Sunday 25 November 2018

धृतराष्ट्र का विषाद तथा संजय का उपालम्भ

धृतराष्ट्र ने कहा___संजय ! अभिमन्यु के मारे जाने से दुःख शोक में डूबे हुए पाण्डवों ने सवेरा होने पर क्या किया ? तथा मेरे पक्ष वाले योद्धाओं में से किस_किसने युद्ध किया ? अर्जुन के पराक्रम को जानते हुए भी उन्होंने उनका अपराध किया, ऐसी दशा में  वे निर्भय कैसे रह सके ? जब भगवान् श्रीकृष्ण सब प्राणियों पर दया करने पर कौरव_ पाण्डवों में सन्धि कराने की इच्छा से यहाँ आये थे, उस समय मैंने मूर्ख दुर्योधन से कहा था कि ‘बेटा ! वासुदेव के कथनानुसार अवश्य संधि कर लो। यह अच्छा मौका हाथ आया है, दुर्योधन ! इसे टालो मत। श्रीकृष्ण तुम्हारे हित की बात करते हैं, स्वयं ही संधि के लिये प्रार्थना करते हैं; यदि इनकी बात न मानोगे, तो युद्ध में तुम्हारी विजय असंभव है।‘
श्रीकृष्ण ने स्वयं भी अनुनयपूर्ण बातें कहीं, परन्तु उसने अस्वीकार कर दीं। अन्याय का आश्रय लेने के कारण हमारी बातें उसे ठीक नहीं जँची। वह दुर्बुद्धि काल के पराभूत था, इसलिये उसने मेरी अवहेलना करके केवल कर्ण और दुःशासन के ही मत का अनुसरण किया। जो जूआ खेला गया था, उसके लिये भी मेरी इच्छा नहीं थी। विदुर, भीष्मजी, शल्य, भूरिश्रवा, पुरुमित्र, जय, अश्त्थामा, कृप और द्रोण___ ये लोग भी जूआ होने देना नहीं चाहते थे। यदि मेरा पुत्र इन सबकी राय लेकर चलता तो अपने जाति_भाई, मित्र, सुहृद्___ सबके साथ सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करता। मैंने यह भी कहा था___’पाण्डव सरलस्वभाव, मधुरभाषी, भाई_बन्धु_बान्धवों का प्रिय करनेवाले, कुलीन, आदरणीय और बुद्धिमान हैं; इसलिये उन्हें अवश्य सुख मिलेगा। धर्म को पालन करनेवाला मनुष्य सदा और सर्वत्र सुख पाता है। मरने पर उसे कल्याण एवं आनन्द की प्राप्ति होती है। पाण्डव पृथ्वी पर राज्य भोगने के योग्य हैं, उसे प्राप्त करने की शक्ति भी रखते हैं। पाण्डवों से जैसा कहा जायगा, वैसा ही करेंगे। वे सदा धर्ममार्ग पर स्थित रहेंगे। शल्य, सोमदत्त, भीष्म, द्रोण, विकर्ण, बाह्लीक, कृप तथा अन्य बड़े_बड़े लोग जो तुम्हारे हित की बात कहेंगे, उसे पाण्डव अवश्य मान लेंगे। श्रीकृष्ण कभी धर्म को छोड़ नहीं सकते और पाण्डव श्रीकृष्ण के ही अनुयायी हैं। मैं भी यदि धर्मयुक्त वचन कहूँगा तो ले टाल नहीं सकेंगे; क्योंकि पाण्डव धर्मात्मा हैं।‘ संजय ! इस प्रकार पुत्र के सामने गिड़गिड़ाकर मैंने बहुत कुछ कहा, किन्तु उस मूर्ख ने मेरी एक न सुनी। जिस पक्ष में श्रीकृष्ण जैसे सारथि और अर्जुन_ सरीखे योद्धा हैं, उसकी पराजय हो ही नहीं सकती। पर क्या करूँ, दुर्योधन मेरे रोने_बिलखने की ओर बिलकुल ध्यान नहीं देता। अच्छा, अब आगे की बात सुनाओ। दुर्योधन, कर्ण, दुःशासन और शकुनि___ इन सब ने मिलकर क्या सलाह की ? मूर्ख दुर्योधन के अन्याय के संग्राम में एकत्र हुए मेरे सभी पुत्रों ने कौन_सा कार्य किया ? लोभी, मन्दबुद्धि, क्रोधी, राज्य हड़पने की इच्छा रखने वाले और राजनीतिक दुर्योधन ने अन्याय अथवा न्याय जो कुछ भी किया हो, सब बताओ। संजय ने कहा____महाराज ! मैंने सब कुछ प्रत्यक्ष देखा है; सबको बताऊँगा, स्थिर होकर सुनिये। इस विषय में आपका भी अन्याय कम नहीं है। नदी का पानी सूख जाने पर पुल बाँधने के समान अब आपका यह रोना_धोना व्यर्थ है। इसलिये शोक न कीजिये। जब युद्ध का अवसर आया, उसी समय यदि आपने अपने पुत्रों को रोक दिया होता अथवा कौरवों को यह आज्ञा दी होती कि ‘ इस उद्दण्ड दुर्योधन को कैद कर रख लो,’ या स्वयं पिता के कर्तव्य का पालन करते हुए पुत्र को सन्मार्ग में स्थापित किया होता, तो आज आपपर यह संकट कदापि न आता। आप इस जगत् में बड़े बुद्धिमान समझे जाते हैं; तो भी सनातन धर्म को तिलांजली देकर आपने दुर्योधन, कर्ण और शकुनि की हाँ_में_ हाँ मिला दी। इस समय जो आपने यह विलाप कलाप सुनाया है, वह सब स्वार्थ और लोभ के वश में होने के कारण है। विष मिलाये हुए शहद की भाँति यह ऊपर से मीठा होने पर भी इसके भीतर घातक कटुता है। भगवान् श्रीकृष्ण ने जबसे जान लिया कि आप राजधर्म से भ्रष्ट हो गये हैं, तब से वे आपके प्रति आदर_बुद्धि नहीं रखते। आपके पुत्रों ने पाण्डवों को गालियाँ सुनायीं और आपने उन्हें रोका नहीं। पुत्रों को राज दिलाने का लोभ आपको  ही सबसे अधिक था; उसी का तो अब फल मिल रहा है। पहले आपने उनके बाप_दादों का राज्य छीन लिया; अब पाण्डव स्वयं संपूर्ण पृथ्वी जीत लेते हैं, तो आप उसका उपभोग कीजियेगा। इस समय जब युद्ध सिर पर गरज रहा है, तो आप पुत्रों के अनेकों दोष बताकर उनकी निंदा करने बैठे हैं; अब ये बातें शोभा नहीं देतीं। खैर, जाने दीजिये इन बातों को; पाण्डवों के साथ कौरवों का जो घमासान युद्ध हुआ, उसका ठीक_ठीक वृतांत सुनिये।

Sunday 18 November 2018

अर्जुन का स्वप्न, श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को आश्वासन तथा सबका युद्ध के लिये प्रस्थान

संजय कहते हैं___ राजन् ! अर्जुन अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा के विषय में विचार करते हुए सो गये। उन्हें चिंता करते जान स्वप्न में ही भगवान् श्रीकृष्ण ने दर्शन दिया। भगवान् को देखते ही अर्जुन उठे और उन्हें बैठने को आसन दे स्वयं चुपचाप खड़े रहे। श्रीकृष्ण ने उनका निश्चय जानकर कहा____’धनंजय ! तुम्हें खेद किसलिये हो रहा है ? बुद्धिमान पुरुष को सोच नहीं करना चाहिये, इससे काम बिगड़ जाता है। जो करने योग्य काम आ पड़े, उसे पूर्ण करो। उद्योगहीन मनुष्य का शोक तो उसके लिये शत्रु का काम देता है। भगवान् के ऐसा कहने पर अर्जुन ने कहा___’ केशव ! मैंने कल अपने पुत्र के घातक जयद्रथ को मार डालने का भारी प्रतिज्ञा कर डाली है; किन्तु सोचता हूँ कि मेरी प्रतिज्ञा तोड़ने के लिये कौरव निश्चय ही जयद्रथ को सबसे पीछे खड़ा करेंगे। ग्यारह अक्षौहिणी सेना में से जो लोग मरने से बच गये हैं, उन सबसे घिरा हुआ जयद्रथ कैसे मुझे दिखायी देगा ? यदि नहीं दिखा तो प्रतिज्ञा का पालन नहीं हो सकेगा और प्रतिज्ञा भंग होने पर मुझ जैसा मनुष्य कैसे जीवन_धारण कर सकता है ? अब तो सारा उपाय केवल दुःख देनेवाला है, इसलिये मेरी आशा निराशा के रूप में परिणत हो रही है। इसके सिवा आजकल सूर्य जल्दी ही अस्त होता है। इन्हीं सब कारणों से मैं ऐसा कहता हूँ।‘ अर्जुन के शोक का कारण सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा___’ पार्थ ! शंकरजी के पास ‘पाशुपत’  नामक एक दिव्य सनातन अस्त्र है, जिससे उन्होंने पूर्वकाल में संपूर्ण दैत्यों का संहार किया था। यदि तुम्हें उस अस्त्र का ज्ञान हो तो अवश्य ही कल जयद्रथ का वध कर सकोगे। यदि उसका ज्ञान न हो तो मन_ही_मन भगवान् शंकर का ध्यान करो। ऐसा करने पर उनकी कृपा से तुम उस महान् अस्त्र को पा जाओगे।
भगवान् श्रीकृष्ण की बात सुनकर अर्जुन भूमि पर आसन बिछाकर बैठ गये और एकाग्र चित्त से भगवान् शंकर का ध्यान करने लगे। तदनन्तर ध्यानावस्था में शुभ ब्राह्म_मुहूर्त के समय अर्जुन ने श्रीकृष्ण के साथ ही अपने को आकाश में उड़ते देखा। उस समय उनकी वायु के समान गति थी। भगवान् कृष्ण उनकी दाहिनी बाँह पकड़े चल रहे थे। उत्तर दिशा में आगे बढ़कर उन्होंने हिमालय के पावन प्रदेश और मणिमान् पर्वत देखा, जहाँ दिव्य ज्योति छिटक रही थी और सिद्ध तथा चारणगण विचरण रहे थे। मार्ग में अद्भुत भावों को देखते हुए जब वे आगे बढ़े, तो श्वेतपर्वत दिखायी दिया। पास ही कुबेर का विहारवन था, उसके सरोवरों में कमल खिले हुए थे। थोड़ी ही दूर पर अगाध जल से भरी हुई गंगा लहरा रही थी; उसके तट पर ऋषियों के पवित्र आश्रम थे। उसके आगे मन्दराचल के रमणीय प्रदेश दृष्टिगोचर हुए जहाँ किन्नरों के संगीत की स्वर_लहरी सुनायी देती थी। इस प्रकार अनेकों दिव्य स्थानों को पार करने के बाद उन्होंने एक परम प्रकाशमान पर्वत देखा; उसके शिखर पर भगवान शंकर विराजमान थे, जो हजारों सूर्य के समान देदीप्यमान हो रहे थे। उनके हाथ में त्रिशूल था, मस्तक पर जटाजूट शोभा पा रहा था। गौर शरीर पर वल्कल और मृगचर्म का वस्त्र लपेटे भगवान् भूतनाथ पार्वतीदेवी के साथ बैठे थे। तेजस्वी भूतगण उनकी सेवा में उपस्थित थे। ब्रह्मवादी ऋषि दिव्य स्रोतों से उनकी स्तुति कर रहे थे।
उनके पास पहुँचकर भगवान् कृष्ण और अर्जुन ने पृथ्वी पर मस्तक टेककर उन्हें प्रणाम किया  उन दोनों नर और नारायण को आया देख भगवान् शिव बड़े प्रसन्न हुए और हँसते हुए बोले___ तुम दोनों का स्वागत है; उठो, विश्राम करो और शीघ्र बताओ कि तुम्हारी क्या इच्छा है। तुम जिस काम के लिये आये हो, उसे मैं अवश्य पूर्ण करूँगा।‘ भगवान् शिव की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों हाथ जोड़े खड़े हो गये और उनकी स्तुति करने लगे___’भगवन् ! आप ही भव, शर्व, रुद्र, वरद, पशुपति, उग्र, महादेव, भीम, त्रयंबक, शान्ति और ईशान आदि नामों से प्रसिद्ध हैं; आपको हम बारंबार नमस्कार करते हैं। आप भक्तों पर दया करनेवाले हैं, प्रभो ! हमारा मनोरथ सिद्ध कीजिये।‘ तदनन्तर अर्जुन ने मन_ही_मन भगवान् श्रीकृष्ण का पूजन किया तथा शंकरजी से कहा___’भगवन् ! मैं दिव्य अस्त्र चाहता हूँ। यह सुनकर भगवान् शंकर मुस्कराये और कहने लगे___’ श्रेष्ठ पुरुषों ! तुम दोनों का स्वागत करता हूँ। तुम्हारी अभिलाषा मालूम हुई; तुम जिसके लिये आये हो, वह वस्तु अभी देता हूँ। यहाँ से निकट ही एक अमृतमय दिव्य सरोवर है, उसी में मैंने दिव्य धनुष और बाण रख दिये हैं; वहाँ जाकर बाणसहित धनुष ले आओ।‘ ‘बहुत अच्छा’ कहकर दोनों वीर शिवजी के पार्षदों के साथ उस सरोवर पर गये। वहाँ जाकर उन्होंने दो नाग देखे; एक सूर्यमण्डल के समान प्रकाशमान था और दूसरा हजार मस्तकवाला. था, उसके मुख से आग की लपटें निकल रहीं थीं। श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों उस सरोवर के जल का आचमन करके उन नागों के पास उपस्थित हुए और हाथ जोड़कर शिवजी को प्रणाम करते हुए शतरुद्रिय पाठ करने लगे। तब भगवान् शंकर के प्रभाव से दोनों नाग अपना स्वरूप छोड़कर धनुष_ बाण हो गये। इससे वे दोनों बड़े प्रसन्न हुए और उन देदीप्यमान धनुष_ बाण को लेकर शंकरजी के  पास आये। वहाँ आकर उन्होंने वे अस्त्र शंकरजी को अर्पण कर दिये। तब भगवान् शंकर की पसली में से एक ब्रह्मचारी निकला। उसने वीरासन से बैठकर उस धनुष को उठा लिया और उस पर विधिवत् बाण को चढ़ाकर उसे खींचा। अर्जुन यह सब ध्यानपूर्वक देखता रहा और उस समय शिवजी ने जो मंत्र पढ़ा उसे भी उसने याद कर लिया। तब उस ब्रह्मचारी ने उस धनुष_बाण को पुनः सरोवर में फेंक दिया। तत्पश्चात शंकरजी ने अपना पाशुपत नामक  घोर अस्त्र अर्जुन को दे दिया। उसे पाकर अर्जुन के हर्ष की सीमा न रही उनके शरीर में रोमांच हो आया। अब वे अपने को कृतकृत्य मानने लगे। फिर श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों ने भगनान् शिव को प्रणाम किया और उनकी आज्ञा ले वे अपने शिविर में चले आये। [ यह सब कुछ अर्जुन ने स्वप्न में ही देखा था।] संजय कहते हैं____इधर श्रीकृष्ण और दारुक बातें करते ही रहे, इतने में रात बीत गयी। दूसरी ओर राजा युधिष्ठिर भी जग गये। वे उठकर स्नानगृह की ओर चले गये। वहाँ स्नान करके श्वेत वस्त्र पहने एक सौ आठ स्नातक जल से भरे सोने के घड़े लिये खड़े थे। युधिष्ठिर एक महीन वस्त्र पहनकर  श्रेष्ठ आसन पर बैठ गये और उस संग्रहीत जल से स्नान करने लगे। वे स्नान_पूजन आदि से निवृत्त होकर बैठे ही थे कि द्वारपाल ने आकर खबर दी___’महाराज ! भगवान् श्रीकृष्ण पधार रहे हैं।‘ राजा ने कहा___’उन्हें स्वागतपूर्वक ले आओ।‘ तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण को एक सुन्दर आसन पर विराजमान कर राजा युधिष्ठिर ने उनका विधिवत् पूजन किया। उसके बाद अन्य दरबारी लोगों के आने की सूचना मिली। राजा की आज्ञा से द्वारपाल उन्हें भी भीतर ले आया। विराट, भीमसेन, सात्यकि, चेदिराज धृष्टकेतू, द्रुपद, शिखण्डी, नकुल, सहदेव, चेकितान, केकयराजकुमार, युयुत्सु, उत्तमौजा, युधामन्यु, सुबाहु और द्रौपदी के पाँचों पुत्र____ये तथा बहुत_से क्षत्रिय महात्मा युधिष्ठिर की सेवा में उत्पन्न हो उत्तम आसनों पर विराजमान हुए। श्रीकृष्ण और सात्यकि एक ही आसन पर बैठे थे। तब राजा युधिष्ठिर ने उन सबके सुनते हुए श्रीकृष्ण से कहा___’भक्तवत्सल ! जैसे देवता इन्द्र के आश्रय में रहते हैं, उसी प्रकार हमलोग आपकी ही शरण में रहकर युद्ध में विजय और स्थायी सुख चाहते हैं। सर्वेश्वर ! हमारा सुख और हमारे प्राणों की रक्षा___सब आपके ही अधीन है; आप ऐसी कृपा कीजिये, जिससे हमारा मन आपमें लगा रहे और अर्जुन की की हुई प्रतिज्ञा सत्य हो। इस दुःखरूपी महासागर से आप ही हमारा उद्धार करें। पुरुषोत्तम ! आपको हमारा बारम्बार प्रणाम है। देवर्षि नारदजी ने आपको पुरातन ऋषि नारायण बतलाया है, आप ही वरदायक विष्णु हैं; इस बात को आज सत्य करके दिखाइये।‘
भगवान् श्रीकृष्ण बोले___ अर्जुन बलवान्, अस्त्रविद्या के ज्ञाता, पराक्रमी, युद्ध में चतुर और तेजस्वी हैं; वे अवश्य ही  आपके शत्रुओं का संहार करेंगे। मैं भी ऐसा प्रयत्न करूँगा जिससे अर्जुन धृतराष्ट्र के पुत्रों की सेना को उसी प्रकार जला डालेंगे जैसे आग ईंधन को। अभिमन्यु की हत्या करानेवाले पापी जयद्रथ को अर्जुन अपने बाणों से मारकर आज ऐसी जगह भेज देंगे, जहाँ जाने पर मनुष्य का पुनः यहाँ दर्शन नहीं होता। यदि इन्द्र के साथ संपूर्ण देवता भी  उसकी रक्षा के लिये उतर आवें, तो भी आज युद्ध में प्राण त्यागकर उसे यम की राजधानी में जाना ही पड़ेगा। राजन् ! अर्जुन आज जयद्रथ को मारकर ही आपके निकट उपस्थित होंगे, इसलिये शोक और चिंता दूर कीजिये।
इन लोगों में इस प्रकार बात चल ही रही थी कि अर्जुन अपने मित्रों के साथ राजा का दर्शन करने के लिये वहाँ आ पहुँचे। भीतर आकर युधिष्ठिर को प्रणाम करके वे सामने खड़े हो गये। उन्हें देखते ही युधिष्ठिर ने उठकर बड़े प्रेम से गले लगाया। फिर उनका मस्तक सूँघता मुस्कराते हुए कहा___’ अर्जुन ! आज तुम्हारे मुख की जैसी प्रसन्न कान्ति है तथा भगवान् श्रीकृष्ण जैसे प्रसन्न हैं, उससे ज्ञात होता है युद्ध में तुम्हारी विजय निश्चित है।‘ अर्जुन ने कहा, ‘भैया ! रात में मैंने केशव की कृपा से एक महान् आश्चर्यजनक स्वप्न देखा था।‘ यह कहकर अर्जुन ने अपने हितैषियों के आश्वासन के लिये वह सब वृतांत तह सुनाया, जिस प्रकार स्वप्न में शंकरजी का दर्शन हुआ था। यह सुनकर सभी लोगों ने विस्मित हो शंकरजी को प्रणाम किया और कहने लगे___’यह तो बहुत ही अच्छा हुआ।‘ तदनन्तर सब लोग धर्मराज की आज्ञा ले, कवच आदि ये सुसज्जित हो बड़ी शीघ्रता के साथ युद्ध के लिये निकल पड़े। सबके मन में हर्ष था, उत्साह था। सात्यकि, श्रीकृष्ण और अर्जुन भी युधिष्ठिर को प्रणाम कर प्रसन्नतापूर्वक युद्ध के लिये उनके शिविर से बाहर निकले। सात्यकि और श्रीकृष्ण एक ही रथ पर बैठकर अर्जुन की छावनी में गये। वहाँ जाकर श्रीकृष्ण ने सारथि की भाँति अर्जुन के रथ को सब सामग्रियों से सजाकर तैयार किया। इतने में अर्जुन भी अपना दैनिक कर्म पूरा करके धनुष_बाण लिये बाहर निकले और रथ की परिक्रमा करके उस पर सवार हो गये। फिर सात्यकि और श्रीकृष्ण अर्जुन के आगे जा बैठे। श्रीकृष्ण ने घोड़ों की बागडोर हाथ में ले ली। अर्जुन उन दोनों के साथ युद्ध को चल दिये। उस समय विजय की सूचना देनेवाले नाना प्रकार के शुभ शकुन होने लगे। कौरवों की सेना में अपशकुन हुए। शुभ शकुनों को देखकर अर्जुन सात्यकि से बोले___’युयुधान ! जैसे ये निमित्त दिखायी दे रहे हैं, उनसे जान पड़ता है आज युद्ध में निश्चय ही मेरी विजय होगी। अतः अब मैं वहाँ जाऊँगा, जहाँ जयद्रथ मेरे पराक्रम की प्रतीक्षा कर रहा है।  इस समय राजा युधिष्ठिर की रक्षा का भार तुम्हारे ऊपर है। इस संसार में कोई भी ऐसा वीर नहीं है, जो तुम्हें युद्ध में हरा सके; तुम साक्षात् श्रीकृष्ण के समान हो। तुमपर या प्रद्युम्न पर ही मेरा अधिक भरोसा रहता है। मेरी चिन्ता छोड़कर सब तरह से राजा की ही रक्षा में रहना। जहाँ भगवान् वासुदेव हैं और मैं हूँ, वहाँ किसी विपत्ति का संभावना नहीं है।‘ अर्जुन के ऐसा कहने पर सात्यकि ‘ बहुत अच्छा’ कहकर जहाँ राजा युधिष्ठिर थे, वहीं चला गया।।