Sunday 25 December 2016

उद्योग-पर्व---दुर्योधन की कुमंत्रणा, भगवान् का विश्वरूपदर्शन और कौरवसभा से प्रस्थान

दुर्योधन की कुमंत्रणा, भगवान् का विश्वरूपदर्शन और कौरवसभा से प्रस्थान
माता के कहे हुए इन नीतियुक्त वाक्यों पर दुर्योधन ने कुछ भी ध्यान नहीं दिया और वह बड़े क्रोध से सभा को छोड़कर अपने दुष्टबुद्धि मंत्रियों के पास चला आया।फिर दुर्योधन, कर्ण, शकुनि और दुःशासन---इन चारों ने मिलकर यह सलाह की कि 'देखो, यह कृष्ण राजा धृतराष्ट्र और भीष्म के साथ मिलकर हमें कैद करना चाहता है; सो पहले हमींलोग इसे बलात् कैद कर लें। कृष्ण को कैद हुआ सुनकर पाण्डवों का सारा उत्साह ठण्डा पड़ जायगा और वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो जायेंगे। सात्यकि इशारों से ही दूसरों के मन की बात जान लेते थे। वे तुरंत ही उनका भाव ताड़ गये और सभा से बाहर आकर कृतवर्मा से बोले, 'शीघ्र ही सेना सजाओ और जबतक मैं इनके कुविचार की श्रीकृष्ण को सूचना दूँ, तुम स्वयं कवच धारण कर सेना को व्यूहरचना की रीति से खड़ी करके सभाभवन के द्वार पर आ जाओ।' फिर सिंह जैसे गुफा में जाता है, उसी प्रकार सभा में जाकर उन्होंने श्रीकृष्ण से उनका वह कुविचार कह दिया। फिर वे मुस्कुराकर राजा धृतराष्ट्र और विदुर से कहने लगे, 'सत्पुरुषों की दृष्टि में दूत को कैद करना धर्म, अर्थ और काम के सर्वथा विरुद्ध है; किन्तु ये मूर्ख यही करने का विचार कर रहे हैं। इनका यह मनोरथ किसी प्रकार पूरा नहीं हो सकता। ये बड़े ही क्षुद्रहृदय हैं; इन्हेंनहीं सूझता कि श्रीकृष्ण को कैद करना वैसा ही है, जैसे कोई बालक जलती हुई आग कोकपड़े में लपेटना चाहे।' सात्यकि की यह बात सुनकर दीर्घदर्शी विदुरजी ने धृतराष्ट्र से कहा---'राजन् ! मालूम होता है आपके सभी पुत्रों को मौत ने घेर रखा है; इसलिये वे न करने योग्य और अपयश की प्राप्ति करनेवाला काम करने पर कमर कसे हुए हैं। देखिये न, ये लोग आपस में मिलकर बलात् इन कमलनयन श्रीकृष्ण का तिरस्कार करके इन्हे कैद करने का विचार कर रहे हैं ! किन्तु ये नहीं जानते कि आग के पास जाे ही जैसे पतंगे नष्ट हो जाते हैं, उसी तरह श्रीकृष्ण के पास पहुँचते ही इनका खोज मिट जायगा।' इसके बाद श्रीकृष्ण ने धृतराष्ट्र से कहा---'राजन् !यदि ये क्रोध में भरकर मुझे कैद करने का साहस कर रहे हैं तो आप जरा आज्ञा दे दीजिये; फिर देखें ये मुझे कैद करते हैं या मैं इन्हें बाँध लेता हूँ। अच्छा, यदि मैं इसी समय इन्हें और इनके अनुयायियों को बाँधकर पाण्डवों को सौंप दूँ तो मेरा यह काम अनुचित तो नहीं होगा ? राजन् ! मैं आपके सब पुत्रों को आज्ञा देता हूँ; दुर्योधन की जैसी इच्छा है, वह वैसा कर देखे।' इस पर महाराज धृतराष्ट्र ने विदुर से कहा---तुम शीघ्र ही पापी दुर्योधन को ले आओ; संभव है, इस बार मैं उसके अनुयायियों सहित उसे ठीक रास्ते पर ला सकूँ।' विदुरजी ने दुर्योधन की इच्छा न होने पर भी उसे फिर सभा में ले आये। इस समय उसके भाई और राजालोग भी उसके साथ ही लगे हुए थे।तब राजा धृतराष्ट्र ने उससे कहा, 'क्या रे कुटिल दुर्योधन ! तू अपने पापी साथियों के साथ मिलकर एकदम पापकर्म करने पर ही उतारू हो गया है ?  याद रख, तुझ जैसा मूढ़ और कुलकलंक पुरुष जो कुछ करने का विचार करेगा, वह कभी पूरा नहीं होगा; उससे सत्पुरुष तेरी निंदा करेंगे। कहते हैं तू अपने पापी साथियों से मिलकर इन श्रीकृष्ण को कैद करना चाहता है ? सो इन्हें तो इन्द्र के सहित सब देवता भी अपने काबू में नहीं कर सकते। तेरा यह दुःसाहस तो ऐसा है, जैसे कोई बालक चन्द्रमा को पकड़ना चाहे। मालूम होता है तुझे श्रीकेशव के प्रभाव का कुछ भी पता नहीं है। अरे ! जैसे वायु को हाथ से नहीं पकड़ा जा सकता और पृथ्वी को सिरपर नहीं उठाया जा सकता, वैसे ही श्रीकृष्ण को कोई बल से नहीं बाँध सकता।' इसके बाद विदुरजी बोले---दुर्योधन ! तू मेरी बात सुनो। देखो, श्रीकृष्ण को कैद करने का विचार नरकासुर ने भी किया था; किन्तु सब दानवों के साथ मिलकर भी वह ऐसा नहीं कर सका। फिर तुम इन्हें अपने बल-बूते पर पकड़ने का साहस कैसे करते हो ? इन्होंने बाल्यावस्था में ही पूतना और बकासुर को मार डाला था, गोव्धन पर्वत को हाथ में उठा लिया था तथा अरिष्ठासुर, धेनुकासुर, चाणूर, केशी और कंस को भी धूल में मिला दिया था। इसके सिवा ये जरासन्ध दानव का, शिशुपाल, वाणासुर तथा और भी अनेकों राजाओं को नीचा दिखा चुके हैं। साक्षात् वरुण, अग्नि और राजाओं को नीचा दिखा चुके हैं। अपने अन्य अवतारों में ये मधु कैटभ और हयग्रीवादी अनेक दैत्यों को पछाड़ चुके हैं। ये संपूर्ण प्रवृतियों के प्रेरक हैं, किन्तु स्वयं किसी की भी प्रेरणा से कोई काम नहीं करते। ये ही सकल पुरुषार्थों के कारण हैं। ये जो कुछ करना चाहें वही काम अनायास कर सकते हैं। तुम्हें इनके प्रभाव का पता नहीं है। देखो, यदि तुम इनका तिरस्कार करने का साहस करोगे तो उसी प्रकार तुम्हारा नाम-निशान मिट जायगा, जैसे अग्नि में गिरकर पतंगा नष्ट हो जाता है। विदुरजी का वक्तव्य समाप्त होने पर भगवान् कृष्ण ने कहा---'दुर्योधन ! तुम तो अज्ञानवश यह समझते हो कि मैं अकेला हूँ और मुझे दबाकर कैद करना चाहते हो, सो याद रखो, समस्त पाण्डव और वृष्णि तथा अंधकवंशीय यादव भी यहीं हैं। वे ही नहीं, आदित्य, रुद्र, वसु और समस्त महर्षिगण भी यहीं मौजूद हैं।' ऐसा कहकर शत्रुदमन श्रीकृष्ण ने अट्टहास किया। बस, तुरन्त ही उनके सब अंगों में बिजली-सी कान्तिवाले अंगष्टाकार सब देवता दिखायी देने लगे। उनके ललाटदेश में ब्रह्मा, वक्षःस्थल में रुद्र, भुजाओं में लोकपाल और मुख में अग्निदेव थे। आदित्य, साध्य, वसु, अश्विनीकुमार, इन्द्र सहित मरुद्गण, यक्ष, गन्धर्व और राक्षस---ये सब उनके शरीर से अभिन्न जान पड़ते थे। उनकी दोनो भुजाओं से बलभद्र और अर्जुन प्रकट हुए। उनमें धनुर्धर अर्जुन दाहिनी ओर और हलधर बलराम बायीं ओर थे।भीम, युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव उनके पृष्ठभाग में थे तथा प्रद्युम्नादि अंधक और वृष्णिवंशी यादव अस्त्र-शस्त्र लिये उनके आगे दीख रहे थे। उस समय श्रीकृष्ण के अनेकों भुजाएँ दिखायी देती थीं। उनमें वे शंख, चक्र, गदा, शक्ति, धनुष, हल और नन्दक खड्ग लिये हुए थे। उनके नेत्र, नासिका और कर्णरन्ध्रों से बड़ी भीषण आग की लपटें तथा सूर्य की-सी किरणें निकल रही थीं। श्रीकृष्ण के इस भयंकर रूप को देखकर सब राजाओं ने भयभीत होकर नेत्र मूँद लिये। केवल द्रोणाचार्य, भीष्म, विदुर, संजय और ऋषिलोग ही उसका दर्शन कर सके; क्योंकि भगवान् ने उन्हे दिव्यदृष्टि दे दी थी। सभाभवन में भगवान् का यह अद्भुत कृत्य देखकर देवताओं की दुंदुभियों का शब्द होने लगा तथा आकाश से पुष्पों की झड़ी लग गयी। तब राजा धृतराष्ट्र ने कहा, 'कमलनयन ! सारे संसार के हितकर्ता आप ही हैं, अतः आप हमपर कृपा कीजिये। मेरी प्रार्थना है कि इस समय मुझे दिव्य नेत्र प्राप्त हों; मैं केवल आपही के दर्शन करना चाहता हूँ, फिर किसी दूसरे को देखने की मेरी इच्छा नहीं है।' इसपर भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा, 'कुरुनन्दन तुम्हारे अदृश्यरूप से दो नेत्र हो जायँ।' जब सभा में बैठे हुए राजा और ऋषियों ने देखा कि महाराज धृतराष्ट्र को नेत्र प्राप्त हो गये हैं तो उन्हें बड़ा ही आश्चर्यहुआ और वे श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगे।उस समय पृथ्वी डगमगाने लगी, समुद्र में खलबली पड़ गयी और सब राजा भौचक्के-से रह गये। फिर भगवान् ने उस स्वरूप को तथा अपनी दिव्य, अद्भुत और चित्र-विचित्र माया को समेट लिया। इसके पश्चात् वे ऋषियों से आज्ञा ले सात्यकि और कृतवर्मा का हाथ पकड़े सभाभवन से चल दिये। उनके चलते ही नारदा दि ऋषि भी अन्तर्धान हो गये। श्रीकृष्ण को जाते देख राजाओं के सहित सब कौरव भी उनके पीछे-पीछे चलने लगे। किन्तु श्रीकृष्ण ने उन राजाओं की ओर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। इतने में ही दारुक उनका दिव्य रथ सजाकर ले आया। भगवान् रथ पर सवार हुए। उनके साथ ही महारथी कृतवर्मा भी चढ़ता दिखायी दिया। इस प्रकार जब वे जाने लगे तो महाराज धृतराष्ट्र ने कहा, 'जनार्दन ! पुत्रों पर मेा बल कितना काम करता है---यह आपने प्रत्यक्ष ही देख लिया। मैं तो चाहता हूँ कि किसी प्रकार कौरव पाण्डवों में मेल हो जाय और इसके लिये प्रयत्न भी करता हूँ। किन्तु अब मेरी दशा देखकर आप मुझपर संदेह न करें।' इसपर भगवान् कृष्ण ने राजा धृतराष्ट्र, द्रोणाचार्य, भीष्म, विदुर, कृपाचार्य और बाह्लीक से कहा---'इस समय कौरवों की सभामें जो कुछ हुआ है, वह आपने प्रत्यक्ष देख लिया तथा यह बात भी आप सबके सामने ही की है कि मंदबुद्धि दुर्योधन किस प्रकार फुनककर सभा से चला गया था। महाराज धृतराष्ट्र भी इस विषय में अपने को असमर्थ बता रहे हैं। अतः अब मैं आपसे आज्ञा चाहता हूँ और राजा युधिष्ठिर के पास जाता हूँ।' इस प्रकार आज्ञा लेकर जब भगवान् रथ में चढ़कर चलने लगे तो भीष्म, द्रोण, कृप, विदुर, धृतराष्ट्र, बह्लीक, अश्त्थामा, विकर्ण और युयुत्सु आदि कौरववीर कुछ दूर उनके पीछे गये। इसके बाद उन सबके देखते-देखते भगवान् अपनी बुआ कुन्ती से मिलने गये।

Tuesday 20 December 2016

उद्योग-पर्व---दुर्योधन और श्रीकृष्ण का विवाद, दुर्योधन का सभा त्याग, धृतराष्ट्र का गान्धारी को बुलाना और उसका दुर्योधन को समझाना

दुर्योधन और श्रीकृष्ण का विवाद, दुर्योधन का सभा त्याग, धृतराष्ट्र का गान्धारी को बुलाना और उसका दुर्योधन को समझाना

ये अप्रिय बातें सुनकर राजा दुर्योधन ने श्रीकृष्ण से कहा, 'केशव ! आपको अच्छी तरह सोच-समझकर बोलना चाहिये। आप तो पाण्डवों के प्रेम की दुहाई देकर उल्टी-सीधी बातें करते हुए बिशेषरूप से मुझे ही दोषी ठहरा रहे हैं। सो क्या आप बलाबल का विचार करके ही सर्वदा मेरी निंदा किया करते हैं? मैं देखता हूँ आप, विदुरजी, पिताजी, आचार्यजी और दादाजी अकेले मेर ही ऊपर सारे दोष लाद रहे हैं। मैने तो खूब विचारकर देख लिया, मुझे अपना कोई भी बड़े-से-बड़ा या छोटे-से-छोटा दोष दिखायी नहीं देता। पाण्डवलोग अपने ही शौक से जूआ खेलने में प्रवृत हुए थे; उसमें मामा शकुनि ने उनका राज्य जीत लिया, इसी से उन्हें वन जाना पड़ा। बताइये, इसमें मेरा क्या अपराध था, जो हमारे साथ वैर ठानकर वे विरोध कर रहे हैं ? हम जानते हैं पाण्डवों में हमारा सामना करने की शक्ति नहीं है, फिर भी बड़े उत्साह के साथ वे हमारे प्रति शत्रुओं का-सा वर्ताव क्यों कर रहे हैं ? हम उनके भयानक कर्मों को देखकर या आपलोगों की भीषण बातों को सुनकर डरनेवाले नहीं है। इस प्रकार तो हम इन्द्र के सामने भी नहीं झुक सकते। कृष्ण ! हमें तो ऐसा कोई भी क्षत्रिय दिखायी नहीं देता, जो युद्ध में हमें जीतने की हिम्मत रखता हो। भीष्म, द्रोण, कृप और कर्ण को तो देवतालोग भी युद्ध में नहीं जीत सकते; पाण्डवों की तो बात ही क्या है ? फिर स्वधर्म का पालन करते हुए हम यदि युद्ध में काम ही आ गये तो स्वर्ग प्राप्त करेंगे। यह तो क्षत्रियों का प्रधान धर्म है। इस प्रकार यदि हमें युद्ध में वीरगति प्राप्त हुई तो कोई पछतावा नहीं होगा; क्योंकि उद्योग करना ही पुरुष का धर्म है। ऐसा करते हुए मनुष्य चाहे नष्ट भले ही हो जाय, किन्तु उसे झुकना नहीं चाहिये। मुझ-जैसा वीर पुरुष तो धर्म रक्षा के लिये केवल ब्राह्मणों को नमस्कार करता है और किसी को कुछ भी नहीं समझता। यही क्षत्रिय का धर्म है और यही मेरा मत है। पिताजी मुझे पहले जो राज्य का भाग दे चुके हैं, उसे मेरे जीवित रहते कोई ले नहीं सकता। मेरी बाल्यावस्था में अज्ञान या भय के कारण ही पाण्डवों को राज्य मिल गया था। अब वह उन्हें फिर नहीं मिल सकता। केशव ! जबतक मैं जीवित हूँ, तबतक तो पाण्डवों को इतनी भूमि भी नहीं दे सकता जितनी कि एक बारीक सूई की नोक से छिद सकती है। दुर्योधन की ये बातें सुनकर श्रीकृष्ण की त्यौरी चढ़ गयी। फिर उन्होंने कुछ देर बिचारकर कहा---"दुर्योधन ! यदि तुम्हें वीरशय्या की इच्छा है तो कुछ दिन अपने मंत्रियों के सहित धैर्य धारण करो। तुम्हे अवश्य वही मिलेगी और तुम्हारी यह कामना पूर्ण होगी। पर याद रखो, बड़ा भारी जनसंहार होगा। और तुम जो ऐसा मानते हो कि पाण्डवों के साथ मेरा कोई दुर्व्यवहार नहीं हुआ, सो इस विषयमें यहाँ जो राजा लोग उपस्थित हैं वे ही विचार करें। देखो, पाण्डवों के वैभव से जल-भुनकर तुमने और शकुनि ने ही तो जूआ खेलने की खोटी सलाह की थी। जूआ तो भले आदमियों की बुद्धि को भ्रष्ट करनेवाला है ही। जो दुष्ट पुरुष इसमें प्रवृत होते हैं, उनमें कलह और क्लेश की ही वृद्धि होती है। और तुमने द्रौपदी को सभा में बुलाकर खुल्लमखुल्ला जैसी-जैसी अनुचित बातें कहीं थी, अपनी भाभी के साथ ऐसी कुचाल क्या कोई भी कर सकता है ? अपने सदाचारी, अलोलुप और सर्वदा धर्म का आचरण करनेवाले भाइयों के साथ कौन भला आदमी ऐसा दुर्व्यवहार कर सकता है ?  उस समय कर्ण, दुःशासन और तुमने क्रूर और नीच पुरुषों के समान अनेकों कटु शब्द कहे थे। तुमने वारणावत में बालक पाण्डवों को उनकी माता के सहित फूँक डालने का बड़ा भारी यत्न किया था। उस समय पाण्डवों को बहुत सा समय अपनी माता के सहित छिपे-छिपे एकचक्रा नगरी में बिताना पड़ा था। इसके सिवा विष देने आदि अनेकों उपायों से तुम पाण्डवों के मारने का यत्न करते रहे हो; परन्तु तुम्हारा कोई उद्योग सफल नहीं हुआ। इस प्रकार पाण्डवों के प्रति तुम्हारी सर्वदा खोटी बुद्धि और कपटमय आचरण रहा है। फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि महात्मा पाण्डवों के प्रति तुम्हारा कोई अपराध नहीं है। यदि तुम पाण्डवों को उनका पैतृक भाग नहीं दोगे तो पापात्मन् ! याद रखो, तुम्हे ऐश्वर्य से भ्रष्ट होकर और उनके हाथ से मरकर वह देना पड़ेगा। तुमने कुटिल पुरुषों के समान पाण्डवों के साथ अनेकों न करने योग्य काम किये हैं और आज भी तुम्हारी उल्टी चाल ही दिखायी दे रही है। तुम्हारे माता-पिता, पितामह, आचार्य और विदुरजी बार-बार कह रहे हैं कि तुम सन्धि कर लो; फिर भी तुम सन्धि करने को तैयार नहीं हो। अपने इन हितैषियों की बात को न मानकर तुम कभी सुख नहीं पा सकते। तुम जो काम करना चाहते हो, वह तो अधर्म और अपयश का ही कारण है।' जिस समय भगवान् कृष्ण यह सब बातें कह रहे थे, उस समय बीच ही में दुःशासन दुर्योधन से कहने लगा, राजन् ! आप यदि आप अपनी इच्छा से पाण्डवों के साथ सन्धि नहीं करेंगे तो मालूम होता है ये भीष्म, द्रोण और हमारे पिताजी आपको, मुझे और कर्ण को बाँधकर पाण्डवों के हाथ में बाँधकर पाण्डवों के हाथ में सौंप देंगे।'  भाई की यह बात सुनकर दुर्योधन का क्रोध और बढ़ गया और वह साँप की तरह फुँफकार मारता हुआ विदुर, धृतराष्ट्र, बाह्लीक, कृप, सोमदत्त, भीष्म, द्रोण और श्रीकृष्ण---इन सभी का तिरस्कार कर वहाँ से चलने को तैयार हो गया। उसे जाते देख उसके भाई, मंत्री और सब राजालोग भी सभा छोड़कर चल दिये। तब पितामह भीष्म ने कहा, 'राजकुमार दुर्योधन बड़ा दुष्टचित्त है। वह दूषित उपायों का ही आश्रय लेता है। इसे राज्य का झूठा अभिमान है तथा क्रोध और लोभ ने इसे दबा रखा है। श्रीकृष्ण ! मैं तो समझता हूँ इन सब क्षत्रियों का काल आ गया है। इसी से अपने मंत्रियों के सहित ये सब दुर्योधन का अनुसरण कर रहे हैं।' भीष्म की ये बातें सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा---'कौरवों में जो बयोवृद्ध हैं, उन सभी की यह बड़ी भूल है कि वे ऐश्वर्य के मद से उन्मत्त दुर्योधन को बलात् कैद नहीं कर लेते। इस विषय में मुझे जो बात मुझे स्पष्टतया हित की जान पड़ती है, वह मैं आपसे साफ-साफ कहे देता हूँ।  आपको यदि यह अनुकूल और रुचिकर जान पड़े तो कीजियेगा। देखिये, भोजराज उग्रसेन का पुत्र कंस बड़ा दुराचारी और दु्बुद्धि था।  उसने पिता के जीवित रहते उनका राज्य छीन लिया था। अन्त में उसे प्राणों से हाथ धोना पड़ा। अतः आपलोग भी दुर्योधन, कर्ण, शकुनि और दुःशासन---इन चारों को बाँधकर पाण्डवों को सौंप दीजिये। कुल की रक्षा लिये एक पुरुष को, ग्राम की रक्षा लिये कुल को , देश की रक्षा के लिये ग्राम को, और अपनी रक्षा के लिये सारी पृथ्वी को त्याग देना चाहिये। इसलिये आपलोग भी दुर्योधन को कैद करके पाण्डवों से सन्धि कर लीजिये। इससे आपके कारण इन सब क्षत्रियों का नाश तो न होगा।' श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर राजा धृतराष्ट्र ने विदुर से कहा---"भैया ! तुम परम बुद्धिमती गान्धारी के पास जाओ और उसे यहाँ लिवा लाओ। मैं उसके साथ दुरात्मा दुर्योधन को समझाऊँगा।' तब विदुरजी दीर्घदर्शिनी गान्धारी को सभा में ले आये। उससे धृतराष्ट्र ने कहा, 'गान्धारी ! तुम्हारा यह दुष्ट पुत्र मेरी बात नहीं मानता। इसने अशिष्ट पुरुषों के समान सब मर्यादा छोड़ दी है। देखो, वह हितैषियों की बात न मानकर इस समय अपने पापी और दुष्ट साथियों के सहित सभा से चला गया है।' पति की यह बात सुनकर गान्धारी ने कहा---राजन् ! आप पुत्र के मोह में फँसे हुए हैं, इसलिये इस विषय में आप ही अधिक दोषी हैं। आप यह जानकर भी कि दुर्योधन बड़ा पापी है, उसी की बुद्धि के पीछे चलते रहे हैं। दुर्योधन को भी तो काम, क्रोध और लोभ ने अपने चंगुल में फंसा रखा है। अब आप बलात् भी उसे इस मार्ग से नहीं हटा सकेंगे। आपने इस मूर्ख, दुरात्मा, कुसंगी और लोभी पुत्र को बिना कुछ सोचे-समझे राज्य की बागडोर सँभला दी; उसी का आप यह फल भोग रहे हैं। आप अपने घर में जो फूट पड़ रही है, उसकी उपेक्षा क्यों करते हैं ? इस तरह स्वजनों के फूटने पर तो शत्रुलोग आपकी हँसी करेंगे। देखिये, यदि साम या भेद से ही विपत्ति टल सकती है तो तो कोई भी बुद्धिमान् स्वजनों के दण्ड का प्रयोग क्यों करेगा ? इसके बाद राजा धृतराष्ट्र और गान्धारी के कहने से विदुरजी दुर्योधन को फिर सभा में लिवा लाये। दुर्योधन की आँखें क्रोध से लाल हो रहीं थी और वह सर्प के समान फुफकारें-सी भर रहा था। इस समय माता क्या कहती हैं---यह सुनने के लिये फिर राजसभा में आ गया। तब गान्धारी ने दुर्योधन को झिड़ककर संधि करने के लिये इस प्रकार कहा, 'बेटा दुर्योधन ! मेरी यह बात सुनो। इससे तुम्हारा और तुम्हारी संतान का हित होगा तथा भविष्य में भी तुम्हे सुख मिलेगा। तुमसे तुम्हारे पिता, भीष्मजी, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और विदुरजी ने जो बात कही है, उसे तुम स्वीकार कर लो। यदि तुम पाण्डवों से सन्धि कर लोगे तो, सच मानो, इससे पितामह भीष्म की, पिताजीकी, मेरी और द्रोणाचार्य आदि अपने हितैषियों की तुम्हारे द्वारा बड़ी सेवा होगी। भैया ! राज्य को पाना, बचाना और भोगना अपने वश की बात नहीं है। जो पुरुष जितेन्द्रिय होता है, वही राज्य की रक्षा कर सकता है। काम और क्रोध तो मनुष्य को अर्थ से च्युत कर देते हैं। हाँ, इन दोनो शत्रुओं को जीतकर तो राजा सारी पृथ्वी को जीत सकता है। जिस प्रकार उद्दण्ड घोड़े मार्ग ही में मूर्ख सारथि को मार डालते हैं, उसी प्रकार यदि इन्द्रियों को काबू में न रखा जाय तो वे मनुष्य का नाश करने के लिये भी पर्याप्त है। जो पुरुष पहले अपने मन को जीत लेता है, उसकी अपने मंत्रियों और शत्रुओं को जीतने की इच्छा भी व्यर्थ नहीं जाती। इस प्रकार इन्द्रियाँ जिसके वश में है,मंत्रियों पर जिसका अधिकार है, अपराधियों को जो दण्ड दे सकता है और जो सब काम सोच समझकर करता है, उसके पास चिरकाल तक लक्ष्मी बनी रहती है। तात ! भीष्मजी और द्रोणाचार्यजी ने जो कुछ कहा है, वह ठीक ही है। वास्तव में, श्रीकृष्ण और अर्जुन को कोई नहीं जीत सकता। इसलिये तुम श्रीकृष्ण की शरण लो। यदि ये प्रसन्न होंगे तो दोनो ही पक्षों का हित होगा। भैया ! युद्ध करने में कल्याण नहीं है। उसमें धर्म और अर्थ ही नहीं है, तो सुख कहाँ से होगा ? युद्ध में विजय मिल ही जायगी---ऐसा भी नहीं कहा जा सकता; इसलिये तुम युद्ध में मन मत लगाओ। यदि तुम अपने मंत्रियों सहित राज्य भोगना चाहते हो तो पाण्डवों का जो न्यायोचित भाग है, वह उन्हें दे दो। पाण्डवों को जो तेरह वर्ष तक घर से बाहर रखा गया, वह भी बड़ा अपराध हुआ है। अब सन्धि करके तुम इसका मार्जन कर दो। तुम जो पाण्डवों का भाग भी हड़पना चाहते हो वैसा करने की तुम्हारी शक्ति नहीं है और ये कर्ण तथा दुःशासन भी ऐसा कर नहीं सकेंगे। तुम्हारा जो ऐसा विचार है कि भीष्म, द्रोण और कृप आदि महारथी अपनी पूरी शक्ति से मेरी ओर से युद्ध करेंगे---यह भी सम्भव नहीं है; क्योंकि इन आत्मज्ञों की दृष्टि में तो तुम्हारा और पाण्डवों का समान स्थान है। इसलिये इनके लिये तुम दोनो का राज्य और प्रेम भी समान ही है तथा धर्म को को ये उससे अधिक मानते हैं। इस राज्य का अन्न खाने के कारण ये अपने प्राण भले ही त्याग दें, किन्त राजा युधिष्ठिर की ओर कभी टेढ़ी दृष्टि नहीं करेंगे। तात ! संसार में लोभ करने से किसी को सम्पत्ति नहीं मिलती। अतः तुम लोभ छोड़ दो और पाण्डवों से सन्धि कर लो।

Thursday 8 December 2016

उद्योग-पर्व---श्रीकृष्ण का दुर्योधन को समझाना तथा भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र के द्वारा उनका समर्थन

श्रीकृष्ण का दुर्योधन को समझाना तथा भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र के द्वारा उनका समर्थन
भगवान् वेदव्यास, भीष्म और नारदजी ने भी दुर्योधन को अनेक प्रकार से समझाया। उस समय नारदजी ने जो बातें कहीं थी, वो इस प्रकार हैं---'उस समय नारदजी ने जो बातें कहीं थी, वो इस प्रकार हैं---'संसार में सहृदय श्रोता मिलना कठिन है और हित की बात करनेवाला सुहृद भी दुर्लभ है; क्योंकि जिस संकट में अपने सगे-संबंधी भी साथ छोड़ देते हैं, वहाँ भी सच्चा मित्र संग बना रहता है। अतः कुरुनन्दन तुम्हें अपने हितैषियों की बात पर अवश्य ध्यान देना चाहिये; इस तरह हठ करना ठीक नहीं है, क्योंकि हठ का परिणाम बड़ा ही दुखदायी होता है।' धृतराष्ट्र ने कहा---भगवन् ! आप जैसा कह रहे हैं, ठीक ही है। मैं भी यही चाहता हूँ, परन्तु ऐसा कर नहीं पाता। इसके बाद श्रीकृष्ण से कहने लगे---'केशव ! आपने जो कुछ कहा है वह सब प्रकार सुखप्रद, सद्गति देनेवाला, धर्मानुकूल और न्यायसंगत है; किन्तु मैं स्वाधीन नहीं हूँ। मन्दमति दुर्योधन मेरे मन के अनुकूल आचरण नहीं करता और न शास्त्र का ही अनुसरण करता है। आप किसी प्रकार उसे समझाने का प्रयत्न करें। वह गान्धारी, बुद्धिमान विदुरजी तथा भीष्मादि जो हमारे अन्य हितैषी हैं, उनकी शुभ शिक्षा पर भी कुछ ध्यान नहीं देता। अब स्वयं आप ही इस पापबुद्धि, क्रूर और दुरात्मा दुर्योधन को समझाइये। यदि इसने आपकी बात मान ली तो आपके हाथ से अपने सुहृदों का यह बड़ा भारी काम हो जायगा।' तब सब प्रकार के धर्म और अर्थ के रहस्य को जाननेवाले श्रीकृष्ण मधुर वाणी में दुर्योधन से कहने लगे---'कुरुनन्दन !  मेरी बात सुनो। इससे तुम्हारे परिवार को बड़ा सुख मिलेगा। तुमने बड़े बुद्धिमानों के कुल में जन्म लिया है, इसलिये तुम्हे यह शुभ काम कर डालना चाहिये। तुम जो कुछ करना चाहते हो, वैसा काम तो वे लोग करते हैं, जो नीच कुल में पैदा हुए हैं तथा दुष्टचित्त, क्रूर और निर्लज्ज हैं। इस विषय में तुम्हारी जो हठ है वह बड़ी भयंकर, अधर्मरूप और प्राणों की प्यासी है। उससे अनिष्ट ही होगा। उसका कोई प्रयोजन भी नही है और न वह सफल ही हो सकती है। इस अनर्थ को त्याग देने पर ही तुम अपना तथा अपने भाई, सेवक और मित्रों का हित कर सकोगे तथा तुम जो अधर्म और अपयश की प्राप्ति करनेवाला काम करना चाहते हो, उससे छूट जाओगे। देखो, पाण्डवलोग बड़े बुद्धिमान, शूरवीर, उत्साही, आत्मज्ञ और बहुश्रुत है; तुम उनके साथ सन्धि कर लो। इसी में तुम्हारा हित है और यही महाराज धृतराष्ट्र, पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य, विदुर, कृपाचार्य, सोमदत्त, बाह्लीक, अश्त्थामा, विकर्ण, संजय, विविंशति तथा तुम्हारे अधिकांश बन्धु-बान्धवों और मित्रों को प्रिय भी हैं। भाई ! सन्धि करने में ही सारे संसार की शान्ति है। तुममें लज्जा, शास्त्रज्ञान और अक्रूरता आदि गुण भी हैं। अतः तुम्हे अपने माता-पिता की आज्ञा में ही रहना चाहिये। पिता जो कुछ शिक्षा देते हैं, उसे सब लोग हितकारी मानते हैं। जब मनुष्य बड़ी भारी विपत्ति में पड़ जाता है, तब उसे अपने पिता की ही सीख याद आती है। तुम्हारे पिताजी को तो पाण्डवों से सन्धि करना अच्छा मालूम होता है। अतः तुम्हे और तुम्हारे मंत्रियों को भी यह प्रस्ताव अच्छा लगना चाहिये।जो पुरुष मोहवश हित की बात नहीं मानता, उस दीर्घसूत्री का कोई काम पूरा नहीं होता और कोरा पश्चाताप ही उसके पल्ले पड़ता है। किन्तु जो हित की बात सुनकर अपने मत को छोड़ पहले उसी का आचरण करता है, वह संसार में सुख और समृद्धि को प्राप्त करता है। जो पुरुष अपने मुख्य सलाहकारों को छोड़कर नीच प्रकृति के पुरुषों का संग करता है, वह बड़ी भारी विपत्ति में पड़ जाता है और फिर उसे उससे निकलने का रास्ता नहीं मिलता। 'तात ! तुमने जन्म से ही अपने भाइयों के साथ कपट का व्यवहार किया है; तो भी यशस्वी पाण्डवों ने तुम्हारे प्रति सद्भाव ही रखा है। तुम्हे भी उनके प्रति वर्ताव करना चाहिये। वे तुम्हारे खास भाई ही हैं, उनपर तुम्हे रोष नहीं रखना चाहिये। श्रेष्ठ पुरुष ऐसा काम करते हैं, जो अर्थ, धर्म और काम की प्राप्ति करानेवाला हो; और यदि उससे इन तीनों की सिद्धि होने की सम्भावना नहीं होती तो वे धर्म और अर्थ को ही सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। अर्थ, धर्म और काम---ये तीनों अलग-अलग हैं। बुद्धिमान पुरुष इनमें से धर्म के अनुकूल रहते हैं, मध्यम पुरुष अर्थ को प्रधान मानते हैं और मूर्ख कलह के हेतुभूत काम के गुलाम बने रहते हैं। किन्तु जो पुरुष इन्द्रियों के वशीभूत होकर लोभवश धर् को छोड़ देता है, वह दूषित उपायों से अर्थ और कामप्राप्ति की वासना में फँसकर नष्ट हो जाता है। अतः जो पुरुष अर्थ और काम के लिये उत्सुक हो, उसे पहले धर्म का ही आचरण करना चाहिये। विद्वान् लोग धर्म को ही त्रिवर्ग की प्राप्ति का एकमात्र कारण बताते हैं। जो पुरुष अपने से सद्व्यवहार करनेवाले लोगों से दुर्व्यवहार करता है, वह कुल्हाड़ी से वन के समान आप ही अपनी जड़ काटता है। मनुष्य को चाहिये कि जिसे नीचा दिखाने की इच्छा न हो, उसकी बुद्धि लोभ से भ्रष्ट न करे। इस प्रकार जिसकी बुद्धि लोभ से दूषित नहीं है, उसी का मन कल्याण साधन में लग सकता है। ऐसा शुद्धबुद्धिवाला पुरुष, पाण्वों का तो क्या, संसार में किन्हीं साधारण मनुष्यों का भी अनादर नहीं करता। किन्तु क्रोध के चंगुल में फँसा हुआ मनुष्य अपना हिताहित कुछ नहीं समझता। लोक और वेद में जो बड़े-बड़े प्रमाण प्रसिद्ध हैं, उनसे भी वह गिर जाता है। अतः दुर्जनों की अपेक्षा यदि तुम पाण्डवों का संग करोगे तो तुम्हारा ही कल्याण होगा। तुम जो पाण्डवों की ओर मुँह मोड़कर किसी दूसरे के भरोसे अपनी रक्षा करना चाहते हो तथा दुःशासन, कर्ण और शकुनि के हाथ में अपना ऐश्वर्य सौंपकर पृथ्वी को जीतने की आशा रखते हो; सो याद रखो---ये तुम्हे ज्ञान, धर्म और अर्थ की प्राप्ति नहीं करा सकते। पाण्डवों के मने इनका कुछ भी पराक्रम नहीं चल सकता। तुम्हें साथ रखकर भी ये सब राजा पाण्डवों की टक्कर से नहीं झेल सकते। तुम्हारे पास यह जितनी सेना इकट्ठी हुई है, वह क्रोधित भीमसेन के मुख की ओर तो आँख भी नहीं उठा सकती। ये भीष्म, द्रोण, कर्ण, कृप, भूरिश्रवा, अश्त्थामा और जयद्रथ मिलकर भी अर्जुनका मुकाबला नहीं कर सकते। अर्जुन को युद्ध में परास्त करना तो समस्त देवता, असुर, गन्धर्व और मनुष्यों के भी वश की बात नहीं है। इसलिये तुम युद्ध में अपना मन मत लगाओ।
अच्छा ! भला तुम इन सब राजाओं में कोई ऐसा वीर दिखाओ जो रणभूमि में अर्जुन का सामना करके फिर सकुशल लौट आ सकता हो। इसके लिये विराटनगर में अकेले अर्जुन की अनेकों महारथियों से युद्ध करने की जो अद्भुत बात सुनी जाती है, वही प्रमाण है। अजी ! जिसन संग्राम में साक्षात् श्रीशंकर को भी संतुष्ट कर दिया, उस अजेय और विजयी वीर अर्जुन को तुम जीतने की आशा रखते हो ? फिर जब मैं भी उसके साथ हूँ तब तो, साक्षात् इन्द्र ही क्यों न हो, ऐसा कौन है जो अपने मुकाबले में आये हुए अर्जुन को युद्ध के लिये ललकार सके।जो पुरुष अर्जुन को जीतने की शक्ति रखता है वह तो अपने हाथों से पृथ्वी को उठा सकता है, क्रोध से सारी प्रजा को भष्म कर सकता है और देवताओं को भी स्वर्ग से गिरा सकता है। तुम तनिक अपने पुत्र, भाई, बन्धु-बान्धव और सम्बन्धियों की ओर तो देखो। ये तुम्हारे लिये नष्ट न हों। देखो ! कौरवों का बीज बना रहने दो, इस वंश का पराभव मत करो; अपने को 'कुलघाती' मत कहलाओ और अपनी कीर्ति को कलंकित मत करो। महारथी पाण्डव तुम्हे ही युवराज बनायेंगे और इस साम्राज्य पर तुम्हारे पिता धृतराष्ट्र को ही स्थापित करेंगे। देखो, बड़े उत्साह से अपने पास आती हुई राजलक्ष्मी का तिरस्कार मत करो और पाण्डवों को आधा राज्य देकर यह महान् ऐश्वर्य प्राप्त कर लो। यदि तुम पाण्डवों से सन्धि कर लोगे और अपने हितैषियों का बात मानोगे तो चिरकाल तक अपने मित्रों के साथ आनन्दपूर्क सुख भोगोगे।' श्रीकृष्ण का यह भाषण सुनकर शान्तनुनन्दन भीष्म ने दुर्योधन से कहा---'तात ! अपने सुहृदों का हित चाहनेवाले श्रीकृष्ण ने तुम्हे समझाया है, इसका यही आशय है कि तुम अब भी मान जाओ और व्यर्थ की असहिष्णुता छोड़ दो। यदि तुम महामना श्रीकृष्ण की बात नहीं मानोगे तो तुम्हारा कभी हित नहीं हो सकता और न तुम सुख ही पा सकोगे। श्रीकेशव ने जो कुछ कहा है, वह धर्म और अर्थ के अनुकूल है। तुम उसे स्वीकार कर लो, व्यर्थ प्रजा का संहार मत कराओ। यदि तुम ऐसा नहीं करोगे तो तुम्हे तथा तुम्हारे मन्त्री, पुत्र और बन्धु-बान्धवों को अपने प्राणों से भी हाथ धोने पड़ेंगे। भरतनन्दन ! श्रीकृष्ण, धृतराष्ट्र और विदुर के नीतियुक्त का उल्लंघन कर तुम अपने को कुलघ्न, कुपुरुष, कुमति और कुमार्गगामी मत कहलाओ तथा अपने माता-पिता को शोकसागर में मत डुबाओ।'  इसके बाद द्रोणाचार्य ने कहा---'राजन् ! श्रीकृष्ण और भीष्मजी बड़े बुद्धिमान, मेधावी, जितेनद्रिय, अर्थनिष्ठ और बहुश्रुत हैं। उन्होंने तुम्हारे हित की ही बात कही है, तुम उसे मान लो और मोहवश श्रीकृष्ण का तिरस्कार मत करो। जो लोग तुम्हे युद्ध के लिये उत्साहित कर रहे हैं, उनसे तुम्हारा कुछ भी काम बन नहीं सकेगा; ये तो संग्राम में शत्रुओं के प्रति वैर-विरोध का घण्टा दूसरों के ही गले में ही बाँधेंगे। तुम अपनी प्रजा और पुत्र तथा बन्धु और बान्धवों के प्राणों को संकट में मत डालो। यह बात निश्चय मानो कि जिस पक्ष में श्रीकृष्ण और अर्जुन होंगे, उसे कोई भी जीत नहीं सकेगा। यदि तुम अपने हितैषियों की बात नहीं मानोगे तो पीछे तुम्हे पछतावा ही हाथ लगेगा। परशुरामजी ने अर्जुन के विषय में जो कुछ कहा है, वास्तव में वह उससे भी बढ़कर है, तथा देवकीनन्दन श्रीकृष्ण तो देवताओं के लिये भी दुःसह हैं। किन्तु राजन् ! तुम्हारे सुख और हित की बात कहने से बनता क्या है ? अस्तु, तुमसे सब बातें समझाकर कह दी गयीं; अब जो तुम्हारी इच्छा हो, वह करो। मैं तुमसे और अधिक कुछ नहीं कहना चाहता। इसी बीच में विदुरजी भी बोल उठे---'दुर्योधन ! तुम्हारे लिये तो मुझे कोई चिन्ता नहीं है; मुझे तो तुम्हारे इस बूढ़े माँ-बाप की ओर देखकर ही शोक होता है, जो तुम्हारे-जैसे दुष्टहृदय पुरुष के संरक्षण में होने से एक दिन अपने सब सलाहकार और सुहृदों के मार जाने पर कटे हुए पक्षियों के समान असहाय होकर भटकोगे।' अन्त में राजा धृतराष्ट्र कहने लगे---'दुर्योधन ! महात्मा कृष्ण ने जो बात कही है, वह सब प्रकार कल्याण करनेवाली हैं। तुम उसपर ध्यान दो और उसी के अनुसार आचरण करो। देखो, पुण्यकर्मा श्रीकृष्ण की सहायता से हम सब राजाओं से अपने अभीष्ट पदार्थ प्राप्त कर सकते हैं। तुम इनके साथ राजा युधिष्ठिर के पास जाओ और वह काम करो, जिससे सब भरतवंशियों का मंगल हो। मेरी समझ में तो यह संधि करने का ही समय है, तुम इसे हाथ से मत जाने दो। देखो, श्रीकृष्ण सन्धि के लिये प्रार्थना कर रहे है और तुम्हारे हित की बात कह रहे हैं। इस समय यदि तुम इनकी बात नहीं मानोगे तो तुम्हारा पतन किसी प्रकार नहीं रुक सकेगा।