Monday 30 July 2018

चक्रव्यूह_निर्माण और अभिमन्यु की प्रतिज्ञा

संजय कहते हैं___राजन् ! उस दिन अमित तेजस्वी अर्जुन ने हमारी सेना को पराजित कर युधिष्ठिर की रक्षा की और द्रोणाचार्य का संकल्प सिद्ध नहीं होने दिया। दुर्योधन शत्रुओं का अभ्युदय देखकर उदास और कुपित हो रहा था। दूसरे दिन सवेरे ही उसने सब योद्धाओं के सामने प्रेम और अभिमानपूर्वक द्रोणाचार्य से कहा, ‘द्विजवर ! निश्चय ही हमलोग आपके शत्रुओं में से हैं, तभी तो कल आपने युधिष्ठिर को निकट आ जाने पर भी कैद नहीं किया। शत्रु आपकी आँखों के सामने आ जाय और आप उसे पकड़ना चाहें तो संपूर्ण देवताओं को साथ लेकर भी पाण्डवलोग आपसे उसकी रक्षा नहीं कर सकते। आपने प्रसन्न होकर पहले मुझे वरदान तो दे दिया, किन्तु पीछे उसे पूर्ण नहीं किया।‘दुर्योधन के ऐसा कहने पर आचार्य द्रोण ने कुछ खिन्न होकर कहा, ‘राजन् ! तुम्हें ऐसा नहीं समझना चाहिये। मैं तो सदा तुम्हारा प्रिय करने की चेष्टा करता हूँ। किन्तु क्या करूँ ? अर्जुन जिसकी रक्षा करते  हों, उसे देवता, असुर, गन्धर्व, सर्प, राक्षस तथा संपूर्ण लोक भी नहीं जीत सकते। जहाँ विश्वविधाता भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं, वहाँ शंकर के सिवा और किसका बल काम दे सकता है ? तात ! इस समय तुमसे सत्य कहता हूँ, यह कभी अन्यथा नहीं हो सकता___ आज पाण्डवपक्ष के किसी एक श्रेष्ठ महारथी का नाश करूँगा। आज वह व्यूह बनाऊँगा, जिसे देवता भी नहीं तोड़ सकते। लेकिन अर्जुन को तुम किसी भी उपाय से यहाँ से दूर हटा दो। युद्ध के विषय की कोई भी कला ऐसी नहीं है, जो अर्जुन को ज्ञात न हो अथवा वे उसे कर न सकें। उन्होंने युद्ध का संपूर्ण विज्ञान मुझसे तथा दूसरों से जान लिया है।
द्रोण के ऐसा कहते ही संशप्तकों ने अर्जुन को पुनः युद्ध के लिये ललकारा और उन्हें दक्षिण दिशा की ओर हटा ले गये। उस समय अर्जुन का शत्रुओं के साथ ऐसा घोर युद्ध हुआ जैसा पहले न कभी देखा गया और न सुना ही गया था। महाराज ! इधर, आचार्य द्रोण ने चक्रव्यूह राज्य निर्माण किया; उसमें उन्होंने इन्द्र के समान पराक्रमी राजाओं को सम्मिलित किया और उस व्यूह के अरों के स्थान पर सूर्य के तुल्य तेजस्वी राजकुमारों को खड़ा किया। राजा दुर्योधन इसके मध्यभाग में खड़ा हुआ; उसके साथ महारथी कर्ण, कृपाचार्य और दुःशासन थे। व्यूह के अग्रभाग में द्रोणाचार्य और जयद्रथ खड़े हुए; जयद्रथ के बगल में अश्त्थामा के साथ आपके तीस पुत्र, शकुनि, शल्य और भूरिश्रवा खड़े थे। तदनन्तर कौरवों और पाण्डवों में मृत्यु को ही विश्राम मानकर रोमांचकारी तुमुल युद्ध छिड़ गया।
द्रोणाचार्य द्वारा सुरक्षित उस व्यूह पर भीमसेन को आगे करके पाण्डवों ने आक्रमण किया। सात्यकि, चेकितान, धृष्टधुम्न, कुन्तीभोज, द्रुपद, अभिमन्यु, क्षत्रवर्मा, बृहच्क्षत्र, चेदिराज, धृष्टकेतु, नकुल, सहदेव, युधामन्यु, शिखण्डी, उत्तमौजा, विराट, द्रौपदी के पुत्र, शिशुपाल का पुत्र, केकयराजकुमार और हजारों संजयवंशी क्षत्रिय___ये तथा और भी बहुत से रणोन्मत्त योद्धा युद्ध की इच्छा से सहसा द्रोणाचार्य के ऊपर टूट पड़े। उन्हें अपने निकट पहुँचा देखकर भी आचार्य द्रोण विचलित नहीं हुए, उन्होंने बाणों की वर्षा करके उन सब वीरों को आगे बढ़ने सेे रोक दिया। उस समय हमलोगों ने द्रोण की भुजाओं का अद्भुत पराक्रम देखा कि पांचाल और संजय क्षत्रिय एक साथ मिलकर भी उनका सामना न कर सके। द्रोणाचार्य तो क्रोध में भरकर आगे बढ़ते देख युधिष्ठिर ने उन्हें रोकने को विषय में बहुत विचार किया। द्रोण का सामना करना दूसरों के लिये अत्यन्त कठिन समझकर उन्होंने इस गुरुतर कार्य का भार अभिमन्यु पर रखा। अभिमन्यु अपने मामा श्रीकृष्ण और पिता अर्जुन से कम पराक्रमी नहीं था, वह अत्यन्त तेजस्वी तथा शत्रुपक्ष को वीरों का संहार करनेवाला था। युधिष्ठिर ने उससे कहा___’बेटा अभिमन्यु ! चक्रव्यूह के भेदन का उपाय हमलोग बिलकुल नहीं जानते। इसे तो तुम, अर्जुन, श्रीकृष्ण अथवा प्रद्युम्न ही तोड़ सकते हैं। पाँचवाँ कोई भी इस काम को नहीं कर सकता। अतः तुम शस्त्र लेकर शीघ्र ही द्रोण के इस व्यूह  को तोड़ डालो, नहीं तो युद्ध से लौटने पर अर्जुन हमलोगों को ताना देंगे।‘ अभिमन्यु ने कहा___ आचार्य द्रोण की यह सेना यद्यपि अत्यंत सुदृढ़ और भयंकर है, तथापि मैं अपने पितृवर्ग की विजय के लिये इस व्यूह में अभी प्रवेश करता हूँ। पिताजी ने व्यूह के तोड़ने का उपाय तो मुझे बता दिया है, पर निकलना नहीं बताया है। यदि मैं वहाँ किसी विपत्ति में फँस गया तो निकल नहीं सकूँगा।
युधिष्ठिर बोले___वीरवर ! तुम इस सेना को भेदकर हमलोगों के लिये द्वार बनाओ। फिर जिस मार्ग से तुम जाओगे, तुम्हारे पीछे_पीछे हमलोग भी चलेंगे और सब ओर से तुम्हारी रक्षा करेंगे।भीम ने कहा___मैं, धृष्टधुम्न, सात्यकि तथा पांचाल, मत्स्य, प्रभद्रक और केकय देेश के योद्धा___ ये सब तुम्हारे साथ चलेंगे। एक बार वहाँ तुमने व्यूह भंग किया, वहाँ के बड़े_बड़े वीरों को मारकर हमलोग व्यूह का विध्वंस कर डालेंगे। अभिमन्यु ने कहा____अच्छा, तो अब मैं द्रोण की इस दुर्धर्ष सेना में प्रवेश करता हूँ। आज वह पराक्रम कर दिखाऊँगा, जिससे मेरे मामा और पिता दोनों के कुलों का हित होगा। उससे मामा भी प्रसन्न होंगे और पिताजी भी। यद्यपि मैं बालक हूँ, तो भी संपूर्ण प्राणी देखेंगे कि मैं किस तरह आज अकेले ही शत्रुसेना को काल का ग्रास बनाता हूँ। यदि जीते_जी युद्ध में मेरे सामने कोई जीवित बच जाय तो मैं अर्जुन का पुत्र नहीं और माता सुभद्रा के गर्भ से मेरा जन्म नहीं हुआ। युधिष्ठिर ने कहा___ सुभद्रानन्दन ! तुम द्रोण की दुर्घर्ष सेना को तोड़ने का उत्साह दिखा रहे हो, इसलिये ऐसी वीरताभरी बातें करते हुए तुम्हारा बल सदा बढ़ता रहे। संजय कहते हैं___धर्मराज युधिष्ठिर की बात सुनकर अभिमन्यु ने सारथि को द्रोण की सेना के पास रथ ले चलने को कहा। जब बारम्बार चलने की आज्ञा दी तो सारथि ने उससे कहा___’आयुष्मान् ! पाण्डवों ने आपपर यह बहुत बड़ा भार रख दिया है; आप थोड़ी देर इस पर विचार तर लीजिये, फिर युद्ध कीजियेगा। आचार्य द्रोण बड़े विद्वान हैं, उन्होंने उत्तम अस्त्रविद्या में बड़ा परिश्रम किया है। इधर आप बड़े सुख और आराम में पले हैं तथा युद्धविद्या में भी उनके समान निपुण नहीं हैं।‘
सारथि की बात सुनकर अभिमन्यु ने उससे हँसकर कहा,  ‘सूत ! यह द्रोण अथवा क्षत्रिय_समुदाय क्या है ? यदि साक्षात् इन्द्र देवताओं के साथ आ जायँ अथवा भूतगणों को साथ लेकर शंकर उतर आवें तो मैं उनसे भी युद्ध कर सकता हूँ। इस क्षत्रियसमूह को देखकर आज मुझे आश्चर्य नहीं हो रहा है। यह संपूर्ण शत्रुसेना मेरी सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं है। और तो क्या, विश्वविजयी मामा श्रीकृष्ण और पिता अर्जुन को भी अपने विपक्ष में पाकर मुझे भय नहीं होगा।‘ इस प्रकार सारथि की बात की अवहेलना करके अभिमन्यु ने उसे शीघ्र ही द्रोण की सेना के पास चलने की आज्ञा दी। यह सुनकर सारथि मन में बहुत प्रसन्न तो नहीं हुआ, परन्तु घोड़ों को उसने द्रोण की ओर बढ़ाया। पाण्डव भी अभिमन्यु केे पीछे_पीछे चले। उसे आते देख कौरव_पक्ष के सभी योद्धा द्रोण को आगे करके उसका सामना करने के लिये डट गये।

Monday 23 July 2018

वृषक, अचल और नील आदि का वध; शकुनि और कर्ण की पराजय

संजय ने कहा___भगदत्त को मारकर अर्जुन दक्षिण दिशा की ओर घूमे। उधर से गांधारराज के दो पुत्र वृषक और अचल आ पहुँचे तथा दोनों भाई युद्ध में अर्जुन को पीड़ित करने लगे। एक तो अर्जुन के सामने खड़ा हो गया और दूसरा पीछे; फिर दोनों एक साथ तीखे बाणों से उन्हें बींधने लगे। तब अर्जुन ने अपने पैने बाणों से वृषक के सारथि, धनुष, छत्र, ध्वजा, रथ और घोडों की धज्जियाँ उड़ा दीं तथा नाना प्रकार के अस्त्रों और बाणसमूहों से बींधकर गान्धारदेशीय योद्धाओं को व्याकुल कर डाला। साथ ही, क्रोध में भरकर उन्होंने पाँच सौ गांधारवीरों को यमलोक भेज दिया।
वृषक के रथ के घोड़े मारे जा चुके थे, इसलिये उससे कूदकर वह अपने भाई अचल के रथ पर जा बैठा और उसने दूसरा धनुष हाथ में ले लिया। अब तो वृषक और अचल देने भाई बाणों का वर्षा करके अर्जुन को बींधने लगे। वे दोनों रथ पर एक दूसरे से सट कर बैठे थे, उसी अवस्था में अर्जुन ने एक ही बाण से दोनों को मार डाला। दोनों एक साथ ही रथ सो नीचे गिर पड़े। राजन् ! अपने दोनों मामाओं को मरा देख आपके पुत्र आँसू बहाने लगे। भाइयों को मृत्यु के मुख में पड़ा देख सैकड़ों प्रकार की माया जाननेवाले शकुनि ने श्रीकृष्ण और अर्जुन को मोह में डालने के लिये माया की रचना की। उस समय समस्त दिशाओं और उपदिशाओं से अर्जुन पर लोहे के गोले, पत्थर, शक्ति, गदा, परिघ, तलवार, शूल, मुद्गर, पट्टिश, नख, मूसल, फरसा, छुरा, क्षुरप्र, नालीक, वत्सदत्त, अस्थिसंधि, चक्र, बाण और प्रास आदि अस्त्र_शस्त्रों की वर्षा होने लगी। गदहे, ऊँट, भैंसे, सिंह, व्याघ्र, चीते, रीछ, कुत्ते, गीध, बन्दर, साँप तथा नाना प्रकार के राक्षस और पक्षी भूखे तथा क्रोध में भरे हुए सब ओर से अर्जुन की ओर टूट पड़े। अर्जुन तो दिव्य अस्त्रों के ज्ञाता थे ही, सहसा बाणों की वृष्टि करते हुए उन जीवों को मारने लगे। अर्जुन की सुदृढ़ सायकों की मार पड़ने से वे सभी प्राणी जोर_जोर से चित्कार करते हुए नष्ट हो गये। इतने में ही अर्जुन के रथ पर अंधेरा छा गया। उसमें से बड़ी क्रूर बातें सुनाई देने लगी। परन्तु उन्होंने ‘ज्योतिष’ नाम का अत्यन्त उत्तम अस्त्र का प्रयोग करके उस भयंकर अंधकार का नाश कर दिया। अंधेरा दूर होते ही वहाँ भयानक जलधाराएँ गिरने लगीं। तब अर्जुन ने ‘आदित्यास्त्र’ का प्रयोग करके वह सारा जल सुखा दिया। इस प्रकार शकुनि ने अनेकों प्रकार की मायाएँ रचीं, किन्तु अर्जुन ने हँसते_हँसते अपने अस्त्रबल से उन सबका नाश कर दिया। जब संपूर्ण माया का नाश हो गया और शकुनि अर्जुन के बाणों से विशेष आहत हो गया, तब वह भयभीत होकर रणभूमि से भाग गया। तदनन्तर अर्जुन कौरव_सेना का विध्वंस करने लगे। वे बाणों की वर्षा करते हुए आगे चले जा रहे थे, किन्तु कोई भी धनुर्धर वीर उन्हें रोक न सका। अर्जुन की मार से पीड़ित हो आपकी सेना इधर_उधर भागने लगी। उस समय घबराहट के कारण आपके बहुत_से सैनिकों ने अपने ही पक्ष के योद्धाओं का संहार कर डाला। अर्जुन हाथी, घोड़े और मनुष्यों पर उस समय दूसरा बाण नहीं छोड़ते थे, एक ही बाण से आहत होकर वे प्राणहीन और धराशायी हो जाते थे।  मारे गये मनुष्य, हाथी और घोड़ों की लाशों से भरी हुई उस रणभूमि की अद्भुत शोभा हो रही थी। सभी योद्धा बाणों की मार से व्याकुल हो रहे थे, उस समय बाप बेटे और बेटा बाप को छोड़कर चल देता था। मित्र_मित्र की बात नहीं पूछता था। लोग अपना सवारी भी छोड़कर भाग चले थे।
इधर, द्रोणाचार्य अपने तीक्ष्ण बाणों से पाण्डवसेना छिन्न_भिन्न करने लगे। अद्भुत पराक्रमी द्रोण उस समय उन योद्धाओं को कुचल रहे थे, सेनापति धृष्टधुम्न ने स्वयं आकर द्रोण के चारों ओर घेरा डाल दिया। फिर तो द्रोणाचार्य और धृष्टधुम्न में अद्भुत युद्ध होने लगा। दूसरी ओर अग्नि के समान तेजस्वी राजा नील अपने बाणों से कौरवसेना को भस्म करने लगा। उसे इस प्रकार संहार करते देख अश्त्थामा ने हँसकर कहा___’नील ! तुम अपनी बाणाग्नि से इन अनेक योद्धाओं को क्यों भस्म कर रहे हो, साहस हो तो केवल मेरे साथ लड़ो।‘ यह ललकार सुनकर नील ने बाणों से अश्त्थामा को बींध दिया। तब उसने भी तीन बाण मारकर नील के धनुष, ध्वजा और छत्र को काट डाला। यह देख नील हाथ में ढाल_तलवार लेकर रथ से कूद पड़ा और अश्त्थामा के सिर को काटना ही चाहता था कि उसी ने भाला मारकर नील के कुण्डलसहित मस्तक को काट गिराया। नील पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसकी मृत्यु से पाण्डवसेना को बड़ा दुःख हुआ। इतने में अर्जुन बहुत से संशप्तकों को जीतकर, जहाँ द्रोणाचार्य पाण्डवसेना का संहार कर रहे थे वहाँ आ पहुँचे और कौरव योद्धाओं को अपने शस्त्रों की आग में जलाने लगे। उनके सहस्त्रों बाणों से पीड़ित होकर कितने ही हाथीसवार, घुड़सवार और पैदल सैनिक भूमि पर गिरने लगे। कितने ही आर्तस्वर से कराहने लगे। कितनों ने गिरते ही प्राण त्याग दिये। उनमें से जो उठते_गिरते भागने लगे, उन योद्धाओं को अर्जुन ने युद्धसंबंधी नियम का स्मरण करके नहीं मारा। भागते हुए कौरव ‘हा कर्ण ! ‘हा कर्ण !  ऐसे पुकारने लगे। शरणार्थियों का वह करुण क्रंदन  सुनकर___’वीरों ! डरो मत’ ऐसा कहकर कर्ण अर्जुन का सामना करने चला। कर्ण अस्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ था, उसने उस समय आग्नेयास्त्र प्रकट किया; परन्तु अर्जुन ने उसे शान्त कर दिया। इसी प्रकार कर्ण ने भी अर्जुन के तेजस्वी बाणों का अपने अस्त्र से निवारण कर दिया और बाणों की वर्षा करते हुए सिंहनाद किया। तब धृष्टधुम्न, भीम और सात्यकि भी वहाँ पहुँचकर कर्ण को बाणों से बींधने लगे। कर्ण ने भी तीन बाणों से उन तीनों वीरों के धनुष काट डाले। तब उन्होंने कर्ण पर शक्तियों का प्रहार करके सिंहों के समान गर्जना की। कर्ण भी तीन_तीन बाणों से उन शक्तियों को टुकड़े_टुकड़े करके अर्जुन पर बाण बरसाता हुआ गर्जने लगा। यह देख अर्जुन ने सात बाणों से कर्ण को बींधकर उसके छोटे भाई को मार डाला, फिर उसके दूसरे भाई शत्रुंजय को भी छः बाणों से मौत के घाट उतारा। उसके बाद एक भाला मारकर विराट के भी मस्तक को काटकर उसे रथ से गिरा दिया। इस प्रकार कौरवों के देखते_देखते कर्ण के सामने ही उसके तीनों भाइयों को अर्जुन ने अकेले ही मार डाला।
तदनन्तर, भीमसेन भी अपने रथ से कूद पड़े और तलवार से कर्णपक्ष के पंद्रह वीरों को मारकर फिर अपने रथ पर चढ़ आये। इसके बाद दूसरा धनुष लेकर उन्होंने कर्ण को दस तथा उसके सारथि और घोड़ों को पाँच बाणों से बींध डाला। इसी प्रकार धृष्टधुम्न भी अपने रथ से उतरकर ढाल_तलवार लिये आगे बढ़ा और चन्द्रवर्मा तथा निषधदेश के राजा बृहच्क्षत्र को मारकर पुनः रथ पर आ गया। फिर दूसरा धनुष हाथ में ले उसने सिंहनाद करते हुए  तिहत्तर बाणों से कर्ण को बींध दिया। इसके बाद सात्यकि ने भी दूसरा धनुष उठाया और चौंसठ बाणों से कर्ण को बींधकर  सिंह के समान गर्जना की। फिर दो बाणों से कर्ण का धनुष काट दिया और तीन बाणों से उसकी बाहुओं तथा छाती में प्रहार किया। कर्ण सात्यकिरूपी समुद्र में डूब रहा था; उस समय दुर्योधन, द्रोणाचार्य और जयद्रथ ने आकर उसके प्राण बचाये। फिर तो,आपकी सेना के सैकड़ों पैदल, रथी और हाथीसवार योद्धा कर्ण की रक्षा के लिये दौड़ पड़े। दूसरी ओर धृष्टधुम्न, भीमसेन, अभिमन्यु, नकुल और सहदेव सात्यकि की रक्षा करने लगे। इस प्रकार वहाँ समस्त धनुर्धारियों का नाश करने करने के लिये महाभयानक संग्राम छिड़ गया। आपके और पाण्डवपक्ष के वीरों में प्राणों का मोह छोड़कर युद्ध होने लगा। इतने में सूर्य अस्ताचल को जा पहुँचा। तब दोनों ओर का थकी_माँदी और लोहूलुहान हुई सेनाएँ एक_दूसरे को देखती हुई धीरे_धीरे अपने शिविर को लौट गयीं।

Monday 16 July 2018

भगदत्त की वीरता, अर्जुन द्वारा संशप्तकों का नाश तथा भगदत्त की वध

धृतराष्ट्र ने पूछा___ संजय ! जब पाण्डवलोग लौटकर इस प्रकार युद्ध के लिये अलग_अलग बँट गये तो मेरे पुत्रों ने और उन्होंने किस प्रकार युद्ध किया ?
संजय ने कहा___जब सब लोग संग्राम के लिये सजकर तैयार हो गये तो आपके पुत्र दुर्योधन ने गजारोहियों का सेना लेकर भीमसेन के ऊपर धावा किया। किन्तु युद्धकुशल भीम ने थोड़ी ही देर में उस गजसेना के व्यूह को तोड़ दिया। उनके बाणों से हाथियों का सारा मद उतर गया और वे मुँह फेरकर भागने लगे। इसी तरह भीमसेन ने उस सारी सेना को कुचल डाला। यह देखकर दुर्योधन का क्रोध भड़क उठा और वह भीमसेन के सामने आकर उन्हें अपने पैने बाणों से बींधने लगा।    किन्तु एक क्षण में ही भीमसेन ने अपने बाण बरसाकर उसे घायल कर दिया तथा दो बाण छोड़कर उसकी ध्वजा में चित्रित मणिमय हाथी और धनुष को काट डाला। इस प्रकार दुर्योधन को पीड़ित होते देख अंगदेश का राजा हाथी पर सवार हुआ भीमसेन के सामने आया। उसके हाथी को अपनी ओर आते देखकर भीमसेन ने बाणों की वर्षा करके उसके मस्तक को बहुत घायल कर दिया। इससे वह घबराकर पृथ्वी पर गिर गया। हाथी के गिरने के साथ अंगराज भी जमीन पर गिर गया। उसी समय फुर्तीले भीमसेन ने एक बाण से उसका सिर उड़ा दिया। यह देखते ही उसकी सेना घबराकर भाग गयी। इसके बाद एरावत के वंश में उत्पन्न हुए एक विशालकाय गजराज पर चढ़ प्राग्यज्योतिषनरेश भगदत्त ने भीमसेन पर आक्रमण किया। उनके हाथी ने क्रोध में भरकर अपने आगे के दो पैर और सूँड़ से भीमसेन के रथ और घोड़ों को एकदम कुचल डाला। भीमसेन अंजलिकावेध ( हाथी के पेट पर एक स्थानविशेष को हाथ से थपथपाना ‘ अंजलिवेध’ कहलाता है। यह हाथी को अच्छा लगता है और महावीर के हाँकने पर भी वह आगे नहीं बढ़ता। ऐसा करके भीमसेन ने अपने ऊपर बिगड़े हुए भगदत्त के हाथी को अपने काबू में कर लिया ) जानते थे। इसलिये वे भागे नहीं, बल्कि दौड़कर हाथी के पेट के नीचे छिप गये और बार_बार उसे थपथपाने लगे। उस गजराज में दस हजार हाथियों के समान बल था और वह भीमसेन को मार डालने पर तुला हुआ था, इसलिये बड़ी तेजी से कुम्हार के चाक के समान चक्कर लगाने लगा। तब भीमसेन नीचे से निकलकर उसके सामने आ गये। हाथी ने उन्हें सूँड़ से गिराकर घुटनों से मसलना आरम्भ किया। तब भीमसेन ने अपने शरीर को घुमाकर उसकी सूँड़ से निकाल लिया और वे फिर उसके शरीर के नीचे छिप गये। कुछ देर में वे उससे बाहर आकर बड़े वेग से भाग गये। यह देखकर सारी सेना में बड़ा कोलाहल होने लगा। पाण्डवों की सेना उस हाथी से बहुत डर गयी और जहाँ भीमसेन खड़े थे, वहीं पहुँच गयी। तब महाराज युधिष्ठिर ने पांचालवीरों को साथ लेकर राजा भगदत्त को सब ओर से घेर लिया और उन पर सैकड़ों_हजारों बाणों से वार किया। किन्तु भगदत्त ने पांचालवीरों के उस प्रहार को अपने अंकुश से ही व्यर्थ कर दिया और फिर अपने हाथों से ही पांचाल और पाण्डववीरों को रौंदने लगे। संग्रामभूमि में भगदत्त का यह बड़ा ही अद्भुत पराक्रम था। इसके बाद दशार्ण देश का राजा हाथी पर चढ़कर भगदत्त के सामने आया। अब दोनों हाथियों का बड़ा भयंकर युद्ध छिड़ गया। भगदत्त के हाथी ने पीछे हटकर फिर एक साथ ऐसी टक्कर मारी कि दशार्णराज के हाथी की पसलियाँ टूट गयीं। वह तुरंत पृथ्वी पर गिर गया। इसी समय भगदत्त ने सात चमचमाते हुए तोमरों से हाथी पर बैठे हुए दशार्णराज को मार डाला।
अब युधिष्ठिर ने बड़ी भारी रथसेना लेकर भगदत्त को चारों ओर से घेर लिया। परंतु प्राग्यज्योतिषनरेश ने अपने हाथी को यकायक सात्यकि के रथ पर छोड़ दिया। हाथी ने उसके रथ को उठाकर बड़े वेग से दूर फेंक दिया। किन्तु सात्यकि रथ में से कूदकर भाग गया। तब कृति का पुत्र रुचिपर्वा भगदत्त के सामने आया। वह एक रथ पर सवार था। उसने काल के समान बाणों की वर्षा करनी आरम्भ कर दी। किन्तु भगदत्त ने एक ही बाण से उसे यमराज के घर भेज दिया। वीर रुचिपर्वा के मारे जाने पर अभिमन्यु, द्रौपदी के पुत्र, चेकितान, धृष्टकेतू और युयुत्सु आदि योद्धा भगदत्त के हाथी को तंग करने लगे। उसका काम तमाम करने के लिये उन्होंने उस पर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। किन्तु जब महावत ने उसे एड़ी, अंकुश और अंगूठे से गुदगुदाकर बढ़ाया तो वह गूँज, फैलाकर तथा कान और नेत्रों को स्थिर करके शत्रुओं की ओर चला। उसने युयुत्सु के घोड़ों को पैर से दबाकर उसके सारथि को मार डाला। तब युयुत्सु तुरंत ही रथ से कूदकर भाग गया। तब अभिमन्यु ने बारह, युयुत्सु ने दस तथा द्रौपदी के पाँचों पुत्र और धृष्टकेतू ने दस तथा द्रौपदी के पाँचों पुत्र और धृष्टकेतू ने तीन_तीन बाण मारकर उसे घायल कर दिया। शत्रुओं के बाणवर्षा ने उसे बड़ी ही पीड़ा पहुँचायी। महावत ने उसे फिर युक्तिपूर्वक बढ़ाया। इससे कुपित होकर वह शत्रुओं को उठा_उठाकर अपने दायें_बायें फेंकने लगा। इससे सभी वीरों को भय ने दबा लिया। गजारोही, अश्वारोही, रथी और राजा सभी डरकर भागने लगे। उस समय उनके कोलाहल से बड़ा भीषण शब्द होने लगा। वायु बड़े वेग से बह रहा था, इसलिये आकाश और समस्त सैनिक धूल से ढक गये।
इस प्रकार भगदत्त के अनेकों पराक्रम दिखाने पर जब अर्जुन ने आकाश में धूल उठती देखी और हाथी की चिग्घार सुनी तो उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा, ‘मधुसूदन ! मालूम होता है प्राग्यज्योतिषनरेश भगदत्त आज हाथी पर चढ़कर हमारी सेना पर टूट पड़े हैं। निःसंदेह यह चिग्घार उन्हीं के हाथी की है। मेरा तो ऐसा विचार है कि ये युद्ध में इन्द्र से कम नहीं है। गजारोहियों में पृथ्वी भर में सबसे श्रेष्ठ कहा जा सकता है। आज ये अकेले ही पाण्डवों की सारी सेना को नष्ट कर देंगे। हम दोनों के सिवा इनकी गति को रोकने में और कोई समर्थ नहीं है। इसलिये अब जल्दी ही उनकी ओर चलिये।‘ अर्जुन के ऐसा कहने पर भगवान् श्रीकृष्ण उनके रथ को उसी ओर ले चले, जिधर भगदत्त पाण्डवों की सेना का संहार कर रहे थे। उन्हें आते देखकर चौदह हजार संशप्तक, दस हजार त्रिगर्त और चार हजार नारायणीसेना के वीर पीछे से पुकारने लगे। अब अर्जुन का हृदय दुविधा में पड़ गया। वे सोचने लगे कि ‘मैं संशप्तकों की ओर लौटूँ या राजा युधिष्ठिर के पास जाऊँ ? इन दोनों में ये कौन सा काम करना विशेष हितकर होगा ?’ अन्त में उनका विचार संशप्तकों के वध करने के पक्ष में ही अधिक स्थिर हुआ। इसलिये वे अकेले ही हजारों वीरों का सफाया करने के विचार से संशप्तकों की ओर लौट पड़े। संशप्तक महारथियों ने एक साथ हजारों बाण अर्जुन पर छोड़े। उनसे बिलकुल ढक जाने के कारण अर्जुन, कृष्ण तथा उनके घोड़े और रथ सभी दीखने बन्द हो गये। तब अर्जुन ने बात_की_बात में उन्हें ब्रह्मास्त्र से नष्ट कर दिया। फिर उनके बाणों से संग्रामभूमि में अनेकों ध्वजाएँ, घोड़े, सारथि, हाथी और महावत कट_कटकर गिर गये; अनेकों वीर की भुजाएँ, जिनमें ऋृष्टि, प्रास, तलवार, बखनख, मुद्गर और फरसे आदि लगे हुए थे, कटकर इधर_उधर फैल गयीं तथा उनके सिर जहाँ_तहाँ लुढ़कने लगे। अर्जुन का यह अद्भुत पराक्रम देखकर श्रीकृष्ण को बड़ा आश्चर्य हुआ और वे रहने लगे, ‘पार्थ ! आज तुमने जो काम किया है, मेरे विचार से यह इन्द्र, यम और कुबेर से भी होना कठिन है। मैंने युद्ध में प्रत्यक्ष ही सैकड़ों_हजारों संशप्तक महारथियों को एक साथ गिरते देखा है।‘
इस प्रकार यहाँ जो संशप्तक वीर मौजूद थे, उनमें से अधिकांश को मारकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा___’अब भगदत्त की ओर चलिये।‘ तब श्रीमाधव ने बड़ी फुर्ती से घोड़ों को द्रोणाचार्य की सेना की ओर मोड़ दिया। यह देखकर सुशर्मा ने अपने भाइयों को साथ लेकर उनका पीछा किया। तब अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा, ‘अच्युत ! देखिये, इधर तो अपने भाइयों के सहित सुशर्मा मुझे युद्ध के लिये ललकार रहा है और उधर उत्तर दिशा में हमारी सेना का संहार हो रहा है। बताइये, इनमें से कौन काम करना हमारे लिये अधिक हितकर होगा ?’ यह सुनकर श्रीकृष्ण ने त्रिगर्तराज सुशर्मा की ओर रथ मोड़ दिया। अर्जुन ने तुरंत ही सात बाणों से सुशर्मा को बींधकर दो बाणों से उसके धनुष और ध्वजा को काट डाला। फिर छः बाणों से उसके भाई को सारथि और घोड़ोंसहित यमराज के पास भेज दिया। तब सुशर्मा ने तककर अर्जुन पर एक लोहे की शक्ति और तोमर दोनों को ही काट डाला और फिर बाणों की वर्षा से सुशर्मा को मूर्छित कर द्रोण की ओर लौट गये।
उन्होंने अपनी बाणवर्षा से कौरवों की सेना को छा दिया और फिर भगदत्त के सामने जाकर डट गये। भगदत्त मेघ के समान श्यामवर्ण हाथी हर चढ़े हुए थे।उन्होंने अर्जुन पर बाणों की वर्षा करनी आरम्भ कर दी। किन्तु अर्जुन ने बीच में ही उन सब बाणों को काट डाला। इसपर भगदत्त ने भी अर्जुन के बाणों को रोककर श्रीकृष्ण और उन पर बाणों की चोट आरम्भ की। तब अर्जुन ने उनके धनुष को काट डाला। इस पर भगदत्त ने भी अर्जुन के बाणों को रोककर श्रीकृष्ण और उन पर बाणों की चोट आरम्भ की। तब अर्जुन ने उनके धनुष को काट डाला। अंगरक्षकों को मारकर गिरा दिया और भगदत्त के साथ खेल_सा करते हुए युद्ध करने लगे। भगदत्त ने उन पर चौदह तोमर छोड़े, किन्तु उन्होंने प्रत्येक के दो_दो टुकड़े कर दिये। फिर उन्होंने भगदत्त के हाथी का कवच काट डाला। तब भगदत्त ने श्रीकृष्ण पर एक लोहे की शक्ति छोड़ी, किन्तु अर्जुन ने उसके दो टुकड़े कर डाले तथा भगदत्त के छत्र और ध्वजा को काटकर उन्हें दस बाणों से बींध डाला। इससे भगदत्त को बड़ा विस्मय हुआ। इस प्रकार अर्जुन के बाणों से बिंधे हुए भगदत्त ने भी क्रोध में भरकर उसके मस्तक पर कई बाण मारे। इससे उनका मुकुट कुछ टेढ़ा हो गया। मुकुट को सीधा करते हुए अर्जुन ने भगदत्त से कहा___'राजन् ! अब तुम इस संसार को जी भरकर देख लो।‘ यह सुनकर भगदत्त क्रोध में भर गये और अर्जुन तथा श्रीकृष्ण पर बाणों की वर्षा करने लगे। यह देख अर्जुन ने बड़ी फुर्ती से उनके धनुष और तरकसों को काट डाला तथा बहत्तर बाणों से उसके मर्मस्थानों को बींध दिया। इससे अत्यंत व्यथित होकर भगदत्त ने वैष्णवास्त्र का आह्वान किया और उससे अंकुश को अभिमन्त्रित करके उसे अर्जुन की छाती पर चलाया। भगदत्त का वह अस्त्र सबका नाश करनेवाला था, अत: श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ओट में करके उसे अपनी ही छाती पर झेल लिया। इससे अर्जुन के चित्त को बड़ा क्लेश पहुँचा और उन्होंने श्रीकृष्ण को कहा, ‘भगवन् ! आपने तो प्रतिज्ञा की है कि ‘मैं युद्ध न करके केवल सारथि का काम करूँगा; किंतु अब आप अपनी प्रतिज्ञा का पालन नहीं कर रहे हैं। यदि मैं संकट में पड़ जाता या अस्त्र का निवारण करने में असमर्थ हो जाता, उस समय आपका ऐसा करना उचित होता। आपको भी यह मालूम है कि यदि मेरे हाथ में धनुष और बाण हो तो मैं तो मैं देवता, असुर और मनुष्योंसहित सम्पूर्ण लोकों को जीतने में समर्थ हूँ।‘ यह सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से ये रहस्यपूर्ण वचन कहे, ‘कुन्तीनन्दन ! सुनो; मैं तुम्हें एक गुप्त बात बताता हूँ, जो पूर्वकाल में घटित हो चुकी है। मैं चार स्वरूप धारण कर सदा संपूर्ण लोकों की रक्षा में तत्पर रहता हूँ। अपने को ही अनेकों रूपों में विभक्त करके संसार का हित करता हूँ। [ ‘नारायण’ नाम से प्रसिद्ध ] मेरी एक मूर्ति इस भूमण्डल पर रहकर तपस्या करती है। दूसरी मूर्ति जगत् के शुभाशुभ कर्मों पर दृष्टि रखती है। तीसरी मनुष्यलोक में आकर नाना प्रकार के कर्म करती है और चौथी वह है, जो हजार वर्षों तक जल में शयन करती है। वह मेरा चौथा विग्रह जब हजार वर्ष के पश्चात् शयन से उठता है, उस समय वर पाने योग्य भक्तों तथा ऋषि_महर्षियों को उत्तम वरदान देता है। एक बार, जबकि वही समय प्राप्त था, पृथ्वीदेवी ने मुझसे जाकर यह वरदान माँगा कि ‘मेरा पुत्र ( नरकासुर ) देवता तथा असुरों से अवध्य हो और उसके पास वैष्णवास्त्र रहे।‘ पृथ्वी की यह याचना सुनकर मैंने उसके पुत्र को अमोघ वैष्णवास्त्र दिया और उससे कहा___’पृथ्वी ! यह अमोघ वैष्णवास्त्र नरकासुर की रक्षा के लिये उसके पास रहेगा, अब इसे कोई नहीं मार सकेगा।‘ पृथ्वी की मनोकामना पूरी हुई और वह ‘ऐसा ही हो' कहकर चली गयी तथा वह नरकासुर,भी दुर्घर्ष होकर शत्रुओं को संताप देने लगा। अर्जुन ! वही मेरा वैष्णवास्त्र नरकासुर से भगदत्त को प्राप्त हुआ था। रुद्र और इन्द्र आदि देवताओं सहित संपूर्ण लोकों में ऐसा कोई भी नहीं है, जो इस अस्त्र से मारा जा सके। अतः तुम्हारी प्राणरक्षा के लिये ही मैंने इस अस्त्र की चोट स्वयं सह ली और इसे व्यर्थ कर दिया है। अब भगदत्त के पास यह दिव्य अस्त्र नहीं रहा, अतः इस महान् असुर को तुम मार डालो।‘ महात्मा श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर अर्जुन ने सहसा तीक्ष्ण बाणों की वर्षा करके भगदत्त को ढक दिया और उनके हाथी के दोनों कुम्भस्थलों के बीच में बाण मारा। वह बाण पूँछसहित उसके मस्तक में धँस गया। फिर तो राजा भगदत्त के बार_बार हाँकने पर भी आगे न बढ़ सका और आर्तस्वर से चिघ्घाड़ते हुए उसने प्राण त्याग दिये। तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा__’पार्थ ! यह भगदत्त बहुत बड़ी उम्र का है, इसके सिर के बाल सफेद हो गये हैं। पलकें ऊपर न उठने के कारण इसकी आँखें प्रायः बन्द रहती हैं; इस समय इसने आँखों को खुली रखने के लिये कपड़े की पट्टी से पलकों को ललाट में बाँध रखा है।‘ भगवान् के कहने से अर्जुन ने बाण मारकर भगदत्त के सिर की पट्टी काट दी, उसके पश्चात् ही भगदत्त की आँखें बन्द हो गयीं। तत्पश्चात् एक अर्धचन्द्राकार बाण मारकर अर्जुन ने राजा भगदत्त की छाती छेद दी। उसका हृदय फट गया, प्राणपखेरू उड़ गये और हाथ से धनुष_बाण छूटकर गिर पड़े। पहले उनके मस्तक से खिसककर पगड़ी गिरी, फिर वे स्वयं भी पृथ्वी पर गिर गये। पहले उसके मस्तक से खिसककर पगड़ी गिरी, फिर वे स्वयं भी पृथ्वी पर गिर गये। इस प्रकार अर्जुन ने उस युद्ध में इन्द्र के सखा राजा भगदत्त का वध किया और कौरवपक्ष के अन्यान्य योद्धाओं का संहार कर डाला।