हैं, ये सारे जगत् में फैली हुई हैं। इनके विशेष नाम हैं_सुप्रभा,कांचनाक्षी, विशाला, मनोरमा, ओघवती, सुरेणु तथा विमलोदका। शक्तिशाली महात्माओं ने भिन्न-भिन्न देशों में एक_एक सरस्वती का आवाहन किया है। एक समय की बात है, पुष्कर तीर्थ में ब्रह्माजी का एक महान् यज्ञ हो रहा था, यज्ञशाला में सिद्ध ब्राह्मण विराजमान थे। पुण्याहघोष हो रहा था, सब ओर वेद_मंत्रों की ध्वनि फैल रही थी, समस्त देवता यज्ञकार्य में लगे हुए थे, स्वयं ब्रह्माजी ने यज्ञ की दीक्षा ली थी। उनके यज्ञ करते समय सबकी समस्त इच्छाएं पूर्ण हो रही थीं। धर्म और अर्थ में कुशल मनुष्य मन में जिस वस्तु का चिंतन करते थे, वहीं उन्हें प्राप्त हो जाती थी। उस समय ऋषियों ने पितामह से कहा _'यह यज्ञ अधिक गुणों से सम्पन्न नहीं दिखाई देता; क्योंकि अभी तक सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती का ही प्रादुर्भूत नहीं हुआ।' यह सुनकर ब्रह्माजी ने सरस्वती का स्मरण किया। उनके आवाहन करते ही 'सुप्रभा'  नामधारी सरस्वती पुष्कर तीर्थ में प्रकट हो गयी। पितामह के सम्मानार्थ वहां सरस्वती नदी को प्रकट देख मुनियों ने उस यज्ञ की बड़ी प्रशंसा की। इसी तरह नैमिषारण्य में भी वेद के स्वाध्याय में लगे रहनेवाले मुनियों ने सरस्वती का आवाहन किया, उनके चिंतन करते ही वहां 'कांचनाक्षी'  नामवाली सरस्वती नदी प्रकट हो गयी। ऐसे ही जब राजा गय यज्ञ कर रहे थे, उस समय उनके यहां भी सरस्वती का आवाहन किया गया था।  वहां 'विशाला' नामवाली सरस्वती का आविर्भाव हुआ। उसकी गति बड़ी तेज है। वह हिमालय की घाटी से निकली हुई है। एक समय की बात है, उत्तर कोसल प्रान्त में उद्दालक मुनि यज्ञ कर रहे थे, उन्होंने भी सरस्वती का स्मरण किया। ऋषि के कारण वह नदी उस देश में भी प्रकट हुई, जिसका मुनियों ने पूजन किया। वह 'मनोरमा' नाम से विख्यात हुई; क्योंकि ऋषियों ने पहले उसका अपने मन में ही स्मरण किया था।
'सुरेणु' नामवाली सरस्वती नदी का प्रादुर्भाव ऋषभ द्वीप में हुआ। जिस समय राजा कुरु कुरुक्षेत्र में यज्ञ कर रहे थे, उसी समय वहां सरस्वती प्रकट हुई। गंगाद्वार में यज्ञ करते समय दक्ष प्रजापति ने जब सरस्वती का स्मरण किया था तो वहां भी सुरेणु ही प्रकट हुई। इसी प्रकार महात्मा वशिष्ठ भी एक बार कुरुक्षेत्र में यज्ञ कर रहे थे, वहां पर उन्होंने सरस्वती का आवाहन किया; उनके आवाहन से 'ओघवती' का प्रादुर्भाव हुआ। ब्रह्माजी ने एक बार हिमालय पर्वत पर भी यज्ञ किया था, वहां जब उन्होंने सरस्वती का स्मरण किया तो 'विमलोदका' प्रकट हुई। इन सातों सरस्वती योग का जल जहां एकत्र हुआ है, उसे सप्तसारस्वत कहते हैं। इस प्रकार मैंने तुम्हें सात सरस्वती योग के नाम और वृतांत बताये। इन्हीं से परम पवित्र सप्तसारस्वत तीर्थ की प्रसिद्धि हुई है।







Tuesday 18 July 2023

बलरामजी की तीर्थयात्रा तथा प्रभास_क्षेत्र का प्रभाव

जनमेजय ने कहा_मुने ! जब महाभारत युद्ध आरंभ होने के पहले ही बलदेवजी भगवान् श्रीकृष्ण की सम्मति लेकर अन्य वृष्णवंशियों के साथ तीर्थयात्रा के लिये चले गये और जाते_जाते यह कह गये कि 'मैं न तो दुर्योधन की सहायता करूंगा, न पाण्डवों की; तब फिर उस समय वहां उनका शुभागमन कैसे हुआ ? यह समाचार आप मुझे विस्तार से सुनाइये ? वैशम्पायनजी कहते हैं_राजन् ! जिस समय पाण्डव उपलव्य नामक स्थान में छावनी के डालकर ठहरे हुए थे, उन्हीं दिनों की बात है, पाण्डवों ने सब प्राणियों के हित के लिये भगवान् श्रीकृष्ण को धृतराष्ट्र के पास भेजा। उन्हें भेजने का उद्देश्य यह था कि कौरव_पाण्डवों में शान्ति बनी रहे_कलह न हो। भगवान् हस्तिनापुर जाकर धृतराष्ट्र से मिले और उनसे सबके लिये हितकर एवं यथार्थ बातें कहीं। किन्तु उन्होंने भगवान् का कहना नहीं माना। जब वहां सन्धि कराने में सफल न हो सके तो भगवान् उपलव्य में ही लौट आये और पाण्डवों से बोले_'कौरव अब काल के वश में हो रहे हैं इसलिये मेरा कहना नहीं मानते। पाण्डवों ! अब तुमलोग मेरे साथ पुष्य नक्षत्र में युद्ध के लिये निकल पड़ो।' इसके बाद जब सेना का बंटवारा होने लगा तो बलदेवजी ने श्रीकृष्ण से कहा_'मधुसूदन ! तुम कौरवों की भी सहायता करना।' परन्तु श्रीकृष्ण ने उनका यह प्रस्ताव नहीं स्वीकार किया; इससे वे रूठ गये और पुष्य नक्षत्र में वहां से तीर्थयात्रा के लिये निकल पड़े। रास्ते में उन्होंने सेवकों को आज्ञा दी कि तुमलोग द्वारका जाकर तीर्थयात्रा में उपयोगी सभी आवश्यक सामान लाओ। साथ ही अग्निहोत्र की अग्नि और यज्ञ करानेवाले ब्राह्मणों को आदरपूर्वक ले आना। सोना, चांदी, गौ, वस्त्र, घोड़े, हाथी, रथ, खच्चर और ऊंट भी लाने चाहिये। इस प्रकार आदेश देकर वे सरस्वती नदी के किनारे _किनारे उसके प्रवाह की ओर तीर्थयात्रा के लिये चयन पड़े; उनके साथ ऋत्विक, सउहऋद्, श्रेष्ठ ब्राह्मण, रथ, हाथी_घोड़े, सेवक, बैल, खच्चर और ऊंट भी थे। उन्होंने देश_देश में थके_मांदे रोगी, बालक और वृद्धों का सत्कार करने के लिये तरह_तरह की देने योग्य वस्तुएं तैयार करा रखी थीं। भूखों को भोजन कराने के लिये सर्वत्र अन्न का प्रबंध कराया गया था। जिस किसी देश में जो कोई ब्राह्मण जब भोजन की इच्छा प्रकट करता था, उसको उसी स्थान पर तत्काल भोजन दिया जाता था। भिन्न-भिन्न तीर्थों में बलदेवजी की आज्ञा से उनके सेवक खाने_पीने की पदार्थों का ढ़ेर लगा रखते थे। ब्राह्मणों के सम्मानार्थ बहुमूल्य वस्त्र, पलंग और बिछौने तैयार रहते थे। इस यात्रा में सबलओग आराम से चलते और विश्राम करते थे। यात्रा करनेवालों की यदि इच्छा हो तो उन्हें सवारियां भी मिलती थीं। प्यासे को पानी पिलाया जाता और भूखे को स्वादिष्ट अन्न दिया जाता था। उन यात्रियों का रास्ता बड़े सुख से तो होता था। सबको स्वर्गीय आनंद मिलता था। सभी सदा ही प्रसन्न रहते थे। साथ में खरीदने _बेचने की वस्तुओं का बाजार भी लगता था। महात्मा बलदेवजी ने अपने मन को वश में रखकर पुण्य तीर्थों में ब्राह्मणों को बहुत _सा धन दान दिया, यज्ञ करके उन्हें दक्षिणाएं दीं हजारों दूध देनेवाली गऔएं दान कीं। उन गौओं के सींग में सोना मढ़ा था और उन्हें सुन्दर वस्त्र ओढ़ाये गये थे। भिन्न-भिन्न देशों के घोड़े दान किये गये। तरह_तरह की सवारियां, सेवक, रत्न, मोती, मणि, मूंगा, सोना, चांदी तथा लोहे और तांबे के बर्तन भी ब्राह्मणों को दिये गये। इस करार सरस्वती के तटवर्ती तीर्थों में बहुत _सा दान करके बलरामजी क्रमश: कुरुक्षेत्र में आ पहुंचे। जनमेजय ने कहा_आप मुझे सरस्वती के तटवर्ती तीर्थों के गुण, प्रभाव और उत्पत्ति की कथा सुनाइये। उन तीर्थों में जाने का क्या फल है ? और यात्रा की सिद्धि कैसे होती है ? तथा जिस क्रम से बलरामजी ने यात्रा की थी, वह क्रम भी बताइये, मुझे यह सब सुनने का बड़ा कौतूहल हो रहा है। वैशम्पायनजी बोले_राजन् ! सरस्वती तट के तीर्थों का विस्तार, उनका प्रभाव तथा उनकी उत्पत्ति की पवित्र कथाएं मैं सुना रहा हूं, सुनो । यादवनन्दन बलदेवजी ब्राह्मणों तथा ऋत्वइजओं के साथ सबसे पहले प्रभास_क्षेत्र में गये जहां राजयक्ष्मा से कष्ट पाते हुए चन्द्रमा को शाप से छुटकारा मिला तथा अपना खोया हुआ तेज भी प्राप्त हुआ, जिससे वे सारे जगत् को प्रकाशित करते हैं। चन्द्रमा को प्रभासित करने के कारण ही वह प्रधान तीर्थ पृथ्वी पर 'प्रभास' नाम से विख्यात हुआ।जनमेजय ने पूछा_मुनिवर ! भगवान् सोम को यक्ष्मा कैसे हो गया ? और उन्होंने उस तीर्थ में किस तरह स्नान किया तथा उसमें डुबकी लगाने से वे रोगमुक्त हो पुष्ट किस प्रकार हुए ? ये सारी बातें आप मुझे विस्तार के साथ बताइये।
वैशम्पायनजी ने कहा_राजन् ! दक्षप्रजापति की संतानों में अधिकांश कन्याएं हुई थीं, उनमें से सत्ताइस कन्याओं का ब्याह उन्होंने चन्द्रमा के साथ कर दिया। उन सबकी 'नक्षत्र' संज्ञा थी। चन्द्रमा के साथ जो नक्षत्रों का योग होता है, उसकी गणना के लिये वे सत्ताइस रूपों में प्रकट हुई थीं। वे सब_की_सब अनुपम सुन्दरी थीं। किन्तु उनमें भी रोहिणी का सौन्दर्य सबसे बढ़कर था, इसलिये चन्द्रमा का अनुराग रोहिणी में ही अधिक हुआ। वहीं उनकी हृदयवल्लभा हुई। वे सदा ही उसके ही संपर्क में रहने लगे। जनमेजय ! पूर्वकाल में चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र के संपर्क में रहने लगे। जनमेजय! पूर्वकाल में चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र के संसर्ग में अधिक काल तक रहा करते थे; इसलिये नक्षत्र नामधारी दूसरी स्त्रियों को बड़ी ईर्ष्या हुई, वे, वे कुपित होकर अपने पिता प्रजापति के पास चली गयीं और बोलीं _'प्रजानाथ ! सोम सदा रोहिणी के पास ही रहते हैं, हमलोगों पर उनका स्नेह नहीं है। अतः हमलोग अब आपके पास ही रहेंगी और नियमित आहार करके तपस्या में लग जायेंगी। उनकी बातें सुनकर दक्ष ने सोम को बुलाकर कहा_'तुम अपनी सब स्त्रियों में समता का भाव रखो, सबके साथ एक_सा वर्ताव करो। ऐसा करने से ही तुम पाप से बच सकोगे।' तदनन्तर, दक्ष ने अपनी कन्याओं से कहा_'तुम सब लोग चन्द्रमा के पास जाओ, अब वे मेरी आज्ञा के अनुसार तुम सबके साथ समान भाव रखेंगे।' पिता के विदा करने पर वे पुनः पति के घर चली गयीं। किन्तु सोम के वर्ताव में कोई अन्तर नहीं पड़ा। उनका रोहिणी के प्रति अधिकाधिक प्रेम बढ़ता गया और वे सदा उसी के पास रहने लगे। तब शेष कन्याएं पुनः एकसाथ होकर पिता के पास गयीं और कहने लगीं_'पिताजी ! सोम ने आपकी आज्ञा नहीं मानी, अब तो हम आपकी सेवा में ही रहेंगी।' यह सुनकर दक्ष ने फिर सोम को बुलवाया और कहा_'तुम सब स्त्रियों के साथ समान वर्ताव करो, नहीं तो मैं शाप दे दूंगा।' परन्तु चन्द्रमा ने उनकी बात का अनादर करके रोहिणी के ही साथ निवास किया।
जब दक्ष को पुनः इसका समाचार मिला तो उन्होंने क्रोध में भरकर सोम के लिये यक्ष्मा की सृष्टि की, यक्ष्मा चन्द्रमा के शरीर में घुस गया। क्षयरोग से पीड़ित हो जाने के कारण चन्द्रमा प्रतिदिन क्षीण होने लगे। उन्होंने उससे छूटने का यत्न भी किया, नाना प्रकार के यज्ञ आदि किये, किन्तु दक्ष के शाप से छुटकारा न मिला, वे प्रतिदिन क्षीण ही होते गये। जब चन्द्रमा की प्रभा नष्ट हो गयी, तो अन्न आदि औषधियों का पैदा होना भी बन्द हो गया। जो पैदा भी हओतईं उनमें न कोई स्वाद होता, न रस। उनकी शक्ति भी नष्ट हो जाती। इस प्रकार अन्न आदि के न होने से सब प्राणियों का नाश होने लगा। सारी प्रजा दुर्बल हो गयी।
तब देवताओं ने चन्द्रमा के पास आकर कहा_'यह आपका रूप कैसा हो गया ? इसमें प्रकाश क्यों नहीं होता ? हमलोगों से सारा कारण बताइये, आपसे पूरा हाल सुनकर फिर हम इसके लिये कोई उपाय करेंगे।'
उनके इस प्रकार पूछने पर चन्द्रमा ने उन्हें अपने को शाप मिलने का कारण बताया और उस शाप के रूप में यक्ष्मा की बीमारी होने का हाल भी कह सुनाया। देवतालोग उनकी बात सुनकर दक्ष के पास गये और बोले_'भगवन् ! आप चन्द्रमा पर प्रसन्न होकर शापनिवृत कीजिये। उनका क्षय होने से प्रजा का भी क्षय हो रहा है। तृण, लता, बेलें, औषधियां तथा नाना प्रकार के बीज_ये सब नष्ट हो रहे हैं। इनके न रहने से हमारा नाश ही हो जायगा। फिर हमारे बिना संसार कैसे रह सकता है ? इस बात पर ध्यान देकर आपको अवश्य कृपा करनी चाहिये।' देवताओं के ऐसा कहने पर प्रजापति बोले_'मेरी बात पलटी नहीं जा सकती, एक शर्त पर इसका प्रभाव कम हो सकता है, यदि चन्द्रमा अपनी सब स्त्रियों के साथ समान वर
ताल करें तो सरस्वती नदी के उत्तम तीर्थ में स्नान करने से ये पुनः पुष्ट हो जायेंगे। फिर ये पंद्रह दिनों तक बराबर क्षीण होंगे और पंद्रह दिनों तक बढ़ते रहेंगे। मेरी यह बात सच्ची मानो। पश्चिम समुद्र के तट पर, जहां सरस्वती नदी सागर में मिलती है, जाकर ये भगवान् शंकर की अराधना करें, इससे इन्हें इनकी खोयी हुई कान्ति मिल जायगी।'
इस प्रकार प्रजापतिकी आज्ञा होने से सोम सरस्वती के प्रथम तीर्थ प्रभास क्षेत्र में गये। वहां अमावस्या को उन्होंने स्नान किया, इससे उनकी प्रतिभा बढ़ गयी, फिर वे समस्त संसार को प्रकाशित करने लगे। तब देवतालोग चन्द्रमा को साथ लेकर प्रजापति के पास गये। उन्होंने देवताओं को तो विदा कर दिया और चन्द्रमा से कहा_'बेटा ! आज से अपनी पत्नियों का तथा ब्राह्मण का अपमान न करना। जाओ, सावधानी के साथ मेरी आज्ञा का पालन करते रहना।
यह कहकर प्रजापति ने उन्हें जाने की आज्ञा दे दी। चन्द्रमा अपने लोक में गये और संपूर्ण प्रजा पूर्ववत् प्रसन्न रहने लगी। जनमेजय ! चन्द्रमा को जिस प्रकार शाप मिला था, वह सारा प्रसंग मैंने तुम्हें सुना दिया, साथ ही सब तीर्थों में प्रधान प्रभास_क्षेत्र का प्रभाव भी बता दिया। उस तीर्थ में स्नान करने के पश्चात् बलरामजी चमसोभ्देद नामक तीर्थ में गये, वहां विधिवत् स्नान करके उन्होंने नाना प्रकार के दिन दिये और एक रात वहीं निवास भी किया। दूसरे दिन उदपान तीर्थ में गये, जहां स्नान करने से मनुष्य का कल्याण हो जाता है। इस तीर्थ में सरस्वती नदी का जल जमीन के भीतर छिपा रहता है।

Sunday 9 July 2023

श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को उलाहना, भीम की प्रशंसा तथा भीम और दुर्योधन में वाग्युद्ध, फिर बलरामजी का आगमन और उनका स्वागत

संजय कहते हैं_महाराज ! यों कहकर दुर्योधन जब बारंबार गर्जना करने लगा, उस समय भगवान् श्रीकृष्ण कुपित होकर युधिष्ठिर से बोले_राजन् ! आपने यह कैसी दु:साहसपूर्ण बात कह डाली कि 'तुम हममें से एक को मारकर कौरवों के राजा हो जाओ।' अगर दुर्योधन अर्जुन, नकुल अथवा सहदेव अथवा आपको ही युद्ध के लिये चुन लें, तब क्या होगा ? मैं आपलोगों में इतनी शक्ति नहीं देखता कि गदायुद्ध में दुर्योधन का मुकाबला कर सकें। इसने भीमसेन का वध करने करने के लिये उनके लोहे की मूर्ति के साथ तेरह वर्षों तक गदायुद्ध का अभ्यास किया है। दुर्योधन का सामना करनेवाला इस समय भीमसेन के सिवा दूसरा कोई नहीं है, आपने फिर पहले ही के समान जूआ खेलना शुरू कर दिया ! आपका यह जूआ शकुनि के जूए से कहीं अधिक भयंकर है ! माना कि भीमसेन बलवान् और समर्थ है, परंतु राजा दुर्योधन ने अभ्यास अधिक किया है। एक ओर बलवान हो और दूसरी ओर युद्ध का अभ्यासी हो तो उनमें अभ्यास करनेवाला ही बड़ा माना जाता है। अतः महाराज! आपने अपने शत्रु को समान मार्ग पर ला दिया है। अपने को विपत्ति में फंसाया और हमलोगों की कठिनाई बढ़ा दी। भला कौन ऐसा होगा, जो सब शत्रुओं को जीत लेने के बाद जब एक ही बाकी रह जाय और वह भी संकट में पड़ा हो तो अपने हाथ में आया हुआ राज्य दांव लगाकर हार जाय, एक के साथ युद्ध की शर्त लगाकर लड़ना पसंद करें। यदि हम न्याय से युद्ध करें तो भीमसेन के विजय में भी संदेह है; क्योंकि दुर्योधन का अभ्यास इनसे अधिक है। तो भी अपने कह दिया कि ' हममें से एक को भी मार डालने पर तुम राजा बन जाओगे। यह सुनकर भीमसेन ने कहा_'मधुसूदन ! आप चिन्ता न कीजिये। आज युद्ध में दुर्योधन को मैं अवश्य मार डालूंगा। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। मुझे तो निश्चय ही धर्मराज की विजय दिखाई देती है। मेरी गदा दुर्योधन की गदा से डेढ़ गुना भारी है। मैं इस गदा से दुर्योधन के साथ भिड़ने का हौसला रखता हूं। आप सब लोग तमाशा देखिये, दुर्योधन की तो विसात ही क्या है, मैं देवताओं सहित तीनों लोकों के साथ युद्ध कर सकता हूं।' संजय कहते हैं_भीमसेन ने जब ऐसी बात कही तो भगवान् बड़े प्रसन्न हुए और उनकी प्रशंसा करते हुए बोले_'महाबाहो ! इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि राजा युधिष्ठिर ने तुम्हारे ही भरोसे अपने शत्रुओं को मारकर उज्जवल राज्यलक्ष्मी प्राप्त की है। धृतराष्ट्र के सब पुत्र तुम्हारे ही हाथ से मारे गये हैं। कितने ही राजे, राजकुमार और हाथी तुम्हारे द्वारा मौत के घाट उतारे जा चुके हैं। कलिंग, मगन, प्राच्य, गांधार और कुरुक्षेत्र के राजाओं का भी तुमने संहार किया है इसी प्रकार आज दुर्योधन को भी मारकर तुम समुद्रसहित यह सारी पृथ्वी धर्मराज के हवाले कर दो। तुमसे भिड़ने पर पापी दुर्योधन अवश्य मारा जायेगा। देखो, तुम इसकी दोनों जांघें तोड़कर अपनी प्रतिज्ञा का पालन करना।' तदनन्तर, सात्यकि ने पाण्डुनन्दन भीम की प्रशंसा की। पाण्डवों तथा पांचालों ने भी उनके प्रति सम्मान भाव प्रदर्शित किया। इसके बाद भीम ने युधिष्ठिर से कहा, 'भैया ! मैं रण में दुर्योधन के साथ लड़ना चाहता हूं, यह पापी मुझे कदापि नहीं परास्त कर सकता। मेरे हृदय में इसके प्रति बहुत दिनों से क्रोध जमा हो रहा है, उसे आज इसके ऊपर छोड़ूंगा और गदा से इसका विनाश करके आपके हृदय का कांटा निकाल दूंगा, अब आप प्रसन्न होइये। अब राजा धृतराष्ट्र अपने पुत्र को मेरे हाथ से मारा गया सुनकर शकुनि की सलाह से किये हुए अपने अशुभ कर्मों को याद करेंगे। यों कहकर भीम ने गदा उठायी और इन्द्र ने जैसे वृत्रासुर को बुलाया था, वैसे ही दुर्योधन को युद्ध के लिये ललकारा। दुर्योधन उनकी ललकार न सह सका, वह तुरंत ही भीम का सामना करने के लिये उपस्थित हो गया। उस समय दुर्योधन के मन में न घबराहट थी न भय, न ग्लानि थी, न व्यथा; वह सिंह के समान निर्भय खड़ा था। उसे देखकर भीमसेन ने कहा_'दुरात्मन् ! तूने तथा राजा धृतराष्ट्र ने हमलोगों पर जो_जो अत्याचार किये थे और वारणावर्त में जो तुम्हारे द्वारा हमारा अहित किया गया, उन सबको याद कर लें। भरी सभा में तूने राजस्वला द्रौपदी को क्लेश पहुंचाया, शकुनि की सलाह लेकर राजा युधिष्ठिर को कपटपूर्वक जूए में हराया तथा निरपराध पाण्डवों पर जितने_जितने अत्याचार तूने किये, उन सबका महान् फल आज अपनी आंखों से देख ले। तेरे ही कारण हमलोगों के पितामह भीष्मजी आज शर_शैय्या पर पड़े हुए हैं। द्रोणाचार्य, कर्ण, शल्य तथा शकुनि_ये सब मारे गये हैं। तेरे भाई, पुत्र, योद्धा तथा कितने ही वीर क्षत्रिय मौत के घाट उतर चुके; अब इस वंश का नाश करने वाला सिर्फ तू ही बाकी रह गया है। आज इस गदा से तुझे भी मार डालूंगा_ इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। आज तेरा घमंड चूर्ण कर दूंगा और राज्य के लिये बढ़ी हुई लालसा भी मिटा दूंगा।' दुर्योधन बोला_वृकोदर ! बहुत बातें बनाने से क्या होगा, मेरे साथ लड़ तो सही, आज युद्ध का तेरा सारा हौसला पूरा कर दूंगा। पापी ! देखता नहीं; मैं हिमालय के शिखर के समान भारी गदा लेकर युद्ध के लिये खड़ा हुआ हूं। मेरे हाथ में गदा होने पर कौन शत्रु मुझे जीतने का साहस कर सकता है। न्यायत: युद्ध हो तो इन्द्र भी मुझे परास्त नहीं कर सकते। कुन्तीनन्दन ! व्यर्थ गर्जना न कर; तुझमें जितना बल हो उसे आज युद्ध में दिखा। संजय कहते हैं_महाराज ! भीमसेन और दुर्योधन में महाभयंकर संग्राम छिड़नेवाला था कि अपने दोनों शिष्यों के युद्ध का समाचार पाकर बलरामजी वहां आ पहुंचे। उन्हें देखकर श्रीकृष्ण तथा पाण्डवों को बड़ी प्रसन्नता है। उन्होंने निकट जाकर उनका चरणस्पर्श किया और विधिवत् उनकी पूजा की। इसके बाद बलरामजी, श्रीकृष्ण, पाण्डवों तथा गदाधारी दुर्योधन को देखकर कहने लगे_'माधव ! मुझे यात्रा में निकले आज बयालीस दिन हो गये। पुष्प नक्षत्र में चला था और श्रवण नक्षत्र में यहां आया हूं। इस समय मैं अपने दोनों शिष्यों का गदायुद्ध देखना चाहता हूं_इसीलिये इधर आया हूं। तदनन्तर युधिष्ठिर ने बलरामजी को गले से लगाकर उनकी कुशल पूछी, श्रीकृष्ण और अर्जुन भी प्रणाम करके उनसे गले मिले। नकुल _सहदेव तथा द्रौपदी के पुत्रों ने भी उन्हें प्रणाम किया। फिर भीमसेन और दुर्योधन ने गदा ऊंची करके उनके प्रति सम्मान प्रकट किया। इस प्रकार सबसे सम्मानित होकर बलरामजी ने सृंजय _पाण्डवों को गले लगाया तथा सब राजाओं से कुशल समाचार पूछा। इसके बाद उन्होंने श्रीकृष्ण और सात्यकि को छाती से लगाकर उनके मस्तक सूंघे। फिर उन दोनों ने भी बड़े प्रेम से उनका पूजन किया। तब धर्मराज युधिष्ठिर ने बलदेवजी से कहा_'भैया बलराम ! अब तुम इन दोनों भाइयों का महान् युद्ध देखो।' उनके ऐसा कहने पर बलरामजी महारथियों से सम्मानित और प्रसन्न होकर राजाओं के मध्य में जा बैठे। फिर तो भीम और दुर्योधन में वैर का अन्त करनेवाला रोमांचकारी युद्ध होने लगा।

Tuesday 4 July 2023

युधिष्ठिर और दुर्योधन का संवाद, युधिष्ठिर के कहने से किसी एक पाण्डव का गदा युद्ध के लिये तैयार होना

संजय कहते हैं_महाराज ! उस सरोवर पर पहुंचकर युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण से कहा_'माधव ! देखिये तो सही दुर्योधन ने जल के भीतर कैसी माया का प्रयोग किया है ? यह पानी को रोककर यहां सो रहा है। यह माया में बड़ा निपुण है। किन्तु यदि साक्षात् इन्द्र भी इन्द्र भी इसकी सहायता करने आवें, तो भी संसार आज इसे मरा हुआ ही देखेगा।' श्रीकृष्ण ने कहा_भारत ! इस मायावी की माया को आप माया से ही नष्ट कर डालिये; आप भी जल में माया का प्रयोग कर इसका वध कीजिये। राजन् ! उद्योग ही सबसे अधिक बलवान है; और कुछ नहीं। उद्योग और उपायों से ही बड़े _बड़े दैत्य, दानव, राक्षस तथा राजा मारे गये हैं, इसलिए आप उद्योग कीजिये। भगवान् के ऐसा कहने पर युधिष्ठिर ने हंसते-हंसते पानी में छिपे हुए आपके पुत्र से कहा_'सुयोधन ! तुमने जल के भीतर किसलिए यह अनुष्ठान आरंभ किया है ? समस्त क्षत्रियों तथा अपने कुल का संहार कराकर अब अपनी जान बचाने के लिये पोखरे में आ घुसे हो ? तुम्हारा यह पहले का दर्प और अभिमान कहां चला गया जो डर के मारे यहां आकर छिपे हो ? सभा में सब लोग तुम्हें शूर कहा करते हैं, किन्तु अब तुम पानी में घुसे हो तो मैं तुम्हारा वह शौर्य व्यर्थ ही समझता हूं। जो कौरव_वंश में जन्म लेने के कारण सदा अपनी प्रशंसा किया करता था वही युद्ध से डरकर पानी में कैसे छिपा बैठा है ? अभी युद्ध का अंत तो हुआ नहीं, फिर तुम्हें जीवित रहने की इच्छा कैसे हो गयी ? इस लड़ाई में पुत्र, भाई, संबंधी मित्र, मामा, बांधव जनों को मरवाकर अब तुम पोखरे में क्यों सो रहे हो ? कहां गया तुम्हारा पौरुष,  कहां गया तुम्हारा अभिमान और कहां गया तुम्हारी वज्र की_सी गर्जना ? तुम तो अस्त्र विद्या के ज्ञाता थे, कहां गया वह सारा ज्ञान ? भारत ! उठो और क्षत्रिय _धर्म के अनुसार हमारे साथ युद्ध करो। हमलोगों को परास्त करके पृथ्वी का राज्य करो अथवा हमारे हाथों भरकर सदा के लिये रणभूमि में सो जाओ।' धर्मराज के ऐसा कहने पर आपके पुत्र ने पानी में से ही जवाब दिया_'महाराज ! किसी भी प्राणी को भय होना आश्चर्य की बात नहीं है, किन्तु मैं प्राणों के भय से यहां नहीं आया हूं। मेरे पास न रथ है, न भाथा। पार्श्वरक्षक और सारथि भी मारे जा चुके हैं। सेना नष्ट हो गयी और मैं अकेला रह गया; इस दशा में मुझे कुछ देर तक विश्राम करने की इच्छा हुई। राजन् ! मैं प्राणों की रक्षा करने या किसी और भय से बचने के लिये अथवा मन में विषाद होने के कारण पानी में नहीं घुसा हूं; सिर्फ तक जाने के कारण ऐसा किया है। तुम भी कुछ देर तक सुस्ता लो, तुम्हारे अनुयायी भी विश्राम कर लें, फिर मैं उठकर तुम सब लोगों के साथ लोहा लूंगा।' युधिष्ठिर ने कहा_सुयोधन ! हम सब लोग सुस्ता चुके हैं और बहुत देर से तुम्हें खोज रहे हैं, इसलिये तुम अभी उठकर युद्ध करो। संग्राम में समस्त पाण्डवों को मारकर समृद्धशाली राज्य का उपभोग करो अथवा हमारे हाथ से भरकर वीरों के मिलनेयोग्य पुण्योंका में चले जाओ।
दुर्योधन बोला_राजन् ! जिनके लिये मैं राज्य चाहता था, वे मेरे सभी भाई मारे जा चुके हैं। पृथ्वी के समस्त पुरुषरत्नों और क्षत्रियपुंगवों का विनाश हो गया है; अब यह भूमि विधवा स्त्री के समान श्रीहीन हो चुकी है; अतः इसके उपभोग के लिये मेरे मन में तनिक भी उत्साह नहीं है। हां आज भी पांडवों तथा पांचालों का उत्साह भंग करके तुम्हें जीतने की आशा रखता हूं। किन्तु जब द्रोण और कर्ण शान्त हो गये, पितामह भीष्म मार डाले गये, तो अब मेरी दृष्टि में इस युद्ध की कोई आवश्यकता नहीं। आज से यह सारी पृथ्वी तुम्हारी ही रहे, मैं इसे नहीं चाहता। मेरे पक्ष के सभी वीर नष्ट हो गये, अतः अब राज्क्य में मेरी रुचि नहीं रही। मैं तो मृगछाला धारण करके आज से वन में ही जाकर रहूंगा। मेरे अपने कहे जानेवाले जब कोई भी मनुष्य जीवित नहीं रहे, तो मैं स्वयं भी जीवित रहना नहीं चाहता। अब तुम जाओ और जिसका राजा मारा गया, योद्धा नष्ट हो गये तथा जिसके रत्न क्षीण हो चुके हैं,  उस पृथ्वी का आनंदपूर्वक उपभोग करो; क्योंकि तुम्हारी आजीविका छीनी जा चुकी है। युधिष्ठिर ने कहा_तात ! तुम जल में बैठे_बैठे प्रलाप न करो। मैं इस संपूर्ण पृथ्वी को तुम्हारे दान के रूप में नहीं लेना चाहता। मैं तो तुम्हें युद्ध में जीतकर ही इसका उपभोग करूंगा। अब तो तुम स्वयं ही पृथ्वी के राजा नहीं रहे, फिर इसका दान कैसे करना चाहते हो ? जब हमलोगों ने अपने कुल में शान्ति कायम करने के लिये धर्मत: याचना की थी, उसी समय तुमने हमें पृथ्वी क्यों नहीं दे दी ! एक बार भगवान श्रीकृष्ण को कोरा जवाब देकर इस समय राज्य देना चाहते हो ? यह कैसी पागलपन की बात है। अब न तो तुम पृथ्वी किसी को दे सकते हो और न छीन ही सकते हो, फिर देने की इच्छा क्यों हुई ? पहले तो सूई की नोक बराबर भी जमीन नहीं देना चाहते थे और आज सारी पृथ्वी देने को तैयार हो गये ! क्या बात है? याद है न, तुमने हमलोगों को जलाने की कोशिश की थी, भीम को विष खिलाकर पानी में डुबाया और विषधर सांपों से डंसवाया। इतना ही नहीं तुमने सारा राज्य छीनकर हमें अपने कपटजाल का शिकार बनाया। तुम्हारे ही आदेश से द्रौपदी के केश और वस्त्र खींचे गये और स्वयं तुमने उसे गालियां सुनायीं। पापी ! इन सब कारण से तुम्हारा जीवन नष्ट_सा हो चुका है। अब उठो और युद्ध करो, इसी में तुम्हारी भलाई है। धृतराष्ट्र ने पूछा _संजय ! मेरा पुत्र दुर्योधन स्वभावत: क्रोधी था, जब युधिष्ठिर ने उसे इस तरह फटकारा तो उसकी क्या दशा हुई? राजा होने के कारण वह सबके आदर के पात्र था, इसलिये ऐसी फटकार उसको कभी नहीं सुननी पड़ी थी। किन्तु उस दिन उसको डांट सहनी पड़ी और वह भी अपने शत्रु पाण्डवों की। संजय ! बताओ, उनकी वे कड़वी बातें सुनकर दुर्योधन ने क्या जवाब दिया? संजय कहते हैं_महाराज ! पानी के भीतर बैठे हुए दुर्योधन को भाइयोंसहित युधिष्ठिर ने जब इस तरह फटकारा तो उनकी कड़वी बातें सुनकर वह क्रोध से दोनों हाथ हिलाने लगा और मन_ही_मन युद्ध का निश्चय करके राजा युधिष्ठिर से बोला_'तुम सभी पाण्डव अपने हितेषी मित्रों को साथ लेकर आये हो, तुम्हारे रथ और वाहन भी मौजूद हैं। तुम्हारे पास बहुत से अस्त्र-शस्त्र होंगे और मैं निहत्था हूं, तुम रथ पर बैठोगे और मैं कहां अकेला_ऐसी दशा में तुम्हारे साथ कैसे युद्ध कर सकता हूं ? युधिष्ठिर ! तुम अपने पक्ष के एक_एक वीर से मुझे बारी_बारी से लड़ाओ। एक को बहुतों के साथ युद्ध के लिये मजबूर करना उचित नहीं है। राजन् ! मैं तुमसे या भीम से जरा भी नहीं डरता। श्रीकृष्ण, अर्जुन तथा पांचालों का भी मुझे भय नहीं है। नकुल, सहदेव, तथा सात्यकि की भी मैं परवा नहीं करता, इनके अतिरिक्त भी तुम्हारे पास जो सैनिक हैं, उनको भी मैं कुछ नहीं समझता। मैं अकेला ही सबको परास्त कर दूंगा। आज भाइयोंसहित तुम्हारा वध करके मैं बाह्लीक, द्रोण, भीष्म, कर्ण, जयद्रथ, भगदत्त, शल्य, भूरीश्रवा और शकुनि के तथा अपने पुत्रों, मित्रों , हितैषियों एवं बन्धु_बान्धवों के ऋण से उऋण हो जाउंगा।' यह कहकर दुर्योधन चुप हो गया। तब युधिष्ठिर ने कहा_'दुर्योधन ! यह जानकर खुशी हुई कि तुम अभी युद्ध का ही विचार रखते हो। यदि तुम्हारी इच्छा हममें से एक_एक के साथ लड़ने की है, तो ऐसा ही करो। कोई भी एक हथियार, जो तुम्हें पसंद है, लेकर मैदान में उतरो और एक ही के साथ लड़ो। बाकी लोग दर्शक बनकर खड़े रहेंगे। इसके अलावा तुम्हारी एक कामना और पूर्ण करता हूं, हममें से एक को भी मार डालोगे तो सारा राज्य तुम्हारा हो जायगा और यदि खुद मारे गये तो स्वर्ग तो तुम्हें मिलेगा ही।' दुर्योधन ने कहा_यदि एक से ही लड़ना है तो मैं युद्ध के लिये ललकारता हूं। किसी भी शूरवीर को मेरा सामना करने के लिये दे दो। तुम्हारे कथनानुसार मैं आयुधों में एकमात्र गदा को ही पसंद करता हूं। तुममें से कोई भी एक वीर, जो मुझे जीतने की शक्ति रखता हो, गदा लेकर पैदल ही आ जाय और मेरे साथ युद्ध करे। युधिष्ठिर ! इस गदा से मैं तुमको, तुम्हारे भाइयों को, पांचालों और सृंजयों को तथा तुम्हारे अन्य सैनिकों को भी परास्त कर सकता हूं। डर तो मुझे इन्द्र से भी नहीं लगता, फिर तुमसे क्या भय करूंगा? युधिष्ठिर बोले_गान्धारीनन्दन ! उठो तो सही, एक_एक के साथ ही गदा युद्ध करके अपने पुरुषत्व का परिचय दो। आओ मेरे ही साथ लड़ो। यदि इन्द्र भी तुम्हारी सहायता करें तो भी आज तुम जीवित नहीं रह सकते। महाराज! युधिष्ठिर के इस कथन को दुर्योधन नहीं सह सका। वह कंधे पर लोहे की गदा रखकर बंधे हुए जल को चीरता हुआ बाहर निकल आया। उस समय सब प्राणियों ने उसे दण्डधारी यमराज के समान ही समझा। उसे पानी से बाहर आया देख पाण्डव तथा पांचाल बहुत प्रसन्न हुए और एक_दूसरे के साथ पर ताली पीटने लगे। दुर्योधन ने इसे अपना उपहास समझा, क्रोध से उसकी त्योरियां चढ़ गयीं। भौहों में तीन जगह बल पड़ गये और वह मानो सबको भस्म कर डालेगा, इस प्रकार श्रीकृष्णसहित पाण्डवों की ओर देखता हुआ बोला_'पाण्डवों ! इस उपहास का फल तुम्हें भोगना पड़ेगा। तुम मेरे हाथ से मारे जाकर इन पांचालों के साथ शीघ्र ही यमलोक में पहुंचोगे ।यों कहकर वह अपने हाथ में गदा लिये खड़ा हुआ, उस समय पाण्डव उसे कोप में भरे हुए यमराज के समान मानने लगे। उसने मेघ के समान गरजकर अपनी गदा दिखाते हुए संपूर्ण पाण्डवों को युद्ध के लिये ललकारा और कहने लगा_'युधिष्ठिर ! तुमलोग एक_एक करके मुझसे युद्ध करने के लिये आते जाओ; क्योंकि एक वीर को एक साथ बहुतों से लड़ना न्याय की बात नहीं है। अगर सब लोग मेरे साथ लड़ना ही चाहो तो भी मैं तैयार हूं, परंतु यह काम उचित है या अनुचित ? यह तो तुम्हें मालूम ही होगा !' कहकर वह अपने हाथ में गदा लिये खड़ा हुआ, उस समय पाण्डव उसे कोप में भरे हुए यमराज के समान मानने लगे। उसने मेघ के समान गरजकर अपनी गदा दिखाते हुए संपूर्ण पाण्डवों को युद्ध के लिये ललकारा और कहने लगा_'युधिष्ठिर ! तुमलोग एक_एक करके मुझसे युद्ध करने के लिये आते जाओ; क्योंकि एक वीर को एक साथ बहुतों से लड़ना न्याय की बात नहीं है। अगर सब लोग मेरे साथ लड़ना ही चाहो तो भी मैं तैयार हूं, परंतु यह काम उचित है या अनुचित ? यह तो तुम्हें मालूम ही होगा !' युधिष्ठिर बोले _दुर्योधन ! जिस समय बहुत_से महारथियों ने मिलकर अकेले अभिमन्यु को मार डाला था, उस समय तुम्हें न्याय_अन्याय की बातक्यों नहीं सूझी ? यदि तुम्हारा धर्म यही कहता है कि बहुत से योद्धा मिलकर एक को न मारें, तो उस दिन तुम्हारी सलाह लेकर बहुत _से योद्धा मिलकर एक को न मारें, तो उस दिन तुम्हारी सलाह लेकर बहुत_से महारथियों ने अभिमन्यु को क्यों मार डाला था ? सच है, स्वयं संकट में पड़ने पर प्रायः सभी लोग धर्म का विचार करने लगते हैं। खैर, जाने दो इन बातों को। कवच पहनो और शिखा बांध लो तथा और जो आवश्यक सामान तुम्हारे पास न हो, वह मुझसे ले लो। इसके सिवा, जैसा कि पहले कह चुका हूं, तुम्हें एक वरदान और देता हूं_तुम पांचों पाण्डवों में से जिसके साथ युद्ध करना चाहो, करो, यदि उसको मार डालोगे तो राज्य तुम्हारा ही होगा और यदि खुद मारे गये तो तुम्हारे लिये स्वर्ग तो है ही। इसके अतिरिक्त भी बताओ, हम तुम्हारा कौन_सा प्रिय कार्य करें ? जीवन की भिक्षा छोड़कर जो चाहो मांग सकते हो। संजय कहते हैं_ तदनन्तर, दुर्योधन सोने का कवच और सुनहरा टोप, ये दो चीजें मांग लीं और उन्हें धारण भी कर लिया। फिर हाथ में गदा लेकर बोला_'राजन् ! तुम्हारे भाइयों में से कोई भी एक आकर मुझसे गदायुद्ध करे। सहदेव, भीम, नकुल , अर्जुन अथवा तुम_कोई भी क्यों न हो, मैं उसके साथ युद्ध करूंगा और उसे जीत भी लूंगा। मेरा ऐसा विश्वास है कि गदायुद्ध में मेरे समान कोई है ही नहीं, गदा से मैं तुम सब लोगों को मार सकता हूं। यदि न्यायत: युद्ध हो तो तुम्हें से कोई भी मेरा सामना नहीं कर सकता। मुझे स्वयं अपने लिये ऐसी गर्भवती बात नहीं कहनी चाहिये, तथापि कहना पड़ा है। अथवा कहने की क्या बात है, मैं तुम्हारे सामने ही सबकुछ सत्य करके दिखा दूंगा। जो मेरे साथ युद्ध करना चाहता हो, वह गदा लेकर सामने आ जाय।'