Sunday 28 March 2021

त्रिपुरों की उत्पत्ति और उनके नाश का प्रसंग

दुर्योधन ने कहा_महाराज शल्य ! पूर्वकाल में महर्षि मार्कण्डेय ने मेरे पिताजी से एक उपाख्यान कहा था। वह सब कथा मैं आपको सुनाता हूँ। उसे सुनिये और मैंने जो प्रार्थना की है, उसके विषय में किसी प्रकार का विचार न कीजिये।
पहले तारकामय नाम का एक संग्राम हुआ था । उसमें देवताओं ने दैत्यों को परास्त कर दिया। उस समय तारक दैत्यों को परास्त कर दिया। उस समय तारक दैत्य के ताराक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली नाम के तीन पुत्र थे। उन्होंने कठोर नियमों का पालन करते हुए बड़ी भीषण तपस्या की और अपने शरीरों को बिलकुल सुखा दिया। उनके संयम, तप, नियम और समाधि से पितामह ब्रह्माजी प्रसन्न हो गये और उन्हें वर देने के लिये पधारे। उन तीनों दैत्यों ने सर्वलोकेश्वर श्रीब्रह्माजी को प्रणाम किया और और उनसे कहा, ‘पितामह ! आप हमें ऐसा वर दीजिये कि हम तीन नगरों में बैठकर इस सारी पृथ्वी पर आकाशमार्ग  से विचरते रहें। इस प्रकार एक हजार वर्ष बीतने पर हम एक जगह मिलें। उस समय जब हमारे तीनों पुर बनकर एक हो जायँ तो उस समय जो देवता उन्हें एक ही बाण से नष्ट कर सके, वही हमारी मृत्यु का कारण हो।‘ इसपर ब्रह्माजी ‘ऐसा ही हो’ यह कहकर अपने लोक को चले गये। ब्रह्माजी से ऐसा वर पाकर वे दैत्य बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने आपस में सलाह करके मय दानव के पास जाकर तीन नगर बनाने को कहा। मतिमान् मय ने अपने तप के प्रभाव से तीन पुर तैयार किये। उनमें से एक सोने का, एक चाँदी का और एक लोहे का था। सोने का नगर स्वर्ग में, चाँदी का अंतरिक्ष में और लोहे का पृथ्वी में रहा। ये तीनों किसी नगर इच्छानुसार आ_जा सकते थे। इनमें से प्रत्येक की लम्बाई-चौड़ाई सौ-सौ योजन थी। इनमें आपस में सटे हुए बड़े-बड़े भवन और खुली हुई सड़कें थीं तथा अनेकों  प्रासादों और राजद्वारों से इनकी बड़ी शोभा हो रही थी। इन नगरों के अलग-अलग राजा थे। सुवर्णमय नगर तारकाक्ष का था, रजतमय कमलाक्ष का और लोहमय विद्युन्माली का। इन दैत्यों के पास जहां_तहां से करोड़ों दानव योद्धा आकर एकत्रित हो गये। इन तीनों पुरोों में रहनेवाला जो पुरुष जैसी इच्छा करता, उसकी उस कामना को मायासुर अपनी माया से उसी समय पूरी कर देता था। तारकाक्ष के हरि नाम का एक महाबली पुत्र था। उसने बड़ी कठोर तपस्या की। इससे ब्रह्माजी उसपर प्रसन्न हो गयेे। उन्हें संतुष्ट देखकर हरि ने यह वर मांगा कि हमारे नगर में ऐसी बावड़ी बन जाय कि जिसमें डालने पर शस्त्र से घायल हुए योद्धा और भी अधिक बलवान हो जायं। इस प्रकार ब्रह्माजी से वर पाकर तारकाक्ष के पुत्र हरि ने अपने नगर में एक मुर्दों को जीवित कर देनेवाली बावड़ी बनवायी। दैत्य लोग जिस रूप और जिस वेष में मरते थे उस बावड़ी में डालने पर उसी रूप, उसी वेष में जीवित होकर निकल आते थे। इस प्रकार उस बावड़ी को पाकर वे सारे लोकों को कष्ट देने लगे तथा अपनी घोर तपस्या से सिद्धि पाकर वे  देवताओं के भय की वृद्धि करने लगे। युद्ध में उनका किसी भी प्रकार नाश नहीं हो सकता था।
 अब तो वे लोभ और मोह से अंधे होकर एकदम मतवाले हो गये‌। उन्होंने लज्जा को एक ओर रख दिया और सब ओर लूट_मार करने लगे। वरदान के मद में चूर होकर वे समय_समय पर जहां_तहां देवताओं को भगाकर स्वेच्छा से विचरने लगे। उन मर्यादाहीन दुष्ट दानवों ने देवताओं के प्रिय उद्यान और ऋषियों के पवित्र आश्रम को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। इस प्रकार जब सब लोक पीड़ित होने लगे तो मरुद्गन को साथ लेकर देवराज इन्द्र ने चढ़ाई कर दी और उन नगरों पर वे सब ओर वज्र_प्रहार करने लगे। किंतु जब वे ब्रह्माजी के वर के प्रभाव से उन अभेद्य नगरों को तोड़ने में समर्थ न हुए तो भयभीत होकर अनेकों देवताओं को साथ ले ब्रह्माजी के पास गये और उन्हें दैत्यों के कारण मिलने वाले अपने कष्टों की कहानी सुनायी।
इस प्रकार सारा हाल सुनाकर उन्होंने प्रणाम करके ब्रह्माजी से उसके वध का उपाय पूछा। देवताओं की सब बातें सुनकर भगवान ब्रह्माजी से कहा, ‘जो दैत्य तुमलोगों को दुख दे रहा है, वह तो मेरा अपराध करने भी नहीं चूकता। इसमें संदेह नहीं, मैं सब प्राणियों के लिये समान हूं। परन्तु मेरा नियम है कि अधर्मियों का तो नाश ही करना चाहिये। इसके लिये उन तीनों नगरों को एक ही बाण से तोड़ना होगा। किन्तु इस काम को करने में श्रीमहादेवजी के सिवा कोई समर्थ नहीं हैं। इसलिए तुम सब उनके पास जाकर यह वर मांगो। वे अवश्य उन दैत्यों को मार डालेंगे।
ब्रह्माजी की यह बात सुनकर इन्द्रादि देवता उन्हीं के नेतृत्व में श्री महादेवजी की शरण में गये। भगवान् शंकर अपने शरणापन्नों के भय के समय अभयदान करनेवाले और सबके आत्मस्वरूप हैं। उनके पास जाकर वे  सब उनकी स्तुति करने लगे। तब उन्हें तेजोराशि पार्वतीपति श्रीमहादेवजी का दर्शन हुआ। सभी ने पृथ्वी पर सिर रखकर उन्हें प्रणाम किया और महादेवजी ने आशीर्वाद द्वारा सत्कार करके सबको उठाया। फिर वे मुस्कराते हुए कहने लगे, ‘कहो, कहो, तुम्हारी क्या इच्छा है ?’ भगवान की आज्ञा पाकर देवता लोग स्वस्थचित्त होकर कहने लगे, ‘देवाधिदेव ! आपको नमस्कार है। प्रजापति भी आपकी स्तुति करते हैं और सबने आपकी स्तुति भी की है; आप सभी की स्तुति के पात्र हैं और सभी आपकी स्तुति करते हैं। शम्भो ! हम सब आपको नमस्कार करते हआ। आप सबके आश्रय_स्थान और सभी का संसार करनेवाले हैं। ऐसे ब्रह्मस्वरूप आपको हम नमस्कार करते हैं। आप सभी के अधीश्वर और नियन्ता हैं तथा वनस्पति, मनुष्य, गौ और यज्ञों के पति हैं। देव ! हम मन, वाणी और कर्मों से आपके शरणापन्न हैं; आप हमपर कृपा कीजिए।‘ तब भगवान् शंकर ने प्रसन्न होकर उनका स्वागत_सत्कार करते हुए कहा, ‘देवगण ! भय को छोड़िये और बताते, मैं आपका क्या काम करूं ?’ इस प्रकार जब महादेव जी देवता, ऋषि और पितृगण को अभयदान दिया तो ब्रह्माजी ने उनका सत्कार करके संसार के हित के लिए कहा, ‘सर्वेश्वर ! आपकी कृपा से इस प्रजापति के पद पर प्रतिष्ठित होकर मैंने दानवों को एक महान् वर दे दिया था। उसके कारण उन्होंने सब प्रकार की मर्यादा तोड़ दी है। अब आपके सिवा उनका कोई संहार नहीं कर सकता। देवतालोग आपकी शरण में आकर यही प्रार्थना कर रहे हैं, हो आप इनपर कृपा कीजिये। तब महादेवजी ने कहा, ‘देवताओं ! मैं धनुष_बाण धारण करके रथ में सवार हो संग्रामभूमि में तुम्हारे शत्रुओं का संहार करूंगा। अतः तुम मेरे लिये एक ऐसा रथ और धनुष_बाण तलाश करो, जिनके द्वारा मैं इन नगरों को पृथ्वी पर गिरा सकूं।‘ देवताओं ने कहा_’देवेश्वर ! हम तीनों लोकों के तत्वों को जहां_तहां से इकट्ठे करके आपके लिये एक तेजोमय रथ तैयार करेंगे।‘ ऐसा कहकर उन्होंने विश्वकर्मा के रचे हुए एक विशाल रथ को महादेवजी के लिये तैयार किया। उन्होंने विष्णु, चन्द्रमा और अग्नि को बाण बनाया तथा बड़े_बड़े नगरों से भरी हुई पर्वत, वन और द्वीपों से व्याप्त वसुन्धरा को ही उनका रथ बना दिया। इन्द्र, वरुण, यम और कुबेर आदि लोकपालों को घोड़े बनाया एवं मन को आधार भूमि बनाया। इस प्रकार जब वह श्रेष्ठ रथ तैयार हो गया तो महादेवजी ने उसमें अपने आयुध रखें।
ब्रह्मदण्ड, कालदण्ड, रुद्रदण्ड और ज्वर_ये सब ओर मुख किते उस रथ की रक्षा में नियुक्त हुए; अथर्वा और अंगिरा उनके चक्र रक्षक बने; ऋग्वेद, सामवेद और समस्त पुराण के उस रथ के आगे चलनेवाले योद्धा हुए; इतिहास और यजुर्वेद पृष्ठरक्षक बने तथा दिव्यवाणी और विद्याएं पार्श्वरक्षक बने। स्तोत्र तथा वषट्कार और ओंकार रथ के अग्रभाग में सुशोभित हुए। उन्होंने छहों ऋतुओं से सुशोभित संवत्सर को अपना धनुष बनाया तथा अपनी छाया को धनुष की अखंड प्रत्यंचा के स्थान में रखा। इस प्रकार रथ को तैयार देख वे कवच और धनुष धारण कर विष्णु, सोम और अग्नि से बने हुए दिव्य बाण को लेकर युद्ध के लिये तैयार हो गये। तब देवताओं ने सुगन्ध युक्त वायु को उनके लिखे हवा करने को नियुक्त किया। तब महादेवजी समस्त युद्धसज्जा से सुशोभित हो पृथ्वी को कंपायमान करते रथ पर सवार हुए। बड़े_बड़े ऋषि, गन्धर्व, देवता और अप्सराओं के समूह उनकी स्तुति करने लगे। इस समय भगवान शंकर खड्ग, बाण और धनुष धारण करके बड़ी शोभा पा रहे थे। उन्होंने हंसकर कहा, ‘मेरा सारथि कौन बनेगा ?  देवताओं ने कहा, ‘देवेश्वर ! आप जिसे आज्ञा देंगे, वहीं आपका सारथि बन जायगा_इसमें आप तनिक भी संदेह न करें।‘ तब भगवान् ने कहा, ‘तुम स्वयं ही विचार करके जो मुझसे श्रेष्ठ हो, उसे मेरा सारथि बना दो।,' यह सुनकर देवताओं ने पितामह ब्रह्माजी के पास जाकर उन्हें प्रसन्न करके कहा, ‘भगवन् ! आपने हमसे पहले ही कहा था कि मैं तुम्हारा हित करूंगा, हो अपना वह वचन पूरा कीजिये। देव ! हमने जो रथ तैयार किया है, वह बड़ा ही दुर्धर्ष है; भगवान् शंकर उसके योद्धा नियुक्त किये गये हैं, पर्वतों के सहित पृथ्वी ही रथ है तथा नक्षत्रमाला ही उसका वरूथ है। किन्तु उसका कोई सारथि दिखाई नहीं देता।
सारथि इन सबके अपेक्षा बढ़_चढ़कर होना चाहिये; क्योंकि रथ तो उसी के अधीन रहता है। हमारी दृष्टि में आपके सिवा और कोई भी इसका सारथि बनने योग्य नहीं है। आप सर्वगुण सम्पन्न और सब देवताओं में श्रेष्ठ हैं। अतः अब आप ही बैठकर घोड़ों की रास संभालिये।‘ ब्रहमाजी ने कहा_देवताओं ! तुम जो कुछ कहते हो, उसमें कोई बात झूठ नहीं है। अतः जिस समय भगवान् शंकर युद्ध करेंगे, मैं अवश्य उनके घोड़े हत
तब देवताओं ने संपूर्ण लोक के स्रष्टा ब्रह्माजी को श्रीमहादेवजी का सारथि बनाया। जिस समय वे वे उस विश्र्ववन्द्य रथ पर बैठे, उसके घोड़ों ने पृथ्वी पर सिर टेककर उसे प्रणाम किया।
परम तेजस्वी भगवान् ब्रह्मा उस रथ पर चढ़कर घोड़ों की रास और कोड़ा संभाला और श्रीमहादेव जी से कहा, ‘देवश्रेष्ठ ! रथ पर सवार होइये।‘
तब भगवान् शंकर, विष्णु, सोम और अग्नि से उत्पन्न हुआ बाण लेकर अपने धनुष से शत्रुओं को कम्पायमान करते रथ पर चढ़े। भगवान् शिव रथ पर बैठकर अपने तेज से तीनों लोकों को देदिप्यमान करने लगे। उन्होंने इन्द्रादि देवताओं से कहा, ‘तुमलोग ऐसा संदेह मत करना कि यह बाण इन पुलों को नष्ट नहीं कर सकेगा; अब तुम इस बाण से इन असुरों का अन्त हुआ ही समझो।‘
देवताओं ने कहा, ‘आपका कथन बिलकुल ठीक है। अब इन दैत्यों का अंत हुआ ही समझना चाहिये। आपका कथन किसी प्रकार मिथ्या नहीं हो सकता।‘ इस प्रकार विचार करके देवता लोग बड़े प्रसन्न हुए। इसके बाद देवाधिदेव महादेवजी उस विशाल रथ पर चढ़कर सब देवताओं के साथ चले। उनके इस प्रकार कूच करने पर सारा संसार और देवतालोग प्रसन्न हो गये। ऋषिगण अनेकों स्रोतों से उनकी स्तुति करने लगे और करोड़ों गन्धर्वगण तरह_तरह के बाजे बजाने लगे।
अब भगवान् शंकर ने मुस्कराकर कहा, ‘प्रजापते! चलिये, जिधर वे दैत्यगण है, उधर ही घोड़े बढ़ाइये।‘ तब ब्रह्माजी ने अपने मन और वायु के समान वेगवान् घोड़ों को दैत्य और दानवों से रहित उन तीनों पुत्रों की ओर बढ़ाया।
इस समय नन्दीश्वर ने बड़ी भारी गर्जना की, जिससे सारी दिशाएं गूंज उठी। उनका यह भीषण नाद सुनकर तारकासुर के अनेक दैत्य नष्ट हो गये। उनके सिवा जो शेष रहे वे युद्ध के लिये उनके सामने आ गये। अब त्रिशूलमणि भगवान् शंकर ने क्रोध में रौंदा चढ़ाया और उसपर बाण चढ़ाकर उसे पशुपतास्त्र से युक्त किया। फिर वे तीनों पुरों  के इकट्ठे होने का चिंतन करने लगे।
इस प्रकार जब वे धनुष चढ़ाकर तैयार हो गये तो उसी समय तीनों नगर मिलकर एक हो गये। यह देखकर देवतालोग बड़ी हर्षध्वनि करने लगे तथा सिद्ध और महर्षियों के सहित उनकी स्तुति करने लगे। इस प्रकार जब असह्य तेजस्वी भगवान् शंकर असुरों का संहार करने की तैयारी कर रहे थे, उनके सामने तीनों पुर एकत्रित हो कर प्रकट हुए। उन्होंने तुरंत ही अपना दिव्य धनुष खींच कर उनपर वह त्रिलोकी का सारभूत बाण छोड़ा। 
उस बाण के छूटते ही तीनों पुर नष्ट हो कर गिर गये। उस समय बड़ा ही आर्तनाद हुआ। महादेवजी ने उन असुरों को भस्म करके पश्चिम समुद्र में डाल दिया। इस प्रकार त्रिलोकहितकारी भगवान् शिव ने कुपित होकर उस त्रिपुर का नाश किया और दैत्यों को निर्मूल कर दिया। फिर अपने क्रोध से उत्पन्न हुई अग्नि को रोककर उन्होंने कहा, ‘तू त्रिलोकी को भष्म न कर।‘
इस प्रकार दैत्यों का नाश हो जाने पर समस्त देवता, ऋषि और लोक प्रफुल्लित हो गये तथा बड़े श्रेष्ठ वचनों से भगवान् शंकर की स्तुति करने लगे। फिर भगवान् की आज्ञा पाकर ब्रह्मादि आदि सभी देवगण सफल मनोरथ होकर अपने_अपने स्थानों  को चले गये। इस तरह श्रीमहादेवजी ने समस्त लोकों का कल्याण किया था। उस समय जिस प्रकार जगत्कर्ता ब्रह्माजी  उनका सारथ्य किया था उसी प्रकार आप भी वीरवर कर्ण के अश्वों का संचालन कीजिये। राजन् ! इसमें संदेह नहीं कि आप श्रीकृष्ण, कर्ण और अर्जुन से भी श्रेष्ठ हैं। कर्ण युद्ध करने में श्रीमहादेवजी के समान है तो आप रथ हांकने में साक्षात् ब्रह्माजी के सदृश हैं।  अतः, आप दोनों मिलकर मेरे शत्रुओं को उन दैत्यों के समान ही परास्त कर सकते हैं। महाराज ! अब आप ऐसा उपाय कीजिये जिससे आज कर्ण संग्रामभूमि में अर्जुन का वध कर सके। कर्ण की, हमारी और हमारे राज्य की स्थिति अब आप ही के ऊपर निर्भर है। हमारी विजय भी आपपर ही अवलम्बित है। अतः आप कर्ण के घोड़ों का नियंत्रण कीजिये।
महाराज ! कर्ण को स्वयं श्रीपरशुरामजी ने धनुर्विद्या सिखायी है। यदि इसमें कोई दोष होता तो इसे कभी दिव्य अस्त्र न देते। मैं तो कर्ण को क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुआ कोई देवपुत्र ही समझता हूं। यह कवच और कुण्डल पहने उत्पन्न हुआ है तथा विशालबाहु और महारथी है; इसलिये इसका जन्म सूतकुल में होना किसी प्रकार संभव नहीं है।