Wednesday 21 August 2019

अर्जुन के द्वारा कर्ण का पराजय और अश्त्थामा का दुर्योधन के साथ संवाद तथा पांचालों के साथ घोर युद्ध

तदनन्तर पाण्डव और पांचालवीर कर्ण की निंदा करते हुए चारों ओर से एक साथ वहाँ आ पहुँचे। जब कर्ण पर उनकी दृष्टि पड़ी तो वे उच्च स्वर से गर्जना करते हुए बोले___’यह पाण्डवों का कट्टर दुश्मन है, सदा का पापी है। यही सारे अनर्थों की जड़ है; क्योंकि यह दुर्योधन की हाँ_में_हाँ मिलाया करता है। मार डालो इसे।‘ऐसा कहते हुए सभी क्षत्रिय कर्ण का वध करने के लिये उसके ऊपर टूट पड़े और बाणों की भारी वर्षा करके उसे आच्छादित करने लगे। उन सब महारथियों को अपने ऊपर धावा करते देख महाबली कर्ण ने सायकों की मार से पाण्डवसेना को,आगे बढ़ने से रोक दिया।
उस समय हम सब लोगों ने कर्ण की अद्भुत फुर्ती देखी। महारथी कर्ण ने राजाओं के बाणसमूहों का निवारण करके उनके रथों और घोड़ों पर अपने नामवाले बाणों का प्रहार किया। उससे व्याकुल होकर वे इधर_उधर भागने लगे। कर्ण के सायकों के आहत होकर झुण्ड_के_झुण्ड घोड़े, हाथी और रथी मरते दिखायी देते थे।कर्ण की उस फुर्ती को महाबली अर्जुन नहीं सह सके। उन्होंने उसके ऊपर तीन सौ तीखे बाण मारे। फिर उसके बायें हाथ को एक बाण से बींध डाला। इससे उसके हाथ का धनुष छूटकर गिर गया। किन्तु आधे ही निमेष में उसने पुनः वह धनुष उठा लिया और अर्जुन को बाणसमूहों से ढक दिया। किन्तु अर्जुन ने हँसते_हँसते उस बाणवर्षा का संहार कर डाला। वे दोनों एक_दूसरे से भिड़कर परस्पर सायकों की वृष्टि करने लगे। इतने में ही अर्जुन ने कर्ण का पराक्रम देखकर बड़ी शीघ्रता से उसके धनुष को बीच में ही काट डाला। फिर चार भल्ल मारकर उसके चारों घोड़ों को यमलोक भेज दिया। इसके बाद सारथि का भी सिर उतार लिया।
तत्पश्चात् चार बाणों से उसके शरीर को बींध डाला। उन बाणों से कर्ण को बड़ी पीड़ा हुई और वह अपने अश्वहीन रथ से कूदकर कृपाचार्य के रथ पर चढ़ गया। उस समय उसके सब अंगों में बाण धँसे हुए थे, इससे वह कण्टकों से भरी हुई साही के समान जान पड़ता था। कर्ण को परास्त हुआ देख आपके योद्धा धनंजय के बाणों से क्षत_विक्षत हो सब दिशाओं में भाग चले।
उन्हें भागते देख दुर्योधन सान्त्वना देते हुए लौटाने लगा। उसने कहा___’शूरवीरों ! तुमलोग श्रेष्ठ क्षत्रिय हो, तुम्हारे लिये भागना शोभा की बात नहीं है। यह देखो, मैं स्वयं अर्जुन का वध करने के लिये चल कहा हूँ। पांचालों और सोमकों के साथ अर्जुन को मैं स्वयं ही मारूँगा।‘ ऐसा कहकर क्रोध में भरा हुआ दुर्योधन बहुत बड़ी सेना के साथ अर्जुन की ओर बढ़ा। यह देख कृपाचार्य ने अश्त्थामा के पास आकर कहा___’आज यह राजा दुर्योधन अमर्ष में भरा हुआ है, क्रोध से अपनी विचारशक्ति खो बैठा है। जैसे पतंगे जलने के लिये ही दीपक के पास जाते हैं, उसी प्रकार अपना सर्वनाश करने के लिये यह अर्जुन से लड़ना चाहता है। हमलोगों के सामने ही पार्थ से भिड़कर यह अपना प्राण खो बैठे, इसके पहले ही तुम जाकर इसे रोक लो।‘अपने मामा के इस प्रकार कहने पर अश्त्थामा  दुर्योधन के पास आकर बोला____’गान्धारीनन्दन ! मैं तुम्हारा हितैषी हूँ, मेरे जीते_जी मेरी अवहेलना करके तुम्हे अकेले युद्ध नहीं करना चाहिये। तुम अर्जुन को जीतने के विषय में संदेह न करो। चुपचाप खड़े रहो, मैं जाकर अर्जुन को रोकता हूँ।दुर्योधन बोला___विप्रवर ! आचार्य तो अपने पुत्र की भाँति पाण्डवों की रक्षा करते हैं और तुम भी सदा उनकी ओर से लापरवाही दिखाते हो। मैं नहीं जानता तुम्हारा पराक्रम क्यों मन्द हो गया है, शायद मेरा दुर्भाग्य हो अथवा तुम धर्मराज और द्रौपदी का प्रिय करना चाहते होगे। अश्त्थामा ! मुझपर प्रसन्न हो जाओ और मेरे दुश्मनों का नाश करो। तुम पांचालों और सोमकों को,उनके अनुचरोंसहित मार डालो। इनके बाद जो बाकी रह जायेंगे, उन्हें तुम्हारे संरक्षण में रहकर मैं स्वयं मौत के घाट उतारूँगा। पहले पांचालों, सोमकों और केकयों को जाकर रोको; क्योंकि ये लोग अर्जुन से सुरक्षित होकर मेरी सेना का सफाया किये डालते हैं। पहले करो या पीछे, यह काम तुम्हारे किये ही हो सकता है। अतः पांचालों को तुम उनके सवारियों सहित मार डालो। तुम इस जगत् को पांचालरहित कर दोगे___ ऐसा सिद्ध पुरुषों ने कहा है। यह बात कभी मिथ्या नहीं हो सकती। इन्द्रसहित देवता भी तुम्हारे बाणों का प्रहार नहीं सह सकते; फिर तो पाण्डवों और पांचालों की तो बात ही क्या है ? वीरवर ! देखो ! यह मेरी सेना अर्जुन के बाणों से पीड़ित होकर भाग रही है; अतः शीघ्र ही जाओ, जाओ ! देर नहीं होनी चाहिये।
दुर्योधन के ऐसा कहने पर अश्त्थामा ने इस प्रकार उत्तर दिया___’महाबाहो ! तुमने जो कुछ कहा है, सब ठीक है; मुझे और मेरे पिताजी को पाण्डव बड़े प्यारे हैं तथा वे भी हम दोनों पर प्रेम रखते है। किन्तु यह बात युद्ध के समय लागू नहीं होती। उस समय तो हमलोग प्राणों का मोह छोड़ निडर होकर पूरी शक्ति से युद्ध करते हैं। किन्तु तुम तो महान् लोभी और कपटी हो, सब पर संदेह करने का  तुम्हारा स्वभाव हो गया है। अपने ही घमंड में उबले रहते हो; यही कारण है कि हमलोगों पर तुम्हारा विश्वास नहीं होता। खैर, मैं तो अब जाता हूँ; तुम्हारे हित के लिये जीवन का लोभ छोड़कर प्रयत्नपूर्वक शत्रुओं से युद्ध करता रहूँगा और उनके मुख्य_मुख्य वीरों को चुन_ चुनकर मारूँगा। पांचालों और सोमकों का वध तो करूँगा ही, उन्हें मरा देख वे लोग मेरे साथ लड़ने आवेंगे, उन्हें भी यमलोक भेज दूँगा। मेरी भुजाओं की पहुँच के भीतर जो आ जायेंगे, वे छूटकर नहीं जा सकते।‘इस प्रकार आपके पुत्र से कहकर अश्त्थामा समस्त धनुर्धारियों को भगाता हुआ युद्ध करने के लिये शत्रुओं के सामने जा डटा। उसने केकय और पांचाल राजाओं से पुकारकर कहा____’महारथियों ! तुम सब लोग एक साथ मुझपर प्रहार करो।‘ यह सुनकर वे सभी वीर अश्त्थामा पर अस्त्र_ शस्त्रों की वृष्टि करने लगे। अश्त्थामा ने उनके अस्त्रों का निवारण करके पाण्डवों और धृष्टधुम्न के सामने ही उनमें से दस वीरों को मार गिराया। अश्त्थामा की मार पड़ने से पांचाल और सोमक क्षत्रिय वहाँ से हटकर इधर_उधर सब दिशाओं में भागने लगे।तब धृष्टधुम्न ने अश्त्थामा पर धावा किया और उसे मर्मभेदी सायकों से बिंध डाला। अधिक घायल होने से अश्त्थामा क्रोध में भर गया और हाथ में बाण लेकर बोला___’धृष्टधुम्न ! स्थिर होकर क्षणभर और प्रतीक्षा कर लो, अभी थोड़ी देर में तुम्हें तीखे भल्लों से मारकर यमलोक पठाता हूँ।‘ यह कहकर उसने धृष्टधुम्न को बाणों से आच्छादित कर दिया। तब पांचाल राजकुमार  ने अश्त्थामा को डाँटकर कहा___’अरे ब्राह्मण ! तू मेरी प्रतिज्ञा तथा मेरे उत्पन्न होने का प्रयोजन नहीं जानता ? आज रात मेैं सवेरा होने से पहले ही तेरे पिताजी को मारकर फिर तेरा वध करूँगा। जो ब्राह्मण ब्राह्मणोचित वृत्ति को त्याग करके क्षत्रिय धर्म में तत्पर रहता है, वह सब लोगों का वध्य है।‘धृष्टधुम्न के कहे हुए इस कठोर वचन को सुनकर अश्त्थामा प्रचंड कोप से जल उठा और ‘खड़ा रह ! खड़ा रह !’ ऐसा कहते हुए उसने बाणों की वर्षा से उसे ढक दिया। उधर से धृष्टधुम्न भी नाना प्रकार के बाणों का प्रहार करने लगा। उन दोनों की बाणवर्षा से आकाश और दिशाएँ भर गयीं, घोर अन्धकार छा गया, अतः वे एक_दूसरे की दृष्टि से ओझल होकर जी लड़ने लगे। दोनों के ही युद्ध का ढंग बड़ा अद्भुत और सुन्दर था, दोनों की फुर्ती देखने ही योग्य थी। उस समय रणभूमि में खड़े हुए हजारों योद्धा उन दोनों की प्रशंसा कर रहे थे। उस युद्ध में अश्त्थामा ने धृष्टधुम्न के धनुष, ध्वजा तथा छत्र काट डाले और पार्श्वरक्षक, सारथि तथा दोनों घोड़ों को मार गिराया। इसके बाद अपने तीखे बाणों से मारकर उसने सैकड़ों और हजारों पांचालों को भगा दिया। उसके इस पराक्रम को देखकर पाण्डवसेना व्यथित हो उठी। उसने सौ बाणों से सौ पांचालों का नाश करके तीखे बाण छोड़कर तीन श्रेष्ठ महारथियों के प्राण ले लिये। फिर धृष्टधुम्न और अर्जुन के देखते_ देखते वहाँ खड़े हुए बहुसंख्यक पांचालों का नाश कर डाला। उनके रथ और ध्वजाएँ चूर_चूर हो गयीं। अब तो सृंजय और पांचालों में भगदड़ पड़ गयी। इस प्रकार महारथी अश्त्थामा संग्राम में शत्रुओं तो जीतकर बड़े जोर से गर्जना करने लगा। उस समय कौरवों ने उसकी खूब प्रशंसा की।

Monday 12 August 2019

बाह्लीक और धृतराष्ट्र के दल पुत्रों का वध, युधिष्ठिर का पराक्रम, कर्ण तथा कृप में विवाद और अश्त्थामा का कोप

संजय कहते हैं___महाराज ! अश्त्थामा ने राजा कुन्तिभोज के दस पुत्रों तथा हजारों राक्षसों का संहार कर दिया___ यह देखकर युधिष्ठिर, भीमसेन, धृष्टधुम्न और सात्यकि ने पुनः युद्ध में ही मन लगाया। संग्राम में सात्यकि पर दृष्टि पड़ते ही सोमदत्त पुनः आगबबूला हो गये। उन्होंने बड़ी भारी बाणवर्षा करके सात्यकि को आच्छादित कर दिया। फिर दोनों पक्षों में बड़ा भयंकर युद्ध होने लगा। सोमदत्त को निकट आया देख सात्यकि की रक्षा के लिये भीमसेन ने उन्हें दस बाण मारकर घायल कर दिया। सोमदत्त ने भी उन्हें सौ बाणों से बींध डाला। यह देख सात्यकि क्रोध में भर गया और वज्र के समान तीक्ष्ण बाणों से सोमदत्त को घायल कर दिया। सोमदत्त ने भी उन्हें सौ बाणों से बींध डाला। यह देख सात्यकि क्रोध में भर गया और वज्र के समान तीक्ष्ण दस बाणों से सोमदत्त को घायल किया। तदनन्तर भीमसेन ने सात्यकि का पक्ष लेकर सोमदत्त के मस्तक पर एक भयंकर परिघ प्रहार किया, साथ ही सात्यकि ने भी अग्नि के समान तेजस्वी बाण उनकी छाती पर मारा। परिघ और बाण दोनों एक ही साथ सोमदत्त को लगे, इससे वे मूर्छित होकर गिर पड़े। पुत्र के मूर्छित होने पर बाह्लीक ने धावा किया, वे वर्षाकालीन मेघ के समान बाणों की वर्षा करने लगे। भीम ने तुरंत सात्यकि का पक्ष ग्रहण किया और नौ बाणों से बाह्लीक को बींध डाला। तब प्रतीपनन्दन ने कुपित होकर भीम की छाती में शक्ति का प्रहार किया। उसकी चोट से भीमसेन काँप उठे और बेहोश हो गये। फिर थोड़ी ही देर में चेत होने पर पाण्डुनन्दन भीम ने उनपर गदा छोड़ी। उसके आघात से बाह्लीक का सिर धड़ से अलग हो गया। वे वज्र से आहत हुए पर्वत की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़े।
बाह्लीक के मारे जाने पर आपके नागदत्त, दृढ़रथ, महाबाहु, अयोभुज, दृढ़, सुहस्त, विरज, प्रमाथी, उग्र और अनुयायी____ ये दस पुत्र अपने बाणों से भीमसेन को पीड़ित करने लगे। उन्हें देखते ही भीमसेन क्रोध से जल उठे और एक_एक के मर्मस्थान में बाण मारने लगे। उनकी करारी चोट से आपके पुत्रों के प्राणशक्ति उड़ गये और तेजहीन होकर रथोंसेे पृथ्वी पर गिर पड़े। इसके बाद वीरवर भीम ने आपकेे सात महारथियों को मार डाला और नाराचों से  महारथी शतचन्द्र को भी मौत को घाट उतारा। उन्हें मारा गया देख शकुनि के भाई गवाक्ष, शरभ, विभु, सुभग और भानुदत्त___ ये पाँच महारथी दौड़े आये और भीमसेन पर बाणों की वर्षा करने लगे। उनसे पीड़ित होकर भीमसेन ने पाँच बाण चलाये और उन पाँचों को मार डाला। उन वीरों को मृत्यु के मुख में पड़ा देख कौरवपक्ष के राजा विचलित हो गये। इधर युधिष्ठिर वे भी आपकी सेना का संहार आरम्भ किया। उन्होंने कुपित होकर अम्बष्ठ, मालव, त्रिगर्त और शिबिदेश के योद्धाओं को यमलोक भेज दिया। इतना ही नहीं, राजा युधिष्ठिर ने अभिषाह, शूरसेन, बाह्लीक तथा बसाति वीरों की भी वध करके इस पृथ्वी को खून की धारा से पंगिल बना दिया। उन्होंने अपने बाणों से मद्रदेशीय योद्धाओं को भी प्रेतलोक का अतिथि बनाया। तब आपके पुत्र ने आचार्य द्रोण को युधिष्ठिर की ओर प्रेरित किया। आचार्य ने अत्यन्त क्रोध में भरकर वायव्यास्त्र का प्रयोग किया, किन्तु धर्मराज ने वैसे ही दिव्य अस्त्र से काट दिया। तब तो द्रोण के कोप की सीमा न रही। उन्होंने युधिष्ठिर पर वारुण, याम्य, आग्नेय, त्वाष्ट्र और सावित्र आदि अस्त्रों का प्रयोग किया; किन्तु वे इससे तनिक भी भयभीत नहीं हुए। उन्होंने भी दिव्य अस्त्रों का प्रयोग कर उन सभी अस्त्रों को निष्फल कर दिया। तब द्रोण ने ऐन्द्र और प्राजापत्य अस्त्रों को प्रकट किया। यह देख युग ने माहेन्द्र_ अस्त्र प्रकट करके उन अस्त्रों का नाश कर दिया।
इस प्रकार जब द्रोणाचार्य के अस्त्र लगातार नष्ट होने लगे तो उन्होंने कुपित होकर युधिष्ठिर का वध करने के लिये ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। उस समय चारों ओर घोर अंधकार छा गया था। ब्रह्मास्त्र के भय से संपूर्ण प्राणी थर्रा उठे थे। उस ब्रह्मास्त्र को प्रकट हुआ देख युधिष्ठिर ने ब्रह्मास्त्र से ही उसे शान्त कर दिया। तब द्रोणाचार्य धर्मराज को छोड़ क्रोध से लाल आँखें किये चले गये और वायव्यास्त्र से द्रुपद की सेवा की संहार करने लगे। उनके भय से पांचालदेशीय वीर भाग चले। इसी समय अर्जुन और भीमसेन रथियों की बड़ी भारी सेना लेकर द्रोण के पास आये। अर्जुन ने दक्षिण की ओर से और भीम ने उत्तर की ओर से द्रोण की सेना पर घेरा डाल दिया फिर वे दोनों भाई उनपर बाणों की बौछार करने लगे। फिर तो वहाँ केकय, सृंजय, पांचाल, मत्स्य और सात्वत वीर आ पहुँचे। अर्जुन ने कौरवसेना का संहार आरम्भ किया। एक तो घोर अंधकार में कुछ सूझता नहीं था, दूसरे सबको नींद सता रही थी; इसलिये आपकी वाहिनी का बेतरह विध्वंस होने लगा। उस समय आचार्य द्रोण और आपके पुत्र ने पाण्डव योद्धाओं को रोकने की बहुत कोशिश की, किन्तु वे सफल न हो सके। तब दुर्योधन ने कर्ण से कहा___’ मित्र ! अब तुम्हीं इस युद्ध में समस्त महारथी योद्धाओं की रक्षा करो। ये पांचाल, केकय, मत्स्य और पाण्डव महारथियों से घिर गये हैं।‘ कर्ण बोला___’भारत ! धैर्य धारण करो। मैं तुमसे सच्ची प्रतिज्ञा करता हूँ कि आज युद्ध में यदि इन्द्र भी रक्षा करने के लिये आयेंगे तो मैं उन्हें भी हराकर अर्जुन को मार डालूँगा। अकेला ही मैं पाण्डवों और पांचालों का नाश करूँगा। पाण्डवों में सबसे अधिक बलवान् है अर्जुन; अतः उनपर ही आज इन्द्र की दी हुई शक्ति सा प्रहार करूँगा। उनके मारे जाने पर बाकी चारों भाई तुम्हारे अधीन हो जायेंगे अथवा वन में भाग जायेंगे। कुरुराज ! मैं जब तक जी रहा हूँ, तुम तनिक भी विषाद न करो। यहाँ एकत्रित हुए पांचाल, केकय तथा वृष्णिवंशियों सहित संपूर्ण पाण्डवों को अकेले जीत लूँगा और अपने बाणों से उनकी धज्जियाँ उड़ाकर यह सारी पृथ्वी तुम्हारे अधीन कर दूँगा।‘
जब कर्ण इस प्रकार कह रहा था, उसी समय कृपाचार्य हँसकर बोले___’खूब ! खूब ! कर्ण !  तुम बड़े बहादुर हो ! यदि बात बनाने से ही काम हो जाय, तब तो तुम्हें पाकर कुरुराज सनाथ हो गये। तुम इनके पास ,बहुत बढ़_बढ़कर बातें किया करते हो; किन्तु न कभी तुम्हारा पराक्रम ही देखा जाता है और न उसका कोई फल ही सामने आता है। संग्राम में पाण्डवों से तुम्हारी अनेक बार मुठभेड़ हुई है, किन्तु सर्वत्र  तुमने हार ही खायी है। कर्ण ! याद है कि नहीं ? जब गन्धर्व दुर्योधन को पकड़कर लिये जा रहे थे उस समय सारी सेना तो युद्ध कर रही थी और अकेले तुम ही सबसे पहले भागे थे। विराटनगर में संपूर्ण कौरव इकट्ठे हुए थे, वहाँ अर्जुन ने अकेले ही सबको हराया था। तुम भी अपने भाइयों के साथ परास्त हुए थे। अकेले अर्जुन का सामना करने की तो तुम्हें शक्ति नहीं है, फिर श्रीकृष्ण सहित संपूर्ण पाण्डवों को जीतने का साहस कैसे करते हो ? भाई ! चुपचाप युद्ध करो, तुम डींग बहुत हाँकते हो।
बिना कहे ही पराक्रम दिखाया जाय___ यही सत्पुरुषों का व्रत है। जब तक अर्जुन के बाण तुम्हारे ऊपर नहीं पड़ रहे हैं, तभी तक गरज रहे हो; जब उनके बाणों से घायल होओगे तो सारी गर्जना भूल जाओगे। क्षत्रिय बाहुबल में शूर होते हैं; ब्राह्मण  वाणी में शूर होते हैं, अर्जुन धनुष चलाने में शूर है, किन्तु कर्ण तो मनसूबे बाँधने में ही शूर है। जिन्होंने अपने पराक्रम से भगवान् शंकर को संतुष्ट किया है, उन अर्जुन को भला, कौन मार सकता है ?’ कृपाचार्य की यह बात सुनकर कर्ण ने रुष्ट होकर कहा___’वर्षाकाल के मेघ के समान शूरवीर सदा ही गर्जना करते रहते हैं और पृथ्वी में बोये हुए बीज की भाँति वे शीघ्र ही फल भी देते हैं। बाबाजी ! यदि मैं गरजता हूँ तो आपका क्या नुकसान होता है ? देखियेगा मेरी गर्जना का फल, जबतक मैं कृष्ण और सात्यकि के साथ संपूर्ण पाण्डव का वध करके पृथ्वी का अकण्टक राज्य दुर्योधन को दे डालूँगा।‘ कृपाचार्य बोले___ सूतपुत्र ! मुझे तुम्हारे इस मनसूबे बाँधने और प्रसार करने पर विश्वास नहीं है। तुम तो श्रीकृष्ण, अर्जुन और धर्मराज युधिष्ठिर को सदा ही कोसते रहते हो। परंतु विजय उसी पक्ष की निश्चित है, जहाँ युद्धकुशल श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं। यदि देवता, गन्धर्व, यक्ष, मनुष्य, सर्प, राक्षस भी कवच धारण करके युद्ध करने आवें तो उन दोनों को नहीं जीत सकते। धर्मपुत्र युधिष्ठिर ब्राह्मणभक्त, सत्यवादी, जितेन्द्रिय, गुरु और देवताओं का सम्मान करनेवाले, सदा धर्मपरायण, अस्त्रविद्या में कुशल, धैर्यवान् और कृतज्ञ जिनके बल की कोई सीमा नहीं है और वे भगवान् श्रीकृष्ण भी जिनके लिये कवच धारण करके तैयार हैं, उन शत्रुओं को जीतने का साहस तुम कैसे कर रहे हो ? यह सुनकर कर्ण ने हँसकर कहा___ बाबा ! तुमने पाण्डवों के विषय में जो कुछ कहा है, वह सब सच है। इतने ही नहीं और भी बहुत_से गुण पाण्डवों में हैं। यह भी ठीक है कि उन्हें इन्द्र आदि देवता, दैत्य, यक्ष, गन्धर्व, पिशाच, नाग और राक्षस भी नहीं जीत सकते, तो भी मैं उनपर विजय पाऊँगा। मुझे इन्द्र ने एक अमोघ शक्ति दे रखी है, उसके द्वारा मैं युद्ध में अर्जुन को मार डालूँगा। उनके मरने पर उनके सहोदर भाई किसी तरह पृथ्वी का राज्य नहीं भोग सकते। उन सबका नाश हो जाने पर समुद्र सहित यह सारी पृथ्वी अनायास ही कुरुराज के वश में हो जायगी। तुम तो स्वयं बूढ़े होने के कारण युद्ध करने में असमर्थ हो, साथ ही पाण्डवों पर तुम्हारा स्नेह है; इसलिये मोहवश मेरा अपमान कर रहे हो। किन्तु याद रखो, यदि मेरे विषय में फिर से कोई अप्रिय बात मुँह से निकालोगे तो तलवार से तुम्हारी जीभ काट लूँगा। दुर्बुद्धि ब्राह्मण ! तुम कौरवों को डराने के लिये पाण्डवों की स्तुति करना चाहते हो ? तो मैं पाण्डवों का कोई विशेष प्रभाव नहीं देखता; दोनों ही पक्ष में सेनाओं का समान रूप ले संहार हो रहा है। द्विजधाम ! जिन्हें तुम विशेष बलवान् लमझते हो, उनके साथ मैं पूरी शक्ति लगाकर युद्ध करूँगा। विजय तो प्रारब्ध के अधीन है। सूतपुत्र कर्ण को अपने मामा के प्रति कठोर भाषण करते देख अश्त्थामा हाथ में तलवार ले बड़े वेग से कर्ण की ओर झपटा। दुर्योधन के देखते_ देखते वह कर्ण के पास आ पहुँचा और अत्यन्त क्रोध में भरकर बोला___’अरे नीच !  मेरे मामा शूरवीर हैं और ये अर्जुन के सच्चे गुणों का कीर्तन कर रहे हैं; तो भी तू अर्जुन से द्वेष होने के कारण इनका तिरस्कार कर रहा है ! तू अपनी ही शूरता की डींग हाँका करता है; कि किन्तु जब तुझे हराकर अर्जुन ने तेरे देखते_ देखते जयद्रथ का वध किया, उस समय कहाँ था तेरा पराक्रम ? और कहाँ गये थे तेरे अस्त्र_ शस्त्र ?  जिन्होंने युद्ध में साक्षात् महादेवजी को संतुष्ट किया है, उन्हें जीतने का तू व्यर्थ ही मंसूबे बाँधा करता है।  श्रीकृष्ण के साथ रहते अर्जुन को इन्द्र आदि देवता और असुर भी नहीं हरा सकते, फिर तू कैसे जीत सकता है ? नराधम ! खड़ा रह, अभी तेरा सिर धड़ से अलग करता हूँ।
यह कहकर वह बड़े वेग से कर्ण की ओर बढा; किन्तु स्वयं राजा दुर्योधन और कृपाचार्य ने  उसे पकड़कर रोक लिया। कर्ण कहने लगा___’यह दुर्बुद्धि नीच ब्राह्मण अपने को बड़ा शूर और लड़ाका समझता है। कुरुराज ! तुम रोको मत, छोड़ दो; जरा इसे अपने पराक्रम का मजा चखा दूँ। अश्त्थामा ने कहा___मूर्ख सूचपुत्र ! तेरा यह अपराध हम तो सहे लेते हैं, किन्तु अर्जुन तेरे इस बढ़े हुए घमंड का अवश्य नाश करेगा।
दुर्योधन बोला___ भाई अश्त्थामा ! शान्त हो जाओ। तुम तो दूसरों को सम्मान देनेवाले हो, इस अपराध को क्षमा करो। तुम्हें कर्ण पर किसी तरह क्रोध नहीं करना चाहिये। विप्रवर ! मैंने तो तुमपर और कर्ण, कृप, द्रोण, शल्य तथा शकुनि पर ही इस महान् कार्य का भार दे रखा है। इस प्रकार राजा के मनाने से अश्त्थामा का क्रोध शान्त हो गया। कृपाचार्य का स्वभाव भी बड़ा कोमल था, वे शीघ्र ही संजय होकर बोले___’सूतपुत्र ! हम तो तेरे अपराध को क्षमा कर देते हैं, परंतु तेरे बढ़े हुए घमण्ड का अर्जुन अवश्य नाश करेगा।‘