Monday 21 May 2018

द्रोणपर्व कर्ण का युद्ध को लिये तैयार होना तथा द्रोणाचार्य का सेनापति पद पर अभिषेक

नारायणं नमस्कृत्यं नरं चैव नरोत्तम्। देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्।।
अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, उनके नित्यसखा नरस्वरूप अर्जुन,  उनकी लीला प्रकट करनेवाली भगवती सरस्वती और उनके वक्ता महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके आखिरी संपत्तियों पर विजयप्राप्तिपूर्वक अंतःकरण को शुद्ध करनेवाले महाभारत ग्रंथ का पाठ करना चाहिये।
राजा जन्मेजय ने पूछा___ ब्रह्मण् ! पितामह भीष्म को पांचालकुमार शिखण्डी के हाथ से मारा गया सुनकर राजा धृतराष्ट्र तथा उनके पुत्र दुर्योधन ने क्या किया ? यह सब प्रसंग आप मुझे सुनाइये।
वैशम्पायनजी बोले___राजन् ! भीष्मजी की मृत्यु का समाचार सुनकर राजा धृतराष्ट्र एकदम चिंता और शोक में डूब गये। उनकी सारी शान्ति नष्ट हो गयी। रात_दिन उन्हें दुःख ही का विचार रहने लगा। इतने में उनके पास विशुद्धहृदय संजय आया। वह कौरवों की छावनी से रात ही में हस्तिनापुर पहुँचा था। उससे भीष्मजी के मृत्यु का विवरण सुनकर राजा धृतराष्ट्र को बड़ा ही खेद हुआ। वे आतुर होकर रोने लगे और फिर पूछा, ‘तात ! महात्मा भीष्मजी के लिये अत्यन्त शोकातुर होकर फिर कौरवों ने क्या किया ? वीर पाण्डवों की विशाल और विजयिनी वाहिनी तो तीनों लोकों में अत्यन्त भय उत्पन्न कर सकती है। अब भला, दुर्योधन की सेना में कौन महारथी है, जिसकी उपस्थिति में ऐसा महान् भय सामने आने पर भी वीरों का धैर्य बना रहे।‘
संजय ने कहा___राजन् ! भीष्मजी के मारे जाने के बाद आपके पुत्रों ने क्या_क्या किया, यह आप ध्यान देकर सुनिये। उनका निधन होने पर कौरव और पाण्डव दोनों ही अलग विचार करने लगे। उन्होंने क्षात्रधर्म की निंदा करते हुए महात्मा भीष्मजी को प्रणाम किया, फिर उनकी रक्षा का प्रबंध कर आपस में उन्हीं की चर्चा करते रहे। तदनन्तर पितामह की आज्ञा होने पर उनकी प्रदक्षिणा करके वे फिर आपस में युद्ध करने के लिये कमर कसकर चल दिये। थोड़ी ही देर में तुरही और भेरियों की ध्वनि को साथ आपके पुत्रों की और पाण्डवों की सेनाएँ युद्ध करने के लिये निकल पड़ीं।राजन् ! आपके पुत्र और आपकी नासमझी के कारण तथा भीष्मजी का वध हो जाने से अब कौरव और उनके पक्ष के सब राजा मृत्यु के समीप आ पहुँचे हैं। भीष्मजी को खोकर उन सभी को बड़ा शोक हुआ है। उनके न रहने से कौरवों की सेना अनाथ_सी हो गयी है। जिस प्रकार कोई आपत्ति आ पड़ने पर अपने बन्धु याद आने लगते हैं, उसी प्रकार अब कौरव_वीरों का ध्यान कर्ण की ओर गया; क्योंकि वह भीष्मजी के समान गुणवान् तथा समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ और अग्नि के समान तेजस्वी था। कर्ण दो रथियों के बराबर था, किन्तु भीष्मजी ने बलवान् और पराक्रमी रथियों की गणना करते समय उसे अर्धरथी ठहराया था। इसलिये दस दिन तक, जबतक कि पितामह ने युद्ध किया, महायशस्वी कर्ण ने  संग्रामभूमि में पैर नहीं रखा था। अब सत्यप्रतिज्ञ भीष्मजी के धराशायी होने पर आपके पुत्रों ने कर्ण को याद किया और वे ‘अब तुम्हारे लड़ने का समय आ गया है’ ऐसा कहकर ‘कर्ण ! ‘कर्ण !’ पुकारने लगे।अब महारथी कर्ण समुद्र में डूबती नौका के समान आपके पुत्र की सेना को इस आपत्ति से  पार करने के लिये तुरंत ही कौरवों के पास आया और उनसे कहने लगा, ‘भीष्मजी में धैर्य, बुद्धि, पराक्रम, ओज,  सत्य, स्मृति आदि सभी वीरोचित गुण थे। उनके पास अनेकों दिव्य अस्त्र भी थे। साथ ही नम्रता, लज्जा, मधुर भाषण और सरलता की भी उनमें कमी नहीं थी। वे दूसरे के उपकारों को याद रखनेवाले और विप्रविद्वेषियों के विरोधी थे। उनके शान्त हो जाने से तो मुझे सब वीरों का अन्त हुआ_सा ही दिखायी देता है।‘ ऐसा कहकर तथा महाप्रतापी भीष्म के निधन और कौरवों की पराजय का विचार करके कर्ण रो बड़ा ही खेद हुआ और वह आँखों में आँसू भरकर लम्बे_लम्बे साँस लेने लगा।कर्ण के ये वचन सुनकर आपके पुत्र और सैनिक लोग भी आपस में शोक प्रकट करने लगे और अत्यन्त आतुर होकर आँखों से आँसू बहाते हुए ढाढ़ मारकर रोने लगे। तब रथियों में श्रेष्ठ कर्ण ने अन्य महारथियों का उत्साह बढ़ाते हुए कहा, ‘भीष्मजी के गिर जाने से कोई सेनापति न रहने के कारण कौरवों की सेना बहुत घबरायी हुई है, शत्रुओं ने इसे निरुत्साह और अनाथ कर दिया है। किन्तु अब मैं भीष्मजी की तरह ही  इसकी रक्षा करूँगा। मैं अनुभव करता हूँ कि अब यह सारा भार मेरे ऊपर ही है। मैं रणभूमि में घूम-घूमकर अपने बाणों से पाण्डवों को यमराज के घर भेज दूँगा और सारे संसार में अपना महान् यश प्रकट करके रहूँगा। फिर अपने सारथिसेे कहा, ‘सूत ! तू मुझे कवच और शीर्षत्राण पहना तथा शीघ्र ही मेरे रथ को सोलह तरकस, दिव्य धनुष, तलवार, शक्ति, गदा और शंख आदि सभी सामग्रियों से सजाकर घोड़े जोतकर ले आ।‘संजय कहता है__राजन् ! ऐसा कहकर कर्ण युद्ध की सामग्री से भरे हुए, ध्वजा पताकाओं से सुशोभित एक सुन्दर रथ पर चढ़कर विजय प्राप्त करने के लिये चला और सबसे पहले शर_शैय्या पर पौढ़े हुए अतुलित तेजस्वी महात्मा भीष्मजी के पास पहुँचा। उन्हें देखकर कर्ण व्याकुल हो गया। उसने रथ से उतरकर हाथ जोड़कर भीष्मजी को प्रणाम किया और फिर नेत्रों में जल भरकर लड़खड़ाती जबान से कहा, ‘भरतश्रेष्ठ ! मैं कर्ण हूँ। आपका कल्याण हो, आप अपनी पवित्र दृष्टि से मेरी ओर निहारिये और अपने शांतिपूर्ण शब्दों से मुझे अनुगृहीत कीजिये। मुझे धनसंग्रह, मंत्रणा, व्यूहरचना और शस्त्रसंचालन में आपके समान कौरवों और कोई दिखायी नहीं देता। आपके सिवा ऐसा और कौन है, जो अर्जुन के साथ लोहा ले सके। बड़े_बड़े बुद्धिमानों का यही कथन है कि अर्जुन के पास अनेकों दिव्य अस्त्र हैं और वह निवातकवचादि अमानवों से तथा स्वयं महादेवजी से भी युद्ध कर चुका है। साथ ही उसने भगवान् शंकर से अजितेन्द्रिय पुरुषों के लिये दुर्लभ वर भी प्राप्त किया है। तो भी आपकी आज्ञा होने पर तो मैं आज ही अपने पराक्रम से उसे नष्ट कर सकता हूँ।‘
राजन् ! कर्ण के इस प्रकार कहने पर कुरुवृद्ध पितामह ने प्रसन्न होकर देश और काल के अनुसार कहा, ‘कर्ण ! तुम शत्रुओं का मान मर्दन करनेवाले और मित्रों का आनन्द बढ़ानेवाले होओ। भगवान् विष्णु जैसे देवताओं के आश्रय हैं, उसी प्रकार तुम कौरवों के आधार बनो। दुर्योधन के जय की इच्छा से तुमने अपने बाहुबल से उत्कल, मेकल, पौण्ड्र, कलिंग, अन्ध्र, निषाद, त्रिगर्त और बाह्लीक आदि देशों के राजाओं को परास्त किया था। इनके सिवा जगह_जगह और भी अनेकों वीरों को तुमने नीचा दिखाया था। भैया, देखो जैसे दुर्योधन सब कौरवों का कर्णधार है, उसी प्रकार तुम भी उसे पूरा आश्रय देना। जाओ, मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ; तुम शत्रुओं के साथ संग्राम करो, युद्ध में कौरवों के पथ_प्रदर्शक बनो और दुर्योधन को जय प्राप्त कराओ। दुर्योधन के तरह तुमभी मेरे पौत्र के समान ही हो। धर्मतः जैसे मैं उसका हितैषी हूँ, वैसे ही तुम्हारा भी हूँ।‘
भीष्मजी की यह बात सुनकर कर्ण ने उनके चरणों में प्रणाम किया और फिर वह सेना की ओर चला गया और उसे उत्साहित किया। कर्ण को सब सेना के आगे आता देखकर दुर्योधनादि समस्त कौरवों को बड़ा हर्ष हुआ। वे ताल ठोंककर, उछल_उछलकर, सिंहनाद करके और तरह_तरह से धनुषों की टंकार करके कर्ण का स्वागत करने लगे। फिर उससे दुर्योधन ने कहा, ‘कर्ण ! अब तुम हमारी सेना के रक्षक हो, इसलिये मैं इसे सनाथ समझता हूँ। तुम इस बात का निर्णय करो कि क्या करने से हमारा हित हो सकता है।‘ कर्ण ने कहा___राजन् ! आप तो बड़े बुद्धिमान हैं, आप अपना विचार कहिये; क्योंकि स्वयं राजा कर्तव्य का जैसा ठीक_ठीक निर्णय कर सकते हैं, वैसा कोई दूसरा पुरुष नहीं कर सकता। इसलिये हम आपकी ही बात सुनना चाहते हैं। दुर्योधन ने कहा___पहले आयु, बल और विद्या में बढ़े_चढ़े पितामह भीष्म हमारे सेनापति थे। उन्होंने सब योद्धाओं को साथ रखते हुए शत्रुओं का संहार किया और भीषण युद्ध करते हुए दस दिन तक हमारी रक्षा की। अब वे तो स्वर्गवास की तैयारी में हैं, अतः उनके स्थान पर तुम्हारे विचार से किसे सेनापति बनाना उचित होगा ? नायक के बिना तो सेना एक मुहूर्त भी नहीं ठहर सकती। जिस प्रकार बिना मल्लाह का नौका और बिना सारथि का रथ चाहे जिधर चलने लगते हैं, उसी प्रकार बिना सेनापति की सेना बेकाबू हो जाती है। इसलिये मेरे पक्ष के सब वीरों पर दृष्टि डालकर तुम यह निश्चय करो कि भीष्म के बाद कौन उपयुक्त सेनापति होगा। इस पद के लिये तुम जिसे कहोगे, उसी को हम सहर्ष अपना सेनापति बनायेंगे। कर्ण बोला___ यहाँ जितने राजालोग उपस्थित हैं, वे सभी बड़े महानुभाव हैं और निःसंदेह इस पद के योग्य हैं। से सभी कुलीन, गठीले शरीरवाले, युद्धकला में कुशल तथा बल, पराक्रम और बुद्धि से सम्पन्न हैं; सभी शास्त्रज्ञ, बुद्धिमान और युद्ध में पीठ न दिखानेवाले हैं। किन्तु एक साथ सभी को तो सेनानायक नहीं बनाया जा सकता। इसलिये जिस एक में सबसे अधिक गुण हों, उसी को इस पद पर नियुक्त करना चाहिये। मेरे विचार से तो समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ आचार्य द्रोण को ही सेनापति बनाना उचित है; क्योंकि ये सभी योद्धाओं के आचार्य और गुरु हैं तथा वयोवृद्ध भी हैं। ये साक्षात् शुक्राचार्य और वृहस्पति के समान हैं तथा इन्हें कोई परास्त भी नहीं कर सकता। अत: इनके रहते और कौन हमारा सेनापति हो सकता है ? आपके ये गुरुदेव सभी सेनानायकों में, सभी शस्त्रधारियों में और सभी बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं। इस प्रकार देवताओं  ने स्वामी कार्तिकेयजी को अपना सेनाध्यक्ष बनाया था, उसी प्रकार आप इन्हें अपना सेनापति बनाइये।
कर्ण की यह बात सुनकर दुर्योधन ने सेना के बीच में खड़े हुए आचार्य द्रोण के पास जाकर कहा, ‘भगवन् ! वर्ण, कुल, उत्पत्ति, विद्या, आयु, बुद्धि, पराक्रम, युद्धकौशल, अजेयता, अर्थज्ञान, नीति, विजय, तपस्या और कृतज्ञता आदि सभी गुणों में आप सबसे बढ़े_चढ़े हैं। आपके समान राजाओं में भी हमारा कोई रक्षक नहीं है। अतः इन्द्र जिस प्रकार देवताओं की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप हमारी रक्षा कीजिये। हम आपके नेतृत्व में ही शत्रुओं पर विजय करना चाहते हैं। अतः आप हमारे सेनापति बनने की कृपा करें। यदि आप हमारे सेनापति हो जायेंगे, तो हम अवश्य ही राजा युधिष्ठिर और उनके अनुयायी और बन्धु_बान्धवोंसहित जीत लेंगे।‘ दुर्योधन के इस प्रकार कहने पर उसे हर्षित करते हुए सब राजाओं ने द्रोणाचार्य का जय_जयकार किया। वे सब द्रोणाचार्य का उत्साह बढ़ाने लगे। तब आचार्य ने दुर्योधन से कहा, ‘राजन् ! मैं छहों अंगयुक्त वेद, मनुजी का कहा हुआ अर्थशास्त्र, भगवान् शंकर की दी हुई बाणविद्या और कई प्रकार के अस्त्र_शस्त्र जानता हूँ। तुमने विजय की अभिलाषा से मुझमें जो_जो गुण बताये हैं, उन सभी को निभाता हुआ मैं पाण्डवों के साथ संग्राम करूँगा। किंतु मैं द्रुपदपुत्र धृष्टधुम्न का वध किसी प्रकार नहीं कर सकूँगा; क्योंकि उसकी उसकी उत्पत्ति तो मेरे ही वध के लिये हुई है।‘ राजन् ! इस प्रकार आचार्य की अनुमति मिलने पर आपके पुत्र दुर्योधन ने उन्हें विधिपूर्वक सेनापति के पद पद पर अभिषिक्त किया। उस समय बाजों के घोष और शंखों की ध्वनि से सब लोगों ने हर्ष प्रकट किया तथा पुण्याहवाचन, स्वस्तिवाचन, सूर और मागधों के स्तुतिगान और ब्राह्मणों के जय_जयकार से आचार्य का सम्मान किया गया। द्रोण के सेनापति होने से सब लोग यही समझने लगे कि हमने पाण्डवों को जीत लिया।

Monday 7 May 2018

भीष्मजी के पास जाकर सब राजाओं का तथा कर्ण का मिलना

धृतराष्ट्र ने कहा__संजय ! भीष्मजी महाबली और देवता के समान थे, उन्होंने अपने पिता के लिये आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया था। उस समय रणभूमि में उनके गिर जाने से हमारे योद्धाओं की क्या गति हुई होगी ? भीष्मजी ने अपनी दयालुता के कारण जब शिखण्डी पर बाणों का प्रहार नहीं करने का निश्चय किया,  तभी मैं समझ गया था कि अब पाण्डवों के हाथ से कौरव अवश्य मारे जायँगे। हाय ! मेरे लिये इससे बढ़कर दुःख की बात क्या होगी, जो आज अपने पिता के मरण का समाचार सुन रहा हूँ ! वास्तव में मेरा हृदय वज्र का बना हुआ है, तभी तो आज भीष्मजी मृत्यु की बात सुनकर भी इसके सैकड़ों टुकड़े नहीं हो जाते। संजय ! कुरुश्रेष्ठ भीष्मजी जिस समय मारे गये, उसके बाद यदि उन्होंने कुछ किया हो तो वह भी मुझे बताओ। संजय बोला___सायंकाल में जब भीष्मजी रणभूमि में गिरे, उस समय कौरवों को बड़ा दुःख हुआ और पांचालदेशीय योद्धा आनन्द मनाने लगे। भीष्मजी बाणों की शय्या पर सोये हुए थे। उस समय आपका पुत्र दुःशासन बड़े वेग से द्रोणाचार्य की सेना में गया। उसे आते देख कौरव_सैनिक मन_ही_मन यह सोचकर कि ‘देखें, यह क्या कहता है ?’ उसे चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये। दुःशासन ने द्रोणाचार्य को भीष्म की मृत्यु का समाचार सुनाया। यह अप्रिय संवाद सुनते ही आचार्य मूर्छित हो गये। थोड़ी देर में जब सचेत हुए तो उन्होंने अपनी सेना को युद्ध बन्द करने की आज्ञा दी। कौरवों को लौटते देख पाण्डवों ने भी घुड़सवार दूतों के द्वारा सब ओर फैली हुई अपनी सेना को युद्ध से रोक दिया। क्रमशः सब सेना के लौट जाने पर राजा अपने_अपने कवच और अस्त्र_शस्त्र उतारकर भीष्मजी के पास पहुँचे। कौरव और पाण्डव दोनों ही पक्ष के लोग भीष्मजी को प्रणाम करके वहाँ खड़े हो गये।
उस समय धर्मात्मा भीष्मजी ने अपने सामने खड़े राजाओं को संबोधित करके कहा___’महान् सौभाग्यशाली महारथियों ! मैं आपलोगों का स्वागत करता हूँ। देवोपम वीरों ! इस समय आपके दर्शन से मुझे बड़ा संतोष हुआ है।‘ इस तरह सबका अभिनन्दन करके भीष्मजी ने पुनः कहा___’मेरा मस्तक नीचे लटक रहा है, आपलोग इसके लिये कोई तकिया ला दीजिये।‘ यह सुनकर राजालोग बहुत कोमल और उत्तम_उत्तम तकिये ले आये, परन्तु पितामह को वे पसंद नहीं आये। उन्होंने हँसकर कहा___’राजाओं ! ये तकिये वीरशय्या के योग्य नहीं हैं।‘ इसके बाद उन्होंने अर्जुन की ओर देखकर कहा___’बेटा धनन्जय ! मेरा मस्तक लटक रहा है, इसके लिये शीघ्र ही इस बिछौने के अनुरूप एक तकिया ला दो। तुम सब धनुर्धरों में श्रेष्ठ और शक्तिशाली हो। तुम्हें क्षत्रियधर्म का ज्ञान है और तुम्हारी बुद्धि निर्मल है, अतः तुम्हीं यह कार्य कर सकते हो।‘
अर्जुन ने भी ‘बहुत अच्छा’ कहकर इस आज्ञा को स्वीकार किया और भीष्मजी की अनुमति ले अपना गाण्डीव धनुष उठाया। उस पर तीन अभिमंत्रित बाणों को रखकर उन्होंने उन्हें मारकर भीष्मजी का मस्तक ऊँचा कर दिया ‘मेरा अभिप्राय अर्जुन की समझ में आ गया’ यह सोचकर भीष्मजी बड़े प्रसन्न हुए। उनके दिये हुए इस वीरोचित तकिये को पाकर भीष्मजी ने अर्जुन की प्रशंसा करते हुए कहा___’पाण्डुनन्दन ! तुमने इस शैय्या के योग्य तकिया लगा दिया। यदि ऐसा न करते तो मैं क्रोध में आकर तुम्हें शाप दे देता। महाबाहो ! अपने धर्म में स्थित रहनेवाले क्षत्रिय को संग्रामभूमि में इसी प्रकार शर_शय्या पर शयन करना चाहिये। अर्जुन से यों कहकर भीष्मजी ने अन्य राजा और राजकुमारों से कहा___’देखिये आपलोग, अर्जुन ने कैसा बढ़िया तकिया लगा दिया। अब मैं जबतक सूर्य उत्तरायण में नहीं आते, तब तक इस शय्या पर पड़ा रहूँगा। उस समय जो लोग मेरे पास आयेंगे, वे मेरी परलोक_यात्रा देख सकेंगे। मेरे आस_पास की भूमि में खाई खुदवा देनी चाहिये। इन सैकड़ों बाणों से बिंधा हुआ ही मैं सूर्यदेव की उपासना करूँगा। राजाओं ! अन्त में मेरी प्रार्थना यह है कि आपलोग अब आपस का वैर छोड़कर युद्ध बन्द कर दीजिये।‘ तदनन्तर, शरीर से बाण निकालने में कुशल सुशिक्षित वैद्य अपने साज_समान के साथ भीष्मजी की चिकित्सा के लिये वहाँ उपस्थित हुए। उन्हें देखकर भीष्मजी ने आपके पुत्र से कहा___’दुर्योधन ! इन चिकित्सकों को धन देकर सम्मान के साथ विदा कर दो। इस अवस्था पहुँच जाने पर अब मुझे वैद्यों से क्या काम है ? क्षत्रियधर्म में जो सर्वोत्तम गति है, वह मुझे प्राप्त हुई है; बाणशय्या पर शयन करने के पश्चात् अब चिकित्सा कराना मेरा धर्म नहीं है। इन बाणों के साथ ही मेरा दाह_संस्कार होना चाहिये।‘ पितामह की बात सुनकर दुर्योधन ने वैद्यों को धन आदि से सम्मानित करके विदा कर दिया। नाना देशों के राजा वहाँ जुटे हुए थे, वे भीष्मजी की यह धर्मनिष्ठा और साहस देखकर बहुत विस्मित हुए। इसके बाद कौरवों और पाण्डवों ने बाणशय्या पर सोया हुए भीष्मजी की तीन बार प्रदक्षिणा करके उन्हें प्रणाम किया और उनकी रक्षा प्रबंध करके वे सब लोग अपने_ अपने शिविर में लौट आये। महारथी पाण्डव  अपनी छावनी में प्रसन्न होकर बैठे थे, इसी समय भगवान् श्रीकृष्ण ने आकर युधिष्ठिर से कहा___’राजन् ! बड़े सौभाग्य की बात है , जो आपकी जीत हो रही है। धन्य भाग, जो भीष्मजी मारे गये। ये महारथी संपूर्ण शास्त्रों के पारगामी थे। मनुष्यों से तो ये अवध्य थे ही, देवता भी इन्हें नहीं जीत सकते थे। किन्तु आपके तेज से ये दग्ध हो गये।‘ युधिष्ठिर ने कहा___’कृष्ण ! विजय तो आपकी कृपा का फल है। आप भक्तों का भय दूर करनेवाले हैं और हमलोग आपकी शरण में पड़े हैं। जिनकी रक्षा आप करते हैं, उनकी यदि विजय हो तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मेरा तो ऐसा विश्वास है, जिसने सर्वथा आपका आश्रय लिया है उसके लिये कोई भी बात आश्चर्यजनक नहीं है।‘ उनके ऐसा कहने पर भगवान् मुस्कराते हुए बोले___’यह कथन आपके ही अनुरूप है।‘ संजय ने कहा___राजन् ! रात बीती और सबेरा हुआ, तो कौरव और पाण्डव पितामह भीष्म के निकट उपस्थित हुए । उन्होंने वीर_शय्या पर सोया हुए पितामह को प्रणाम किया और सभी उनके पास खड़े जो गये। हजारों कन्याओं ने वहाँ आकर भीष्म के शरीर पर चन्दन, रोली, खील और फूल की मालाएँ चढ़ाकर उनकी पूजा कीं। दर्शकों में स्त्री, बूढ़े, बालक, ढोल पीटनेवाले, मच, नर्तक और शिल्पी आदि सभी श्रेणी के लोग थे। सभी बड़ी श्रद्धा से उनका दर्शन करने आये थे। कौरव और पाण्डव भी युद्ध बन्द करके कवच तथा हथियार अलग रखकर प्रेम के साथ अपनी_अपनी अवस्था के क्रम ले पितामह के पास बैठे थे।
बाणों के घाव से भीष्मजी का शरीर जल रहा था, पीड़ा से उन्हें मूर्छा आ जाती थी; उन्होंने बड़ी कठिनाई से राजाओं की ओर देखकर कहा ‘पानी चाहिये।‘ सुनते ही क्षत्रियलोग उठे और चारों ओर से उत्तमोत्तम भोजन की सामग्री तथा ठण्डे जल से भरे हुए घड़े लाकर उन्होंने भीष्मजी को अर्पण किये। यह देख भीष्मजी बोले___’अब मैं पहले भोगे हुए किसी मानवीय भोग तो स्वीकार नहीं करूँगा; क्योंकि अब मैं मानवलोक से अलग होकर बाण_शय्या पर शयन कर रहा हूँ।‘ यह कहकर वे राजाओं की बुद्धि की निंदा करते हुए बोले__’ इस समय अर्जुन को देखना चाहता हूँ।‘
यह सुनकर अर्जुन तुरंत उनके निकट पहुँचे और प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़े हुए विनीत भाव से खड़े होकर बोले__’दादाजी ! मेरे लिये क्या आज्ञा है ?’ अर्जुन को सामने देख धर्मात्मा भीष्म ने प्रसन्न होकर कहा__बेटा ! तुम्हारे बाणों से मेरा शरीर जल रहा है। मर्मस्थानों में बड़ी पीड़ा हो रही है। मुँह सूखा जाता है। मुझे पानी दो। तुम समर्थ हो, तुम्हीं मुझे विधिवत् जल पिला सकते हो।‘ अर्जुन ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर पितामह की आज्ञा स्वीकार की और अपने रथ पर बैठकर उन्होंने गाण्डीव धनुष चढ़ाया। उस धनुष की टंकार सुनकर सभी प्राणी थर्रा उठे और राजाओं को बड़ा भय हुआ। अर्जुन ने रथ के द्वारा ही पितामह की परिक्रमा की और एक दमकता हुआ बाण निकाला, फिर मंत्र पढ़कर उसे पांचजन्य_ अस्त्र से संयोजित किया। इसके बाद सबके देखते_देखते उन्होंने भीष्म के बगलवाली जमीन पर वह बाण मारा। उसके लगते ही पृथ्वी से अमृत के समान मधुर तथा दिव्य गन्ध और दिव्य रस से युक्त शीतल जल की निर्मल धारा निकलने लगी। उससे अर्जुन ने दिव्य कर्म करनेवाले पितामह भीष्म को तृप्त किया। अर्जुन का यह अलौकिक कर्म देखकर वहाँ बैठे हुए राजाओं को बड़ा विस्मय हुआ। वे सब_के_सब भय से काँपने लगे। उस समय चारों ओर शंख और दुंदुभियों की तुमुल ध्वनि गूँज उठी। भीष्मजी ने तृप्त होकर सबके सामने अर्जुन की प्रशंसा करते हुए कहा__’महाबाहो ! तुममें ऐसा पराक्रम होना आश्चर्य की बात नहीं है। मुझे नारदजी ने पहले से ही बता दिया है कि तुम पुरातन ऋषि नर हो और इन भगवान् नरायण की सहायता से बड़े_बड़े कार्य करोगे, जिन्हें इन्द्र आदि देवता भी करने का साहस नहीं कर सकते। तुम इस भूमण्डल में एकमात्र सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर हो। इस युद्ध को रोकने के लिये मैंने तथा विदुर, द्रोणाचार्य, परशुराम, भगवान् श्रीकृष्ण और संजय ने भी बार_बार कहा; किन्तु दुर्योधन ने किसी की नहीं सुनी। उसकी बुद्धि विपरीत हो गयी है; वह बेहोश_सा रहता है, किसी की बात पर विश्वास नहीं करता। सदा शास्त्र के प्रतिकूल आचरण करता है। खैर, इसका फल इसे मिलेगा; भीमसेन के बल से अपमानित होकर यह मारा जायगा और सदा के लिये रणभूमि में सो रहेगा।‘ भीष्मजी की यह बात सुनकर दुर्योधन का मन बहुत दुःखी हो गया। उसे देखकर पितामह ने कहा___ ‘ राजन् ! क्रोध छोड़ दो और मेरी बात पर ध्यान दो। यह तो तुमने देखा न, अर्जुन ने किस तरह शीतल, मंद एवं सुगंधित जल की धारा प्रकट की है ? ऐसा पराक्रम करनेवाला इस जगत् में दूसरा कोई नहीं है। आग्नेय, वारुण, सौम्य, वायव्य, वैष्णव, ऐन्द्र, पाशुपात, ब्राह्म्य, पारमेष्ठ्य, प्राजापत्य, धात्र, त्वाष्ट्र, सावित्र और वैवस्वत इत्यादि अस्त्रों को इस संसार में अर्जुन या भगवान् श्रीकृष्ण ही जानते हैं। तीसरा कोई भी इनका ज्ञाता नहीं है। अतः अर्जुन को किसी प्रकार भी युद्ध में जीतना असम्भव है, इनके सभी कर्म अलौकिक हैं। इसलिये मेरी राय यही है कि तुम इनके साथ शीघ्र ही सन्धि कर लो। जबतक भगवान् श्रीकृष्ण कोप नहीं करते, जबतक भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव तुम्हारी सेना का सर्वनाश नहीं कर डालते, उसके पहले ही तुम्हारा पाण्डवों के साथ मित्रभाव हो जाना मैं अच्छा समझता हूँ। तात ! मेरे मरने के साथ ही इस युद्ध की समाप्ति कर दो, शान्त हो जाओ। मेरा कहा मानो, इसी में तुम्हारा और तुम्हारे कुल का कल्याण है। अर्जुन ने जो पराक्रम दिखाया है, वह तुम्हें सचेत करने के लिये काफी है। अब तुमलोगों में परस्पर प्रेमभाव बढ़े और बचे_खुचे राजाओं के जीवन का रक्षा हो। पाण्डवों को आधा राज्य दे दो और युधिष्ठिर इन्द्रप्रस्थ ( दिल्ली ) को चले जायँ। सभी राजा एक_दूसरे से मिलें। पिता पुत्र से, मामा भानजे से और भाई भाई के साथ मिलकर रहें। यदि मोहवश या मूर्खता के कारण तुम मेरी इस समयोजित बात पर ध्यान न दोगे तो अन्त में पछताना पड़ेगा, सबका नाश हो जायगा___ यह तुमसे सच्ची बात कह रहा हूँ। भीष्मजी सुहृद् से यह बात कहकर चुप हो गये। फिर उन्होंने अपना मन परमात्मा में लगाया। दुर्योधन को वह बात ठीक उसी तरह पसंद नहीं आयी, जैसे मरनेवाले मनुष्य को दवा पीना अच्छा नहीं लगता। तदनन्तर, भीष्मजी के मौन हो जाने पर सभी राजा अपने_ अपने शिविर में चले आये। इसी समय कर्ण भीष्मजी के मारे जाने का समाचार सुनकर कुछ भयभीत हो जल्दी से उनके पास आया। इन्हें शर_शैय्या पर पड़े देख उसकी आँखों में आँसू भर आये। उसने गद्गद् कण्ठ से कहा, ‘महाबाहु भीष्मजी ! जिसे आप सदा द्वेषभरी दृष्टि से देखते थे, वही मैं राधा का पुत्र कर्ण आपकी सेवा में उपस्थित हूँ।‘ यह सुनकर भीष्मजी ने पलक उघाड़कर धीरे से कर्ण की ओर देखा। इसके बाद उस स्थान को सूना देख पहरेदारों को भी वहाँ से हटा दिया। फिर जैसे पिता पुत्र को गले लगाता है, उसी प्रकार एक हाथ से कर्ण को खींचकर हृदय से लगाते हुए स्नेहपूर्वक कहा___’आओ मेरे प्रतिस्पर्धी ! तुम सदा मुझसे लाग_डाँट रखते आये हो। यदि मेरे पास नहीं आते तो निश्चय ही तुम्हारा कल्याण नहीं होता। महाबाहो ! तुम राधा के नहीं कुन्ती के पुत्र हो।
तुम्हारे पिता अधिरथ नहीं, सूर्य हैं___यह बात मुझे व्यासजी और नारदजी से ज्ञात हुई है। यह बिलकुल सच्ची बात है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। तात् !  मैं सच कहता हूँ, तुमसे मेरा तनिक भी द्वेष नहीं है; तुम अकारण ही पाण्डवों पर आक्षेप करते थे, अत: तुम्हारा दुःसाहस दूर करने के लिये ही मैं कठोर वचन कहता था। नीच पुरुषों का संग करने से तुम्हारी बुद्धि गुणवानों से भी द्वेष करने लगी है। इस कारण से ही कौरवों की सभा में मैंने तुम्हें अनेकों बार कटु वचन सुनाये हैं। मैं जानता हूँ, युद्ध में तुम्हारा पराक्रम शत्रुओं के लिये असह्य है। तुम ब्राह्मणों के भक्त हो, शूरवीर हो और दान में तुम्हारी बड़ी निष्ठा है। मनुष्यों में तुम्हारे समान गुणवान् कोई नहीं है, बाण मारने में, अस्त्रों का संधान करने में, हाथ की फुर्ती में और अस्त्रबल में तुम अर्जुन और श्रीकृष्ण के समान हो। तुम धैर्य के साथ युद्ध करते हो, तेज और बल में देवता के तुल्य हो। युद्ध में तुम्हारा पराक्रम मनुष्यों से अधिक है। पूर्वकाल में तुम्हारे प्रति जो मेरा क्रोध था, उसे मैंने दूर कर दिया है। अब मुझे निश्चय हो गया है कि पुरुषार्थ ले दैव के विधान को नहीं पलटा जा सकता। पाण्डव तुम्हारे सहोदर भाई हैं; यदि तुम मेरा प्रिय करना चाहो, तो उनके साथ मेल कर लो। मेरे ही साथ इस वैर का अन्त हो जाय और भूमण्डल के सभी राजा आज से सुखी हों। कर्ण ने कहा___महाबाहो ! आपने जो कहा कि मैं सूतपुत्र नहीं, कुन्ती का पुत्र हूँ___यह मुझे भी मालूम है। किन्तु कुन्ती ने तो मुझे त्याग दिया और सूत ने मेरा पालन_पोषण किया है। आजतक दुर्योधन का ऐश्वर्य भोगता रहा हूँ, अब उसे हराम करने का साहस मुझमें नहीं है। जैसे वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण पाण्डवों की सहायता में दृढ़ हैं, उसी प्रकार मैंने भी दुर्योधन के लिये अपने शरीर, धन, स्त्री, पुत्र और यश को निछावर कर दिया है। जो बात अवश्य होनेवाली है, उसको पलटा नहीं जा सकता। पुरुषार्थ से दैव के विधान को कौन मेट सकता है ? आपको भी को पृथ्वी के नाश की सूचना देनेवाले अपशकुन ज्ञात हुए थे, जिन्हें आपने सभा में बताया था। मैं भी पाण्डवों और भगवान् श्रीकृष्ण का प्रभाव जानता हूँ, ये मनुष्यों के लिये अजेय हैं। तो भी मेरे मन में यह विश्वास है कि मैं पाण्डवों को रण में जीत लूँगा।
यह वैर बहुत बढ़ गया है और इसका छूटना कठिन है; इसलिये मैं अपने धर्म में स्थित रहकर प्रसन्नतापूर्वक अर्जुन से युद्ध करूँगा। युद्ध करने के लिये मैंने निश्चय कर लिया है, अब आप आज्ञा दें। आपकी आज्ञा लेकर ही युद्ध करने का मेरा विचार है। आज तक अपनी चपलता के कारण मैंने जो कटुवचन कहा हो या प्रतिकूल आचरण किया हो, उसे आप क्षमा करें।
भीष्मजी बोले___कर्ण ! यदि यह दारुण वैर मिट  नहीं सकता तो मैं तुम्हें युद्ध के लिये आज्ञा देता हूँ। तुम स्वर्ग की कामना से ही युद्ध करो। क्रोध और डाह छोड़कर अपनी शक्ति और उत्साह के अनुसार रण में पराक्रम दिखाओ। सदा सत्पुरुषों के आचरण का पालन करो। अर्जुन से युद्ध करके तुम क्षत्रिय धर्म से प्राप्त होनेवाले लोकों में जाओगे। अहंकार त्यागकर अपने बल और पराक्रम का भरोसा रखकर युद्ध करो। क्षत्रिय को लिये धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याण का साधन नहीं है। कर्ण ! मैंने शान्ति के लिये महान् प्रयत्न किया है, परन्तु इसमें सफल न हो सका। यह तुमसे सच कह रहा हूँ।
राजन् ! भीष्मजी ने जब ऐसा कहा तो कर्ण ने उन्हें प्रणाम किया और  उनकी आज्ञा ले रख पर बैठकर आपके पुत्र दुर्योधन के पास चला गया।

भीष्मपर्व समाप्त