Friday 27 November 2015

वनपर्व---तीन गुणों का स्वरूप तथा ब्रह्म साक्षात्कार के उपाय

तीन गुणों का स्वरूप तथा ब्रह्म साक्षात्कार के उपाय
इसके बाद कौशिक ने धर्मव्याध से कहा, 'अब मैं सत्व, रज, तम---इन तीनों गुणों का स्वरूप जानना चाहता हूँ। धर्मव्याध बोला---तीनों गुणों में जो तमोगुण है, वह मोह उपजानेवाला है; रजोगुण कर्मों में प्रवृत करनेवाला है। परन्तु सत्वगुण विशेष ज्ञान का प्रकाश फैलानेवाला है, इसलिये वह सबसे उत्तम माना गया है। जिसमें अज्ञान अधिक है, जो मोहग्रस्त और अचेत होकर दि रात नींद लेता है, जिसकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, जो अविवेकी, क्रोधी और आलसी है---ऐसे मनुष्य को तमोगुणी समझना चाहिये। जो प्रवृति की ही बात करनेवाला और विचारशील है, दूसरों के दोष नहीं देखता, सदा कोई-न-कोई काम करता रहता है, जिसमें विनय का अभाव और अभिमान की अधिकता है, उसको रजोगुणी समझो। जिसके भीतर प्रकाश ( ज्ञान ) अधिक है, जो धीर और निष्क्रिय है, दूसरों के दोष न देखनेवाला और जितेन्द्रिय है तथा जिसने क्रोध को त्याग दिया है, वह सात्विक है। मनुष्य को चाहिये कि हल्का भोजन करे और अन्तःकरण को शुद्ध रखे। रात के पहले और पिछले पहर में सदा अपना मन आत्मचिन्तन में लगावे। इस प्रकार जो सदा अपने हृदय में आत्माक्षात्कार का अभ्यास करता है, वह निराकार आत्मा का बोध करके मुक्त हो जाता है। सब तरह के उपायों से क्रोध और लोभ की वृतियों को दबाना चाहिये। संसार में यही तप हैऔर यही भवसागर से पार जानेवाला सेतु है। तप को क्रोध से, धर्म को द्वेष से, विद्या को मान-अपमान से और अपने को प्रमाद से बचाना चाहिये। क्रूरता का अभाव (दया) सबसे बड़ा धर्म है, क्षमा सबसे प्रधान बल है, सत्य ही सबसे उत्तम व्रत है और आत्मा का ज्ञान ही सबसे उत्तम ज्ञान है। सत्य बोलना सदा कल्याणकारी है, सत्य में ही ज्ञान की स्थिति है। जिससे प्राणियों का अत्यन्त कल्याण हो, वही सबसे बढ़कर सत्य माना गया है। जिसके कर्म कामनाओं से बँधे हुए नहीं होते, जिसने अपना सबकुछ त्याग की अग्नि में हवन कर दिया है, वही बुद्धिमान है और वही त्यागी है। कुछ भी संग्रह न रखना, सभी दशाओं में संतुष्ट रहना, कामना और लोलुपता का त्याग देना---यही सबसे उत्तम ज्ञान है और यही आत्मज्ञान का साधन है। सब प्रकार के संग्रह का त्याग कर परलोक और इहलोक के भोगों की ओर से सुदृढ़ वैराग्य धारण कर बुद्धि के द्वारा मन और इन्द्रियों का संयम करे। जो मनुष्य सुख और दुःख दोनो की इच्छा त्याग देता है, वही ब्रह्म को प्राप्त होता है।

वनपर्व--इन्द्रियों के असंयम से हानि और संयम से लाभ-

इन्द्रियों के असंयम से हानि और संयम से लाभ
धर्मव्याध ने आगे कहा---इन्द्रियों द्वारा किसी-किसी विषय का ज्ञान प्राप्त करने के लिये सबसे पहले मनुष्यों का मन प्रवृत होता है। उसको जान लेने पर मन का उसके प्रति राग या द्वेष हो जाता है। जिसमें राग होता है उसके लिये मनुष्य प्रयत्न करता है, उसे पाने के लिये फिर बड़े-बड़े कार्यों का आरंभ करता है। और प्राप्त होने पर अपने अभीष्ट विषयों का बारम्बार सेवन करता है। अधिक सेवन से उसमें राग उत्पन्न होता है, उसके निमित्त से दूसरे के साथ द्वेष हो जाता है; फिर लोभ और मोह बढ़ते हैं। इस प्रकार लोभ से आक्रान्त और राग द्वेष से पीड़ित मनुष्य की बुद्धि धर्म में नहीं लगती। अगर वह धर्म करता भी है तो कोरा बहानामात्र होता है, उसकी ओट में स्वार्थ छिपा रहता है। ब्याज से धर्माचरण करनेवाला मनुष्य वास्तव में अर्थ चाहता है और धर्म के ब्याज से जब अर्थ की सिद्धि होने लगती है, तो वह उसी में रम जाता है; फिर उस धन से उसके हृदय में पाप करने की इच्छा जाग्रत् होती है। जब उसके मित्र और विद्वान् पुरुष उसे उस कर्म से रोकते हैं, तो उसके समर्थन में वह अशास्त्रीय उत्तर देते हुए वेदप्रतिपादित बताता है। रागरूपि दोष के कारण उसके द्वारा तीन प्रकार के अधर्म होने लगते हैं---1. वह मन से पाप का चिन्तन करता है। 2. वाणी से पाप की ही बात बोलता है। 3. क्रिया द्वारा भी पाप का ही आचरण करता है। अधर्म में लग जाने पर उसके अच्छे गुण नष्ट हो जाते हैं। अपने जैसे स्वभाववाले पापियों से उसकी मित्रता बढ़ती है। उस पाप से इस लोक में तो दुःख होता ही है, परलक में भी उसे बड़ी दुर्गति भोगनी पड़ती है। इस प्रकार मनुष्य कैसे पापात्मा होता है, यह बात बतायी गयी। अब धर्म की प्राप्ति कैसे होती है इसको सुनो। किसमें सुख है और किसमें दुःख---इसके विवेचन में जो कुशल है, वह अपनी तीक्ष्णबुद्धि से विषय संबंधी दोषों को पहले ही समझ लेता है। इससे वह सात्विक व्यक्तियों का संग करने लगता है। सतसंग से उसकी बुद्धि धर्म में प्रवृत हो जाती है। पंचभूतों से बना हुआ चराचर जगत् ब्रह्मस्वरूप है। ब्रह्म से उत्कृष्ट कोई पद नहीं है। पाँच भूत ये हैं---आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध---ये क्रमशः इनके विशेष गुण हैं। पाँच भूतों के अतिरिक्त छठा तत्व है चेतना, इसी को मन कहते हैं। सातवाँ तत्व है बुद्धि और आठवाँ है अहंकार। इनके सिवा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, जीवात्मा और सत्व, रज, तम---सब मिलकर सत्तरह तत्वों का समूह अव्यक्त कहलाता है। पाँच ज्ञानेन्द्रियों तथा मन और बुद्धि के जो व्यक्त और अव्यक्त विषय हैं, उनको सम्मिलित करने से यह समूह चौबीस तत्वों का माना जाता है। पृथ्वी के पाँच गुण हैं---शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध। इनमें गन्ध को छोड़कर शेष चार गुण जल के भी हैं। तेज के तीन गुण हैं---शब्द, स्पर्श और रूप। वायु के शब्द और स्पर्श---दो ही गुण हैं और आकाश का शब्द ही एक गुण है। ये पाँच भूत एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकते, एकीभाव को प्राप्त होकर ही स्थूल-रूप में प्रकाशित होते हैं। जिस समय चराचर प्राणी तीव्र संकल्प के द्वारा अन्य देह की भावना करते हैं, उस समय काल के अधीन हो दूसरे शरीर में प्रवेश करते हैं। पूर्व देह के विस्मरण को ही उनकी मृत्यु कहते हैं। इस प्रकार क्रमशः उनका अविर्भाव और तिरोभाव होता रहता है। देह के प्रत्येक अंग में जो एक आदि धातु दिखाई देते हैं, ये पंचभूतों के ही परिणाम हैं। इनसे सारा चराचर जगत् व्याप्त है। बाह्य इन्द्रियों से जिसका संसर्ग होता है, वह व्यक्त है; किन्तु जो विषय इनद्रियग्राह्य नहीं है, उसे अव्यक्त समझना चाहिये। अपने-अपने विषयों का अतिक्रमण न करके शब्दादि विषयों को ग्रहण करनेवाली इन इन्द्रियों को जब आत्मा अपने वश में करता है, उस समय मानो वह तपस्या करता है---इन्द्रिय-निग्रह द्वारा आत्मतत्व के साक्षात्कार का प्रयत्न करता है। इससे आत्मदृष्टि प्राप्त हो जाने के कारण वह संपूर्ण लोकों में अपने को व्याप्त और अपने में संपूर्ण लोकों को स्थित देखता है। इस प्रकार परात्पर ब्रह्म को जाननेवाला ज्ञानी पुरुष जबतक प्रारब्ध शेष रहता है, तभी तक संपूर्ण भूतों को देखता है। सब अवस्थाओं में सब भूतों को आत्मरूप से देखनेवाले उस ब्रह्मभूत ज्ञानी का कभी भी अशुभकर्मों से संयोग नहीं होता। जो मायामय क्लेशों को लाँघ जाता है, उसको लोकवृति के प्रकाशक ज्ञानमार्ग के द्वारा परम पुरुषार्थ की प्राप्ति होती है। तप होता है,इन्द्रियों का संयम करने से। मन सहित इन्द्रियों का रोकना ही योग का अनुष्ठान है। यही संपूर्ण तपस्या का मूल है। इन्द्रियों को अधीन न रखना ही नरक का हेतु है।इन्द्रियों का साथ देने से सभी तरह के दोष संघटित होते हैं और उन्हीं को वश कर लेने से सिद्धि प्राप्ति होती है। अपने शरीर में विद्यमान मन सहित छहों इन्द्रियों पर जो अधिकार प्राप्त कर लेता है, वह जितेन्द्रिय पापों मेही नहीं लगता, फिर अनर्थों से उसका संयोग नहीं होता। यह शरीर ही रथ है, आत्मा सारथि, इन्द्रिय घोड़े हैं। जैसे कुशल सारथी घोड़ों को अपने वश में रखकर यात्रा करता है, उसी प्रकार सावधान लोग घोड़ों को अपनेवश में रखकर सुखपूर्वक यात्रा करता है।

वनपर्व---जीवात्मा की नित्यता और पुण्य-पाप कर्मों के शुभाशुभ परिणाम

जीवात्मा की नित्यता और पुण्य-पाप कर्मों के शुभाशुभ परिणाम
कौशिक ब्राह्मण ने प्रश्न किया-- हे कर्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ ! जीव सनातन कैसे हैं, इस को मैं ठीक-ठीक समझना चाहता हूँ। धर्मव्याध ने कहा---देह का नाश होने पर जीव का नाश नहीं होता। मूर्ख मनुष्य जो कहते हैं कि जीव मरता है, सो उनका यह कथन मिथ्या है। जीव तो इस शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में चला जाता है। इस जगत् में मनुष्य के किये हुए कर्मों को दूसरा कोई नहीं भोगता; उसने जो कुछ कर्म किया है, उसे वह स्वयं ही भोगेगा। किेये हुए कर्म का कभी नाश नहीं होता। पवित्रात्मा मनुष्य पुण्यकर्मों का आचरण करते हैं और नीच पुरुष पापकर्मों में प्रवृत होते हैं। वे कर्म मनुष्य का अनुसरण करते हैं और उनसे प्रभावित होकर वह दूसरा जन्म लेता है। जीव कर्मबीजों का संग्रह करके जिस प्रकार शुभ कर्मों के अनुसार उत्तम योनियों में और पापकर्मों के अनुसार अधम योनियों में जन्म ग्रहण करता है उसका मैं संक्षेप में वर्णन करता हूँ। केवल शुभकर्मों का संयोग होने से जीव को देवत्व की प्राप्ति होती है, शुभ और अशुभ, दोनो का मिश्रण होने पर वह मनुष्य योनि में जन्म लेता है। मोह में डालनेवाले तामस कर्मों के आचरण से पशु-पक्षी आदि योनि में जाना पड़ता है और पापी मनुष्य नरक में पड़ता है। वह जन्म-मरण और वृद्धावस्था के दुःखों से सदा पीड़ित होता रहता है। अपने ही पापों के कारण उसे बारंबार संसार के क्लेश भोगने पड़ते हैं। मृत्यु के पश्चात् पापकर्मों से दुःख प्राप्त होता है और उस दुःख का भोग करने के लिये ही वह जीव निम्न वर्ग में जन्म लेता है। वहाँ फिर नये-नये बहुत से पापकर्म कर बैठता है, जिसके कारण कुपथ्य खा लेने वाले रोगी के तरह उसे पुनः नाना प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं। जबतक बन्धन में डालनेवाले कर्मों का भोग पूरा नहीं होता और नये-नये कर्म बनते रहते हैं, तबतक अनेकों कष्टों को सहन करता हुआ वह चक्र की तरह इस संसार में चक्कर लगाता रहता है। जब बन्धनकारक कर्मों के भोग पूर्ण हो जाते हैं और सत्कर्मों के द्वारा उसमें शुद्धि आ जाती है, तब वह तप और योग का आरम्भ करता है। अतः पुण्यकर्मों के फलस्वरूप उसे उत्तम लोकों की प्राप्ति होती है, जहाँ जाकर वह शोक में नहीं पड़ता। पाप करनेवाले मनुष्य को पाप की आदत पड़ जाती है, फिर उसके पाप का अन्त नहीं होता। इसलिये पुण्य करने के लिये प्रयत्न करना चाहिये। जो संस्कारसम्पन्न, जितेन्द्रिय तथा मन पर काबू रखनेवाला है, उस बुद्धिमान को दोनो ही लोकों में सुख की प्राप्ति होती है। इसलिये प्रत्येक मनुष्य को चाहिये कि वह सत्पुरुषों के धर्म का पालन करे और शिष्टों के समान ही बर्ताव करे। संसार में जिससे किसी को कष्ट न पहुँचे, ऐसी वृत्ति से जीविका च जो संस्कारसम्पन्न, जितेन्द्रिय तथा मन पर काबू रखनेवाला है, उस बुद्धिमान को दोनो ही लोकों में सुख की प्राप्ति होती है। इसलिये प्रत्येक मनुष्य को चाहिये कि वह सत्पुरुषों के धर्म का पालन करे और शिष्टों के समान ही बर्ताव करे। संसार में जिससे किसी को कष्ट न पहुँचे, ऐसी वृत्ति से जीविका चलावे। 

Monday 23 November 2015

वनपर्व---धर्म की सूक्ष्मगति और फलभोग में जीव की परतंत्रता

धर्म की सूक्ष्मगति और फलभोग में जीव की परतंत्रता
मार्कण्डेयजी कहते हैं---धर्मव्याध ने कौशिक ब्राह्मण से कहा---"वृद्ध पुरुषों का कहना है कि धर्म के विषय में केवल वेद प्रमाण है। यह बात बिलकुल ठीक है; तो भी धर्म की गति बड़ी सूक्ष्म है। उसके अनेकों भेद अनेकों शाखाएँ हैं। वेद में सत्य को धर्म और असत्य को अधर्म बताया गया है ; परन्तु यदि किसी के प्राणों का संकट उपस्थित हो और वहाँ असत्यभाषण से उसके प्राण बच जाते हों तो इस अवसर पर असत्य बोलना धर्म हो जाता है। वहाँ असत्य से ही सत्य का काम निकलता है। ऐसे समय में सत्य बोलने से असत्य का ही फल होता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जिससे परिणाम में प्राणियों का अत्यंत हित होता हो, वह ऊपर से असत्य दीखने पर भी वास्तव में सत्य है। इसके विपरीत जिससे किसी का अहित होता हो, दूसरों के प्राण जाते हों, वह देखने में सत्य होने पर भी वास्तव में असत्य एवं अधर्म है। इस प्रकार विचार करके देखो, धर्म की गति बड़ी सूक्ष्म दिखायी पड़ती है। मनुष्य जो भी शुभ या अशुभ कर्म करता है, उसका फल उसे अवश्य भोगना पड़ता है। यदि उसे बुरे कर्मों के फलस्वरूप प्रतिकूल दशा प्राप्त होती है, दुःख आ पड़ते हैं तो वह देवताओं की निंदा करता है, ईश्वर को कोसता है; परन्तु अज्ञानवश अपने कर्मों के परिणाम पर उसका ध्यान नहीं जाता। मूर्ख कपटी और चंचल चित्तवाला मनुष्य सदा ही सुख-दुःख के चक्कर में पड़ा रहता है। उसकी बुद्धि, सुन्दरता, शिक्षा और पुरुषार्थ---कोई भी उसे उस चक्कर से बचा नहीं सकते। बड़े-बड़े संयमी, कार्यकुशल और बुद्धिमान मनुष्य भी अपना काम करते-करते थक जाते हैं; तो भी उन्हें इच्छानुसार फल नहीं मिलता। तथा दूसरा मनुष्य, जो जीवों की हिंसा करता है और सदा लोगों को ठगता रहता है, मौज से जिंदगी बिता रहा है। कोई बिना उद्योग के अपार सम्पत्ति का स्वामी हो जाता है और किसी को दिनभर का काम करने पर भी मजदूरी नसीब नहीं होती। इसमें कोई संदेह नहीं कि मनुष्यों को जो रोग होते हैं, वे उनके कर्मों के ही फल हैं। जिनके पास भोजन का भण्डार पड़ा होता है, वे उसे खा नहीं पाते, दूसरी ओर जो स्वस्थ और शक्तिशाली हैं उन्हें बड़ी कठिनाई से अन्न मिलता है। इस प्रकार यह संसार असहाय और मोह शोक में डूबा हुआ है। कर्मों के अत्यन्त प्रबल प्रवाह में बहकर निरन्तर उसकी आधि-व्याधि रूपि प्रचण्ड तरंगों के थपेड़े सह रहा है। यदि जीव फल भोगने में स्वतंत्र होता, तो न कोई मरता और न बूढ़ा होता। सभी मनचाही कामनाएँ प्राप्त कर लेते। देखा जा रहा है कि जगत् में सभी लोग सबसे ऊँचा होना चाहते हैं और इसके लिये यथाशक्ति प्रयत्न भी करते हैं, किन्तु वैसा होता नहीं। बहुत से मनुष्य एक ही नक्षत्र और लग्न में उत्पन्न होते हैं, परन्तु पृथक्-पृथक् कर्मों का संग्रह होने के कारण फल की प्राप्ति में महान् अन्तर हो जाता है। शरीर पर आघात करने से शरीर का नाश हो जाता है, किन्तु अविनाशी जीव नहीं मरता; वह कर्मबन्धन में बँधा हुआ फिर दूसरे शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। 

वनपर्व---शिष्टाचार का वर्णन

शिष्टाचार का वर्णन
मार्कण्डेयजी ने कहा---धर्मव्याध का उपर्युक्त उपदेश सुनकर कौशिक ब्राह्मण ने उनसे पूछा, ' नरश्रेष्ठ ! मुझे शिष्ट पुरुषों के आचार का ज्ञान कैसे हो ? तुम्ही मुझसे शिष्टों के व्यवहार यथार्थ रीति से वर्णन करो। व्याध बोला---यज्ञ, तप, दान, स्वाध्याय और सत्यभाषण---ये पाँच बातें शिष्ट व्यक्तियों के व्यवहार में सदा रहती हैं। जो काम, क्रोध, दम्भ और उद्दण्डता---इन दुर्गुणों को जीत लेते हैं, कभी इनके वश में नहीं होते, वे ही शिष्ट कहलाते हैं और वे ही आदर के पात्र होते हैं। सदाचार का निरंतर पालन करना---शिष्ट पुरुषों का दूसरा लक्षण है। शिष्टाचारी व्यक्तियों में गुरु की सेवा, क्रोध का अभाव, सत्यभाषण और दान---ये चार सद्गुण अवश्य होते हैं। वेद का सार है सत्य, सत्य का सार है इन्द्रियसंयम और इन्द्रियसंयम का सार है त्याग। यह त्याग शिष्ट पुरुषों में ज्यादा विद्यमान रहता है। जो शिष्ट हैं वे सदा ही नियमित जीवन व्यतीत करते हैं। इसलिये तुम धर्म की मर्यादा भंग करनेवाले नास्तिक, पापी और निर्दयी पुरुषों का संग छोड़ दो।सदा धार्मिक पुरुषों की सेवा में रहो। यह शरीर एक नदी है, पाँच इन्द्रियाँ इमें जल हैं, काम और क्रोध रूपि मगर इसके भीतर भरे पड़े हैं। जन्म-मरण के दुर्गम प्रदेश में यह नदी बह रही है। तुम धैर्य की नाव पर बैठो और इसके दुर्गम स्थानों--जन्मादि क्लेशों को पार कर जाओ। वैसे कोई भी रंग सफेद कपड़े पर ही अच्छी तरह खिलता है, इसी प्रकार शिष्टाचार के पालन करनेवाले व्यक्तियों में ही क्रमशः संचित किया हुआ कर्म और ज्ञानरूप महान् धर्म भलीभाँति प्रकाशित होता है। अहिंसा और सत्य---इनसे ही संपूर्ण जीवों का कल्याण होता है। अहिंसा सबसे महान् धर्म है, परन्तु इसकी प्रतिष्ठा है सत्य में। सत्य के आधार पर ही श्रेष्ठ मनुष्यों के सभी कार्य आरंभ होते हैं। इसलिये सत्य ही गौरव की वस्तु है। न्याययुक्त कर्मों का आधार धर्म कहा गया है। इसके विपरीत जो अनाचार है उसे ही शिष्ट लोग अधर्म कहते हैं। जो क्रोध और निन्दा नहीं करते, जिनमें अहंकार और इर्ष्या का भाव नहीं है, जो मन पर काबू रखनेवाले एवं सरल स्वभाव के हैं, उन्हें शिष्टाचारी कहते हैं। उन्में सत्वगुण की वृद्धि होती है; जिनका पालन दूसरों को कठिन प्रतीत होता है, ऐसे सदाचारों का भी वे सुगमतापूर्वक पालन करते हैं; अपने सत्कर्मों के कारण ही उनका सर्वत्र आदर होता है। अहिंसा, सत्य, क्रूरता का अभाव,कोमलता, द्रोह और अहंकार का त्याग, लज्जा, क्षमा, सम, दम और बुद्धि, धैर्य, जीवदया, कामना एवं द्वेष का अभाव---ये सब शिष्ट व्यक्तियों के गुण हैं।

वनपर्व---कौशिक ब्राह्मण का मिथिला में जाकर धर्मव्याध से उपदेश लेना

कौशिक ब्राह्मण का मिथिला में जाकर धर्मव्याध से उपदेश लेना
उस पतिव्रता की बातें सुनकर कौशिक ब्राह्मण को बड़ा आश्चर्य हुआ। अपने क्रोध का स्मरण करके वह अपराधी की भाँति अपने को धिक्कारने लगा। फिर धर्म की सूक्ष्म गति पर विचार कर उसने मन-ही-मन यह निश्चय किया कि 'मुझे उस सती के कहने पर श्रद्धा और विश्वास करना चाहिये, इसलिये मैं अवश्य ही मिथिला जाऊँगा और उस महात्मा व्याध से मिलकर धर्म-संबंधी प्रश्न करूँगा।' इस प्रकार विचार कर वह कौतूहलवश मिथिलापुरी को चल दिया। जाते-जाते वह राजा जनक से सुरक्षित मिथिलापुरी पहुँच गया। वहाँ पहुँचकर वह सब ओर घूमने और धर्मव्याध का पता लगाने लगा। एक स्थान पर जाकर उसने पूछा तो लोगों ने उसे उसका स्थान बता दिया। वहाँ जाकर देखा कि धर्मव्याध कसाईखाने में बैठकर माँस बेच रहा है। ब्राह्मण एकान्त में जाकर बैठ गया। व्याध को मालूम हो गया कि कोई ब्राह्मण मुझसे मिलने आये हैं, अतः वह शीघ्र उनके समीप आया और बोला---'भगवन् ! मैं आपका स्वागत करता हूँ। मैं ही व्याध हूँ, जिसे ढ़ूँढ़ते हुए आपने यहाँ तक आने का कष्ट किया है। आपका भला हो। आज्ञा दीजिये, मैं क्या सेवा करूँ ? यह तो मैं जानता हूँ कि आप यहाँ कैसे पधारे हैं। उस पतिव्रता स्त्री ने ही आपको मिथिला में भेजा है। व्याध की बात सुनकर ब्राह्मण बड़े विस्मय में पड़ा और मन-ही-मन सोचने लगा---यह दूसरा आश्चर्य देखने को मिला। व्याध ने कहा, 'यह स्थान आपके योग्य नहीं है; यदि स्वीकार करें, तो हम दोनों घर पर चलें।' ब्राह्मण ने प्रसन्न होकर कहा, 'ठीक है, ऐसा ही करो।' फिर आगे-आगे ब्राह्मण चला और पीछे-पीछे व्याध। घर पर पहुँचकर धर्मव्याध ने ब्राह्मण को बैठने का आसन दिया। उसपर बैठकर उसने व्याध से कहा, 'हे तात ! यह माँस बेचने का काम तुम्हारे योग्य नहीं है। मुझे तो तुम्हारे इस घोर कर्म से बड़ा क्लेश हो रहा है। व्याध बोला---विप्रवर ! मैने यह काम अपनी इच्छा से नहीं उठाया है। यह धंधा मेरे कुल में दादों-परदादों के समय से चला आ रहा है। स्वयं मैं ऐसा कोई काम नहीं करता, जो धर्म के विपरीत हो।सावधानी के साथ बूढ़े माँ-बाप की सेवा करता हूँ। सत्य बोलता हूँ। यथाशक्ति दान देता हूँ और देवता, अतिथि तथा सेवकों को भोजन देकर जो बचता है, उसी से अपनी जीविका चलाता हूँ। सदा सत्यभाषण, तपस्या, वेदाध्ययन---ये सब जिनमें हैं वही ब्राह्मण हैं। राजा का यह कर्तव्य है कि वह अपने-अपने धर्मों के पालन में लगी हुई प्रजा का धर्मपूर्वक शासन करे तथा जो लोग धर्म से गिर गये हों, उन्हें पुनः धर्मपालन में लगावे। ये राजा जनक दुराचारी को---धर्म के विरुद्ध चलनेवालों को, वह अपना पुत्र ही क्यों न हो, कठोर दण्ड देते हैं। ( अतः आप मुझमें या किसी मिथिलावासी में अधर्म की आशंका न करें। मैं स्वयं किसी जीव की हत्या नहीं करता। दूसरों के मारे हुए सूअर और भैंसों का माँस बेचता हूँ। फिर भी मैं स्वयं माँस कभी नहीं खाता। दिन में सदा ही उपवास और रात्रि में भोजन करता हूँ। कुछ लोग मेरी प्रशंसा करते हैं और कुछ लोग निंदा; परन्तु मैं उन सबको सद्व्यवहार से प्रसन्न रखता हूँ। द्वन्दों को सहन करना, धर्म में दृढ़ रहना, सब प्राणियों का योग्यता के अनुसार सम्मान करना---ये मानवोचित गुण मनुष्य में त्याग के बिना नहीं आते। व्यर्थ का विवाद छोड़कर बिना कहे दूसरों का भला करना चाहिये। किसी कामना से, क्रोध से या द्वेषवश धर्म का त्याग नहीं करना चाहिये। प्रिय वस्तु की प्राप्ति होने पर हर्ष से फूल न उठें, अपने मन के विपरीत कोई बात हो जाय तो दुःख न माने; आर्थिक संकट आ पड़ने पर घबराये नहीं और किसी भी अवस्था में अपना धर्म न छोड़े। यदि एक बार भूल से धर्म के विपरीत कोई काम हो जाय, तो पुनः दुबारा वह काम न करे। जो विचार करने पर अपने और दूसरो के लिये कल्याणकारी प्रतीत हो, उसी काम में अपने को लगाना चाहिये। बुराई करनेवाले के प्रति बदले में भी बुराई न करें, अपनी साधुता कभी न छोड़ें।जो दूसरों की बुराई करना चाहता है, वह पापी अपने आप नष्ट हो जाता है। जो पवित्र भाव से रहनेवाले धर्मात्मा पुरुषों के कर्म को अधर्म बताकर उनकी हँसी उड़ाते हैं, वे श्रद्धाहीन मनुष्य नाश को प्राप्त होते हैं। पापी मनुष धोंकनी के समान व्यर्थ फूले रहते हैं। वास्तवमें उनमें पुरुषार्थ बिलकुल नहीं होता।जो मनुष्य पापकर्म बन जाने पर सच्चे हृदय से पश्चाताप करता है, वह उस पाप से छूट जाता है तथा 'फिर ऐसा कर्म कभी नहीं करूँगा' ऐसा दृढ़ संकल्प कर लेने पर वह भविष्य में होनेवाले दूसरे पाप से बच जाता हैं। लोभ ही पाप का घर है, लोभी मनुष्य ही पाप करने का विचार करते हैं। जैसे तिनके से ढ़का हुआ कुआँ हो, वैसे ही इनके धर्म की आड़ में पाप रहता है। इनमें इन्द्रियसंयम, बाहरी पवित्रता और धर्म-संबंधी बातचीत---ये सब तो होते हैं, किन्तु धर्मात्मा पुरुषों का-सा शिष्टाचार नहीं होता।

वनपर्व---पतिव्रता स्त्री और कौशिक ब्राह्मण का संवाद

पतिव्रता स्त्री और कौशिक ब्राह्मण का संवाद
धन्धुमार की कथा सुनने के पश्चात् महाराज युधिष्ठिर ने मार्कण्डेयजी से कहा---भगवन् ! अब मैं आपसे पतिव्रता स्त्रियों के सूक्ष्म धर्म और उनके महात्म्य की कथा सुनना चाहता हूँ। माता-पिता और गुरुजनों की सेवा करनेवाले बालक और पातिव्रत्य करनेवाली स्त्रियाँ---ये सबके लिये आदरणीय हैं। स्त्रियाँ सदाचार की रक्षा करती हुई जिस आदरभाव से उनकी सेवा करती हैं, यह कोई आसान काम नहीं है। उनका धर्म बड़ा ही कठिन है, उससे कठिन मुझे कोई और धर्म दिखाई नहीं देता। इसलिे मुनिवर ! आज आप मुझे पतिव्रताओं के माहात्म्य की कथा सुनाइये। मार्कण्डेयजी बोले--- राजन् ! सती स्त्रियाँ पति की सेवा से स्वर्गलोक पर विजय पाती हैं तथा माता पिता की सेवा करके उन्हें प्रसन्न करनेवाला पुत्र इस संसार में सुयश और सनातन धर्म का विस्तार कर अन्त में उत्तम लोकों को प्राप्त होता है। अब मैं पहले पतिव्रता के महत्व और धर्म का वर्णन करता हूँ। पू्र्वकाल में कौशिक नाम का एक ब्राह्मण था। वह बड़ा ही धर्मात्मा और तपस्वी था। उसने वेद और उपनिषदों का अध्ययन किया था। एक दिन की बात है, वह एक वृक्ष के नीचे बैठकर वेदपाठ कर रहा था। उसी समय उस वृक्ष के ऊपर एक बगुली बैठी हुई थी, उसने कौशिक के ऊपर बीट कर दी। वह क्रोध से तमतमा उठा और बगुली का अनिष्ट चिंतन करते हुए उसकी ओर देखने लगा।बेचारी चिड़िया पेड़ से गिर पड़ी और उसके प्राण-पखेरू उड़ गये। बगुली को देख ब्राह्मण के हृदय में दया का संचार और उसे अपने इस कुकृत्य पर बड़ा पश्चाताप होने लगा। उसके मुँह से निकल पड़ा--'ओह ! आज मैने क्रोध के वशीभूत होकर कैसा अनुचित कार्य कर डाला।' इस प्रकार बारम्बार पछताकर वह गाँव में भिक्षा के लिये गया। उस गाँव में जो लोग शुद्ध और पवित्र आचरणवाले थे, उन्हीं के घरों पर भिक्षा माँगता हुआ वह एक ऐसे घर पहुँचा, जहाँ पहले भी कभी भिक्षा प्राप्त कर चुका था। द्वार पर जाकर बोला, 'भिक्षा देना, माई ! भीतर से एक स्त्री ने कहा, 'ठहरो, बाबा ! अभी लाती हूँ।' वह स्त्री अपने घर के जूठे बर्तन साफ कर रही थी। ज्योंही वह उस काम से निवृत हुई, उसके पति घर पर आ गये। वे बहुत भूखे थे। पति को आया देख स्त्री को बाहर खड़े हुए ब्राह्मण की याद न रही। वह अपने पति की सेवा में जुट गयी। वह उनका पैर धोकर एक पात्र में सुन्दर स्वादिष्ट भोजन परोसकर लायी और सामने रख दिया। युधिष्ठिर ! वह स्त्री प्रतिदिन पति को भोजन कराकर उसके उच्छिष्ट को प्रसाद समझकर बड़े प्रेम से भोजन करती थी, और पति को ही अपना देवता मानती थी और स्वामी के विचार के अनुकूल ही आचरण करती थी।वह कभी मन से भी परपुरुष का चिन्तन नहीं करती थी। सदाचार का पालन उसके जीवन का अंग था, उसका शरीर भी शुद्ध था और हृदय भी। वह घर के काम-काज में कुशल थी, कुटुम्ब में रहनेवाले प्रत्येक स्त्री पुरुष का हित चाहती थी और पति के हितसाधना का ही उसे ध्यान रहता था। देवता की पूजा, अतिथि का सत्कार, सेवकों का भरण-पोषण और सास-ससुर की सेवा---इनमें वह कभी असावधानी नहीं करती थी। अपने मन और इन्द्रियों पर उसका पूरा अधिकार था। पति की सेवा करते-करते उसे भिक्षा के लिये खड़े हुए ब्राह्मण की याद आ गयी। पति की सेवा का तात्कालिक कार्य पूर्ण हो ही चुका था। वह भिक्षा लेकर बड़े संकोच से ब्राह्मण के निकट गयी। ब्राह्मण जला-भुना खड़ा था, देखते ही बोला---"देवी ! जब तुम्हे देर ही करनी थी 'ठहरो बाबा !' कहकर मुझे रोका क्यों ? मुझे जाने क्यों नहीं दिया ? ब्राह्मण को क्रोध से जलते देख उस सती ने बड़ी शान्ति से कहा---'पण्डित बाबा ! क्षमा करो; मेरे सबसे महान् देवता मेरे पति हैं। वे भूखे-प्यासे, थके-माँदे घर पर आये थे; उनको छोड़कर कैसे आती ? उनकी ही सेवा-टहल में लग गयी।' ब्राह्मण बोला---क्या कहा ? ब्राह्मण बड़े नहीं हैं, पति ही सबसे बड़ा है ! गृहस्थ धर्म में रहते हुए भी तुम ब्राह्मणों का अपमान कर रही हो। अरी ! ब्राह्मण अग्नि के समान तेजस्वी हैं, वे चाहें तो इस पृथ्वी को भी जलाकर खाक कर सकते हैं। सती स्त्री ने कहा---तपस्वी बाबा ! क्रोध न कीजिये, मैं वह बगुली चिड़िया नहीं हूँ। मेरी ओर यों लाल-लाल आँखें करके क्यों देखते हैं ? आप कुपित होकर मेरा क्या बिगाड़ लेंगे ? मैं ब्राह्मणों का अपमान नहीं करती। इस समय मुझसे जो आपकी उपेक्षा हुई है, उसके लिये आप क्षमा करें। मुझे तो पति की सेवा से जिस धर्म का पालन होता है, वही अधिक पसंद है। देवताओं में भी मेरे लिये पति ही सबसे बड़े देवता हैं। मैं तो सामान्य रूप से इस पतिव्रत्य धर्म का ही पालन करती हूँ। इस पतिसेवा का फल आप प्रत्यक्ष देख लीजिये। आपने कुपित होकर बगुली पक्षी को दग्ध किया था, यह बात मुझे मालूम हो गयी। बाबा ! मनुष्यों का एक बहुत बड़ा शत्रु है जो उनके शरीर में ही रहता है; उसका नाम है---क्रोध। जो क्रोध और मोह को जीत ले और जो सदा सत्यभाषण करे, गुरुजनों को सेवा से प्रसन्न रखे, इन्द्रियों को जीतकर पवित्र भाव से धर्म में लगा रहे, वही ब्राह्मण है। ब्राह्मणों के लिये जो कल्याणकारी धर्म है, उसी का उनके समक्ष वर्णन करना उचित है। इसलिये मैं आपके सामने यह बात कर रही हूँ।ब्राह्मण सत्यवादी होते हैं, उनका मन कभी असत्य में नहीं लगता। मेरा विचार है कि अभी आपको धर्म का यथार्थ तत्व ज्ञात नहीं हुआ है। यदि 'आप परम धर्म क्या है ?' इसका मतलब जानना चाहते हैं तो मिथिलापुरी में जाकर माता-पिता के भक्त, सत्यवादी और जितेन्द्रिय धर्मव्याध से पूछिये। वह आपको धर्म का तत्व समझा देगा।

वनपर्व---धुन्धु का वध

धुन्धु का वध

युधिष्ठिर ने पूछा---मुनिवर ! ऐसा महाबली दै्य तो मैने आज तक कभी नहीं सुना। वह दैत्य कौन था ? मार्कण्डेयजी बोले---महाराज ! धुन्धु मधु-कैटभ का पुत्र था। एक दिन उसने एक पैरपर खड़े होकर बहुत काल तक तपस्या की। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने उससे वर माँगने को कहा। वह बोला 'मैं तो हीवर चाहता हूँ कि देवता, दानव, गन्धर्व, राक्षस और सर्प---इनमें से किसी के भी हाथ से मेरी मृत्यु न हो।' ब्रह्माजी ने कहा, 'अच्छा जा; ऐसा ही होगा।' उनकी स्वीकृति पाकर धुन्धु ने उनके चरणों का अपने मस्तक से स्पर्श किया और वहाँ से चला गया। तभी से वह उतंग के आश्रम के पास अपने श्वाससे आग की चिनगारियाँ छोड़ता हुआ रेती में रहने लगा। राजा वृहदश्व के वन चले जाने के बाद उनका पुत्र कुवलाश्र्व उतंग मुनि के साथ सेना और सवारी लेकर वहाँ आ पहुँचा। इक्कीस हजार तो केवल उसके पुत्रों की सेना थी। उतंग की अनुमति से भगवान विष्णु ने समस्त लोकों का कल्याण करने के लिये राजा कुवलाश्व में अपना तेज स्थापित कर दिया। कुवलाश्व ज्यों ही युद्ध के लिये आगे बढ़ा, आकाश में उच्च स्वर से यह आवाज गूँज उठी कि 'यह राजा कुवलाश्व स्वयं अवध्य रहकर धुन्धु को मारेगा और धुन्धुमार नाम से विख्यात होगा।' देवताओं ने चारों तरफ दिव्य पुष्पों की वर्षा की, बिना बजाये ही देवताओं की दुन्दुभियाँ बज उठीं, ठण्ढ़ी हवाएँ चलने लगीं और पृथ्वी की उड़ती हुई धूल शान्त करने के लिये इन्द्र धीरे-धीरे वर्षा करने लगे। भगवान् विष्णु के तेज से बढ़ा हुआ राजा शीघ्र ही समुद्र के किनारे पहुँचा और अपने पुत्रों से चारों ओर की रेती खुदवाने लगा। सात दिनों की खुदाई होने के बाद महा बलवान् दैत्य धुन्धु दिखाई पड़ा। बालू के भीतर उसका बहुत बड़ा विकराल शरीर छिपा हुआ था जो प्रकट होने पर अपने तेज से देदिप्यमान होने लगा, मानो सूर्य ही प्रकाशमान हो रहे थे। धुन्धु प्रलयकाल की अग्नि के समान पश्चिम दिशा को घेरकर सो रहा था। कुवलाश्व के पुत्रों ने उसे सब ओर से घेर लिया और तीखे वाण, गदा, मूसल, परिघ और तलवर आदि अस्त्र-शस्त्रों से उसपर प्रहार करने लगे। उनलोगों की मार खाकर वह महाबली दैत्य क्रोध में भरकर उठा और उनके चलाये हुए तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्रों को निगल गया। इसके बाद वह मुँह से संवर्तक अग्नि के समान आग की लपटें उगलने लगा और अपने तेज से उन राजकुमारों को एक क्षण में ही इस तरह भष्म कर दिया, जैसे पूर्वकाल में राजा सगर के पुत्रों को महात्मा कपिल ने दग्ध किया था, यह एक अद्भुत सी बात हो गयी। जब सभी राजकुमार धुन्धु की क्रोधाग्नि में स्वाहा हो गये और वह महाकाय दैत्य दूसरे कुम्भकरण के समान जगकर सावधान हो गया तब महातेजस्वी राजा कुलवाश्व उसकी ओर बढ़ा। उसके शरीर से जल की वर्षा होने लगी, जिसने धुन्धु के मुँह से निकलती हुई आग को पी लिया। इसप्रकार योगी कुलाश्व ने योगबल से उस आग को बुझा दिया और स्वयं ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करके समस्त जगत् का भय दूर करने के लिये उस दैत्य को भष्म कर डाला। धुन्धु को मारने के कारण वह धुन्धुमार के नाम से 'प्रसिद्ध' हुआ। इस युद्ध में राजा कुवलाश्व के केवल तीन पुत्र बच गये थे---दृढाश्व, कपिलाश्व और चन्द्राश्व। इन तीनों से ही इक्ष्वाकुवंश की परंपरा आगे तक चली।

वनपर्व---उतंग मुनि का राजा बृहदश्रव् से धुन्धु को मारने के लिये अनुरोध

उतंग मुनि का राजा बृहदश्रव् से धुन्धु को मारने के लिये अनुरोध
मार्कण्डेयजी कहते हैं---सूर्यवंशी राजा इक्ष्वासु जब परलोकवासी हो गये तो उनका पुत्र शशाद इस पृथ्वी पर राज्य करने लगा। उसकी राजधानी अयोध्या थी। शशाद का पुत्र ककुत्स्थ का अनेना, अनेना का पृथु, पृथु का विश्र्वगश्र्व, उसका अद्रि, अद्रि का युवनाश्र्व और उसका पुत्र श्राव हुआ। श्राव के श्रावस्त, जिसने श्राव्ती नाम की पुरी बसायी। श्रावस्त के पुत्र का नाम वृहद्रथ हुआ, उसका पुत्र कुवलाश्र्व के नाम से विख्यात हुआ।कुवलाश्र्व के इक्कीस हजार पुत्र थे। ये सभी विद्याओं में पारंगत और महान् बलवान् थे। राजा कुवलाश्र्व भी गुणों में अपने पिता से बहुत बढ़-चढ़कर था। जब वह राज्य संभालने के योग्य हो गया तो  उसके पिता ने उसे राज्य पर अभिषिक्त कर दिया तथा स्वयं तपस्या करने के लिये वन जाने को उद्यत हो गये। महर्षि उतंग ने जब यह सुना कि वृहदश्व वन में जानेवाले हैं तो वे उनकी राजधानी में आये और राजा को रोकते हुए कहने लगे---राजन् ! हमलोग आपकी प्रजा हैं, आपका कर्तव्य है---प्रजा की रक्षा करना। आप पहले इस प्रधान कर्तव्य का पालन कीजिये। आपकी ही कृपा से सारी प्रजा और इस पृथ्वी का उद्वेग दूर होगा। यहाँ रहकर प्रजा की रक्षा करने में तो बड़ा भारी पुण्य दिखाई देता है, वैसा धर्म वन में जाकर तपस्या करने में नहीं दीखता। अतः अभी आपको ऐसा विचार नहीं करना चाहिये। मरु देश में हमारे आश्रम के निकट ही रेत से भरा हुआ एक समुद्र है, उसका नाम है उज्जालक सागर। उसकी लम्बाई-चौड़ाई अनेकों योजन है। वहाँ एक बड़ा बलवान दानव रहता है, उसका नाम है---धुन्धु। वह मधु-कैटभ का पुत्र है। पृथ्वी के भीतर छिपकर रहा करता है। बालू के भीतर रहनेवाला वह महाक्रूर दैत्य वर्ष-भर में एक बार साँस लेता है। जब वह साँस छोड़ता है, उस समय पर्वत और वनों के सहित यह पृथ्वी डोलने लगती है। उसके श्वास के आँधी से रेत का इतना ऊँचा बवंडर उठता है, जिससे सूर्य भी ढ़क जाता है, सात दिनों तक भूचाल होता रहता है। अग्नि की लपटें, चिनगारियाँ और धुएँ उठते रहते हैं।महाराज ! इन सब उत्पातों के कारण हमारा आश्रम में रहना कठिन हो गया है। अतः हे राजन् ! मनुष्यों का कल्याण करने के लिये आप उस दैत्य का वध कीजिये। राजा बृहद्रथ ने हाथ जोड़कर कहा---ब्रह्मण् ! आप जिस उद्देश्य से यहाँ पधारे हैं, वह निष्फल नहीं होगा। मेरा पुत्र कुवलाश्र्व इस भूमंडल में अद्वितीय वीर है। आपका अभिष्ट कार्य वह अवश्य पूर्ण करेगा। फिर राजर्षि उतंग मुनि की आज्ञा पाकर उनके अभीष्ट कार्य को पूर्ण करने के लिये अपने पुत्र को आदेश दिया और स्वयं तपोवन में चले गये।

वनपर्व---धुन्धुमार की कथा---उतंग मुनि की तपस्या और उन्हें विष्णु का वरदान

धुन्धुमार की कथा---उतंग मुनि की तपस्या और उन्हें विष्णु का वरदान
अब मार्कण्डेयजी ने युधिष्ठिर को राजा धुन्धुमार का कथा इस तरह सुनाया---पूर्वकाल में उतंग नाम से प्रसिद्ध एक महर्षि हो गये हैं। अब मार्कण्डेयजी ने युधिष्ठिर को राजा धुन्धुमार का कथा इस तरह सुनाया---पूर्वकाल में उतंग नाम से प्रसिद्ध एक महर्षि हो गये हैं। मरुदेश (मारवाड़) के सुन्दर परदेश में उनका आश्रम था। एक समय महर्षि उतंग ने भगवान् विष्णु को प्रसन्न करने के लिये बहुत वर्षों तक कठोर तपस्या की।भगवान् ने उन्हें प्रसन्न होकर उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया। उनके दर्शन से मुनि निहाल हो गये और बड़ी विनय के साथ नाना प्रकार के स्त्रोतपाठ करते हुए उनकी स्तुति करने लगे। उतंग बोले---भगवन् ! देवता, असुर और मनुष्य आपसे ही उत्पन्न हुए हैं। आपने ही चराचर प्राणियों को जन्म दिया है। वेदवेत्ता ब्रह्माजी, वेद तथा उसके द्वारा जानने योग्य जो कुछ भी वस्तुएँ हैं, उन सबकी सृष्टि आपसे ही हुई है। देवदेव ! आकाश आकाश आपका मस्तक है, सूर्य और चन्द्रमा नेत्र हैं, वायु साँस है और अग्नि आपका तेज है। सारी दिशाएँ आपकी साँस है और अग्नि आपका तेज है। सारी दिशाएँ आपकी भुजाएँ हैं, महासागर उदर है, पर्वत उरु है और अन्तरिक्ष जंघा है। पृथ्वी आपके चरण और औषधियाँ रोम हैं। इन्द्र, सोम, अग्नि, वरुण, देवता, असुर, नाग---ये सब आपके नतमस्तक हो नाना प्रकार की स्तुतियाँ करते हुए हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं। उतंग की स्तुति   भगवान् बहुत प्रसन्न हुए और बोले, 'उतंग ! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ, कोई वर माँगो। उतंग बोले---'हे कमललोचन ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं और मुझे वर देना ही चाहते हैं तो ऐसी कृपा कीजिये जिससे मेरी बुद्धि सदा शम-दम, सत्यभाषण तथा धर्म में ही लगी रहे और आपके भजन का अभ्यास कभी छूटने न पावे।भगवान् ने कहा---मुने ! तुमने जो कुछ माँगा है, सब पूर्ण होगा। धुन्धु नाम वाला एक महान् असुर तीनों लोकों का विनाश करने के लिये घोर तपस्या करेगा। उस असुर का वध जिसके हाथ से होनेवाला है, उसका नाम तुम्हें बताता हूँ ; सुनो। इक्ष्वासु वंश में एक बलवान् और विजयी राजा होगा---बृहद्रथ। उसके 'कुवलाश्व' नाम प्रसिद्ध एक पुत्र होगा। वह मेरे योगबल का आश्रय लेकर तुम्हारी आज्ञा से धुन्धु को मार डालेगा, उस समय से वह इस जगत् में 'धुन्धुमार' के नाम से विख्यात होगा। महर्षि उतंग से ऐसा कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये।

Friday 13 November 2015

वनपर्व---दान, पवित्रता, तप और मोक्ष का विचार

दान, पवित्रता, तप और मोक्ष युधिष्ठिर कहने लगे---मुनिवर ! आप धर्म को जाननेवाले हैं इसलिये मैं बार-बार आपसे धर्म की बातें सुनना चाहता हूँ। मार्कण्डेयजी बोले---राजन् ! अब मैं तुम्हे धर्म सम्बन्धी दूसरी बात सुनाता हूँ। पवित्रता तीन प्रकार की है---वाणी की, कर्म की और जल की। इन तीनों प्रकार की पवित्रता से युक्त है, वह स्वर्ग का अधिकारी है। जहाँ कहीं भी बहुत से शास्त्रों का ज्ञान रखनेवाले लोग रहते हों, वह स्थान तीर्थ कहलाता है। सज्जन लोग सत्संग से पवित्र हुई सुन्दर वाणी रूप जल से ही अपनी आत्मा को पवित्र मानते हैं। जो मन, वाणी, कर्म और बुद्धि से कभी पाप नहीं करते, वे ही महात्मा तपस्वी हैं;केवल शरीर सुखाना ही तपस्या नहीं हैं। जो व्रत-उपवास आदि करते हैं लेकिन अपने कुटुम्बीजनों पर तनिक भी दया नहीं करते, वह कभी निष्पाप नहीं हो सकता। उसकी वह निर्दयता उस तप को नाश करनेवाली है; कवल भोजन त्याग देने से तपस्या नहीं होती। जो निरन्तर घर पर भी रहकर पवित्र भाव से रहता है और सब प्राणियों पर दया करता है, उसे मुनि ही समझना चाहिये; वह संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। शास्त्रों में जिनका उल्लेख नहीं है, ऐसे कर्मों को अपने मन से कल्पना करके लोग तपायी हुई शिला आदि पर बैठते हैं। यह सब होता है तपस्या के नाम पर पापों को जलाने के लिये; परन्तु इससे केवल शरीर से पीड़ा होती है, और कोई लाभ नहीं होता। जिसका हृदय श्रद्धा और भाव से शून्य है, उसके पापकर्मों को अग्नि भी नहीं जला सकती। दया तथा मन वाणी और शरीर की शुद्धि से ही शुद्ध वैराग्य और मोक्ष प्राप्त होते हैं। केवल फल खाने या हवा पीकर रहने से तथा सिर मुँडाने, घर छोड़ने, जटा बढ़ाने, जल के भीतर खड़े रहने या जमीन पर शयन करने से ही मोक्ष नहीं मिलता। ज्ञान अथवा निष्काम कर्म से ही जरा-मृत्यु आदि सांसारिक व्याधियों से पिण्ड छूटता और उत्तम पद की प्राप्ति होती है। जिसके हृदय में संशय है, आत्मा के प्रति अविश्वास है, उसके लिये न लोक है, न परलोक और न उसे कभी सुख ही मिलता है। श्रद्धा और विश्वासपूर्वक निश्चयात्मक बोध ही मोक्ष का स्वरूप है। आत्मा अपनी उपलब्धि में स्वयं समर्थ नहीं है, उसका अनुभव सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा होता है। अतः मनुष्य को इन्द्रियों की निर्मलता के द्वारा विषय भोगों को त्याग देना चाहिये। यह इन्द्रियों के निरोध से होनेवाला अनशन ( उपवास या विषयों का अग्रहण ) दिव्य होता है। तप से स्वर्ग मिला है, दान से भोगों की प्राप्ति होती है, तीर्थस्थान से पाप नष्ट होते हैं; परन्तु मोक्ष तो ज्ञान से ही होता है---ऐसा समझना चाहिये।

वनपर्व---यमलोक का मार्ग और वहाँ इस लोक में किये हुए दान का उपयोग

यमलोक का मार्ग और वहाँ इस लोक में किये हुए दान का उपयोग
यमराज का नाम सुनकर भाइयों सहित युधिष्ठिर के मन में बड़ा कौतूहल हुआ तब मार्कण्डेयजी ने कहा---मनुष्यलोक और यमलोक में छियासी लाख योजन का अन्तर है। उसके मार्ग में सुनसान आकाशमात्र है, वह देखने में बड़ा भयानक और दुर्गम है। वहाँ न तो वृक्षों की छाया है,न पानी है और न कई ऐसा स्थान ही है, जहाँ रासते का थका हुआ जीव क्षणभर भी विश्राम कर सके। यमराज की आज्ञा से उनके दूत यहाँ आते हैं और पृथ्वी पर रहनेवाले सभी जीवों को बलपूर्वक पकड़कर ले जाते हैं। जो लोग यहाँ नाना प्रकार के वाहन दान करते हैं वे उस मार्ग पर उन्हीं वाहनों से जाते हैं। छत्रदान करनेवाले मनुष्यों को उस समय छत्र मिलता है, जिससे वे धूप से बचकर चलते हैं। अन्नदान करनेवाले जीव वहाँ तृप्त होकर यात्रा करते हैं; जिन्होंने अन्नदान नहीं किया है; वे भूख का कष्ट करते हुए चलते हैं। भूमि का दान करनेवाले सब कामनाओं से तृप्त होकर बड़े आनन्द से यात्रा करते हैं। मकान बनाकर देनेवाले दिव्य विमान से बड़े आराम के साथ यात्रा करते हैं। पानी दान करनेवालों को वहाँ प्यास का कष्ट नहीं होता। दीप दान करनेवालों को अँधेरे में चलते समय प्रकाश का प्रबंध होता है। जिन्होंने एक मास तक उपवास किया है, वे हँसों से जुते हुए विमानों पर यात्रा करते हैं। तीन रात तक जो एक समय भोजन करते हैं, वे अक्षय लोकों को प्राप्त होते हैं। जल देने का प्रभाव तो बहुत ही अलौकिक है, प्रेतलोक में जल बहुत सुख देनेवाला होता है। मरणोपान्त जिनके लिये जल दिया जाता है, उन पुण्यात्माओं के लिये यमलोक के मार्ग में पुष्पोद नाम की नदी बनी हुई है।वे उसका शीतल और सुधा के समान मधुर जल पीते हैं। जो पापी जीव हैं, उनके लिये वो पीब-सी हो जाती है। इस प्रकार वह नदी सब कामनाओं को पूर्ण करनेवाली है। हे राजन् ! जो अन्नदाता को पूछता हुआ भोजन की आशा से घर पर आ जाय, उस अतिथि का तुम सत्कार करो। ऐसा अतिथि जब किसी के घर आ जाता है, तो उसके पीछे इन्द्र आदि समस्त देवता वहाँ तक जाते हैं; यदि वहाँ उसा आदर होता है तो वे सब देवता प्रसन्न होते हैं और यदि उनका आदर नहीं होता तो सब देवता भी निराश लौट जाते हैं। अतः राजन् ! तुम भी अतिथि का विधिवत् सत्कार करे रहो। अब बताओ, और क्या सुनना चाहते हो ?

वनपर्व---दान के लिये उत्तम पात्र का विचार और दान की महिमा

दान के लिये उत्तम पात्र का विचार और दान की महिमा
महाराज युधिष्ठिर पूछते हैं---मुनिवर ! मनुष्य किस अवस्था में दान देने से इन्द्रलोक में जाकर सुख भोगता है ? तथा दान आदि शुभकर्मों का भोग उसे किस प्रकार प्राप्त होता हे ? मार्कण्डेयजी बोले---जो धार्मिक जीवन नहीं व्यतीत करते, जो सदा दूसरों की ही रसोई में भोजन किया करते हैं, जो केवल अपने लिये ही भोजन बनाते हैं, देवता और अतिथि को अ्पण नहीं करते तथा जो संतान से  वंचित हैं---इन चार प्रकार के मनुष्यों का जन्म व्यर्थ है। जो वाणप्रस्थ या सन्यास-आश्रम से  पुनः गृहस्थ आश्रम में लौट आया हो, उसको दिया हुआ दान तथा अन्याय से कमाये हुए धन का दान व्यर्थ है। इसी प्रकार पतित मनुष्य, चोर, मिथ्यावादी गुरु, पापी, कृतघ्न, वेद का विक्रय करनेवाले आदि को दिया हुआ दान भी व्यर्थ है। इन दानों का कोई फल नहीं होता। युधिष्ठिर बोले---'हे मुने ! कैसे व्यक्ति को दान देना चाहिये ?' मार्कण्डेयजी बोले---जो संपूर्ण रूपसे विद्वान हो और अपने को तथा दाता को तारने की शक्ति रखता हो, उसे दान देना चाहिये। अतिथियों को भोजन देने का भी बहुत बड़ा महत्व है। उन्हें भोजन कराने से अग्निदेव जितने संतुष्ट होते हैं, उतना संतोष उन्हें हविष्य हवन करने और फूल एवं चन्दन चढ़ाने से भी नहीं होता। जो लोग दूर से आये हुए अतिथियों को अन्न, जल, वस्त्र और आवास से संतुष्ट करते हैं उन्हें कभी यमराज के पास नहीं जाना पड़ता।  अन्नदान का महत्व सबसे बढ़कर है। यदि कोई दीन-दुर्बल पथिक थका माँदा, भूखा-प्यासा, धूल भरे पैरों से आकर किसी से पूछे 'क्या कहीं अन्न मिल सकता है ?' और कोई उसे अन्नदाता का पता बता दे तो उ मनष्य को भी अन्नदान का ही पुण्य मिलता है, इसमें तनिक संदेह नहीं है। इसलिये युधिष्ठिर ! तुम अन्य प्रकार के दानों की अपेक्षा अन्न दान पर विशेष ध्यान दिया करो। क्योंकि इस जगत् में अन्नदान के समान अद्भुत पुण्य और किसी दान का नहीं है। जो लोग अधिक पानीवाले तालाब या पोखरे खुदवाते हैं, बावली या कुएँ बनवाते हैं, दूसरों के रहने के लिये धर्मशालाएँ तैयार करवाते हैं, अन्न का दान करते और मीठी वाणी बोलते हैं, उन्हें यमराज की बात भी सुननी नहीं पड़ती।

वनपर्व---राजा शिबि का चरित्र

राजा शिबि का चरित्र
मार्कण्डेयजी कहते हैं---युधिष्ठिर ! एक समय देवताओं ने आपस में सलाह की कि पृथ्वी पर चलकर उशीनर के पुत्र राजा शिबि की साधुता की परीक्षा करें। तब अग्नि कबूतर का रूप बनाकर चला और इन्द्र ने बाज पक्षी होकर उसका पीछा किया। राजा शिबि अपने दिव्य सिंहासन पर बैठे हुए थे, कबूतर उनकी गोद में जा गिरा। यह देखकर राजा के पुरोहित ने कहा---'राजन् ! यह कबूतर बाज क डर से अपने प्राण बचाने के लिये आपकी शरण में आया है।' कबूतर ने भी कहा---महाराज ! बाज मेरा पीछा कर रहा है, उससे डरकर प्राणरक्षा के लिये आपकी शरण में आया हूँ। वास्तव में मैं कबूतर नहीं, ऋषि हूँ; मैने एक शरीर से दूसरा शरीर बदल लिया था। अब प्राणरक्षक होने के कारण आप ही मेरे प्राण हैं; मैं आपकी शरण में हूँ, मुझे बचाइये। अब बाज बोला---राजन् ! आप इस कबूतर को लेकर मेरे काम में विघ्न न डालें। राजा कहने लगे---ये बाज और कबूतर जितनी शुद्ध संस्कृत वाणी बोलते हैं, वैसी क्या कभी किसी ने पक्षी के मुख से सुनी है ? मैं किस प्रकार इन दोनो का स्वरूप जानकर उचित न्याय करूँ ? जो मनुष्य अपनी शरण में आये हुए भयभीत प्राणी को उसके शत्रु के हाथ में दे देता है, उसके देश में समय पर वर्षा नहीं होती, उसके बोये हुए बीज नहीं जमते और कभी संकट के समय जब अपनी रक्षा चाहता है तो उसे कोई रक्षक नहीं मिलता। उसकी संतान बचपन में ही मर जाती है। वह स्वर्ग जाने पर भी वहाँ से नीचे ढ़केल दिया जाता है, इन्द्र आदि देवता उसके ऊपर वज्र का प्रहार करते हैं। इसलिये मैं प्राणत्याग कर दूँगा, पर कबूतर नहीं दूँगा। बाज ! अब तुम व्यर्थ कष्ट मत उठाओ। कबूतर को तो मैं किसी तरह नहीं दे सकता। इस कबूतर को देने के सिवा और जो भी तुम्हारा प्रिय कार्य हो वह बताओ; उसे मैं पूर्ण करूँगा। बाज बोला---राजन् ! अपनी दायीं जाँघ से माँस काटकर इस कबूतर के बराबर तोलो और जितना माँस चढ़े, वही मुझे अर्पण करो। ऐसा करने पर कबूतर की रक्षा हो सकती है। तब राजा ने अपनी दायीं जंघा से माँस काटकर उसे तराजू पर रखा, किन्तु वह कबूतर के बराबर नहीं हुआ। फिर दूसरी बर रखा तो भी कबूतर का ही पलड़ा भारी रहा। इस प्रकार क्रमशः उन्होंने अपने सभी अंगों का माँस काट-काटकर तराजू पर चढ़ाया, फिर भी कबूतर ही भारी रहा। तब राजा स्वयं ही तराजू पर चढ़ गये। ऐसा करते समय उनके मन में तनिक भी क्लेश न हुआ। यह देखकर बाज बोल उठा--- 'हो गई कबूतर की रक्षा !' और वहीं अन्तर्धान हो गया। अब राजा शिबि कबूतर से बोले---'कपोत ! यह बाज कौन था ?' कबूतर ने कहा, वह बाज साक्षात् इन्द्र थे और मैं अग्नि हूँ। राजन् ! हम दोनो तुम्हारी साधुता देखने के लये यहाँ आये थे। तुमने मेरे बदले में जो यह अपना माँस तलवार से काटकर दिया है, इसके घाव को अभी मैं अच्छा कर देता हूँ। यहाँ की चमड़ी का रंग सुन्दर और सुनहला हो जायगा तथा इससे बड़ी पवित्र और सुन्दर गंध निकलती रहेगी। तुम्हारी जंघा के इस चिह्न के पास से एक यशस्वी पुत्र उत्पन्न होगा, जिसका नाम होगा कपोतरोमा। ' यह कहकर अग्निदेव चले गये। राजा शिबि से कोई कुछ भी माँगता, वे दिये बिना नहीं रहते थे। एक बार राजा के मंत्रियों ने उनसे पूछा---'महाराज ! आप किस इच्छा से ऐसा साहस करते हैं ? अदेय वस्तु का भी दान करने को उद्यत हो जाते हैं। क्या आप यश चाहते हैं ?' राजा बोले ---नहीं, मैं यश की कामना से अथवा ऐश्वर्य के लिये दान नहीं करता। भोगों की अभिलाषा से भी नहीं। धर्मात्मा पुरुषों ने इस मार्ग का सेवन किया है, अतः मेरा भी यह कर्तव्य है---ऐसा समझकर ही मैं यह सब कुछ करता हूँ। सत्पुरुष जिस मार्ग से चले हैं, वही उत्तम है---यही सोचकर मेरी बुद्धि उत्तम पथ का ही आश्रय लेती है। मा्ण्डेयजी कहते हैं---इस प्रकार महाराज शिबि के महत्व को मैं जानता हूँ, इसलिेये मैने तुमसे उसका यथावत् वर्णन किया है।

Sunday 8 November 2015

वनपर्व---क्षत्रिय राजाओं का महत्व---सुहोत्र, शिबि और ययाति की प्रशंसा

क्षत्रिय राजाओं का महत्व---सुहोत्र, शिबि और ययाति की प्रशंसा
तदनन्तर पाण्डवों ने मार्कण्डेयजी से कहा, 'मुनिवर ! अब हम क्षत्रिय के महत्व के विषय में आपसे सुनना चाहते हैं।' मार्कण्डेयजी ने कहा---अच्छा सुनो, अब मैं क्षत्रियों का महत्व सुनाता हूँ। कुरुवंशियों में एक सुहोत्र नामके राजा हुए थे। एक दिन वे महर्षियों का सत्संग करने गये। जब रास्ते में लौटे तो सामने की ओर से उन्होंने उशीरपुत्र राजा शिबि को रथ पर आते देखा। निकट आने पर उन दोनों ने अवस्था के अनुसार एक दूसरे का सम्मान किया; परन्तु गुण में अपने को बराबर समझकर एक ने दूसरे के लिये राह नहीं दी। इतने में ही वहाँ नारदजी आ पहुँचे। उन्होंने पूछा---'क्या बात है ? तुम दोनो एक-दूसरे का मार्ग रोककर क्यों खड़े हो ?' वे बोले---मार्ग अपने से बड़े को दिया जाता है। हम दोनो तो समान हैं, अतः कौन किसको मार्ग दे ? यह सुनकर नारदजी ने तीन श्लोक पढ़े जिसका सारांश यह है---'कौरव ! अपने साथ कोमलता का वर्ताव करने वाले के लिये क्रूर मनुष्य भी कोमल बन जाता है। क्रूरता तो वह क्रूरों के प्रति ही दिखाता है। परन्तु साधु पुरुष दुष्टों के साथ भी साधुता का ही वर्ताव करता है; फिर वह सज्जनों के साथ साधुता का वर्ताव कैसे नहीं करेगा ? अपने ऊपर एक बार किये हुए उपकार का बदला मनुष्य भी सौगुना करके चुका सकता है। देवताओं में ही यह उपकार का भाव होता है, ऐसा कोई नियम नहीं है। इस उशीनरकुमार राजा शिबि का व्यवहार तुमसे अधिक अच्छा है। नीच प्रकृतिवाले मनुष्य को दान देकर वश में करें, झूठे को सत्यभाषण से जीतें, क्रूर को क्षमा से और दुष्ट को अच्छे व्यवहार से वश में करें। अतः तुम दोनो ही उदार हो; अब तुममें से एक जो अधिक उदार हो मार्ग छोड़ दे।'ऐसा कहकर नारदजी मौन हो गये। यह सुनकर कुरुवंशी राजा सुहोत्र शिबि को अपनी दायीं ओर करके उनकी प्रशंसा करते हुए चले गये। इस प्रकार नारदजी ने राजा शिबि का महत्व अपने मुख से कहा है। अब एक दूसरे राजा का महत्व सुनो। नहुष के पुत्र राजा ययाति जब राजसिंहासन पर विराजमान थे, उन्हीं दिनों एक ब्राह्मण गुरुदक्षिणा देने के लिये भिक्षा माँगने की इच्छा से उनके पास आकर बोला---'राजन् ! मैं गुरु को दक्षिणा देने के लिये प्रतिज्ञा करके आया हूँ, भिक्षा चाहता हूँ। संसार में अधिकांश मनुष्य माँगनेवालों से द्वेष करते हैं। अतः तुमसे पूछता हूँ कि क्या तुम मेरी अभिष्ट वस्तु दे सकोगे ? राजा बोले---मैं दान देकर उसका बखान नहीं करता; जो वस्तु देने योग्य है, उसको देकर अपना मुख उज्जवल करता हूँ। ऐसा कहकर राजा ने उन्होंने एक हजार गौएँ दीं और उन्होंने वह दान स्वीकार किया।

वनपर्व---इन्द्र और बक मुनि का संवाद

इन्द्र और बक मुनि का संवाद

इसके बाद धर्मराज युधिष्ठिर ने निवदन किया---मुनिवर ! सुनने में आता है कि वक और दाल्भ्य---ये दोनो महात्मा चिरंजीवी हैं और देवराज इन्द्र से इनकी मित्रता है अतः मैं वक और इन्द्र के समागम का वृतांत सुनना चाहता हूँ। आप उसका यथावत् वर्णन कीजिये। मार्कण्डेयजी बोले---एक समय देवता और असुरों में बड़ा भारी संग्राम हुआ, उसमें इन्द्र विजयी हुए और  उन्हें तीनों लोकों का साम्राज्य प्राप्त हुआ। उस समय समयपर वर्षा होने के कारण खेती की उपज अधिक होती थी। प्रजा को कोई रोग नहीं होता था और सब लोग अपने धर्म में स्थित रहते थे। सबके दिन बड़े चैन से बीत रहे थे। एक दिन की बात है, देवराज इन्द्र अपनी प्रजा को देखने के लिये ऐरावत पर चढ़कर निकले। वे पूर्व दिशा में समुद्र के समीप एक सुन्दर और सुखद स्थान पर, जहाँ हरे-भरे वृक्षों की पंक्ति शोभा दे रही थी, आकाश से नीचे उतरे। वहाँ एक बहुत सुन्दर आश्रम था, जहाँ बहुत से पक्षी और मृग दिखायी पड़ते थे। उस रमणीक आश्रम में इन्द्र ने बक मुनि का दर्शन किया। बक भी देवराज इन्द्र को देखकर बहुत प्रसन्न हुए और उनका सत्कार किया। तत्पश्चात् इन्द्र ने बक मुनि से प्रश्न किया---'ब्रह्मण् ! आपकी उम्र एक लाख वर्ष की हो गयी। अपने अनुभव से बताइये, अधिककाल तक जीवित रहनेवालों को क्या-क्या  दुःख देखना पड़ता है। बक ने कहा---अप्रिय मनुष्यों के पास रहना पड़ता है, प्रिय व्यक्तियों के मर जाने से उनके वियोग का दुःख सहते हुए जीवन बिताना पड़ता है और कभी-कभी दुष्ट मनुष्यों का संग भी प्राप्त होता रहता है; चिरंजीवी मनुष्यों को इससे बढ़कर क्या दुःख होगा ? इन्द्र ने पूछा---मुने ! अब यह बताइये, चिरंजीवी मनुष्यों को सुख किस बात में है ? बक ने कहा---जो अपने परिश्रम से उपार्जन करके घर में केवल साग बनाकर खाता है, मगर दूसरे के अधीन नहीं है, उसे ही सुख है। दूसरों के सामने दीनता न दिखाकर अपने घर में फल और साग भोजन करना अच्छा है, परन्तु दूसरे के घर तिरस्कार सहकर प्रतिदिन मीठा पकवान भी खाना अच्छा नहीं है।यही सत्पुरुषों का विचार है। जो दूसरे का अन्न खाना चाहता है, वह कुत्ते की भाँति अपमान का टुकड़ा पाता है। इस प्रकार देवाज इन्द्र और बक मुनि में बहुत देर तक बातचीत तथा उत्तम कथा-वार्ता होती रही। इसके बाद मुनि से पूछकर इन्द्र अपने भवन स्वर्गलोक को चले गये।

Wednesday 4 November 2015

वनपर्व---मार्कण्डयजी का युधिष्ठिर के लिये धर्मोपदेश

मार्कण्डयजी का युधिष्ठिर के लिये धर्मोपदेश
तदनन्तर राजा युधिष्ठिर ने पुनः मार्कण्डेयजी से पूछा, 'मुने ! प्रजा का पालन करते समय मुझे किस धर्म का आचरण करना चाहिये ? मार्कण्डेयजी बोले---राजन् ! तुम सब प्राणियों पर दया करो। सबका हित साधन करने में लगे रहो। सदा सत्य-भाषण करो। सबके प्रति विनीत और कोमल बने रहो। इन्द्रियों को वश में रखो। प्रजा की रक्षा में सदा तत्पर रहो। धर्म का आचरण और अधर्म का त्याग करो। देवताओं और पितरों की पूजा करो। यदि असावधानी के कारण किसी के मन के विपरीत कोई व्यवहार हो जाय तो उसे अच्छी प्रकार दान से संतुष्ट करके वश में करो। 'मैं सबका स्वामी हूँ, ऐसे अहंकार को कभी पास न आने दो, तुम अपने को सदा पराधीन समझते रहो।' तात युधिष्ठिर ! मैने तुम्हे जो यह धर्म बताया है, इसका भूतकाल में भी धर्मात्मा पुरुष पालन करते रहे हैं और भविष्य में भी इसका पालन आवश्यक है।तुम्हें तो सब मालुम ही है; क्योंकि इस पृथ्वी पर भूत या भविष्य ऐसा कुछ भी नहीं है, जो तुम्हे ज्ञात हो। प्रसिद्ध कुुरुवंश में तुम्हारा जन्म हुआ है; अतः मैने तुम्हे जो कुछ बताया है उसका मन, वाणी और कर्म से पालन करो। युधिष्ठिर ने कहा---द्विजवर ! आपने जो उपदेश दिया है, वह मेरे कानों को मधुर और मन को बहुत प्रिय लगा है। मैं प्रयत्नपूर्वक आपकी आज्ञा का पालन करूँगा। प्रभो !  धर्म का त्याग होता है लोभ और भय आदि से; मेरे मन में न लोभ है न भ्रम। इसी प्रकार किसी के प्रति डाह या जलन भी नहीं है। इसलिये आपने मेरे लिये जो कुछ भी आज्ञा की है, सबका पालन करूँगा। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के सहित समस्त पाण्डव तथा वहाँ आये हुए सभी ऋषि महर्षिगण बुद्धिमान मार्कण्डेयजी के मुख से धर्मोपदेश और कथाएँ सुनकर बहुत प्रसन्न हुए।

वनपर्व---कलि-धर्म एवं कल्कि अवतार

कलि-धर्म एवं कल्कि अवतार
यधिष्ठिर ने मार्कण्डेयजी से कहा---मुझे कलियुग के विषय में जानने का कौतूहल हो रहा है। कलि में संपूर्ण धर्मों का उच्छेद हो जायगा, उसके बाद क्या होगा ? कलियुग में लोगों के आहार-विहार का स्वरूप क्या होगा ? उनके पराक्रम कैसे होंगे ? लोगों की आयु क्या होगी ? पहनावे कैसे होंगे ? इन सब बातों को आप विस्तार के साथ बताइए। युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर मार्कण्डेयजी श्रीकृष्ण और पाण्डवों से पुनः कहने लगे---राजन् ! सुनो, सतयुग में धर्म अपने संपूर्ण रूप में प्रतिष्ठित होता है। उसमें छल-कपट या दंभ नहीं होता। उस समय धर्म रुपी वृक्ष के चारों चरण मौजूद रहते हैं। त्रेता युग में एक अंश में अधर्म अपना पैर जमा लेता है; इससे धर्म का एक पैर क्षीण हो जाता है और तीन ही पैरों पर वह स्थित रहता है। द्वापर में धर्म आधा ही रह जाता है, आधे में अधर्म आकर मिल जाता है। फिर तमोमय कलियुग के आने पर तीन अंशों से जगत् पर अधर्म का आक्रमण होता है, चौथाई अंश में ही धर्म रह जाता है। सतयुग के बाद ज्यों-ज्यों दूसरा युग आता है त्यों-ही-त्यों मनुष्य की आयु, बुद्धि, बल और तेज कम होने लगता है। युधिष्ठिर ! कलियुग में सभी वर्ग के लोग भीतर कपट रखकर धर्म का आचरण करेंगे। मनुष्य धर्म का जाल रचकर लोगों को अधर्म में फसायेंगे। अपने को पण्डित मानने वाले लोग सत्य का गला घोटेंगे। सत्य की हानि होने से उनकी आयु थोड़ी हो जायगी। आयु की कम के कारण वे पूर्ण विद्या का उपार्जन नहीं कर सकेंगे। विद्याहीन होने से अज्ञानी मनुष्यों को लोभ दबा लेगा। लोभ और क्रोध के वशीभूत हुए मूढ़ मनुष्य कामनाओं में आसक्त होंगे। इससे उनमें आपस में बैर बढ़ेगा, फिर वे एक-दूसरे के प्राण लेने की घात में लगे रहेंगे। सभी वर्ग के लोग आपस में संतानोत्पादन करके वर्णसंकर हो जायेंगे; इनका विभागकरना कठिन हो जायेगा। ये सभी सत्य और तप का परित्याग करके नीच काम करेंगे। कलियुग के अन्त में संसार की ऐसी ही दशा होगी। वस्त्रों में सनके बने हुए वस्त्र अच्छे समझे जायेंगे। उस समय पुरुषों के केवल स्त्रियों से मित्रता होगी। लोग मछली-मांस खायेंगे और बकरी-भेंड़ का दूध पियेंगे। गौओं का तो दर्शन दुर्लभ हो जायगा। लोग एक-दूसरे को लूटेंगे, मारेंगे। भगवान का कोई नाम नहीं लेगा। सभी नास्तिक और चोर होंगे। पशुओं के अभाव में खेती-बारी चौपट हो जायगी। सारा जगत् म्लेच्छवत् व्यवहार करेगा, सत्कर्म और यज्ञ आदि का कोई नाम भी न लेगा। समस्त विश्व आनन्दहीन, उत्सवशून्य हो जायगा। लोग प्रायः दीनों, असहायों का धन हर लेंगे।  लोग मान एवं अहंकार में चूर रहेंगे। लोगों को दया नहीं आवेगी। न तो कोई किसी से कन्या की याचना करेगा और न कोई कन्यादान ही करेंगे। कलियुग के वर-कन्या अपने-आप ही स्वयंवर कर लेंगे।अपने सगे-संबंधी ही धनका हरण करनेवाले हो जायेंगे। सब एक जाति के हो जायेंगे। भक्ष्याभक्ष्य का विचार छोड़कर सब लोग एक सा ही आहार करेंगे। स्त्री और पुरुष---सब स्वेच्छाचारी होंगे; वे एक-दूसरे के कार्य और विार को सहन नहीं कर सकेंगे। न कोई किसी का उपदेश सुनेगा न कोई किसी का गुरु होगा। सब अज्ञान में डूबे रहेंगे। उस समय मनुष्य की अधिक-से-अधिक आयु सोलह वर्ष की होगी। अपने पति से स्त्री और और अपनी पत्नी से पुरुष संतुष्ट न होंगे। दोनो ही अतृप्त रहकर परपुरुष और परस्त्री का सेवन करेंगे।व्यापार में क्रय-विक्रय के समय लोभ के कारण सभी सबको ठगेंगे। क्रिया के तत्व को न जानकर भी उसे करने में प्रवृत होंगे। सभी स्वभावतः क्रूर और एक-दूसरे पर अभियोग लगानेवाले होंगे। लोग बगीचे और वृक्ष कटवा डालेंगे, इसके लिये उनके हृदय में तनिक भी पीड़ा न होगी। प्रत्येक मनुष्य के जीवन पर भी संदेह हो जायगा। प्रजा सर्वदा टैक्स के भारी भार से दबी रहेगी।समस्त लोक का व्यवहार विपरीत और उलट-पुलट हो जायगा। लोग हड्डी जुड़ी हुई दीवारों की पूजा करेंगे, देवमूर्तियों की नहीं। उस समय के द्विजातियों की सेवा नहीं करेंगे। महर्षियों के आश्रम, देवस्थान, धर्मसभा आदि सभी स्थानों की भूमि हड्डियों से जुड़ी हुई होगी। देवमन्दिर कहीं नहीं होंगे। यही सब युगान्त की पहचान है। जिस समय अधिकांश मनुष्य धर्महीन, माँसभोजी और शराब पीनेवाले होंगे, उसी समय इस युग का अन्त होगा। उस समय बिना समय के वर्षा होगी। शिष्य गुरुओं का अपमान करेंगे, सदा उनका अहित करेंगे। आचार्य धनहीन होंगे। उन्हें शिष्यों की फटकार सुननी होगी। धन के लालच से ही मित्र और सम्बन्धी अपने निकट रहेंगे। युगान्त आने पर समस्त प्राणियों का अभाव हो जायगा। सारी दिशाएँ प्रज्जवलित हो उठेंगी। तारों की चमक जाती रहेगी। नक्षत्र और ग्रहों की गति विपरीत हो जायगी। लोगों को व्याकुल करनेवाली प्रचण्ड आँधियाँ उठेंगी, महान् भय की सूचना देनेवाले उल्कापात अनेकों बार होंगे। एक सूर्य तो हैं ही, छः और उदय होंगे और सातों एक साथ तपेंगे। कड़कती हुई बिजली गिरेगी, सब दिशाओं में आग लगेगी। उदय और अस्त के समय सूर्य राहू से ग्रस्त दिखेगा। इन्द्र बिना समय की ही वर्षा करेगा। बोयी हुई खेती उगेगी ही नहीं। स्त्रियाँ कठोर स्वभाववाली और कटुभाषिणी होंगी। उन्हें रोना ही अधिक पसंद होगा। वे पति की आज्ञा में नहीं रहेंगी। पुत्र माता-पिता की हत्या करेगा। पत्नी अपने बेटे से मिलकर पति का वध कर डालेगी। अमावस्या के बिना ही सूर्यग्रहण लगेगा। पथिकों को माँगने पर भी कहीं अन्न, जल और ठहरने के लिये स्थान नहीं मिलेगा; वे सब ओर से कोरा जवाब पाकर निराश होकर रास्ते पर ही पड़े रहेंगे। कौए, हाथी, पशु-पक्षी और मृग आदि युगान्त के समय बड़ी कठोर वाणी बोलेंगे। मनुष्य मित्रों, सम्बन्धियों और अपने कुटुम्ब के लोगों को भी त्याग देंगे। स्वदेश त्यागकर परदेश का आश्रय लेंगे। सभी लोग 'हा तात !,  हा बेटा !' इस प्रकार दर्दभरी पुकार मचाते हुए भूमण्डल में भटकते फिरेंगे। युगान्त में संसार की यही अवस्था होगी। उस समय एक बार इस लोक का संहार होगा।इसके बाद कालान्तर में सत्ययुग का आरम्भ होगा, क्रमशः अच्छे कर्मों को करनेवाले शक्तिशाली होंगे। लोक के अभ्युदय के लिये पुनः दैव की अनुकूलता होगी। जब सूर्य, चन्द्रमा और वृहस्पति एक ही राशि मे---एक ही पुष्य नक्षत्र पर एकत्र होंगे, उस समय सत्ययुग का प्रारम्भ होगा।फिर तो मेघ समयपर पानी बरसायेंगे। नक्षत्रों में तेज आ जायगा। ग्रहों की गति अनुकूल हो जायगी। सबका मंगल होगा तथा सुभिक्ष और आरोग्य का विस्तार होगा। उस समय काल की प्ररणा से शम्भल नामक ग्राम के अन्तर्गत विष्णुयशा नामक गृहपति के घरमें एक बालक उत्पन्न होगा, उसका नाम होगा कल्कि विष्णुयशा। वह बालक बहुत ही बुद्धिमान, बलवान् और पराक्रमी होगा। मन के द्वारा चिन्तन करते ही इच्छानुसार उसके पास वाहन, अस्त्र-शस्त्र, योद्धा और कवच उपस्थित हो जायेंगे। वह दुष्टों का नाश करके सतयुग का प्रवर्तक बनेगा। धर्म के अनुसार विजय प्राप्त कर वह चक्रवर्ती राजा होगा और इस संपूर्ण जगत् को आनन्द प्रदान करेगा।