Saturday 30 September 2023

भीम और दुर्योधन का भयंकर गदायुद्ध

संजय कहते हैं_महाराज ! उन दोनों भाइयों में जब पुनः भिड़ंत हुई तो दोनों _ही_दोनों के चूकने का अवसर देखते हुए पैंतरे बदलने लगे। दोनों की गाएं यमदंड और वज्र के समान भयंकर दिखाई देती थीं। भीमसेन जब अपनी गदा को घुमाकर प्रहार करते, उस समय उसकी भयंकर आवाज एक मुहूर्त तक गूंजती रहती थी। यह देखकर दुर्योधन को बड़ा विस्मय होता था। नाना प्रकार के पैंतरे दिखाकर चारों ओर चक्कर लगाते हुए भीमसेन की उस समय अपूर्व शोभा हो रही थी।दोनों एक_दूसरे से भिड़कर अपनी_अपनी बचाव का प्रयत्न करते थे। तरह_तरह के पैंतरे बदलना, चक्कर देना, शत्रु पर प्रहार करना, उसके प्रहार को बचाना या रोकना तथा आगे बढ़कर पीछे हटना, वेग से शत्रु पर धावा करना, उसके प्रयत्न को निष्फल कर देना, सावधानीपूर्वक एक स्थान पर खड़ा होना, सामने आते ही शत्रु से युद्ध छेड़ना, प्रहार के लिये चारों ओर घूमना, शत्रु को घूमने से रोकना, नीचे से कूदकर शत्रु का वार बचाना, तिरछी गति से उछलकर प्रहार से बचना, पास जाकर और दूर हटकर शत्रु के ऊपर प्रहार करना_इत्यादि बहुत -सी क्रियाएं दिखाते हुए दोनों लड़ रहे थे। दोनों ही प्रहार करते हुए एक_दूसरे को चकमा देने की कोशिश करते थे। युद्ध का खेल दिखाते हुए सहसा गदआओं की चोट कर बैठते थे। इस प्रकार उनमें इन्द्र और वृत्रासुर की भांति भयंकर युद्ध चल रहा था। दोनों ही अपने _अपने मण्डल में खड़े थे। दायें मण्डल में दुर्योधन भीमसेन की पसली में गदा मारी, परन्तु भीमसेन ने उसके प्रहार को कुछ भी न गिनकर यमदण्ड के समान भयंकर गदा घुमायी और उसे दुर्योधन पर दे मारा। यह देख दुर्योधन ने भी भयंकर गदा उठाकर पुनः भीमसेन पर प्रहार किया। गदा प्रहार करते समय बड़े जोर का शब्द होता और आग की चिनगारियां छूटने लगती थीं। दुर्योधन भी अपने युद्ध कौशल का परिचय देता हुआ भीमसेन से अधिक शोभा पाने लगा। भीमसेन भी बड़े वेग से गदा घुमाने लगे। इतने में आपका पुत्र दुर्योधन युद्ध के की पैंतरे दिखाता हुआ भीम पर टूट पड़ा। भीम ने भी क्रोध में भरकर उसकी गदा पर आघात किया। दोनों गदआओं के टकराने की भयानक आवाज हुई, चिनगारियां छूटने लगीं। भीमसेन ने बड़े वेग से गदा छोड़ी थी, वह ज्यों ही नीचे गिरी, वहां की धरती कांपी उठी। यह देख दुर्योधन ने भीमसेन के मस्तक पर गदा का प्रहार किया किन्तु भीमसेन तनिक भी घबराये नहीं _यह एक अद्भुत बात थी। तत्पश्चात् भीमसेन ने आपके पुत्र पर बड़ी भारी गदा चलायी, किन्तु दुर्योधन फुर्ती से इधर_उधर होकर उस प्रहार को बचा गया। इससे लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। अब उसने भीमसेन की छाती पर गदा मारी, उसकी चोट से भीम को मूर्छा आ गयी और एक क्षण तक उन्हें अपने कर्तव्य का ज्ञान तक न रहा। किन्तु थोड़ी ही देर में उन्होंने अपने को संभाल लिया और दुर्योधन की पसली में बड़े जोर से गदा मारी। उस प्रहार से व्याकुल हो आपका पुत्र जमीन पर घुटने टेककर बैठ गया। उसे इस अवस्था में देखकर सृंजय ने हर्षध्वनि की। तब दुर्योधन क्रोध से जल उठा और महान् सर्प की भांति हुंकारें भरने लगा। उसने भीमसेन की ओर इस तरह देखा, मानो उन्हें भष्म कर डालेगा। उनकी खोपड़ी कुचल डालने के लिये वह हाथ में गदा लिये उनकी ओर दौड़ा। पास पहुंचकर उसने भीम के ललाट पर गदा का आघात किया। किन्तु भीम पर्वत के समान अविचल भाव से खड़े रहे, इस प्रहार का उनपर कोई असर नहीं हुआ। तदनन्तर, उन्होंने भी दुर्योधन के ऊपर अपनी लोहमयी गदा का प्रहार किया। उसकी चोट से आपके पुत्र की नस_नस ढ़ीली हो गयी। वह कांपता हुआ पृथ्वी पर जा पड़ा। यह देख पाण्डव हर्ष में भरकर सिंहनाद करने लगे। कुछ ही देर में जब दुर्योधन को होश हुआ तो वह उछलकर खड़ा हो गया और एक सुशिक्षित योद्धा की भांति रणभूमि में विचरने लगा। घूमते _घूमते मौका पाकर उसने सामने खड़े हुए भीमसेन को गदा मारा। उसकी चोट खाकर उनका सारा शरीर शिथिल हो गया और वे धरती पर घूमने लगे। भीम को गिराकर दुर्योधन दहाड़ने लगा। उसकी गदा के आघात से भीम के कवच के चिथड़े उड़ गये थे।  उनकी ऐसी अवस्था देख पाण्डवों को बड़ा भय हुआ। किन्तु एक ही मुहूर्त में भीम की चेतना पुनः लौट आयी। उन्होंने खून से भीगे हुए अपने मुख को पोंछा और धैर्य धारण करके आंखें खोलीं। फिर बलपूर्वक अपने को संभालकर वे खड़े हो गये। उन दोनों के युद्ध को बढ़ता देख अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण से कहा_'जनार्दन ! इन दोनों वीरों में आप किसको बड़ा मानते हैं; किस्में कौन_सा गुण अधिक है ? यह मुझे बताइये।' भगवान् बोले_'शिक्षा तो इन दोनों को एक_सी मिली है, किन्तु भीमसेन बल में अधिक है और अभ्यास तथा प्रयत्न में दुर्योधन बढ़ा _चढ़ा है। यदि भीमसेन धर्मपूर्वक युद्ध करेंगे तो नहीं जीत सकते; इन्होंने जूए के समय यह प्रतिज्ञा की है कि 'मैं युद्ध मेंं गदा मारकर दुर्योधन की जांघें तोड़ डालूंगा।' आज ये उस प्रतिज्ञा का पालन करें। अर्जुन ! मैं फिर भी यह कहें बिना नहीं रह सकता कि धर्मराज के कारण हमलोगों पर पुनः भय आ पहुंचा है। बहुत प्रयास करके भीष्म आदि कौरव_वीरों को मारकर हमें विजय और यश आदि की प्राप्ति हुई थी, किन्तु युधिष्ठिर ने उस विजय को फिर से संदेह में डाल दिया है। एक की हार_जीत से सबकी हार_जीत की शर्त लगाकर इन्होंने जो इस भयंकर युद्ध को जूए का दांव बना डाला, वह इनकी बड़ी भारी मूर्खता है। दुर्योधन युद्ध की कला जानता है, वीर है और एक निश्चय पर डटा हुआ है। इस विषय में शुक्राचार्य का कहा हुआ एक श्लोक सुनने में आता है, जिसमें नीति का तत्व भरा हुआ है, मैं उसका भावार्थ तुम्हें सुना रहा हूं_'युद्ध में मरने से बचे हुए शत्रु यदि प्राण बचाने के लिये भाग जायं और फिर युद्ध के लिये लौटें तो उनसे डरते रहना चाहिये; क्योंकि वे एक निश्चय पर पहुंचे हुए होते हैं। ( उस समय वे मृत्यु से भी नहीं डरते ) जो जीवन की आशा छोड़कर साहसपूर्वक युद्ध में कूद पड़ें, उनके सामने इन्द्र भी ठहर नहीं सकते।' दुर्योधन की सेना मारी गयी थी, वह परास्त हो गया था और अब राज्य मिलने की आशा न होने के कारण वह वन में चला जाना चाहता था, इसलिये भागकर पोखरे में छिपा था। ऐसे हताश शत्रु को कौन बुद्धिमान युद्ध के लिये आमंत्रित करेगा ? अब तो मुझे यह भी संदेह होने लगा है कि 'कहीं दुर्योधन हमलोगों के जीते हुए राज्य को फिर न हथिआ ले।'








Monday 18 September 2023

बलरामजी की सलाह से सबका समन्तपंचक में जाना तथा वहां भीम और दुर्योधन में गदायुद्ध का आरंभ

वैशम्पायनजी कहते हैं_राजा जनमेजय ! इस प्रकार होनेवाले उस तुमुलयुद्ध की बात सुनकर धृतराष्ट्र को बड़ा दु:ख हुआ और उन्होंने संजय से पूछा _'सूत ! गदायुद्ध के समय बलरामजी को उपस्थित देख मेरे पुत्र ने भीमसेन के साथ किस प्रकार युद्ध किया?' संजय ने कहा_महाराज ! बलरामजी को वहां उपस्थित देख दुर्योधन को बड़ी खुशी हुई। राजा युधिष्ठिर तो उन्हें देखते ही खड़े हो गये और बड़ी प्रसन्नता के साथ उनका पूजन करके बैठने को आसन दे कुसल_समाचार पूछने लगे। तब बलरामजी ने उनसे कहा_'राजन् ! मैंने ऋषियों के मुंह से सुना है कि कुरुक्षेत्र बड़ा पवित्र तीर्थ है, वह स्वर्ग प्रदान करनेवाला है, देवता, ऋषि तथा महात्मा, ब्राह्मण सदा उसका सेवन करते हैं, वहां युद्ध करके प्राण त्यागनेवाले मनुष्य निश्चय ही स्वर्ग में इन्द्र के साथ निवास करेंगे। इसलिए हमलोग यहां से समन्तपंचक क्षेत्र में चलें, वह देवलोक में प्रजापति की उत्तर वेदी की नाम से विख्यात है। वह त्रिभुवन का अत्यन्त पवित्र एवं सनातन तीर्थ है, वहां युद्ध करने से जिसकी मृत्यु होगी, वह अवश्य ही स्वर्गलोक में जायगा।' 'बहुत अच्छा' कहकर युधिष्ठिर ने बलरामजी की आज्ञा स्वीकार की और समन्तपंचक क्षेत्र की ओर चल दिये। राजा दुर्योधन भी हाथ में बहुत बड़ी गदा ले पाण्डवों के साथ पैदल ही चला। उस समय शंखनाद होने लगा, भेरियां बज उठीं और शूरवीरों के सिंहनाद से संपूर्ण दिशाएं भर गयीं। तत्पश्चात् वे लोग कुरुक्षेत्र की सीमा में आये, फिर पश्चिम की ओर आगे बढ़कर सरस्वती के दक्षिण किनारे पर जीत एक उत्तम तीर्थ में पहुंचे। वहीं स्थान उन्हें युद्ध के लिये पसंद आया। फिर तो भीमसेन कवच पहनकर हाथ में बड़ी नोकवाली गदा ले युद्ध के लिये तैयार हो गये। दुर्योधन भीअ सिर पर टोप लगाये सोने का कवच बांधे भीम के सामने डट गया। फिर दोनों भाई क्रोध में भरकर एक_दूसरे को देखने लगे। दुर्योधन की आंखें लाल हो रही थीं। उसने भीमसेन की ओर देखकर अपनी गदा संभाली और उन्हें ललकारा। भीम ने भी गदा ऊंची करके दुर्योधन को ललकारा। दोनों ही क्रोध में भरे थे। दोनों की गाथाएं ऊपर को उठी थीं और दोनों ही भयंकर पराक्रम दिखाने वाले थे। उस समय वे राम_रावण और बालि सुग्रीव के समान जान पड़ते थे। तदनन्तर, दुर्योधन ने केकय, सृंजय और पांचालों तथा श्रीकृष्ण, बलराम एवं अपने भाइयों के साथ खड़े हुए युधिष्ठिर से कहा_'मेरा भीमसेन के साथ जो युद्ध ठहरा हुआ है, उसको आप सब लोग पास ही बैठकर देखिये।' दुर्योधन की इस राय को सबने पसंद किया। फिर सब लोग बैठ गये। चारों ओर राजाओं की मंडली बैठी और बीच में भगवान् बलराम विराजमान हुए; क्योंकि सबलओग उनका सम्मान करते थे।वैशम्पायनजी कहते हैं _यह प्रसंग सुनकर धृतराष्ट्र को बड़ा दु:ख हुआ, उन्होंने संजय से कहा_'सूत ! जिसका परिणाम इतना दु:कंद होता है, उस मानव_जन्म को धिक्कार है ! मेरा पुत्र ग्यारह अक्षौहिणी सेना का मालिक था, उसने सब राजाओं पर हुक्म चलाया, सारी पृथ्वी का अकेले उपभोग किया, किन्तु अन्त में यह हालत हुई कि गदा हाथ में लेकर उसे पैदल ही युद्ध में जाना पड़ा ! इसे प्रारब्ध के सिवा और क्या कहा जा सकता ?'
संजय ने कहा_महाराज ! आपके पुत्र ने मेघ के समान गर्जना करके जब भीम को युद्ध के लिये ललकारा, उस समय अनेकों भयंकर उत्पात होने लगे। बिजली की गड़गड़ाहट के साथ आंधी चलने लगी। धूल की वर्षा शुरु हो गयी और चारों दिशाओं में अंधकार छा गया। आकाश से सैकड़ों उल्काएं टूट_टूटकर गिरने लगीं। बिना अमावस्या के ही सूर्य पर ग्रहण लग गया। वृक्षों तथा वनों के साथ धरती डोलने लगी। पर्वतों के शिखर टूट_टूटकर जमीन पर पड़ने लगे। कुओं के पानी में बाढ़ आ गयी। किसी का शरीर नहीं दिखायी देता तो भी देहधारीकी_सी आवाजें सुनायी पड़ती थीं।
इन सब अपशकुनों को देखकर भीमसेन ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा_'भैया ! आपके हृदय में जो कांटा सकता रहता है, उसे आज निकाल फेंकूंगा। इस पापी को गदा से मारकर इसके शरीर के टुकड़े_टुकड़े कर डालूंगा। अब यह पुनः हस्तिनापुर में नहीं प्रवेश करने पायगा। इस दुष्ट ने मेरे बिछौने पर सांप छोड़ा, भोजन में विष मिलाया, प्रमाणकोटि में ले जाकर मुझे पानी में गिरवाया, लाक्षाभवन में जलाने का प्रयत्न किया, सभा में हंसी उड़ायी, हमलोगों का सर्वस्व छीना तथा इसी के कारण हमें वनवास एवं अज्ञातवास का कष्ट भोगना पड़ा। आज सबका बदला चुकाकर मैं उन दु:खों से छुटकारा पा जाऊंगा। इसे मारकर अपने आत्मा का ऋण चुकाऊंगा। इस दुष्ट की आयु पूरी हो गयी है। अब इसे माता_पिता का दर्शन भी नहीं मिलेगा। आज यह कउलकलंक अपने राज्य, लक्ष्मी तथा प्राणों से हाथ धोकर सदा के लिये जमीन पर सो जायगा।' यह कहकर महापराक्रमी भीमसेन गदा ले युद्ध के लिये डट गये और दुर्योधन को पुकारने लगे। दुर्योधन ने भी गदा ऊंची की, यह देख भीमसेन पुनः क्रोध में भरकर बोले_'दुर्योधन ! वारणाव्रत में राजा धृतराष्ट्र ने और तूने जो पाप किये थे, उन्हें आज याद कर ले। तूने भरी सभा में राजस्वला द्रौपदी को जो क्लेश पहुंचाया, जूए के समय तूने और शकुनि ने मिलकर जो राजा युधिष्ठिर के साथ वंचना की_उन सबका बदला चुकाऊंगा। खुशी की बात यह है कि आज तू सामने दिखाई  दे रहा है। तेरे ही कारण पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण, कर्ण तथा शल्य जैसे वीर मारे गये। तेरे भाई तथा और भी बहुत _से क्षत्रिय यमलोक पहुंच गये। सबसे पहले वैर की आग लगानेवाला शकुनि और द्रौपदी को दु:ख देनेवाला प्रतिकारी भी चल बसा, अब तू ही रह गया है, इसलिये तुझे भी इस गदा से मौत के घाट उतारूंगा_इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।' राजन् ! भीमसेन ने ये बातें बड़े जोर से कहीं थीं, इन्हें सुनकर आपके पुत्र ने बेधड़क जवाब दिया_'वृकोदर ! इतनी शेखी बघारने से क्या होगा ? चुपचाप लड़ाई कर, आज तेरा युद्ध का सारा हौसला मिटाये देता हूं। दुर्योधन को तू दूसरे साधारण लोगों के समान मत समझ, यह तेरे_जैसे किसी भी मनुष्य की धमकी से नहीं डरता। मैं तो इसे सौभाग्य समझता हूं, मेरे मन में बहुत दिनों से यह इच्छा थी कि तेरे साथ गदायुद्ध होता, सो आज देवताओं ने उसे पूर्ण कर दिया। अब बहुत बड़बड़ाने से कोई लाभ नहीं है, पराक्रम के द्वारा अपनी वाणी को सत्य करके दिखा; विलम्ब न कर।'
दुर्योधन की बात सुनकर सबने उसकी बड़ी प्रशंसा की और भीमसेन गदा उठाकर बड़े वेग से  उसकी ओर दौड़े। दुर्योधन ने भी गर्जना करते हुए आगे बढ़कर उनका सामना किया। फिर दोनों दो सांडों की तरह एक_दूसरे से भिड़ गये। प्रहार_पर_प्रहार होने लगा। उस समय गदा की चोट पड़ने पर वज्रपात के समान भयंकर आवाज होती थी। दोनों खून से नहा उठे। उनके रक्तरंजित शरीर खिले हुए ढ़ाकी के वृक्षों_जैसे दिखाई देने लगे। लड़ते_लड़ते दोनों ही थक गये, फिर दोनों ने घड़ीभर विश्राम किया। इसके बाद दोनों ही अपनी_अपनी गलाएं उठाकर आपस में युद्ध करने लगे।

Friday 8 September 2023

समन्तपंचक तीर्थ ( कुरुक्षेत्र ) की महिमा तथा नारदजी के कहने से बलदेवजी का भीम और दुर्योधन का युद्ध देखने जाना

ऋषियों ने कहा_बलरामजी ! समन्तपंचक क्षेत्र सनातन है, यह प्रजापति की उत्तर वेदी कहलाता है। प्राचीन काल से देवताओं ने यहां बहुत बड़ा यज्ञ किया था तथा बुद्धिमान महात्मा राजर्षि कुरु ने पहले बहुत वर्षों तक इस क्षेत्र की जमीन जोती थी, इसलिये उन्हीं के नाम पर यह 'कुरुक्षेत्र' कहा जाने लगा।
बलरामजी ने पूछा _मुनीवरों ! महात्मा कुरु ने इस क्षेत्र में हल क्यों चलाया ?
ऋषियों ने कहा_बलरामजी ! पूर्वकाल में राजा कुरु जब यहां प्रतिदिन उठकर हल चलाया करते थे, उन्हीं दिनों की बात है, इन्द्र ने स्वर्ग से आकर कुरु से इसका कारण पूछा_'राजन् ! आप इतना रयइस क्यों कर रहे हैं ? यहां का जमीन जोतने से आपका क्या अभिप्राय है ?'  कुरु ने कहा_' इन्द्र ! जो लोग इस क्षेत्र में मरेंगे वे पुण्यवानों के लोक में जायेंगे।' यह जवाब सुनकर इन्द्र को हंसी आ गई। वे चुपचाप स्वर्ग लौट आये। इससे राजर्षि करु का उत्साह कम नहीं हुआ, वे वहां की जमीन जोतने में लगे ही रह गये। इन्द्र ने की बार आकर प्रश्न किया, किन्तु वहीं उत्तर पाकर वे हर बार लौट गये। कुरु ने भी कठोर तपस्या के साथ हर जोतना आरम्भ किया। तब इन्द्र ने उनका मनोभाव देवताओं से कह सुनाया। सुनकर देवता बोले_'अगर संभव हो तो राजर्षियों को वरदान देकर राजी कर लीजिये। नहीं तो यदि वे अपने प्रयत्न में सफल हो गये और मनुष्य यज्ञ किये बिना ही स्वर्ग में आने लगे तो हमलोगों का यज्ञभाग नष्ट हो जायगा। Wतब इन्द्र ने कुरु के पास आकर कहा_'राजन् ! अब आप कष्ट न उठाइये, मेरी बात मानिये; मैं वरदान देता हूं कि जो मनुष्य अथवा पशु यहां निराहार रहकर या युद्ध में मारे जाकर शरीर त्याग करेंगे, वे स्वर्ग के अधिकारी होंगे।' राजा कुरु ने 'बहुत अच्छा' कहकर इन्द्र की आज्ञा स्वीकार की और इन्द्र भी राजा की अनुमति ले प्रसन्नतापूर्वक स्वर्ग को चले गये।
बलरामजी ! इस प्रकार शुभ उद्देश्य से राजर्षि कुरु ने इस क्षेत्र को जोता था। पृथ्वी पर इससे बढ़कर कोई पवित्र स्थान नहीं है। जो मनुष्य यहां तप करेंगे, वे देहत्याग के पश्चात् ब्रह्मलोक जायेंगे। जो दान करेंगे उनका दिया हुआ हजार गुना होकर फल देगा। जो सदा यहां निवास करेंगे, उन्हें यमराज के राज्य में नहीं जाना पड़ेगा। यदि राजा लोग यहां आकर बड़े _बड़े यज्ञ करें तो जबतक यह पृथ्वी कायम रहेगी तब तक के लिये उन्हें स्वर्ग में रहने का सौभाग्य प्राप्त होगा। साक्षात् इन्द्र ने भी कुरुक्षेत्र के विषय में यह उद्गार प्रकट किया है_'कुरुक्षेत्र की धूल भी यदि हवा से उड़कर किसी पापी के ऊपर पड़ जाये तो वह उसे उसे उत्तम लोक में पहुंचाती है। यहां  बड़े_बड़े देवता, उत्तम ब्राह्मण तथा नृग आदि नरेश भी यज्ञ करके उत्तम गति को प्राप्त कर चुके हैं। तरन्तुक से लेकर आरन्तुक तक तथा रामहृद से आरम्भ करके यमचक्रकत के बीच का जो स्थान है वहीं कुरुक्षेत्र और समन्तपंचक तीर्थ है। इसे प्रजापति की उत्तर वेदी भी कहते हैं। यह क्षेत्र बहुत ही पवित्र और कल्याणकारी है, देवताओं ने भी इसका सम्मान किया है। यह सभी सद्गुणों से सम्पन्न है; अतः यहां मरे हुए सब क्षत्रिय अक्षय गति को प्राप्त होंगे।' इस प्रकार साक्षात् इन्द्र ने यह बात कही और ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि देवताओं ने इसका समर्थन किया था। वैशम्पायनजी कहते हैं_ तदनन्तर कुरुक्षेत्र का दर्शन और वहां बहुत _सा दान करके बलरामजी एक दिव्य आश्रम के निकट गये। वहां पहुंचकर उन्होंने मुनियों से पूछा_'यह सुन्दर आश्रम किसका है ?' तब उन्होंने कहा_'बलरामजी ! पहले तो यहां भगवान् विष्णु तपस्या कर चुके हैं, फिर अक्षय फल देनेवाले कई यज्ञ भी इस आश्रम पर हुए हैं। बाल्यकाल से ही ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाली एक सिद्ध ब्राह्मणी भी यहां तपस्या कर चुकी है। यह शाण्डिल्य मुनि की पुत्री थी।'
ऋषियों की बात सुनकर बलभद्रजी ने उन्हें प्रणाम किया और हिमालय के समीप उस आश्रम में गये। वहां के उत्तम तीर्थ का तथा सरस्वती के उद्गमभूत श्रोत का दर्शन करके उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। इसके बाद कआरपवन तीर्थ में जाकर उन्होंने वहां के स्वच्छ, शीतल एवं जल में डुबकी लगायी तथा देवताओं और पितरों का तर्पण करके ब्राह्मणों को दान दिया। फिर एक रात वहां निवास करके वे ब्राह्मणों और संन्यासियों के साथ मित्रावरुण के पवित्र आश्रम पर गये। वह स्थान यमुना के तट पर है। सर्वप्रथम उस स्थान पर आकर इन्द्र, अग्नि तथा अर्यमा बहुत प्रसन्न हुए थे। बलरामजी वहां स्नान_दान करके ऋषियों और सिद्धों के साथ बैठकर उत्तम कथाएं सुनने लगे।
उसी समय देवर्षि नारदजी दण्ड, कमण्डलु और मनोहर वीणा लिये वहां आ पहुंचे। उन्हें आते देख बलरामजी उठकर खड़े हो गये और उनका विधिवत् पूजन करके उनसे कौरवों का समाचार पूछने लगे। नारदजी, जिस प्रकार कौरवों का महासंहार हुआ था, वह सब ज्यों_का_त्यों सुना दिया। तब बलभद्रजी ने दी:ख प्रकट करते हुए कहा_' तपोधन ! उस क्षेत्र की क्या अवस्था है तथा वहां आये हुए राजाओं की क्या दशा हुई है ? यह सब संक्षेप के साथ मैं पहले ही सुन चुका हूं। अब मुझे वहां का विस्तृत समाचार जानने की उत्कण्ठा हो रही है।'
नारदजी ने कहा_ भीष्मजी तो पहले ही मारे गये, उनके बाद द्रोणाचार्य, जयद्रथ, कर्ण और उसके पुत्र भी परलोक पहुंच गये। भूरिश्रवा, शल्य तथा दूसरे महाबली राजाओं की भी यही दशा हुई है। ये सब राजा और राजकुमार दुर्योधन की विजय के लिये अपने प्राणों की बलि दे चुके हैं। अब जो मरने से बचे हैं, उनके नाम सुनिये। दुर्योधन की सेना में कृपाचार्य, कृतवर्मा और अश्वत्थामा_ये ही तीन प्रधान वीर बचे हुए हैं। किन्तु जब शल्य मारे गये तो ये भी डर के मारे पलायन कर गये। उस समय दुर्योधन बहुत दु:खी हुआ और भागकर द्वैपायण सरोवर में जा छिपा। माया से सरोवर का पानी बांधकर वह भीतर हो रहा था, इतने में पाण्डवलोग भगवान् श्रीकृष्ण के साथ वहां आ पहुंचे और उसे कड़वी बातें सुनाकर कष्ट पहुंचाने लगे। वह भी बलवान ही ठहरा, इनके ताने क्यों सहता ? हाथ में गदा लेकर उठ पड़ा और भीमसेन से युद्ध करने के लिये उनके पास जाकर खड़ा हो गया। अब उन दोनों में भयंकर युद्ध छिड़नेवाला है, यदि आप देखने को उत्सुक हैं तो शीघ्र जाइये, विलंब न कीजिये। अपने दोनों शिष्यों का युद्ध देखिये।
वैशम्पायनजी कहते हैं _नारदजी की बात सुनकर बलरामजी ने अपने साथ आये हुए ब्राह्मणों की पूजा करके उन्हें विदा कर दिया और सेवकों को द्वारका चले जाने की आज्ञा दी। फिर वे, जहां सरस्वती का श्रोत निकला हुआ है, उस श्रेष्ठ पर्वत शिखर से नीचे उतरे और उस तीर्थ का महान् फल सुनकर ब्राह्मणों के समीप उसकी महिमा का इस प्रकार वर्णन करने लगे _'सरस्वती के तट पर निवास करने में जो सुख है, आनन्द है, वह अन्यत्र कहां मिल सकता है? उसमें जो गुण हैं, वे और कहां हैं? सरस्वती का सेवन करके स्वर्गलोक में पहुंचे हुए मनुष्य उसका सदा ही स्मरण करते रहेंगे। सरस्वती सब नदियों में पवित्र है, वह संसार का कल्याण करने वाली है, सरस्वती को पाकर मनुष्य इहलोक और परलोक में पापों के लिये शोक नहीं करते।'
तदनन्तर, बारंबार सरस्वती की ओर देखते हुए बलरामजी सुंदर रथ पर सवार हुए और शिष्यों का युद्ध देखने के लिये तेज चाल से चलकर द्वैपायन सरोवर के पास जा पहुंचे


Saturday 2 September 2023

इन्द्रतीर्थ और आदित्यतीर्थ की महिमा, देवल_जैगीषव्य मुनि तथा वऋद्धकन्यआक्षएत्र की कथा

वैशम्पायनजी कहते हैं_वहां जाकर बलरामजी ने विधिवत् स्नान किया और ब्राह्मणों को धन तथा रत्न दान दिये। इन्द्रतीर्थ में देवराज ने सौ यज्ञ किये थे, जिनमें बृहस्पतिजी को बहुत _सा धन दिया गया था। अनेकों प्रकार की दक्षिणाएं बांटी गयी थीं। इस प्रकार सौ यज्ञ पूर्ण करने के कारण इन्द्र 'शतक्रतु' के नाम से विख्यात हुए और उन्हीं के नाम पर परम पवित्र, कल्याणकारी एवं सनातन तीर्थ 'इन्द्रतीर्थ' कहलाने लगा। वहां स्नान_दान करने के पश्चात् बलरामजी रामतीर्थ में पहुंचे, जहां परशुरामजी ने अनेकों बार क्षत्रियों का संहार करके इस पृथ्वी पर विजय पायी और कश्यप मुनि को आचार्य बनाकर वाजपेयी तथा सौ अश्वमेध यज्ञ किये। उन्होंने समुद्रसहित संपूर्ण पृथ्वी ही दक्षिणा के रूप में दे दी थी तथा और भी नाना प्रकार के दान देकर वे वन में चले गये थे। उस पावन तीर्थ में रहनेवाले मुनियों को सादर प्रणाम करके बलरामजी यमुनातीर्थ में आये, जहां वरुण ने राजसूय यज्ञ किया था। वहां ऋषियों की पूजा करके उन्होंने सबको संतुष्ट किया था तथा दूसरे याचकों को भी उनके इच्छानुसार दान दिया। इसके बाद वे आदित्यतीर्थ में गये, जहां भगवान् सूर्य ने परमात्मा का यजन करके ज्योतिषयों का आधिपत्य तथा अनुपम प्रभाव प्राप्त किया था। इनके सिवा, इन्द्र आदि संपूर्ण देवता, विश्वेंद्र, मरुद्गण, गन्धर्व, अप्सरा, द्वैपायन व्यास, शुकदेव तथा दूसरे अनेकों योगसिद्ध महात्माओं ने भी सरस्वती के उस पवित्र तीर्थ में सिद्धि प्राप्त की है। पूर्वकाल में यहां देवल मुनि गृहस्थ धर्म का आश्रय लेकर रहते थे। वे बड़े धर्मात्मा तथा तपस्वी थे। मन, वाणी तथा क्रिया से भी समस्त जीव के प्रति समान भाव रखते थे। क्रोध तो उन्हें छू तक नहीं गया था। उनकी कोई निंदा करें या स्तुति, वे सबको समान समझते थे, अनुकूल या प्रतिकूल वस्तु प्राप्ति होने पर भी उनकी वृत्ति एक_सी ही रहती थी। वे धर्मराज के समान समदर्शी थे। सुवर्ण और मिट्टी के ढ़ेले को एक ही नज़र से देखते थे। देवता, अतिथि तथा ब्राह्मणों की सदा पूजा किया करते और प्रतिदिन ब्रह्मचर्य की रक्षा करते हुए धर्माचरण में संलग्न रहते थे। एक दिन जैगिषव्य मुनि उस तीर्थ में आये और अपनी योगशक्ति से भिक्षुक का वेष बनाकर देवल के आश्रम पर रहने लगे। महर्षि जैगिषव्य सिद्धि प्राप्त योगी थे और सदा योग में ही उनकी स्थिति रहती थी। यद्यपि जैगीषव्य देवल के आश्रम पर ही रहते थे, तो भी देवल मुनि उन्हें दिखाकर योग_साधना नहीं करते थे। इस तरह दोनों को वहां रहते हुए बहुत समय बीत गये।
तदनन्तर, कुछ काल तक ऐसा हुआ कि जैगीषव्य मुनि सदा नहीं दिखाई देते, केवल भोजन के समय ही देवल के आश्रम पर उपस्थित होते थे। उस समय केवल अपनी शक्ति के अनुसार शास्त्रीय विधि से उनका पूजन आप आतिथ्य_सत्कार करते थे। यह नियम भी बहुत वर्षों तक चला। एक दिन जैगिषव्य मुनि को देखकर देवल के मन में बड़ी चिंता हुई। उन्होंने सोचा 'इनकी पूजा करते_करते कितने वर्ष बीत गये;' मगर ये भिक्षु आजतक मुझसे एक भी बात नहीं बोले। यही सोचते हुए वे कलश हाथ में ले आकाश मार्ग से समुद्रतट की ओर चल दिये। वहां जाकर देखा कि भिक्षु महोदय पहले से ही समुद्र तट पर मौजूद थे। अब तो उन्हें चिंता के साथ_साथ आश्चर्य भी हुआ। सोचने लगे_'ये पहले ही कैसे आ पहुंचे ?' इन्होंने तो स्नान भी समाप्त कर लिया है !' तदनन्तर महर्षि देवल ने भी विधिवत् स्नान करके गायत्री-मंत्र का जप किया। जब नित्य नियम समाप्त हो गया तो वे पुनः आश्रम की ओर चले। वहां पहुंचते ही उन्हें जैगिषव्य मुनि बैठे दिखायी पड़े। तब देवल मुनि पुनः विचार में पड़ गये_'मैंने तो इन्हें समुद्र तट पर देखा है, ये आश्रम पर कब और कैसे आ गये।' यह सोचकर उनके मन में जैगीषव्य को ठीक _ठीक जानने की इच्छा हुई, फिर तो वे उस आश्रम से आकाश की ओर उड़े। ऊपर जाकर उन्हें बहुत _सी अन्तरिक्ष चारी सिद्धों का दर्शन हुआ, साथ ही, उन सिद्धों के द्वारा पूजे जाते हुए जैगीषव्य मुनि भी दिखाई पड़े। इसके बाद देवल ने उन्हें स्वर्ग लोक जाते देखा, वहां से पितृलोक में, पितृलोक से यमलोक में, वहां से चन्द्रलोक में तथा चन्द्रलोक से एकान्त में यज्ञ करनेवाले अग्निहोत्रियों के उत्तम लोकों में उन्हें गमन करते देखा। इसी तरह दर्श_पौर्णमास मांग करनेवालों के लोकों में तथा अन्य बहुतेरे लोकों में भी वे जाते दिखायी पड़े। रुद्रों, वसुओं तथा वृहस्पति के स्थान पर भी वे पहुंच गये। तत्पश्चात् वे पतिव्रताओं के लोक में जाकर अन्तर्ध्यान हो गये। फिर देवल मुनि उन्हें न देख सके। तब उन्होंने जैगीषव्य के प्रभाव, व्रत और अनुपम योगसिद्धि के विषय में विचार करते हुए सिद्धों से पूछा_'अब मुझे महान् तेजस्वी जैगीषव्य नहीं दिखाई देते, आपलोग उनका पता बतावें।' सिद्धों ने कहा_'देवल ! जैगीषव्य ब्रह्मलोक में चले गये, वहां तुम्हारी गति नहीं है।'सिद्धों की बात सुनकर देवल मुनि क्रमश: नीचे के लोकों में होते हुए भूमि पर उतरने लगे। वे अपने आश्रम पर पहुंचे तो वहां पहले से ही बैठे हुए जैगीषव्य पर उनकी दृष्टि पड़ी। वे उनके तप और जोग का प्रभाव देख चुके थे, इसलिये अपनी धर्मयुक्त शुद्ध बुद्धि से कुछ देर विचार किया; फिर  वे मुनि की शरण में गये और बोले_'भगवन् ! मैं मोक्षधर्म का आश्रय लेना चाहता हूं।'  उनकी बात सुनकर और संन्यास लेने का विचार जानकर जैगीषव्य ने उन्हें ज्ञानोपदेश दिया; साथ ही योग की विधि बताकर शास्त्र के अनुसार कर्तव्य_अकर्तव्य का भी उपदेश दिया। मुनिवर देवल ने भी गृहस्थ धर्म का परित्याग करके मोक्षधर्म में प्रीति लगायी और परा_सिद्धि और परम योग को प्राप्त किया। राजा जनमेजय ! जैगीषव्य और देवल दोनों महात्माओं का जहां आश्रम था, वह उत्तम स्थान ही तीर्थ बन गया। बलरामजी ने उस तीर्थ में आचमन करके ब्राह्मणों को दान किया और अन्य धार्मिक कार्य सम्पन्न करके वहां से चलकर सारस्वत तीर्थ में पहुंचे, जहां पूर्वकाल में बारह वर्षों तक वर्षा नहीं हुई थी, उस समय सरस्वतीपुत्र सारस्वत मुनि ने ब्राह्मणों को वेद पढ़ाया था। सारस्वत मुनि के नाम से प्रसिद्ध हुए उस तीर्थ।था में धन दान करके बलरामजी वहां से आगे बढ़े और जहां वृद्ध कन्या ने तप किया था, उस प्रसिद्ध तीर्थ में जा पहुंचे। जनमेजय ने पूछा_मुने ! पूर्वकाल में कुमारी ने किस उद्देश्य से तप किया था? जिस प्रकार वह तपस्या में प्रवृत हुई, उसका सारा वृतांत सुनाइये। वैशम्पायनजी ने कहा_राजन् ! प्राचीन काल में एक 'कुणिगर्ग' नामक महान् यशस्वी ऋषि हो गये हैं; उन्होंने बड़ी तपस्या करके अपने मन से ही एक सुन्दरी कन्या उत्पन्न की। पुत्री को देखकर मुनि को बड़ी प्रसन्नता हुई। कुछ काल के पश्चात् वे इस शरीर का त्याग करके स्वर्ग में चले गये। अब आश्रम का भार उस कन्या के ऊपर आ पड़ा। वह बहुत क्लेश उठाकर उग्र तपस्या में संलग्न हुई और निरंतर उपवास करती हुई पितरों तथा देवताओं की पूजा करने लगी। उसे उग्र तपस्या करते बहुत समय बीत गया। वह बूढ़ी और दुबली हो गयी। तब उसने परलोक में जाने का विचार किया। उसकी देहत्याग की इच्छा देख नारदजी ने आकर कहा_'देवी ! तुम्हारा तो अभी संस्कार ही नहीं हुआ है, फिर तुम्हें उत्तम लोक कैसे मिल सकता है? यह बात मैंने देवलोक में सुनी है। तुमने तपस्या तो बहुत बड़ी की, पर तुम्हें उत्तम लोकों पर अधिकार नहीं प्राप्त हो सका।' नारदजी की बात सुनकर वह ऋषियों की सभा में जाकर बोली_'जो कोई मेरा पाणिग्रहण करेगा, उसे मैं अपनी तपस्या का आधा भाग ले लूंगी।' उसके ऐसा कहने पर गालव के पुत्र श्रृंगवान् ने कहा_'कल्याणी ! मैं इस शर्त पर तुम्हारा पाणिग्रहण करूंगा कि विवाह हो जाने पर तुम एक रात मेरे साथ निवास करो।' वृद्धा कुमारी ने 'हां' कहकर अपना हाथ मुनि के साथ में दे दिया। गालवनन्दन ने शास्त्रीय विधि के अनुसार हवन आदि करके उसका पाणिग्रहण संस्कार किया। रात्रि के समय वह सुन्दरी तरुण बनकर मुनि के पास गयी। उस समय उसके शरीर पर दिव्य वस्त्र और आभूषण शोभा पा रहे थे। दिव्य हार तथा दिव्य अंगरागों की सुगंध फैल रही थी। उसकी छवि से चारों ओर प्रकाश_सा हो रहा था। उसे देखकर श्रृंगवान् ऋषि को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने एक रात उसके साथ निवास किया। सवेरा होते ही वह मुनि से बोली_'विप्रवर ! आपने जो शर्त की थी , उसके अनुसार मैं आपके साथ रह चुकी, अब आज्ञा दीजिए, मैं जाती हूं।' यह कहकर वह वहां से चल दी। जाते_जाते उसने फिर कहा_'जो अपने चित्त को एकाग्र कर देवताओं को तृप्त करके इस तीर्थ में निवास करेगा, उसे अट्ठावन वर्षों तक ब्रह्मचर्य_पालन करने का फल मिलेगा।'  ऐसा कहकर वह साध्वी देह त्यागकर स्वर्ग में चली गयी और मुनि उसके दिव्य रूप का चिंतन करते हुए बहुत दु:खी हो गये। उन्होंने प्रतिज्ञा के अनुसार उसके तप का आधा भाग ले लिया और उससे अपने को सिद्ध बनाकर उसी की गति का अनुसरण किया। राजन् ! यही वृद्ध कन्या का परिचय है, जो तुम्हें सुना दिया। बलरामजी ने इसी तीर्थ में आने पर शल्य की मृत्यु का समाचार सुना था। वहां भी उन्होंने ब्राह्मणों को बहुत कुछ दान दिया। तत्पश्चात् समन्तपंचक द्वार से निकलकर उन्होंने ऋषियों से कुरुक्षेत्र_सेवन का फल पूछा। तब उन महात्माओं ने बलरामजी से उस क्षेत्र के सेवन का ठीक _ठीक फल बताया।