Wednesday 27 July 2016

उद्योगपर्व---विदुरजी के द्वारा धृतराष्ट्र को नीति का उपदेश विदुरनीति ( पहला अध्याय )

विदुरजी के द्वारा धृतराष्ट्र को नीति का उपदेश विदुरनीति ( पहला अध्याय )
संजय के चले जाने पर महा बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र ने द्वारपाल से कहा---'मैं विदुर से मिलना चाहता हूँ। उन्हें यहाँ शीघ्र बुला लाओ।' धृतराष्ट्र का भेजा हुआ दूत जाकर विदुर से बोला---'महामते ! हमारे स्वामी महाराज धृतराष्ट्र आपसे मिलना चाहते हैं।' उसके ऐसा कहने पर विदुरजी राजमहल के पास जाकर बोले---'द्वारपाल ! धृतराष्ट्र को मेरे आने की सूचना दे दो।' द्वारपाल ने जाकर कहा---'महाराज ! आपकी आज्ञा से विदुरजी यहाँ आ पहुँचे हैं, वे आपके दर्शन करना चाहते हैं। मुझे आज्ञा दीजिये, उन्हें क्या कार्य बताया जाय ?  द्वारपाल विदुर के पास आकर बोला---"विदुरजी ! आप बुद्धिमान् महाराज धृतराष्ट्र के अंतःपुर में प्रवेश कीजिये। महाराज ने मुझसे कहा है कि 'मुझे विदुर से मिलने में कभी अड़चन नहीं है।"' तदनन्तर विदुर धृतराष्ट्र के महल के भीतर जाकर विचार में पड़े हुये राजा से हाथ जोड़कर बोले---'महाप्राज्ञ ! मैं विदुर हूँ, आपकी आज्ञा से यहाँ आया हूँ। यदि मेरे करने योग्य कुछ काम हो तो मैं उपस्थित हूँ, मुझे आज्ञा कीजिये।' धृतराष्ट्र ने कहा---विदुर ! संजय आया था, मुझे बुरा भला कहकर चला गया है। कल सभा में वह अज्ञातशत्रु युधिष्ठिर के वचन सुनावेगा। आज मैं उस कुरुवीर युधिष्ठिर की बात न जान सका---यही मेरे अंगों को जला रहा है और इसी ने मुझे अबतक जगा रखा है। तात ! मैं चिन्ता से जलता हुआ अभी तक जग रहा हूँ। मेरे लिये जो कल्याण की बात समझो, वह कहो; क्योंकि तुम धर्म और अर्थ के ज्ञान में निपुण हो। संजय जबसे पाण्डवों के यहाँ से लौटकर आया है, तबसे मेरे मन को पूर्ण शान्ति नहीं मिलती। सभी इन्द्रियाँ विकल हो रही हैं। कल वह क्या कहेगा, इसी बात की मुझे इस समय भारी चिन्ता हो रही है। विदुरजी बोले---जिसका बलवान् के साथ विरोध हो गया है उस साधनहीन दुर्बल मनुष्य को, जिसका सबकुछ हर लिया गया है उसको, कामी को तथा चोर को रात में जागने का लत लग जाता है। नरेन्द्र ! कहीं आपका भी इन दोषों से सम्पर्क तो नहीं हो गया है ? कहीं पराये धन के लोभ से तो आप कष्ट नहीं पा रहे हैं ? धृतराष्ट्र ने कहा---मैं तुम्हारे धर्मयुक्त तथा कल्याण करनेवाले सुन्दर वचन सुनना चाहता हूँ; क्योंकि इस राजर्षिवंश में केवल तुम्ही विद्वानों के भी माननीय हो। विदुरजी बोले---महाराज धृतराष्ट्र ! श्रेष्ठ लक्षणों से सम्पन्न राजा युधिष्ठिर तीनों लोकों के स्वामी हो सकते हैं। वे आपके आज्ञाकारी थे, पर आपने उन्हें वन में भेज दिया। आप धर्मात्मा और धर्म का जानकार होते हुए भी आँखों से अंधे होने के कारण उन्हें पहचान न सके, इसी से उनके विपरीत हो गये और उन्हें राज्य का भाग देने में आपकी सम्मति नहीं हुई। युधिष्ठिर में क्रूरता का अभाव, दया, धर्म, सत्य तथा पराक्रम है; वे आपमें पूज्यबुद्धि रखते हैं। इन्हीं सद्गुणों के कारण वे सोच-विचारकर चुपचाप बहुत से क्लेश सह रहे हैं। आप दु्योधन, शकुनि, कर्ण तथा दुःशासन जैसे अयोग्य व्यक्तियों पर राज्य का भार रखकर कैसे ऐश्वर्य वृद्धि चाहते हैं ? अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान, उद्योग, दुःख सहने की शक्ति और धर्म में स्थिरता---ये गुण जिस मनुष्य को पुरुषार्थ से च्युत नहीं करते, वही पण्डित कहलाता है। जो अच्छे कर्मों का सेवन करता और बुरे कर्मों से दूर रहता है, साथ ही जो आस्तिक और श्रद्धालु है, उसके ये सद्गुण पण्डित होने के लक्षण हैं। क्रोध, हर्ष, गर्व, लज्जा, उद्दण्डता तथा अपने को पूज् समझना---ये भाव जिसको पुरुषार्थ से भ्रष्ट नहीं करते, वही पण्डित कहलाता है। दूसरे लोग जिसके कर्तव्य, सलाह और पहले से किये हुए विचार को नहीं जानते, बल्कि काम पूरा होने पर ही जानते हैं, वही पण्डित कहलाता है। सर्दी-गर्मी, भय-अनुराग सम्पत्ति अथवा दरिद्रता---े जिसके कार्य में विघ्न नहीं डालते, वही पण्डित कहलाता है। जिसी लौकिक बुद्धि धर्म और अर्थ का ही अनुसरण करती है और जो भोग को छोड़कर पुरुषार्थ का ही वरण करता है, वही पण्डित कहलाता है। विवेकपूर्ण बुद्धिवाले पुरुष शक्ति के अनुसार काम करने की इच्छा रखते हैं और करते भी हैं, तथा किसी वस्तु को तुच्छ समझकर उसकी अवहेलना नहीं करते। किसी विषय को देरतक सुनता है किन्तु शीघ्र ही समझ लेना, समझकर पुरुषार्थ में प्रवृत होना---कामना से नहीं, बिना पूछे दूसरे के विषय में व्यर्थ कोई बात नहीं कहना---यह पण्डित का मुख्य लक्षण है। बुद्धि रखनेवाले मनुष्य दुर्लभ वस्तु की कामना नहीं करते, खोयी हुई वस्तु के विषय में शोक करना नहीं चाहते और विपत्ति में पड़कर घबराते नहीं।  जो पहले निश्चय करके फिर कार्य आरम्भ करता है, कार्य के बीच में नहीं रुकता, समय को व्यर्थ नहीं जाने देता और चित्त को वश में रखता है, वही पण्डित कहलाता है। पण्डितजन श्रेष्ठ कर्मों में रुचि रखते हैं, उन्नति के काम करते हैं तथा भलाईकरनेवालों में दोष नहीं निकालते। जो अपना आदर होने पर हर्ष के मारे फूल नहीं उठता, अनादर से संतप्त नहीं होता तथा तथा गंगाजी के कुण्ड के समान जिसके चित्त को क्षोभ नहीं होता, वह पण्डित कहलाता है। जो संपूर्ण भौतिक पदार्थों की असलियत का ज्ञान रखनेवाला, सब कार्यों के करने का ढ़ंग जाननेवाला तथा मनुष्यों में सबसे बढ़कर उपाय का जानकार है, वह मनुष्य पण्डित कहलाता है। जिसकी वाणी कहीं रुकती नहीं, जो विचित्र ढ़ंग से बातचीत करता है, तर्क में निपुण और प्रतिभाशाली है तथा जो ग्रन्थ के तात्पर्य को शीघ्र बता सकता है, वह पण्डित कहलाता है। जिसकी विद्या बुद्धि का अनुसरण करती है और बुद्धि विद्या का, तथा जो शिष्ट पुरुषों की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता वही पण्डित है। बिना पढ़े ही गर्व करनेवाले, गरीब होकर भी बड़े-बड़े मंसूबे बाँधनेवाले और बिना काम किये ही धन की इच्छा रखनेवाले मनुष्य को मूर्ख कहते हैं। जो अपना कर्तव्य छोड़कर दूसरे के कर्तव्य का पालन करता है, तथा मित्र के साथ असत् आचरण करता है, वह मूर्ख कहलाता है। जो न चाहनेवालों को चाहता है और चाहनेवालों को त्याग देता है, तथा जो अपने से बलवान् के साथ वैर बाँधता है, उसे 'मूढ़ विचार का मनुष्य' कहते हैं। जो शत्रु को मित्र बनाता और मित्र से द्वेष करते हुए उसे कष्ट पहुँचाता है, तथा सदा बुरे कर्मों का आरम्भ किया करता है, उसे 'मूढ़ चित्तवाला' कहते हैं। जो अपने कामों को व्यर्थ ही फैलाता है, सर्वत्र संदेह करता है तथा शीघ्र होनेवाले काम में भी देर लगाता है, वह मूढ़ है। जो देवताओं का पूजन ठीक से नहीं करता तथा जिसे सुहृद मित्र नहीं मिलता, उसे  'मूढ़ चित्तवाला' कहते हैं। मूढ़ चित्तवाला अधम मनुष्य बिना बुलाये ही अन्दर चल आता है, बिना पूछे ही बहुत बोलता है तथा अविश्वसनीय मनुष्यों पर भी विश्वास करता है। अपना व्यवहार दोषयुक्त होते हुए भी जो दूसरों पर उसके दोष बताकर आक्षेप करता है तथा जो असमर्थ होते हुए भी व्यर्थ का क्रोध करता है, वह मनुष्य महामूर्ख है। जो अपने बल को न समझकर बिना काम किये ही धर्म और अर्थ से विरुद्ध तथा न पाने योग्य वस्तु की इच्छा करता है, वह इस संसार में 'मूढ़बुद्धि' कहलाता है। राजन् ! जो अनधिकारी को उपदेश देता और शून्य की उपासना करता है तथा जो कृपण का आश्रय लेता है, उसे मूढ़ चित्तवाला कहते हैं। जो बहुत धन, विद्या तथा ऐश्वर्य को पाकर इठलाता नहीं, वह पण्डित कहलाता है। जो अपने द्वारा भरण-पोषण के योग्य व्यक्तियों को बाँटे बिना अकेले ही उत्तम भोजन करता और अच्छा वस्त्र पहनता है, उससे बढ़कर क्रूर कौन होगा ? मनुष्य अकेला पाप करता है और बहुत से लोग उससे मौज उड़ाते हैं। मौज उड़ानेवाले तो छूट जाते हैं, पर उसका कर्ता तो दोष का भागी होता है। किसी धनुर्धर वीर के द्वारा छोड़ा हुआ बाण संभव है एक को भी मारे या न मारे। मगर बुद्धिमान द्वारा प्रयुक्त की हुई बुद्धि राजा समेत संपूर्ण राष्ट्र का विनाश कर सकती है। एक ( बुद्धि ) से दो ( कर्तव्य-अकर्तव्य ) का निश्चय करके चार ( साम, दान, भेद, दण्ड ) से तीन ( शत्रु, मित्र तथा उदासीन ) को वश में कीजिये। पाँच ( इन्द्रियों ) को जीतकर छः ( सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रयरूप ) गुणों को जानकर तथा सात ( स्त्री, जूआ, मृगया, मद्य, कठोर-वचन, दण्ड की कठोरता और अन्याय से धन का उपार्जन ) को छोड़कर सुखी हो जाइये। विष का रस एक ( पीनेवालों ) को मारता है, शस्त्र से एक का ही वध होता है, किन्तु मन का फूटना राष्ट्र और प्रजा के साथ ही राजा का भी विनाश कर डालता है। अकेले स्वादिष्ट भोजन न करें, अकेला किसी विषय का निश्चय न करें, अकेला रास्ता न चलें और बहुत से लोग सोये हों तो उनमें अकेला न जागता रहें।  राजन् ! जैसे समुद्र के पार जाने के लिये नाव ही एकमात्र साधन है, उसी प्रकार स्वर्ग के लिये सत्य ही एकमात्र सोपान है, दूसरा नहीं; किन्तु आप इसे नहीं समझ रहे हैं। क्षमाशील व्यक्तियों में एक ही दोष का आरोप होता है, दूसरे की तो सम्भावना ही नहीं है। वह दोष यह है कि क्षमाशील मनुष्य को लोग असमर्थ समझ लेते हैं। किन्तु क्षमाशील मनुष्य का वह दोष नहीं मानना चाहिये; क्योंकि क्षमा बहुत बड़ा बल है। क्षमा असमर्थ पुरुषों का गुण तथा समर्थों का भूषण है। इस जगत् में क्षमा वशीकरण रूप है। क्षमाहीन व्यक्ति अपने को तथा दूसरों को भी दोष का भागी बना लेता है। केवल धर्म ही परम कल्याणकारक है, एकमात्र क्षमा ही शान्ति का सर्वश्रेष्ठ उपाय है।  एक विद्या ही परम संतोष देनेवाली है और एकमात्र अहिंसा ही सुख देनेवाली है। बिल में रहनेवाले मेंढ़क आदि जीवों को जैसे साँप खा जाता है, उसी प्रकार यह पृथ्वी शत्रु से विरोध न करनेवाले राजा को खा जाती है। जरा भी कठोर न बोलना और दुष्टों का आदर न करना---इन दो कर्मों को करनेवाला मनुष्य इस लोक में विशेष शोभा पाता है। दूसरी स्त्री द्वारा चाहे गये पुरुष की कामना करनेवाली स्त्रियाँ तथा दूसरों के द्वारा पूजित मनुष्य का आदर करनेवाले पुरुष---ये दो प्रकार के लोग दूसरों पर विश्वास करके चलनेवाले होते हैं। जो निर्धन होकर भी बहुमूल्य वस्तु की इच्छा रखता है और असमर्थ होकर भी क्रोध करता है---ये दोनो ही अपने शरीर को सुखा देनेवाले काँटे के समान हैं। दो ही अपने विपरीत कर्मों के कारण शोभा नहीं पाते---अकर्मण्य गृहस्थ और प्रपंच में लगा हुआ सन्यासी। दो प्रकार के पुरुष स्वर्ग के भी ऊपर स्थान पाते हैं---शक्तिशाली होने पर भी क्षमा करनेवाला और निर्धन होने पर भी दान देनेवाला। न्यायपूर्वक उपार्जित किये हुए धन के दो ही दुरुपयोग समझने चाहिये---अपात्र को देना और सत्पात्र को न देना। जो धनी होने पर भी दान न दे और दरिद्र होने पर भी कष्ट सहन न कर सके---इन दो प्रकार के मनुष्यों को गले में पत्थर बाँधकर पानी में डुबा देना चाहिये। दो प्रकार के पुरुष सूर्यमण्डल को भेदकर उर्ध्वगति को प्राप्त होते हैं---योगयुक्त सन्यासी और संग्राम में लोहा लेते हुए मारा गया योद्धा। मनुष्यों की कार्यसिद्धि के लिये उत्तम, मध्यम और अधम---तीन प्रकार के उपाय सुने जाते हैं।  उत्तम, मध्यम और अधम---ये तीन प्रकार के मनुष्य होते हैं; इनको यथासंभव तीन ही प्रकार के कर्मों में लगाना चाहिये। तीन ही धन के अधिकारी नहीं माने जाते हैं---स्त्री, पुत्र तथा दास। ये जो कुछ कमाते हैं, वह धन उसी का होता है जिसके अधीन ये रहते हैं। दूसरे के धन का हरण, दूसरे की स्त्री से संसर्ग तथा सुहृद मित्र का परित्याग---ये तीनों ही दोष नाश करनेवाले होते हैं। काम, क्रोध और लोभ---ये आत्मा का नाश करनेवाले नरक के तीन दरवाजे हैं; अतः इन तीनों को त्याग देना चाहिये। वरदान पाना, राज्य की प्राप्ति और संतान का जन्म---ये तीन एक ओर और शत्रु के कष्ट से छूटना---एक तरफ; वे तीन और यह एक बराबर ही है। छोटी बुद्धिवाले, दीर्घसूत्री, जल्दबाज और स्तुति करनेवाले लोगों के साथ गुप्त सलाह नहीं करनी चाहिये। ये चारों महाबली राजा के लिये त्यागने योग्य बताये गये हैं; विद्वान पुरुष ऐसे लोगों को पहचान लें। गृहस्थ धर्म में स्थित लक्ष्मीवान् आपके घर में चार प्रकार के मनुष्यों को सदा रहना चाहिये---अपने कुटुम्ब का बूढ़ा, संकट में पड़ा हुआ उच्च कुल का मनुष्य, धनहीन मित्र और बिना संतान की बहिन। महाराज ! इन्द्र के पूछने पर उनसे बृहस्पतिजी ने जिन चारों को तत्काल फल देनेवाला बताया था, उन्हें आप मुझसे सुनिये---देवताओं का संकल्प, बुद्धिमानों का प्रभाव, विद्वानों की नम्रता और पापियों का विनाश। चार कर्म भय को दूर करनेवाले हैं; किन्तु यदि वे ठीक तरह से सम्पादित न हों तो भय प्रदान करते हैं। वे कर्म हैं---आदर के साथ अग्निहोत्र, आदरपूर्वक मौन का पालन, आदर के साथ यज्ञ का अनुष्ठान। पिता, माता, अग्नि, आत्मा और गुरु---मनुष्य को इन पाँच अग्नियों की बड़े यत्न से सेवा करनी चाहिये। देवता, पितर, मनुष्य, सन्यासी और अतिथि---इन पाँचों की पूजा करनेवाला मनुष्य शुद्ध यश प्राप्त करता है। राजन् ! आप जहाँ-जहाँ जायेंगे वहाँ-वहाँ मित्र-शत्रु, उदासीन, आश्रय देनेवाले तथा आश्रय पानेवाले---ये पाँच आपके पीछे लगे रहेंगे। पाँच ज्ञानेन्द्रियवाले मनुष्य की यदि एक भी इन्द्रिय छिद्र हो जाय तो उससे आपकी बुद्धि इस प्रकार आपकी बुद्धि बाहर निकल जाती है जैसे मशक के छेद से पानी। उन्नति चाहनेवाले मनुष्यों को नींद, तन्द्रा ( ऊँघना ), डर, क्रोध, आलस्य तथा दीर्घसूत्रता ( जल्दी हो जानेवाले काम में देर लगाने की आदत )---इन छः दुर्गुणों को त्याग देना चाहिये। उपदेश न देनेवाले आचार्य, रक्षा करने में असमर्थ राजा, कटु वचन बोलनेवाली स्त्री---इनको उसी प्रकार छोड़ दे जैसे समुद्र की सैर करनेवाला मनुष्य फटी हुई नाव का परित्याग कर देता है। मनुष्य को कभी भी सत्य, दान, कर्मण्यता, अनसूया ( गुणों में दोष दिखाने की प्रवृति का अभाव ), क्षमा तथा धैर्य---इन छः गुणों का त्याग नहीं करना चाहिये। धन की आय, नित्य निरोग रहना, स्त्री का अनुकूल तथा प्रियवादिनी होना, पुत्र का आज्ञा के अंदर रहना तथा धन पैदा करनेवाली विद्या का ज्ञान---ये छः बातें इस मनुष्यलोक में सुखदायिनी होती है। मन में नित्य रहनेाले छःशत्रु---काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद तथा मात्सर्य को वश में कर लेता है, वह जितेन्द्रिय पुरुष पापों से ही लिप्त नहीं होता; फिर तो उनसे उत्पन्न होनेवाले अनर्थों की तो बात ही क्या है। निम्नांकित छः प्रकार के मनुष्य छः प्रकार के लोगों से अपनी जीविका चलाते हैं, सातवें की उपलब्धि नहीं होती।चोर असावधान पुरुष से, वैद्य रोगी से, मतवाली स्त्रियाँ कामियों से, पुरोहित यजमानों से, राजा झगड़नेवालों से तथा विद्वान् पुरुष मूर्खों से अपनी जीविका चलाते हैं। क्षणभर भी देख-रेख न करने से गौ, सेवा, खेती, स्त्री, विद्या तथा शूद्रों से मेल---ये छः चीजें नष्ट हो जाती हैं। ये छः सदा अपने पूर्व उपकारी का अनादर करते हैं---शिक्षा समाप्त हो जाने पर शिष्य आचार्य का, विवाहित बेटे माता का, काम की शान्ति हो जाने पर मनुष्य स्त्री का, कृतकार्य पुरुष सहायक का, नदी  की दुर्गम धारा पार कर लेनेवाले पुरुष नाव का तथा रोगी मनुष्य रोग छूटने के बाद वैद्य का तिरस्कार कर देते हैं। निरोग रहना, ऋणी न होना, परदेश में न रहना, अच्छे लोगों से मेल होना, अपनी वृत्ति से जीविका चलाना और निडर होकर रहना---राजन् !  छः मनुष्यलोक के सुख हैं। ईर्ष्या करनेवाला, घृणा करनेवाला, असंतोषी, क्रोधी, सदा शंकित रहनेवाला---ये छः सदा दुःखी रहते हैं। स्त्रीविषयक आसक्ति, जूआ, शिकार, मद्यपान, वचन की कठोरता, अत्यन्त कठोर दण्ड देना और धन का दुरुपयोग करना---ये सात दुःखदायी दोष राजा को सदा त्याग देने चाहिये। इने दृढ़मूल राजा भी प्राय नष्ट हो जाते हैं। विनाश के मुख में पड़नेवाले मनुष्य के आठ पूर्वचिह्न हैं---प्रथम तो वह विद्वानों से द्वेष करता है, फिर उनके विरोध का पात्र बनता है। विद्वानों की निंदा में आनन्द मनाता है, उनकी प्रशंसा सुनना नहीं चाहता, उनका स्मरण नहीं करता तथा कुछ याचना करने पर उनमें दोष निकालने लगता है। इन सब दोषों को बुद्धिमान मनुष्य समझे और समझकर त्याग दे। मित्रों से समागम, अधिक धन की प्राप्ति, पुत्र का आलिंगन, मैथुन में प्रवृति, समय पर प्रिय वचन बोलना, अपने वर्ग के लोगों में उन्नति, अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति और जनसमाज में सम्मान---ये आठ हर्ष के सार दिखायी देते हैं और ये ही अपने लौकिक सुख के भी साधन होते हैं। बुद्धि , कुलीनता, इन्द्रियनिग्रह, शास्त्रज्ञान, पराक्रम, अधिक न बोलना, शक्ति के अनुसार दान और कृतज्ञता---ये आठ गुण मनुष्य की ख्याति बढ़ा देते हैं। जो विद्वान् पुरुष ( आँख कान आदि) नौ दरवाजे , तीन ( बात, पित्त और कफरूपी ) खंभोंवाले पाँच ( ज्ञानेन्द्रियरूप ) साक्षीवाले, आत्मा के निवासस्थान इस शरीर रूपी गृह को जानता है, वह बहुत बड़ा ज्ञानी है। महाराज धृतराष्ट्र ! दस प्रकार के लोग धर्म को नहीं जानते, उनके नाम सुनो। नशे में मतवाला, असावधान, पागल, थका हुआ, क्रोधी, भूखा, जल्दबाज, लोभी, भयभीत और कामी---ये दस हैं। अतः इन सब लोगों में विद्वान पुरुष आसक्ति न बढ़ावें। इसी विषय में असुरों के राजा प्रह्लाद ने सुधन्वा के साथ अपने पुत्र के प्रति कुछ उपदेश दिया था। नीतिज्ञ लोग उस पुराने इतिहास का उदाहरण देते हैं। जो राजा काम और क्रोध का त्याग करता है, और सुपात्र को धन देता है, विशेषज्ञ है, शास्त्रों का ज्ञाता और कर्तव्य को शीघ्र पूरा करनेवाला है, उसे सब लोग प्रमाण मानते हैं। जो मनुष्यों में विश्वास उत्पन्न करना जानता है, जिनका अपराध प्रमाणित हो गया है उन्हीं को दण्ड देता है, जो दण्ड देने की न्यूनाधिक मात्रा तथा क्षमा का उपयोग जानता है, उस राजा की सेवा में संपूर्ण सम्पत्ति चली आती है। जो किसी दुर्बल का अपमान नहीं करता, तथा समय आने पर पराक्रम दिखाता है, वही धीर है। जो धुरन्धर महापुरुष आपत्ति पड़ने पर भी कभी दुःखी नहीं होता, बल्कि सावधानी के साथ उद्योग का आश्रय लेता है, तथा समय पर दुःख सहता है उसके शत्रु तो परा जित ही हैं। जो निरर्थक विदेशवास, पापियों से मेल, परस्त्रीगमन, पाखण्ड, चोरी, चुगलखोरी तथा मदिरापान नहीं करता, पूछने पर यथार्थ बात ही बतलाता है, मित्र के लिये झगड़ा नहीं पसंद करता, आदर न पाने पर क्रुद्ध नहीं होता, विवेक नहीं खो बैठता, दूसरों के दोष नहीं देखता, सबपर दया करता है, बढ़कर नहीं बोलता तथा विवाद को सह लेता है ऐसा मनुष्य सब जगह प्रशंसा पाता है।जो कभी उद्दण्ड-सा वेष नहीं बनाता, दूसरों के सामने अपने पराक्रम की भी डींग नहीं हाँकता, क्रोध से व्याकुल होने पर भी कटु वचन  नहीं बोलता, उस मनुष्य को लोग सदा ही प्यारा बना लेते हैं। जो शान्त हुई वैर की आग को फिर प्रज्जवलित नहीं करता, गर्व नहीं करता, हीनता नहीं दिखाता तथा 'मैं विपत्ति में पड़ा हूँ' ऐसा सोचकर अनुचित काम नहीं करता, उस उत्तम आचरणवाले मनुष्य को आर्यजन सर्वश्रेष्ठ कहते हैं। जो अपने सुख में प्रसन्न नहीं होता, दूसरे के दुःख के समय हर्ष नहीं मनाता और दान देकर पश्चाताप नहीं करता, वह सज्जनों में सदाचारी कहलाता है। जो मनुष्य देश का व्यवहार, लोकाचार तथा जातियों के धर्मों को जानने की इच्छा करता है, उसे उत्तम अधम का विवेक हो जाता है। वह जहाँ जाता है, वहीं महान् जनसमूह पर अपनी प्रभुता स्थापित कर लेता है।जो बुद्धिमान दम्भ, मोह, मात्सर्य, पापकर्म, राजद्रोह, चुगलखोरी, समूह से वैर, मतवाले, पागल तथा दुर्जनों से विवाद छोड़ देता है, वह श्रेष्ठ है। जो दान, होम, देवपूजन, मांगलिक कार्य, प्रायश्चित तथा अनेक प्रकार के लौकिक आचार---इन नित्य किये जाने योग्य कर्मों को करता है, देवता लोग उसके अभ्युदय की सिद्धि करते हैं। जो अपने बराबरवालों के साथ विवाह, मित्रता, व्यवहार तथा बातचीत करता है, हीन पुरुषों के साथ नहीं और गुणों में बढ़े-चढ़े पुरुषों को आगे रखता है, उस विद्वान की नीति श्रेष्ठ है। जो अपने आश्रित जनों को बाँटकर थोड़ा ही भोजन करता है, बहुत अधिक काम करके भी थोड़ा ही सोता है तथा माँगने पर जो मित्र नहीं हैं उन्हें भी धन देता है, उस मनस्वी व्यक्ति को सारे अनर्थ दूर से ही छोड़ देते हैं। जिसकी अपनी इच्छा के अनुकूल और दूसरों की इच्छा के विरुद्ध कार्य को दूसरे लोग कुछ भी नहीं जान पाते, मन्त्र गुप्त रखने और अभीष्ट कार्य का ठीक-ठीक सम्पादन होने के कारण उसका थोड़ा भी काम बिगड़ने नहीं पाता। जो मनुष्य संपूर्ण भूतों को शान्ति प्रदान करने में तत्पर, सत्यवादी, कोमल, दूसरों को आदर देनेवाला तथा पवित्र विचारवाला होता है, वह अच्छी खान से निकले और चमकते हुए श्रेष्ठ रत्नों की भाँति अधिक प्रसिद्धि पाता है। जो स्वयं ही अधिक लज्जाशील है, वह सब लोगों से श्रेष्ठ समझा जाता है। वह अपने अत्यन्त तेज, शुद्ध हृदय एवं एकाग्रता से युक्त होने के कारण कान्ति में सूर्य के समान शोभा पाता है। अम्बिकानन्दन ! शाप से दग्ध राजा पाण्डु के जो पाँच पुत्र वन में उत्पन्न हुए, वे पाँच इन्द्र के समान शक्तिशाली हैं, उन्हें आपही ने बचपन से पाला और शिक्षा दी है; वे भी सदा आपकी आज्ञा का पालन करते रहते हैं। तात ! उन्हें उनका न्यायोचित राज्यभाग देकर आप अपने पुत्रों के साथ आनन्द भोगिये। नरेन्द्र ! आप ऐसा करने पर देवताओं तथा मनुष्यों की टीका-टिप्पणी के विषय नहीं रह जायेंगे।

Tuesday 19 July 2016

उद्योगपर्व---संजय की धृतराष्ट्र से भेंट

संजय की धृतराष्ट्र से भेंट
तदनन्तर राजा युधिष्ठिर की आज्ञा ले संजय वहाँ से चल दिया। हस्तिनापुर में पहुँचकर वह शीघ्र ही अंतःपुर में गया और द्वारपाल से बोला---'प्रहरी ! तुम राजा धृतराष्ट्र को मेरे आने की सूचना दे दो, मुझे उनसे अत्यन्त आवश्यक काम है।' द्वारपाल ने जाकर कहा---'राजन् ! प्रणाम ! संजय आपसे मिलने के लिेए द्वार पर आये खड़े हैं, पाण्डवों के पास से उनका आना हुआ है; कहिये, उनके लिये क्या आज्ञा है ?' धृतराष्ट्र ने कहा---संजय को स्वागतपूर्वक भीतर ले आओ; मुझे तो कभी भी उनसे मिलने में रुकावट नहीं है, फिर वह दरवाजे पर क्यों खड़ा है ? तत्पश्चात् राजा की आज्ञा पाकर संजय ने उनके महल में प्रवेश किया और सेंहासन पर बैठे हुए राजा के पास जा हाथ जोड़कर कहा---'राजन् ! मैं संजय आपको प्रणाम करता हूँ। पाण्डवों से मिलकर यहाँ आया हूँ। पाण्डुनन्दन राजा युधिष्ठिर ने आपको प्रणाम कहा है और कुशल पूछी है। उन्होंने बड़ी प्रसन्नता के साथ आपके पुत्रों का समाचार पूछा है---आप अपने पुत्र, नाती, मित्र, मंत्री तथा आश्रितों के साथ आनन्दपूर्वक हैं न ?' धृतराष्ट्र ने कहा--- तात संजय ! धर्मराज अपने मंत्री, पुत्र और भाइयों के साथ कुशल से तो हैं ? संजय बोला---राजन् ! युधिष्ठिर अपने मंत्रियों के साथ कुशलपूर्वक हैं। वे अपना राज्यभाग लेना चाहते हैं। वे विशुद्ध भाव से धर्म और अर्थ का सेवन करनेवाले, मनस्वी,विद्वान् तथा शीलवान् हैं। किन्तु तुम जरा अपने कर्मों की ओर तो दृष्टि डालो। धर्म और अर्थ से युक्त जो श्रेष्ठ पुरुषों का व्यवहार है, उससे बिलकुल विपरीत तुम्हारा वर्ताव है। इसके कारण इस लोक में तो तुम्हारी निन्दा हो चुकी, यह पाप परलोक में भी तुम्हारा पिण्ड नहीं छोड़ेगा। तुम अपने पुत्रों के वश में होकर पाण्डवों के बिना ही सारा राज्य अपने अधीन कर लेना चाहते हो। राजन् ! तुम्हारे द्वारा पृथ्वी पर बड़ा अधर्म फैलेगा; यह कर्म तुम्हारे योग्य कदापि नहीं है। बुद्धिहीन, दुराचारी कुल में उत्पन्न, क्रूर, दीर्घकाल तक वैर रखनेवाले, क्षत्रविद्या में अनिपुण, पराक्रमहीन और अशिष्ट पुरुषों पर आपत्तियाँ टूट पड़ती हैं। जो सदाचारी कुल में उत्पन्न, बलवान्, यशस्वी, विद्वान् और जितेन्द्रिय है, वह प्रारब्ध के अनुसार संपत्ति प्राप्त करता है। तुम्हारे ये मन्त्रीलोग सदा कर्मों में लगे रहकर नित्य एकत्रित हो बैठक किया करते हैं; इन्होंने पाण्डवों को राज्य न देने का जो प्रबल निश्चय कर लिया है, यह कौरवों के नाश का ही कारण है। यदि अपने पाप के कारण कौरवों का असमय ही विनाश होनेवाला होगा तो इसका सारा अपराध युधिष्ठिर तुम्हारे ही सिर पर रखकर इनका विनाश भी करना चाहेंगे। राजन् ! इस जगत् में प्रिय-अप्रिय, सुख-दुख, निंदा-प्रशंसा---ये मनुष्य को प्राप्त होते ही रहते हैं। परन्तु निंदा उसी की होती है, जो अपराध करता है तथा प्रशंसा भी उसी की की जाती है, जिसका व्यवहार बहुत उत्तम होता है। भरतवंश में विरोध फैलाने के कारण मैं तुम्हारी ही निंदा करता हूँ। इस विरोध के कारण निश्चय ही प्रजाजनों का सत्यानाश होगा। सारे संसार में इस प्रकार पुत्र के अधीन होते तो मैने तुमको ही देखा है। तुमने ऐसे लोगों का संग्रह किया है जो विश्वास के योग्य नहीं है; तथा अपने विश्वासपात्रों को दण्ड दिया गया है। इस दुर्बलता के कारण अब तुम पृथ्वी की रक्षा करने में भी समर्थ नहीं हो सकते। इस समय रथ के वेग से बहुत हिलने-डुलने के कारण मैं थक गया हूँ; यदि आज्ञा दो तो बिछौने पर सोने के लिये जाऊँ। प्रातःकाल जब सभी कौरव सभा में एकत्र होंगे, उस समय अज्ञातशत्रु के वचन सुनना। धृतराष्ट्र ने कहा---सूतपुत्र ! मैं आज्ञा देता हूँ, तुम घर पर जाकर शयन करो। सबेरे सभा में ही तुम्हारे कहे हुए युधिष्ठिर के संदेश को सारे कौरव सुनेंगे।

उद्योगपर्व---संजय की विदाई, युधिष्ठिर का संदेश

संजय की विदाई, युधिष्ठिर का संदेश
संजय ने कहा---पाण्डुनन्दन ! आपका कल्याण हो। अब मैं जाता हूँ और इसके लिये आपकी आज्ञा चाहता हूँ। मैने मानसिक आवेश के कारण वाणी से जो कुछ कह दिया, इससे आपको कष्ट तो नहीं हुआ ?  युधिष्ठिर बोले---'संजय ! जाओ, तुम्हारा कल्याण हो। तुम तो कभी हमें कष्ट देने की बात सोचते भी नहीं। समस्त कौरव तथा हम पाण्डवलोग जानते हैं कि तुम्हारा हृदय शुद्ध है और तुम किसी के पक्षपाती न होकर मध्यस्थ हो। तुम विश्वसनीय हो, तुम्हारी बातें कल्याणकारी होती है। तुम शीलवान् और संतोषी हो, इसलिये तुम मुझे प्रिय लगते हो। तुम्हारी बुद्धि कभी मोहित नहीं होती; कटुवचन कहने पर भी तुम्हें क्रोध नहीं होता। संजय ! तुम हमारे प्रिय हो और विदुर के समान दूत बनकर आये हो तथा अर्जुन के प्रिय सखा हो। वहाँ जाकर स्वाध्यायशील ब्राह्मणों, सन्यासियों तथा वनवासियों तपस्वियों से और बड़े-बूढ़े लोगों से मेरा प्रणाम कहना। बाकी जो लोग हों, उनसे कुशल समाचार कहना। संजय ! दुर्योधन को तुम यह बात सुना देना---'तुम्हारे हृदय को जो यह कामना पीड़ा देती रहती है कि मैं कौरवों का निष्कंटक राज्य करूँ, सो इसकी सि्धि का कोई उपाय नहीं है। म ऐसे नहीं हैं, जो चुपचाप तुम्हारा यह प्रिय कार्य होने दें। भारत वीर ! या तो तुम इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) का राज्य मुझे दे दो अथवा युद्ध करो।'  संजय !  सज्जन-असज्जन, बालक-बृद्ध, निर्बल तथा बलवान्---सब विधाता के वश में हैं। मेरे सैनिक-बल की जिज्ञासा करने पर तुम सबको मेरी ठीक स्थिति बता देना। फिर राजा धृतराष्ट्र के पास जाकर उन्हें प्रणाम करके मेरी ओर से कुशल पूछना। इसी प्रकार भीष्मपितामह को भी मेरा नाम ले, प्रणाम करना और उनसे कहना---'पितामह ! यह शान्तनु का वंश एक बार डूब चुका था, आप ही ने इसका पुनःउद्धार किया है। अब आप अपनी बुद्धि से विचारकर ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे आपके सभी पौत्र परस्पर प्रेमपूर्वक जीवन धारण कर सके।' इसी प्रका मंत्री विदुरजी से भी कहना---'सौम्य ! आप युद्ध न होने की ही सलाह दें; क्योंकि आप तो सदा युधिष्ठिर का हित चाहनेवाले हैं।' इसे बाद दुर्योधन से भी बार-बार अनुनय-विनय करके कहना---'तुम कौरवों के नाश का कारण न बनो। पाण्डव अत्यन्त बलवान होने पर भी पहले बड़े-बड़े क्लेश सह चुके हैं, यह बात सभी कौरव जानते हैं। तुम्हारी अनुमति से दुःशासन ने जो द्रौपदी का केश पकड़कर जो तिरस्कार किया, इस अपराध का भी हमनें कोई खयाल नहीं किया। किन्तु अब हम अपना उचित भाग लेंगे। तुम दूसों के धन से अपनी लोभयुक्त बुद्धि हटा लो। ऐसा कने से ही शान्ति होगी और परस्पर प्रेम भी बना रहेगा। हम आन्ति चाहते हैं, तुम हमलोगों को राज्य का एक ही हिस्सा दे दो। सुयोधन ! अविस्थल, वृकस्थल, माकन्दी, वारणावत और पाँचवाँ कोई भी एक गाँव दे दो, जिससे हमलोगों के युद्ध की समाप्ति हो जाय। हम पाँच भाइयों को पाँच गाँव ही दे दो, जिससे शान्ति बनी रहे।' संजय ! मैं शान्ति रखने में ही समर्थ हूँ और युद्ध करने में भी। धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र का भी मुझे पूर्ण ज्ञान है। मैं समयानुसार कोमल भी हो सकता हूँ और कठोर भी।  

उद्योगपर्व---संजय के प्रति भगवान् श्रीकृष्ण के वचन

संजय के प्रति भगवान् श्रीकृष्ण के वचन
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा----संजय ! जिस प्रकार मैंपाण्डवों को विनाश से बचाना चाहता हूँ, उसी प्रकार अनेकों पुत्र से युक्त राजा धृतराष्ट्र के अभ्युदय की शुभ कामना करता हूँ। मेरी एकमात्र इच्छा यही है कि दोनों पक्ष शान्त रहें। राजा युधिष्ठिर को भी शान्ति ही प्रिय है, यह बात सुनता हूँ और पाण्डवों के समक्ष इसे स्वीकार भी करता हूँ।  परन्तु संजय ! शान्ति का होना कठिन ही जान पड़ता है; जब धृतराष्ट्र अपने पुत्रों सहित लोभवश इनका राज्य भी हड़प लेना चाहता है, तो कलह कैसे नहीं बढ़ेगा ? तुम यह जानते हो कि मुझसे या युधिष्ठिर से धर्म का लोप नहीं हो सकता, तो भी उत्साह के साथ अपने धर्म का पालन करनेवाले युधिष्ठिर के धर्मलोप की शंका तुम्हे क्यों हुई ? ये तो पहले से ही शास्त्रिय विधि क अनुसार कुटुम्ब में रह रहे हैं; अपने राज्यभाग को प्राप्त करने का जो ये प्रयास करते  हैं, इसे तुम धर्म का लोप क्यों बता रहे हो ?  इस प्रकार के गार्हस्थ्य जीवन का विधान तो है ही; इसे छोड़कर वनवासी होने का विचार नहीं होना चाहिये। इस प्रकार के गार्हस्थ्य जीवन का विधान तो है ही, इसे छोड़कर वनवासी होने का विचार तो तपस्वियों में होना चाहिये। कोई तो गृहस्थधर्म में रहकर कर्मयोग के द्वारा पारलौकिक सिद्धि का होना मानते हैं, कुछ लोग कर्म को त्यागकर ज्ञान के द्वारा ही सिद्धि का प्रतिपादन करते हैं, परन्तु खाये-पिये बिना किसी की भी भूख नहीं मिट सकती। इसी से ब्रह्मदेवता ज्ञानी के लिये भी गृहस्थों के घर का भिक्षा का विधान है; ज्ञानपूर्वक किया हुआ कर्म अच्छिन्न हो जाता है, बन्धनकारक नहीं होता। संजय ! तुम तो संपूर्ण लोकों का धर्म जानते हो, फिर भी कौरवों के लिये तुम क्यों हठ कर रहे हो ? राजा युधिष्ठिर शास्त्रों का सदा स्वाध्याय करते हैं, अश्वमेध और राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान भी इन्होंने किया है। इसके सिवा धनुष, कवच, हाथी, घोड़े, रथ और शस्त्र आदि से भी भली-भाँति सम्पन्न हैं। पाण्डव स्वधर्मानुसार कर्तव्य का पालन करते रहे और क्षत्रिय युद्धकर्म में प्रवृत होकर यदि दैववश मृत्यु को भी प्राप्त हो जायँ तो इनकी वह मृत्यु उत्तम ही मानी जायगी। यदि तुम सबकुछ छोड़कर शान्ति धारण करने को ही धर्म मानते हो तो यह बताओ कि युद्ध करने से राजाओं के धर्म का ठीक-ठीक पालन होता है या युद्ध छोड़कर भाग जाने से ?  इस विषय में तुम्हारा कथन सुनना चाहता हूँ। पाण्डवों का जो राज्यभाग धर्म के साथ उन्हें प्राप्त होना चाहिये, उसे धृतराष्ट्र सहसा हड़प लेना चाहता है। उसके पुत्र समस्त कौरव भी उसी का साथ दे रहे हैं। कोई भी प्राचीन राजधर्म की ओर दृष्टि नहीं डालता। लुटेरा छिपे रहकर धन चुरा ले जाय अथवा सामने आकर बलपूर्वक डाका डाले---दोनो ही दशा में वह निंदा का पात्र है। संजय ! तुम्ही बताओ, दुर्योधन और उन चोर डाकुओं में क्या अन्तर है ? दुर्योधन तो क्रोध के वशीभूत हो रहा है; उसने जो छल से राज्य का अपहरण किया है, उसे लोभ के कारण धन मानता है और राज्य को हथियाना चाहता है। किन्तु पाण्डवों का राज्य तो धरोधर के रूप में रखा गया था, उसे कौरवलोग कैसे पा सकते हैं ? दुर्योधन ने जिन्हे युद्ध के लिये एकत्रित किया है, वे मूर्ख राजालोग घमंड के कारण मौत के फंदे में आ फँसे हैं। संजय ! भरी सभा में कौरवों ने जो वर्ताव किया था, उस महान् पापकर्म पर भी दृष्टि डालो। द्रौपदी जब सभा में लायी गयी, उस समय यदि बालक से बूढ़े तक सभी कौरव दुःशासन को रोक देते तो मेरा प्रिय कार्य होता। सभा में बहुत से राजा एकत्रित थे, परन्तु दीनतावश किसी से भी उस अन्याय का विरोध नहीं किया जा सका। केवल विदुरजी ने अपना धर्म समझकर मूर्ख दु्योधन को मना किया था। संजय ! वास्तव में धर्म को बिना समझे ही तुम इस सभा में पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर को ही धर्म का उपदेश करना चाहते हो ? द्रौपदी ने उस सभा में जाकर बड़ा दुष्कर कार्य किया, जो कि उसने अपने पतियों को संकट से बचा लिया। उसे वहाँ कितना अपमान सहना पड़ा ! सभा में वह अपने श्वसुरों के सामने खड़ी थी तो भी उसे लक्ष्य करके सूतपुत्र कर्ण ने कहा---'याज्ञसेनी ! तेरे लिये अब दूसरी गति नहीं है, दासी बनकर दुर्योधन के महल में चली जा। तेरे पति तो दावों में हार चुके हैं; अब किसी दूसरे पति को वर ले।' जब पाण्डव वन में जाने के लिये काला मृगचर्म धारण कर रहे थे, उस समय दुःशासन ने यह कितनी कड़वी बात कही---'ये सब के सब नपुंसक अब नष्ट हो गये, चिरकाल के लिये नरक के गर्त में गिर गये।' संजय ! कहाँतक कहें, जूए के समय जितने निंदित वचन कहे गये थे, वे सब तुम्हे ज्ञात हैं; तो भी इस बिगड़े हुए कार्य को बनाने के लिये मैं स्वयं हस्तिनापुर चलना चाहता हूँ। यदि पाण्डवों का स्वार्थ नष्ट किये बिना ही कौरवों के साथ संधि कराने में सफल हो सका तो मैं अपने इस कार्य को बहुत ही पुनीत और अभ्युदयकारी समझूँगा और कौरव भी मौत के फंदे से छूट जायेंगे। कौरव लताओं के समान हैं और पाण्डव वृक्ष की शाखा के समान। इन शाखाओं का सहारा लिये बिना लताएँ बढ़ नहीं सकतीं। पाण्डव धृतराष्ट्र की सेवा के लिये भी तैयार हैं और युद्ध के लिये भी। अब राजा को ज अच्छा लगे, उसे स्वीकार करें। पाण्डव धर्म का आचरण करनेवाले हैं; यद्यपि ये शक्तिशाली योद्धा हैं तो भी सन्धि करने को उद्यत हैं। तुम ये सब बातें धृतराष्ट्र को अच्छी तरह समझा देना।

Monday 11 July 2016

उद्योगपर्व---उपप्ल्व्य में संजय और युधिष्ठिर का संवाद

उपप्ल्व्य में संजय और युधिष्ठिर का संवाद
राजा धृतराष्ट्र के वचन सुनकर संजय पाण्डवों से मिलने के लिये उपप्ल्व्य में गया। वहाँ पहुँचकर उन्होंने पहले कुन्तीनन्दन राजा युधिष्ठिर को प्रणाम किया, इसके बाद प्रसन्न होकर कहा, 'राजन् ! बड़े सौभाग्य की बात है कि आज अपने सहायकों के साथ आप सकुशल दिखायी दे रहे हैं। अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र ने आपकी कुशल पूछी है। भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव तो कुशलपूर्वक हैं न ? सत्यव्रत का आचरण करनेवाली वीरपत्नी राजकुमारी द्रौपदी तो प्रसन्न हैं न ?  राजा युधिष्ठिर ने कहा---संजय ! तुम्हारा स्वागत है, तुमसे मिलकर आज हमें बड़ी प्रसन्नता हुई। हम अपने भाइयों के साथ यहाँ कुशलपूर्वक हैं। हमारे पितामह भीष्मजी की कुशल कहो, क्या उनका हमलोगों पर पूर्ववत् स्नेहभाव है ? अपने पुत्रों सहित राजा धृतराष्ट्र तथा महाराज बाह्लिक तो कुशल से हैं न ? सोमदत्त, भूरिश्रवा, राजा शल्य, पुत्र सहित द्रोणाचार्य और कृपाचार्य---ये प्रधान धनुर्धर भी स्वस्थ हैं न ? राजा युधिष्ठिर ने कहा---संजय ! तुम्हारा स्वागत है, तुमसे मिलकर आज बड़ी प्रसन्नता हुई। हम अपने भाइयों के साथ यहाँ कुशलपूर्वक हैं। हमारे पितामह भीष्मजी की कुशल कहो, क्या उनका हमलोगों पर पूर्ववत् स्नेहभाव है ? अपने पुत्रोंसहित राजा धृतराष्ट्र तथा महाराज बाह्लीक तो कुशल से हैं न ? सोमदत्त, भूरिश्रवा, राजा शल्य, पुत्रसहित द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य---ये प्रधान धनुर्धर भी स्वस्थ हैं न ? भरतवंश की बड़ी-बूढ़ी स्त्रियों, माताओं तथा बहुओं को तो कोई कष्ट नहीं है ? रसोई बनानेवाली स्त्रियाँ, दासियाँ, पुत्र, भानजे, बहिनें और धेवते निष्कपट भाव से रहते हैं न ? राजा दुर्योधन पहले की ही भाँति ब्राह्मणों के साथ यथोचित वर्ताव किया या नहीं ? मैने उन्हें जो वृति दी थी, उसको छीनता तो नहीं है ? क्या कभी सब कौरव इकट्ठे होकर धृतराष्ट्र और दुर्योधन को मुझे राज्यभाग देने के लिये कहते हैं ?  राज्य में लुटेरों के दल को देखकर कभी उन्हें अर्जुन की याद आती है ? क्योंकि अर्जुन एक ही साथ इकसठ बाण चला सकता है। भीमसेन भी जब गदा हाथ में लेता है तो उसे देखकर शत्रुसमूह काँप उठता है। ऐसे पराक्रमी भीम का भी वे कभी स्मरण करते हैं ? महाबली एवं अतुल पराक्रमी नकुल-सहदेव को वे भूल तो नहीं गये हैं ? मंदबुद्धि दुर्योधन आदि जब खोटे विचार से घोषयात्रा के लिये वन में गये और युद्ध में पराजित हो शत्रुओं की कैद में आ पड़े, उस समय भीमसेन और अर्जुन ने ही उनकी रक्षा की थी---यह बात उन्हें याद आती है या नहीं ? संजय ! यदि हमलोग दुर्योधन को सर्वथा पराजित न कर सके तो केवल एक बार उसकी भलाई कर देने से उसको वश में करना कठिन ही जान पड़ता है।संजय बोला---पाण्डुनन्दन ! आपने जो कुछ कहा है, बिलकुल ठीक है। जिनकी कुशल आपने पूछी है, वे सभी कुरुश्रेष्ठ सानंद हैं। दुर्योधन तो शत्रुओं को भी दान करता है, फिर ब्राह्मणों को दी हुई वृति कैसे छीन सकता है ? धृतराष्ट्र अपने पुत्रों को आपसे द्वेष करने की आज्ञा नहीं  देते। वे तो उन्हें द्रोह करते सुनकर मन-ही-मन बहुत संतप्त होते हैं। वे जानते हैं कि 'मित्रद्रोह सब पातकों से भारी पाप है।' युद्ध की चर्चा चलने पर राजा धृतराष्ट्र वीराग्रणी अर्जुन, गदाधारी भीम तथा रणधीर नकुल-सहदेव का सदा ही स्मरण करते हैं। अजातशत्रु ! अब आप ही अपनी बुद्धि से विचार करके कोई ऐसा मार्ग निकालिये जिससे कौरव-पाण्डव तथा कौरववंशियों को सुख मिले। यहाँ जो राजा उपस्थित हैं, उन्हें बुला लीजिये। अपने मंत्रियों और पुत्रों को भी साथ रखिये। फिर आपके चाचा धृतराष्ट्र ने जो संदेश भेजा है उसे सुनिये। युधिष्ठिर ने कहा---संजय ! यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण, सात्यकि तथा राजा विराट मौजूद हैं, पाण्डव और संजय---सब एकत्रित हैं। अब धृतराष्ट्र का संदेश सुनाओ। संजय बोला---राजा धृतराष्ट्र युद्ध नहीं शान्ति चाहते हैं। उन्होंने बड़ी उतावली के साथ रथ तैयार कराकर मुझे यहाँ भेजा है। मैं समझता हूँ, भाई, पुत्र और कुटुम्बीजनों के साथ राा युधिष्ठिर इस बात को पसंद करेंगे। इससे पाण्डवों का हित होगा। कुन्ती के पुत्रों ! आप अपने दिव्य शरीर, नम्रता और सरलता आदि के कारण सब धर्मों एवं उत्तम गुणों से युक्त हैं। उत्तम कुल में आपलोगों का जन्म हुआ है। आप बड़े ही दयालु और दानी हैं। स्वभावतः संकोची, शीलवान् और कर्मों के परिणाम को जाननेवाले हैं। आपका हृदय सत्वगुण से परिपूर्ण है, अतः आपसे किसी खोटे कर्म का होना संभव नहीं है। यदि आपलोगों में कोई दोष होता तो वह प्रकट हो जाता; क्या सफेद वस्त्र में काला दाग छिप सकता है ? जिसके करने में सबका विनाश दिखायी दे, सब प्रकार से पाप का उदय हो और अन्त में नरक का द्वार देखना पड़े, उस युद्ध जैसे कठोर कर्म में कौन समझदार पुरुष प्रवृत हो सकता है ?  वहाँ तो जय और पराजय दोनो समान हैं। भला, कुन्ती के पुत्र अन्य अधम पुरुषों के समान ऐसा कार्य करने के लियेे कैसे तैयार हो गये जो न धर्म का साधक है न अर्थ का। यहाँ भगवान् वासुदेव हैं, सबमें वृद्ध पांचालराज द्रुपद हैं; इन सबको प्रणाम करके मैं प्रसन्न करना चाहता हूँ। हाथ जोड़कर आपलोगों की शरण में आया हूँ; मेरी प्रार्थना पर ध्यान देकर वही कार्य करें, जिससे कौरव और संजयवंश का कल्याण हो। मुझे विश्वास है कि भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन मेरी प्रार्थना ठुकरा नहीं सकते। ऐसा समझकर ही मैं सन्धि के लिये प्रस्ताव करता हूँ। संधि ही शान्ति का सर्वोत्तम उपाय है। युधिष्ठिर ने कहा---संजय ! तुमने ऐसी कौन सी बात सुनी है, जिससे मेरी युद्ध की इच्छा जानकर भयभीत हो रहे हो ? युद्ध करने की अपेक्षा उसे न करना ही अच्छा है। सन्धि का अवसर पाकर भी उससे कौन युद्ध करना चाहेगा ? इस बात को मैं भी समझता हूँ कि बिना युद्ध किये यदि थोड़ा भी लाभ हो तो उसे बहुत मानना चाहिये। संजय ! तुम जानते हो कि हमने वन में कितना क्लेश उठाया है। फिर भी तुम्हारे बात का खयाल करके हम कौरवों का अपराध क्षमा कर सकते हैं। कौरवों ने हमारे साथ जो वर्ताव किया और उस समय उनके साथ हमलोगों का जैसा व्यवहार था, यह भी तुमसे छिपा नहीं है। अब भी सबकुछ वैसा ही हो सकता है। तुम्हारे कथनानुसार हम शान्ति धारण कर लेंगे। किन्तु यह तभी संभव है, जब इन्द्रप्रस्थ ( दिल्ली ) में मेरा ही राज्य रहे और दुर्योधन इस बात को स्वीकार करके वहाँ का राज्य हमें वापस कर दे। संजय बोला---पाण्डुनन्दन ! आपकी प्रत्येक चेष्टा धर्म के अनुसार होती है, यह बात लोक में परसिद्ध है और देखी भी जा रही है। यद्यपि यह जीवन अनित्य है, तथापि इससे महान् सुयश की प्राप्ति हो सकती है---इस बा को सोचकर आप अपनी कीर्ति का नाश न करें।' अजातशत्रो ! यदि कौरव युद्ध किये बिना तुम्हे अपना राज्यभाग न दे सके तो मैं भी अंधक और वृष्णिवंशी राजाओं के भीख माँगकर निर्वाह कर लेना अच्छा समझता हूँ; परन्तु युद्ध करके सारा राज्य पा लेना भी अच्छा नहीं है। मनुष्य का जीवन बहुत थोड़े समय तक रहनेवाला है; वह सदा क्षीण होनेवाला दुःखमय और चंचल है। अतः पाण्डव ! यह नरसंहार तुम्हारे यश के अनुकूल नहीं है; तुम युद्धरूपी पाप में प्रवृत मत होओ। इस जगत् में धन की तृष्णा बंधन में बाँधनेवाली है, उसमें फँसने पर धर्म में बाधा आती है। जो धर्म को अंगीकार करता है, वही ज्ञानी है। भोगों की इच्छा रखनेवाला मनुष्य अर्थसिद्धि से भ्रष्ट हो जाता है। जो ब्रह्मचर्य और धर्माचरण का त्याग करके अधर्म में प्रवृत होता है तथा जो मूर्खता के कारण परलोक पर अविश्वास करता है, वह अज्ञानी मृत्यु के पश्चात् बड़ा कष्ट भोगता है। परलोक में जाने पर भी अपने पहले के किये हुए पुण्य-पापरूपी कर्मों का नाश नहीं होता। पहले तो पाप-पुण्य ही मनुष्य के पीछे चलते हैं, फिर मनुष्य को इनके पीछे चलना पड़ता है। इस शरीर के रहते हुए ही कोई भी सत्कर्म किया जा सकता है, मरने के बाद कुछ नहीं हो सकता। आपने तो परलोक में सुख देनेवाले अनेकों पुण्यकर्म किये हैं, जिनकी सत्पुरुषों ने बड़ी प्रशंसा की है। इतने पर भी यदि आपलोगों को वह युद्धरूपी पापकर्म ही करना है, तब तो चिरराल के लिये आप वन में जाकर रहें---यही अच्छा है। वनवास में दुःख तो होगा, पर है वह धर्म। कुन्तीनन्दन ! आपकी बुद्धि कभी अधर्म में नहीं लगती; आपने क्रोधवश कभी पापकर्म किया हो, ऐसी बात भी नहीं है। फिर बताइये, क्या कारण है जिसे लिये आप अपने विचार के विपरीत कार्य करना चाहते हैं ? युधिष्ठिर ने कहा---संजय ! तुम्हारा यह कहना बिलकुल ठीक है कि सब प्रकार के कर्मों में धर्म ही श्रेष्ठ है। परन्तु मैं जो कार्य करने जा रहा हूँ, यह धर्म है या अधर्म--इसकी पहले खूब जाँच कर लो; फिर मेरी निन्दा करना। कहीं तो अधर्म ही धर्म का चोला पहन लेता है, कहीं पूरा-पूरा धर्म अधर्म के रूप में दिखायी देता है और कहीं धर्म का चोला पहन लेता है, कहीं पूरा पूरा धर्म अधर्म के रूप में दिखायी देता है और कहीं धर्म अपने स्वरूप में ही रहता है। विद्वान लोग अपनी बुद्धि से परीक्षा कर लेते हैं। एक वर्ण के लिये जो धर्म है, वहीं दूसरे के लिये अधर्म है। इस प्रकार यद्यपि धर्म और अधर्म नित्य रहनेवाले हैं, तथापि आपत्तिकाल में इनका अदल-बदल भी होता है। जो धर्म जिसके लिये मुख्य बताया गया है, वह उसके लिेये प्रमाणभूत है। दूसरों के द्वारा उसका व्यवहार तो आपत्तिकाल में ही हो सकता है। आजीविका का साधन सर्वथा नष्ट हो जाने पर जिस वृत्ति का आश्रय लेने से जीवन की रक्षा एवं सत्कर्मों का अनुष्ठान हो सके उसका आश्रय लेना चाहिये। जो आपत्तिकाल न होने पर भी उस समय के धर्म का पालन करता है तथा जो वास्तव में आपत्तिग्रस्त होकर भी तदनुसार जीविका नहीं चलाता---ये दोनो ही निंदा के पात्र हैं। संजय ! इस पृथ्वी पर जो कुछ भी धन है, देवताओं, प्रजापतियों तथा ब्रह्माजी के लोक में भी जो वैभव है, वे सभी मुझे प्राप्त होते हों तो मैं उन्हें अधर्म से लेना नहीं चाहूँगा। जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण हैं; ये समस्त धर्मों के ज्ञाता, कुशल और नीतिवान् हैं। बड़े-बड़े बलवान् राजाओं और भोजवंश का शासन करते हैं। यदि मैं सन्धि का परित्याग अथवा युद्ध करके अपने धर्म से भ्रष्ट हो निन्दा का पात्र बन रहा हूँ, तो ये भगवान् वासुदेव इस विषय में अपने विचार प्रकट करें; क्योंकि इन्हें दोनो पक्षों का हित साधन अभीष्ट है। ये प्रत्येक कर्म का अन्तिम परिणाम जानते हैं, विद्वान हैं; इनसे श्रेष्ठ दूसरा कोई नहीं है। व हमा सबसे बढ़कर प्रिय हैं, मैं इनकी बात कभी नहीं टाल सकता।

Wednesday 6 July 2016

उद्योगपर्व---धृतराष्ट्र और संजय की बातचीत

धृतराष्ट्र और संजय की बातचीत
तदनन्तर धृतराष्ट्र ने संजय को सभा में बुलाकर कहा---'संजय ! लोग कहते हैं कि पाण्डव उपलव्य नामक स्थान में आकर रह रहे हैं। तुम भी वहाँ जाकर उनकी सुध लो। अजातशत्रु युधिष्ठिर से आदरपूर्वक मिलकर कहना---'बड़े आनन्द की बात है कि आपलोग अब अपन स्थान पर आ गये हैं।' उन सब लोगों से हमारी कुशल कहना और उनकी पूछना। वे वनवास के योग्य कदापि नहीं थे, फिर भी वह कष्ट उन्हें भोगना ही पड़ा। इतने पर भी उनका हमलोगों पर क्रोध नहीं है। वास्तव में वे बड़े निष्कपट और सज्जनों का उपकार करनेवाले हैं। संजय ! मैने पाण्डवों को कभी बेईमानी करते नहीं देखा। इन्होंने अपने पराक्रम से लक्ष्मी प्राप्त करके भी सब मेरे अधीन कर दी थी। मैं सदा इनमें दोष ढ़ूँढ़ा करता था; पर कभी कोई भी दोष न पा सका, जिससे इनकी निंदा करूँ। ये समय पड़ने पर धन देकर मित्रों की सहायता करते हैं। प्रवास में भी इनकी मित्रता में कमी नहीं आयी। ये सबका यथोचित आदर-सत्कार करते हैं। दुर्योधन और कर्ण के सिवा इनका कोई भी दूसरा शत्रु नहीं है। सुख और प्रियजनों से बिछुड़े हुए इन पाण्डवों के क्रोध को ये ही दोनो बढ़ाते हैं। मूर्ख दुर्योधन पाण्डवों के जीते जी उनका भाग अपहरण कर लेना सरल समझता  है। जिस युधिष्ठिर के पीछे अर्जुन, श्रीकृष्ण, भीमसेन, सात्यकि, नकुल सहदेव आदि वीर हैं, उनका राज्यभाग युद्ध के पहले ही दे देने में कल्याण है। गाण्डीवधारी अर्जुन अकेले ही रथ में बैठकर सारी पृथ्वी को अपने अधिकार में कर सकता है। इसी प्रकार विजयी और दुर्घर्ष वीर श्रीकृष्ण भी तीनों लोकों के स्वामी हो सकते हैं। भीम के समान गदाधारी और हाथी की सवारी करनेवाला तो कोई है ही नहीं। उसके साथ यदि वैर हुआ तो वह मेरे पुत्रों को जलाकर भष्म कर डालेगा। साक्षात् इन्द्र भी उसे युद्ध में हरा नहीं सकते। माद्रीनन्दन नकुल और सहदेव भी शुद्धचित्त और बलवान् हैं। जैसे दो बाज पक्षियों के समूह को नष्ट करें, उसी प्रकार वे दोनो भाई शत्रुओं को जीवित नहीं छोड़ सकते। पाण्डव पक्ष में जो धृष्टधुम्न नाम का एक योद्धा है, वह बड़े वेग से युद्ध करता है। मत्स्यदेश का राजा विराट भी अपने पुत्रों सहित पाण्डवो का सहायक है; सुना है वह युधिष्ठिर का बड़ा भक्त है। पाण्ड्यदेश का राजा भी बहुत से वीरों के साथ पाण्डवों की सहायता के लिये आया है। सात्यकि तो उनकी अभीष्टसिद्धि में लगा ही हुआ है। "कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर बड़े धर्मात्मा, लज्जाशील और बलवान् हैं। शत्रुभाव तो उन्होंने किसी के प्रति किया ही नहीं। किन्तु दुर्योधन ने उनके साथ भी छल किया है। मुझे तो भय है कहीं वे क्रोध करके मेरे पुत्रों को जलाकर भष्म न कर डालें। मैं राजा युधिष्ठिर के क्रोध से जितना डरता हूँ उतना भय मुझे श्रीकृष्ण, भीम अर्जुन, नकुल और सहदेव से भी नहीं है; क्योंकि युधिष्ठिर बड़े तपस्वी हैं, उन्होंने नियमानुसार ब्रह्मचर्य का पालन किया है। अतः वे अपने मन में जो भी संकल्प करेंगे, वह पूरा होकर ही रहेगा। पाण्डव श्रीकृष्ण से बहुत प्रेम रखते हैं। उन्हें अपने आत्मा के समान मानते हैं। कृषण भी बड़े विद्वान हैं और सदा पाण्डवों के हितसा में लगे रहते हैं। वे यदि सन्धि के लिये कुछ भी कहेंगे तो यधिष्ठिर मान लेंगे, वे उनकी बात नहीं टाल सकते। संजय ! तुम वहाँ मेरी ओर से पाण्डवों और श्रीकृष्ण, सात्यकि विराट एवं द्रौपदी के पाँच पुत्रों की भी कुशल पूछना। फिर राजाओं के मध्य में समयानुसार जो भी उचित हो, बातचीत करना। जिससे भरतवंशियों का हित हो, परस्पर क्रोध या मनमुटाव न बढ़े और युद्ध का कारण भी न उपस्थित होने पावे---ऐसी बात करनी चाहिये।"

उद्योगपर्व---द्रुपद के पुरोहित के साथ भीष्म और धृतराष्ट्र की बातचीत

द्रुपद के पुरोहित के साथ भीष्म और धृतराष्ट्र की बातचीत
तदनन्तर वह द्रुपद का पुरोहित धृतराष्ट्र के पास पहुँचा। धृतराष्ट्र, भीष्म और विदुर ने उसका बड़ा सत्कार किया। पुरोहित ने पहले अपने पक्ष का कुशल समाचार कह सुनाया, पीछे उनकी कुशल पूछी। इसके बाद उसने समस्त सेनापतियों के बीच इस प्रकार कहा---'यह बात प्रसिद्ध है कि धृतराष्ट्र और पाण्डु दोनो एक ही पिता के पुत्र हैं; अतः पिता के धन पर दोनो का समान अधिकार है। परन्तु धृतराष्ट्र के पुत्रों को तो उनक पैतृक धन प्राप्त हुआ और पाण्डु के पुत्रों को नहीं मिला---इसका क्या कारण है ? कौरवों ने अनेकों बार कई उपाय करके पाण्डवों के प्राण लेने का उद्योग किया; परन्तु उनकी आयु शेष थी, इसलिये उन्हें यमलोक न भेज सके। इतने कष्ट सहने बाद भी महात्मा पाण्डवों ने अपने बल से राज्य बढ़ाया; किन्तु क्षुद्र विचार रखनेवालों धृतराष्ट्र पुत्रों ने शकुनि के साथ मिलकर छल से वह सारा राज्य छीन लिया। राजा धृतराष्ट्र ने भी इस कर्म का अनुमोदन किया और पाण्डव तेरह वर्ष तक वन में रहने को विवश किये गये। इन सब अपराधों को भूलकर वे अब भी कौरवों के साथ समझौता ही करना चाहते हैं। अतः पाण्डवों और दुर्योधन के वर्ताव पर ध्यान देकर मित्र तथा हितैषियों का यह कर्तव्य है कि वे दुर्योधन को समझावें। पाण्डव वीर हैं तो भी वे कौरवों के साथ युद्ध करना नहीं चाहते।उनकी तो यही इच्छा है कि 'संग्राम में नरसंहार किये बिना ही हमें हमारा भाग मिल जाय।' दुर्योधन जिस लाभ को सामने रखकर युद्ध करना चाहता है, वह सिद्ध नहीं हो सकता; क्योंकि पाण्डव कम बलवान् नहीं हैं। युधिष्ठिर के पास भी सात अक्षौहिणी सेना एकत्रित हो गयी है और वह युद्ध के लिये उत्सुक होकर उनकी आज्ञा का बाट जोहती है। इसके सिवा पुरुषसिंह सात्यकि, भीमसेन, नकुल, सहदेव---ये अकेले ही हजारों सेना के बराबर है। एक ओर से ग्यारह अक्षौहिणी सेना आवे और दूसरी ओर अकेला अर्जुन हो तो अर्जुन ही उससे बढ़कर सिद्ध होगा। ऐसे ही महाबाहु श्रीकृष्ण भी हैं। पाण्डवों की सेना की प्रबलता, अर्जुन का पराक्रम और श्रीकृष्ण की बुद्धिमत्ता देखकर भी कौन मनुष्य उने युद्ध करने को तैयार होता ? अतः धर्म और समय का विचार करके आपलोग पाण्डवों को जो देने योग्य भाग्य है, उसे शीघ्र प्रदान करें। अवसर आपके हाथ से चला न जाय, इसका ध्यान रखना चाहिये।' पुरोहित के वचन सुनकर महाबुद्धिमान भीष्मजी ने उसकी बड़ी प्रशंसा की और यह समयोचित वचन कहा---'ब्रह्मन् ! बड़े सौभाग्य की बात है कि सभी पाण्डव भगवान् श्रीकृष्ण के साथ कुशलपूर्वक हैं। यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि उन्हें राजाओं की सहायता प्राप्त है; साथ ही यह भी आनन्द का विषय है कि वे धर्म में तत्पर हैं। वे पाँचों भाई पाण्डव युद्ध का विचार त्यागकर अपने बन्धुओं से सन्धि करना चाहते हैं, यह तो और भी आनन्द की बात है। वास्तव में किरीटधारी अर्जुन बलवान्, अस्त्रविद्या में निपुण और महारथी है; भला, युद्ध में उसका मुकाबला कौन कर सकता है ? साक्षात् इन्द्र में भी इतनी ताकत नहीं है; फिर दूसरे धनुर्धारियों की तो बात ही क्या है ?  मेरा तो विश्वास है कि वह तीनों लोकों में एकमात्र समर्थ वीर है।' जब भीष्मजी इस प्रकार कह रहे थे, उस समय कर्ण क्रोध में भर गया और धृष्टतापूर्वक उनी बात काटकर कहने लगा---'ब्रह्मन् ! अर्जुन के पराक्रम की बात किसी से छिपी नहीं है। फिर बारम्बा उसे कहने से क्या लाभ ? पहले की बात है। शकुनि ने दुर्योधन के लिये जूए में युधिष्ठिर को हराया था, उस समय वे एक शर्त मानकर वन में गये थे। उस शर्त को पूरा किे बिना ही वे मत्स्य तथा पांचाल देशवालों के भरोसे मूर्ख की भाँति पैतृक सम्पत्ति लेना चाहते हैं।परन्तु दुर्योधन उनके डर से राज्य का चौथाई भाग भी नहीं दे सकते। यदि वे अपने बाप-दादों का राज्य लेना चाहते हैं तो प्रतिज्ञा के अनुसार नियत समय तक पुनः वन में रहें। यदि धर्म छोड़कर लड़ने पर ही उतारू हैं तो इन कौरव वीरों के पास आने पर वे मेरे वचनों को भी भली-भाँति याद करेंगे।' भीष्मजी बोले---राधापुत्र ! मुँह से कहने की क्या आवश्यकता है; एक बार अर्जुन के उस पराक्रम को तो याद कर लो, जब विराटनगर के संग्राम में उसने अकेले ही छः महारथियों को जीत लिया था। तुम्हारा पराक्रम तो उसी समय देखा गया, जबकि अनेकों बार उसके सामने जाकर तुम्हें परास्त होना पड़ा। यदि हमलोग इस ब्राह्मण के कथनानुसार कार्य नहीं करेंगे, तो अवश्य ही युद्ध में पाण्डवों के हाथ से हमें धूल फाँकनी पड़ेगी। भीष्म के ये वचन सुनकर धृतराष्ट्र ने उनका सम्मान किया और उन्हें प्रसन्न करते हुए कर्ण को डाँटकर कहा---'भीष्मजी ने जो कहा है इसी में हमारा और पाण्डवों का हित है। इसी से जगत् का भी कल्याण है। मैं सबके साथ सलाह करके संजय को पाण्डवों के पास भेजूँगा। अब आप शीघ्र ही लौट जाइये।' ऐसा कहकर धृतराष्ट्र ने पुरोहित का सत्कार किया और उन्हें पाण्डवों के पास भेज दिया।

Saturday 2 July 2016

उद्योगपर्व---शल्य की विदाई तथा कौरव और पाण्डवों के सैन्यसंग्रह का वर्णन

शल्य की विदाई तथा कौरव और पाण्डवों के सैन्यसंग्रह का वर्णन
महाराज शल्य कहते हैं---युधिष्ठिर ! इस प्रकार इन्द्र को अपनी भार्या के सहित महाराज शल्य कहते हैं---युधिष्ठिर ! इस प्रकार इन्द्र को अपनी भार्या के सहित कष्ट भोगना पड़ा था और अपने शत्रुओं के वध करने की इच्छा से अज्ञातवास भी करना पड़ा था। अतः तुम्हे द्रौपदी और अपने भाइयों सहित वन में रहकर कष्ट भोगने पड़े हैं तो उने लिये तुम रोष न करो। जैसे इन्द्र ने वृत्रासुर को मारकर राज्य प्राप्त किया था, उसी प्रकार तुम्हें भी अपना राज्य मिलेगा। तथा अगस्त्यजी के शाप से जैसे नहुष का पतन हुआ था, वैसे ही तुम्हारे शत्रु कर्ण और दुर्योधनादि का भी नाश हो जायगा। राजा शल्य के इस प्रकार ढ़ाढ़स बँधाने पर धर्मत्माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर ने उनका विधिवत् सत्कार किया। इसके पश्चात् मद्रराज उनसे अनुमति लेकर अपनी सेना के सहित दुर्योधन के पास चले गये। इसके पश्चात् यादव महारथी सात्यकि बड़ी भारी चतुरंगिणी सेना लेकर राजा युधिष्ठिर के पास आये। उनकी सेना को भिन्न-भिन्न देशों से आये हुए वीर सुशोभित कर रहे थे। फरसा, शूर, तोमर, मुद्गर, परिघ, यष्टि ( लाठी ), पाश, तलवार, धनुष और तरह-तरह के चमचमाते हुए बाणों से उनकी सेना एकदम दीप उठी थी। यह सेना राजा युधिष्ठिर की छावनी में पहुँची। इसी तरह एक अक्षौहिणी सेना लेकर चेदिराज धृष्टकेतु आया, एक अक्षौहिणी सेना के साथ जरासंध का पुत्र मगधराज जय्सेन आया और समुद्रतीरवर्ती तरह-तरह के योद्धाओं के साथ पाण्ड्यराज भी युधिष्ठिर की सेवा में उपस्थित हुआ। इस प्रकार भिन्न-भिन्न देशों की सेना का समागम होने से पाण्डव पक्ष का सैन्य समुदाय बड़ा ही दरशनीय, भव्य और शक्तिसम्पन्न जान पड़ता था। महाराज द्रुपद की सेना भी उनके महारथी पुत्रों और देश-देश से आये हुए शूरवीर के कारण बड़ी भली जान पड़ती थी। मत्स्यदेशीय राजा विराट की सेना में अनेकों पर्वतीय राजा सम्मिलित थे। वह भी पाण्डवों के शिविर में पहुँच गयी। इस प्रकार जहाँ-तहाँ से आकर सात अक्षौहिणी सेना महात्मा पाण्डवों के पक्ष में एकत्रित हो गयी। कौरवो के साथ युद्ध करने के लिये उत्सुक इस विशाल वाहिणी को देखकर पाण्डव बड़े प्रसन्न हुए। दूसरी ओर राजा भगदत्त ने एक अक्षौहिणी सेना देकर कौरवों का हर्ष बढ़ाया। उनकी सेना में चीन और किरात देशों के वीर थे। इसी प्रार दुर्योधन के पक्ष में और भी कई राजा एक-एक अक्षौहिणी सेना लेकर आये। हृदीक के पुत्र कृतवर्मा भोज, अंधक और कुकुरवंशीय यादव वीरों के सहित एक अक्षौहिणी सेना लेकर दुर्योधन के पास उपस्थित हुए। सिन्धुसौवीर देश के जयद्रथ आदि राजाओं के साथ भी कई अक्षौहिणी सेना आयी। काम्बोजनरेश सुदक्षिण शक और यवन वीरों के सहित आया। उसके साथ भी एक अक्षौहिणी सेना थी। इसी प्रकार महिष्मतिपुरी का राजा नील दक्षिण देश के महाबली वीरों के साथ आया। अवन्ति देश के राजा विन्द और अनुविन्द भी एक एक अक्षौहिणी सेना लेकर दुर्योधन की सेवा में उपस्थित हुए। केकय देश के राजा पाँच सहोदर भाई थे। उन्होंने भी एक अक्षौहिणी सेना के साथ उपस्थित होकर कुरुराज को प्रसन्न किया। इसके सिवा जहाँ-तहाँ से आये हुए अन्य राजाओं की तीन अक्षौहिणी सेना और भी हो गयी। इस प्रकार दुर्योधन के पक्ष में कुल ग्यारह अक्षौहिणी सेना एकत्रित हुई। वह तरह-तरह की ध्वजाओं से सुशोभित और पाण्डवों से भिड़ने के लिये उत्सुक थी। पंचनद, कुरुजांगल, रोहितवन, मारवाड़, अहिछत्र, कालकूट, गंगातट, वारण, वटधान और यमुनातट का पर्वतीय प्रदेश---यह सारा धन-धान्यपूर्ण विस्तृत क्षेत्र कौरवों की सेना से भरा हुआ था। महाराज द्रुपद ने अपने जिस पुरोहित को दूत बनाकर भेजा था, उसने इस प्रकार एकत्रित हुई वह कौरव-सेना देखी।

Friday 1 July 2016

उद्योगपर्व--इन्द्र की बतायी हुई युक्ति से नहुष का पतन तथा इन्द्र का पुनः देवराज पर प्रतिष्ठित होना-

इन्द्र की बतायी हुई युक्ति से नहुष का पतन तथा इन्द्र का पुनः देवराज पर प्रतिष्ठित होना
युधिष्ठिर !  इन्द्र के चले जाने से इन्द्राणी पर फिर शोक के बादल मंडराने लगे। वह अत्यन्त दुःखी होकर 'हा इन्द्र ! ऐसा कहकर विलाप करने लगी और कहने लगी, 'यदि मैने दान किया हो, हवन किया हो और गुरुजनों को अपनी सेवा से संतुष्ट रखा हो तथा मुझमें सत्य हो तो मेरा पातिव्रत्य अविचल रहे, मैं कभी किसी अन्य पुरुष की ओर न देखूँ। मैं उत्तरायण की अधिष्ठात्री रात्रिदेवी को प्रणाम करती हूँ। वे मेरा मनोरथ सफल करें।' फिर उसे एकाग्रचित्त होकर रात्रिदेवी उपश्रुति की उपासना की और यह प्रार्थना की कि 'जहाँ पर देवराज हों, वह स्थान मुझे दिखाइये।' इन्द्राणी की यह प्रार्थना सुनकर उपश्रुति देवी मूर्तिमति होकर प्रकट हो गयीं। उन्हें देखकर इन्द्राणी को बड़ी प्रसन्नता हुई और उसने उनका पूजन करके कहा, 'देवी ! आप कौन हैं ? आपका परिचय पाने के लिये मुझे बड़ी उत्कण्ठा है।' उपश्रुति ने कहा, 'देवी ! मैं उपश्रुति हूँ। तुम्हारे सत्य के प्रभाव से ही मैं तुम्हे दर्शन देने के लिये आयी हूँ। तुम पतिव्रता और यम-नियम से मुक्त हो, मं तुम्हे देवराज इन्द्र के पास ले चलूँगी। तुम जल्दी से मेरे पीछे-पीछे चली आओ, तुम्हे देवराज के दर्शन हो जायेंगे।' फिर उपश्रुति के चलने पर इन्द्राणी उने पीछे हो ली तथा देवताओं के वन, अनेकों पर्वत तथा हिमालय को लाँघकर एक दिव्य सरोवर पर पहुँची। उस सरोवर मे एक अति सुन्दर विशाल कमलिनी थी। उसे एक ऊँची नालवाले गौरवर्ण महाकमल ने घेर रखा था। उपश्रुति ने उस कमल के नाल को फाड़कर उसमें इन्द्राणी के सहित प्रवेश किया और वहाँ एक तन्तु में इन्द्र को छिपे हुए पाया। तब इन्द्राणी ने पूर्वकर्मों का उल्लेख करते हुए इन्द्र की स्तुति की। इसपर इन्द्र ने कहा, 'देवी ! तुम यहाँ कैसे आयी हो और तुम्हे मेरा पता कैसे लगा ?' तब इन्द्राणी ने उन्हें नहुष की बातें सुनायी और अपने साथ चलकर उसका नाश करने की प्रार्थना की।' इन्द्राणी के इस प्रकार कहने पर इन्द्र ने कहा, 'देवी ! इस समय नहुष का बल बढ़ा हुआ है, ऋषियों ने हव्य कव्य देकर उसे बहुत बढ़ा दिया है। इसलिये यह पराक्रम करने का समय नहीं है। मैं तुम्हे एक यु्क्ति बताता हूँ, इसके अनुसार काम करो। तुम एकांत में जाकर नहुष से कहो कि 'तुम ऋषियों से अपनी पालकी उठवाकर मेरे पास आओ तो मैं प्रसन्न होकर तुम्हारे अधीन हो जाऊँगी।"' देवराज के ऐसा कहने पर शची 'जो आज्ञा' ऐसा कहकर नहुष के पास गयी। उसे देखकर नहुष ने मुस्कराकर कहा, 'कल्याणी ! तुम खूब आयीं। कहो, मैं तुम्हारी क्या सेवा करूँ ? तुम विश्वास करो, मैं सत्य की शपथ करके कहता हूँ कि मैं तुम्हारी बात अवश्य मानूँगा।' इन्द्राणी ने कहा, 'जगत्पते ! मैने आपसे जो अवधि माँगी है, मैं उसके बीतने के प्रतीक्षा में हूँ। परन्तु मेरे मन में एक बात है, आप उसपर विचार कर लें। यदि आप मेरी यह प्रेमभरी बात पूरी कर देंगे तो मैं अवश्य आपके अधीन हो जाऊँगी। राजन् ! मेरी इच्छा है कि ऋषिलोग आपस में मिलकर आपको पालकी में बैठाकर मेरे पास लावें।' नहुष ने कहा---'सुन्दरी ! तुमने तो मेरे लिये यह बड़ी ही अनूठी सवारी बतायी है, ऐेसे वाहन पर तो कोई नहीं चढ़ा होगा। यह मुझे बहुत पसंद आया है। मुझे तो तुम अपने अधीन ही समझो। अब सप्तर्षि और ब्रह्मर्षि मेरी पालकी लेकर चलेंगे।' ऐसा कहकर राजा नहुष ने इन्द्राणी को विदा कर दिया और अत्यन्त कामासक्त होने के कारण ऋषियों से पालकी उठवाने लगा। इधर शची ने बृहस्पति के पास जाकर कहा, 'नहुष ने मुझे जो अवधि दी थी वह थोड़ी ही शेष रह गयी है। अब आप शीघ्र ही शक्र की खोज कराइये। मैं आपकी भक्त हूँ, आप मेरे ऊपर कृपा करें।' तब बृहस्पतिजी ने कहा, 'ठीक है, तुम दुष्टचित्त नहुष से किसी प्रकार भय मत मानो। वह नराधम महर्षियों से अपनी पालकी उठवाता है ! इसे धर्म का कुछ भी ज्ञान नहीं है ! इसलिये अब इसे गया ही समझो। ह बहुत दिन इस स्थान में नहीं टिक सकता। तुम तनिक भी मत डरो, भगवान् तुम्हारा मंगल करेंगे।' इसके पश्चात् महा तेजस्वी बृहस्पतिजी ने अग्नि प्रज्जवलित करके शास्त्रानुसार उत्तम हवि से हवन किया और अग्निदेव से इन्द्र की खोज करने के लिये कहा। उनकी आज्ञा पाकर अग्निदेव ने ताल-तलैया, सरोवर और समुद्र में इन्द्र की खोज की। ढ़ूँढ़ते-ढ़ूँढ़ते वे उस सरोवर पर पहुँच गये, जहाँ इन्द्र छिपे हुए थे। वहाँ उन्हें देवराज एक कमल नाल के तंतु में छिपे दिखायी दिये। तब उन्होंने बृहस्पतिदेव को सूचना दी कि इन्द्र अणुमात्र रूप धारण करकें एक कमलनाल के तंतु में छिपे हुए हैं। यह सुनकर बृहस्पतिजी देवर्षियों और गन्धर्वों के सहित उस सरोवर के तट पर आये और इन्द्र के प्राचीन कर्मों का उल्लेख करते हुए उनकी स्तुति करने लगे। इससे धीरे-धीरे इन्द्र का तेज बढ़ने लगा और वे अपना पूर्वरूप धारण करके शक्तिसम्पन्न हो गये। उन्होंने बृहस्पतिजी से कहा, 'कहिये, अब आपका कौन कार्य शेष है ? महादैत्य विश्वरूप तो मारा ही गया और विशालकाय वृत्रासुर का भी अन्त हो गया।' बृहस्पितिजी ने कहा, 'देवराज ! नहुष नाम का एक मानव राजा देवता और ऋषियों के तेज से बढ़कर उनका अधिपति हो गया है। वह हमें बहुत ही तंग करता है। तुम उसका नाश करो।' राजन् ! जिस समय बृहस्पतिजी इन्द्र से ऐसा कह रहे थे, उसी समय वहाँ कुबेर, यम, चन्द्रमा और वरुण भी आ गये और सब देवता देवराज इन्द्र से मिलकर नहुष के नाश का उपाय सोचने लगे। इतने में ही वहाँ परम तेजस्वी अगस्त्यजी दिखायी दिये। उन्होंने इन्द्र का अभिनन्दन करके कहा, 'बड़ी प्रसन्नता की बात है कि विश्वरूप और वृत्रासुर का वध हो जाने से आपका अभ्युदय हो रहा है। आज नहुष भी देवाज पद से भ्रष्ट हो गया। इससे भी मुझे बड़ी प्रसन्नता है।' तब इन्द्र ने अगस्त्य मुनि का स्वागत-सत्कार किया और जब वे आसन पर विराजमान हो गये तो उनसे पूछा, 'भगवन् ! मैं यह जानना चाहता हूँ कि पापबुद्धि नहुष का पतन किस प्रकार हुआ ? अगस्त्यजी ने कहा, देवराज ! दुष्टचित्त नहुष जिस प्रकार स्वर्ग से गिरा है, वह प्रसंग मैं सुनाता हूँ; सुनिये। महाभाग देवर्षि और ब्रह्मर्षि पापात्मा नहुष की पालकी उठाये चल रहे थे। उस समय ऋषियों के साथ उसका विवाद होने लगा और अधर्म बुद्धि बिगड़ जाने के कारण उसने मेरे मस्तक पर लात मारी। इससे उसकी तेज और कान्ति नष्ट हो गयी। तब मैने उससे कहा, 'राजन् ! तुम प्राचीन महर्षियों के चलाये और आचरण किये हुए कर्म पर दोषारोपण करते हो, तुमने ब्रह्मा के समान तेजस्वी ऋषियों से अपनी पालकी उठवायी है और मेरे सिर पर लात मारी है; इसलिये तुम पुण्यहीन होकर पृथ्वी पर गिरो।' अब तुम दस हजार वर्षों तक अजगर का रूप धारण करे भटकोगे और इस अवधि के समाप्त होने पर फिर स्वर्ग प्राप्त करोगे।' इस प्रकार मेेरे शाप से वह दुष्ट इन्द्रपद से च्युत हो गया है, अब आप स्वर्गलो में चलकर सब लोकों का पालन कीजिये।' तब देवराज इन्द्र ऐरावत हाथी पर चढ़कर अग्निदेव, बृहस्पिति, यम, वरुण, कुबेर, समस्त देवगण तथा गन्धर्व और अप्सराओं के सहित देवलोक को चले गये। वहाँ इन्द्राणी से मिलकर वे अत्यन्त आनन्दपूर्वक सब लोकों का पालन करने लगे। इसी समय वहाँ भगवान् अंगिरा पधारे। उन्होंने अथर्ववेद के मंत्रों से देवराज का पूजन किया। इससे इन्द्र बहुत प्रसन्न हुए और उन्हें यह वर दिया कि 'आपने अथर्ववेद का गान किया है, इसलिये इस वेद में आप अथर्वांगिरा नाम से विख्यात होंगे और यज्ञ का भाग भी प्राप्त करेंगे।' इस प्रकार अथर्वांगिरा ऋषि का सत्कार कर उन्हें इन्द्र ने विदा किया। फिर वे समस्त देवता और तपोधन ऋषियों का सत्कार कर धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करने लगे।